________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
८३
न्तुक के ठहरने के लिए होता है) में, प्याऊ में या दुकानों में ठहर जातेथे। किसी समय लुहार,बढ़ई आदि के काम करने की दीवाल के नीचे यापलाल के बने हुए मञ्चों के नीचे निवास करते थे।
(३) कभी आगन्तार (गाँव या नगर से बाहर मुसाफिरों के ठहरने का स्थान)में, कभी उद्यान में बने हुए किसीमकान में,कभी श्मशान अथवा सूने घर में, कभी वृक्ष के नीचे उतर जाते थे।
(४) इस प्रकार के स्थानों में निवास करते हुए महामुनि महावीर कुछ अधिक साढ़े बारह वर्ष तक प्रमाद रहित तथा समाधि में लीन रहते हुए संयम में प्रयत्न करते रहे। । (५) दीक्षा लेने के बाद भगवान् ने प्रायः निद्रा का सेवन नहीं किया, सदा अपने को जागृत रक्खा। किसी जगह थोड़ी सी नींद आने पर भी वे इच्छापूर्वक कभी नहीं सोए।
नोट- अस्थिग्राम में व्यन्तरकृत उपसर्गों के वाद अन्तर्महूर्त के लिए भगवान को नींद आगई थी इसके सिवाय वेकहीं नहीं सोए।
(६) निद्रा को कर्मवन्धका कारणसमझ कर वेसदाजागते रहते थे। यदि कभी नींद आने लगती तो शीतकाल की रात्रि में बाहर निकल कर मुहूर्त भरध्यान में लीन रह कर नींद को टाल देतेथे।
(७)ऊपर बताए हुए स्थानों में भगवान् को अनेक प्रकार के भयङ्कर उपसर्ग उपस्थित हुए। साँप वगैरह जन्तु तथा गिद्ध वगैरह पक्षी उनके शरीर को नोचते थे।
(८) व्यभिचारी तथा चोर श्रादि उन्हें सूने घर में देख कर उपसर्ग देते थे। ग्रामरक्षक शक्ति तथा भाले मादि हथियारों द्वारा कष्ट पहुँचाते थे। बहुत से पुरुष तथा उनके रूप पर मोहित होकर विषयाभिलाष वाली स्त्रियाँ उन्हें सताती थी।
(8) इस प्रकार मनुष्य तथा पशुओं द्वारा किए गए, अनेक प्रकार की मुगन्धि तथा दुर्गन्धि वस्तुओं के तथा अनेक प्रकार के