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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग - ३१३
(८) सुलसा
ज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की बात है । मगध देश में राजगृही नाम की विशाल नगरी थी । वहाँ श्रेणिक नाम का प्रतापी राजा राज्य करता था। उसके सुनन्दा नाम वाली भार्या से उत्पन्न हुआ अभयकुमार नामक पुत्र था। वह औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी रूप चारों बुद्धियों का निधान था । वही राजा का प्रधान मंत्री था। नगरी धन, धान्य आदि से पूर्ण तथा सुखी थी।
उसी नगरी में नाग नाम का रथिक रहता था। वह राजा श्रेणिक का सेवक था । उसके श्रेष्ठ गुणों वाली मुलसा नामक भार्या थी । नाग सारथी ने गुरु के समक्ष यह नियम कर लिया था कि मैं कभी दूसरी स्त्री से विवाह नहीं करूँगा । दोनों स्त्री पुरुष परस्पर प्रेमपूर्वक सुख से जीवन व्यतीत करते थे। सुलसा सम्यक्त्व में दृढ़ थी । उसे कभी क्रोध न आता था ।
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एक बार नाग रथिक ने किसी सेठ के पुत्रों को आंगन में खेलते हुए देखा । वच्चे देवकुमार के समान सुन्दर थे । उनके खेल से सारा श्रांगन हास्यमय हो रहा था। उन्हें देख कर नाग रथिक के मन में आया - पुत्र के बिना घर सूना है । सव प्रकार का सुख होने पर भी सन्तान के बिना फीका मालूम पड़ता है । इस प्रकार के विचारों से उसके हृदय में पुत्रप्राप्ति की प्रबल इच्छा जाग उठी । वह पुत्रप्राप्ति के लिए विविध प्रकार के उपाय सोचने लगा । इस के लिए वह मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करने लगा। सुलसा ने यह देख कर उससे कहा- प्राणनाथ ! पुत्र, यश, धन आदि सभी वस्तुओं की प्राप्ति अपने अपने कर्मानुसार होती है । बाँधे हुए कर्म भोगने ही पढ़ते हैं। इस में मनुष्य या देव कुछ नहीं कर सकते। मालूम पड़ता है, मेरे गर्भ से कोई सन्तान न होगी इस
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