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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पांचवां भाग
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में जल के सिवाय सभी पेय द्रव्यों का त्याग होता है।
(ग) खादिम-जिह्वा स्वाद के लिये खाए जाने वाले पदार्थ । जैसे फल, मेवा आदि।
(घ) स्वादिम- मुँह में रखे जाने वाले पदार्थ । जिनका उपयोग मुख्य रूप से मुंह की सफाई के लिये होता है । जैसे- लौंग, सुपारी, चूरण आदि।
उपरोक्त आहारों में से प्रायः सभी वस्तुएं अपेक्षा वश दूसरे आहारों में बदल जाती हैं। जैसे मेवा जीभ के स्वाद के लिये खाया जाने पर स्वादिम है किन्तु पेट भरने के लिये खाया जाने पर अशन है। इसलिये प्रशन पान आदि के निश्चय में उद्देश्य की ही प्रधानता है। ऊपर लिखा विभाग मुख्यता को लेकर किया गया है अर्थात जिस वस्तु का उपयोग मुख्य रूप से जिस रूप में होता है उसे उसीआहार में गिना गया है। (अावश्यक नियुक्ति गाथा १५८७-८८)
(५) वस्त्र-पहनने आदि के उपयोग में आने वाला कपड़ा। (६) पात्र-काष्ठ (लकड़ी)के बने हुए पातरे आदि। (७)कम्बल-जोशीत से बचने के लिये काम में लाया जाता है। (८) पादपोंछन- जो जीव रक्षा के लिये पूंजने के काम में आते हैं वे रजौहरण यापूंजनी आदि। (8) पीठ-वैठने के काम में आने वाले छोटे पाट । (१०) फलफ-सोने के लिये काम में आने वाले लम्बे पाट। (११)शय्या- ठहरने के लिये मकान आदि । (१२) संथारा-विछाने के लिये घास आदि ।
(१३) औषध- जो एक ही चीज को कूट कर या पीस कर बनाई हो, ऐसी दवा।
(१४) भेषज-जोअनेक चीजों के मिश्रण से बनी हो, ऐसी दवा।