________________ श्री सेठिया जैन मन्थमाला करकापिल्य नगर में द्रुपद राजा के यहाँ पुत्री रूप से उत्पमहुई। उसका नाम द्रौपदी रखा गया / यौवन वय को प्राप्त होने पर राजा द्रुपद ने द्रौपदी का स्वयंवर करवाया जिसमें द्रौपदी ने युधिष्ठिर भादि पाँचों पाण्डवों को वर लिया अर्थात् पति रूप से स्वीकार कर लिया। एक समय नारद ऋषि पाण्डवों के महल में भाये। सबने खड़े होकर ऋषि का आदर सत्कार किया किन्तु द्रौपदी ने उनका आदर सत्कार नहीं किया। इससे नारदजी को बुरा मालूम हुभा। उन्होंने धातकी खण्ड में अपरफङ्का नगरी के राजा पद्मोत्तर के पास जाकर उसके सामने द्रौपदी के रूप लावण्य की प्रशंसा की। पद्मोत्तर राजा ने देवताकी सहायता से द्रौपदी का हरण करवा फर अपने अन्तःपुर में मंगवा लिया। महासती होने के कारण वह उसको वश में नहीं कर सका। कृष्ण वासुदेव के साथ पाँचों पाण्डव अपरफङ्का नगरी में गये और युद्ध में पद्मोत्तरको पराजित करके द्रौपदी को वापिस ले भाये। कई वर्षों तकगृहस्थावास में रहकर पाँचों पाण्डवों ने दीक्षा ली और चारित्र पालन कर सिद्धपद को प्राप्त किया। द्रौपदी ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की,भनेक प्रकार की तपस्या करके वह ब्रह्मदेवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुई। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धिपद को प्राप्त करेगी। इस अध्ययन से यह शिता मिलती है कि नागश्री ने मुनि को कड़वे तुम्वे का शाफ वहराया जो महा मनर्थ का कारण हुआ और नारकी, तिर्यञ्च आदि के भवों में उसे अनेक प्रकार के दुःख उठाने पड़े। सकुमालिका के भव में नियाणा किया जिससे द्रौपदी के भव में उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हुई। इसलिए साधु साध्वी को किसी प्रकार का नियाणा नहीं करना चाहिये।