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ज्ञानमीमांसा
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२५१ प्रथम भूमिका में दार्शनिक पुट का अभाव है । यह भूमिका प्राचीन परम्परा का सीधा-सा दिग्दर्शन है । ज्ञान को प्रारम्भ से ही पाँच भागों में विभक्त करके मतिज्ञान के अवग्रहादि प्रभेद करना बहुत प्राचीन परिपाटी है। इसी परिपाटी का दिग्दर्शन भगवतीसूत्र में है । द्वितीय भूमिका पर दार्शनिक चिन्तन का प्रभाव है और साथ ही साथ शुद्ध जैन दृष्टि की छाप भी है । सर्वप्रथम ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त किया गया । यह विभाग बाद के जैन तार्किकों द्वारा भी मान्य हुआ । इस विभाग के पीछे वैशद्य और अवैशद्य की भूमिका है । वैशद्य का आधार आत्मप्रत्यक्ष है और अवैशद्य का आधार इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान है। जैन दर्शन की प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्धी व्याख्या इसी आधार पर है । अन्य दर्शनों की प्रत्यक्ष-विषयक मान्यता से जैन दर्शन की प्रत्यक्ष विषयक मान्यता में यही अन्तर है कि जैन दर्शन आत्मप्रत्यक्ष को ही वास्तविक प्रत्यक्ष मानता है, जब कि अन्य दर्शन इन्द्रियजन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानते हैं । अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष के भेद हैं । क्षेत्र, विशुद्धि आदि की दृष्टि से इनमें तारतम्य है । केवलज्ञान शुद्धि, क्षेत्र आदि की अन्तिम सीमा है । इससे बढ़कर कोई ज्ञान विशुद्ध या पूर्ण नहीं है । आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष के भेद हैं । आभिनिबोधिकज्ञान को मतिज्ञान भी कहते हैं । श्रुतज्ञान का आधार मन है । मतिज्ञान का आधार इन्द्रियाँ और मन दोनों हैं । मति, श्रुतादि के अनेक अवान्तर भेद हैं । तृतीय भूमिका में जैन दृष्टि और इतर दृष्टि दोनों का पुट है। प्रत्यक्ष को इन्द्रिय- प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय- प्रत्यक्ष इन दो भागों में बाँटा गया । इन्द्रिय- प्रत्यक्ष में इन्द्रियजन्य ज्ञान को स्थान मिला, जो वास्तव में इन्द्रियाश्रित होने से परोक्ष है। नोइन्द्रिय
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