Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश की सरकारों द्वारा पुरस्कृत जैन धर्म-दर्शन एक समीक्षात्मक परिचय डॉ. मोहनलाल मेहता सेठ उ-मूथा छगनमल मेमोरियल फाउण्डेशन बेंगलोर - ५६०००२ ain Education International _ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश की सरकारों द्वारा पुरस्कृत जैन धर्म-दर्शन एक समीक्षात्मक परिचय डॉ. मोहनलाल मेहता एम.ए. (दर्शन व मनोविज्ञान), पी-एच.डी., . शास्त्राचार्य, जैन-बौद्ध दर्शनशास्त्री, डिप्. जर्. पूर्व प्राध्यापक, जैन दर्शन, पूना विश्वविद्यालय सेठ-मूथा छगनमल मेमोरियल फाउण्डेशन ४०, लक्ष्मी कॉम्प्लेक्स, के. आर. रोड़ बेंगलोर - ५६०००२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: सेठ-मूथा छगनमल मेमोरियल फाउण्डेशन ४०, लक्ष्मी कॉम्प्लेक्स, के. आर. रोड़ बेंगलोर - ५६०००२ © सर्वाधिकार लेखकाधीन मुद्रक : योग एंटरप्राइजेज ४२८, मंगलवार पेठ पुणे - ४११०११ . प्रकाशन-वर्ष : सन् १९९९ मूल्य : २०० रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सन् १९१२ - १९८१) स्वर्गीय श्रेष्ठिवर्य छगनमलजी मूथा की पुण्यस्मृति में Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय श्रेष्टिवर्य छगनमलजी मूथा दक्षिण भारत का जन-जीवन राजस्थान की संस्कृति एवं सभ्यता से ओतप्रोत एवं प्रभावित रहा है । अन्तिम दो शताब्दियों में राजस्थान के कुशल व्यापारी दक्षिण भारत में व्यापारार्थ आये और उन्होंने अपनी दूरदर्शिता, मितव्ययिता, परिश्रमशीलता एवं व्यापारिक विचक्षणता से अर्थोपार्जन ही नहीं किया अपितु स्थानीय मानवसमाज के जीवन-विकास में तन-मन-धन से सक्रिय सहयोग देकर सबका हार्दिक प्रेम भी प्राप्त किया। सेठ श्री छगनमलजी मूलतः खारची (मारवाड़ जंक्शन के समीप) के निवासी थे । वे जेतारण के पास बर्दा ग्राम के श्रेष्ठिवर्य दानवीर श्री शंभूमलजी गंगारामजी मूथा के यहाँ गोद गये थे । श्री मूथाजी के व्यापारिक प्रतिष्ठान की कर्नाटक तथा राजस्थान के अनेक स्थानों पर शाखाएँ चलती थीं । यह प्रतिष्ठान श्री शंभूमलजी गंगारामजी मूथा के नामसे प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित था । प्रामाणिकता, दानशीलता एवं स्वधर्मी-वत्सलता आदि गुण-गरिमा से इस प्रतिष्ठान की प्रतिष्ठा देश के कोने-कोने में नामांकित हो चुकी थी। बेंगलोर के अशोकनगर में इस प्रतिष्ठान का विशाल कारोबार चलता था । जैन समाज के ज्योतिर्धर आचार्य श्री जवाहरलालजी के क्रान्तदर्शी जीवनोपदेश से मूथा परिवार और विशेषतः सेठ श्री छगनमलजी मूथा बहुत प्रभावित थे और महात्मा गांधी के अहिंसा एवं अनेकान्तमूलक सर्वोदयी रचनात्मक कार्यों को गतिशील बनाने में तन - मन - धन से सक्रिय सहयोग देने में अपने जीवनको धन्य समझते थे। महात्मा गांधी श्री मूथाजी की राष्ट्रीय भावना देखकर उनके बंगले पर भी पधारे थे तब उन्होंने हरिजन कोष में अच्छी धनराशि देकर गांधीजी का अभिनंदन किया था । श्री मूथाजी गांधी विचारधारा के अनुयायियों की आर्थिक स्थिति सुधारने में भी गुप्त आर्थिक योगदान देते रहते थे। राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री मोहनलालजी सुखाड़िया और भारत सरकारके शिक्षामंत्री श्री काललालजी श्रीमाली जब क्रमशः कर्नाटक के राज्यपाल और मैसूर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूपमें बेंगलोर में पधारे तब वे दोनों राजस्थान के सपूत श्री मूथाजी को स्वजन-आत्मीय समझकर सर्वप्रथम उनके Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगले पर ही ठहरे थे और दोनों ने जब श्री मूथाजी की दानवीरता के संबंध में परिचय पाया तब यही कहा कि ये तो राजस्थान के वर्तमानकालीन दानवीर भामाशाह हैं । उक्त दोनों महानुभावों ने जैन शिक्षा समिति की विघ्न-बाधाओं को दूर कर समिति के शिक्षा कार्यों को प्रगतिशील बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । . इसी प्रकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष, भारत के महान् विज्ञानवेत्ता डॉ. दौलतसिंहजी कोठारी जब बेंगलोर पधारे थे तब वे मूथाजी के बंगले पर ही ठहरे थे और उनका हार्दिक अभिनंदन श्री मूथाजी ने जैन शिक्षा समिति के विशाल हॉल में किया था । डॉ. कोठारी ने समिति की जैन-विद्या और राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवाप्रवृत्ति देखकर संतोष प्रकट किया था और स्व. श्री सुराणाजी, श्री मूथाजी एवं श्री शर्माजी-इस त्रिपुटी की विद्या-साधना की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। निःस्वार्थ समाजसेवक, जैन संस्कृति एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवा की धुनके पक्के, चित्तौड़-निवासी, कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता पं. श्री जोधराजजी सुराणा एवं विद्वद्वरेण्य शिक्षाशास्त्री श्री देवदत्तजी शर्मा-इन विद्याप्रिय दो सेवकों ने मद्रास में शिक्षा प्रचार का कार्य सफलतापूर्वक संपन्न कर जब सर्वप्रथम बेंगलोर में जैन-विद्या और हिन्दी-सेवा का कार्य प्रारंभ करने का संकल्प किया तब इन दोनों के संकल्प की पूर्ति के सहायक बने उदारचेता, श्रेष्ठिवर्य, शिक्षाप्रेमी श्री छगनमलजी मूथा । श्री सुराणाजी एवं श्री शर्माजी-इन युगल बन्धुओं ने आज से ५१ वर्ष पूर्व एक छोटे से ज्ञानबीजका आरोपण किया जो आज विविध शिक्षा-शाखाओं वाले एक विद्या-वटवृक्ष के रूपमें अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलान्वित हुआ है और उसकी विशाल शीतल छायामें आज तक हजारों की संख्या में विद्यार्थियों ने विद्यार्जन किया है और अपने जीवन को यशस्वी, तेजस्वी तथा ओजस्वी बनाया है । बेंगलोर में आज भी हिन्दी शिक्षण संघ एवं जैन शिक्षा समिति के अन्तर्गत विभिन्न शिक्षण-संस्थाएँ चल रही हैं और राष्ट्रीय संस्थाओं के रूप में प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रही हैं, यह संतोष एवं गौरव का विषय है । श्री मूथाजी स्वयं शिक्षाशास्त्री नहीं थे लेकिन उनके हृदय में राष्ट्र, समाज Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) एवं धर्म के उत्थान के लिये चिंतन, मनन और निदिध्यासन की ज्ञानधारा बहती रहती थी । उन्होंने श्री साधुमार्गी जैन संघ में समाजोत्थान के लिये एक 'समाज योजना' प्रस्तुत 'की जो 'मूथा योजना' के नाम से प्रचलित हुई । इस मूथा योजना को मूर्त रूप देने के लिये श्री मूथाजी ने तो आर्थिक सहयोग दिया ही, ज्ञानप्रेमी अन्य श्रेष्ठव ने भी आर्थिक योगदान देकर इस समाजोपयोगी योजना को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आशा है, यह मूथा योजना अवश्य समाजोपयोगी सिद्ध होगी । श्री मूथाजी के जीवनकाल में उनके नाम-निर्देश के साथ कोई शिक्षाप्रवृत्ति चालू नहीं की जा सकी क्योंकि वे ऐसी प्रवृत्ति को पसंद नहीं करते थे लेकिन उनके मरणोपरान्त श्री सुराणाजी ने उनकी स्मृति में मूथा ग्रन्थालय की स्थापना की । इस ग्रन्थालय में श्री जंबूकुमारजी (दत्तक पुत्र श्री छगनमलजी मूथा) ने अपने यहाँ जो जैन साहित्य विपुल प्रमाण में था वह इस ग्रन्थालय को समर्पित कर दिया। श्री सुराणाजी एवं श्री शर्माजी ने भारतीय साहित्य - वैदिक साहित्य, बौद्ध साहित्य एवं जैन साहित्य जो भिन्न-भिन्न भाषाओं एवं भिन्न-भिन्न विषयों में प्रकाशित था, खरीदकर मूथा- ग्रन्थालय को करीब ६५०० बहुमूल्य ग्रन्थों द्वारा समृद्ध बनाया । भारतके मूर्धन्य विद्वान्, पद्मभूषण श्री दलसुखभाई मालवणिया ने अपनी अमूल्य दुर्लभ साहित्य - संपत्ति, जो करीब ५००० की संख्या में अपनी निजी लायब्रेरी में संगृहीत थी, मूथा - ग्रन्थालय को समर्पित कर दी । स्व. श्री छगनमलजी मूथा वास्तव में एक आदर्श जैन थे । उनका जीवन आदर्श जैन के गुणों से ओतप्रोत था । कोई भी दुःखी भाई- बहन सहायतार्थ उनके पास आते तो उनको सक्रिय सहयोग तथा आर्थिक सहायता देना वे अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे । कोई भी निराश या हताश होकर नहीं जाता था । प्रत्येक दुःखी भाई-बहन को सच्ची सलाह देना, मार्गदर्शन देकर उनके कष्टों का निवारण करना वे अपना प्राथमिक कर्तव्य समझते थे । वे धनाढ्य होने के साथ ही गुणाढ्य भी थे, तेजस्वी और अपराभूत अर्थात् किसी से डरनेवाले नहीं थे । अपनी दानवीरता, वत्सलता एवं कर्तव्यपरायणता के कारण वे अजातशत्रु और सर्वप्रिय समाजनेता थे । शांतिलाल वनमाली शेठ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक प्रो. डॉ. मोहनलाल मेहता अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन विद्वान् हैं । इन्होंने जैनविद्या से सम्बद्ध अनेक विषयों पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । इनके अंग्रेजी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं के ग्रन्थ लोकप्रिय सिद्ध हुए हैं। कुछ ग्रन्थ तो तीन बार प्रकाशित हो चुके हैं। इनका जैन दर्शन राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश की सरकारों द्वारा सन् १९६० में, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग ३) उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सन् १९६८ में तथा जैन धर्म-दर्शन (जैन दर्शन का परिवर्तित रूप) उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सन् १९७४ में पुरस्कृत हुआ है। ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित प्राकृत प्रोपर नेम्स इनकी विशाल एवं विशिष्ट चिरस्थायी कृति है । डॉ. मेहता पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के संस्थापक निदेशक एवं पूना विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में जैन दर्शन के संस्थापक प्राध्यापक रह चुके हैं । सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा से सन् १९५९ में प्रस्तुत पुस्तक का प्रथम संस्करण (जैन दर्शन) प्रकाशित हुआ था । इसका संशोधित एवं संवर्धित द्वितीय संस्करण (जैन धर्म-दर्शन) पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ने सन् १९७३ में प्रकाशित किया था । वर्तमान प्रकाशन इसी का संशोधित एवं संवर्धित तृतीय संस्करण है। इस संस्करण के प्रकाशन की अनुमति प्रदान करने के लिए हम डॉ. मेहता के हृदय से आभारी हैं । श्री मोहनलाल खारीवाल, सी.ए., एच. सी. खींचा एण्ड कम्पनी, १५१, एवेन्यू रोड़, बेंगलोर - २, के उत्साह एवं उल्लासपूर्ण प्रयत्न के कारण ही यह प्रकाशन संभव हो सका है । एतदर्थ हम उनका हार्दिक आभार मानते हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए खींचा एण्ड खारीवाल चेरिटेबल ट्रस्ट, बेंगलोर ने अपना योगदान दिया एतदर्थ फाउण्डेशन ट्रस्ट का विशेष आभारी है । स्वर्गीय सेठ श्री छगनमलजी मूथा का परिचय प्रस्तुत करने के लिए श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ का बहुत आभार मानते हैं। पुस्तक के स्वच्छ एवं शुद्ध मुद्रण के लिए योग एंटरप्राइजेज, पुणे के स्वत्वाधिकारी डॉ. सिद्धेश्वर तगवाले को हार्दिक धन्यवाद देते हैं । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन प्रस्तुत ग्रन्थ में भारतीय धर्म-दर्शन के एक महत्त्वपूर्ण अंग जैन धर्मदर्शन का प्रामाणिक परिचय दिया गया है । इसे जैन धर्म-दर्शन का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी । विश्वास है कि हिन्दी साहित्य में इस कृति को समुचित स्थान प्राप्त होगा तथा जैन धर्म एवं दर्शन के ज्ञानार्जन में यह ग्रन्थ उल्लेखनीय योगदान करेगा । इससे पूर्व प्रकाशित इसके दो संस्करण राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश की सरकारों द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हो चुके हैं। प्रस्तुत पुस्तक सात अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय में जैन परम्परा का ऐतिहासिक परिचय दिया गया है । द्वितीय अध्याय में जैन धर्म एवं दर्शन से सम्बद्ध साहित्य की संक्षिप्त रूपरेखा है । तृतीय अध्याय में जैन दर्शनाभिमत तत्त्वव्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है । चतुर्थ अध्याय में जैन ज्ञानवाद एवं प्रमाणशास्त्र की मीमांसा की गई है । पंचम अध्याय सापेक्षवाद अर्थात् स्याद्वाद - अनेकान्तवाद से सम्बद्ध है । षष्ठ अध्याय में जैन कर्मसिद्धान्त का विस्तृत विवेचन है । सप्तम अध्याय में जैनाचार अर्थात् श्रमणाचार तथा श्रावकाचार का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । इस प्रकार जैन धर्म-दर्शन के समस्त महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रस्तुत पुस्तक में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । यथास्थान स्वतन्त्र समीक्षा भी की गई है । अन्त में परिशिष्ट है जिसमें अपने अन्यत्र प्रकाशित जैन कला एवं स्थापत्य, श्रमण-संघ, हिंसा-अहिंसा का जैन दर्शन, अकलंकदेव की दार्शनिक कृतियां, हेमचन्द्राचार्य की साहित्य-साधना तथा महावीर ब्राह्मण थे, क्षत्रिय नहीं - इन छ : महत्त्वपूर्ण लेखों का समावेश है । विश्वास है कि यह ग्रन्थ धर्म-दर्शन के जिज्ञासु पाठकों, विद्वज्जनों एवं विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों - सबके लिए समान रूप से उपयोगी सिद्ध होगा। मोहनलाल मेहता बी - १८, अनगल पार्क चतुःशृंगी, पुणे - ४११०१६ २५.८.१९९९ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जैन परम्परा का इतिहास - जैनधर्म प्रतिमावाद एवं दिगम्बरत्व अर्हतों के अनुयायी - जैन संस्कृति तथा द्राविड़ संस्कृति जैनधर्म तथा बौद्धधर्म पार्श्व की ऐतिहासिकता नेमिनाथ एवं अन्य तीर्थंकर महावीर सुधर्मा, जम्बू, भद्रबाहु और स्थूलभद्र सम्प्रति खारवेल विषयानुक्रम कालकाचार्य और गर्दभिल्ल मथुरा का जैन - स्तूप कुमारपाल और हेमचन्द्र दिगम्बर और श्वेताम्बर २. जैन धर्म-दर्शन का साहित्य आगम आगमिक व्याख्याएँ कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत धवला और जयधवला आगमिक प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र सिद्धसेन समन्तभद्र मल्लवादी सिंहगणि पात्रकेशरी ३-२० om x ३ ४ ५ ६ ७ ८ ८ १४ १६ १७ 9 9 १७ १८ १८ १९ २१-९४ २१ ५६ ५९ ६६ ६७ ६८ ७२ ७७ ८० ८१ ८२ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ९५-२४५ ९६ अकलंक हरिभद्र विद्यानन्द शाकटायन और अनन्तवीर्य माणिक्यनन्दी, सिद्धर्षि और अभयदेव प्रभाचन्द्र और वादिराज जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ और अनन्तवीर्य वादिदेवसूरि हेमचन्द्र अन्य दार्शनिक यशोविजय तत्त्वविचार जैन धर्म और जैन दर्शन भारतीय विचार-प्रवाह की दो धाराएं ब्राह्मण संस्कृति श्रमण संस्कृति 'श्रमण' शब्द का अर्थ जैन परम्परा का महत्त्व जैन दृष्टि से लोक सत् का स्वरूप द्रव्य और पर्याय भेदाभेदवाद द्रव्य का वर्गीकरण रूपी और अरूपी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व आत्मा का स्वरूप ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोग संसारी आत्मा १०० १०२ १०५ १०६ ११३ ११७ १२२ १२९ १३८ १४३ १४६ १५५ १५६ १५९ १६१ १७८ पुद्गल Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) अणु स्कन्ध पुद्गल का कार्य शब्द बन्ध १८३ १९२ १९७ १९८ १९९ सौम्य २०० २०० २०० 9 90 ० ० ० ० ० २०० स्थौल्य संस्थान भेद तम छाया आतप उद्योत पुद्गल और आत्मा औदारिक शरीर वैक्रिय शरीर आहारक शरीर तैजस शरीर कार्मण शरीर २०१ २०१ २०१ २०२ ०२ २०३ २०४ २०४ धर्म २०५ २०७ २१२ अधर्म आकाश अद्धासमय विश्व का स्वरूप अधोलोक मध्यलोक ऊर्ध्वलोक नारकी देव मनुष्य २१९ २२६ २२८ २३० २३३ २३४ २३६ २४० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर तिर्यञ्च ४. ज्ञानमीमांसा आगमों में ज्ञानवाद मतिज्ञान इन्द्रिय मन अवग्रह ईहा अवाय धारणा श्रुतज्ञान मति और श्रुत अवधिज्ञान मनः न:पर्ययज्ञान अवधि और मन:पर्यय केवलज्ञान दर्शन और ज्ञान आगमों में प्रमाणचर्चा तर्कयुग में ज्ञान और प्रमाण ज्ञान का प्रामाण्य प्रमाण का फल प्रमाण के भेद प्रत्यक्ष परोक्ष ५. सापेक्षवाद (१२) विभज्यवाद एवं अनेकान्तवाद एकान्तवाद और अनेकान्तवाद नित्यता और अनित्यता सान्तता और अनन्तता २४२ २४४ २४६-३३४ २४७ २५२ २५४ २५५ २५८ २६१ २६३ २६४ २७० २७३ २७६ २८० २८३ २८४ २९१ २९८ ३०७ ३१० ३१३ ३१४ ३१७ ३१८ ३३५-४१२ ३३७ ३४१ ३४४ ३४५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ३५३ ३५६ ३५८ ३५९ ३६५ ३७४ ३८२ ३९४ ३९५ ३९६ ३९८ ३९९ (१३) एकता और अनेकता अस्ति और नास्ति आगमों में स्याद्वाद अनेकान्तवाद और स्याद्वाद स्याद्वाद और सप्तभंगी भंगों का आगमकालीन रूप सप्तभंगी दोष-परिहार नयवाद द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक दृष्टि द्रव्यार्थिक एवं प्रदेशार्थिक दृष्टि • व्यावहारिक तथा नैश्चयिक दृष्टि अर्थनय और शब्दनय नय के भेद नयों का पारस्परिक सम्बन्ध कर्मसिद्धान्त कर्मवाद और इच्छा-स्वातन्त्र्य कर्मवाद व अन्य वाद जैन सिद्धान्त का मन्तव्य कर्म का अस्तित्व कर्म का मूर्तत्व कर्म, आत्मा और शरीर आगम-साहित्य में कर्मवाद कर्म का स्वरूप कर्मबन्ध का कारण कर्मबन्ध की प्रक्रिया कर्म का उदय और क्षय कर्मप्रकृति अर्थात् कर्मफल कर्म की स्थिति कर्मफल की तीवता-मन्दता ४०० ४११ ४१३-५०३ ४१४ ० ४१६ ४२४ ४२५ ४२७ ४२८ ४२९ ४४२ ४५८ ४५९ ४६०. ४६१ ४७७ X/0/ national Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ४७८ ४७९ ४८५ ४९१ ४९२ ५०० ५०४-५६५ ५०७ ५०८ ५१३ ५१४ ५२१ ५२३ ५२४ कर्म के प्रदेश पुण्य और पाप कर्म की विविध अवस्थाएं कर्म और पुनर्जन्म गुणस्थान बन्ध और मोक्ष आचारशास्त्र श्रमणाचार पांच महाव्रत रात्रिभोजन-विरमणव्रत छः आवश्यक श्रमणों के विभिन्न प्रकार वस्त्रमर्यादा सामाचारी पंडितमरण श्रावकाचार अणुव्रत गुणवत शिक्षाव्रत संलेखना प्रतिमाएँ ग्रन्थ-सूची अनुक्रमणिका परिशिष्ट जैन कला एवं स्थापत्य श्रमण-संघ हिंसा-अहिंसा का जैन दर्शन अकलंकदेव की दार्शनिक कृतियां हेमचन्द्राचार्य की साहित्य-साधना महावीर ब्राह्मण थे, क्षत्रिय नहीं ५३१ ५३२ ५३४ ५४५ ५५२ ५५८ - ५६० ५६७ ५७३ ६०७-६४२ ६०९ ६१७ ६२९ ६३२ ६३९ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास भारतीय संस्कृति अपनी विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है । इसमें दो धाराएं प्रवाहित होती हैं-श्रमण तथा ब्राह्मण । ब्राह्मण धारा के अन्तर्गत वैदिक, आर्य अथवा हिन्दू परम्पराएं आती हैं तथा श्रमण धारा में जैन, बौद्ध और इसी तरह की अन्य तापसी अथवा यौगिक परम्पराएं समाविष्ट हैं। ब्राह्मण मतानुयायी वेद तथा वैदिक साहित्य को प्रमाणभूत मानते हैं। जैतों एवं बौद्धों के अपने-अपने सिद्धान्तग्रन्थ हैं जिन्हें वे प्रमाणरूप अंगीकार करते हैं। जैनधर्म : जनधर्म संसार के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। यह भारत का एक अति प्राचीन तथा स्वतंत्र धर्म है। ऐसी धारणा बिल्कुल ही गलत है कि इसका संस्थापन महावीर के द्वारा हुआ। यहां तक कि पार्श्वनाथ को भी इसका जन्मदाता नहीं कहा जा सकता । इसी तरह यह भी कहना सही नहीं है कि जैनधर्म का जन्म वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ है। वास्तव में जैनधर्म पूर्णतः एक स्वतंत्र धर्म है। यह एक प्रकार से वैदिक धर्म से भी पुराना है । जैन संस्कृति जो अब भारत में श्रमणधारा का प्रतिनिधित्व करती है, अपने निषेधात्मक रूप में अवैदिक, अनार्य तथा अब्राह्मण है। इसकी अपनी विशेषताएं हैं। यह स्मरणातीत काल से इस भारत भूमि पर अपना विकास एवं विस्तार कर रही है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की सिन्धु-सभ्यता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन जैन संस्कृति की प्राचीनता पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। इसका निषेध नहीं किया जा सकता कि भारतीय संस्कृति की दोनों धाराएं एक-दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। वास्तव में भारतीय संस्कृति एक मिलीजुली संस्कृति है जिसके विकास में इसकी दोनों ही धाराओं-ब्राह्मण और धमण-ने अपना-अपना योगदान दिया है । यह सत्य है कि दोनों धाराओं में बहुत सी समानताएं हैं, किन्तु यह भी असत्य नहीं है कि दोनों की अपनीअपनी विशेषताएं एवं विभिन्नताएं हैं। प्रतिमावाद एवं विगम्बरत्व : ___ सिन्धु-सभ्यता का समय ई०पूर्व ३००० माना जाता है। यह वैदिक काल में प्रचलित आर्य सभ्यता से भिन्न है। तुलना के आधार पर यह प्रतीत होता है कि इन दोनों सभ्यताओं में तादात्म्य संबंध नहीं था। वैदिक धर्म सामान्यतः अमूर्तिवादी है, परन्तु मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में मूर्तिवाद की झलक स्पष्ट दीखती है । मोहनजोदड़ो के घरों में वेदिका का अभाव दिखाई देता है । साथ ही वहां पर बहुत से नग्न चित्र तथा नग्न मूर्तियां भी मिली हैं जिन्हें तपस्वी योगियों के चित्र अथवा मूर्तियां माना जा सकता है। मूर्तिवाद और नग्नता जैन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं हैं। मोहनजोदड़ो की नग्न मूर्तियों से यह स्पष्ट इंगित होता है कि सिन्ध-सभ्यता के लोग केवल योग की साधना ही नहीं करते थे अपितु योगियों की प्रतिमाओं की पूजा भी करते थे। वहां मुद्राओं पर अंकित चित्रों में बैठे हुए देवों के साथ-साथ खड़े हुए देवों के भी चित्र हैं जो कायोत्सर्ग अवस्था को प्रतिभासित ___ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास करते हैं। यह अवस्था विशेषतः जैन योग अथवा ध्यान की अवस्था है। अहंतों के अनुयायी : महावीर और बुद्ध से पहले भी ऐसे सम्प्रदाय थे जिनकी आस्था वेदों पर नहीं थी। अर्हत तथा अर्हत-चैत्य इन दोनों के जन्म के पहले भी पाये जाते थे। उन अर्हतों के अनुयायी 'व्रात्य' के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने गणतंत्र राज्य की प्रथाअपनाई हुई थी। उनके अपने धर्मस्थान, अवैदिक पूजन तथा धार्मिक पथ-प्रदर्शक थे। वे अहिंसक थे तथा उनकी प्रथाएं बलिविहीन थीं। ये वे ही लोग थे जिनके साथ आर्यों को भारतवर्ष में बसने के लक्ष्य से जूझना पड़ा था। वैदिक काल में कुछ सन्त 'यति' कहलाते थे। संभवत: वे यति अवैदिक मत को माननेवाले यानी श्रमण समाज के सदस्य रहे होंगे। इसके अलावा कुछ नग्न साधुओं के भी वर्णन मिलते हैं जिनसे कठिन संन्याससाधना का अनुमान होता है। ऐसे लोग जिन्होंने त्याग को पसन्द किया और सांसारिक सुखों को तिलांजलि दे दी, श्रमण समाज अथवा अवैदिक समाज के प्रबल स्तम्भ थे। ब्राह्मण मत इससे कहीं भिन्न था। उसमें दीर्घायु, वीर सन्तान, धन, शक्ति, खाद्य एवं पेय की विपुलता तथा विपक्षियों की हार की कामना की जाती थी। अतएव ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में त्याग के सिद्धान्त का ब्राह्मण अथवा आर्य समाज से संबंध नहीं था। जैन संस्कृति तथा द्राविड़ संस्कृति : जैन संस्कृति तथा प्राग्वैदिक द्राविड़ संस्कृति के बीच अनेक समानताएं पाई जाती हैं। दोनों ही सरल, स्पष्ट तथा निराशा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन वादी दृष्टिकोणवाली संस्कृतियां हैं। जैनधर्म निराशावादीहै यानी दुनिया दुःखपूर्ण है, इसमें विश्वास करता है। वैदिक आशावाद में इस तरह की मान्यता नहीं है। जैनधर्म तथा द्राविड़धर्म दोनों ही अनीश्वरवाद और आत्मा एवं भौतिक पदार्थों के बीच के द्वन्द्ववाद को मानते हैं। दोनों ही पुनर्जन्म और कर्मवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं। प्रारम्भ में ब्राह्मणों की जानकारी में ये दोनों सिद्धान्त थे,ऐसा नहीं कहा जा सकता। अतः विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि सिन्धु-सभ्यता के लोग द्राविड़ थे। मोहनजोदड़ो-निवासी द्राविड़ थे, उनकी भाषा और संस्कृति भी द्राविड़ ही थी। जैनधर्म तथा बौद्धधर्म : जैन और बौद्ध धर्म श्रमण-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि बौद्ध और जैन स्रोतों के आधार पर जैनधर्म की प्राचीनता को आंकने का प्रयास किया जाय तो यह स्पष्ट ज्ञात होगा कि जैनधर्म बौद्धधर्म से प्राचीन है । बौद्धग्रन्थों के 'निगण्ठ नाटपुत्ते जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर महावीर ही हैं। उनके निर्वाण का स्थान पावा बताया गया है। बौद्धमतवालों ने जैनों को अपना पूर्वसंगठित प्रतिद्वन्द्वी माना है। बुद्ध ने सत्य की खोज के लिए अनेक प्रयोग किये थे पर महावीर के जीवन में ऐसी बात नहीं मिलती। उन्होंने पुराने निग्रन्थ धर्म को अपनाया और उसी का उपदेश दिया। दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में निर्ग्रन्थ धर्म के चतुर्याम का उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट होता है कि बौद्ध लोगों को जैन परम्परा की जानकारी थी। भगवान् महावीर से पूर्व होनेवाले भगवान् पार्श्व ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया था। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास महावीर ने उसी का अनुगमन किया लेकिन उसमें एक व्रत बढ़ाकर उसे पंचयाम-पंचव्रत का रूप दे दिया, यह जनों के उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २३) से स्पष्ट होता है। इस आगम ग्रन्थ में पार्श्व के अनुयायी केशी तथा महावीर के अनुयायी गौतम के बीच होनेवाले वार्तालाप का बड़ा ही रोचक वर्णन है। इसमें दोनों ही पक्षों के नेताओं ने अपने-अपने धर्मगुरुओं के सिद्धान्तों को जाना-पहचाना है । उन्होंने चतुर्याम तथा पंचव्रत का व्याख्यान किया है और यह स्वीकार किया है कि वास्तव में ये दोनों (पार्श्व तथा महावीर के) सिद्धान्त एक ही हैं। पावं की ऐतिहासिकता : भगवान् पार्श्व की ऐतिहासिकता को अब निर्विरोध स्वीकार कर लिया गया है। वे महावीर से २५० वर्ष पहले हुए थे। उनका जन्म वाराणसी के राजा अश्वसेन एवं रानी वामा के पुत्र के रूप में हुआ था। ३० वर्ष की अवस्था में घर-बार छोड़कर उन्होंने संन्यास लिया और ८३ दिनों तक लगातार तपस्या करते रहे। ८४वें दिन उन्हें सर्वज्ञता प्राप्त हुई। ७० वर्ष तक उन्होंने उपदेश दिया तथा १०० वर्ष की अवस्था में उन्हें सम्मेतशिखर पर मोक्ष की प्राप्ति हुई। भगवान् पार्श्व द्वारा उपदिष्ट चार व्रत ये हैं-- हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चोरी न करना और धनसंचय न करना । यद्यपि इन्हीं में ब्रह्मचर्य व्रत भी अन्तनिहित है तथापि पार्श्व और महावीर के बीच के २५० वर्षों में आचारविषयक कमजोरियां इतनी अधिक बढ़ गई कि महावीर को पूर्वप्रतिष्ठित चार व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत अलग से जोड़ना पड़ा। इस प्रकार भगवान् महावीरोपदिष्ट व्रतों की संख्या चार के स्थान पर पांच हो गई। