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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वह.माणिमात्र से मित्रता चाहता था, उन पर आधिपत्य नहीं।
शतानीक के विचार इसके सर्वथा विपरीत थे। वह दिन रात राज्य को बढाने की चिन्ता में लगा रहता था। न्याय और धर्म कागला घोटकर भी वह राज्य और वैभव बढ़ाना चाहता था। जनता पर आतङ्क जमा कर शासन करना अपना धर्म समझता था। अपनी राज्यलिप्सा को पूर्ण करने के लिए निर्दोष प्राणियों को कुचलना, उनके खून से होली खेलनाखेल समझता था।
शतानीक की दृष्टि में समृद्ध चम्पापुरी सदा खटका करती थी। म्याय पूर्वक राज्य करने से फैलने वाली दधिवाहन की कीर्ति भी उसके लिए असह्य हो उठी थी। ईर्ष्यालु जब गुणों द्वाग अपने प्रतिस्पर्दी को नहीं जीत सकता तो वह उसे दूसरे उपायों से नुकसान पहुँचाने की चेष्टा करता है किन्तु उससे उसकी अपकीर्ति ही बढ़ती है, वह अपने स्वार्थ को सिद्ध नहीं कर सकता।
दधिवाहन या चम्पापुरी पर किसी प्रकार का दोष मढ़ कर उस पर चढ़ाई कर देने की चालें शतानीक अपने मन्त्रिमण्डल के साथ सोचा करता था। अपनीचुरी कामना को पूर्ण करने के लिए दसरे पर किसी प्रकार का अपवाद लगा देना, उसे अपराधीषता कर इच्छित वस्तु पर भधिकार जमा लेना, उसे नीचा दिखाने लिए कोई झूठा दोष मढ़ देना तथा मनमानी करते हुए भी स्वयं निर्दोष बने रहना शतानीक की दृष्टि में राजनीति थी।
चम्पापुरी का राज्य हड़पने के लिए शतानीक कोई बहाना देख रहा था, किन्तु दधिवाहन के हृदय में युद्ध करने या किसीका राज्य छीनने की बिल्कुल इच्छा न थी।आसपास के सभी राजाभों से ससकी मित्रतापूर्ण सन्धि थी। इस लिए न उसे किसी शत्र का रथा और न उससे किसी दूसरे को भय था। इसी कारण से उसने राज्य के आन्तरिक प्रमन्त्र के लिए थोड़ी सी सेना रख