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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
नदियाँ समुद्र की ओर जाती हैं इस लिए नदी में अनुस्रोत बहती हुई वस्तु समुद्र में जा पहुँचती है। इसी को मनुस्रोत गति कहते हैं । इसी प्रकार विषय भोग रूपी नदी के प्रवाह में पड़ा हुआ जीव संसार समुद्र में जा पहुँचता है । इस लिए विषय भोगों की र जाने को अनुस्रोत कहा है। उनके विरुद्ध संयम या दीक्षा की ओर प्रवृत्त होना प्रतिस्रोत है। इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
(४) जो साधु ज्ञानादि आचारों में पराक्रम करता है तथा इन्द्रिय जय रूप संयम का धनी है अर्थात् चित्त की अव्याकुलता रूप समाधि वाला है उसे योग्य है कि वह श्रनियतवास आदि रूप चर्या, मूल गुण, उत्तरगुण, पिंडविशुद्धि आदि शास्त्र में बताए हुए मार्ग के अनुसार आचरण करे, अर्थात् शास्त्र में जिस समय जो जो क्रियाएं करने के लिए जैसा विधान किया गया है उसी के अनुसार आचरण करे ।
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सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक की गई चारित्र की आराधना मोक्ष रूप फल देने वाली होती है ।
( ५ ) इस गाथा में साधु की विहार चर्या का स्वरूप बताया गया है। नीचे लिखी सात वातें साधुओं के लिए आचरणीय और प्रशस्त अर्थात् कल्याणकारी मानी गई हैं
(क) नियतवास - बिना किसी विशेष कारण के एक ही स्थान पर अधिक न ठहरना अनियतवास है । एक ही स्थान पर अधिक दिन ठहरने से स्थान में ममत्व हो जाने की सम्भावना है।
(ख) समुदानचर्या - अनेक घरों से गोचरी द्वारा भिक्षा ग्रहण करना समुदानचर्या है | एक ही घर से भिक्षा लेने में दोप लगने की सम्भावना है।
(ग) अज्ञात - हमेशा नए घरों से भिक्षा तथा उपकरण लेने चाहिए। एक ही घर से सदा भिक्षा आदि लेने में आधाकर्म आदि