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जैन धर्म-दर्शन
करवाकर प्रथम दीक्षा का छेद अर्थात् भंग कर नई दीक्षा अंगीकार करवानी चाहिए । जो नियम सामान्य एकलविहारी निर्ग्रन्थ के लिए है वही एकलविहारी गणावच्छेदक, उपाध्याय, आचार्य आदि के लिए भी है ।
गच्छ, कुल, गण व संघ :
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श्रमण संघ के मूल दो विभाग हैं: साधुवर्ग व साध्वीवर्ग । संख्या की विशालता को दृष्टि में रखते हुए इन वर्गों को अनेक उपविभागों में विभक्त किया जाता है । जितने साधुओं व साध्वियों की सुविधापूर्वक देख-रेख व व्यवस्था की जा सके उतने साधु-साध्वियों के समूह को गच्छ कहा जाता है। इस प्रकार के गच्छ के नायक को गच्छाचार्य कहते हैं । गच्छ के साधुओं अथवा साध्वियों की संख्या बड़ी होने पर उनका विभिन्न वर्गों में विभाजन किया जा सकता है । इस प्रकार के वर्ग में कम से कम कितने साधु हों, इसका विधान करते हुए व्यवहारसूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि हेमन्त तथा ग्रीष्म ऋतु में आचार्य एवं उपाध्याय के साथ कम से कम एक अन्य साधु रहना चाहिए । अन्य वर्गनायक, जिसे जैन परिभाषा में गणावच्छेदक कहते हैं, के साथ हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु में कम से कम दो अन्य साधु रहने चाहिएं । वर्षाऋतु में आचार्य एवं उपाध्याय के साथ दो तथा गणावच्छेदक के साथ तीन अन्य साधुओं का रहना अनिवार्य है । पंचम उद्देश में साध्वियों की अल्पतम संख्या का विधान करते हुए कहा गया है कि प्रवर्तिनी (प्रधान आर्या) को हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु में कम से कम दो तथा वर्षा ऋतु में कम से कम तीन अन्य साध्वियों के साथ रहना चाहिए। गणावच्छेदिनी के साथ वर्षाकाल में कम से कम चार तथा अन्य समय में कम से कम तीन साध्वियाँ रहनी चाहिएं । गच्छ के विभिन्न वर्गों के साधु-साध्वी गच्छाचार्य की आज्ञा के अनुसार ही विचरण करते हैं । इस प्रकार के अनेक गच्छों के समूह को कुल कहते हैं । कुल के नायक को कुलाचार्य कहा जाता है । अनेक कुलों के समूह को गण तथा अनेक गणों के समुदाय को संघ कहते हैं । गणनायक गणाचार्य अथवा गणधर तथा संघनायक संघाचार्य अथवा प्रधानाचार्य कहलाता है |
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