________________
श्रीआदिनाथ-चरित
na...
wwwwwwww
कर्म-बाँधा । वीस स्थानकोमेंसे केवल एक स्थानकका पूर्णरूपसे आराधन भी तीर्थंकर नामकर्मके बंधका कारण होता है । परन्तु सहित आहार, औषध और वस्त्रादिके दानद्वारा गुरुभक्ति करना, ५-स्थविरपद-पर्यायस्थविर ( बीस वर्षकी दीक्षापर्यायवाला; ) वयस्थविर ( साठ वर्षकी वयवाला ) और श्रुतस्थविर ( समवायांगधारी ) की भक्ति करना, ६–उपाध्यायपद-अपनी अपेक्षा बहुश्रुतधारीकी अन्न-वस्त्रादिसे भक्ति करना, ७-साधुपद-उत्कृष्ट तप करने वाले मुनियोंकी भक्ति करना, ८ ज्ञानपद-प्रश्न, वाचन मनन, आदि द्वारा निरन्तर द्वादशांगी रूप श्रुतका सूत्र, अर्थ और उन दोनोंसे ज्ञानोपयोग करना, ९-दर्शनपद-शंकादि दोषरहित स्थैर्य आदि गुणोंसे भूषित
और शमादि लक्षणवाला दर्शन-सम्यक्त्व पालना, १०-विनयपद-ज्ञान, दर्शन,चारित्र और उपचार इन चारोंका विनय करना, ११-चारित्रपदमिथ्या करणादिक दश विध समाचारीके योगमें और आवश्यकमें अतिचार रहित यत्न करना, १२-ब्रह्मचर्यपद-अहिंसादि मूलगुणोंमें और समिति आदि उत्तर गुणोंमें अतिचार-रहित प्रवृत्ति करना, १३-समाधिपद-क्षण क्षणमें प्रमादका परिहारकर ध्यानमें लीन होना; १४-तपपद-मन और शरीरको बाधा-पीडा न हो इस तरह तपस्या करना; १५-दानपद-मन, वचन और कायशुद्धिके साथ तपस्वियोंको दान देना, १६–वैयावच्चपद आचार्यादि दस (१जिनेश्वर २ सूरि ३ वाचक ४ मुनि ५ बालमुनि ६ स्थविरमुनि ७ ग्लानमुनि ८ तपस्वीमुनि ९ चैत्य १० श्रमणसंघ) की अन्न, जल और आसनसे सेवा करना, १७-संयमपद-चतुर्विध संघके सारे वित्र मिटाकर मनमें समाधि उत्पन्न करना, १८-अभिनवज्ञानपद-अपूर्व ऐसे सूत्र, अर्थ तथा दोनोंका यत्न पूर्वक ग्रहण करना, १९-श्रुतपद-श्रद्धासे उद्भासन (बहुमानपूर्वक वृद्धि-प्रकाशन) करके तथा अवर्णवादका नाश करके श्रुतज्ञानकी भक्ति करना, २०-तीर्थपद-विद्या, निमित्त, कविता, वाद और धर्म-कथा आदिसे शासनकी प्रभावना करना। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com