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१८४भी सेठिया जैन ग्रन्थेमाला
शब्दों के भय हुर उपसर्ग भगवान् समितिपूर्वक सहन करते थे।
(१०) भगवान् विविध प्रकार के दुःख तथा रति अरति की परवाह न करते हुए,विना अधिक बोले समिति पूर्वक सदा संयम में लीन रहते थे। । __ (११)निर्जन स्थान में भगवान् को खड़े देख कर लोग अथवा रात्रि के समय व्यभिचारी पुरुष पूछते थे- तुम कौन हो ? उस समय भगवान् कुछ नहीं बोलते थे। इस पर वे क्रुद्ध होकर भगवान् कोपीटने लगते,किन्तु भगवान् धर्मध्यान में लीन रहते हुए उसे समभाव पूर्वक सहन करते थे, किसी के प्रति वैर भावना नहीं रखते थे।
(१२) लोग पूछते थे, अरे ! यहॉ कौन खड़ा है ? कभी कभी भगवान् उत्तर देते- 'मैं भिक्षक खड़ाहूँ। यह सुन कर वे कहतेयहाँ से जल्दी चला जा। इसे सुन कर वहाँ से जाना उत्तम समझ कर भगवान् दूसरी जगह चले जाते । अगर वे कुछ न कहते और क्रोध करने लगते तो भगवान् मौन रह कर वहीं खड़े रहते।
(१३-१४-१५) शीत काल में जव ठण्डी हवा जोर से चलने लगती, लोग थर थर काँपने लगते, जव सामान्य साधु सरदी से तंग आकर विना हवा वाले स्थान, अग्नि या कम्बल आदि की इच्छा करने लगते थे, इस प्रकार जब सरदी भयङ्कर कष्ट देने लगती उस समय भी संयमी भगवान् महावीर निरीह रह कर खुले स्थान में खड़े खड़े शीत को सहन करते थे। यदिरहने के स्थान में शीत । अत्यन्त असह्य हो जाता तो रात्रि को थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाते थे। मुहूर्तमात्र वाहर घूम कर फिर निवास स्थान में आकर समभाव पूर्वक शीत को सहते थे।
(१६) निरीह और मतिमान् भगवान् महावीर ने इस प्रकार कठोर आचार का पालन किया। दूसरे मुनियों को भी उन्हीं के समान वर्तना चाहिए। (भाचाराग श्रुतस्कन्ध । अध्य० । उद्देशा २ )