Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
३. जो हिंसा केवल द्रव्यरूप है, ऐसी हिंसा को अपूर्ण अहिंसा अथवा अपूर्ण हिंसा कहा जा सकता है। इसमें केवल प्राणवध होता है ।
४. जहां न भावरूप हिंसा है न द्रव्यरूप हिंसा, ऐसी स्थिति का नाम पूर्ण अहिंसा है । इसमें न प्रमत्त प्रवृत्ति होती है न प्राणवध ।
हिंसा-अहिंसा के विषय में मूलभूत प्रश्न यह है कि हिंसा को अनावरणीय एवं अहिंसा को आचरणीय क्यों कहा गया ? इस प्रश्न का एक उत्तर यह है कि चूंकि जगत् के सब प्राणी जीना चाहते हैं, कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता; सब को सुख प्रिय है, किसी को भी दुःख प्रिय नही है इत्यादि, इसलिए किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए, किसी को भी कष्ट सन्ताप पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। यह उत्तर पर की दृष्टि से है, स्व की दृष्टि से नहीं। सब कुछ भी चाहें किन्तु मैं वह क्यों करूं ? क्या मेरा भी उस क्रिया से कोई सम्बन्ध है ? हिंसा व्यक्ति के लिए अनाचरणीय इसलिए है कि इससे उसकी आत्मा अशुभ कर्मों से बद्ध होती है । प्रमत्त योग अर्थात् प्रमादयुक्त अथवा कषाययुक्त प्रवृत्ति से कषायवर्धक यानी विकारवर्धक कर्मों की परम्परा बढ़ती है। इसीलिए हिंसा आदि कुप्रवृत्तियाँ त्याज्य हैं - अनाचरणीय हैं । यह इस प्रश्न का तर्कसंगत उत्तर है। अहिंसा हिंसा से विपरीत है अतः अहिंसक अर्थात् अप्रमत्त एवं कषायमुक्त प्रवृत्ति व्यक्ति के लिए आचरणीय है । यह जैन दृष्टि से अहिंसा की उपादेयता है । हिंसा का निषेष इसलिए किया गया है कि हिंसा कषाय का कारण भी हैं और 'कार्य भी । यह कषाय से उत्पन्न भी होती है और कषाय को उत्पन्न भी करती है । अहिंसा न तो कषाय का कारण है और न कषाय का कार्य । अतः वह आचरणीय है ।
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भाव हिंसा का सम्बन्ध कषाय से है अतः वह त्याज्य है किन्तु द्रव्य हिंसा त्याज्य क्यों ? द्रव्य हिंसा भाव हिंसा से उत्पन्न होती है और भाव हिंसा को उत्पन्न भी करती है । यह कैसे ? किसी के मन में क्रूरता होने पर प्राणिहत्या की क्रिया उत्पन्न होती है और प्राणिहत्या की क्रिया से क्रूरता की वृद्धि भी होती है । एक व्यक्ति ऐसा है जो केवल वध की भावना करता है, दूसरा भावना के बाद वध भी करता है और तीसरे से भावना के बिना ही वध हो जाता है । इन तीनों
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