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन नेमिनाथ एवं अन्य तीर्थङ्कर : भगवान पार्श्व के पहले होनेवाले नेमिनाथ अथवा अरिष्टनेमि कृष्ण के चचेरे भाई थे। यदि कृष्ण की ऐतिहासिकता स्वीकार की जाती है तो नेमिनाथ को भी ऐतिहासिक पुरुष मानना चाहिए । वे सौर्यपुर के अन्धकवृष्णि के पौत्र एवं समुद्रविजय के पुत्र थे। द्वारका के राजा उग्रसेन की सुपुत्री राजीमती के साथ कृष्ण ने उनकी शादी ठीक की थी। उन्हें रैवत (गिरनार) पर्वत पर मुक्ति प्राप्त हुई थी। ऐसी जैन परम्परा है कि मेमिनाथ से पहले २१ तीर्थङ्कर और हुए थे, जिनमें ऋषभदेव प्रथम थे। उन महान् आत्माओं की ऐतिहासिकता की स्थापना कोई आसान काम नहीं है। महावीर : महावीर २४वें यानी अन्तिम तीर्थङ्कर थे। पालि ग्रन्थों के अनुसार वे बुद्ध के समसामयिक थे पर दोनों की कभी भेट नहीं हुई। प्रारम्भ के प्राकृत ग्रन्थों में बुद्ध का नामोल्लेख नहीं हुआ है। इससे मालूम होता है कि महावीर और उनके अनुयायियों ने बुद्ध के व्यक्तित्व को विशेष महत्त्व नहीं दिया। लेकिन पालि-त्रिपिटक में महावीर को बुद्धकालीन छः तीर्थङ्करों में से एक माना गया है। इससे मालूम होता है कि महावीर एक प्रभावशाली पुरुष एवं अग्रगण्य श्रमण थे। श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार महावीर वि०सं० से ४७० वर्ष पूर्व मुक्त हुए थे और दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार उन्हें शक सं० से ६०५ वर्ष पूर्व मुक्ति प्राप्त हुई थी। इन दोनों में से किसी भी गणना के आधार पर महावीर का मुक्ति-काल ई० पूर्व ५२७ आता है। चूंकि उन्होंने ७२ वर्ष की Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास . अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया अतः उनका जन्म-समय ई०पूर्व ५६६ के आस-पास आता है। बौद्ध आगम-ग्रन्थों में नाटपुत्त (णायपुत्त-ज्ञातपुत्र) एवं निगंठों (णिग्गंथों-निर्ग्रन्थों) अर्थात् महावीर एवं जैनों के संबंध में बहुत से उल्लेख मिलते हैं। उनमें नाटपुत्त की मृत्यु पावा में उस समय उल्लिखित है जबकि बुद्ध धर्मोपदेश में लगे हुए थे। हेमचन्द्र के मत से महावीर को चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक से १५५ वर्ष पूर्व मुक्ति प्राप्त हुई थी। तदनुसार महावीर का जीवन-काल ई० पूर्व ५४६ से ४७७ के आसपास आता है अर्थात् उनकी मृत्यु बुद्ध की मृत्यु से कुछ बाद में हुई। कुछ विद्वान् इस मत का समर्थन करते हैं। ___ इसमें कोई शक नहीं है कि पार्श्व महावीर से २५० वर्ष पहले हुए थे। जैन आगमों में ऐसा उल्लेख है कि महावीर के माता-पिता पार्श्व, जिनकी मृत्यु महावीर की मृत्यु (५२७ ई० पूर्व) से २५० वर्ष पहले हुई थी, के अनुयायी थे। चूंकि पार्श्व की आयु १०० वर्ष की थी अतः उनका समय ई० पूर्व ८७७७७७ आता है। महावीर किसी नये धर्म के प्रवर्तक नहीं थे अपितु एक ऐसे धर्म के संशोधक एवं आराधक थे जो बहुत पहले से चला आ रहा था। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २३) से इस संबंध में काफी अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। उसमें इस प्रकार उल्लेख है : पाव-परम्परा में केशी नाम के एक प्रसिद्ध आचार्य थे। वे एक बार अपने शिष्यों के साथ श्रावस्ती नगरी पहुँचे और वहां के तिन्दुक नामक उद्यान में ठहरे। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैन धर्म-दर्शन उसी समय महावीर ( वर्धमान) के प्रमुख शिष्य गौतम इन्द्रभूति भी अपनी शिष्यमंडली के साथ श्रावस्ती पहुंचे और वहां के कोष्ठक नामक उद्यान में ठहरे । दोनों के शिष्य संयम एवं तप को धारण करनेवाले थे। उनके मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुए : क्या हम लोगों के व्रत - नियम सही हैं या इन लोगों के ? क्या हम लोगों के सिद्धान्त ठीक हैं या इन लोगों के ? पार्श्व का चार व्रतों वाला धर्म ठीक है या महावीर का पाँच व्रतों वाला ? क्या वह नियम सही है जो साधुओं के लिए वस्त्रधारण का निषेध करता है अथवा वह जो मुनियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति देता है ? दोनों का एक ही उद्देश्य होने पर भी यह अन्तर क्यों ? अपने शिष्यों के विचारों को जानकर केशी तथा गौतम दोनों ने ही एक-दूसरे से मिलने का सोचा। गौतम तिन्दुक उद्यान में गये जहां केशी ने उनका स्वागत किया। गौतम की अनुमति से केशी ने प्रश्न उपस्थित किया- 'पार्श्व द्वारा उपदिष्ट चार व्रत हैं तथा वर्धमान ने पांच व्रतों का उपदेश दिया है । ये दोनों प्रकार के नियम एक ही उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, तो आखिर दोनों के बीच अन्तर होने का क्या कारण है ? क्या आपको इस विषय में कोई संशय नहीं है ?' गौतम ने उत्तर दिया'प्रथम तीर्थंकर के समय के साधु सरल पर मन्द-बुद्धि थे, अन्तिम तीर्थ कर के समय के मुनि मन्द बुद्धि होने के साथ-साथ वक्र भी थे तथा इन दोनों के बीच होने वाले साधु सरल और समझदार थे । अतः धर्म का दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया।' इस उत्तर से केशी की वह शंका दूर हो गई। उन्होंने Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास ११ दूसरा प्रश्न उपस्थित किया- 'वर्धमान ने वस्त्रधारण का निषेध किया है लेकिन पार्श्व ने एक अधोवस्त्र तथा उपरिवस्त्र धारण करने की अनुमति दी है, ये दोनों नियम एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिये बनाये गये हैं, तो फिर दोनों में अन्तर क्यों ?" गौतम ने उत्तर दिया- 'विभिन्न बाह्य चिह्नों का प्रयोग संयमविषयक उपयोगिता तथाविशिष्टता की दृष्टि से होता है परन्तु वास्तव में मोक्ष के साधन तो तीन ही हैं- सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र ।' इस उत्तर से भी केशी को संतोष हुआ । तब उन्होंने गौतम से पंचव्रत-धर्म अंगीकार किया । उत्तराध्ययन सूत्र के इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि पार्श्व तथा महावीर के अनुयायियों के बीच प्रमुख दो प्रकार के मतभेद थे - प्रथम का संबंध व्रतों से था और दूसरे का वस्त्रों से । पार्श्व ने चार व्रतों का उपदेश दिया था परन्तु महावीर ने ब्रह्मचर्य नामक पांचवां व्रत उसमें बढ़ा दिया । पार्श्व ने साधुओं को वस्त्र धारण करने को अनुमति दी थी लेकिन महावीर ने वस्त्र धारण का निषेध किया । अस्तु, केशी और उनके शिष्यों ने वस्त्रत्याग के बिना ही पंचव्रत ग्रहण किये और इस तरह महावीर के संघ में दो प्रकार के मुनि हुएसचेलक अर्थात् जो वस्त्र धारण करते थे और अचेलक अर्थात् जो वस्त्र धारण नहीं करते थे । भगवान् महावीर का जन्म वैशाली के उत्तर भागान्तर्गत कुण्डपुर (कुण्डग्राम) के क्षत्रिय सिद्धार्थ और त्रिशला के पुत्र के रूप में हुआ था। वे ज्ञातृवंश के थे। उनका जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था । जबसे उन्होंने त्रिशला के गर्भ में पदा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन धर्म-दर्शन र्पण किया तब से राज्य के खजाने के सोने, चांदी, जवाहरात आदि की वृद्धि शुरू हो गई। फलतः उनका नाम वर्धमान रखा गया। वैसे वे तीन नामों से प्रसिद्ध हुए--वर्धमान, श्रमण और महावीर । वर्धमान नाम उन्हें माता-पिता से मिला। लोगों ने उन्हें श्रमण नाम से पुकारा, कारण वे लगातार समभावपूर्वक सहज सुख के साथ बहुत दिनों तक तपस्या में लीन रहे । जब उन्होने सब प्रकार के भय, संघर्ष, विपदाओं आदि पर विजय प्राप्त कर ली तो देवताओं के द्वारा उन्हें महावीर की उपाधि मिली। वर्धमान ने तीस वर्ष तक गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत किया। जब उनके माता-पिता स्वर्गवासी हो गये तब उन्होंने अपने श्रेष्ठजनों की स्वीकृति लेकर अपनी सारी सम्पत्ति सालभर तक गरीबों को बांटी और बाद में घर-बार भी त्याग दिया । दो दिन तक उपवास करने के बाद वर्धमान ने मात्र एक वस्त्र धारण करके चन्द्रप्रभा नामक पालकी पर सवार होकर ज्ञातखण्ड नामक उद्यान की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचकर वे पालकी से उतर गये और एक अशोक वृक्ष के निकट अपने सभी आभूषणों को त्याग कर सिर के बालों को पाँच मुष्टियों में उखाड़ कर पूर्णतः अनगार अर्थात् गृहत्यागी बन गये। उन्होंने सिर्फ एक साल एक माह तक एक वस्त्र धारण किया, उसके बाद उसे भी त्याग कर नग्न भ्रमण करने लगे। महावीर ने अपना दूसरा चातुर्मास--वर्षावास राजगृह के उपनगर नालन्दा के एक जुलाहे के घर व्यतीत किया। वहाँ गोशाल नामक आजीविक उनके पास पहुचा और अपना शिष्य बना लेने के लिए उनसे आग्रह किया। महावीर ने उसके Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास १३ आग्रह पर ध्यान नहीं दिया । वर्षावास के अन्त में जब उन्होंने उस स्थान को छोड़ दिया तब गोशाल ने उनसे फिर प्रार्थना की। इस बार उन्होंने उसे शिष्यरूप में अंगीकार कर लिया और दोनों एक लम्बी अवधि तक साथ रहे । जब दोनों सिद्धार्थपुर में ठहरे हुए थे तब गोशाल ने महावीर की एक तिल के पौधे में फल लगने की भविष्यवाणी को चुनौती देते हुए उसे उखाड़ कर फेंक दिया। संयोगवश वर्षा हुई जिससे वह पौधा फिर हराभरा हो गया और उसमें फल लग गये । यह देखकर गोशाल ने ऐसा घोषित किया कि सभी चीजें पूर्व निश्चित हैं और सभी जीवों में पुनः जीवित होने की क्षमता है । महावीर ने इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया । तब गोशाल ने महावीर से अपना संबंध विच्छेद कर लिया और आजीविक नामक एक नये सम्प्रदाय को जन्म दिया । महावीर ने पश्चिम बंगाल के लाढ़ प्रदेश तक भ्रमण किया। वहाँ पर वज्रभूमि तथा शुभ्रभूमि के जनार्य क्षेत्र में उन्हें सब तरह की यातनाएं सहनी पड़ीं। प्रतिकूल जलवायु, कांटेदार झाड़ियों, विषैले जन्तुओं तथा उन लोगों के कारण जो उनके पीछे कुत्ते दौड़ा दिया करते थे, महावीर के सामने बहुत-सी विपदाएं आई। उन्होंने अपना नवां चातुर्मास लाढ़ प्रदेश में ही बिताया । विभिन्न बाधाओं एवं आपदाओं के होते हुए भी महावीर स्थिरचित्त हो बारह वर्ष तक कठिन तपस्या में लीन रहे । तेरहवें वर्ष की वैशाख शुक्ला दशमी को जूं भिकग्राम के बाहर ऋजुपालिका नदी के उत्तर तट पर श्यामाक गृहस्थ के खेत में शालवृक्ष के नीचे उस महान् तपस्वी को सर्वज्ञत्व की प्राप्ति Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन हुई । तब उन्होंने अर्धमागधी भाषा में धर्मोपदेश दिया और चतुर्विध संघ (साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका) की स्थापना की। भगवान महावीर ने अपने जीवन के अन्तिम तीस वर्ष सर्वज्ञ के रूप में व्यतीत किये । अन्तिम वर्षावास पावापुरी में किया और वहीं पर ७२ वर्ष की अवस्था में उन्हें कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन निर्वाण प्राप्त हुआ। उस समय वहां पर काशी तथा कोशल राज्य के १८ राजा, एवं मल्लकी और लेच्छकी वंश के भी अठारह राजा विराजमान थे। उन लोगों ने ऐसा सोचकर कि मृत्यु के साथ ही आध्यात्मिक ज्योति विलुप्त हो गई, दीपक जलाकर भौतिक ज्योति प्रज्वलित की। ___ भगवान् महावीर एक बृहत्संघ के अधिष्ठाता थे। उस संघ में १४००० साधु, ३६००० साध्वियां, १५६००० श्रावक तथा ३१८००० श्राविकाएं थीं। महावीर के अनुयायी निम्न प्रकार के थे-महाव्रती साधु अर्थात् श्रमण, जैसे इन्द्रभूति आदि, महाव्रती साध्वियां अर्थात् श्रमणियां, जैसे-- चन्दना आदि, अणुवती श्रावक जैसे- शंख आदि, अणुव्रती श्राविकाएं, जैसे- सुलसा आदि, सामान्य गृहस्थ पुरुष, जैसे-श्रेणिक (बिम्बिसार), कुणिक ( अजातशत्रु ), प्रद्योत, उदायन आदि, सामान्य गृहस्थी स्त्रियां, जैसे- चेलना आदि। तीर्थ कर के तीर्थ या संघ में श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका, इन चार प्रकार के व्यक्तियों का ही समावेश होता है। सुधर्मा, जम्बू, भद्रबाहु और स्थूलभद्र : भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में से केवल इन्द्रभूति तथा सुधर्मा ही उनक निर्वाणोपरान्त जीवित रहे। सुधर्मा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास ने महावीर के निर्वाण के २० वर्ष बाद मुक्ति प्राप्त की। ग्यारह गणधरों में सबसे अन्त में मरने वाले वे ही थे। जम्ब, जो अन्तिम सर्वज्ञ थे, उनके शिष्य थे। जम्बू ने महावीरनिर्वाण के ६४ वर्ष बाद मोक्ष प्राप्त किया। सुधर्मा के बाद छठी पीढ़ी में भद्रबाहु हुए जिनका समय तीसरी शती ई. पूर्व है। भद्रबाहु की मृत्यु महावीर-निर्वाण के १७० वर्ष बाद हुई। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। स्थूलभद्र को चार पूर्वो के अलावा अन्य सभी सिद्धान्त-ग्रन्थों का ज्ञान था। उन्होंने नेपालस्थित भद्रबाहु से प्रथम दस पूर्व अर्थसहित और अन्तिम चार बिना अर्थ के ही ग्रहण किये थे । इस प्रकार आगम ग्रन्थों का क्रमश: ह्रास होने लगा। फिर भी बहुत से प्रामाणिक मूल आगम-ग्रन्थ अभी भी सुरक्षित हैं। लेकिन दिगम्बरों की ऐसी धारणा है कि मूल आगम सबके सब लुप्त हो गये। जम्बू के समय तक दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में धर्माचार्यों के नामादि में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। वे दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। यद्यपि भद्रबाहु के जीवन से संबंधित घटनाओं के विषय में दोनों में विभिन्न मान्यताएं हैं, तथापि उन्हें दोनों ही सम्प्रदायों में समान स्थान प्राप्त है। उनके उत्तराधिकारी के नाम के संबंध में भी कोई एक निविरोध मान्यता नहीं है। बीच के आचार्यों के नामों में तो काफी अन्तर है ही। इन सभी बातों को देखते हुए ऐसा लगता है कि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में भद्रबाहु ( श्रुतकेवली) नाम के अलग-अलग दो आचार्य हुए हैं जो संभवतः समकालीन थे। श्वेताम्बर मत के अनुसार भद्रबाहु की Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन धर्म-दर्शन ... मृत्यु महावीर-निर्वाण से १७० वर्ष बाद हुई जबकि दिगम्बर मतानुसार भद्रबाहु का देहावसान महावीर-निर्वाण के १६२ वर्ष बाद हुआ। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भद्रबाहु नेपाल गये थे और बहुत दिनों तक वहीं पर तपस्या में लीन रहे थे। उसी समय दृष्टिवाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्थूलभद्र तथा अन्य साधु उनके पास गये थे। दिगम्बर परम्परा भद्रबाहु के अन्य साधुओं के साथ दक्षिण भारत में जाने पर विश्वास करती है। वह मानती है कि चन्द्रगुप्त के शासनकाल ( ई० पू० ३२२-२६८ ) में जनसंघ के नायक भद्रबाहु थे। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। उन्होंने बारह वर्ष के भीषण अकाल की भविष्यवाणी की और बहुत से जैन साधुओं को साथ लेकर वे दक्षिण भारत में चले गये। वहां जाकर वे कर्नाटक के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर रहने लगे। भद्रबाहु की वहीं मृत्यु हुई। श्रमणधर्म का अनुयायी राजा चन्द्रगुप्त अपना राज-पाट छोड़कर श्रवणबेलगोला गया, वहाँ पर बहुत दिनों तक एक गुफा में तपस्या करता रहा और अन्त में वहीं पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। सम्प्रति : जैनधर्म के प्रसार के लिये स्थूलभद्र के शिष्य सुहस्ती ने अशोक के पौत्र तथा उत्तराधिकारी राजा सम्प्रति को प्रभावित किया था। सम्प्रति के मन में जैनधर्म के विस्तार के लिये बड़ा उत्साह था। उसने सम्पूर्ण देश में अनेक जन-मन्दिर बनवाये। सुहस्ती के निर्देशन में उज्जैन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास १७ में सम्प्रति ने एक बहुत बड़ा धर्मोत्सव किया । उस समय राजा ने जो श्रद्धा-भक्ति दिखाई उससे प्रभावित होकर उसकी प्रजा भी जैनधर्म की ओर आकर्षित हुई । राजा सम्प्रति ने बहुत से धर्मदूतों अर्थात् धर्मोपदेशकों को दक्षिण भारत में भेजा । उन्होंने लोगों को उन खाद्य पदार्थों तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं का ज्ञान कराया जिन्हें जैन साधु ग्रहण कर सकते हैं । इस प्रकार की तैयारी करके सम्प्रति ने अनेक जैनाचार्यों को प्रेरित किया कि वे जैन साधुओं को उन देशों में भेजें। इस प्रकार दक्षिण भारत के अन्ध्र और द्रमिल देशों में धर्मोपदेशक भेजे गये । खारवेल : सम्प्रति के समय के आसपास ही कलिंग देश में खारवेल नामक राजा हुआ । उसके खण्डगिरि के शिलालेख से, जिसका समय करीब-करीब ई० पूर्व दूसरी शती का मध्य है, यह पता लगता है कि किस प्रकार उसने जैन साधकों को खूब दान दिया और उनके लिए पाषाणगृहों का निर्माण किया । आज भी उड़ीसा की खण्डगिरि, उदयगिरि और नीलगिरि पहाड़ियों में जैन गुफाएँ मिलती हैं। हाथीगुफा एक विशाल प्राकृतिक गुफा थी जिसका राजा खारवेल ने सुधार किया । उसमें खारवेल का एक भग्न शिलालेख मिला है जिसका प्रारम्भ जैन मंगलविधि से हुआ है । कालकाचार्य और गर्दभिल्ल : ई० पूर्व प्रथम शताब्दी में, जबकि उज्जैन पर गर्दभिल्ल का शासन था, कालकाचार्य नामक एक प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए । उनकी बहन सरस्वती का, जो एक जैन साध्वी थी, गर्द - भिल्ल ने अपहरण कर लिया । कालकाचार्य ने बार-बार राजा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन धर्म-दर्शन से प्रार्थना की और उसे धमकाया भी ताकि वह साध्वी को छोड़ दे पर उसने एक न सुनी। तब उन्होंने सिन्धु के पश्चिम की ओर प्रस्थान किया और शकों को गर्दभिल्ल के विरोध में उभाड़ा। शकों ने उज्जैन पर चढ़ाई की और गर्दभिल्ल को हराकर वहां पर अपना आधिपत्य जमाया। गर्दभिल्ल के उत्तराधिकारी विक्रमादित्य ने किसी तरह आक्रमणकारियों को भगाया और फिर से अपना अधिकार स्थापित किया। मथुरा का जैन स्तूप : मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में प्राप्त एक जैन स्तूप पर ईसा की दूसरी शती का शिलालेख मिला है। उस शिलालेख से यह जानकारी होती है कि वह स्तूप देवों द्वारा बनाया गया था। किन्तु ऐसे विश्वास के पीछे छिपा हुआ सत्य यह है कि उस समय उस स्तूप को लोग स्मरणातीत प्राचीन मानते थे। मथुरा की मूर्तियां तथा शिलालेख जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। कुमारपाल और हेमचन्द्र : गुजरात-काठियावाड़ में प्रारंभिक शताब्दियों में भी जैनधर्म का प्रचार था। मध्ययुग में सिद्धराज जयसिंह ( १०६४११४३ ई०) ने, जो स्वयं शिवोपासक था, एक महान् जैनाचार्य तथा ग्रन्थकार हेमचन्द्र को विशिष्ट विद्वान् के रूप में अपने दरबार का सदस्य बनाया था। कुमारपाल ( ११४३-११७३ ई० ) ने तो हेमचन्द्र से प्रभावित होकर अपने को जैनधर्म का अनुयायी ही बना लिया था। उसने गुजरात को एक आदर्श जैन राज्य बनाने का प्रयास किया। . उस समय हेमचन्द्र ने अवसर का पूर्ण लाभ उठाते हुए अपनी बहुविध वैज्ञानिक रचनाओं द्वारा एक विशिष्ट जैन संस्कृति Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास . १६ की स्थापना की । वे 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि से विभूषित हुए। ___ दक्षिण में कदम्ब, गंग, राष्ट्रकुट, चालुक्य तथा होय्सल वंश के राजा जैनधर्म के अनुयायी थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर : महावीर के संघ में सचेलक तथा अचेलक दोनों ही प्रकार के साधु थे। 'सचेलक' और श्वेताम्बर शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं तथा 'अचेलक' और दिगम्बर शब्द एक ही भाव व्यक्त करते हैं। श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं जबकि दिगम्बर सावु किसी भी प्रकार का वस्त्र नहीं पहनते। 'दिगम्बर' का शाब्दिक अर्थ होता है 'आकाश: वस्त्र' अर्थात् आकाश ही जिसका वस्त्र है। 'श्वेताम्बर' शब्द का अर्थ होता है सफेद वस्त्र यानी सफेद वस्त्र धारण करनेबाला। जम्बू के समय तक दोनों परम्पराएँ एक ही साथ थीं। बाद में इनका अपने-अपने धर्मनायकों के निर्देशन में . अलग-अलग धर्मपालन शुरू हुआ। दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की मान्यताओं में निम्नलिखित मुख्य भेद हैं : १. दिगम्बर मान्यतानुसार मूल आगम अब बिल्कुल ही नहीं रह गये हैं परन्तु श्वेताम्बर मत से अभी भी बहुत से मूल आगमग्रन्थ सुरक्षित हैं। २. दिगम्बरों के अनुसार सर्वज्ञ अर्थात् केवली पार्थिव भोजन ग्रहण नहीं करते लेकिन श्वेताम्बर इस मत को नहीं मानते। ___ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन धर्म-दर्शन ३. दिगम्बर मतानुसार बिना नग्न हुए मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । चूँकि स्त्रियाँ नग्न नहीं रह सकतीं अतः उन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । श्वेताम्बर मतानुसार मोक्ष प्राप्त करने के लिए नग्नता अनिवार्य नहीं है, अतः स्त्रियाँ भी मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं । ४. दिगम्बर मतानुयायी मानते हैं कि महावीर ने शादी नहीं की थी किन्तु श्वेताम्बर मत के अनुसार महावीर ने शादी की थी और उन्हें एक पुत्री भी थी । ५. दिगम्बर लोग तीर्थ करों की मूर्तियों को किसी भी प्रकार नहीं सजाते लेकिन श्वेताम्बर लोग उन्हें अच्छी तरह सजाते हैं । 1 ये दो प्रमुख सम्प्रदाय अन्य छोटे-छोटे उपसम्प्रदायों में बंटे हुए हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधानतः तीन प्रभेद हैंमूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरापंथी । दिगम्बर सम्प्रदाय के भी मुख्यत: तीन प्रभेद हैं- बीसपंथी, तेरहपंथी और तारणपंथी । मूर्तिपूजक तीर्थ करों की मूर्तियों की पूजा करते हैं । स्थानक - वासी ( १६वीं शती) मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते । तेरापंथी ( १८वीं शती) भी मूर्तिपूजा का समर्थन नहीं करते । अहिंसा के सम्बन्ध में इनका अन्य जैन सम्प्रदायों के साथ कुछ मतभेद है । बीसपंथी मूर्तिपूजा में फल-फूल आदि का प्रयोग करते हैं लेकिन तेरहपंथी केवल निर्जीव वस्तुएँ ही काम में लाते हैं। तारणपंथी ( १६वीं शती) पूजा में मूर्तियों के स्थान पर धार्मिक ग्रन्थों को रखते हैं । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ब्राह्मण धर्म-दर्शन का आधारभूत साहित्य संस्कृत वेद तथा वैदिक ग्रन्थ हैं। वौद्ध धर्म-दर्शन का आधार पालि त्रिपिटक तथा तन्मूलक साहित्य है। जैन धर्म-दर्शन प्राकृत आगमों एवं तदाधारित ग्रन्थों पर अवलम्बित हैं। आगम : आगम से हमारा तात्पर्य आचारांगादि अंगग्रन्थों तथा औपपातिकादि अंगबाह्य ग्रन्थों से है। स्वयं महावीर ने कुछ नहीं लिखा। महावीर के उपदेशों अथवा विचारों का सार उनके गणधरों अर्थात् प्रधान शिष्यों ने शब्दबद्ध किया । जब हम वर्तमान आगमों को महावीर-प्रणीत कहते हैं तो इसका तात्पर्य यही है कि अर्थरूप से इनका प्ररूपण भगवान् महावीर ने किया तथा ग्रन्थरूप से गणधरादि ने । आगमों का प्रामाण्य गणधरादि की अपेक्षा से नहीं, अपितु महावीर की वीतरागता की अपेक्षा से है । आगम-रचना दो प्रकार के पुरुषों द्वारा हुई है : १. गणधर अर्थात् भगवान् महावीर के साक्षात् प्रमुख शिष्य तथा २. स्थविर अर्थात् अन्य वरिष्ठ आचार्य । गणधरकृत आगम अंग अथवा अंगप्रविष्ट तथा स्थविरकृत आगम अनंग अथवा अंगबाह्य कहलाते हैं। वर्तमान में उपलब्ध आगमों का सम्पादन अथवा संस्करण देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने किया था। कालक्रम से स्मृति का ह्रास होते देख महावीर-निर्वाण के लगभग १६० वर्ष बाद, बारह वर्ष का लम्बा दुष्काल समाप्त Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन धर्म-दर्शन होने पर पाटलिपुत्र (पटना) में जैन श्रमण संघ एकत्र हुआ । एकत्र हुए श्रमणों ने १२ अंगों में से ११ अंग तो व्यवस्थित कर लिए किन्तु दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग उनसे संगृहीत न हो सका । उस समय केवल आचार्य भद्रबाहु ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें दृष्टिवाद का ज्ञान था। चूँकि वे उस समय नेपाल में एक विशेष प्रकार के योगमार्ग की साधना में लीन थे इसलिए इस मुनि सम्मेलन में उपस्थित होने की दशा में न थे । यह देख संघ ने स्थूलभद्र एवं अन्य साधुओं को दृष्टिवाद की वाचना ग्रहण करने के लिए भद्रबाहु कै पास भेजा । उनमें से केवल स्थूलभद्र ही दृष्टिवाद ग्रहण करने में समर्थ हुए । भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को केवल दस पूर्व ही सार्थ पढ़ाये, पूरा दृष्टिवाद नहीं। शेष चार पूर्व विना अर्थ के ही बताये । इस प्रकार आचार्य स्थूलभद्र तक १२ अंग सुरक्षित रहे । यह आगमों की प्रथम वाचना है । इसके बाद आगम- साहित्य का क्रमशः ह्रास होता गया । द्वितीय वाचना मथुरा एवं बलभी इन दो स्थानों में हुई। एक लम्बे दुर्भिक्ष के बाद आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में श्रमण संघ मथुरा में एकत्र हुआ। जिसे जो याद रह सका उसके आधार पर श्रुत साहित्य का पुनः संग्रह किया गया। इस वाचना का काल वीर - निर्वाण संवत् ८२५ के आसपास का है । इसी समय वलभी में नागार्जुनसूरि की अध्यक्षता में इसी प्रकार का एक और मुनि सम्मेलन हुआ जिसमें आगमों को व्यवस्थित किया गया । द्वितीय वाचना के इन दो सम्मेलनों के कारण आगमों में स्वाभाविकतया पाठांतरों का प्रवेश हो गया । माधुरी एवं वालभी वाचना सम्पन्न होने के लगभग डेढ़ सौ वर्ष बाद वीर निर्वाण संवत् ६८० ( मतान्तर से ९६३ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य २३ में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी में श्रमण-संघ को एकत्र कर उपलब्ध समस्त श्रुत को ग्रन्थबद्ध किया। देवद्धिगणि ने किसी नई वाचना का प्रवर्तन नहीं किया अपितु जो श्रुतपाठ पूर्व की दो वाचनाओं में निश्चित हो चुके थे उन्हीं को सुव्यवस्थित एवं सुसम्पादित करके ग्रन्थबद्ध किया। उन्होंने आगमों को ग्रन्थबद्ध करते समय कुछ महत्त्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखा। समान पाठों की पुनरावृत्ति न करते हुए तत्सम्बद्ध ग्रन्थविशेष अथवा स्थानविशेष का निर्देश कर दिया। एक ही ग्रन्थ में वही बात बार-बार आने पर पुनः-पुनः न लिखते हुए 'जाव' अर्थात् 'यावत्' शब्द का प्रयोग करते हुए उसका अन्तिम शब्द लिख दिया। इतना ही नहीं, महावीर के बाद की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं को भी उन्होंने आगमों में जोड़ दिया। माथुरी एवं वालभी इन दो पाठों में से देवद्धिगणि ने माथुरी पाठ को प्रधानता दी। साथ ही वालभी-पाठभेद को भी सुरक्षित रखा। - अंग अथवा अंगप्रविष्ट आगम-ग्रन्थ १२ हैं : १. आयारआचार, २. सूयगड-सूत्रकृत, ३. ठाण-स्थान, ४. समवाय, ५. वियाहपण्णत्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ६. णायाधम्मकहा-ज्ञाताधर्मकथा, ७. उवासगदसा-उपासकदशा, ८. अंतगडदसा-अन्तकृतदशा, ६. अणुत्तरोववाइयदसा-अनुत्तरौपपातिकदशा, १०. पण्हावागरण-प्रश्नव्याकरण, ११. विवागसुयविपाकश्रुत और १२. दिट्ठिवाय-दृष्टिवाद । इनमें से अन्तिम ग्रन्थ अर्थात् दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। आचारांग जैन आचार की आधारशिला है । यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । प्रथम श्रुतस्कन्ध गणधरकृत तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थविरकृत है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में पहले नौ अध्य Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन धर्म-दर्शन यन थे किन्तु महापरिज्ञा नामक एक अध्ययन का लोप हो जाने के कारण अब इसमें आठ अध्ययन ही रह गये हैं । इन अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं : १. शस्त्रपरिज्ञा, २. लोकविजय, ३. शीतोष्णीय, ४. सम्यक्त्व, ५. लोकसार अथवा आवंति, ६. धूत, ७. विमोक्ष और ८. उपधानश्रुत । ये अध्ययन विभिन्न उद्देशों में विभक्त हैं। प्रथम अध्ययन के सात उद्देश हैं। द्वितीय आदि अध्ययनों के क्रमश: छः, चार, चार, छः, पाँच, आठ और चार उद्देश हैं। