Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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आचारशास्त्र
परम्परा के दो अंग हैं । बौद्ध-परम्परा में हीनयान और महायान के रूप में आचार और विचार की दो धाराएं हैं। हीनयान आचारप्रधान है तथा महायान विचारप्रधान । जैन परम्परा में भी आचार और विचार को समान स्थान दिया गया है। अहिंसामूलक आचार एवं अनेकांतमूलक विचार का प्रतिपादन जैन विचारधारा की विशेषता है।
___ जैनाचार का प्राण अहिंसा है । अहिंसक आचार एवं विचार से ही आध्यात्मिक उत्थान होता है जो कर्ममुक्ति का कारण है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन एव आचरण जैन परम्परा में उपलब्ध है उतना शायद ही किसी जैनेतर परम्परा में हो । अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है । प्रत्येक आत्मा-चाहे वह पृथ्वीसम्बन्धी हो, चाहे उसका आश्रय जल हो, चाहे वह कीट अथवा पतंग के रूप में हो, चाहे वह पशु अथवा पक्षी मे हो, चाहे उसका वास मानव में हो तात्त्विक दृष्टि से समान है। सुख-दुःख का अनुभव प्रत्येक प्राणी को होता है । जीवन-मरण की प्रतीति सबको होती है। सभी जीव जीना चाहते हैं । वास्तव में कोई भी मरने की इच्छा नहीं करता। जिस प्रकार हमें जीवन प्रिय है एवं मरण अप्रिय, सुख प्रिय है एवं दुःख अप्रिय, अनुकूलता प्रिय है एवं प्रतिकूलता अप्रिय, मृदुता प्रिय है एवं कठोरता अप्रिय, स्वतन्त्रता प्रिय है एवं परतन्त्रता अप्रिय, लाभ प्रिय है एवं हानि अप्रिय, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी जीवन आदि प्रिय हैं एवं मरण आदि अप्रिय । इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी के वध आदि की बात न सोचें । शरीर से किसी की हत्या करना अथवा किसी को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाना तो पाप है ही, मन अथवा
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