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दो शब्द
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह का पांचवां भाग पाठकों के सामने प्रस्तुत है । इसमे १४ से लेकर १९ तक छः बोल संग्रह दिये गये है । चौदह राजू परिमाण लोक का स्वरूप, चौदह गुणस्थान, विनीत के पन्द्रह लक्षण, पन्द्रह कर्मादान, चन्द्रगुप्त राजा के सोलह स्वप्न, सोलह सती चरित्र, श्रावक के सतरह लक्षण, शरीर के सतरह द्वार, गतागत के अठारह द्वार, अठारह पापस्थानक. साधु के अठारह कल्प, पौषध के अठारह दोप, कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष, ज्ञातासूत्र की उन्नीस कथाएं
आदि इस भाग की विशेपता हैं । सोलह सतियो का चरित्र पर्याप्त विस्तार के साथ लिखा गया है । श्राशा है पाठको को ये बातें पसन्द आएगी।
पुस्तक छप जाने के बाद जो अशुद्धियाँ हमारी दृष्टि मे आई उन्हे हाथ से सुधार दिया गया है। इसलिए इस भाग में भी अलग शुद्धिपत्र देने की आवश्यकता नहीं समझी गई।
छठा भाग तैयार हो रहा है । वह भी यथासंभव शीघ्र ही पाठको की सेवा में उपस्थित किया जायगा।
निवेदक पुस्तक प्रकाशन समिति
आभार प्रदर्शन जैनधर्म दिवाकर पण्डितप्रवर उपाध्याय भी आत्माराम जी महाराज तथा शास्त्रज्ञ मुनि श्री पन्नालाल जी महाराज ने यथासम्भव बोलो का निरीक्षण करके अपनी अमूल्य सम्मतियों दी हैं । यथास्थान संशोधन या सूचना करके पुस्तक को उपयोगी बनाने मे पूरा परिश्रम उठाया है। इसके लिए हम और पुस्तक से लाभ उठाने वाले सभी सज्जन उनके सदा आभारीरहेंगे।