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध में सब मिलाकर ४४ उद्देश हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का संयुक्त नाम 'ब्रह्मचर्य' है। इसीलिए आचार्य शीलांक ने अपनी टीका में इस श्रुतस्कन्ध को 'ब्रह्मचर्य-श्रुतस्कन्ध' कहा है । यहाँ ब्रह्मचर्य का अर्थ संयम है जो अहिंसा एवं समभाव की साधना का नामान्तर है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध को नियुक्तिकार ने 'आचाराग्र' नाम दिया है। यह वस्तुतः प्रथम श्रुतस्कन्ध का. परिशिष्ट है । इसीलिए इसे आचारचूला अथवा आचारचूलिका भी कहा जाता है। विषय के विशेष स्पष्टीकरण की दृष्टि से इस प्रकार की चूलिकाएं ग्रन्थों में जोड़ी जाती हैं । आचाराग्र अथवा आचारचूलिका-रूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाँच चूलाओं में विभक्त है । प्रथम चूला में पिण्डैषणादि सात तथा द्वितीय चूला में स्थान आदि सात अध्ययन हैं। तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम चूलाएं एक-एक अध्ययन के रूप में ही हैं। प्रथम चूला के प्रथम अध्ययन के ग्यारह, द्वितीय तथा तृतीय अध्ययनों के तीन-तीन और अन्तिम चार अध्ययनों के दो-दो उद्देश हैं। द्वितीयादि चूलाओं के अध्ययन एक-एक उद्देश के रूप में ही हैं । उपलब्ध समग्र जैन साहित्य में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीनतम है, यह इसकी भाषा, शैली एवं भावों से Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य सिद्ध है। इसके प्रथम अध्ययन 'शस्त्रपरिज्ञा' के सात उद्देशों में हिंसा के साधनों अर्थात शस्त्रों का परिज्ञान कराते हुए उनके परित्याग का उपदेश दिया गया है। जीवविषयक संयम इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। प्रथम उद्देश में जीव का सामान्य निरूपण करके द्वितीयादि उद्देशों में छः जीवनिकायों का क्रमशः वर्णन किया गया है। प्रत्येक उद्देश में यह प्रतिपादित किया गया है कि जीववध से कर्मों का बन्ध होता है अतएव विरति ही कर्तव्य है। 'लोकविजय' नामक द्वितीय अध्ययन छः उद्देशों में विभक्त है । इसका प्रतिपाद्य विषय लोक का बन्धन एवं उसका घात है। इसके छः उद्देशों का अर्थाधिकार अर्थात् प्रतिपाद्य विषय क्रमशः इस प्रकार है : १. स्वजनों में आसक्ति का परित्याग, २. संयम में शिथिलता का परित्याग ३. मान और अर्थ में सारदृष्टि का परित्याग, ४. भोग में आसक्ति का परित्याग, ५. लोक के आश्रय से संयम-निर्वाह और ६. लोक में ममत्व का परित्याग । 'लोकविजय' का शब्दार्थ है कषाय-रूप भावलोक का औपशमिकादि भावों द्वारा निरसन। 'शीतोष्णीय' नामक तृतीय अध्ययन चार उद्देशों में विभक्त है । सत्कार आदि अनुकूल परीषह 'शीत' तथा अपमान आदि प्रतिकूल परीषह 'उष्ण' कहे जाते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में आन्तरिक एवं बाह्य शीत-उष्ण की चर्चा है। इसमें यह बताया गया है कि श्रमण को शीतोष्ण स्पर्श, सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परीषह, कषाय, कामवासना, शोक-सन्ताप आदि को सहन करना चाहिए तथा सदैव तप-संयमउपशम के लिए उद्यत रहना चाहिए । प्रथम उद्देश में असंयमी का, द्वितीय उद्देश में असंयमी के दुःख का, तृतीय उद्देश में केवल कष्ट उठानेवाले श्रमण का एवं चतुर्थ उद्देश में कषाय के वमन का वर्णन है । 'सम्यक्त्व' नामक चतुर्थ अध्ययन भी चार उद्देशों Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैन धर्म-दर्शन में विभक्त है। प्रथम उद्देश में सम्यक्वाद अर्थात् यथार्थवाद का विचार किया गया है। द्वितीय उद्देश में धर्मप्रावादुकों की परीक्षा का, तृतीय उद्देश में अनवद्य तप के आचरण का तथा चतुर्थ उद्देश में नियमन अर्थात् संयम का वर्णन है । इन सबका तात्पर्य यह है कि संयमी को सदैव सम्यक् ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र में तत्पर रहना चाहिए। पंचम अध्ययन का नाम 'लोकसार' है । यह छः उद्देशों में विभक्त है । इसका दूसरा नाम आवंति भी है क्योंकि इसके प्रथम तीन उद्देशों का प्रारम्भ इसी शब्द से होता है । लोक में धर्म ही सारभूत तत्त्व है । धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम एवं संयम का सार निर्वाण है । प्रस्तुत अध्ययन में इसी का प्रतिपादन किया गया है । प्रथम उद्देश में हिंसक, समारम्भकर्ता तथा एकल विहारी को अमुनि कहा गया है । द्वितीय उद्देश में विरत को मुनि तथा अविरत को परिग्रही कहा गया है। तृतीय उद्देश में मुनि को अपरिग्रही एवं कामभोगों से विरक्त बताया गया है। चतुर्थ उद्देश में अगीतार्थ के मार्ग में आनेवाले विघ्नों का निरूपण है। पंचम उद्देश में मुनि को हद अर्थात् जलाशय की उपमा दी गई है। छठे उद्देश में उन्मार्ग एवं रागद्वेष के परित्याग का उपदेश दिया गया है । षष्ठ अध्ययन का नाम 'धूत' है । इसमें बाह्य एवं आन्तरिक पदार्थों के परित्याग तथा आत्मतत्त्व की परिशुद्धि का उपदेश दिया गया है अतः इसका धूत ( फटककर धोया हुआशुद्ध किया हुआ) नाम सार्थक है । इसके प्रथम उद्देश में स्वजन, द्वितीय में कर्म, तृतीय में उपकरण और शरीर, चतुर्थ में गौरव तथा पंचम में उपसर्ग और सम्मान के परित्याग का उपदेश है । 'महापरिज्ञा' नामक सप्तम अध्ययन विच्छिन्न है-लुप्त है । 'विमोक्ष' नामक अष्टम अध्ययन - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दर्शन का साहित्य २७ में आठ उद्देश हैं। प्रथम उद्देश में असमनोज्ञ अर्थात् असमान आचारवाले के परित्याग का उपदेश है । द्वितीय उद्देश में अकल्प्य अर्थात् अग्राह्य वस्तु के ग्रहण का प्रतिषेध किया गया है । अंगचेष्टा से सम्बद्ध कथन या शंका का निवारण तृतीय उद्देश का विषय है। आगे के उद्देशों में सामान्यतः भिक्षु के वस्त्राचार का वर्णन है किन्तु विशेषतः चतुर्थ में वैखानस एवं गार्द्धपृष्ठमरण, पंचम में रोग एवं भक्तपरिज्ञा, षष्ठ में एकत्वभावना एवं इंगिनीमरण, सप्तम में प्रतिमा एवं पादपोपगमनमरण तथा अष्टम में वयः प्राप्त श्रमणों की भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण एवं पादपोपगमनमरण की चर्चा है | नवम अध्ययन का नाम 'उपधानश्रुत' है । इसमें वर्तमान जैनाचार के प्ररूपक अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर की तपस्या का वर्णन है । प्रस्तुत अध्ययन में भगवान् महावीर के साधक - जीवन अर्थात् श्रमण जीवन की सर्वाधिक प्राचीन एवं विश्वसनीय सामग्री उपलब्ध है । इसके चार उद्देशों में से प्रथम में श्रमण भगवान् की चर्या अर्थात् विहार, द्वितीय में शय्या अर्थात् वसति, तृतीय में परीषह अर्थात् उपसर्ग तथा चतुर्थ में आतंक एवं तद्विषयक चिकित्सा का वर्णन है । इन सब क्रियाओं में उपधान अर्थात् तप प्रधान रूप से रहता है अतः इस अध्ययन का 'उपधानश्रुत' नाम सार्थक है । इसमें महावीर के लिए 'श्रमण भगवान्', 'ज्ञातपुत्र', 'मेधावी', 'ब्राह्मण', 'भिक्षु', 'अबहुवादी' आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है । प्रत्येक उद्देश के अन्त में उन्हें मतिमान् ब्राह्मण एवं भगवान् कहा गया है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पाँच चूलाओं में से अन्तिम चूला आचारप्रकल्प अथवा निशीथ को आचारांग से किसी समय Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन धर्म-दर्शन पृथक् कर दिया गया जिससे आचारांग में अब केवल चार चूलाएं ही रह गई हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में आनेवाले विविध विषयों को एकत्र करके शिष्य हितार्थ चूलाओं में संगृहीत कर स्पष्ट किया गया। इनमें कुछ अनुक्त विषयों का भी समावेश कर दिया गया। इस प्रकार इन चूलाओं के पीछे दो प्रयोजन थे : उक्त विषयों का स्पष्टीकरण तथा अनुक्त विषयों का ग्रहण । प्रथम चूला में सात अध्ययन हैं : १. पिण्डेषणा, २. शय्यैषणा, ३. ईर्ष्या, ४. भाषाजात, ५. वस्त्रं षणा, ६. पात्रैषणा और ७. अवग्रहप्रतिमा । द्वितीय चूला में भी सात अध्ययन है : ९. स्थान, २ निषीधिका, ३. उच्चार- प्रस्रवण, ४. शब्द, ५. रूप, ६. परिक्रिया और ७ अन्योन्यक्रिया । तृतीय चूला भावना अध्ययन के रूप में है। चतुर्थ चूला विमुक्ति-अध्ययनरूप है । प्रथम चूला का प्रथम अध्ययन ग्यारह उद्देशों में विभक्त है। इनमें भिक्षु भिक्षुणी की पिण्डेषणा अर्थात् आहार की गवेषणा के विषय में विधि-निषेधों का निरूपण है । 'शय्यैषणा' नामक द्वितीय अध्ययन में श्रमण श्रमणी के रहने के स्थान अर्थात् वसति की गवेषणा के विषय में प्रकाश डाला गया है । इस अध्ययन में तीन उद्देश हैं । 'ईर्या' नामक तृतीय अध्ययन में साधु-साध्वी की ईर्या अर्थात् गमनागमन रूप क्रिया की शुद्धि - अशुद्धि का विचार किया गया है। इसमें तीन उद्देश हैं । 'भाषाजात' नामक चतुर्थ अध्ययन के दो उद्देश हैं जिनमें भिक्षभिक्षुणी की वाणी का विचार किया गया है। प्रथम उद्देश में सोलह प्रकार की वचन-विभक्ति तथा द्वितीय में कषायजनक वचन - प्रयोग की व्याख्या है। पंचम अध्ययन 'वस्त्रषणा' के भी दो उद्देश हैं। इनमें से प्रथम में वस्त्रग्रहण सम्बन्धी तथा द्वितीय में वस्त्रधारण सम्बन्धी चर्चा है । षष्ठ अध्ययन 'पात्रषणा' के भी दो उद्देश हैं जिनमें अलाबु, काष्ठ एवं मिट्टी के पात्र के Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य २६ गवेषण एवं धारण की चर्चा है । 'अवग्रहप्रतिमा' नामक सप्तम अध्ययन भी दो उद्देशों में विभक्त है जिनमें विना अनुमति के किसी भी वस्तु को ग्रहण करने का निषेध किया गया है । द्वितीय चूला के प्रथम अध्ययन 'स्थान' में शरीर की हलनचलनरूप क्रिया का नियमन करनेवाली चार प्रकार की प्रतिमाएं अर्थात् प्रतिज्ञाएं वर्णित हैं जिनमें संयमी की स्थिति अपेक्षित है । द्वितीय अध्ययन 'निषीधिका' में स्वाध्यायभूमि के सम्बन्ध में चर्चा है । 'उच्चार-प्रस्रवण' नामक तृतीय अध्ययन में मल-मूत्र के त्याग की अहिंसक विधि बतलाई गई है । 'शब्द' नामक चतुर्थ अध्ययन में विविध वाद्यों, गीतों, नृत्यों, उत्सवों आदि के शब्दों को सुनने की लालसा से यत्र-तत्र जाने का निषेध किया गया है । 'रूप' नामक पंचम अध्ययन में विविध प्रकार के रूपों को देखने की लालसा का प्रतिषेध किया गया है । षष्ठ अध्ययन 'परक्रिया' में अन्य द्वारा शारीरिक संस्कार, चिकित्सा आदि कराने का निषेध किया गया है । सप्तम अध्ययन 'अन्योन्यक्रिया' में परस्पर चिकित्सा आदि करने-कराने का प्रतिषेध किया गया है । 'भावना' नामक तृतीय चूला में पाँच महाव्रतों की भावनाओं के साथ ही तदुपदेशक भगवान् महावीर का जीवनदर्शन भी दिया गया है । 'विमुक्ति' नामक चतुर्थ चूला में मोक्ष की चर्चा है। मुनि को आंशिक एवं सिद्ध को पूर्ण मोक्ष होता है । समुद्र के समान यह संसार दुस्तर है । जो मुनि इसे पार कर लेते हैं वे अन्तकृत - विमुक्त कहे जाते हैं । सूत्रकृतांग में दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह तथा द्वितीय में सात अध्ययन हैं । इस सूत्र में मुख्यतया तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का निराकरण किया गया है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन धर्म-दर्शन भूताद्वैतवाद का निराकरण करके आत्मा की स्वतन्त्र सिद्धि की गई है । आत्माद्वैतवाद के स्थान पर नानात्मवाद की स्थापना की गई है । ईश्वरवाद का खण्डन करके संसार को अनादिअनन्त सिद्ध किया गया है। क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद, अज्ञानवाद आदि का निराकरण करके तर्कसंगत क्रियावाद की स्थापना की गई है । समवायांग तथा नन्दीसूत्र में सूत्रकृतांग का परिचय देते हुए बताया गया है कि इसमें स्वमत, परमत, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सौंवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष आदि के विषय में निर्देश है, नवदीक्षितों के लिए बोधवचन हैं, १५० क्रियावादी मतों, ८४ अक्रियावादी मतों, ६७ अज्ञानवादी मतों और ३२ विनयवादी मतों इस प्रकार सब मिलाकर ३६३ अन्य दृष्टियों अर्थात् अन्ययूथिक मतों की चर्चा है । स्थानांग एवं समवायांग संग्रहात्मक कोश के रूप में हैं । स्मृति अथवा धारणा की सुगमता की दृष्टि से या विषयों को ढूंढ़ने की सरलता की दृष्टि से इन दो अंगग्रन्थों की योजना की गई। स्थानांग के दस अध्ययनों में से प्रथम में एक संख्यावाले, द्वितीय में दो संख्यावाले यावत् दशम में दस संख्या वाले पदार्थों अथवा क्रियाओं का निरूपण है । समवायांग की शैली भी इसी प्रकार की है। इसमें दस से आगे की संख्यावाले पदार्थों का भी निरूपण है । पालिग्रन्थ निरूपण - शैली भी इसी प्रकार की है । अगुत्तरनिकाय की व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा भगवती इकतालीस शतकों में विभक्त है । इसमें दार्शनिक, आचार-सम्बन्धी, ज्ञान-सम्बन्धी, तार्किक, लोक-सम्बन्धी, गणित-सम्बन्धी, राजनीतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि अनेक विषयों पर सामग्री उपलब्ध है तथा भगवान् महावीर, गोशाल, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ३१ जमानि आदि अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । अन्य अंगग्रन्थों की अपेक्षा अधिक विशालकाय एवं विपुल सामग्रीयुक्त होने के कारण विशेष पूज्यभावना की अभिव्यक्ति करनेवाला इसका भगवती नाम अधिक प्रसिद्ध है ।' ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञातरूप अर्थात् उदाहरण-रूप उन्नीस अध्ययन हैं तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाओं के दस वर्ग हैं। इन वर्गों में चमर, बलि, चन्द्र, सूर्य, शकेन्द्र, ईशानेन्द्र आदि की पटरानियों के पूर्वभव की कथाएं हैं। १. व्याख्याप्रज्ञप्ति प्रपरनाम भगवतीसूत्र का पन्द्रहवां शतक गोशाल और महावीर के सम्बन्धों पर कुछ प्रकाश डालता है। इस शतक को अक्षरश: पढ़ने पर ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि यह प्रकरण इस रूप में थागम में शोभां नहीं देता । मुझे तो इसमें भी सन्देह है कि यह शतक भगवान् महावीर की वीतराग वाणी से सम्बद्ध है। इसमें जिस अशोभनीय ढंग से महावीर व गोशाल के पारस्परिक कलह का वर्णन किया गया है तथा जिस प्रकार की असंयत भाषा का प्रयोग हुआ है वैसा धन्य किसी भी भागम-ग्रन्थ में दृष्टिगोचर नहीं होता। इस शतक में एक सबसे बड़ा दोष यह है कि शतककार ने भगवान् महावीर जैसी महान विभूति पर चिकित्सा के नाम पर मांसाहार का कलंक लगाया है। इस प्रकार का महावीर - चरित मन्य किसी भी भागम में वर्णित नहीं है। मांसाहारपरक शब्दों का शाकाहारपरक मर्थ करके इस दोष को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है किन्तु इससे चिन्तक को सन्तोषप्रद समाधान प्राप्त नहीं होता। जिन प्रमुक शब्दों का प्रयोग इस शतक में किया गया है जिनका कि शाकाहारपरक अर्थ किया जाता है उन शब्दों का प्रयोग भाग Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैन धर्म-सन मिक साहित्य में अन्यत्र जहां-कहीं हुपा है, साधारण प्रचलित पर्व में ही हुमा है अर्थात् उनका मुकाव मांसाहारपरक प्रर्थ की ओर ही है । टीकाकारों ने दोनों प्रकार के अर्थ की ओर संकेत किया है । वस्तुत: प्रस्तुत शतक ही अनेक विसंगतियों एवं दोषों से परिपूर्ण है । यह पूरा भयवा अधिकांश कृत्रिम मालूम पड़ता है। गोशाल की तीर्थकर के रूप में प्रसिद्धि तथा उसका नियतिवाद ये दोनों बातें तो बौद्ध साहित्य से भी प्रकट होती हैं किन्तु जिस ढंग से इस शतक में गोशाल का चरित्र चित्रण हुमा है वह कुछ विचित्र-सा मालूम पड़ता है।. मागम और उसमें भी अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत इस प्रकार का वर्णन और यह भी कहीं-कहीं साषारण साधु को भी शोभा न दे वैसी भाषा में उपयुक्त प्रतीत नहीं होता, चाहे वह तथ्य पर ही माघारित क्यों न हो। ____गोशान-सम्बन्धी प्रस्तुत शतक का प्रारम्भ श्रावस्ती में रहनेवाली माजीविक मत अर्थात् गोशाल के मत नियतिवाद को उपासिका हानाहला नामक कुम्हारिन से होता है। सूत्रकार कहते हैं कि वह शमृद्धिशालिनी तथा प्रभावसम्मन्न थी एवं किसी से भी पराभूत नहीं हो सकती पी। इस उल्लेख से ऐसा प्रकट होता है कि भगवान महावीर भी उसे नियतिवाद की पयथार्थता एवं पुरुषार्थवाद या कमवार को यथार्थता समझाने में सफलता प्राप्त न कर सके प्रथवा समझाने का प्रयत्न ही न कर सके । उपासकदशा सूत्र ( सप्तम अध्ययन ) में सद्दालपुत्र नामक एक कुम्हार प्रावक का वर्णन है जो गोशाल का अनुयायी या अर्थात् नियतिवादी था। बाद में भगवान महावीर ने उसे युक्तिपूर्वक मपना अर्थात् पुरुषावार का मनुयायी बना लिया था। भाजीविक मतानुयायियों से सम्बन्धित इनसे उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि गोशाल के अधिकांश अनुयाची कुनकार थे। जब भगवान महावीर ने सद्दालपुत्र को युक्तिपूर्वक अपना यायो बना लिया तो क्या वे हालाहला को मानी युक्तियों से प्रभावित नहीं कर सकते थे? हालाहला उनके सामने अपराभूत कैसे हो - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य थी ? पराभूत हो जाने पर भी अपना कदाग्रह न छोड़ना अलग बात है किन्तु महावीर जैसे महान व्यक्ति से भी पराभूत न होना दूसरी . बात है। प्राजीविक-संघाधिपति मखलिपुत्र गोशाल का इतिवृत्त सुनाते हुए भगवान महावीर अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम को बताते हैं कि कोल्लाक सन्निवेश में जनता द्वारा बहुल ब्राह्मण के यहां हुई दिव्यवृष्टि का समाचार सुनकर गोशाल के मन में विचार उत्पन्न हुमा कि मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम प्राप्त है वैसी ऋद्धि प्रादि अन्य श्रमण-ब्राह्मण को प्राप्त नहीं है। अतः मेरे धर्माचार्य व धर्मोपदेशक यहीं होने चाहिए। यह सोचकर वह खोजता-खोजता कोल्लाक सन्निवेश के बाहर मनोज्ञ भूमि में मेरे (महावीर के) पास आया और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमस्कार कर निवेदन करने लगा-हे भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका शिष्य हूँ। मैंने गोशाल की यह बात स्वीकार कर ली। उपर्युक्त कथन में छद्मस्थ (सराग) महावीर के विषय में उल्लिखित दो बातें विचारणीय हैं : १. महावीर को धर्मोपदेशक कहा गया है, २. महावीर ने गोशाल को अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया था। तीर्थकर महावीर ने केवली (वीतराग) होने के बाद ही धर्मोपदेश का कार्य प्रारम्भ किया था। इससे पूर्व उनके साथ धर्मोपदेशक विशेषण लगाना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। साधनावस्था में तीर्थकर तपःकर्म में लीन रहता है, उपदेश देने का काम नहीं करता। गोशाल ने धर्मोपदेश से प्रभावित होकर नहीं अपितु दिपवृष्टि प्रादि से आकर्षित होकर महावीर का शिष्यत्व भंगीकार करना चाहा। पहली बार तो महावीर ने गोशाल की बात पर ध्यान न दिया किन्तु दूसरी बार वे उसे शिष्य के Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन रूप में अपने साथ रखने के लिए तैयार हो गये तथा उसके साथ छः वर्ष तक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करते हुए विचरते रहे। महावीर ने साधनाकाल में गोशाल को अपने साथ रहने की (और वह भी शिष्य के रूप में) अनुमति क्यों दी ? क्या ऐसा करना तीर्थङ्कर की सरागावस्था में विहित है ? तीर्थङ्कर वीतराग होने के बाद ही शिष्य बनाता है तथा उनके साथ विचरता है। सरागावस्था में वह अकेला ही रहता एवं विचरता है। उसका यही आचार है । इस नियम का अपवाद किसी अन्य प्रागम में दृष्टिगोचर नहीं होता। हाँ, आवश्यकपूणि आदि व्याख्या-ग्रन्थों में व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रस्तुत शतक का अनुगमन करके गोशाल का चरित्र अवश्य ही विचित्र ढंग से चित्रित किया गया है। एक वार महावीर गोशाल के साथ सिद्धार्थग्राम से कूर्मग्राम की ओर जा रहे थे । मार्ग में पत्र-पुष्पयुक्त एक तिल के पौधे को देखकर गोशाल ने महावीर से पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा फलेगा या नहीं ? ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे ? महावीर ने कहा--गोशाल ! यह तिल का पौधा फलेगा और ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न होंगे। गोशाल को महावीर की बात पर विश्वास नहीं हुमा। महावीर को झठा सिद्ध करने की भावना से गोशाल ने उस तिल के पौधे को उखाड़कर एक ओर फेंक दिया। बाद में वर्षा के कारण वह तिल का पौधा उसी मिट्टी में जम गया तथा बद्धमूल हो गया। वे सात तिलपुष्प भी मरकर उसी तिल के पौधे की एक फली में तिलरूप में उत्पन्न हुए । प्रस्तुत शतक के उपयुक्त वर्णन में एक बात. विचारणीय है । क्या महावीर छद्मस्थावस्था में जीव की भविष्यत्कालीन उत्पत्ति का ज्ञान कर सकते थे ? जीव अरूपी द्रव्य है । असर्वज्ञ अपने अवधिज्ञान के द्वारा रूपी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन धर्म-दर्शन का साहित्य - - पदार्थों के विषय में तो किसी प्रकार की भविष्यवाणी कर सकता है किन्तु प्ररूपी पदार्थों के विषय में इस प्रकार का कथन जैन ज्ञानवाद की मान्यता से विपरीत है । कर्म युक्त होने पर भी जीव अवधिज्ञान का साक्षात् विषय नहीं हो सकता । अन्यथा केवलज्ञान और प्रवधिज्ञान में अन्तर ही क्या रदेगा ? अवधिज्ञानी तिल के पौधे के बारे में भविष्यवाणी कर सकता है क्योंकि पौधा रूपी है किन्तु तिल के जीव के बारे में वैसा नहीं कर सकता क्योंकि जीव अरूपी है। गोशाल महावीर से पृथक् होकर अपने को जिन, केवली, सर्वज्ञ कहने लगा। महावीर, जोकि वीतराग एवं सर्वज्ञ हो चुके थे, गोशाल को जिन, केवली, सर्वज्ञ मानने के लिए तैयार न थे। वे कहते थे कि गोशाल अपने को जिन नहीं होते हुए भी जिन, केवली नहीं होते हुए भी केवली, सर्वज्ञ नहीं होते हुए भी सर्वज्ञ घोषित कर रहा है। इसके विपरीत गोशाल महावीर को छमस्थ (प्रसर्वज्ञ) ही समझता था। वह उन्हें सर्वज्ञ मानने के लिए तैयार न था । लोग कहते थे कि दो जिन परस्पर आक्षेप-प्रक्षेप कर रहे हैं। एक कहता है कि मैं सर्वज्ञ हूं और दूसरा कहता है कि मैं सर्वश हैं। इनमें कौन सच्चा और कौन झूठा है ? उनमें जो मुख्य व प्रतिष्ठित व्यक्ति थे वे कहते-श्रमण भगवान महावीर सत्यवादी हैं और मखलिपुत्र गोशाल मिथ्यावादी है। इस वर्णन से मालूम होता है कि सर्वज्ञ की उपस्थिति में भी लोग सर्वशता के विषय में सर्वसम्मत निर्णय नहीं कर पाते थे। कोई किसी एक को सर्वज्ञ मानता था तो कोई किसी अन्य को। वस्तुतः सर्वज्ञ कोन है, इसका निर्णय उन सर्वज्ञों के सामने भी नहीं हो पाता था। जब तशकथित सर्वश ही मापस में लड़ते-झगड़ते हों तथा एक-दूसरे पर प्राक्षेप-प्रक्षेप करते हों तो प्रसर्वज्ञ लोग सर्वज्ञता की हंसी नहीं उड़ाएंगे तो क्या करेंगे ? सर्वश होकर लोगों को अपने सर्वज्ञत्व की प्रतीति न करा सके वह सर्वज्ञ कसा ? किसी की कोई भी मान्यता क्यों न हो, यदि कोई वास्तव में Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन सर्वज्ञ है तो सबको उसे सर्वज्ञ मानना ही पड़ेगा। सर्वश के ज्ञान के प्रभाव के सामने किसी का भाग्रह टिक ही नहीं सकता। सर्वज्ञ को यह कहने की या घोषणा करने की आवश्यकता ही नहीं रहती कि में सर्वशजिन-केवली हूँ और अमुक व्यक्ति सर्वज्ञ-जिन-केवली नहीं है। जनसमूह स्वयं समझ लेगा कि कौन सर्वज्ञ है और कोन असर्वज्ञ। प्रस्तुत शतक में महावीर और गोशाल के बीच हुए वाद-विवाद व लड़ाई-झगड़े का जिस विचित्र ढंग से वर्णन किया गया है उसे देखते हुए तो यही कहना पड़ेगा कि न तो महावोर ही जिन अर्थात् वीतराग एवं केवली अर्थात् सर्वज्ञ थे पौर न गोशाल ही जिन एवं केवली था। दोनों अपने-अपने संष में प्रभावशाली एवं पूज्य थे। दोनों एक-दूसरे को अपमानित करने एवं नीचा दिखाने के प्रयत्न में थे। ____ गोशाल ने तो जो कुछ किया सो किया ही, महावीर ने भी गोशाल को क्रोधित करने में कसर न रखी। महावीर खुलेगाम यह घोषित करते थे कि गोशाल जिन नहीं किन्तु जिनप्रलापी है । गोशाल बब भनेकों मनुष्यों से यह बात सुनता तो वह अत्यन्त क्रोधित होता-उसके क्रोष का पार न रहता। एक दिन महावीर के शिष्य मानन्द को चेतावनी देते हुए गोशाल ने कहा कि यदि प्राज महावीर मेरे सम्बन्ध में कुछ भी कहेंगे तो मैं अपने तप-तेज द्वारा उन्हें भस्म कर दूंगा। महावीर भी मानते थे कि गोशाल अपने तप-तेज से किसी को भी भस्म कर सकता था किन्तु अरिहंत-भगवंतों को नहीं जला सकता था। हां, उनमें परिताप अवश्य उत्पन्न कर सकता था। इसीलिए महावीर ने अपने शिष्यों को गोशाल के साथ चर्चा-वार्ता करने की मनाही कर रखी थी। चूकि वह महावीर को जलाकर भस्म नहीं कर सकता था अतः वे उसे खरी-खोटी सुनाते थे। एक बार गोशाल को अपने व्यक्तित्व को छिपाने की चेष्टा करते हुए। देखकर वीतराग महावीर ने जरा फटकारते हुए कहा कि जिस प्रकार कोई । