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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
, और एक वृक्ष के नीचे बैठ कर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगी।
प्रात:काल होते ही वसुमती की सखियाँ उसे जगाने के लिए महल में आई किन्तु वसुमती वहाँ न मिली । ढूंढती ढूंढती वे अशोकवाटिका में चली आई। वहाँ उसे चिन्तित अवस्था में बैठी हई देख कर आपस में कहने लगी- वसमती को अब अकेली रहना अच्छा नहीं लगता। वह किसी योग्य साथी की चिन्ता कर रही है। वे सब मिल कर वसुमती से विवाह सम्बन्धी तरह तरह के मजाक करने लगीं।
वसुमती को उनकी अज्ञानता पर दया आगई। वह सोचने लगी- स्त्री समाज का हृदय कितना विकृत हो गया है। उसे इतना भी ज्ञान नहीं है कि विवाह के सिवाय भी चिन्ता का कोई कारण हो सकता है। उसने सखियों को फटकारते हुए कहा- जन्म से एक साथ रहने पर भी तुम मुझेन समझ सकीं। मुझे भी अपने समान तुच्छ विचारों वाली समझ लिया है। विवाह न करने का तो मैं निश्चय कर चुकी हूँ फिर उससे सम्बन्ध रखने वाली कोई चिन्ता मेरे मन में आ ही कैसे सकती है?
मेरे विचार में प्रत्येक स्त्री पुरुष पर तीन व्यक्तियों के ऋण हैं- माता, पिता और धर्माचार्य । सासू, श्वसुर, पति आदि का ऋण भी स्त्री पर होता है किन्तु उसे करना या न करना अपने हाथ की बात है। पहले तीन ऋण तो प्रत्येक प्राणी पर होते हैं। उन्हें चुकाना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। मेरी माता ने मझे शिक्षा दी है कि धर्म और समाज की सेवा द्वारा इन ऋणों को अवश्य चुकाना । मनुष्य जन्म बार वार नहीं मिलता। विषयभोग में उसे गॅवा देना मूर्खता है । मानव जीवन का उद्देश्य परमार्थ साधन ही है । जो कन्या पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकती उसी के लिए विवाह का विधान है। जो ब्रह्मचर्य का पालन