________________
३८४
जैन धर्म-दर्शन
भी है और अभिन्न भी है, सत् भी है और असत् भी हैं, वाच्य भी है और अवाच्य भी है। जो भिन्न हैं वह अभिन्न कैसे हो सकती है। जो एक है वह एक ही है, जो अनेक हैं वह अनेक ही है। इसी प्रकार अन्य धर्म भी पारस्परिक विरोध सहन नहीं कर सकते । स्याद्वाद इस प्रकार के विरोधी धर्मों का एकत्र समर्थन करता है । इसलिए वह सदोष हैं ।
यह दोषारोपण मिथ्या है। प्रत्येक पदार्थं अनुभव के आधार पर इसी प्रकार का सिद्ध होता है। एक दृष्टि से वह नित्य प्रतीत होता है और दूसरी दृष्टि से अनित्य । एक दृष्टि से एक मालूम होता है और दूसरी दृष्टि से अनेक । स्याद्वाद यह नहीं कहता कि जो नित्यता है वही अनित्यता है या जो एकता है वही अनेकता है । नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता आदि धर्म परस्पर विरोधी हैं यह सत्य है, किन्तु उनका विरोध अपनी दृष्टि से है, वस्तु की दृष्टि से नहीं । वस्तु दोनों को आश्रय देती है। दोनों की सत्ता से ही वस्तु का स्वरूप पूर्ण होता है। एक के अभाव में पदार्थ अधूरा है । जब एक वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य मालूम होती है तो उसमें विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं है । विरोध वहाँ होता है जहाँ विरोध की प्रतीति हो । विरोध की प्रतीति के अभाव में भी विरोध की कल्पना करना सत्य को चुनौती देना है। जैन ही नहीं, बौद्ध भी चित्रज्ञान में विरोध नहीं मानते । जब एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास हो सकता है और उस ज्ञान में विरोध नहीं होता तो एक ही पदार्थ में दो विरोधी धर्मों की सत्ता मानने में क्या हानि है ? नैयायिक चित्रवर्ण की सत्ता मानते ही हैं । एक ही वस्त्र में संकोच और विकास हो सकता है, एक ही वस्त्र रक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org