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य चोर ग्रामवासियों से पराजित होकर भागता हुआ किसी गुफा, दुर्ग, खाई प्रथवा अन्य विषम स्थान के न मिलने पर सन, कपास, तृण श्रादि के अग्रभाग से अपने को ढकने की चेष्टा करता है तथा ढका हुप्रा नहीं होने पर भी अपने को ढका हुआ समझता हैछिपा हुआ नहीं होने पर भी अपने को छिपा हुआ समझता है उसी प्रकार तू भी अपने को छिपाने को चेष्टा कर रहा है, अपने को छिपा हुआ समझ रहा है, अम्य नहीं होते हुए भी अपने को अन्य बता रहा है । यह सुनकर गोशाल अत्यन्त क्रोधित हुआ और. महावीर को बुरी तरह गालियां देने लगा। उसने कहा कि तू पाज ही नष्ट, विनष्ट व भ्रष्ट हो जाएगा। कदाचित् तू आज जीवित भी नहीं रहेगा। गोशाल का यह अभद्र व्यवहार देखकर महावीर के दो शिष्यों ने उसे समझाने का प्रयत्न किया किन्तु गोशाल ने क्रोधाभिभूत हो अपने तप-तेज से दोनों को जलाकर भस्म कर दिया । महावीर देखते रह गये । आगे शतककार ने यह बताया है कि सर्वज्ञ वीतराग भगवान् महावीर भी अपने ज्ञान एवं व्यवहार से गोशाल को तनिक भी प्रभावित न कर सके। जैसे महावीर के शिष्यों ने गोशाल को समझाया वैसे ही महावीर ने भी उसे समझाया। गोशाल महावीर पर भी उसी प्रकार क्रुद्ध हुआ तथा उन पर तेजोलेश्या का प्रहार कर कहने लगा कि तू मेरी इस तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वरजन्य दाह से पीड़ित हो छः मास पश्चात् छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होगा। महावीर ने गोशाल को उसी भाषा में प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि तू ही अपनी तपोजन्य लेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर से पीड़ित हो सात रात्रि पश्चात छद्मस्थ अवस्था में ही काल-कवलित होगा। मैं तो अभी सोलह वर्ष तक जिन के रूप में और विचरण करता रहूंगा। गोशाल व महावीर के बीच हुए इस झगड़े की चर्चा चारों ओर होने लगी। लोग कहते थेश्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में. दो जिन परस्पर झगड़ रहे हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन इनमें से एक कहता है कि तू पहले मरेगा और दूसरा कहता है कि तू पहले मरेगा । उन दोनों की श्रसंयत एवं प्रक्षेपपूर्ण भाषा से वे लोग सच-झूठ का निश्चय नहीं कर पाते थे । ३८ अब गोशाल की हतप्रभता एवं दुर्बलता का लाभ उठाते हुए अरिहंत महावीर ने अपने निर्ग्रन्थ श्रमणों को बुलाकर गोशाल के विरुद्ध उत्तेजित करते हुए कहा - जिस प्रकार तृण, काष्ठ, पत्र आदि का ढेर अग्नि से जल जाने पर हतप्रभ हो जाता है उसी प्रकार गोशाल भी मेरे वध के लिए तेजोलेश्या निकालकर हतप्रभ हो गया है । अब तुम लोग उसके सामने जाकर उसके मत के प्रतिकूल यथेच्छ वचन कहो, उसे विविध प्रकार से निरुत्तर करो । निर्ग्रन्थ श्रमणों ने विविध प्रकार के प्रश्नोत्तरों द्वारा गोशाल को निरुत्तर कर दिया । इससे गोशाल अत्यन्त क्रोधित हुआ किन्तु वह निर्ग्रन्थ श्रमणों का कुछ भी न बिगाड़ सका । सर्वज्ञ जिनेन्द्र महावीर की सावद्य भविष्यवाणी के अनुसार सातवीं रात्रि व्यतीत होने पर गोशाल मृत्यु को प्राप्त हुआ । महावोर को भी अत्यन्त पीड़ाकारी पित्तज्वर का दाह उत्पन्न हुआ तथा खून की दस्तें लगने लगीं। उनकी यह स्थिति देखकर लोग आपस में चर्चा करने लगेअब महावीर गोशाल के कथनानुसार छः मास पश्चात् छद्मस्थावस्था में ही मृत्यु प्राप्त करेंगे। महावीर के शिष्य सिंह अनगार ने भी यह चर्चा सुनी। इससे उन्हें बहुत दुःख हुआ और वे रुदन करने लगे । शतककारकृत इस प्रकार के वर्णन से मालूम होता है कि महावीर की वीतरागता, सर्वज्ञता एवं असाधारणता से सामान्य जनसमूह तो अपरिचित था ही, उनके कुछ शिष्य भी इन विशिष्ट गुणों एवं शक्तियों से परिचित न थे । अथवा यों कह सकते हैं कि महावीर की इन असाधारण विशेषताओं के प्रति इन लोगों को पूरा विश्वास नहीं था । श्रन्यथा ये लोग इस प्रकार श्रविश्वासपूर्ण आचरण क्यों करते ? सर्वज्ञ महावीर ने सिंह अनगार की निर्ग्रन्थों को उन्हें बुलाने के लिए भेजा । वेदना जान ली। उन्होंने सिंह अनगार के श्राने पर Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य महावीर ने उन्हें श्राश्वासन देते हुए कहा- मैं अभी नहीं मरूंगा किन्तु सोलह वर्ष तक श्रीर जिन के रूप में विचरण करूंगा । अतः तु मेंढिकग्राम में रेवती गृहपत्नी के यहां जा । उसने मेरे लिए दो कपोतशरीर उपस्कृत कर तैयार कर रखे हैं किन्तु उनका मुझे प्रयोजन नहीं है। उसके यहां बासी ( कल का ) मार्जारकृत कुक्कुट मांस है । वह ले भा । उसका मुझे प्रयोजन है । सिंह अनगार रेवती गृहपत्नी के यहां गये एवं महावीर की प्राज्ञानुसार कुक्कुट-मांस लाये । महावीर ने उसका सेवन किया जिससे उनका पीडाकारी रोग शान्त हुआ । इस शतक में वfरंगत भगवान् महावीर के कुक्कुटमांस सेवन से सम्बन्धित प्रस्तुत प्रसंग पर विचार करने की आवश्यकता है । विवाद का विषय केवल दो-चार शब्दों के अर्थ तक ही सीमित नहीं है । यह पूरा का पूरा शतक ही विवादास्पद है । उपर्युक्त कुछ विसंगतियों एवं विचित्रताओंों के अतिरिक्त इस शतक में और भी ऐसी अनेक त्रुटियां हैं जो शतककार की प्रामाणिकता में सन्देह उत्पन्न करती हैं। मुझे वो ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत शतक में वणित महावीर - गोशाल का प्रशोभनीय वार्तालाप काल्पनिक है । इसे किसी तरह सच मान लिया जाय तो भी गोशाल की तेजोलेश्या से महावीर जैसे श्रतिशयसम्पन्न पुरुष को प्रत्यन्त पीड़ाकारी पित्तज्वर का दाह उत्पन्न होना एवं खून की दस्तें लगना अजीब-सा मालूम पड़ता है । यह भी किसी तरह सच मान लिया जाय तो भी महावीर द्वारा अपने रोग की चिकित्सा करना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता क्योंकि रोगातंक हो या न हो, महावीर ने चिकित्सा की कामना कभी नहीं की। इसे भी किसी प्रकार सच समझ लिया जाय फिर भी महावीर द्वारा कुक्कुटमांस का सेवन तो कदापि युक्तियुक्त नहीं माना जा सकता। इन सब दोषों को देखते हुए यह मानना अनुचित न होगा कि व्याख्याप्रज्ञप्ति का प्रस्तुत शतक प्रक्षिप्त, कृत्रिम एवं प्रप्रामाणिक है । ३६ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दर्शन उपासकदशा के दस अध्ययनों में भगवान महावीर के दस प्रमुख उपासकों अर्थात् श्रावकों की कथाएँ हैं । 'आनन्द' नामक प्रथम अध्ययन में श्रावक के बारह व्रतों का विशेष विवेचन है । अन्तकृतदशा में आठ वर्ग हैं। इनमें क्रमशः दस, आठ, तेरह, दस, दस, सोलह, तेरह और दस अध्ययन हैं। अन्तकृत अर्थात् संसार का अन्त करनेवाला। जिसने अपने संसार अर्थात् भवचक्र ( जन्म-मरण ) का अन्त किया है ऐसी आत्मा 'अन्तकृत' कही जाती है। अन्तकृतदशा में इसी प्रकार की कुछ आत्माओं की दशा का वर्णन है। अनुत्तरौपपातिकदशा तीन वर्गों में विभक्त है। प्रथम वर्ग में दस, द्वितीय में तेरह और तृतीय में दस अध्ययन हैं। जो व्यक्ति अपने तप एवं संयम द्वारा किसी अनुत्तर ( श्रेष्ठ) विमान में देवरूप से उत्पन्न होता है वह 'अनुत्तरौपपातिक' कहा जाता है । प्रस्तुत अंगग्रन्थ में इसी प्रकार के कुछ व्यक्तियों की दशा का वर्णन है। प्रश्नव्याकरण का जो परिचय स्थानांग, समवायांग एवं नन्दीसूत्र में मिलता है उससे उपलब्ध प्रश्नव्याकरण सर्वथा भिन्न है। विद्यमान संस्करण में हिंसादिक पाँच आस्रवों तथा अहिंसादिक पाँच संवरों का दस अध्ययनों में निरूपण है। विपाकश्रुत दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है : दुःख विपाक और सुखविधाक । दु:खविपाक में अशुभ कर्म अर्थात् पाप के विपाक अर्थात् फल का दस अध्ययनों में दस कथाओं के माध्यम से निरूपण किया गया है। इसी प्रकार सुखविपाक में दस कथाओं के माध्यम से शुभ कर्म अर्थात् पुण्य के विपाक का दस अध्ययनों में निरूपण हुआ है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य . - ४१ अंगबाह्य आगम पाँच वर्गों में विभक्त हैं : उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र, चूलिकासूत्र और प्रकीर्गक । प्रतिष्ठा आदि की दृष्टि से औपातिक आदि का स्थान अंगों के बाद होने के कारण इन्हें उपांग की कोटि में रखा गया है । उपांग १२ हैं : १. उववाइय-औपपातिक, २. रायपसेणइय-राजप्रश्नीय, ३. जीवाजीवाभिगम अथवा जीवाभिगम, ४. पण्णवणा-प्रज्ञापना, ५. सूरपण्णत्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति, ६. जंबुद्दीवपण्णत्ति-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७. चंदपण्णत्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८. निरयाव लिया-निरयावलिका अथवा कप्पियाकल्पिका, . ६. कप्पवडंसिया-कल्पावतंसिका, १०. पुप्फियापुष्पिका, ११. पुप्फचूलिया-पुष्पचूलिका और १२. वण्हिदसावृष्णिदशा। ____ औपपातिक का प्रारम्भ चम्पानगरी के वर्णन से किया गया है। इसके बाद पूर्णभद्र उद्यान, कूणिक राजा, धारिणी रानी, महावीर स्वामी आदि का सांस्कृतिक शैली एवं साहित्यिक भाषा में सुरुचिपूर्ण वर्णन है। प्रसंगवशात् दण्ड, मृत्यु, विधवा, व्रती, साधु, तापस, श्रमण, परिव्राजक, आजीवक, निह्नव आदि का भी यथेष्ट परिचय दिया गया है । राजप्रश्नीय के प्रथम भाग में सूर्याभ देव एवं उसके विमान का विस्तृत वर्णन है। यह देव भगवान् महावीर के समक्ष उपस्थित होकर विविध नाटक-बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि प्रस्तुत करता है। द्वितीय भाग में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण केशी और श्रावस्ती के राजा प्रदेशी के बीच हुए जीवविषयक सरस संवाद का सुबोध वर्णन है । राजा प्रदेशी जीव और शरीर को अभिन्न मानता है। श्रमण केशी उसके मत का निराकरण करते हुए युक्तिपूर्वक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन धर्म-दर्शन. सिद्ध करते हैं । जीवाजीवाभिगम में भगवान् महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तर के रूप में जीव और अजीव के भेदप्रभेद का विस्तृत वर्णन है। इसमें नौ प्रतिपत्तियाँ ( प्रकरण ) हैं। तीसरी प्रतिपत्ति सबसे बड़ी है जिसमें देवों तथा द्वीपसमुद्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । प्रज्ञापना में प्रज्ञापना, स्थान, अल्पबहुत्व, स्थिति, विशेष, व्युत्क्रान्ति आदि छत्तीस पदों का प्रतिपादन है । जैसे अंगों में भगवती सूत्र सबसे विस्तृत है वैसे ही उपांगों में प्रज्ञापना सबसे बड़ा है । इस उपांग के रचयिता वाचकवंशीय श्यामाचार्य हैं जो वीरनिर्वाण संवत् ३७६ में विद्यमान थे । सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गति आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है । इसमें बीस प्राभूत ( प्रकरण ) हैं । उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति का विषय बिलकुल एकसमान है । नामों से प्रतीत होता है कि चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र के परिभ्रमण का वर्णन रहा होगा तथा सूर्य प्रज्ञप्ति में सूर्य के परिभ्रमण का । आगे जाकर दोनों मिलकर एक हो गये होंगे । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सात वक्षस्कारों में विभक्त है। तीसरे वक्षस्कार में जम्बूद्वीपान्तर्गत भारतवर्ष एवं उसके राजा ( चक्रवर्ती) भरत की विजययात्रा का वर्णन है । निरयावलिका में राजा श्रेणिक के काल, सुकाल, महाकाल आदि पुत्रों से सम्बद्ध दस अध्ययन हैं । ये राजकुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता कूणिक के पक्ष में अपने नाना चेटक से युद्ध करते हुए मरकर नरक में गये । कल्पावतंसिका में श्रेणिक के पद्म, महापद्म, भद्र, सुभद्र आदि पौत्रों से सम्बद्धं दस अध्ययन हैं । पुष्पिका में चन्द्र, सूर्य, शुक्र आदि देवों से सम्बद्ध दस अध्ययन हैं । पुष्पचूलिका में भी दस अध्ययन हैं जिनमें श्री, ह्री, धृति आदि देवियों का वर्णन है। वृष्णिदशा में वृष्णिवंश 7 के निसढ आदि राजकुमारों से सम्बद्ध बारह अध्ययन हैं । ये Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य राजकुमार वासुदेव कृष्ण एवं भगवान् अरिष्टनेमि के समय में हुए। मूलसूत्र चार हैं : १. उत्तराध्ययन, २. आवश्यक, ३. दशवैकालिक, ४. पिण्ड नियुक्ति अथवा ओघनियुक्ति । इन ग्रन्थों में श्रमण-जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश होने के कारण इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है। . भाषा, विषय आदि की दृष्टि से उत्तराध्ययन की प्राचीनता की विस्तृत चर्चा शाण्टियर, जेकोबी आदि ने की है। इस मूलसूत्र में छत्तीस अध्ययन हैं जिनमें विनय, परीषह, चतुरंग, अकाममरण, प्रव्रज्या, बहुश्रुतपूजा, उत्तमभिक्षु, ब्रह्मचर्यसमाधि, प्रवचनमाता, यज्ञ, सामाचारी, मोक्षमार्ग, सम्यक्त्वपराक्रम, तपोमार्ग, कर्मप्रकृति, लेश्या, अनगार आदि विविध विषयों पर प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ दृष्टान्तों, रूपकों, उपमाओं एवं संवादों की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। आवश्यक में श्रमण के नित्य के कर्तव्यों-आवश्यक अनुष्ठानों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें छः अध्ययन हैं : १. सामायिक, २. चतुविशतिस्तव, ३. वन्दन, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान । सामायिक में यावज्जीवनजीवन-भर के लिए सब प्रकार के सावद्य योग-पापकारी कृत्यों का त्याग किया जाता है। चतुर्विशतिस्तव में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है। वन्दन में गुरु का नमस्कारपूर्वक स्तवन किया जाता है। प्रतिक्रमण में व्रतों में लगे अतिचारों की आलोचना की जाती है एवं भविष्य में उन दोषों की पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा की जाती है । कायोत्सर्ग में शरीर से ममत्वभाव हटाकर उसे ध्यान के लिए स्थिर किया जाता है। प्रत्याख्यान में एक निश्चित अवधि के लिए Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन चार प्रकार के आहार-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का त्याग किया जाता है। दशवकालिक के कर्ता आचार्य शय्यम्भव हैं। इसमें दस अध्ययन हैं। अन्त में दो चूलिकाएं भी हैं। यह मूत्र विकाल अर्थात् सन्ध्या के समय पढ़ा जाता है। द्रुमपुष्पित नामक प्रथम अध्ययन में बताया गया है कि जैसे भ्रमर पुष्पों को बिना कष्ट पहुंचाये उनमें से रस का पान कर अपने-आपको तृप्त करता है वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा में किसी को तनिक भी कष्ट नहीं पहुंचाता। श्रामण्यपूर्विक नामक द्वितीय अध्ययन में बताया गया है कि जो कामभोगों का निवारण नहीं कर सकता वह संकल्प-विकल्प के अधीन होकर पद-पद पर स्खलित होता हुआ श्रामण्य को प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे अगन्धन सर्प अग्नि में जलकर प्राण त्यागना स्वीकार कर लेता है किन्तु वमन किये हुए विष का पुनः पान नहीं करता वैसे ही सच्चा श्रमण त्यागे हुए कामभोगों का किसी भी परिस्थिति में पुनः ग्रहण नहीं करता। क्षुल्लिकाचारकथा नामक तीसरे अध्ययन में निर्ग्रन्थों के लिए औद्देशिक भोजन, क्रीत भोजन, रात्रिभोजन, राज पिण्ड आदि का निषेध किया गया है तथा बताया गया है कि जो ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते हैं, शीतकाल में ठण्ड सहन करते हैं तथा वर्षाऋतु में एक स्थान पर रहते हैं वे यत्नशील भिक्षु कहे जाते हैं। चौथा अध्ययन षड्जीवनिकाय से सम्बद्ध है । इसमें पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय को मन, वचन एवं तन से हानि पहुंचाने का निषेध किया गया है तथा सर्व प्राणातिपात-विरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण और परिग्रहविरमणरूप महाव्रतों एवं रात्रिभोजन-विरमणरूप व्रत का प्रति Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ४५ पादन किया गया है। पाँचवाँ पिण्डषणा अध्ययन दो उद्देशों में विभक्त है । इनमें भिक्षा-सम्बन्धी विविध विधि-विधान हैं । छठे अध्ययन का नाम महाचारकथा है। इसमें चतुर्थ अध्ययनोक्त छः व्रतों एवं छः जीवनिकायों की रक्षा का विशेष विचार किया गया है। सातवाँ अध्ययन वाक्यशुद्धि से सम्बद्ध है। साधु को हमेशा निर्दोष, अकर्कश एवं असंदिग्ध भाषा बोलनी चाहिए । आठवे अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है । इसमें मन, वचन और काय से षटकाय जीवों के प्रति अहिंसक आचरण के विषय में अनेक प्रकार से विचार किया गया है। विनयसमाधि नामक नवाँ अध्ययन चार उद्देशों में विभक्त है। इसमें श्रमण के विनयगुण का विविध दृष्टियों से व्याख्यान किया गया है । सभिक्षु नामक दसवे अध्ययन में बताया गया है कि ज्ञातपुत्र महावीर के वचनों में जिसकी पूर्ण श्रद्धा है, जो षट्काय के प्राणियों को आत्मवत् समझता है, जो पाँच महावतों की आराधना एवं पाँच आस्रवों का निरोध करता है वह भिक्षु है इत्यादि । रतिवाक्य नामक प्रथम चूलिका में चंचल मन को स्थिर करने का उपाय बताते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार . लगाम से चंचल घोड़ा वश में हो जाता है, अंकुश से उन्मत्त हाथी वश में आ जाता है उसी प्रकार अठारह बातों का विचार करने से चंचल चित्त स्थिर हो जाता है इत्यादि । विविक्तचर्या नामक द्वितीय चूलिका में साधु के कुछ कर्तव्याकर्तव्यों का प्रतिपादन किया गया है। पिण्डनियुक्ति में पिण्ड अर्थात् भोजन के सम्बन्ध में पर्याप्त विवेचन है । दशवकालिक के पाँचवे अध्ययन पिण्डैषणा की नियुक्ति के विस्तृत हो जाने के कारण उसे पिण्डनियुक्ति के नाम से एक अलग ग्रन्थ मान लिया गया। इसी प्रकार ओपनियुक्ति Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन धर्म-दर्शन भी आवश्यकनियुक्ति का ही एक अंश है । इसमें श्रमण-जीवन के सामान्य नियमों पर प्रकाश डाला गया है। छेद का अर्थ होता है न्यूनता अथवा कमी। किसी साधु के आचार में अमुक प्रकार का दोष लगने पर उसके श्रमणपर्याय ( साधु-जीवन के समय की गणना) में वरिष्ठता की दृष्टि से कुछ कमी कर दी जाती है। इस प्रकार के प्रायश्चित्त को छेद प्रायश्चित्त कहते हैं। सम्भवतः इस प्रायश्चित्त का विधान करने के कारण अमुक सूत्रों को छेदसूत्र कहा गया हो । वर्तमान में उपलब्ध छेदसूत्र छेद प्रायश्चित्त का ही नहीं, अन्य प्रायश्चित्तों एवं विषयों का भी प्रतिपादन करते हैं। निम्नोक्त छः ग्रन्थ छेदसूत्र कहलाते हैं : १. दशाश्रुतस्कन्ध, २. बृहत्कल्प, ३. व्यवहार, ४: निशीथ, ५. महानिशीथ, ६. जीतकल्प अथवा पंचकल्प । छेदसूत्रों में श्रमणाचार से सम्बद्ध प्रत्येक विषय का प्रतिपादन किया गया है। यह प्रतिपादन उत्सर्ग, अपवाद, दोष एवं प्रायश्चित्त से सम्बद्ध है। इस प्रकार का प्रतिपादन अंगादि सूत्रों में नहीं मिलता। इस दृष्टि से छेदसूत्रों का जैन आचारसाहित्य में विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशाश्रुतस्कन्ध, बृहरकल्प एवं व्यवहार आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) की कृतियाँ हैं । ... दशाश्रुतस्कन्ध को आचारदशा के नाम से भी जाना जाता है । इसमें दस अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में द्रुत गमन, अप्रमाणित गमन, दुष्प्रमार्जित गमन, अतिरिक्त शय्यासन आदि बीस असमाधिस्थानों का उल्लेख है । द्वितीय अध्ययन में हस्तकर्म, मैथुनप्रतिसेवन, रात्रिभोजन, आधाकर्मग्रहण, राजपिण्डग्रहण आदि इक्कीस प्रकार के शबलदोषों का वर्णन है । तृतीय अध्ययन में तैतीस प्रकार की आशातनाओं पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्ययन में आठ प्रकार की गणिसम्पदाओं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ४७ आचार-सम्पदा, श्रुत-सम्पदा, शरीर-सम्पदा, वचन-सम्पदा, वाचना-सम्पदा आदि का वर्णन है। पंचम अध्ययन दस प्रकार के चित्तसमाधि-स्थानों से सम्बद्ध है । षष्ठ अध्ययन में एकादश उपासक-प्रतिमाओं तथा सप्तम अध्ययन में द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं का वर्णन है । अष्टम अध्ययन का नाम पर्युषणाकल्प है। वर्षाऋतु में श्रमण का एक स्थान पर रहना पर्युषणा कहलाता है । पर्युषणा-विषयक कल्प अर्थात् आचार का नाम है पर्युषणाकल्प । प्रस्तुत अध्ययन में पर्युषणाकल्प के लिए विशेष उपयोगी महावीरचरित-सम्बन्धी पाँच हस्तोत्तरों का निर्देश किया गया है : १. हस्तोत्तर नक्षत्र में महावीर का देवलोक से च्युत होकर गर्भ में आना, २. हस्तोत्तर में गर्भ-परिवर्तन होना, ३. हस्तोत्तर में जन्म-ग्रहण करना, ४. हस्तोत्तर में प्रव्रज्या लेना, ५. हस्तोत्तर में केवलज्ञान की प्राप्ति होना । कल्पसूत्र के रूप में प्रचलित ग्रन्थ इसी अध्ययन का पल्लवित रूप है । इसमें श्रमण भगवान् महावीर के जीवनचरित के अतिरिक्त मुख्य रूप से पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभ इन तीन तीर्थंकरों की जीवनी भी दी गई है । अन्त में स्थविरावली एवं सामाचारी (श्रमण-जीवनसम्बन्धी नियमावली) भी जोड़ दी गई है । नवम अध्ययन में तीस मोहनीय स्थानों का वर्णन है । दशम अध्ययन का नाम आयतिस्थान है। इसमें विभिन्न निदान-कर्मों अर्थात् मोहजन्य इच्छापूर्तिमूलक संकल्पों का वर्णन किया गया है जो जन्म-मरण की प्राप्ति के कारण हैं । इस प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनों में एक अध्ययन श्रावकाचार से सम्बद्ध है जिसमें उपासक-प्रतिमाओं का वर्णन है । शेष नौ अध्ययन श्रमणाचार-सम्बन्धी हैं। बृहत्कल्प में छ: उद्देश हैं। प्रथम उद्देश में तालप्रलम्ब, मासकल्प, आपणगृह, घटीमात्रक, चिलिमिलिका, दकतीर, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि आदि प्रव्रज्यापातिक्रान्त अशा एवं महीना करनी ४८ जैन धर्म-दर्शन चित्रकर्म, सागारिकनिश्रा, अधिकरण, चार, वैराज्य, अवग्रह, रात्रिभक्त, अध्वगमन, उच्चारभूमि, स्वाध्यायभूमि, आर्यक्षेत्र आदि विषयक विधि-निषेध हैं। कहीं-कहीं अपवाद एवं प्रायश्चित्त की भी चर्चा है । द्वितीय उद्देश में प्रथम बारह सूत्र उपाश्रय-विषयक हैं। आगे के तेरह सूत्रों में आहार, वस्त्र एवं रजोहरण का विचार किया गया है । तृतीय उद्देश में उपाश्रय-प्रवेश, चर्म, वस्त्र, समवसरण, अन्तरगृह, शय्या-संस्तारक, सेना आदि से सम्बद्ध विधि-विधान हैं। चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि हस्तकर्म, मैथुन एवं रात्रिभोजन अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है । साधर्मिक स्तन्य, अन्यधार्मिक स्तन्य, मुष्टिप्रहार आदि के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था है । पण्डक, क्लीब आदि प्रव्रज्या के अयोग्य हैं। