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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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लिङ्ग की अपेक्षा सिद्धों का अल्प बहुत्व इस प्रकार हैथोवा नपुंससिद्धा, श्रीनर सिद्धा कमेण संखगुणा । सब से थोड़े नपुंसक लिङ्ग सिद्ध हैं क्योंकि एक समय में उत्कृष्ट दस मोक्ष जा सकते हैं। नपुंसक लिङ्ग सिद्धों से स्त्रीलिङ्ग सिद्ध संख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि एक समय में उत्कृष्ट बीस सिद्ध हो सकते हैं । स्त्रीलिङ्ग सिद्धों से पुरुष लिङ्ग सिद्ध संख्यात गुणे अधिक हैं क्योंकि एक समय में उत्कृष्ट १०८ मोक्ष जा सकते हैं। ( पन्नत्रणा पद १ जीवप्रज्ञापना प्रकरण )
अंग
८५० - मोक्ष के पन्द्रह
नादि काल से जीवनिगोदादि गतियों में परिभ्रमण कर रहा है। कई जीव ऐसे भी हैं जिन्होंने स्थावर अवस्था को छोड़ कर त्रस अवस्था को भी प्राप्त नहीं किया । त्रसत्व (त्रस अवस्था) आदि मोक्ष के पन्द्रह अंग हैं। इनकी प्राप्ति होना बहुत कठिन है।
( १ ) जंगमत्व (सपना )- निगोद तथा पृथ्वीकाय आदि को छोड़ कर द्वीन्द्रियादि जङ्गम कहलाते हैं। बहुत थोड़े जीव स्थावर अवस्था से त्रस अवस्था को प्राप्त करते हैं ।
(२) पञ्चेन्द्रियत्व - जंगम अवस्था को प्राप्त करके भी बहुत से जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय होकर ही रह जाते पंचेन्द्रियपना प्राप्त होना फिर भी कठिन है ।
(३) मनुष्यत्व - पंचेन्द्रिय अवस्था प्राप्त करके भी बहुत से जीव नरक, तिर्यञ्च गतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं। मनुष्य भव मिलना बहुत दुर्लभ है।
(४) आर्यदेश - मनुष्य भव को प्राप्त करके भी बहुत से जीव अनार्य देश में उत्पन्न हो जाते हैं जहाँ धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं होता । इस लिए मनुष्य भव में भी आर्य देश का मिलना कठिन है । (५) उत्तम कुल - आर्य देश में उत्पन्न होकर भी बहुत से जीव