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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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लिये यह अवसर ठीक समझा। उसने मुनिराज के ललाट की बिन्दी की ओर संकेत करके बुद्धदास से कहा- पुत्र! बहू के दुराचार का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है
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यह देख कर बुद्धदास को बहुत दुःख हुआ। वह सुभद्रा को दुराचारिणी समझने लगा। सुभद्रा ने सारी सत्य बात कह सुनाई । फिर भी बुद्धदास का सन्देह दूर नहीं हुआ । उसने सुभद्रा के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ दिये ।
सुभद्रा ने विचार किया कि मेरे साथ साथ जैन मुनि पर भी कलंक श्राता है। इसलिए मुझे इस कलंक को अवश्य दूर करना चाहिए। तेले का तप करके वह काउसग्ग में स्थित हो गई। तीसरे दिन मध्य रात्रि में शासन देवी प्रकट होकर कहने लगी- सुभद्रे ! तेरा शील अखण्डित है । धर्म पर तेरी दृढ़ श्रद्धा है । मैं तुझ पर प्रसन्न हुई हूँ । कोई वर मांग । सुभद्रा ने कहा- देवि ! मुझे किसी वर की आवश्यकता नहीं है। मेरे सिर पर आया हुआ कलंक दूर होना चाहिये। 'तथास्तु' कह कर देवी अन्तर्ध्यान होगई ।
दूसरे दिन प्रातःकाल जब द्वाररक्षक शहर के दरवाजे उघाढ़ने लगे तो वे उन्हें नहीं खोल सके । द्वार वज्रमय होगये । अनेक प्रयत्न करने पर भी जब दरवाजे नहीं खुले तो राजा के पास जाकर उन्होंने सारी हकीकत कही। राजा ने कहा- शहर के लुहारों और सुधारों को बुला कर दरवाजों को खुलवा लो। सेवकों ने ऐसा ही किया किन्तु दरवाजे न खुले। तब राजा ने आज्ञा दी फि हाथियों को छोड़ कर दरवाजों को तुड़वा दो । मदोन्मत्त हाथी छोड़े गये । उन्होंने पूरी ताकत लगा दी किन्तु दरवाजे टस से मस न हुए। अब तो राजा और प्रजा दोनों की चिन्ता काफी बढ़ गई। इसी समय एक श्राकाशवाणी हुई
'कोई सती कच्चे सूत के धागे से चलनी को बाँध कर कूप से जल