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को कालातिक्रान्त एवं क्षेत्रातिक्रान्त अशनादि ग्रहण करना अकल्प्य है। उन्हें गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका एवं मही नामक पांच महानदियाँ महीने में एक बार से अधिक पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छोटी नदियाँ महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं । पंचम उद्देश में ब्रह्मापाय, परिहारकल्प, पुलाकभक्त आदि दस प्रकार के विषयों से सम्बद्ध दोषों एवं प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन किया गया है । षष्ठ उद्देश में बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को छः प्रकार के वचन नहीं बोलने चाहिए : अलीक वचन, हीलित वचन, खिसित वचन, परुष वचन, गार्हस्थिक वचन और व्यवशमितोदीरण वचन । कल्पस्थिति-आचारदशा छः प्रकार की बताई गई है : सामायिकसंयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निर्विष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य व्यवहार में दस उद्देश हैं। पहले उद्देश में निष्कपट और सकपट आलोचक, एकलविहारी साधु आदि से सम्बद्ध प्रायश्चित्तों का विधान है। दूसरे उद्देश में समान सामाचारीवाले दोषी साधुओं से सम्बद्ध प्रायश्चित्त, सदोष रोगी की सेवा, अनवस्थित आदि की पुन: संयम में स्थापना, गच्छ का त्याग कर पुनः गच्छ में मिलनेवाले की परीक्षा एवं प्रायश्चित्तदान आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे उद्देश में इन बातों का विचार किया गया है : गच्छाधिपति की योग्यता, पदवीधारियों का आचार, तरुण श्रमण का आचार, गच्छ में रहते हुए अथवा गच्छ का त्याग कर अनाचार सेवन करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त और मृषावादी को पदवी प्रदान करने का निषेध । चतुर्थ उद्देश में इन विषयों पर प्रकाश डाला गया है : आचार्य आदि पदवीधारियों का श्रमण परिवार, आचार्य आदि की मृत्यु के समय श्रमणों का कर्तव्य, युवाचार्य की स्थापना इत्यादि । पंचम उद्देश साध्वियों के आचार, साधु-साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार, वैयावृत्त्य आदि से सम्बद्ध है। षष्ठ उद्देश यथानिर्दिष्ट विषयों से सम्बद्ध है : साधुओं को अपने सम्बन्धियों के घर कैसे जाना चाहिए, आचार्य आदि के क्या अतिशय हैं, शिक्षित एवं अशिक्षित साधु में क्या विशेषता है, मथुनेच्छा के लिए क्या प्रायश्चित्त है इत्यादि । सातवें उद्देश में इन बातों पर प्रकाश डाला गया है : सम्भोगी अर्थात् साथी साधु-साध्वियों का पारस्परिक व्यवहार, साधु-साध्वियों की दीक्षा, साधु-साध्वियों के आचार की भिन्नता, पदवी प्रदान करने का समुचित समय, राज्यव्यवस्था में परिवर्तन होने की स्थिति में श्रमणों का कर्तव्य आदि । आठवे उद्देश में शय्या-संस्तारक आदि उपकरण ग्रहण करने की विधि पर प्रकाश डाला गया है। नवे उद्देश में Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैन धर्म-दर्शन मकान-मालिक के यहाँ रहे हुए अतिथि आदि के आहार से सम्बद्ध कल्पाकल्प का विचार किया गया है । दसवे उद्देश में यवमध्यप्रतिमा, वज्रमध्यप्रतिमा; पाँच प्रकार का व्यवहार, बालदीक्षा, विविध सूत्रों के पठन-पाठन की योग्यता आदि का प्रतिपादन किया गया है। निशीथ में चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक । an यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लघुमास अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन समझना चाहिए। यह सूत्र बीस उद्देशों में विभक्त है। प्रथम उद्देश में इन क्रियाओं के लिए गुरुमास का विधान किया गया है : हस्तकर्म करना, अंगादान को काष्ठादि की नली में डालना अथवा काष्ठादि की नली को अंगादान में डालना, अंगुली आदि को अंगादान में डालना अथवा अंगादान को अंगुलियों से पकड़ना या हिलाना, अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर कर अंदर का भाग खुला करना, पुष्पादि सूंघना, दूसरों से परदा आदि बनवाना, सूई आदि ठीक कराना, अपने लिए माँगकर लाई हुई सूई आदि दूसरों को देना, पात्र आदि दूसरों से साफ कराना, सदोष आहार का उपभोग करना आदि । द्वितीय उद्देश में इन क्रियाओं के लिए लघुमास का विधान है : दारुदण्ड का पादप्रोंछन बनाना, कीचड़ के रास्ते में पत्थर आदि रखना, पानी निकलने की नाली आदि बनाना, सूई आदि को स्वयमेव ठीक करना, तनिक भी कठोर वचन बोलना, हमेशा एक ही घर का आहार खाना, दानादि लेने के पहले अथवा बाद में दाता की प्रशंसा करना, निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्यतीथिक अथवा गृहस्थ की संगति करना, मकान-मालिक के घर Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ५१ का आहार- पानी ग्रहण करना आदि। तीसरे, चौथे एवं पांचवें उद्देश में भी लघुमास से सम्बद्ध क्रियाओं का उल्लेख है । छटे उद्देश में मैथुन सम्बन्धी निम्नोक्त क्रियाओं के लिए गुरुचातुमासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है: स्त्री अथवा पुरुष से मैथुन सेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुन की कामना से हस्तकर्म करना, स्त्री की योनि में लकड़ी आदि डालना, अति छिद्र आदि में अंगादान प्रविष्टकर शुक्रपुद्गल निकालना, वस्त्र दूर कर नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेम-पत्र लिखना - लिखवाना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना - डलवाना आदि । सातवें, आठवें, नवें, दसवें एवं ग्यारहवें उद्देश में भी मैथुनविषयक एवं अन्य प्रकार की दोषपूर्ण क्रियाओं के लिए गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। बारहवें से उन्नीसवें उद्देश तक लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बद्ध क्रियाओं का प्रतिपादन किया गया है । ये क्रियाएं इस प्रकार हैं : प्रत्याख्यान का बार-बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, भोजन आदि का उपयोग करना, दर्शनीय वस्तुओं को देखने के लिए उत्कण्ठित रहना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, अपने उपकरण अभ्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से उठवाना, हस्तरेखा आदि देखकर फलाफल बताना, मन्त्र-तन्त्र सिखाना, विरेचन लेना अथवा औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को वन्दना - नमस्कार करना, पात्रादि मोल लेना, मोल लिवाना, मोल लेकर देनेवाले से ग्रहण करना, वाटिका आदि में टट्टी पेशाब डालना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार में प्रवेश करना, जुगुप्सित कुलों से आहारादि ग्रहण करना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अकारण नाव में बैठना, स्वामी Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन धर्म-दर्शन की अनुमति के बिना नाव में बैठना, इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव, भूतमहोत्सव आदि के समय स्वाध्याय करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय न करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना या उससे पढ़ना, शिथिलाचारियों को पढ़ाना अथवा उनसे पढ़ना आदि । बीसवें उद्देश में आलोचना एवं प्रायश्चित्त करते समय लगनेवाले विविध दोषों के लिए विशेष प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इस उद्देश के अन्त में तीन गाथाएं हैं जिनमें निशीथसूत्र के प्रणेता आचार्य विसागणि ( विशाखगणि) की प्रशस्ति की गई है। निशीयसूत्र जैनाचार-शास्त्रान्तर्गत निर्ग्रन्थ- दण्डशास्त्र का अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । उपलब्ध महानिशीथ भाषा एवं विषय की दृष्टि से बहुत प्राचीन नहीं माना जा सकता। इसमें यत्र-तत्र आगमेतर ग्रन्थों एवं आचार्यों के नाम भी मिलते हैं । यह छ: अध्ययनों एवं दो चूलाओं में विभक्त है । प्रथम अध्ययन में पाप-रूपी शल्य की निन्दा एवं आलोचना की दृष्टि से अठारह पापस्थानकों का प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अध्ययन में कर्मविपाक का विवेचन किया गया है। तृतीय एवं चतुर्थ अध्ययनों में कुशील साधुओं की संगति न करने का उपदेश है । इनमें मन्त्र-तन्त्र, नमस्कार - मन्त्र, उपधान, जिनपूजा आदि का विवेचन है। पंचम अध्ययन में गच्छ के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है । षष्ठ अध्ययन में प्रायश्चित्त के दस एवं आलोचना के चार भेदों का विवेचन है । इसमें आचार्य भद्र के गच्छ में पाँच सौ साधु एवं बारह सौ साध्वियाँ होने का उल्लेख है । चूलाओं में सुसढ आदि की कथाएँ हैं । तृतीय अध्ययन में उल्लेख है कि महानिशीथ के दीमक के खा जाने पर हरिभद्रसूरि ने इसका उद्धार एवं संशोधन - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ५३ किया तथा आचार्य सिद्धसेन, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्द्धन, रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणि आदि ने इसे मान्यता प्रदान की । जीतकल्प जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृति है। इसमें निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के विभिन्न अपराधविषयक प्रायश्चित्तों का जीत - व्यवहार ( परम्परा से प्राप्त एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत व्यवहार ) के आधार पर प्ररूपण किया गया है । सूत्रकार ने बताया है कि संवर और निर्जरा से मोक्ष होता है तथा तप संवर और निर्जरा का कारण है । प्रायश्चित्त तपों में प्रधान है अतः प्रायश्चित्त का मोक्षमार्ग की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है | इसके बाद सूत्रकार ने प्रायश्चित्त के निम्नलिखित दस भेदों का व्याख्यान किया है: १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. उभय, ४. विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६. तप, 9. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिक । इन दस प्रायश्चित्तों में से अन्तिम दो अर्थात् अनवस्थाप्य एवं पारांचिक अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर ( प्रथम भद्रबाहु ) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका लोप हो गया । पंचकल्प वर्तमान में अनुपलब्ध है । कुछ विद्वानों का मत है कि पंच कल्पसूत्र और पंचकल्पमहाभाष्य दोनों एक ही हैं । नन्दी और अनुयोगद्वार चूलिकासूत्र कहलाते हैं । चूलिका शब्द का प्रयोग उस अध्ययन अथवा ग्रन्थ के लिए होता है जिसमें अवशिष्ट विषयों का वर्णन अथवा वर्णित विषयों का स्पष्टीकरण किया जाता है । दशवैकालिक और महानिशीथ के अन्त में इस प्रकार की चूलिकाएं - चूलाएँ - चूडाएं उपलब्ध हैं । इनमें मूल ग्रन्थ के प्रयोजन अथवा विषय को दृष्टि में रखते हुए Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन धर्म-दर्शन ऐसी कुछ आवश्यक बातों पर प्रकाश डाला गया है जिनका समावेश आचार्य ग्रन्थ के किसी अध्ययन में न कर सके । आजकल इस प्रकार का कार्य पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट जोड़कर सम्पन्न किया जाता है । नन्दी और अनुयोगद्वार भी आगमों के लिए परिशिष्ट का ही काम करते हैं। इतना ही नहीं, आगमों के अध्ययन के लिए ये भूमिका का भी काम देते हैं । यह कथन नन्दी की अपेक्षा अनुयोगद्वार के विषय में अधिक सत्य है । नन्दी में तो केवल ज्ञान का ही विवेचन किया गया है जबकि अनुयोगद्वार में प्रायः आगमों के समस्त मूलभूत सिद्धान्तों का स्वरूप समझाते हुए विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण किया गया है जिनका ज्ञान आगमों के अध्ययन के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । प्रकीर्णक अर्थात् विविध । भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रकीर्णको - विविध आगमिक ग्रन्थों की संख्या १४००० कही गई है । वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या मुख्यतया दस मानी जाती है । इन दस नामों में भी एकरूपता नहीं है । निम्नलिखित दस नाम विशेष रूप से मान्य हैं १. चतु: शरण, २. आतुर - प्रत्याख्यान, ३. महाप्रत्याख्यान, ४ भक्तपरिज्ञा, ५. तन्दुलवैचारिक, ६. संस्तारक, ७. गच्छाचार, ८. गणिविद्या, ६. देवेन्द्रस्तव और १०. मरणसमाधि । चतुःशरण (चउसरण) का दूसरा नाम कुशलानुबन्धिअध्ययन ( कुसलाणुबंधिअज्झयण ) है । इसमें ६३ गाथाएं हैं । चूंकि इसमें अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवलिकथित धर्म-इन चार को 'शरण' माना गया है इसलिए इसे चतुःशरण कहा गया है । आतुरप्रत्याख्यान ( आउरपच्चक्खाण ) को मरण से सम्बद्ध होने के कारण अन्तकालप्रकीर्णक भी कहा जाता Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ५५ है। इसे बृहदातुरप्रत्याख्यान भी कहते हैं। इसमें ७० गाथाएँ हैं । दसवीं गाथा के बाद का कुछ भाग गद्य में है। इस प्रकीर्णक में प्रधानतया बालमरण एवं पण्डितमरण का विवेचन है । महाप्रत्याख्यान (महापच्चक्खाण) प्रकीर्णक में १४२ गाथाएँ हैं। इसमें प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग का विस्तृत व्याख्यान है। भक्तपरिज्ञा (भत्तपरिण्णा) में १७२ गाथाएं हैं। इस प्रकीर्णक में 'भक्तपरिज्ञा' नामक मरण का विवेचन है । तन्दुलवैचारिक (तंदुलवेयालिय) प्रकीर्णक में १३६ गाथाएं हैं । बीचबीच में कुछ सूत्र भी हैं। इसमें विस्तार से गर्भ का वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के अन्तिम भाग में नारी-जाति के सम्बन्ध में एकपक्षीय विचार प्रकट किये गये हैं। सौ वर्ष की आयुवाला पुरुष कितना तन्दुल अर्थात् चावल खाता है, इसका संख्यापूर्वक विशेष विचार करने के कारण उपलक्षण से यह सूत्र तन्दुलवैचारिक कहा जाता है। संस्तारक (संथारग) प्रकीर्णक में १२३ गथाएँ हैं । इसमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य संस्तारक अर्थात् तृण आदि की शय्या का महत्त्व वर्णित है। संस्तारक पर आसीन होकर पण्डितमरण प्राप्त करनेवाला मुनि मुक्ति का वरण करता है । इस प्रकार के अनेक मुनियों के दृष्टान्त प्रस्तुत प्रकीर्णक में दिये गये हैं। गच्छाचार (गच्छायार) प्रकीर्णक में १३७ गाथाएं हैं। इसमें गच्छ अर्थात् समूह में रहनेवाले साधुसाध्वियों के आचार का वर्णन है। यह प्रकीर्णक महानिशीथ, कल्प (बृहत्कल्प ) तथा व्यवहार के आधार पर बनाया गया है। गणिविद्या (गणिविज्जा) में ८२ गाथाएं हैं। यह गणितविद्या अर्थात् ज्योतिर्विद्या का ग्रन्थ है। इसमें इन नौ विषयों ( नवबल ) का विवेचन है : १. दिवस, २. तिथि, ३. नक्षत्र, ४. करण, ५. ग्रहदिवस, ६. मुहूर्त, ७. शकुन, ८. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन धर्म-दर्शन लग्न और ६. निमित्त । देवेन्द्रस्तव (देविदथय) प्रकीर्णक में ३०७ गाथाएँ हैं । इसमें बत्तीस देवेन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मरणसमाधि (मरणसमाही) का दूसरा नाम मरणविभक्ति ( मरणविभत्ती) है। इसमें ६६३ गाथाएँ हैं। यह प्रकीर्णक यथानिर्दिष्ट आठ प्राचीन श्रुतग्रन्थों के आधार पर निर्मित हुआ है : १. मरणविभक्ति, २. मरणविशोधि, ३. मरणसमाधि, ४. संलेखनाश्रुत, ५. भक्तपरिज्ञा, ६. आतुरप्रत्याख्यान, ७. महाप्रत्याख्यान और ८. आराधना । आगमिक व्याख्याएँ: जैन आगमों की प्राकृत व्याख्याएँ तीन रूपों में मिलती हैं: नियुक्ति, भाष्य और चूणि । नियुक्ति और भाष्य पद्य में हैं तथा चूणि संस्कृतमिश्रित गद्य में। उपलब्ध नियुक्तियाँ भद्रबाहु ( द्वितीय ) की रचनाएं हैं। इसका समय विक्रम की छठी शती है। इन्होंने यथानिर्दिष्ट दस आगमों पर नियुक्तियाँ लिखी हैं : १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. आचारांग, ५.सूत्रकृताग, ६.दशाश्रुतस्कन्ध, ७. बृहत्कल्प, ८. व्यवहार, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति और १०. ऋषिभाषित। सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की नियुक्तियाँ उपलब्ध नहीं हैं। गोविन्दाचार्यरचित एक अन्य नियुक्ति ( गोविन्दनियुक्ति) भी अनुपलब्ध है । संसक्तनियुक्ति बहुत बाद की एक रचना है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ओधनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति में से तथा पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति में से अलग किये गये अंश हैं जिनकी गिनती मूलसूत्रों में की जाती है । नियुक्ति की व्याख्यान-शैली बहुत प्राचीन है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य भाष्यकारों में संघदासगणि और जिनभद्रगणि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका समय विक्रम की सातवीं शती है। जैन आगमों के निम्नलिखित आठ महाकाय भाष्य उपलब्ध हैं : १. विशेषावश्यकभाष्य, २. बृहत्कल्पलवुभाष्य, ३. बृहत्कल्पबृहद्भाष्य, ४.पंचकल्पमहाभाष्य, ५. व्यवहारभाष्य, ६. निशीथभाष्य, ७. जीतकल्पभाष्य और ८. ओघनियुक्तिमहाभाष्य । इनमें से बृहस्कल्पलघुभाष्य तथा पंचकल्पमहाभाष्य के प्रणेता संघदासगणि हैं एवं विशेषावश्यकभाष्य के रचयिता जिनभद्रगणि हैं । इन महाकाय भाष्यों के अतिरिक्त आवश्यक, ओधनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, दशव कालिक आदि पर लघुभाष्य भी हैं। चूर्णिकारों में जिनदासगणि महत्तर विशेष प्रसिद्ध हैं। इनका समय विक्रम की आठवीं शती है । निम्नोक्त आगमों की चूणियाँ उपलब्ध हैं : १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ४. जीवाजीवाभिगम, ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६. प्रज्ञापना, ७. दशाश्रुतस्कन्ध, ८. बृहत्कल्प, ६. व्यवहार, १०. निशीथ, ११. पंचकल्प, १२. जीतकल्प, १३. आवश्यक, १४. दशवैकालिक, १५. उत्तराध्ययन, १६. पिण्डनियुक्ति, १७. नन्दी और १८. अनुयोगद्वार । निशीथसूत्र की विशेषचूणि ही प्राप्त है। बृहत्कल्प की चूणि और विशेषचूणि दोनों ही उपलब्ध हैं। दशवकालिक पर भी दो चूणियाँ हैं : एक अगस्त्यसिंहकृत तथा दूसरी जिनदासकृत। अनुयोगद्वार में जो अंगुल पद है उसपर जिनभद्र ने अलग से चूणि लिखी है । चूणिसाहित्य सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का विशेष महत्त्व है। जैन आगमों पर प्राचीनतम संस्कृत टीकाएँ इन्हीं की हैं। इनका समय वि० सं० ७५७ में ८२७ के बीच का है । हरिभद्र ने प्राकृत Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन धर्म-दर्शन चूणियों के आधार से ही टीकाएँ लिखी हैं। बीच-बीच में दार्शनिक दृष्टि का विशेष उपयोग किया है। हरिभद्र के बाद शीलांकसूरि ने संस्कृत टीकाएं लिखीं। इनका काल दसवीं शताब्दी है । इनके बाद टीकाकार शान्त्याचार्य हुए। इन्होंने उत्तराध्ययन पर बृहत् टीका लिखी। इनके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए। इन्होंने नव अंगों पर टीकाएं लिखीं। इनका समय वि० सं० १०८८ से ११३५ तक का है। इसी समय मलधारी हेमचन्द्र भी हुए जिन्होंने विशेषावश्यकभाष्य पर वृत्ति लिखी। आगमों पर संस्कृत टीकाएं लिखनेवालों में मलयगिरि का विशेष स्थान है । इनकी टीकाएं दार्शनिक चर्चायुक्त सुन्दर भाषा में हैं। प्रत्येक विषय पर सुस्पष्ट ढंग से लिखने में इन्हें अच्छी सफलता मिली है । ये बारहवीं शताब्दी के विद्वान् थे। आगमों की संस्कृत व्याख्याओं की बहुलता होते हुए भी बाद के आचार्यों ने जनहित की दृष्टि से लोकभाषाओं में भी व्याख्याएं लिखना आवश्यक समझा । परिणामतः तत्कालीन अपभ्रंश अर्थात् प्राचीन गुजराती में कुछ आचार्यों ने सरल एवं सुबोध बालावबोध लिखे । इस प्रकार के बालावबोध लिखने वालों में विक्रम की सोलहवीं शती में विद्यमान पार्श्वचन्द्रगणि एवं अठारहवीं शती में विद्यमान लोंकागच्छीय मुनि धर्मसिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। मुनि धर्मसिंह ने २७ आगमों पर बालावबोध-टबे लिखे हैं। हिन्दी व्याख्याओं में मुनि हस्तिमलकृत दशवैकालिक-सौभाग्यचन्द्रिका एवं नन्दीसूत्र-भाषाटीका; उपाध्याय आत्मारामकृत दशाश्रुतस्कन्ध-गणपतिगुणप्रकाशिका, दशवकालिक-आत्मज्ञानप्रकाशिका एवं उत्तराध्ययन-आत्मज्ञानप्रकाशिका; उपाध्याय अमरमुनिकृत आवश्यक-विवेचन (श्रमणसूत्र) आदि उल्लेखनीय हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन को साहित्य कर्मप्राभूत और कषायप्राभृत श्व ेताम्बर-सम्प्रदाय में आचारांगादि ग्रन्थ आगम-रूप से मान्य हैं जब कि दिगम्बर-सम्प्रदाय में कर्मप्राभृत एवं कषायप्राभृत को आगम माना जाता है । कर्मप्राभृत को महाकर्मप्रकृतिप्राभूत, आगम सिद्धान्त, षट्खण्डागम, परमागम, खण्डसिद्धान्त, षट्खण्डसिद्धान्त आदि नामों से जाना जाता है । कर्मविषयक प्ररूपणा के कारण इसे कर्मप्राभृत अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभूत कहा जाता है । आगमिक एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थ होने के कारण इसे आगमसिद्धान्त, परमागम, खण्डसिद्धान्त आदि नाम दिये जाते हैं । चूंकि इसमें छ: खण्ड हैं इसलिए इसे षट्खण्डागम अथवा षट्खण्डसिद्धान्त कहा जाता है । ५६ कर्मप्रभृत का उद्गमस्थान दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग है जो कि अब लुप्त है । दृष्टिवाद के पाँच विभाग हैं: परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इनमें से पूर्वगत के चौदह भेद हैं । इन्हीं को चौदह पूर्व कहा जाता है । इनमें से अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व से कर्मप्राभृत नामक षट्खण्डागम उत्पन्न हुआ है । अग्रायणीय पूर्व के यथानिर्दिष्ट चौदह अधिकार हैं : १. पूर्वान्त, २. अपरान्त, ३. ध्रुव, ४. अध्रुव, ५. चयनलब्धि, ६. अपम, ७. प्रणिधिकल्प, ८. अर्थ, ६. भौम, १०. व्रतादिक, ११. सर्वार्थ, १२. कल्पनिर्याण, १३. अतीत सिद्ध-बद्ध और १४. अनागत सिद्ध-बद्ध । इनमें से पंचम अधिकार चयनलब्धि के बीस प्राभृत हैं जिनमें चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृति है । इस कर्मप्रकृतिप्राभृत से ही षट्खण्डसिद्धान्त की उत्पत्ति हुई है । षट्खण्डसिद्धान्त रूप क मंप्राभृत आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि की रचना है । इन्होंने प्राचीन कर्मप्रकृतिप्राभूत के Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन धर्म-दर्शन ८ आधार से प्रस्तुत ग्रन्थ का निर्माण किया । कर्मप्राभत (षटखण्डागम ) की धवला टीका में उल्लेख है कि सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में स्थित धरसेनाचार्य ने अंगश्रुत के विच्छेद के भय से महिमानगरी में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा। आचार्यों ने लेख का प्रयोजन भली भांति समझकर शास्त्रधारण करने में समर्थ दो प्रतिभा सम्पन्न साधुओं को आन्ध्रदेश के वेन्नातट से धरसेनाचार्य के पास भेजा । धरसेन ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र एवं शुभ वार में उन्हें ग्रन्थ पढ़ाना प्रारम्भ किया। क्रमशः ब्याख्यान करते हुए आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी के पूर्वाह्न में ग्रन्थ समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रन्थ की परिसमाप्ति से. प्रसन्न हुए भूतों ने उन दो साधुओं में से एक की पुष्पावली आदि से समारोह के साथ पूजा की . जिसे देखकर धरसेन ने उसका नाम 'भूतबलि' रखा। दूसरे की भूतों ने पजाकर अस्त-व्यस्त दन्तपंक्ति को समान कर दिया जिसे देखकर धरसेन ने उसका नाम 'पुष्पदन्त' रखा। वहां से प्रस्थान कर उन दोनों ने अंकुलेश्वर में वर्षावास किया। वर्षावास समाप्त कर आचार्य पुष्पदन्त वनवास गये तथा भट्टारक भूतबलि द्रमिलदेश पहुँचे । पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर ( सत्प्ररूपणा के ) बीस सूत्र बनाकर जिनपालित को पढ़ाकर भूतबलि के पास भेजा। भूतबलि ने जिनपालित के पास सूत्र देखकर तथा पुष्पदन्तं को अल्पायु जानकर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत ( महाकम्मपयडिपाहुड ) के विच्छेद की आशंका से द्रव्यप्रमाणानुगम से प्रारम्भ कर आगे की ग्रन्थ-रचना की। अतः इस खण्डसिद्धान्त की अपेक्षा से भूतबलि और पुष्पदन्त भी श्रुत के Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ६१ कर्ता कहे जाते हैं । इस प्रकार मूलग्रन्थकर्ता वर्धमान भट्टारक हैं, अनुग्रन्थकर्ता गौतम स्वामी हैं तथा उपग्रन्थकर्ता रागद्वेषमोहरहित भूतबलि-पुष्पदन्त मुनिवर हैं । षट्खण्डागम के प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा के प्रणेता आचार्य पुष्पदन्त हैं तथा शेष समस्त ग्रन्थ के रचयिता आचार्य भूतबलि हैं । धवलाकार ने पुष्पदन्तरचित जिन बीस सूत्रों का उल्लेख किया है वे सत्प्ररूपणा के बीस अधिकार ही हैं क्योंकि उन्होंने आगे स्पष्ट लिखा है कि भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम से अपनी रचना प्रारम्भ की । सत्प्ररूपणा के बाद जहां से संख्याप्ररूपणा अर्थात् द्रव्यप्रमाणानुगम प्रारम्भ होता है वहाँ पर भी धवलाकार ने कहा है कि अब चौदह जीवसमासों के अस्तित्व को जान लेनेवाले शिष्यों को उन्हीं जीवसमासों के परिमाण के प्रतिबोधन के लिए भूतबलि आचार्य सूत्र करते हैं । आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का समय विविध प्रमाणों के आधार पर वीर निर्वाण के ६००-७०० वर्ष के पश्चात् सिद्ध होता है । कर्म प्राभृत के छः खण्डों के नाम इस प्रकार हैं : १. जीवस्थान, २. क्षुद्रकबन्ध, ३ बन्धस्वामित्वविचय, ४. वेदना, ५. वर्गणा और ६. महाबन्ध | जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार तथा नौ चूलिकाएं हैं। आठ अनुयोगद्वार इनसे सम्बद्ध हैं : १. सत्, २. संख्या ( द्रव्यप्रमाण ), ३. क्षेत्र, ४ स्पर्शन, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाव और ८. अल्पबहुत्व | नौ चूलिकाएँ ये हैं : १. प्रकृति - समुत्कीर्तन, २ स्थानसमुत्कीर्तन ३-५ प्रथम द्वितीय तृतीय महादण्डक, ६. उत्कृष्टस्थिति, ७ जघन्यस्थिति, ८. सम्यक्त्वीत्पत्ति और गति - आगति । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन धर्म-दर्शन क्षुद्रकबन्ध के ग्यारह अधिकार हैं : १. स्वामित्व, २. काल, ३. अन्तर, ४. भंगविचय, ५, द्रव्यप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शनानुगम, ८. नाना-जीवकाल, ६. नाना-जीव-अन्तर, १०. भागाभागानुगम और ११. अल्पबहुत्वानुगम। बन्धस्वामित्वबिचय में ये विषय हैं : कर्मप्रकृतियों का जीवों के साथ बंध, कर्मप्रकृतियों की गुणस्थानों में व्युच्छित्ति, स्वोदयबंध-रूप प्रकृतियाँ, परोदयबंध-रूप प्रकृतियाँ। वेदना खण्ड में कृति और वेदना नामक दो अनुयोगद्वार हैं। कृति सात प्रकार की है : १. नामकृति, २. स्थापनाकृति, ३. द्रव्यकृति, ४. गणनाकृति, ५. ग्रन्थकृति, ६ करणकृति और ७. भावक ति । वेदना के सोलह अधिकार हैं : १ निक्षेप, २. नय, ३ नाम, ४. द्रव्य, ५. क्षेत्र, ६. काल, ७. भाव, ८. प्रत्यय, ६. स्वामित्व, १०. वेदना, ११. गति, १२. अनन्तर, १३. सन्निकर्ष, १४. परिमाण, १५. भागाभागानुगम और १६. अल्पबहुत्वानुगम। वर्गणा खण्ड का मुख्य अधिकार बंधनीय है, जिसमें वर्गणाओं का विस्तृत वर्णन है। इसके अतिरिक्त इसमें स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बंध इन चार अधिकारों का भी अंतर्भाव किया गया है। तीस हजार श्लोक-प्रमाण महाबंध नामक छठे खण्ड में प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध इन चार प्रकार के बंधों का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। इस महाबंध की प्रसिद्धि महाधवल के नाम से भी है। कसायपाहुड अथवा कषायप्राभूत को पेज्जदोसपाहुड अथवा प्रेयोद्वेषप्र भूत भी कहते हैं। पेज्ज का अर्थ प्रेय अर्थात् राग और दोस का अर्थ द्वेष होता है। चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थ में राग mational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दर्शन का साहित्य ६३ और द्वेष रूप कषाय का प्रतिपादन किया गया है इसलिए इसके दोनों नाम सार्थक हैं । ग्रन्थ की प्रतिपादन - शैली अति गूढ़, संक्षिप्त एवं सूत्रात्मक है । प्रतिपाद्य विषयों का केवल निर्देश कर दिया गया है । कर्भ प्राभृत अर्थात् षट्खण्डागम के ही समान कषायप्राभृत का उद्गमस्थान भी दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग ही है । उसके ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के प्रयोद्वेष नामक तीसरे प्राभृत से कषायप्राभृत की उत्पत्ति हुई है । जिस प्रकार कर्मप्रकृतिप्राभृत से उत्पन्न होने के कारण षट्खण्डागम को कर्मप्राभृत, कर्मप्रकृतिप्राभृत अथवा महाकर्मप्रकृतिप्रामृत कहा जाता है उसी प्रकार प्रेयोद्वेषप्राभृत से उत्पन्न होने के कारण कषायप्राभृत को प्रेयोद्वेषप्राभृत कहा जाता है । कषायप्राभृत के रचयिता आचार्य गुणधर हैं जिन्होंने गाथासूत्रों में प्रस्तुत ग्रंथ को निबद्ध किया है। आचार्य गुणधर ने इस कषायप्राभृत ग्रंथ की रचना क्यों की ? इसका समाधान करते हुए जयधवला टीका में आचार्य वीरसेन ने बताया है कि ज्ञानप्रवाद ( पाँचवें ) पूर्व की निर्दोष दसवीं वस्तु के तीसरे कषायप्राभृत रूपी समुद्र के जलसमुदाय से प्रक्षालित मतिज्ञान रूपी लोचनसमूह से जिन्होंने तीनों लोकों को प्रत्यक्ष कर लिया है तथा जो त्रिभुवन के परिपालक हैं उन गुणधर भट्टारक ने तीर्थ के व्युच्छेद के भय से कषायप्राभृत के अर्थ से युक्त गाथाओं का उपदेश दिया । कषायप्राभृतकार आचार्य गुणधर के समय का उल्लेख करते हुए जयधवलाकार ने लिखा है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन धर्म-दर्शन पूर्वो का एकदेश आचार्य-परम्परा से गुणधराचार्य को प्राप्त हुआ। उन्होंने प्रवचन-वात्सल्य के वशीभूत हो ग्रंथ-विच्छेद के भय से १६००० पदप्रमाण पेज्जदोसपाहुड का १८० गाथाओं में उपसंहार किया। महाकर्मप्रकृतिप्रामृत अर्थात् षट्खण्डागम के प्रणेता आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि के समय का उल्लेख भी धवला में इसी रूप में है। इन उल्लेखों को देखने से ऐसी प्रतीति होती है कि कषायप्राभृतकार और महाकर्मप्रकृति प्राभृतकार सम्भवतः