Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
ऐसी कुछ आवश्यक बातों पर प्रकाश डाला गया है जिनका समावेश आचार्य ग्रन्थ के किसी अध्ययन में न कर सके । आजकल इस प्रकार का कार्य पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट जोड़कर सम्पन्न किया जाता है । नन्दी और अनुयोगद्वार भी आगमों के लिए परिशिष्ट का ही काम करते हैं। इतना ही नहीं, आगमों के अध्ययन के लिए ये भूमिका का भी काम देते हैं । यह कथन नन्दी की अपेक्षा अनुयोगद्वार के विषय में अधिक सत्य है । नन्दी में तो केवल ज्ञान का ही विवेचन किया गया है जबकि अनुयोगद्वार में प्रायः आगमों के समस्त मूलभूत सिद्धान्तों का स्वरूप समझाते हुए विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण किया गया है जिनका ज्ञान आगमों के अध्ययन के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है ।
प्रकीर्णक अर्थात् विविध । भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रकीर्णको - विविध आगमिक ग्रन्थों की संख्या १४००० कही गई है । वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या मुख्यतया दस मानी जाती है । इन दस नामों में भी एकरूपता नहीं है । निम्नलिखित दस नाम विशेष रूप से मान्य हैं १. चतु: शरण, २. आतुर - प्रत्याख्यान, ३. महाप्रत्याख्यान, ४ भक्तपरिज्ञा, ५. तन्दुलवैचारिक, ६. संस्तारक, ७. गच्छाचार, ८. गणिविद्या, ६. देवेन्द्रस्तव और १०. मरणसमाधि ।
चतुःशरण (चउसरण) का दूसरा नाम कुशलानुबन्धिअध्ययन ( कुसलाणुबंधिअज्झयण ) है । इसमें ६३ गाथाएं हैं । चूंकि इसमें अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवलिकथित धर्म-इन चार को 'शरण' माना गया है इसलिए इसे चतुःशरण कहा गया है । आतुरप्रत्याख्यान ( आउरपच्चक्खाण ) को मरण से सम्बद्ध होने के कारण अन्तकालप्रकीर्णक भी कहा जाता
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