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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अप्रमत्तसंयत अर्थात् सातवें गुणस्थान वाले उनसे संख्यात गणे पाए जाते हैं। वे दो हजार करोड़ तक हो सकते हैं।
प्रमत्तसंयत अर्थात् छठे गुणस्थान वाले उनसे संख्यात गुणे हैं। वे नौ हजार करोड़ तक होते हैं। असंख्यात गर्भज तिर्यश्च भी देश विरति पा लेते हैं, इस लिए पाँचवें गुणस्थान वाले छठे की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक हैं। दूसरे गुणस्थान वाले देशविरति वालों से असंख्यात गणे होते हैं, क्योंकि सास्वादन सम्यक्त्व चारों गतियों में होता है। सास्वादन सम्यक्त्व की अपेक्षा मिश्रदृष्टि का कालमान (स्थिति) भसंख्यातगुणा है, इस कारण मिश्रदृष्टि अर्थात् तीसरे गुणस्थान वालेदसरे गणस्थान वालों की अपेक्षा असंख्यातगणे हैं। तीसरे की अपेक्षाचौथे गुणस्थान वाले असंख्यात गुणे हैं। अयोगी केवली दो तरह के होते हैं- भवस्थ (चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव)
और अभवस्थ (सिद्ध)। अभवस्थ (सिद्ध) चौथे गुणस्थान वालों से अनन्त गुणे हैं। मिथ्यादृष्टि अर्थात् पहले गुणस्थान वाले सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं। __ पहला, चौथा, पाँचवॉ, छठा, सातवाँ और तेरहवाँ ये छःगुणस्थान लोक में सदा पाए जाते हैं। बाकी आठ गुणस्थान कभी नहीं भी पाए जाते। जब ये पाए जाते हैं, तब भी इनमें जीवों की संख्या कभी उत्कृष्ट होती है, कभी मध्यम और कभी जघन्य।
ऊपर वाला अल्पबहुत्व उत्कृष्ट की अपेक्षा है, जघन्य संख्या की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि जघन्य संख्या के समय जीवों का परिमाण विपरीत भी हो जाता है, जैसे- कभी ग्यारहवें गुणस्थान वाले वारहवें से अधिक भी हो जाते हैं। सारांश यह है कि ऊपर बताया हुआअल्पवहुत्व सब गुणस्थानों में जीवों के उत्कृष्ट संख्या में पाए जाने के समय ही घट सकता है । (कर्मप्रन्य ४, गाथा ६२-६३)
मर कर परभव में जाते समय जीव के पहला, दूसरा और चौथा