________________ 428 श्री सेठिया जैन ग्रन्धमाला इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि इस द्वादशांगी का कथन सर्वज्ञ देव श्री महावीर स्वामी ने भव्य प्राणियों के हितार्थ किया। इसमें श्री गौतम स्वामी और श्री सुधर्मा स्वामी की स्वतन्त्र प्ररूपणा कुछ भी नहीं है। जैसा भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया है वैसा ही मै तुझे कहता हूँ' इस वाक्य से श्री सुधर्मा स्वामी ने "माणाए धम्मो” अर्थात् वीतराग भगवान् की आज्ञा में ही धर्म है और उनके वचन को विनय पूर्वक स्वीकार करना धर्म का मुख्य अंग है, इस तत्त्व का भली भांति प्रतिपादन किया है। श्री जम्बू स्वामी ने बारबार प्रश्न किये हैं। इससे यह बतलाया गया है फि शिष्य को विनयपूर्वक जिज्ञासा बुद्धि से प्रश्नकरके गुरु से ज्ञान ग्रहण करना चाहिए क्योंकि विनयपूर्वक ग्रहण किया हुमा ज्ञान ही आत्मकल्याण में सहायक होता है। ___ जम्बू स्वामी के प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि छठे अंग श्री ज्ञाताधर्मफया के दो श्रुतस्कन्ध कहे गए हैं- ज्ञाता और धर्म कथा। ज्ञाता नामक मथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन हैं। प्रत्येक अध्ययन में एक दृष्टान्त (उदाहरण) दिया गया है और अन्त में दाष्टोन्तिक के साथ मुन्दर समन्वय करके धर्म के किसी एक तत्त्व को दृढ़ किया गया है / यह सम्पूर्ण सूत्र गद्यमय है। कहीं कहीं पर कुछ गाथाएं दी गई हैं। इस शास्त्र में नगर, उधान, महल, शय्या, समुद्र, खम, स्वमों के फल मादिका तथा हाथी, घोडे, राजा, रानी, सेठ, सेनापति आदि जंगम पदार्थों का वर्णन बहुत विस्तारपूर्वक दिया गया है / कथा भाग की अपेक्षा वर्णन का भाग अधिक है / जहॉ पर पूर्व पाठ का वर्णन फिर से पाया है वहाँ "जाव (यावत्)" शब्द देकर पूर्व पाट की भलामण दी गई है। सामान्य ग्रन्थ की अपेक्षा शास्त्र में गम्भीरता और गुरुगमता