________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मिथ्यात्व आता है वह भी अन्त वाला ही है,क्योंकि जिस जीव को एक वारसम्यक्त्व प्राप्त हो चुकी वह अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में अवश्य मोक्षजाएगा,इसलिए सादि मिथ्यात्व भी अपर्यवसित नहीं है। तीसराभंग मिथ्यात्व की अपेक्षा है। भव्य जीव के साथ मिथ्यात्व का सम्बन्ध अनादि होने पर भी सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर छूट जाता है। अभव्य जीव के मिथ्यात्व की अपेक्षा चौथा भंग है। उसका मिथ्यात्व अनादि भी है और अपर्यवसित भी है।
(११) गमिक श्रुत-आदि, मध्य और अवसान में थोड़े से हेर फेर के साथ जिस पाठ का बार बार उच्चारण किया जाता है, उसे गमिक कहते हैं, जैसे दृष्टिवाद वगैरह अथवा उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन की गाथाओं में 'समयं गोयम मा पमायए' का वार वार उच्चारण किया गया है।
(१२)अगमिक श्रुत- गमिक से विपरीत शास्त्रको अगमिक कहते है, जैसे आचारांग आदि।
(१३) अङ्गमविष्ट-पुरुष के बारह अंग होते हैं-दो पैर.दो जंघाएं, दो उरु, दो गात्रार्द्ध (पसवाड़े),दो वाहें, ग्रीवा और सिर। श्रृत रूपपुरुष के भी आचारांग आदि वारह अंग हैं। जो शास्त्र इन अंगों में आगए हैं वे अंगप्रविष्ट कहे जाते हैं। इनका संक्षिप्त विषय परिचय वारहवें वोल संग्रह वोल नं०७७७ में दिया गया है।
(१४) अङ्ग वाह्य-बारह अंगों के सिवाय जो शास्त्र हैं वे अंगवाह्य हैं। अथवा जो जो मूल भूत शास्त्र गणधरों द्वारा रचे गए हैं वे अंगप्रविष्ट हैं, क्योंकि गणधर ही मूल आचार आदि की रचना करते हैं, सर्वोत्कृष्ट लब्धि वाले होने से वे ही मूल शास्त्र रचने में समर्थ होते हैं। अंगों के अनुसारश्रुतस्थविरों द्वारा रचे गए शास्त्र अंग वाह्य हैं अथवा जो आचारादिश्रुत सभी क्षेत्र तथा सभी कालों में एक सरीखे अर्थ और क्रम वाला है वह अंगप्रविष्ट है। वाकी