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श्री जैन सिद्धान्त बोल समह,
पाचवा भाग
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करना ही पड़े तो अनिच्छा पूर्वक करता है ।
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(७) श्रावक गृहस्थावास को जाल के समान मानता है । ( ८ ) श्रावक सम्यक्त्व से विचलित नहीं होता । ( 8 ) श्रावक भेड़ चाल को छोड़ता है।
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(१०) श्रावक सारी क्रियाएं श्रागम के अनुसार करता है (११) अपनी शक्ति के अनुसार दान आदि में प्रवृत्ति करता है । ( १२ ) श्रावक निर्दोष तथा पापरहित कार्य को करते हुए नहीं हिचकता ।
(१३) श्रावक सांसारिक वस्तुओं में राग द्वेष से रहित होकर रहता है ।
(१४) श्रावक धर्म आदि के स्वरूप का विचार करते समय मध्यस्थ रहता है । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह नहीं करता ।
(१५) श्रावक धन तथा कुटुम्बियों के साथ सम्बन्ध रखता हुआ भी सभी को क्षणभङ्गुर समझ कर सम्बन्ध रहित की तरह रहता है । (१६) श्रावक मासक्ति से सांसारिक भोगों में प्रवृत्त नहीं होता । ( १७ ) श्रावक हृदय से विमुख रहते हुए गृहस्थावास का सेवन करता है । (धर्मसंग्रह अधिकार २ गाथा २२)
८८४ - संयम के सतरह भेद
मन, वचन और काया को सावध व्यापार से रोकना संयम है । इस के सतरह भेद हैं
( १ ) पृथ्वीकाय संयम - तीन करण तीन योग से पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना न करना पृथ्वीकाय संयम है ।
(२) अप्काय संयम - अप्काय के जीवों की हिंसा न करना । ( ३ ) तेजस्काय संयम - तेजस्काय की हिंसा न करना । (४) वायुकाय संयम - वायुकाय के जीवों की हिंसा न करना । (५) वनस्पतिकाय संयम - वनस्पतिकाय की हिंसा न करना ।