________________
२७८
श्री सेठिया जैन अन्धमाता
mano
उन सभी पापों का त्याग करता हूँ। __ इस प्रकार चरम श्वासोच्छ्वास तक शरीर का ममत्व छोड़ कर
आलोचना और प्रतिक्रमण करके धर्मरुचि अनगार समाधि में स्थिर हो गये । सारे शरीर में विष व्याप्त हो जाने से प्रवल वेदना उत्पन्न हुई जिससे तत्काल वे कालधर्म को प्राप्त हो गये।
धर्मरुचि अनगार को गये हुए जब बहुत समय हो गया तो धर्मघोष आचार्य ने दूसरे साधुओं को उनका पता लगाने के लिये भेजा। स्थण्डिल भूमि में जाकर साधुओं ने देखा तो उन्हें मालूम हुआ किधर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त होगये हैं। उसी समय साधुओं ने उसके निमित्त कायोत्सर्ग किया। इसके बादधर्मरुचि अनगार के पात्र आदि लेकर वे धर्मघोष आचार्य के पास आए और उनके सामने पात्र आदि रख कर धरुचि अनगार के काल धर्म प्राप्त होने की बात कही।
धर्मघोष आचार्य ने पूर्वो के ज्ञान में उपयोग देकर देखा और सव साधुओं को बुलाकर इस प्रकार कहा-आर्यो ! मेरा शिष्य धर्मरुचि अनगार प्रकृति का भद्रिक और विनयवान् था। निरन्तर एक एक महीने से पारना करता था। आज मासखमण के पारने के लिए वह गोचरी के लिए गया। नागश्री ब्राह्मणी ने उसे कड़वे तुम्वे का शाक बहरा दिया। उसके खाने से उसका देहान्त होगया है। परिणामों की शुद्धता से वह सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला देव हुआ है। __ यह खवर जब शहर में फैली तो लोग नागश्री को धिक्कारने लगे। वे तीनों ब्राह्मण भाई नागश्री के इस कार्य से उस पर बहुत कुपित हुए। घर आकर उन्होंने नागश्री को बहुत बुरा भला कहा और निर्भर्त्सनापूर्वक उसे घर से बाहर निकाल दिया। वह जहाँ भी जाती लोग उसकातिरस्कार करते, धिक्कारते और अपने यहाँ