________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ormmmmmmm
तेरहवें में परमशुक्ल लेश्या । चौदहवें में कोई लेश्या नहीं होती।
(१६) हेतु द्वार-हेतु का अर्थ यहाँ पर है कर्मबन्ध का कारण। इसके ५७ भेद हैं-५ मिथ्यात्व, १५ योग, १२ अव्रत (छः काय की रक्षान करना तथा पाँच इन्द्रियों और मन को वश में न रखना)
और २५ कषाय (अनन्तानवन्धी धादि१६ और नोकषाय नौ)। __ पहले गुणस्थान में श्राहारक और आहारक मिश्र को छोड़ कर शेष ५५ हेतु पाए जाते हैं। दूसरे में ५ मिथ्यात्व और ऊपर वाले दो हेतुओं को छोड़ कर ५०। तीसरे में चार अनन्तानुबन्धी,ौदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र, कार्मण और ऊपर वाले सात, कुल १४ हेतुओं को छोड़ कर ४३।चौथे में औदारिक मिश्र,वैक्रिय मिश्रऔर कार्मण इन तीन के बढ़ जाने से ४६।पाँचवें में चार अप्रत्याख्यानावरण, अविरति और फार्मण घट जाने से ४० । छठे में २७ अर्थात् १४ योग (कार्मण छोड़ कर) और १३ कषाय (संज्वलन की चौकड़ी और ह नोकषाय)। सातवें में तीन मिश्र योगों को छोड़ कर २४ । पाठवें में वैक्रिय और आहारक को छोड़ कर २२ । न में हास्यादि छह को छोड़ कर १६ । दसवे में तीन वदार तीन संज्वलन कपायां को छोड़ कर १० । ग्यारहवें तथा वारहवें में चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये नौ हेतु पाए जाते हैं । तेरहवें में पाँच-सत्य मनो योग, व्यवहार मनोयोग, सत्य भाषा, व्यवहार भाषा और औदारिक। किसी किसी के मत में सात होते हैं। उन के अनुसार औदारिकमिश्र और कार्मण बढ़ जाते हैं । चौदहवें गुणस्थान में कोई हेतु नहीं होता।
(२०) मार्गणा द्वार-मार्गणा का तात्पर्य यहॉ जाने का मार्ग है। पहले गुणस्थान वाला तीसरे, चौथे, पॉच और सातवेंगुणस्थान में जा सकता है। दूसरे गुणस्थान वाला पहले गुणस्थान में पाता है। तीसरे गुणस्थान वाला ऊपर चौथे,पाँचवें और सातवें