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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
नेमिकुमार के सिवाय कोई व्यक्ति उपयुक्त नहीं जान पड़ता था किन्तु नेमिकुमार विवाहहीन करना चाहतेथे। बचपन से ही उन का मन संसार से विरक्त था। यादवों के भोगविलास उन्हें अच्छे नलगते थे। हिंसा पूर्ण कार्यों से स्वाभाविक अरुचिथी। इस कारण महाराज उग्रसेन को चिन्ता हो रही थी कि कहीं राजीमती का विवाह उसके अननुरूप वर से न करना पड़े।। __ महाराज समुद्रविजय और महारानी शिवा देवी भी नेमिकुमार का विवाहोत्सव देखने के लिये उत्कण्ठितथे किन्तु नेमिकुमार की स्वीकृति के बिना कुछ न कर सकते थे। एक दिन उन्होंने नेमिकुमार से कहा- वत्स ! हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि आप सीर्थकर होने वाले हैं। तीर्थङ्करों का जन्म जगत्कल्याण के लिये ही होता है। यह हर्ष की बात है कि आप के द्वारा मोह में फंसे हुए भव्य प्राणियों का उद्धार होगा। किन्तु आपसे पहले भी बहुत से तीर्थङ्कर हो चुके हैं, उन्होंने विवाह किया था, राज्य किया था
और फिर संसार त्याग कर मोक्ष मार्ग को अपनाया था। हम यह नहीं चाहते कि श्राप सारी उम्र गृहस्थ जीवन में फंसे रहें । हमारे चाहने से ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि आप तीर्थङ्कर हैं। भव्य प्राणियों का उपकार करने के लिए उनके शुभ कर्मों से प्रेरित होकर आप अवश्य संसार कात्याग करेंगे। किन्तु यह कार्य आप विवाह के बाद भी कर सकते हैं। हमारी अन्तिम अभिलाषा है कि हमें आपका विवाहोत्सव देखने का अवसर प्राप्त हो।क्या माता पिता के इस मुख स्वम को आप पूरा न करेंगे? __कुमार नेमिनाथ अपनी स्वाभाविक मुस्कान के साथ सिर नीचा किए माता पिता की बातें सुनते रहे । वे मन में सोच रहे थे कि संसार में कितना भज्ञान फैला हुआ है । भोले प्राणी अपनी सन्तान को विवाह बन्धन में डालने के लिए कितने उत्सुक रहते