समकालीन रहे होंगे। धवला एवं जयधवला के अध्ययन से ऐसी कोई प्रतीति नहीं होती कि अमुक प्राभूत की रचना अमुक प्राभृत से पहले की है अथवा वाद की । अन्य किसी प्राचीन ग्रंथ में भी एतद्विषयक कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। कषायप्राभूतकार ने स्वयमेव दो गाथाओं में अपने ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषयों अर्थात अर्थाधिकारों का निर्देश किया है। इन गाथाओं की व्याख्या चूर्णिसूत्रकार और जयधवलाकार ने भिन्न-भिन्न रूप से की है। यद्यपि ये दोनों इसमें एकमत हैं कि कषायप्राभूत के १५ अर्थाधिकार हैं तथापि उनकी गणना में एकरूपता नहीं है। चूर्णिसूत्रकार ने अर्थाधिकार के निम्नोक्त १५ भेद गिनाये हैं : १. पेज्जदोस (प्रेयोद्वेष ), २. ठिदिअणुभागविहत्ति (स्थिति-अनुभागविभक्ति ), ३. बंधग अथवा बंध (बंधक या बंध), ४. संकम (संक्रम), ५. वेदअ अथवा उदअ ( वेदक या उदय ), ६. उदीरणा, ७. उवजोग (उपयोग), ८. चउठाण (चतु:स्थान), ६. वंजण (व्यञ्जन), १०. सम्मत्त अथवा दसणमोहणीय-उवसामणा (सम्यक्त्व या दर्शममोहनीय की उपशामना , ११ सणमोहणीयक्खवणा (दर्शनमोहनीय की क्षपणा). १२. देसविरदि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य (देशविरति), १३. संजम-उवसामणा अथवा चरित्तमोहणीय. उवसामणा (संयमविषयक उपशामना या चारित्रमोहनीय की उपशामना, १४. संजमक्खवणा अथवा चरित्तमोहणीयक्खवणा (संयमविषयक क्षपणा या चारित्रमोहनीय की क्षपणा) और १५. अद्धापरिमाणणिद्देस ( अद्धापरिमाणनिर्देश )। जयधवलाकार ने जिन पद्रह अर्थाधिकारों का उल्लेख किया है वे ये हैं : १. प्रेयोद्वेष, २. प्रकृतिविभक्ति, ३. स्थितिविभक्ति, ४. अनुभागविभक्ति, ५. प्रदेश विभक्ति-क्षीणाक्षीण. प्रदेश-स्थित्यन्तिकप्रदेश, ६. बन्धक, ७. वेदक, ८. उपयोग, ६. चतुःस्थान, १०. व्यञ्जन, ११. सम्यक्त्व, १२. देशविरति, १३. संयम, १४, चारित्रमोहनीय की उपशामना और- १५. चारित्रमोहनीय की क्षपणा । इस स्थान पर जयधवलाकार ने यह भी निर्देश किया है कि इसी तरह अन्य प्रकारों से भी पन्द्रह अर्थाधिकारों का प्ररूपण कर लेना चाहिए। इससे प्रतीत होता है कि कषायप्राभूत के अधिकारों की गणना में एकरूपता नहीं रही है। वैसे तो कषाय प्राभृत में २३३ गाथाएँ मानी जाती हैं किन्तु वस्तुत: इस ग्रंथ में १८० गाथाएँ ही हैं। शेष ५३ गाथाएँ कषायप्राभृतकार गुणधराचार्य-कृत न होकर सम्भवतः आचार्य नागहस्ति-कृत हैं जो व्याख्या के रूप में बाद में जोड़ी गई हैं। यह बात इन गाथाओं को तथा जयधवला टीका को देखने से स्पष्ट मालूम होती है । कषायाभूत के मुद्रित 'संस्करणों में भी सम्पादकों ने इनके पृथक्करण का पूरा ध्यान रखा है। आचार्य नागहस्ती कषायप्राभूतचूर्णिकार आचार्य यतिवृषभ के गुरु हैं। यतिवृषभाचार्य ने यद्यपि इन गाथाओं पर भी चूणिसूत्र लिखे हैं तयापि उनके कर्तृत्व के विषय में देखने से भी सम्पादको ना कषायप्रायद्यपि इन गाय में Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन किसी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है। सम्भवतः इस प्रकार का उल्लेख उन्होंने आवश्यक न समझा हो क्योंकि कषायप्रातकार के नाम का भी उन्होंने अपने चूर्णिसूत्रों में कोई निर्देश नहीं किया है। यह भी सम्भव है कि उन्हें एतद्विषयक विशेष जानकारी प्राप्त न हुई हो एवं परम्परा से चली आनेवाली गाथाओं पर अर्थ के स्पष्टीकरण की दृष्टि से चूर्णिसूत्र लिख दिये हों। जो कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि कषायप्राभूत की २३३ गाथाओं में १८० गाथाएँ तो स्वयं ग्रन्थकार की बनाई हुई हैं और शेष ५३ गायाएं परकृत हैं। जयधवलाकार ने जहाँ-कहीं कषायप्राभूत की गाथाओं का निर्देश किया है, सर्वत्र १८० की संख्या ही दी है। यद्यपि उन्होंने एक स्थान पर २३३ गाथाओं का उल्लेख किया है और यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि ये सब गाथाएं यानी २३३ गाथाएँ गुणधराचार्य-कृत हैं किन्तु उनका वह समाधान सन्तोषकारक नहीं है। घवला और जयधवला: - वीरसेनाचार्य-विरचित धवला टीका कर्मप्राभूत (षट्खण्डागम ) की अति महत्त्वपूर्ण बृहत्काय व्याख्या है। धवला से पूर्व रची गई कर्मप्राभूत की टीकाओं का उल्लेख इन्द्रनन्दि-कृत श्रुतावतार में मिलता है। ये टीकाएं वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। कर्मप्राभत की उपलब्ध टीका धवला के कर्ता का नाम वीरसेन है। ये आर्यनन्दि के शिष्य तथा चन्द्रसेन के प्रशिष्य थे एवं एलाचार्य इनके विद्यागुरु थे। वीरसेन सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण तथा प्रमाणशास्त्र में निपुण थे एवं भट्टारक-पद से विभूषित थे । कषायप्राभत की दीका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य जयधवला के प्रारम्भ का एक-तिहाई भाग भी इन्हीं वीरसेन का लिखा हुआ है। इन्द्रनन्दि-कृत श्रुतावतार में बताया गया है कि बप्पदेव गुरु द्वारा सिद्धान्तग्रन्थों की टीका लिखे जाने के कितने ही काल पश्चात् सिद्धान्ततत्वज्ञ एलाचार्य हुए। उनके पास वीरसेन गुरु ने सकल सिद्धान्त का अध्ययन किया तथा षट् खण्डागम पर ७२००० श्लोक-प्रमाण प्राकृत-संस्कृतमिश्रित धवला टीका लिखी। इसके बाद कषायप्राभूत की चार विभक्तियों पर २०००० श्लोक-प्रमाण जयधवला टीका लिखने के पश्चात् वे स्वर्गवासी हुए। इस जयधवला को उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन) ने ४०००० श्लोक-प्रमाण टीका और लिखकर पूर्ण किया। वीरसेनाचार्य का समय धवला एवं जयधवला के अन्त में प्राप्त प्रशस्तियों एवं अन्य प्रमाणों के आधार पर शक की आठवीं शती सिद्ध होता है। आगमिक प्रकरण : आगमान्तर्गत विभिन्न विषयों का विशेष व्यवस्थित प्रतिपादन करने की दृष्टि से रचे गये छोटे-बड़े ग्रन्थ प्रकरण कहलाते हैं। इस प्रकार के प्रकरण तीन वर्गों में विभक्त होते हैं : आगमिक, तार्किक और औपदेशिक । ताकिक प्रकरण अधिक नहीं हैं। औपदेशिक प्रकरण भी आगमिक प्रकरणों की तुलना में कम हैं। आगमिक प्रकरण सर्वाधिक हैं। ___ आचार्य सिद्धसेन-कृत सन्मतितर्क, आचार्य हरिभद्र-कृत धर्मसंग्रहणी, उपाध्याययशोविजय-कृत तत्त्वविवेक, धर्मपरीक्षा आदि का समावेश तकप्रधानता के कारण तार्किक प्रकरणों में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द-कृत प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार आदि ग्रन्थ भी इस वर्ग में समाविष्ट होते हैं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन औपदेशिक प्रकरणों में आचार्य धर्मदास कृत उपदेशमाला, शान्तिसूरि-कृत धर्म रत्नप्रकरण, देवेन्द्रसूरि-कृत श्राद्धविधिप्रकरण, मलधारी हेमचन्द्रसूरिकृत भवभावना, वर्द्धमानसूरि कृत धर्मोपदेशमाला आदि का समावेश होता हैं । वट्टकेराचार्य - कृत मूलाचार एवं शिवार्य - कृत मूलाराधना भी आचारशास्त्रान्तर्गत औपदेशिक कोटि के उत्कृष्ट ग्रंथ हैं । ६८ आगमिक प्रकरणों में मुख्यतया द्रव्यानुयोग ( तत्त्वज्ञान ) एवं गणितानुयोग ( भूगोल -खगोल ) से सम्बद्ध ग्रंथों का समावेश होता है । इस प्रकार के कुछ ग्रन्थ ये हैं : शिवशर्मप्रणीत कर्मप्रकृति, चन्दषि-प्रणीत पंचसंग्रह, जिनभद्र- कृत विशेषणवती, हरिभद्र - कृत योगशतक, मुनिचन्द्र - विहित वनस्पतिसप्तति, श्रीचन्द्र - विहित संग्रहणीप्रकरण, चक्रेश्वरप्रणीत सिद्धान्तसारोद्धार, देवेन्द्र प्रणीत कर्मग्रन्थ पंचक, सोमतिलक - कृत बृहत्क्षेत्र समासप्रकरण, रत्नशेखर - रचित क्षेत्र समास, यतिवृषभ विरचित त्रिलोकप्रज्ञप्ति, नेमिचन्द्र - विहित गोम्मटसार, पद्मनन्दि कृत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रह । - तत्त्वार्थ सूत्र : आचार्य उमास्वाति ने जैन तत्त्वज्ञान, आचार, खगोल, भूगोल आदि अनेक विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन करने की दृष्टि से प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' लिखा । ग्रन्थ की भाषा प्राकृत न रखकर संस्कृत रखी । उमास्वाति कब हुए, इस विषय में अभी कोई निश्चित मत नहीं है । वाचक उमास्वाति का प्राचीन से प्राचीन समय विक्रम की पहली शताब्दी और अर्वाचीन से अर्वाचीन समय तीसरीचौथी शताब्दी है । इन तीन-चार सौ वर्ष के बीच में उनका समय पड़ता है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य आचार्य उमास्वाति सर्वप्रथम संस्कृत-लेखक हैं जिन्होंने जंन दर्शन पर अपनी कलम उठाई। उनकी भाषा सरल एवं संक्षिप्त है । शैली में प्रवाह है। उनका तत्त्वार्थाधिगमसूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य है। इसमें दस अध्याय हैं जिनमें जैन दर्शन और जैन आचार का संक्षिप्त निरूपण है। खगोल और भूगोलविषयक मान्यताओं का भी वर्णन है। यों कहना चाहिए कि यह ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, आत्मविद्या, पदार्थविज्ञान, कर्मशास्त्र आदि अनेक विषयों का संक्षिप्त कोष है। प्रथम अध्याय में ज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाली निम्न बातों पर प्रकाश डाला गया है : ज्ञान और दर्शन का स्वरूप, नयों का लक्षण, ज्ञान का प्रामाण्य । सर्वप्रथम दर्शन का अर्थ बताया गया है। तदनन्तर प्रमाण और नयरूप से ज्ञान का विभाग किया गया है। फिर मति आदि पाँच ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में विभाजन किया गया है। उसके बाद मति ज्ञान की उत्पत्ति और उसके भेदों पर प्रकाश डाला गया है। तदुपरान्त श्रुतज्ञान का वर्णन है। फिर अवधि, मनःपर्य य और केवलज्ञान और उनके भेद-प्रभेद तथा पारस्परिक अन्तर का कथन है । तत्पश्चात् पाँचों ज्ञानों का तारतम्य बतलाते हुए उनका विषय-निर्देश एवं उनकी सहचारिता का दिग्दर्शन कराया गया है। तदनन्तर मिथ्या-ज्ञानों का निर्देश है। अन्त में नय के भेदों का कथन है। दूसरे अध्याय में जीव का स्वरूप, जीव के भेद, इन्द्रियभेद, मृत्यु और जन्म की स्थिति, जन्मस्थानों के भेद, शरीर के भेद, आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे अध्याय में अधोलोक के विभाग, नारक जीवों की Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन धर्म-दर्शन दशा, द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदि का वर्णन इत्यादि भौगो लिक विषयों पर काफी चर्चा है । चौथे अध्याय में देवों की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग, स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिमंण्डल आदि दृष्टियों से खगोल का वर्णन किया गया है । है पांचवें अध्याय में निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया : द्रव्य के मुख्य भेद, उनकी परस्पर तुलना, उनकी स्थिति, क्षेत्र एवं कार्य, पुद्गल का स्वरूप, भेद और उत्पत्ति, सत् का स्वरूप, नित्य का लक्षण, पौद्गलिक बन्ध की योग्यता और अयोग्यता, द्रव्य - लक्षण, काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं इसका विचार एवं काल का स्वरूप, गुण और परिणाम के भेद | छठे अध्याय में आस्रव का स्वरूप, उसके भेद एवं तदनुरूप कर्मबन्धन आदि बातों का विवेचन है । सातवें अध्याय में व्रत का स्वरूप, व्रत ग्रहण करनेवालों के भेद, व्रत की स्थिरता, हिंसा आदि अतिचारों का स्वरूप, दान स्वरूप इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है । आठवें अध्याय में कर्मबन्धन के हेतु और भेद का विचार किया गया है । नवें अध्याय में संवर, उसके साधन और भेद, निर्जरा और उसके उपाय, साधक और उसकी मर्यादा पर विशद विवेचन है । दसवें अध्याय में केवलज्ञान के हेतु, मोक्ष का स्वरूप, मुक्तात्मा की गति व स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला गया है । तत्त्वार्थ सूत्र पर एक भाष्य मिलता है जो उमास्वाति की " Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दर्शन का साहित्य ७१ अपनी ही रचना है। इसके अतिरिक्त 'सर्वार्थसिद्धि' नाम की एक संक्षिप्त किन्तु अति महत्त्वपूर्ण टीका मिलती है। यह टीका पूज्यपाद की कृति है जो छठी शताब्दी में हुए थे । ये । दिगम्बर परम्परा के आचार्य थे । अकलंक ने 'राजवार्तिक' की रचना की । यह टीका बहुत विस्तृत है । इसमें दर्शन के प्रत्येक विषय पर किसी-न-किसी रूप में प्रकाश डाला गया है । कहीं-कहीं खण्डन मण्डन की दृष्टि की मुख्यता है । विद्यानन्दकृत 'श्लोकवार्तिक' भी महत्त्वपूर्ण टीका है। ये दोनों भी दिगम्बर परम्परा के ही आचार्य थे । सिद्धसेन और हरिभद्र ने क्रमश: बृहत्काय और लघुकाय वृत्तियों की रचना की । ये दोनों श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य थे। इन टीकाओं में भी दार्शनिक दृष्टिकोण की ही प्रधानता है । जैन दर्शन की आगे की प्रगति पर इन टीकाओं का काफी प्रभाव पड़ा । जिस प्रकार दिङ्नाग के 'प्रमाण समुच्चय' पर धर्मकीर्ति ने 'प्रमाणवार्तिक' लिखा और उसी को केन्द्रबिन्दु मानकर समग्र बौद्ध दर्शन विकसित हुआ उसी प्रकार तत्वार्थसूत्र की इन टीकाओं के आसपास जैन दार्शनिक साहित्य का विकास हुआ। इन टीकाओं के अतिरिक्त बारहवीं शताब्दी में मलयगिरि ने और चौदहवीं शताब्दी में चिरन्तन मुनि ने भी तत्वार्थ सूत्र पर टीकाएं लिखीं। अठारहवीं शताब्दी में नव्यन्याय शैली के प्रकाण्ड पण्डित यशोविजय ने भी टीका लिखी । दिगम्बर परम्परा के श्रतसागर, विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, लक्ष्मीदेव, अभयनन्दी आदि विद्वानों ने भी तत्त्वार्थ सूत्र पर अपनी-अपनी टीकाएं लिखी थीं। बीसवीं शताब्दी में पं० सुखलालजी संघवी आदि विद्वानों ने हिन्दी आदि भाषाओं में तत्त्वार्थमूत्र पर सुन्दर विवेचन लिखे हैं । • Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सिद्धसेन : भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नागार्जुन ने एक बहुत बड़ी हलचल मचा दी थी। जब से नागार्जुन इस क्षेत्र में आये, दार्शनिक वाद-विवादों को एक नया रूप प्राप्त हुआ । श्रद्धा के स्थान पर तर्क का साम्राज्य हो गया । पहले तर्क न था. ऐसी बात नहीं है। तर्क के होते हुए भी अधिक काम श्रद्धा से ही चल जाता था । यही कारण था कि दर्शन का व्यवस्थित आकार न बन पाया । नागार्जुन ने इस क्षेत्र में आकर एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। यह क्रान्ति बौद्ध दर्शन तक ही सीमित न रही। इसका प्रभाव भारत के सभी दर्शनों पर बड़ा गहरा पड़ा । परिणामस्वरूप जैन दर्शन भी उससे अछूता न रह सका । सिद्धसेन और समन्तभद्र जैसे महान् तार्किकों को पैदा करने का बहुत-कुछ श्रेय नागार्जुन को ही है । यह समय पाँचवीं छठी शताब्दी का है। जंनाचार्यों ने इस युग में महावीर के समय से बिखरे रूप में चले आते हुए अनेकांतवाद को सुनिश्चित रूप प्रदान किया । इस युग में पाँच प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं । सिद्धसेन और समन्तभद्र के अतिरिक्त मल्लवादी, सिंहगणि और पात्रकेशरी के नाम उल्लेखनीय हैं । जैन धर्म-दर्शन नागार्जुन ने शून्यवाद का समर्थन किया । शून्यवादियों के अनुसार तत्त्व न सत् है, न असत् है, न सदसत् हैं, न अनुभय । 'चतुष्कोटिविनिर्मुक्त' रूप से तत्त्व का वर्णन किया जा सकता है । विचार की चारों कोटियाँ तत्त्व को ग्रहण करने में असमर्थ हैं। विचार जिस चीज को ग्रहण करता है वह मात्र लोक व्यवहार है। बुद्धि से विवेचन करने पर हम किसी एक स्वभाव तक नहीं पहुँच सकते । हमारी बुद्धि किसी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य एक स्वभाव का अवधारण नहीं कर सकती। इसलिए सभी पदार्थ अनभिलाप्य हैं, निःस्वभाव हैं। इस प्रकार शून्यवाद ने तत्त्व के निषेधपक्ष पर भार दिया। विज्ञानवाद ने विज्ञान पर जोर दिया और कहा कि तत्त्व विज्ञानात्मक ही है। विज्ञान से भिन्न बाह्यार्थ की सिद्धि नहीं की जा सकती। जब तक व्यक्ति को विज्ञप्तिमात्रता के साथ एकरूपता का बोध नहीं हो जाता तब तक ज्ञाता और ज्ञेय का भेद बना ही रहता है। इसके विपरीत नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसक बाह्यार्थ की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने लगे। सांस्यों ने सत्कार्यवाद का समर्थन किया और कहा कि सब सत् है। हीनयान बौद्धों ने क्षणिकवाद की स्थापना की और कहा कि ज्ञान और अर्थ दोनों क्षणिक हैं। इसके विपरीत मीमांसकों ने शब्द आदि क्षणिक पदार्थों को भी नित्य सिद्ध किया। नैयायिकों ने शब्दादि पदार्थों को क्षणिक और आत्मादि पदार्थों को नित्य माना। इस प्रकार भारतीय दर्शन के क्षेत्र में भारी संघर्ष होने लगा। जैन दार्शनिक भी इस अवसर को खोने वाले न थे। उन्हें इस संघर्ष से प्रेरणा मिली। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने भी इस क्षेत्र में पर रखा और डंके की चोट सबके सामने आये। महावीरोपदिष्ट नयवाद और स्याद्वाद को मुख्य आधार बनाकर सिद्धसेन ने अपना कार्य प्रारम्भ किया। सिद्धसेन ने सन्मतितर्क, न्यायावतार और बत्तीसियों की रचना की। सन्मतितर्क में नयवाद का अच्छा विवेचन है। उस समय तक नयवाद पर ऐसा सुन्दर ग्रंथ किसी ने नहीं लिखा था और आज भी ऐसा दूसरा ग्रंथ शायद ही हो। यह ग्रंथ प्राकृत में है। इसमें तीन काण्ड हैं। प्रथम काण्ड में द्रव्यार्थिक और . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म-दर्शन पर्यायाथिक दृष्टि का सुन्दर विवेचन है । दूसरे काण्ड में ज्ञान और दर्शन पर अच्छी चर्चा है। तृतीय काण्ड में गुण और पर्याय, अनेकान्त-दृष्टि और तर्क व श्रद्धा पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। ___ मूल रूप से दो नय हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । सभी नयों का समावेश इन दो नयों में हो जाता है। जहाँ दृष्टि द्रव्यसामान्य अथवा अभेदमूलक होती है वहां द्रव्याथिक नय कार्य करता है और जहाँ दृष्टि पर्यायविशेष अथवा भेदमूलक होती है वहाँ पर्यायार्थिक नय कार्य करता है। हम प्रत्येक तत्त्व का इन दो दृष्टियों में विभाजन कर सकते हैं। तत्त्व का कोई भी पहल इन दो दृष्टियों का उल्लंघन नहीं कर सकता अर्थात् या तो वह सामान्यात्मक होगा या विशेषात्मक । इन दो दृष्टियों को छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकता। सिद्धसेन ने देखा कि दार्शनिक जगत् में जितना भी झगड़ा होता है वह इन दो दृष्टियों के कारण ही होता हैं। कोई दार्शनिक केवल द्रव्यार्थिक दृष्टि को ही सब कुछ मान लेता है तो दूसरा पर्यायार्थिक दृष्टि को ही अन्तिम सत्य समझ बैठता है। इन दोनों दृष्टि यों का एकान्त आग्रह ही सारे क्लेश का मूल है । अनेकान्त दृष्टि दोनों का समान रूप से सम्मान करती है । इस प्रकार की दृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार कार्य-कारणभाव का जो झगड़ा है वह भी अनेकान्तवाद की दृष्टि से सुलझाया जा सकता है। कार्य और कारण का एकान्त भेद मिथ्या है। न्याय, वैशेषिक आदि दर्शन इसलिए अपूर्ण हैं कि वे कार्य और कारण में एकान्त भेद मानते हैं । सांख्य का मत है कि कार्य और कारण में एकान्त अभेद है। कारण ही कार्य है अथवा कार्य कारणरूप ही Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ७५ है । यह अभेददृष्टि भी एकांगी है। सिद्धसेन ने कारण और कार्य का यह विरोध द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि के आधार पर दूर किया है । द्रव्यार्थिक दृष्टि से कारण और कार्य में कोई भेद नहीं । पर्यायार्थिक दृष्टि से दोनों में भेद है । अनेकान्तवाद - मार्ग यही है कि दोनों को सत्य माना जाय । वस्तुतः न कार्य और कारण में एकान्त भेद है और न एकान्त अभेद ही । यही समन्वय का मार्ग हैं । तत्त्वचिन्तन के सम्यक्पथ की व्याख्या करते हुए सिद्धसेन ने आठ बातों पर जोर दिया। इनमें से चार बातें तो वे ही हैं जिन पर स्वयं महावीर ने जोर दिया था । ये चार बाते हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इनके अतिरिक्त पर्याप्त, देश, संयोग और भेद पर भी उन्होंने जोर दिया। वैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में शेष चारों का भी समावेश हो जाता है किन्तु दृष्टि का और साथ-ही-साथ पदार्थ का कुछ और अधिक अच्छी तरह विश्लेषण करने के लिए उन्होंने आठ बातों का विवेचन किया । सिद्धसेन पक्के तर्कवादी थे, इसमें कोई संशय नहीं । इतना होते हुए भी वे यह जानते थे कि तर्क का क्षेत्र क्या है | दूसरे शब्दों में, वे तर्क की मर्यादा समझते थे । तर्क को सर्वत्र अप्रतिहतगति समझने की भूल उन्होंने नहीं की। उन्होंने अनुभव को दो क्षेत्रों में बाँट दिया । एक क्षेत्र में तर्क का साम्राज्य था तो दूसरे क्षेत्र में श्रद्धा को पूर्ण स्वतंत्र बना दिया । जो बातें शुद्ध आगमिक थीं, जैसे भव्य और अभव्य का विभाग, जीवों की संख्या का प्रश्न आदि, उन पर उन्होंने तर्क का प्रयोग करना उचित न समझा । उन्हें यथावत् ग्रहण कर लिया । जो बातें तर्कबल से सिद्ध या असिद्ध की जा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैन धर्म-दर्शन सकती थीं उनको उन्होंने अच्छी तरह से तर्क की कसौटी पर कसा । सिद्धसेन का कथन है कि धर्मवाद दो प्रकार का है - अहेतुवाद और हेतुवाद | भव्याभव्यादिक भाव अहेतुवाद के अन्तर्गत है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि नियम दुःख का नाश करनेवाले हैं इत्यादि बातें हेतुवाद में हैं । / सिद्धसेन ने एक नई परंपरा स्थापित की। वह परंपरा है दर्शन और ज्ञान के अभेद की । जैनों की आगमिक परंपरा थी सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान को भिन्न मानने की । इस परंपरा पर उन्होंने प्रहार किया और अपने तर्कबल से यह सिद्ध किया कि सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं है । सर्वज्ञत्व के स्तर पर पहुँच कर दोनों एकरूप हो जाते हैं। उन्होंने अवधि और मन:पर्यय को भी एक सिद्ध करने का प्रयत्न किया। साथ ही ज्ञान और श्रद्धा को भी एक सिद्ध किया। जैनागमों में प्रसिद्ध नंगमादि सात नयों के स्थान पर छः नयों की स्थापना की। नैगम को स्वतन्त्र नय न मानकर संग्रह और व्यवहार में समाविष्ट कर दिया। उन्होंने यह भी कह दिया कि जितने वचन के प्रकार हो सकते हैं उतने ही नय के प्रकार हो सकते हैं और जितने नयवाद हो सकते हैं उतने ही मत-मतान्तर भी हो सकते हैं । ज्ञान और क्रिया के ऐकान्तिक आग्रह को चुनौती देते हुए सिद्धसेन ने घोषणा की कि ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक हैं। ज्ञान-रहित क्रिया उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार क्रियारहित ज्ञान निकम्मा है। ज्ञान और क्रिया का सम्यक संयोग ही वास्तविक सुख प्रदान कर सकता है। जन्म और मरण से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक हैं । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ७७ न्यायावतार और बत्तीसियों में भी सिद्धसेन ने अपनी मान्यताओं की पुष्टि का पूर्ण प्रयत्न किया है। सिद्धसेन ने सचमुच जैन दर्शन के इतिहास में एक नये युग की स्थापना की । समन्तभद्र : श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन का जो स्थान है वही दिगम्बर परम्परा में समन्तभद्र का है । समन्तभद्र की प्रतिभा विलक्षण थी, इसमें कोई संदेह नहीं। उन्होंने स्याद्वाद की सिद्धि के लिए अथक परिश्रम किया । उनकी रचनाओं का छिपा हुआ लक्ष्य स्याद्वाद ही होता है । स्तोत्र की रचना हो तो क्या और दार्शनिक कृति हो तो क्या सभी का लक्ष्य एक ही था और वह था स्याद्वाद की सिद्धि । सभी वादों की ऐकान्तिकता में दोष दिखा कर उनका अनेकान्तवाद में निर्दोष समन्वय कर देना समन्तभद्र की ही खूबी थी । स्वयम्भू स्तोत्र में चौबीस तीर्थ करों की स्तुति के बहाने दार्शनिक तत्त्व का क्या ही सुन्दर एवं अद्भुत समावेश किया है । यह स्तोत्र स्तुतिकाव्य का उत्कृष्ट नमूना तो है ही, साथ ही इसके अन्दर भरा हुआ दार्शनिक वक्तव्य अत्यन्त महत्त्व का हैं । प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति में किसी-न-किसी दार्शनिक वाद का निर्देश करना वे नहीं भूले । स्वयम्भूस्तोत्र की तरह युक्त्यनुशासन भी एक उत्कृष्ट स्तुतिकाव्य है । इस काव्य में भी यही बात है । स्तुति के बहाने अन्य ऐकान्तिक वादों में दोष दिखाकर स्वसम्मत भगवान् के उपदेशों में गुणों के दर्शन कराना इस काव्य की विशेषता है । यह तो अयोगव्यवच्छेद हुआ। इसके अतिरिक्त भगवान् के उपदेशों में जो गुण हैं वे अन्य किसी के उपदेश में नहीं, यह लिखकर उन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेद के सिद्धान्त का भी आधार लिया । