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मरणकण्डिका - ३९
॥ व्युत्सृष्ट-देहता ।। अर्थ - रूक्ष, लोच करने से बीभत्स, सम्पूर्ण शरीर मल से लिप्त तथा बढ़े हुए नख एवं रोमों से युक्त शरीर ही ब्रह्मचर्य की रक्षा है।।१६।।
।। इस प्रकार व्युत्सृष्टदेहता गुण का प्रकरण पूर्ण हुआ॥
__पीछी ग्रहण आवश्यक है आसने शयने स्थाने, गमने मोक्षणे ग्रहे। आमर्शन-परामर्श, प्रसाराकुञ्चनादिषु ॥९७ ।। स्वपक्षे चिह्नमालम्ब्यं, साधुना प्रतिलेखनम्।
विश्वास-संयमाधारं, साधु-लिङ्ग-समर्थनम् ।।१८।। अर्थ - आसन में, शयन में, स्थान में, गमन में, वस्तु रखने में, ग्रहण करने में, शरीर स्पर्श में, परामर्श में, अंगोपाङ्ग पसारने अर्थात् फैलाने में और संकोच करने में पीछी से परिमार्जन करना चाहिए ।।९७॥
स्वपक्ष में अर्थात् अपनी प्रतिज्ञा में पीछी चिह्न स्वरूप है। साधु द्वारा पूर्वकथित स्थानों पर प्रतिलेखन होना चाहिए। यह पीछी दिगम्बर निर्गन्ध मुद्रा की समर्थक है, मनुष्यों को विश्वास कराने वाली है और संयम का आधार है ।।९८॥
प्रश्न - स्वपक्ष का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - स्वपक्ष अर्थात् मैं सब जीवों पर दया करूँगा, ऐसी मुनिराज द्वारा की हुई प्रतिज्ञा। यह पीछी उस प्रतिज्ञा का चिह्न अर्थात् प्रमाण है। अर्थात् यह अभयप्रदान का प्रतीक है। यह पीछी सर्व मनुष्यों में विश्वास उत्पन्न कराती है कि जब यह साधु अतिसूक्ष्म कीट आदि जीवों की रक्षा के लिए पीछी लिये हुए है तब हमारे जैसे बड़े-बड़े जीवों को बाधा कैसे पहुँचायेगा ? इत्यादि।
पाँच गुण युक्त पीछी ग्रहण करनी चाहिए लघ्वस्वेद-रजोग्राहि, सुकुमार-मृदूदितम् । इति पञ्चगुणं योग्यं, ग्रहीतुं प्रतिलेखनम् ॥९९।।
।। इति प्रतिलेखनं । इति लिंगं॥ अर्थ - जो लघुत्व अर्थात् हल्की है, अस्वेदत्व अर्थात् पसीना ग्रहण नहीं करता, रजो अग्रहण अर्थात् धूलि आदि को ग्रहण नहीं करती, सुकुमार अर्थात् नाजुक अंगों वाली है और कोमल अर्थात् सुन्दर और मनोहर है। इस प्रकार इन पाँच गुण युक्त मयूर पंख की पीछी ग्रहण करने योग्य है ।।९९॥
॥ इस प्रकार प्रतिलेखन प्रकरण पूर्ण हुआ॥ इस प्रकार अचेलत्व, केशलोच, व्युत्सृष्टशरीरता और प्रतिलेखनत्व इन चार गुणों से
युक्त लिंग नाम का दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ।