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श्रीसेठिया जैन ग्रन्थमाला ~ummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmnner
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स्थनेमि-- क्यों ?
राजीमती- जिस प्रकार यह पदार्थ मेरे द्वारा त्यागा हुआ है उसी प्रकार मैं माप के भाई द्वारा त्यागी हुई हूँ। जैसे मैं भापको प्रिय हूँ उसी प्रकार यह पदार्थ भी आप को बहुत प्रिय है। दोनों के समान होने पर भी इसे पीने वाले को आप कुत्ते या कौए के समान समझते हैं और मुझे अपनाते समय यह विचार नहीं करते।
राजीमती को युक्तिपूर्ण बातें सुन कर रथनेमि का सिर लज्जा से नीचे झुक गया। उसे मन ही मन पश्चात्ताप होने लगा।
राजीमती फिर कहने लगी- यादवकुमार ! मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव भेजते समय आपने यह विचार नहीं किया कि मैं भाप के बड़े भाई की परित्यक्ता पत्नी हूँ। मोहवश आप मेरे साथ विवाह करने को तैयार हो गए। श्राप के बड़े भाई मेरा त्याग कर के चले गए इसे आपने अपना सौभाग्य माना । आप भी उन्हीं माता पिता के पुत्र हैं जिनके भगवान् स्वयं हैं, फिर सोचिए मोह ने माप को कितना नीचे गिरा दिया।
रचनेमिलज्जा से पृथ्वी में गड़े जा रहे थे। वे करने लगे-राजकमारी!मुझे अपने कार्य के लिए बहुत पश्चात्ताप हो रहा है। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।भापने उपदेश देकर मेरी आँखें खोल दी।
स्थनेमि चुपचाप राजीमती के महल से चले आए। उन के हृदय में लज्जा और ग्लानि थी। सांसारिक विषयों से उन्हें विरक्ति हो गई थी। उन्होंने सांसारिक बन्धनों को छोड़ने का निश्चय कर लिया।
रानीमती का भगवान् अरिष्टनेमि के साथ लौकिक दृष्टि से विवाह नहीं हुआ था। अगर वह चाहती तो रथनेमि या किसी भी योग्य पुरुष से विवाह कर सकती थी। इसके लिए उसे लोक में निन्दा का पात्र न बनना पड़ता फिर भी उसने किसी दूसरे पुरुष से विवाह नहीं किया । जीवन पर्यन्त कुमारी रहना स्वीकार कर