________________ श्री सेठिया जैन धमाला Arnorrhanwww (16) श्रीकृष्ण का अपरकंका गमन सोलहवा 'अपरफङ्काज्ञात' मध्ययन-विषय मुख कितने दुःखदायी होते हैं, इसका वर्णन इस अध्ययन में किया गया है। विपय मुख को न भोगते हुए केवल उनकी इच्छा रखने मात्र से अनर्थ की प्राप्ति होती है। इसके लिए अपरकंका के राजा पनोत्तर का शन्त दिया गया है। इसमें द्रौपदी की कथा बड़े विस्तार के साथ दी गई है। द्रौपदी का जीव पूर्वभव में चम्पा नगरी में नागश्री ब्राह्मणी था। एक वार उसने धर्मरुचि मुनि को मासखमण के पारणे के दिन कड़वे तुम्बे का शाक पहराया / उस शाक को लेकर धर्मरुचि भनगार अपने गुरु धर्मघोष मुनि के पास आये और आहार दिखलाया। उस शाफ को चख कर गुरु ने कहा कि या तो कड़वे तुम्वे का शाक है। एकान्त में जाकर इसको परठ दो। गुरु की श्राज्ञा लेकर धर्मरुचि एकान्त स्थान में आये। वहाँ आकर जमीन पर एक वृंद डाली / शाक में घृतादि पदार्थ अच्छे डाले हुए थे इसलिए उस की सुगन्ध से बहुत सी कीड़ियाँ उस बंद पर भाई और उसके जहर से मर गई। मुनि ने सोचा एक बद से इतनी कीड़ियाँ मर गई तो न जाने इस सारे शाक से कितने जीवों का नाश होगा? इस प्रकार कीड़ियों पर अनुकम्पा करके उस सारे शाक को धर्मरुचि अनगार स्वयं पी गये। इससे शरीर में प्रबल पीड़ा उत्पन्न दुई। उसी समय मुनि ने संथारा कर लिया / समाधिपूर्वक मरण प्राप्त कर वे सर्वार्थसिद्ध मनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे भौर प्रत्रज्या ग्रहण कर मोक्षपद प्राप्त करेंगे। धर्मरुचिमुनि को कड़वा तुम्बा पहराने आदि का सारा वृत्तान्त