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन धर्म-दर्शन ___इन स्तोत्रों के अतिरिक्त उनकी एक कति आप्तमीमांसा है। दार्शनिक दृष्टि से यह श्रेष्ठ कृति हैं। अर्हन्त की स्तुति के प्रश्न को लेकर उन्होंने यह ग्रंथ प्रारम्भ किया। अर्हन्त की ही स्तुति क्यों करनी चाहिए ? इस प्रश्न को सामने रखकर उन्होंने आप्तपुरुष की मीमांसा की है। आप्त कौन हो सकता है ? इस प्रश्न को लेकर विविध प्रकार की मान्य ताओं का विश्लेषण किया है । देवागमन, नभोयान, चामरादि विभूतियों की महत्ता की कसौटी का खण्डन करते हुए यह सिद्ध किया है कि ये बाह्य विभूतियाँ आप्तत्व की सूचक नहीं हैं । ये सब चीजें तो मायावी पुरुषों में भी दिखाई दे सकती हैं । इसी प्रकार शारीरिक ऋद्धियाँ भी आप्तपुरुष की महत्ता सिद्ध नहीं कर सकतीं। देवलोक में रहनेवाले भी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं किन्तु वे हमारे लिए महान् नहीं हो सकते। इस प्रकार बाह्य प्रदर्शन का खण्डन करते हुए वे यहाँ तक पहुँचते हैं कि जो धर्म-प्रवर्तक कहे जाते हैं, जैसे-बुद्ध, कपिल, गौतम, कणाद, जैमिनी आदि, क्या उन्हें आप्त माना जाय ? इसके उत्तर में वे कहते हैं कि आप्त वही हो सकता है जिसके सिद्धान्त दोषयुक्त न हों, विरुद्ध न हों। सभी धर्म-प्रवतक आप्त नहीं हो सकते क्योंकि उनके सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध हैं। किसी एक को ही आप्त मानना चाहिए। वह एक कौन है ? इसका उत्तर देते हुए समन्तभद्र ने कहा कि जिसमें मोहादि दोषों का सर्वथा अभाव है और जो सर्वज्ञ है वही आप्त है। ऐसा व्यक्ति अर्हन्त ही हो सकता है क्योंकि अर्हन्त के उपदेश प्रमाण से बाधित नहीं होते। यह जैन दृष्टि की पूर्वभूमिका है। जैन दर्शन निर्दोष एवं सर्वज्ञ अर्हन्तों Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य की वाणी को ही आप्त-प्रणीत मानता है। जो वाणी प्रमाण से बाधित हैं वह सर्वज्ञ की वाणी नहीं हो सकती क्योंकि सर्वज्ञ की वाणी कभी बाधित नहीं होती। अबाधित वाणी ही आप्तवचन है । इस प्रकार के आप्तवचन ही प्रमाणभत माने जा सकते हैं । प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित सिद्धान्तों को आप्तवचन नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार अबाधित सिद्धान्त ही आप्तत्व की कसौटी है। इस कसौटी को हाथ में लेकर समन्तभद्र आगे बढ़ते हैं और सभी प्रकार के ऐकान्तिक वादों में प्रमाण-विरोध दिखाकर अनेकान्तवाद की ध्वजा ऊंची फहराते हैं। एकान्तवाद के दो मुख्य पहलू हैं। एक पक्ष एकान्त सत् का प्रतिपादन करना है तो दूसरा पक्ष एकान्त असत् का। एक पक्ष शाश्वतवाद का आश्रय लेता है तो दूसरा पक्ष उच्छेदवाद का प्रतिपादन करता है। इसी प्रकार नित्यकान्त और अनित्यकान्त, भेदैकान्त और अभेदैकान्त, सामान्य कान्त और विशेषकान्त, गुणकान्त और द्रव्य कान्त, सापेक्षकान्त और निरपेक्षकान्त, हेतुवादकान्त और अहेतुवादकान्त, विज्ञानकान्त और भूतकान्त, देवकान्त और पुरुषार्थ कान्त, वाच्यकांत और अवाच्यकांत आदि दृष्टिकोण एकांतवाद के समर्थक हैं। . समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में दो विरोधी पक्षों के ऐकांतिक आग्रह से उत्पन्न होनेवाले दोषों को दिखाकर स्याद्वाद की स्थापना की है। स्याद्वाद को लक्ष्य में रखकर सप्तभंगी की योजना की है। प्रत्येक दो विरोधी वादों को लेकर सप्तभंगी की योजना किस प्रकार हो सकती है, इसका स्पष्टीकरण समन्तभद्र ने किया है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन धर्म-दर्शन मल्लवादी: मल्लवादी सिद्धसेन के समकालीन थे । उनका नाम तो कुछ और ही था किन्तु वाद में कुशल होने के कारण उन्हें मल्लवादी पद से विभूषित किया गया और यही नाम प्रचलित भी हो गया। उनकी सन्मतितर्क की टीका बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह टीका इस समय उपलब्ध नहीं है। उनका प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ ग्रन्थ नयचक्र हैं। आज तक के ग्रन्थों में यह एक अद्भुत ग्रन्थ है। तत्कालीन सभी दार्शनिक वादों को सामने रखते हुए उन्होंने एक वादचक्र बनाया। उस चक्र का उत्तरउत्तरवाद, पूर्व-पूर्ववाद का खण्डन करके अपने-अपने पक्ष को प्रबल प्रमाणित करता है। प्रत्येक पूर्ववाद अपने को सर्वश्रेष्ठ एवं निर्दोष समझता है। वह यह सोचता ही नहीं कि उत्तरवाद मेरा भी खण्डन कर सकता है । इतने में तुरन्त उत्तरवाद आता है और पूर्ववाद को पछाड़ देता है। अन्तिम वाद पुनः प्रथम वाद से पराजित होता है। अन्त में कोई भी वाद अपराजित नहीं रह जाता। पराजय का यह चक्र एक अद्भुत शृंखला तैयार करता है । कोई भी एकान्तवादी इस चक्र के रहस्य को नहीं समझ सकता । एक तटस्थ व्यक्ति ही इस चक्र के भीतर रहनेवाले प्रत्येक वाद की सापेक्षिक सबलता और निर्बलता मालूम कर सकता है। यह बात तभी हो सकती है जब उसे पूरे चक्र का रहस्य मालम हो। चक्र नाम देने का उद्देश्य भी यही है कि उस चक्र के किसी भी वाद को प्रथम रखा जा सकता है और अन्त में जाकर वह अपने अन्तिम वाद का खण्डन कर सकता है। इस प्रकार प्रत्येक वाद का खण्डन हो जाता है। आचार्य का वास्तविक उद्देश्य यही है कि प्रत्येक बाद अपनी-अपनी दृष्टि से सच्चा है, परन्तु ज्योंही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीन धर्म-दर्शन का साहित्य ५१ का आग्रह करता है त्योंही दूसरा वह 'मैं ही सच्चा हूँ वाद आकर उसे समाप्त कर देता है । प्रत्येक वाद की अपनी-अपनी योग्यता और अपना-अपना क्षेत्र है । वह अपने क्षेत्र में सच्चा है । इस प्रकार अनेकांत दृष्टि का आश्रय लेने से ही सभी वाद सुरक्षित रह सकते हैं । अनेकान्त के बिना कोई भी वाद सुरक्षित नहीं । अनेकान्तवाद परस्पर विरुद्ध प्रतिभासित होने वाले सभी वादों का निर्दोष समन्वय कर देता है । उस समन्वय में सभी वादों को उचित स्थान प्राप्त हो जाता है । कोई भी वाद बहिष्कृत घोषित नहीं किया जाता। जिस प्रकार ब्रेडले के 'सम्पूर्ण' (Whole ) में सारे प्रतिभासों को अपना-अपना स्थान मिल जाता है उसी प्रकार अनेकान्तवाद में सारे एकान्तवाद समां जाते हैं। इससे यही फलित होता है कि एकान्तवाद तभी तक मिथ्या है जब तक वह निरपेक्ष है । सापेक्ष होने पर वही एकान्त सच्चा हो जाता हैसम्यक् हो जाता है । सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त में यही भेद है कि सम्यक् एकान्त सापेक्ष होता है जबकि मिथ्या एकान्त निरपेक्ष होता है । नय में सम्यक् एकान्त अच्छी तरह रह सकते हैं । मिथ्या एकान्त दुर्नय है-नयाभास है इसीलिए वह झूठा है - असम्यक है । सिंहगणि " सिंहगणि ने नयचक्र पर १८००० श्लोक - प्रमाण एक टीका लिखी। इस टीका में सिंहगणि क्षमाश्रमण की प्रतिभा अच्छी तरह झलकती है । इसमें सिद्धसेन के ग्रन्थों के उद्धरण हैं किन्तु. समन्तभद्र का कोई उल्लेख नहीं । इसी तरह दिङ्नाग और भर्तृहरि के कई उद्धरण हैं किन्तु धर्मकीर्ति का कोई उद्धरण नहीं । मल्लवादी और सिंहगणि दोनों श्व ेताम्बराचार्य थे । N Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैन धर्म-दर्शन पात्रकेशरी : इसी समय एक तेजस्वी आचार्य दिगम्बर परम्परा में हुए जिनका नाम पात्रकेशरी था। इन्होंने प्रमाण-शास्त्र पर एक ग्रन्थ लिखा जिसका नाम त्रिलक्षणकदर्थन है । जिस प्रकार सिद्धसेन ने प्रमाण-शास्त्र पर न्यायावतार लिखा उसी प्रकार पात्रकेशरी ने उक्त ग्रन्थ लिखा । इस ग्रन्थ में दिङनाग-समर्थित हेतु के विलक्षण का खण्डन किया गया है । अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का अव्यभिचारी लक्षण हो सकता है, यह बात विलक्षणकदर्थन में सिद्ध की गई है। जैन न्यायशास्त्र में यही लक्षण मान्य है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। . दिङनाग के विचारों ने भारतीय प्रमाणशास्त्र और न्यायशास्त्र को प्रेरणा दी। दिङनाग बौद्ध तर्कशास्त्र का पिता कहा जा सकता है। दिनांग की प्रतिभा के फलस्वरूप ही प्रशस्तपाद, उद्योतकर, कुमारिल, सिद्धसेन, मल्लवादी, सिंहगणि, पूज्यपाद, समन्तभद्र, ईश्वरसेन, अविद्धकर्ण आदि दार्शनिकों की रचनाएं हमारे सामने आई। इन रचनाओं में दिडनाग की मान्यताओं का खण्डन था। इसी संघर्ष के युग में धर्मकीर्ति पैदा हुए। उन्होंने दिङ्नाग पर आक्रमण करने वाले सभी दार्शनिकों को करारा उत्तर दिया और दिङ्नाग के दर्शन का नये प्रकाश में परिष्कार किया। धर्मकीति की परम्परा में अर्चट, धर्मोत्तर, शान्तरक्षित, प्रज्ञाकर आदि हुए जिन्होंने उनके पक्ष की रक्षा की। दूसरी ओर प्रभाकर, उम्बेक, व्योमशिव, जयन्त, सुमति, पात्रकेशरी, मंडन आदि बौद्धतर दार्शनिक हुए जिन्होंने बौद्ध पक्ष का खण्डन किया। इस संघर्ष के फलस्वरूप आठवीं-नवीं शताब्दी में जैन दर्शन के समर्थक अकलंक, हरिभद्र आदि दार्शनिक मैदान में आये। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य भकलंक: - जैन परम्परा में प्रमाणशास्त्र का स्वतंत्र रूप से व्यवस्थित निरूपण अकलंक की देन है। दिङनाग के समय से लेकर अकलंक तक बौद्ध और बौद्धतर प्रमाणशास्त्र में जो संघर्ष चलता रहा उसे ध्यान में रखते हुए जैन प्रमाणशास्त्र का प्राचीन मर्यादा के अनुकूल प्रतिपादन करने का श्रेय अकलंक को है। प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय आदि ग्रन्थ इस मत की पुष्टि करते हैं। अनेकान्तवाद के समर्थन में उन्होंने समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा पर अष्टशती नामक टीका लिखी। सिद्धिविनिश्चय में भी उनका यही दृष्टिकोण है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में दर्शन और धर्म के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। अकलंक ने प्रमाण-व्यवस्था का उपन्यास इस प्रकार किया है : १. प्रमाण के दो भेद-१. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष । २. प्रत्यक्ष के दो भेद-१. मुख्य और २. सांव्यवहारिक । ३. परोक्ष के पांच भेद-१. स्मृति, २. प्रत्यभिज्ञान, ३.तर्क, ४. अनुमान, ५. आगम। ४. मुख्य प्रत्यक्ष के उपभेद-१. अवधि, २. मनःपर्यय, ३. केवल । ५. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष (इंद्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष)-मतिज्ञान। यह व्यवस्था आगमों में भी मिलती है। तत्त्वार्थसूत्र में भी इसी व्यवस्था का प्रतिपादन है। तत्त्वार्थ की व्यवस्था इस प्रकार है: १. ज्ञान (प्रमाण) के पांच भेद-१. मति, २. श्रुत, ३. अवधि, ४. मनःपर्यय और ५. केवल । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैन धर्म-दर्शन २. परोक्ष ज्ञान के दो भेद - १. मति और २. श्रुत । ३. प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन भेद - १. अवधि, २. मन:पर्यय, ३. केवल । नन्दीसूत्र की प्रमाण-व्यवस्था में थोड़ा सा परिवर्तन क परिवर्धन है । वह इस प्रकार है : ज्ञान दो प्रकार का है - प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-- इन्द्रिय, नो-इन्द्रिय और मतिज्ञान । इन्द्रियों के पाँच भेद स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और - श्रोत्र । नी- इंद्रियज्ञान के तीन भेद - अवधि, मन:पर्यय और केवल । मतिज्ञान के दो भेद - श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित । श्रुतनिश्रित के चार भेद - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अश्रुतनिश्रित के चार भेद - औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा ओर पारिणामिकी । परोक्ष ज्ञान - श्रुतज्ञान । हरिभद्र : आचार्य हरिभद्र ने प्रमाणशास्त्र पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ तो नहीं लिखा किन्तु अपनी अन्य कृतियों में इस विषय का पर्याप्त प्रतिपादन किया । अनेकान्तजयपताका लिखकर उन्होंने बौद्ध एवं इतर दार्शनिकों के आक्षेपों का उत्तर दिया और अनेकान्त के स्वरूप को नये रूप में सबके सामने रखा। हरिभद्र ने दिङ्नागकृत न्यायप्रवेश पर टीका लिखी । इस टीका द्वारा उन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य एक नया उदाहरण रखा । उन्होंने यह सिद्ध किया कि ज्ञानसामग्री पर किसी सम्प्रदायविशेष या व्यक्ति-विशेष का अधिकार नहीं है। वह तो बहता हुआ प्रवाह है जिसमें कोई भी स्नान कर सकता है। साथ-ही-साथ उन्होंने यह भी सूचित किया कि जैन आचार्यों को न्यायशास्त्र की ओर भी कदम बढ़ाना चाहिये। शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय आदि ग्रन्थों में हरिभद्र ने प्रमाण-शास्त्र पर बहुत-कुछ लिखा। इनके अतिरिक्त उनके षोडशक, अष्टक आदि ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । लोकतत्त्वनिर्णय में समन्वयदृष्टि पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। उनकी उदार दृष्टि का परिचय देने के लिए यह ग्रन्थ काफी है। दार्शनिक विषयों के अतिरिक्त उन्होंने योग पर भी लिखा और इस प्रकार चिन्तन के क्षेत्र में जैन परम्परा को एक नई दिशा प्रदान की। योग-शास्त्र पर वैदिक और बौद्ध साहित्य में जो कुछ लिखा गया उसका जैन दृष्टि से समन्वय हरिभद्र की विशेष देन है। हरिभद्र के पूर्व किसी भी आचार्य ने इस प्रकार का प्रयत्न नहीं किया था । योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, षोडशक आदि ग्रन्थों में यही प्रयत्न किया गया है । धर्मसंग्रहणी उनका प्राकृत का ग्रन्थ है। इसमें जैन दर्शन का अच्छा प्रतिपादन है। आगमों एवं तत्त्वार्थसूत्र पर उनकी टीकाएं महत्त्वपूर्ण हैं ही। विद्यानन्द : ___ आचार्य विद्यानन्द जैनदर्शन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी तार्किक कृतियाँ अद्वितीय हैं। अनेकान्तवाद को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अष्टसहस्री की जो Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन रचना की वह तो अद्भुत ही है। जैन-दर्शन के ग्रन्थों में इस प्रकार का ठोस एवं विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ शायद दूसरा नहीं है । समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर अकलंक की जो अष्टशती नाम की टीका थी उस पर उन्होंने अष्टसहस्री नामक टीका लिखी। इस प्रकार यह ग्रन्थ समन्तभद्र, अकलंक और विद्यानन्द तीनों की प्रतिभा से एक अद्वितीय कृति बन गई। विशेष कठिन होने के कारण विद्वानों में इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि कष्टसहस्री के नाम से है। विद्यानन्द की शैली है वादी और प्रतिवादी को लड़ा देना और स्वयं दोनों की दुर्बलता का लाभ उठाना । प्रमाणशास्त्र पर विद्यानन्द का स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रमाणपरीक्षा है। जैन-दर्शनप्रतिपादित प्रमाण और ज्ञान के स्वरूप का इसमें अच्छा समर्थन है । तत्त्वार्थसूत्र पर उन्होंने श्लोकवार्तिक नामक टीका लिखी जो शैली और सामग्री दोनों दृष्टियों से उत्तम है। इन ग्रन्थों के अलावा आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा आदि ग्रन्थ भी विद्यानन्द ने लिखे हैं । विद्यानन्द के समकालीन आचार्य अनन्तकीर्ति हुए हैं जिन्होंने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहत्सर्वज्ञसिद्धि और जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ बनाये हैं। शाकटायन और अनन्तवीर्य : - अन्य दार्शनिकों के साथ संघर्ष करते-करते कुछ आचार्य आन्तरिक संघर्ष में भी पड़ गये। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की कुछ विशिष्ट मान्यताओं को लेकर दोनों में संघर्ष होना प्रारम्भ हो गया। अमोघवर्ष के समकालीन शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामक स्वतन्त्र प्रकरणों की रचना की। आगे चलकर इन विषयों पर काफी . Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ८७ चर्चा होने लगी। श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं के पारस्परिक खण्डन-मण्डन ने अधिक जोर पकड़ लिया । अनन्तवीर्य ने अकलंक के सिद्धिविनिश्चय पर टीका लिख कर जैन-दर्शन की बड़ी सेवा की। सिद्धिविनिश्चय को समझने में यह टीका अति सहायक सिद्ध होती है। अकलंक के सूत्रवाक्यों को ठीक तरह से समझने के लिए अनन्तवीर्य का सिद्धिविनिश्चय-विवरण आवश्यक है। माणिक्यनन्दी, सिद्धषि और अभयदेव : दसवीं शताब्दी में माणिक्यनन्दी ने परीक्षामुख नामक एक न्यायग्रन्थ बनाया। यह ग्रन्थ जैन न्यायशास्त्र में प्रवेश करने के लिए बहुत उपयोगी है । इसकी शैली मूत्रात्मक होते हुए भी सरल है। यह ग्रन्थ बाद में लिखे जाने वाले जैन न्यायशास्त्र के कई ग्रन्थों के लिए आदर्श रहा । इसी समय पिद्धर्षि ने न्यायावतार पर संक्षिप्त और सरल टीका लिखी। अभयदेव ने सन्मतिटीका की रचना की । इसमें अनेकान्तवाद का पूर्ण विस्तार है। तत्कालीन सभी दार्शनिक वादों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है । यह तत्कालीन दार्शनिक ग्रन्थों का निचोड़ है । अनेकांतवाद की स्थापना के अतिरिक्त प्रमाण, प्रमेय आदि विषयों पर भी अच्छी चर्चा की गई है। प्रभाचन्द्र और वादिराज : प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ये दो ग्रन्थ प्रमाणशास्त्र के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड, माणिक्यनन्दीकृत परीक्षामुख पर एक बृहत्काय टीका है। प्रमाणशास्त्र से सम्बद्ध सभी विषयों पर प्रकाश डालकर प्रभाचन्द्र ने इस ग्रन्थ को उत्कृष्ट कोटि में रख दिया है। स्त्रीमुक्ति और केवलिकवलाहार Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का खण्डन करके दिगम्बर परम्परा की रक्षा का पूरा प्रयत्न किया है । शाकटायन और अभयदेव द्वारा दिये गये श्वेताम्बर पक्ष के हेतुओं का विस्तार से खण्डन किया है। न्यायकुमुदचन्द्र लघीयस्त्रय पर टीका-रूप में लिखा गया ग्रन्थ है । इसमें भी मुख्य रूप से प्रमाणशास्त्र की चर्चा है । इतना होते हुए भी इसमें प्रायः प्रत्येक दार्शनिक विषय पर पूरा प्रकाश डाला गया है । वास्तव में देखा जाय तो प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों की शैली प्रमाणशास्त्र के अनुरूप है किन्तु सामग्री की दृष्टि से उनमें प्रत्येक विषय का समावेश है। तत्वज्ञान, शब्दशास्त्र, जातिवाद आदि सभी विषयों पर प्रभाचन्द्र की कलम चली है। मूल सूत्रों और कारिकाओं का तो मात्र आधार है। जो कुछ उन्हें कहना था वह किसी न किसी बहाने कह डाला। प्रभाचन्द्र की एक विशेषता और है-वह है विकल्पों का जाल फैलाने की। किसी भी प्रश्न को लेकर दस-पन्द्रह विकल्प सामने रख देना तो उनके लिए सामान्य बात थी। उनका समय वि० सं० १०३७ से ११२२ तक का है। वादिराज प्रभाचन्द्र के समकालीन थे। इन्होंने अकलंककृत न्यायविनिश्चय पर विवरण लिखा है । ग्रन्थों के उद्धरण देना इनकी विशेषता है। प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से यह विवरण महत्त्वपूर्ण है । जगह-जगह अनेकान्तवाद की पुष्टि की गई है और वह भी पर्याप्त मात्रा में। जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ और अनन्तवीर्य : जिनेश्वर की रचना है न्यायावतार पर प्रमालक्ष्म नामक वार्तिक । इसमें इतर दर्शनों के प्रमाणभेद, लक्षण आदि का Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ८६ खण्डन किया गया है और न्यायावतार-सम्मत परोक्ष के दो भेद स्थिर किये गये हैं । वार्तिक के साथ उसकी स्वोपज्ञ व्याख्या भी है । इसका रचनाकाल वि० सं० १०६५ के आस-पास है । आचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने वि० सं० १९४६ के आस-पास प्रमेयरत्नकोष नामक एक संक्षिप्त ग्रन्थ लिखा । यह ग्रन्थ प्रारम्भिक अध्ययन करने वालों के लिए बहुत काम का है । इसी समय आचार्य अनन्तवीर्य ने परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला नामक एक संक्षिप्त और सरल टीका लिखी। यह टीका सामान्य स्तरवाले अध्येताओं के लिए विशेष उपयोगी है । इसमें प्रमेयकमलमार्तण्ड की तरह लम्बे-चौड़े विवादों को स्थान न देते हुए मूल समस्याओं का ही सौम्य भाषा में समाधान किया गया है । वादिदेवसूरि : प्रमाणशास्त्र पर परीक्षामुख के समान ही एक अन्य ग्रन्थ लिखने वाले वादिदेवसूरि हैं। परीक्षामुख का अनुकरण करते हुए भी उन्होंने अपने ग्रन्थ प्रमाणनयतत्त्वालोक में दो नये प्रकरण जोड़े जो परीक्षामुख में नहीं थे। एक प्रकरण तो नयवाद पर है जिसका माणिक्यचन्द्र ने अपने ग्रन्थ में समावेश नहीं किया। यह प्रकरण जैन न्यायशास्त्र की पूर्णता के लिए आवश्यक है । इस प्रकरण के अतिरिक्त प्रमाणनयतत्त्वालोक में एक प्रकरण वादविद्या पर भी है । इस दृष्टि से परीक्षामुख की अपेक्षा यह ग्रन्थ कहीं अधिक उपयोगी है। वादिदेवसूरि इतना ही करके सन्तुष्ट न हुए अपितु उन्होंने इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका भी लिखी । यह टीका स्याद्वादरत्नाकर के नाम से प्रसिद्ध है । इस बृहत्काय टीका में उन्होंने दार्शनिक समस्याओं का उस समय तक जितना Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन विकास हुआ, सबका समावेश किया। प्रभाचन्द्रकृत स्त्रीमुक्ति और केवलिकवलाहार की चर्चा का श्वेताम्बर दृष्टि से उत्तर देने से भी वे न चूके । इतना ही नहीं अपितु कहीं-कहीं तो उन्होंने अन्य दार्शनिकों के आक्षेपों का उत्तर बिलकुल नये ढंग से दिया । इस तरह वादिदेवसूरि अपने समय के एक श्रेष्ठ दार्शनिक थे, इसमें कोई संशय नहीं। इनका समय वि० सं० ११४३ से १२२६ तक है। हेमचन्द्र : ___ आचार्य हेमचन्द्र का जन्म वि० सं० ११४५ की कार्तिकी पूर्णिमा के दिन अहमदाबाद के समीप धन्धुका ग्राम में हुआ। इनका बाल्यकाल का नाम चंगदेव था। इनके पिता शैवधर्म के अनुयायी थे और माता जैनधर्म पालती थीं। आगे जाकर ये देवचन्द्रसुरि के शिष्य बने और इनका नाम सोमचन्द्र रखा गया। देवचन्द्रसूरि अपने शिष्य के गुणों पर बहुत प्रसन्न थे और साथ ही सोमचन्द्र की विद्वत्ता की धाक भी मानते थे। वि० सं० ११६६ की वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन सोमचन्द्र को नागौर में आचार्यपद प्रदान किया गया। सोमचन्द्र के शरीर की प्रभा और कान्ति सुवर्ण के समान थी अतः उनका नाम हेमचन्द्र रखा गया । यह उनके नाम का इतिहास है। ___ आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिभा बहुमुखी थी, यह उनकी कृतियों को देखने से स्पष्ट मालूम हो जाता है। कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण विषय न था जिस पर उन्होंने अपनी कलम न चलाई हो । व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य, चरित्र, न्याय आदि अनेक विषयों पर विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। प्रमाणशास्त्र पर आचार्य हेमचन्द्र का प्रमाणमीमांसा ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें पहले सूत्र हैं और फिर उन पर Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य स्वोपज्ञ व्याख्या है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सूत्र और व्याख्या दोनों को मिलाकर भी मध्यमकाय है। यह न तो परीक्षामुख और प्रमाणनयतत्त्वालोक जितना संक्षिप्त ही है और न प्रमेयकमलमार्तण्ड और स्याद्वादरत्नाकर जितना विशाल ही। इसमें न्यायशास्त्र के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का मध्यम प्रतिपादन है। इस ग्रन्थ को समझने के लिए न्यायशास्त्र की पूर्वभूमिका जानना अत्यन्त आवश्यक है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ पूर्ण उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र की अयोगव्यवच्छेदिका और अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक दो द्वात्रिंशिकाएं भी हैं। इनमें से अन्ययोगव्यवच्छेदिका पर मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी नामक टीका लिखी है जो शैली और सामग्री दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । हेमचन्द्र की मृत्यु वि० सं० १२२८ में हुई। अन्य दार्शनिक : __ बारहवीं शताब्दी में हुए शान्त्याचार्य ने न्यायावतार पर स्वोपज्ञ टीका-सहित वार्तिक लिखा। इसमें उन्होंने अकलंक द्वारा स्थापित प्रमाण के भेदों का खण्डन किया है और न्यायावतार की परम्परा को पुनः स्थापित किया है। स्याद्वादरत्नाकर को समझने में सरलता हो, इस दृष्टि से वादिदेवसूरि के ही शिष्य रत्नप्रभसूरि ने-जिन्होंने स्याद्वादरत्नाकर के लेखन में भी सहायता दी थी-अवतारिका बनाई। यह ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका नाम से प्रसिद्ध है । ग्रन्थ की भाषाविषयक आडम्बरता ने इसे स्याद्वादरत्नाकर से भी कठिन बना दिया। इतना होते हुए भी इस ग्रन्थ का इतना प्रभाव पड़ा कि स्याद्वादरत्नाकर का पठन-पाठन प्रायः बन्द-सा हो गया। सभी. लोग इसी से अपना काम निकालने लगे। इसका परिणाम यह Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन धर्म-दर्शन हुआ कि आज स्याद्वादरत्नाकर जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की एक मी सम्पूर्ण प्रति उपलब्ध नहीं है । आचार्य हेमचन्द्र के शिव्य रामचन्द्र और गुणचन्द्र ने मिलकर द्रव्यालंकार नामक दार्शनिक कृति का निर्माण किया । चन्द्रसेन ने वि० सं० १२०७ में उत्पादादिसिद्धि की रचना की । इस ग्रन्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप वस्तु का समर्थन किया गया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पर वि० सं० १३८९ में सोमतिलक ने एक टीका लिखी। दूसरी टीका गुणरत्न ने लिखी जो अधिक उपादेय बनी। यह टीका पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखी गई । इसी शताब्दी में मेरुतुंग ने षड्दर्शननिर्णय नामक ग्रन्थ लिखा । राजशेखर ने षड्दर्शनसमुच्चय, स्याद्वादकलिका, रत्नाकरावतारिकापंजिका आदि ग्रन्थ लिखे । उन्होंने प्रशस्तपादभाष्य की टीका कन्दली पर पंजिका भी लिखी । ज्ञानचन्द्र ने रत्नाकरावतारिकापंजिकाटिप्पण लिखा । भट्टारक धर्मभूषण ने म्यायदीपिका लिखी जो जैन न्यायशास्त्र का प्रारम्भिक ग्रन्थ है | साधुविजय ने सोलहवीं शताब्दी में वादविजय और हेतुखण्डन नामक दो ग्रन्थ लिखे । यशोविजय : तत्त्वचिन्तामणि नामक न्याय के ग्रन्थ से न्यायशास्त्र का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है । इसका श्रेय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मिथिला में पैदा होने वाले गंगेश नामक प्रतिभासम्पन्न नैयायिक को है । तत्त्वचिन्तामणि नवीन परिभाषा और नूतन शैली में लिखा गया एक अद्भुत ग्रन्थ है । इसका विषय न्यायसम्मत प्रत्यक्षादि चार प्रमाण हैं । इन चारों प्रमाणों की सिद्धि के लिए गंगेश ने जिस परिभाषा, तर्क और शैली का Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ६३ प्रयोग किया वह न्यायशास्त्र के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी क्रान्ति थी । न्याय के शुष्क और नीरस विषय में एक नये रस का संचार कर देना और उसे आकर्षण की वस्तु बना देना सामान्य बात नहीं थी । गंगेश ने जिस नूतन और सरस शैली को जन्म दिया वह शैली उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई । चिन्तामणि के टीकाकारों ने इस नवीन न्यायग्रन्थ पर उतनी ही महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखीं । न्यायशास्त्र प्राचीन और नवीन न्यायों में विभक्त हो गया । इस युग का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि सभी दार्शनिक अपने - अपने दर्शन को नवीन न्याय की भूमिका पर परिष्कृत करने लगे । इस शैली का अनुसरण करके जितने भी ग्रन्थ बने उनका दर्शन के इतिहास में बहुत महत्त्व है । प्रत्येक दर्शन के लिए यह आवश्यक हो गया कि यदि वह जीवित रहना चाहता है तो नवीन न्याय की शैली में अपने पक्ष की स्थापना करे । इतना होते हुए भी जैनदर्शन के आचार्यों का ध्यान इस ओर बहुत शीघ्र नहीं गया । सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक जैन-दर्शन प्राचीन परम्परा और शैली के चक्कर में ही पड़ा रहा। जहाँ अन्य दर्शन नवीन सजधज के साथ रंगमंच पर आ चुके थे, जैन दर्शन पर्दे के पीछे ही अंगड़ाइयाँ ले रहा था । यशोविजय ने अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जैन दर्शन को नया प्रकाश दिया । वि० सं० १६६९ में अहमदाबाद के जैनसंघ ने आचार्य नयविजय और यशोविजय को काशी भेजा । आचार्य नयविजय यशोविजय के गुरु थे इसलिए दोनों साथ आये । विद्या का पवित्र धाम काशी उस समय दर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्ध था । यहाँ आकर यशोविजय ने भारतीय दर्शन - शास्त्र का गम्भीर अध्ययन किमा । साथ-ही-साथ अन्य शास्त्रों का भी पाण्डित्य प्राप्त किया। इनके पाण्डित्य एवं प्रतिभा से प्रभावित हो इन्हें न्याय Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन विशारद की पदवी प्रदान की गई। __पांच सौ व की जैन-दर्शन की क्षति को यदि किसी ने पूरा किया तो वे यशोविजय ही थे। इन्होंने धड़ाधड़ जैन-दर्शन पर ग्रन्थ लिखने प्रारम्भ किये। अनेकान्तव्यवस्था नामक ग्रन्थ नव्यन्याय की शैली में लिखकर अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की। प्रमाणशास्त्र पर जैनतर्क भाषा और ज्ञानबिन्दु लिखकर जैन परम्परा का गौरव बढ़ाया। नय पर भी नयप्रदीप, नयरहस्य और नयोपदेश आदि ग्रन्थ लिखे । नयोपदेश पर तो नयामृततरंगिणी नामक स्वोपज्ञ टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त अप्टसहस्री पर विवरण लिखा तथा हरिभद्रकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय पर स्याद्वादकल्पलता नामक टीका लिखी। इस प्रकार अष्टसहस्री और शास्त्रवार्तासमुच्चय को नया रूप मिला । भाषारहस्य, प्रमाण रहस्य आदि अनेक ग्रन्यों के अलावा न्यायखण्डखाद्य और न्यायालोक लिखकर नवीन शैली में ही नैयायिकादि दार्शनिकों की मान्यताओं का खण्डन भी किया। दर्शन के अतिरिक्त योगशास्त्र, अलंकार, आचारशास्त्र आदि से सम्बन्ध रखने वाले ग्रन्थ भी लिखे । संस्कृत के अतिरिक्त प्राचीन गुजराती आदि भाषाओं में भी इन्होंने काफी लिखा है । इस तरह अकेले यशोविजय ने ही जैन साहित्य का बहुत बड़ा उपकार किया है। जैन-वाङमय का गौरव बढ़ाने में उन्होंने कुछ भी उठा न रखा । जैन-दर्शन की सम्मान-वृद्धि में उन्होंने पूर्ण योग दिया। यशोविजय के अतिरिक्त उस युग में यशस्वत्सागर ने सप्तपदार्थी, प्रमाण वादार्थ, वादार्थनिरूपण, स्याद्वादमुक्तावली आदि दार्शनिक ग्रन्थ लिखे। विमलदास ने सप्तभंगीतरंगिणी की रचना नव्य-न्याय की शैली में की। