Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 657
________________ जैन धर्म-दर्शन विरुद्धता को आसानी से दूर किया जा सकता है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में जितने नाम एवं विशेषण आये हैं उनमें एक भी ऐसा शब्द नहीं है जिससे यह प्रतीत हो कि महावीर सिद्धार्थ एवं त्रिशला के पुत्र थे । समवायांग आदि जिन अन्य आगम-ग्रन्थों में महावीर के माता-पिता के रूप में त्रिशला एवं सिद्धार्थ के नामों का उल्लेख आता है वे सब ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा भगवतीसूत्र के पश्चात्कालीन हैं तथा आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध आदि से प्रभावित हैं । भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर के लिए 'ज्ञातृपुत्र' नाम का प्रयोग अवश्य हुआ है, किन्तु उसमें अथवा किसी अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता कि झातृवंश (आर्यकुल) क्षत्रियकुल से सम्बद्ध है ! आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं कल्पसूत्र में ज्ञातृवंश को क्षत्रियकुल से सम्बद्ध बताया गया है जो प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता । महावीर के ज्ञातृवंश को क्षत्रिय सिद्ध करने की भावना से ही ऐसा किया गया मालूम होता है । १४२ आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं कल्पसूत्र में कल्पित महावीर चरित का प्रभाव एवं प्रचार इतना अधिक बढ़ा कि दियम्बर परम्परा ने तो अर्धकल्पित चरित को भी एक ओर रखकर पूर्णकल्पित चरित को ही अपना लिया अर्थात् ऋषभदत्त एवं देवानन्दा का तो नामनिशान ही मित्र दिया तथा सिद्धार्थ और त्रिशला को महावीर के एकमात्र जनक जननी मान लिया एवं गर्भ-परिवर्तन की कृत्रिमता से मुक्ति प्राप्त कर ली। Jain Education International परामर्श (हिन्दी), जून १९८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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