________________
१३४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
दुर्गति में जाता है।
(११) शिर का छेदन करने वाला शत्रु भी इतना अपकार नहीं कर सकता जितना कुमार्ग पर चल कर यह आत्मा अपना अपकार कर लेती है । जब यह आत्मा कुमार्ग पर चलती है तब अपना भान भी भूल जाती है। जब मृत्यु आकर गला दवाती है तब उसको अपना भूतकाल याद आता है और फिर उसे पश्चात्ताप करना पड़ता है।
(१२) साधुवृत्ति अंगीकार करके उसका यथावत् पालन न करने वाले वेशधारी साधु का सारा कष्ट सहन भी व्यर्थ हो जाता है और उसका सारा पुरुषार्थ विपरीत फल देने वाला होता है। ऐसे भ्रष्टाचारी साधु का इस लोक में अपमान होता है और परलोक में महान् दुखों का भोक्ता बनता है।
(१३) जैसे भोगरस (जिला खाद) में लोलुप (मांस खाने वाला)पक्षी स्वयं दूसरे हिंसक पक्षी द्वारा पकड़ा जाफर खूब परिताप पाता है वैसे ही दुराचारी तथा स्वच्छंदी साधु को जिनेश्वर देव के मार्ग की विराधना करके मृत्यु के समय बहुत पश्चात्ताप करना पड़ता है।
(१४) ज्ञान तथा गुण से युक्त हितशिक्षा को सुन कर वुद्धिमान् पुरुष दुराचारियों के मार्गको छोड़ कर महातपस्वी मुनीश्वरों के मार्ग पर गमन करे।
(१५) इस प्रकार चारित्र के गुणों से युक्त बुद्धिमान साधक श्रेष्ठ संयम का पालन कर निष्पाप हो जाते हैं तथा वे पूर्व संचित कमों का नाश कर अन्त में अक्षय मोक्ष मुख को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार कर्य शत्रुओं के घोर शत्रु, दान्त,महातपस्वी,विपुल यशस्वी, दृढव्रती महामुनीश्वर अनाथी ने अनाथता का सच्चा अर्थ राजा श्रेणिक को सुनाया। इसे मुन कर राजा श्रेणिक अत्यन्त