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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
'तथास्तु' कह कर धृतराष्ट्र ने सभी पाण्डवों को दासपने से मुक्त कर दिया ।
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दुर्योधन से यह न देखा गया। उसने दुवारा जुआ खेलने के लिए युधिष्ठिर को आमन्त्रित किया । हारा हुआ जुआरी दुगुना खेलता है इसी लोकोक्ति के अनुसार युधिष्ठिर फिर तैयार होगए ।
इस बार यह शर्त रखी गई कि जो हारे वह बारह वर्ष वन में रहे और एक वर्ष गुप्तवास करे। यदि गुप्तवास में उसका पता लग जाय तो फिर वारह वर्ष वन में रहे ।
भविष्य में होने वाली घटना के लिए कारणसामग्री पहले से तैयार होजाती है । महाभारत के महायुद्ध में जो भीषण नरसंहार होने वाला था, उसकी भूमिका पहले से तैयार हो रही थी । शकुनि के पासे सीधे पड़े । युधिष्ठिर हार गए। उन्हें बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का गुप्तवास प्राप्त हुआ। द्रौपदी और पाँच पाण्डवों ने वन की ओर प्रस्थान किया । वे झोंपड़ी बना कर घोर जंगल में रहने लगे ।
एक दिन की बात है । युविष्ठिर अपनी झोंपड़ी में बैठे थे । वाकी चारों भाई जंगल में फल फूल लाने गए हुए थे। पास ही द्रौपदी बैठी थी। बातचीत के सिलसिले में युधिष्ठिर ने लम्बी सॉस छोड़ी। द्रौपदी ने आग्रहपूर्वक निःश्वास का कारण पूछा। बहुत आग्रह होने पर युधिष्ठिर ने कहा- द्रौपदी ! मुझे स्वयं कोई दुःख नहीं है। दुःख तो मुझे तुम्हें देख कर हो रहा है। तुम्हारे सरीखी कोमल राजकुमारी महलों को छोड़ कर वन में भटक रही है, यही देख कर मुझे कष्ट हो रहा है।
द्रौपदी बोली- महाराज ! मालूम पड़ता है मुझे अभी तक आप ने नहीं पहिचाना | जहाँ आप हैं वहाँ मुझे सुख ही सुख है। आप सुख में मेरा सुख है और दुःख में दुःख । विवाह के बाद पहली
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