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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
दोष लगने की सम्भावना है।
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(घ) उञ्छ - मधुकरी या गोचरी वृत्ति के अनुसार प्रत्येक घर से थोड़ा थोड़ा आहार तथा दूसरी वस्तुएं लेना ।
(ङ) प्रतिरिक्त- भीड़ रहित एकान्त स्थान में ठहरना । भीड़ भड़क्के वाले स्थान में कोलाहल होने से चित्त स्थिर नहीं रहता ।
(च) अल्पोपधि - उपधि अर्थात् भण्डोपकरण आदि धर्म साधन थोड़े रखना । वस्त्र, पात्रादि उपकरण अधिक होने से ममत्व हो जाता है और संयम की विराधना होने का डर रहता है।
(छ) कलहविवर्जना- किसी के साथ कलह न करना । मुनियों के लिए उपरोक्त विहारचर्या प्रशस्त मानी गई है । ( ६ ) इस गाथा में भी साधुचर्या का वर्णन है । (क) राज कुल यादि में या जहाँ कोई बड़ा भोज हो रहा हो, आने जाने का मार्ग लोगों से भरा हो, ऐसे स्थान में साधु को भिक्षा के लिए न जाना चाहिए। वहाँ स्त्री तथा सचित्त वस्तु आदि का संघटा हो जाने की सम्भावना है तथा भीड़ भड़क्के में धक्का लग जाने से गिर जाने आदि का डर भी है, इस लिए साधु को ऐसे स्थान में न जाना चाहिए ।
(ख) स्वपक्ष या परपक्ष की ओर से अपना अपमान हो रहा हो तो उसे शान्ति पूर्वक सहन करना चाहिए। क्रोध न करके क्षमाभाव धारण करना चाहिए ।
(ग) उपयोग पूर्वक शुद्ध आहार पानी ग्रहण करना चाहिए । (घ) हाथ या कड़छी आदि के किसी अचित्तद्रव्य द्वारा संसृष्ट (खरड़े हुए) होने पर ही उनसे आहार पानी लेना चाहिए नहीं तो पुरःकर्म दोष की सम्भावना है। भिक्षा देने के लिए हाथ या कड़ी आदि को सचित्त पानी से धोना पुरःकर्म कहलाता है । यदि हाथ वगैरह पहले से ही शाक वगैरह से संसृष्ट अर्थात् भरे हुए हों तो