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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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निर्मूल्य हो जाता है अर्थात् गुणवानों में उसका आदर नहीं होता । ( ६ ) जो रजोहरण, मुखवस्त्रिका यादि मुनि के वाह्य चिन्ह मात्र रखता है और केवल आजीविका के लिए ही वेशधारी साधु बनता है ऐसा पुरुष त्यागी नहीं है और त्यागी न होते हुए भी अपने को झूठमूठ ही साधु कहलवाता है। ऐसे वेशधारी ढोंगी साधु को बहुत काल तक नरक और तिर्यञ्च योनि के अन्दर असा दुःख भोगने पड़ते हैं ।
(७) जैसे - तालपुट विष (ऐसा दारुण विष जो तत्काल माणों का नाश करता है) खाने से, उल्टी रीति से शस्त्र ग्रहण करने से तथा अविधिपूर्वक मंत्र जाप करने से स्वयं धारण करने वाले का ही नाश हो जाता है वैसे ही चारित्र धर्म को अंगीकार करके जो साधु विषय वासनाओं की आसक्ति में फंस कर इन्द्रिय लोलुप हो जाता है वह अपने आप का पतन कर डालता है।
(८) सामुद्रिक शास्त्र, स्वमविद्या, ज्योतिष तथा विविध कौतूहल (जादूगरी) आदि विद्याओं को सीख कर उनके द्वारा श्राजीविका चलाने वाले कुसाधु को अन्त समय में वे कुविद्याएँ शरणभूत नहीं होतीं ।
विद्या वही है जिससे आत्मा का विकास हो । जिससे श्रात्मा का पतन हो वह विद्या, विद्या नहीं किन्तु कुविद्या है।
(६) वह वेशधारी साधु अपने अज्ञान रूपी अन्धकार से सदा दुखी होता है । चारित्रधर्म का यथावत् पालन न कर सकने के कारण वह इस भव में अपमानित होता है और परलोक में नरक आदि के असह्य दुःख भोगता है ।
(१०) जो साध अग्नि की तरह सर्वभक्षी बन कर अपने निमित्त बनाई मोल ली गई अथवा केवल एक ही घर से प्राप्त सदोष भिक्षा ग्रहण किया करता है वह कुसाधु अपने पापों के कारण