________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग ३८३ । -~- wrrrrrrr rrrrrr .wwwmar on rva . . . . . . . . . . . उन्हीं पुद्गलों को भोग कर मृत्यु प्राप्त करे तो वीच की अवधि को अवधिमरण कहते हैं अर्थात् एक वार भोग कर छोड़े हुए परमाणुओं को दुबारा भोगने से पहले पहले जब तक जीव उनका भोगना शुरू नहीं करता तब तक अवधिमरण होता है।
(३) प्रात्यन्तिकमरण- आयुफर्म के जिन दलिकों को एक बार भोग कर छोड़ दिया है यदि उन्हें फिर न भोगना पड़े तो उन दलिकों की अपेक्षा जीव का आत्यन्तिकमरण होता है।
(४) बलन्मरण- संयम या महाव्रतों से गिरते हुए व्यक्ति की मृत्यु बलन्मरण होती है।
(५) वशार्तमरण- इन्द्रिय विषयों में फंसे हुए व्यक्ति की मृत्यु वशार्तमरण होती है।
(६) अन्तः शल्यमरण- जो व्यक्ति लज्जा या अभिमान के कारण अपने पापों की पालोयणा किए बिना ही मर जाता है उसकी मृत्यु को अन्तःशल्यमरण कहते हैं।
(७)तद्भवमरण-तियश्च या मनुष्य भव में आयुष्य पूरी करके फिर उसी भव की आयुष्य वांध लेने पर तथा दुवारा उसी भद में उत्पन्न होकर मृत्यु प्राप्त करना तद्भवमरण है।
तद्भवमरण देव तथा नरफ गति में नहीं होता, क्योंकि देव मर कर देव सथा नैरयिफ मर कर नैरयिक नहीं होता। (८)वालमरण-ब्रतरहित प्राणियों की मृत्यु बालमरण है। (8) पण्डितमरण-सर्वविरति साधुओं की मृत्यु फो पण्डित मरण कहते हैं।
(१०) बालपण्डिवमरण- देशचिरति श्रावकों की मृत्यु को बालपण्डितमरण कहते है।
(११) छद्मस्थमरण-केवलज्ञान विनाप्राप्त किये छमस्थावस्था में मृत्यु हो जाना छद्मस्थमरण है।