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जैन कला एवं स्थापत्य
आदिनाथ का चौमुखी मन्दिर :
राणपुर अथवा राणकपुर (जोधपुर - राजस्थान) आदिनाथ के चौमुखी मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है जिसका निर्माण सन् १४३९ में हुआ था । यह मन्दिर चतुर्मुख युगादीश्वर - विहार और त्रिभुवनदीपक चतुर्मुख जिनालय के नाम से भी जाना जाता है । यह ४०००० वर्ग फीट के क्षेत्र में स्थित है। इसमें २९ मण्डप और ४२० खम्भे हैं जिनमें से कोई भी दो खम्भे बनावट की दृष्टि से समान नहीं हैं । सम्पूर्ण मन्दिर एक ऊँची जगती पर खड़ा है जो चारों तरफ से ऊँची ठोस दीवारों से घिरी हुई है । वास्तव में यह मध्य कक्ष में चारों तरफ संमितीयता से बने हुए मन्दिरों का योगरूप है। इसके भीतर समानुपातिक रूप से बने हुए विविध भाग हैं । यह बीच-बीच में बने हुए खुले आँगनों से विशृंखलित तथा व्यवस्थित प्रकाश के बिम्ब प्रतिबिम्बों से चमत्कृत स्तम्भों का एक अन्तरहित दृश्य प्रस्तुत करता है । भित्ति चित्रकला :
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उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट एक जैन गुफा में चित्रकारी के कुछ अवचिह्न प्राप्त हुए हैं जो ई. पूर्व प्रथम शती के मालूम पड़ते हैं । हाथीगुंफा का राजा खारवेल (ई. पूर्व १६१ ) का शिलालेख सबसे प्राचीन जैन चित्रकारी प्रस्तुत करता है । तंजोर के निकटस्थ सीतन्नवसल से सातवीं शती की कुछ महत्त्वपूर्ण जैन चित्रकारी प्राप्त हुई है । यह चट्टान को काटकर बनाये गये एक जैन मन्दिर के छत, शीर्ष एवं स्तम्भों के ऊपरी भाग में सुरक्षित है । मन्दिर के बरामदे के सम्पूर्ण शीर्ष की चित्रकारी कला की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । उसमें कमल के फूलों से आच्छादित एक सरोवर का दृश्य प्रस्तुत किया गया है जिसमें मछलियों, हंसों, भैंसों, हाथियों तथा तीन पुरुषों के भी चित्र अंकित हैं। पुरुषों के चित्र बहुत ही आकर्षक हैं। वे सब अपने - अपने हाथों में कमल लिये हुए हैं। खम्भों पर नाचती हुई बालाओं के चित्र हैं ।
तिरुपरुत्तिकुनरम् या जिन-कांची ( कांजीवरम्) के एक जैन मन्दिर में सुन्दर भित्ति चित्रकारी के अवशेष मिलते हैं। श्रवणबेलगोला का जैनमठ विभिन्न भित्तिचित्रों से अलंकृत है ।
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