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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग
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स्थिति एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । आहारक शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महूर्त। तैजस और कार्यण शरीर की स्थिति अनादि अनन्त है और भनादि सान्त है।
(१६) भवगाहना का अल्पबहुत्व द्वार- प्रोदारिफ शरीर की जघन्य अवगाहना सब से थोड़ी है। उससे तैजस, कार्यण की जघन्य अवगाहना विशेषाधिक है। वैक्रियक शरीर की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है। आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है। माहारक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेषाधिक है। औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे संख्यात गुणी अधिक है । वैक्रियक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे संख्यात गणी अधिक है। तेजस और फार्मण शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे असंख्यात गणी है।
(१७) अन्तर द्वार-ौदारिक शरीर का यदि अन्तर पड़े तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तेतीस सागगेपम। वैक्रियक शारीर फा अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल । आधारफ फा अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन। तैजस और कार्मण शरीर का अन्तर कभी नहीं पड़ता।
पॉच शरीरों का अन्तर दूसरे प्रकार से भी है। औदारिक वैक्रियक, तैजस भौर कार्मण ये चारों शरीर लोक में सदा पाये जाते हैं। इनका कभी भन्तर नहीं पड़ता। यदि आहारक शरीर का अन्तर पड़े तो उत्कृष्ट ६ महीने तक पड़ता है । (पन्नवगा पद २१)
८८२-विहायोगति के सतरह भेद भाकाश में गमन करने को विहायोगति कहते हैं। इसके१७भेद हैं (१) स्पृशद्गति- परमाणुपुद्गल, द्विपादेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रादेशिक स्कन्धों की एक दूसरे को स्पर्श करते हुए गति होना स्पृशद्गति है।