Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
वार्तिक की एक विशेषता यह है कि इसमें जितने भी मन्तव्यों की चर्चा हुई है उन राबका समाधान अनेकान्तवाद के द्वारा किया गया है। अपने समय तक विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं के विद्वानों ने अनेकान्तवाद पर जो आक्षेप किये एवं उसकी जो त्रुटियाँ बतलाई उन सबका निराकरण करने एवं अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का वास्तविक स्वरूप बतलाने के लिए ही अकलंक ने प्रस्तुत वार्तिक की रचना की है । सर्वार्थसिद्धि में जो आगमिक विषयों का प्राधान्य है उसे राजवार्तिककार ने कम करके दार्शनिक विषयों को प्रधानता दी है। . अष्टशती - समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा जैन दर्शन की एक श्रेष्ठ कृति है। आप्त कौन हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि जिसके सिद्धान्त दोषयुक्त न हों, प्रत्यक्ष तथा अनुमान से बाधित न हों वही आप्त हो सकता है । जिसमें मोहादि दोषों का सर्वथा अभाव है तथा जो सर्वज्ञ है वही आप्त है । ऐसा व्यक्ति जिन या अर्हत् ही हो सकता है क्योंकि उसके उपदेश प्रमाण से बाधित नहीं होते । उपर्युक्त आप्तमीमांसा पर अकलंक ने एक टीका लिखी है जो ८०० श्लोकप्रमाण है | अतः यह अटशती कहलाती है। इसमें विभिन्न दर्शनों के द्वैत-अद्वैतवाद, नित्य-अनित्यवाद, वक्तव्य-अध्यक्तव्यवाद, भेद-अभेदवाद, हेतु-अहेतुवाद, विज्ञान-बहिरर्थवाद, दैव पुरुषार्थवाद, पुण्यपापवाद, बन्ध-मोक्षवाद आदि अनेक परस्पर विरुद्ध वादों की समीक्षा करते हुए अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व की सिद्धि की गई है।
. जैन विद्वानों में अकलंक के ग्रन्थों का विशेष सम्मान है । इन ग्रन्थों पर कई टीकाएँ भी लिखी गई । लघीयस्त्रय पर अभयचन्द्र तथा प्रभाचन्द्र ने, न्यायविनिश्चय पर अनन्तवीर्य तथा वादिराज ने, प्रमाण-संग्रह एवं सिद्धिविनिश्चय पर अनन्तवीर्य ने तथा अंधशती पर विद्यानन्दि ने विस्तृत टीकाएँ लिखी हैं । माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुख अकलंक के ही प्रमाणशास्त्रीय विचारों का सूत्रबद्ध रूप है। ..
श्रमण, जनवरी १९७७
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