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार जैन परम्परा दर्शन के अन्तर्गत आती है या उसका समावेश धर्म के अन्दर होता है ? यह हम जानते हैं कि दर्शन नर्क और हेतुवाद पर अवलम्बित है, जबकि धर्म का आधार मुख्य रूप से श्रद्धा है। श्रद्धा और तर्क दोनों का आश्रय मानव है, तथापि इन दोनों में प्रकाश और अन्धकार जितना अन्तर है। श्रद्धा जिस बात को सर्वथा सत्य मानती है, तर्क उसी बात को फूंक से उड़ा देता है। श्रद्धा के लिए जो सर्वस्व है, तर्क की दृष्टि में उसी का सर्वथा अभाव हो सकता है । जो वस्तु श्रद्धा के लिए आकाश-कुसुमवत् होती है, हेतु उसी के पीछे अपनी पूरी शक्ति लगा देता है। ऐसी स्थिति में क्या यह संभव है कि एक ही परम्परा धर्म और दर्शन दोनों हो ? भारतीय विचारधारा तो यही बताती है कि दर्शन और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं। श्रद्धा और तर्क के सहानवस्थानरूप विरोध को भारतीय पर. म्परा आचार और विचार के विभाजन से शान्त करती है। प्रत्येक परम्परा दो दृष्टियों से अपना विकास करती है। एक ओर आचार की दिशा में उसकी गति या स्थिति का निर्माण होता है और दूसरी ओर बुद्धि एवं तर्क-शक्ति के संतोष के लिए विचार का विकास होता है। श्रद्धालु व्यक्तियों की सन्तुष्टि के लिए आचार-मार्ग सहायक होता है तथा चिन्तनशील व्यक्तियों की तृप्ति के लिए विचार-परम्परा का सहयोग मिलता है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन जैन धर्म और जैन दर्शन : ___ बौद्ध परम्परा में हीनयान और महायान के रूप में आचार और विचार की दो धाराएं मिलती हैं। हीनयान मुख्य रूप से आचारपक्ष पर भार देता है। महायान का विचारपक्ष पर अधिक भार है। बौद्ध दर्शन में प्राण डालने का कार्य यदि किसी ने किया है तो महायान परम्परा ने ही । शून्यवाद माध्यमिक तथा योगाचार विज्ञानाद्वैतवाद ने बौद्ध विचारधारा को इतना दृढ़ एवं पुष्ट बना दिया कि आज भी दर्शनजगत् उसका लोहा मानता है। पूर्वमीमांमा और उत्तरमीमांसा के नाम से वेदान्त में भी यही हुआ। कई विद्वानों का यह विश्वास है कि मीमांसा और वेदान्त एक ही मान्यता के दो बाजू हैं। एक बाजू पूर्वमीमांसा (प्रचलित नाम मीमांसा) है और दूसरा वाजू उत्तरमीमांसा (वेदान्त) है। पूर्वमीमांसा आचारपक्ष है एवं उत्तरमीमांसा विचारपक्ष है । मीमांसासूत्र और वेदान्तसूत्र एक ही ग्रन्थ के दो विभाग हैं-दो अध्याय हैं । आचारपक्ष की स्था. पना मीमांसासूत्र का विषय है, परन्तु वेदान्तसूत्र का प्रयोजन विचारपक्ष की सिद्धि है। सांख्य और योग भी विचार और आचार का प्रतिनिधित्व करते हैं। सांख्य का मुख्य प्रयोजन तत्त्वनिर्णय है। योग का मुख्य ध्येय चित्तवृत्ति का निरोध हैयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।' इसी प्रकार जैन परम्परा भी आचार और विचार के भेद से दो भागों में विभाजित की जा सकती है। यद्यपि इस प्रकार के दो भेदों का स्पष्ट उल्लेख इस परम्परा में नहीं मिलता तथापि यह निश्चित है कि आचार और विचाररूप दोनों धाराएं इसमें बराबर प्रवाहित होती रही हैं । आचार के नाम पर अहिंसा का जितना विकास जैन परम्परा १. पातंजल योगदर्शन, १. २. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार में हुआ है उतना भारतीय परम्परा की किसी अन्य धारा में शायद ही हुआ हो अथवा यों कहिए कि नहीं हुआ । यह जैन परम्परा के लिए गौरव का विषय है। विचार की दृष्टि से अनेकान्तवाद का जो समर्थन जैन दर्शन के साहित्य में मिलता है उसका शतांश भी अन्य दर्शनों में नहीं मिलता; यद्यपि प्रायः सभी दर्शन किसी न किसी रूप में अनेकान्तवाद का समर्थन करते हैं । अनेकान्तवाद के आधार पर फलित होने वाले अन्य अनेक विषयों पर जैनाचार्यों ने प्रतिभायुक्त ग्रन्थ लिखे हैं जिनका यथावसर परिचय दिया जा चुका है। इतना ही नहीं अपितु कई बातें जैन दर्शन में ऐसी भी हैं जो आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी यथार्थ हैं । यद्यपि वैज्ञानिक पद्धति से जैनाचार्य किसी प्रकार के आविष्कारात्मक प्रयोग न कर सके, किन्तु उनकी दृष्टि इतनी सूक्ष्म तथा अर्थग्राही थी कि उनकी अनेक बातें आज भी विज्ञान की कसौटी पर कमी जा सकती हैं | शब्द, अणु, अन्धकारादि विषयक अनेक ऐसी मान्यताएं हैं जो आज की वैज्ञानिक दृष्टि से विरुद्ध नहीं हैं । तात्पर्य यह है कि जैन परम्परा धर्म और दर्शन दोनों का मिला-जुला रूप है। दर्शन की कुछ मान्यताएं विज्ञान की दृष्टि से भी ठीक हैं | आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्तवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली जैन परम्परा धर्म और दर्शन दोनों को अपने अंक में छिपाये हुए है । अस्तु, धर्म की दृष्टि से वह जैन धर्म है; दर्शन की दृष्टि से वह जैन दर्शन है । भारतीय विचार प्रवाह को दो धाराएँ : भारतीय संस्कृति अनेक प्रकार के विचारों का विकास है। इस संस्कृति में न जाने कितनी धाराएं प्रवाहित होती रही हैं । अनेकता में एकता और एकता में अनेकता - यही हमारी Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन संस्कृति की प्राचीन परम्परा है। यहाँ पर अनेक प्रकार की विचारधाराएँ बहीं । प्राचीनता और नवीनता का संघर्ष बराबर होता रहा । इस संघर्ष में नवीनता पनपती रही, किन्तु प्राचीनता सर्वथा नष्ट न हो सकी। नवीनता और प्राचीनता दोनों का ही यथोचित सम्मान होता रहा। किसी समय प्राचीनता को विशेष सम्मान मिला तो कभी नवीनता का विशेष आदर हुआ । विविधताओं के वैसे तो अनेक रूप रहे हैं, किन्तु ये सारी विविधताएँ दो रूपों में बाँटी जा सकती हैं : एक वैदिक परम्परा और दूसरी अवैदिक परम्परा । ये दोनों परम्पराएं क्रमशः ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा के नाम से प्रसिद्ध हैं । ब्राह्मण परम्परा अधिक प्राचीन है या श्रमण परम्परा ? इस प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर देना जरा कठिन है । ब्राह्मण परम्परा का प्राचीनतम उपलब्ध आधार वैदिक साहित्य है । वेदों से अधिक प्राचीन साहित्य दुनिया के किसी भी भाग में उपलब्ध नहीं है । दुनिया की कोई भी दूसरी संस्कृति इतने प्राचीन साहित्य का दावा नहीं कर सकती। यह एक ऐतिहासिक सत्य है । इसी सत्य के आधार पर ब्राह्मण संस्कृति का यह दावा है कि वह दुनिया की प्राचीनतम संस्कृति है । दूसरी ओर श्रमण संस्कृति के उपासक यह दावा करते हैं। कि श्रमण संस्कृति किसी भी दृष्टि से वैदिक संस्कृति से कम प्राचीन नहीं है । औपनिषदिक साहित्य, जो कि वेदों (संहितामंत्रभाग) के बाद का साहित्य है, श्रमण परम्परा से पूर्णरूप से प्रभावित है। वैदिक मान्यताओं का उपनिषद् के तत्त्वज्ञान से बहुत विरोध है । जो आचार और विचार वेदों में उपलब्ध होते हैं उनसे भिन्न आचार-विचार उपनिषदों में मिलते हैं । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार εE यह ठीक है कि उपनिषद् ब्राह्मण परम्परा द्वारा मान्य हैं, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे श्रमण परम्परा के प्रभाव से सर्वथा अछूते हैं । वास्तव में उपनिषदों का निर्माण करने वाले ऋषियों ने वैदिक मान्यताओं के प्रति एक प्रकार का छिपा विद्रोह किया और उस विद्रोह के पीछे श्रमण परम्परा का मुख्य हाथ था । ब्राह्मण परम्परा का यह दावा कि वह भारत की या विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति है. ठीक नहीं है । उसी प्रकार श्रमण परम्परा की यह धारणा कि उसी के प्रभाव से उपनिषदों के ऋषियों की दृष्टि में अकस्मात् परिवर्तन हुआ, मिथ्या है। ये दोनों धारणाएँ इसलिए मिथ्या हैं कि इनका आधार मात्र ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। कुछ सहस्र वर्षों के उपलब्ध साहित्य को देखकर केवल उसी पर से किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँच जाना सबसे बड़ी ऐतिहासिक भन है। कौन धारा प्राचीन है, इसका जब हम निर्णय करते हैं तो उनका अर्थ होता है-कौन सबसे प्राचीन है । जहाँ पर सबसे प्राचीनता का प्रश्न आता है वहाँ पर ऐतिहासिक दृष्टि कभी सफल नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं अधूरी है। जब तक वह अपने आपको पूर्ण न बनाये, उसका निर्णय हमेशा अधरा रहेगा - सापेक्ष रहेगा सीमित रहेगा | अपनी मर्यादा का उल्लंघन किये बिना उसका जो निर्णय होगा वह सत्य हो सकता है । इतिहास का आधार बाह्य सामग्री है । जितनी सामग्री उपलब्ध होगी उतने ही परिमाण में उसका निर्णय सत्य या असत्य होगा। वर्तमान समय का इतिहास इस बात का दावा नहीं कर सकता कि उसकी सामग्री पूर्ण है । सत्य यह है कि अपने-आप में दोनों विचारधाराएं अनादि हैं। न तो ब्राह्मण परम्परा अधिक प्राचीन है और न श्रमण Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन धर्म दर्शन परम्परा। दोनों सदैव साथ-साथ चली हैं और माथ-साथ चलती रहेंगी। ये दोनों परम्पराएं ऐतिहासिक परम्पराएं नहीं हैं, अपितु मानव-जीवन की दो धाराएँ हैं। इन दोनों धाराओं का आधार दो सम्प्रदायविशेष नहीं हैं, अपितु सम्पूर्ण मानवजाति है। मानव स्वयं इन दो धाराओं का स्रोत है। दूसरे शब्दों में, ये दोनों धाराएं मनोवैज्ञानिक सत्य पर अवलम्बित हैं । मानव का स्वाभाविक प्रवाह ही ऐसा है कि वह इन दोनों धाराओं में प्रवाहित होता है। कभी वह एक धारा को अधिक महत्त्व देता है तो कभी दूसरी को। सत्तारूप से दोनों धाराएं उसमें हमेशा मौजूद रहती हैं। जब तक कि वह मानवता के स्तर पर रहता है, उससे सर्वथा ऊपर नहीं उठ जाता अथवा नीचे नहीं गिर जाता, तब तक वह इन दोनों धाराओं में प्रवाहित होता ही रहता है। ब्राह्मण संस्कृति या वैदिक संस्कृति दोनों धाराओं में से एक की प्रतीक है। श्रमण संस्कृति या संतसंस्कृति दूसरी धारा पर भार देती है। एक समय ऐसा आता है जब पहली धारा का मानव-समाज पर अधिक प्रभाव रहता है। दूसरा समय ऐसा होता है जब दुमरी धारा विशेष प्रभावशाली होती है। यह परम्परा न कभी प्रारम्भ हुई है और न कभी समाप्त होगी। यह प्रवाह अनादि है, अनन्त है। दोनों धाराएं इस प्रवाह में रही हैं, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी। उन पर न काल का विशेष प्रभाव है, न विकास का ही कोई खास असर है । काल और विकास उन्हीं के दो रूप हैं। ब्राह्मण संस्कृति : ब्राह्मण और श्रमण परम्पराओं में उतना ही अन्तर है जितना भोग और त्याग, हिंसा और अहिंसा, शोषण और पोषण, अन्धकार और प्रकाश में अन्तर है। एक धारा मानव Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार जीवन के बाह्य स्वार्थ का पोषण करती है तो दूसरी धारा मनुष्य के आत्मिक विकास को बल प्रदान करती है । एक का आधार वैषम्य है तो दूसरी का आधार साम्य है। इस प्रकार ब्राह्मण और श्रमण परम्परा का वैषम्य एवं साम्यमूलक इतना अधिक विरोध है कि महाभाष्यकार पतंजलि ने अहि-नकुल एवं गो-व्याघ्र जैसे शाश्वत विरोध वाले उदाहरणों में ब्राह्मण-श्रमण को भी स्थान दिया। जिस प्रकार अहि और नकुल, गौ और व्याघ्र में जन्मजात विरोध है, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण और श्रमण में स्वाभाविक विरोध है।' आचार्य हेमचन्द्र भी अपने ग्रन्थ में इसी बात का समर्थन करते हैं। इन उदाहरणों को उपस्थित करने का अर्थ यह नहीं कि ब्राह्मण और श्रमण समाज में एक साथ नहीं रह सकते। इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि जीवन के ये दो पक्ष एक-दूसरे के विरोधी हैं । जीवन की ये दो वृत्तियाँ विरोधी आचार और विचार को प्रकट करती हैं । ये दोनों धाराएँ मानव-जीवन के भीतर रही हुई दो भिन्न स्वभाववाली वृत्तियों की प्रतीक मात्र हैं। ब्राह्मण परम्परा का उपलब्ध मान्य साहित्य वेद है । वेद से हमारा अभिप्राय उस भाग से है जो संहिता-मंत्रप्रधान है। यह परम्परा मूल में 'ब्रह्मन्' के आसपास शुरू और विकसित हुई है, ऐसा प्रतीत होता है । 'ब्रह्मन्' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ पर हम केवल दो अर्थो को समझने का प्रयत्न करेंगे। पहला स्तुति या प्रार्थना और दूसरा यज्ञयागादि कर्म । वैदिक मन्त्रों और सूक्तों की सहायता से जो नाना प्रकार की प्रार्थनाएं एवं स्तुतियाँ की जाती हैं उसे 'ब्रह्मन्' कहते हैं । वैदिक मन्त्रों द्वारा १. महाभाष्य, २. ४. ६. २. सिद्धहेम, ३. १. १४१. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन धर्म-दर्शन होने वाला यज्ञयागादि कर्म भी 'ब्रह्मन्' कहलाता है । उन मन्त्रों एवं सूत्रों का पाठ करने वाला एवं यज्ञयागादि कर्म कराने वाला पुरोहित 'ब्राह्मण' कहलाता है। इस परम्परा के लिए 'शर्मन्' शब्द का प्रयोग भी होता है । यह '' धातु से बनता है, जिसका अर्थ होता है-हिंसा करना । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि 'शर्मन्' का अर्थ हिंसा करने वाला तो ठीक है, किन्तु किसकी हिंसा ? इस प्रश्न का उत्तर- ' शृणाति अशुभम्' अर्थात् जो अशुभ की हिंसा करे वह 'शर्मन्' इस व्युत्पत्ति से मिलता है । जहाँ तक अशुभ की हिंसा का प्रश्न है वहाँ तक तो ठीक है, किन्तु अशुभ क्या है, इस प्रश्न का जहाँ तक सम्बन्ध है, वैदिक परम्परा में मनुष्य के बाह्य स्वार्थ में बाधक प्रत्येक चीज अशुभ हो जाती है। याज्ञिक हिंसा का समर्थन इसी आधार पर हुआ है । " मा हिंस्यात् सर्वभूतानि” कह कर "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" का नारा लगाने का आधार मनुष्य का भौतिक स्वार्थ ही है । यज्ञ का अर्थ उत्सर्ग या त्याग है, यह ठीक है, किन्तु किसका उत्सर्ग ? यहाँ पर फिर वैदिक परम्परा वही आदर्श सामने रखती है। त्याग और उत्सर्ग के नाम पर दूसरे प्राणियों को सामने रख देती है और भोग और आनन्द के नाम पर मनुष्य स्वयं सामने आ धमकता है । अपने सुख के लिए दूसरे की आहुति देना, यही इस परम्परा का आदर्श है । श्रमण संस्कृति : यह धारा मानव के उन गुणों का प्रतिनिधित्व करती है जो उसके वैयक्तिक स्वार्थ से भिन्न हैं । दूसरे शब्दों में, श्रमण परम्परा साम्य पर प्रतिष्ठित है । यह साम्य मुख्यरूप से तीन बातों में Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वfवचार १०३ देखा जा सकता है : १. समाजविषयक, २. साध्यविषयक, ३. प्राणिजगत् के प्रति दृष्टिविषयक । समाज विषयक साम्य का अर्थ है - समाज में किसी एक वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व न मानकर गुणकृत एवं कर्मकृत श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व मानना | श्रमण संस्कृति समाज रचना एवं धर्म-विषयक अधिकार की दृष्टि से जन्मसिद्ध वर्ण और लिंगभेद को महत्त्व न देकर व्यक्ति द्वारा समाचरित कर्म और गुण के आधार पर ही समाज-रचना करती है । उसकी दृष्टि में जन्म का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि पुरुषार्थ और गुण का । मानव समाज का सही आधार व्यक्ति का प्रयत्न एवं कर्म है, न कि जन्मसिद्ध तथाकथित श्रेष्ठत्व | केवल जन्म से कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं होता । हीनता और श्रेष्ठता का वास्तविक आधार स्वकृत कर्म है । साध्य-विषयक साम्य का अर्थ है - अभ्युदय का एक सरीखा रूप । श्रमण संस्कृति का साध्य-विषयक आदर्श वह अवस्था है जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं रहता । वह एक ऐसा आदर्श है जहाँ ऐहिक एवं पारलौकिक सभी स्वार्थी का अन्त हो जाता है । वहाँ न इस लोक के स्वार्थ सताते हैं, न परलोक का प्रलोभन व्याकुलता उत्पन्न करता है । वह ऐसी साम्यावस्था है जहाँ कोई किसी से कम योग्य नहीं रहने पाता । वह अवस्था योग्यता और अयोग्यता, अधिकता और न्यूनता, हीनता और श्रेष्ठता - सभी से परे है । प्राणि-जगत् के प्रति दृष्टिविषयक साम्य का अर्थ है - जीव जगत् के प्रति पूर्ण साम्य । ऐसी समता कि जिसमें न केवल मानव १. जैनधर्म का प्रारण, पृ० १. २. भगवतीसूत्र, ६.६.३८३. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૪ जैन धर्म-दर्शन समाज या पशु-पक्षीसमाज ही समाविष्ट हो, अपितु वनस्पति जैसे अत्यन्त सूक्ष्म जीवसमूह का भी समावेश हो । यह दृष्टि विश्वप्रेम की अद्भुत दृष्टि है । विश्व का प्रत्येक प्राणी, चाहे वह मानव हो या पशु, पक्षी हो या कीट, वनस्पति हो या अन्य क्षुद्र जीव, आत्मवत् है । किसी भी प्राणी का वध करना अथवा उसे कष्ट पहुँचाना आत्मपीड़ा के समान है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भूमिका पर प्रतिष्ठित यह साम्यदृष्टि श्रमण परम्परा का प्राण है । सामान्य जीवन को ही अपना चरम लक्ष्य मानने वाला साधारण व्यक्ति इस भूमिका पर नहीं पहुँच सकता । यह भूमिका स्व और पर के अभेद की पृष्ठभूमि है । यही पृष्ठभूमि श्रमण-संस्कृति का सर्वस्व है । श्रमण परम्परा की अनेक शाखाएं रही हैं और आज भी मौजूद हैं। जैन, बौद्ध, आजीविक आदि विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं । जैन और बौद्ध परम्पराएं तो स्पष्टरूप से श्रमण संस्कृति की शाखाएं हैं । आजीविक आदि भी इसी परम्परा की शाखाएं हैं, किन्तु दुर्भाग्य से आज उनका मौलिक साहित्य उपलब्ध नहीं है । यही कारण है कि निश्चितरूप से इनके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसा होते हुए भी इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि ये परम्पराएं भी वैदिक परम्परा की विरोधी रही हैं । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराएं वेदों को प्रमाण नहीं मानतीं । वे यह भी नहीं मानतीं कि वेद का कर्ता ईश्वर है अथवा वेद अपौरुषेय है । ब्राह्मण वर्ग का जाति की दृष्टि से या पुरोहित के नाते गुरुपद भी स्वीकार नहीं करतीं । उनके अपने-अपने ग्रन्थ हैं, जो निर्दोष आप्त व्यक्ति की रचनाएं हैं। उनके लिए वे ही ग्रंथ प्रमाणभूत हैं । जाति की अपेक्षा व्यक्ति की पूजा दोनों को मान्य है और व्यक्ति-पूजा का आधार है गुण और कर्म । दोनों । 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १०५ परम्पराओं के साधक और त्यागी वर्ग के लिए श्रमण, भिक्षु, अनगार, यति, साधु, परिव्राजक, अर्हत्, जिन आदि शब्दों का प्रयोग होता रहा है। एक 'निर्ग्रन्थ' शब्द ऐसा है जिसका प्रयोग जैन परम्परा के साधकों के लिए ही हुआ है । यह शब्द जैन ग्रन्थों में 'निग्गंथ' और बौद्ध ग्रन्थों में 'निगंठ' के नाम से मिलता है । इसीलिए जैनशास्त्र को 'निर्ग्रन्थ- प्रवचन' भी कहागया है । यह 'निग्गंथ-पावयण' का संस्कृत रूप है । 'श्रमण' शब्द का अर्थ : श्रमण के लिए प्राकृत साहित्य में 'समण' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन-सूत्रों में जगह-जगह 'समण' शब्द आता है, जिसका अर्थ होता है साधु । उक्त 'समण' शब्द के तीन रूप हो सकते है : श्रमण, समन और शमन । श्रमण शब्द 'श्रम्' धातु से बनता है । 'श्रम्' का अर्थ होता है - परिश्रम करना । तपस्या का दूसरा नाम परिश्रम भी है ।" जो व्यक्ति अपने ही श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करते हैं वे श्रमण कहलाते हैं । समन का अर्थ होता है समानता । जो व्यक्ति प्राणी मात्र के प्रति समभाव रखता है, विषमता से हमेशा दूर रहता है, जिसका जीवन विश्व - प्रेम और विश्वबन्धुत्व का प्रतीक होता है, जिसके लिए स्व-पर का भेद-भाव नहीं होता, जो प्रत्येक प्रांणी से उसी भाँति प्रेम करता है जिस प्रकार खुद से प्रेम करता है, उसे किसी के प्रति द्वेष नहीं होता और न किसी के प्रति उसे राग ही होता है । वह राग और द्वेष की तुच्छ भावना से ऊपर उठकर सबको एक दृष्टि से देखता है। उसका विश्वप्रेम घृणा और आसक्ति की छात्रा से सर्वथा अछूता रहता है । वह सबसे प्रेम करता है किन्तु उसका प्रेम राग की कोटि में १. श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः - दशवेकालिकवृत्ति, १.३. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन नहीं आता । वह प्रेम एक विलक्षण प्रकार का प्रेम होता है, जो राग और द्वेष दोनों की सीमा से परे होता है। राग और द्वष साथ-साथ चलते हैं, किन्तु प्रेम अकेला ही चलता है। शमन का अर्थ है-शान्त करना । जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को शान्त करने का प्रयत्न करता है, अपनी वासनाओं का दमन करने की कोशिश करता है और अपने इस प्रयत्न में बहुत-कुछ सफल होता है वह श्रमण-संकृति का सच्चा अनुयायी है। हमारी ऐसी वृत्तियाँ जो उत्थान के स्थान पर पतन करती हैं, शान्ति के बजाय अशान्ति उत्पन्न करती हैं, उत्कर्ष की जगह अपकर्ष लाती हैं वे जीवन को कभी सफल नहीं होने देतीं। ऐसी अकुशल वृत्तियों को शान्त करने से ही सच्चे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है । इस प्रकार की कुवृत्तियों को शान्त करने से ही आध्यात्मिक विकास हो सकता है। श्रमग-संस्कृति के मूल में श्रम, सम और शम-ये तीनों तत्त्व विद्यमान हैं। मैन परम्परा का महत्व : श्रमण-संस्कृति की अनेक धाराओं में जैन परम्परा का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह हम देख चुके हैं कि श्रमणसंस्कृति की दो मुख्य धाराएं आज भी जीवित हैं। उनमें से बौद्ध परम्परा का भारतीय जीवन से विशेष सम्बन्ध नहीं रह गया है । यद्यपि र सका थोड़ा-बहुत प्रभाव किसी रूप में आज भी मौजूद है और आगे भी रहेगा, किन्तु भारतीय जीवन के निर्माण और परिवर्तन में जैन परम्परा का जो हाथ अतीत में रहा है, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, वह कुछ विलक्षण है। यद्यपि आज की प्रचलित जैन विचारधारा भारत के बाहर अपना प्रभाव न जमा सकी, किन्तु भारतीय विचारधारा और Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १०७ आचार को बदलने में इसने जो महत्त्वपूर्ण काम किया है वह इस देश के जन-जीवन के इतिहास में बहुत समय तक अमर रहेगा। जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा दोनों एक हैं। श्रमण परम्परा दोनों में प्रवाहित होने वाली एक सामान्य परम्परा है। श्रमण परम्परा की दृष्टि से दोनों एक हैं, किन्तु परस्पर की अपेक्षा से दोनों भिन्न हैं । बुद्ध और महावीर दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। बुद्ध की परम्परा आज बौद्ध-धर्म के नाम से प्रसिद्ध है और महावीर की परम्परा जैन-धर्म के नाम से। यह बात हम भारतीयों के लिए विवाद से परे है । हमलोग इन दोनों परम्पराओं को भिन्न परम्पराओं के रूप में देखते आये हैं । इसके विरुद्ध कुछ विदेशी विद्वान् यहाँ तक लिखने लग गये थे कि बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति हैं, क्योंकि जैन और बौद्ध परम्परा की मान्यताओं में बहुत समानता है। प्रो० लासेन आदि की इस मान्यता का खंडन करते हुए प्रो० वेबर ने यह खोज की कि जैनधर्म बौद्धधर्म की एक शाखा-मात्र है। प्रो० याकोबी ने इन दोनों मान्यताओं का खण्डन करते हुए यह सिद्ध किया कि जैन और बौद्ध दोनों सम्प्रदाय स्वतन्त्र हैं। इतना ही नहीं अपितु जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय से प्राचीन है । ज्ञातृपुत्र महावीर तो उस संप्रदाय के अन्तिम तीर्थकर मात्र हैं । इस प्रकार जैन परम्परा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करने में अब किसी को आपत्ति बात हम भान परम्पराओकलने लग गये थे कि | Sacred Books of the East, Vol. XXII, Intro duction, pp. 18-19. ww Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन धर्म-दर्शन नहीं रही है। इतना ही नहीं अपितु ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर तो यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि बौद्ध परम्परा पर जैन परम्परा का पूरा प्रभाव है। कुछ भी हो, जैन परम्परा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, यह निर्विवाद सत्य है इस परम्परा का भारतीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभाव है । आचार और विचार दोनों पर इसकी अमिट छाप है। अब हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैन परम्परा के आचार और विचार की भित्ति क्या है । जैन परम्परा द्वारा मान्य आचार और विचार के मौलिक सिद्धान्त क्या हैं। किन सिद्धान्तों पर जैनाचार और जैन विचार खड़े हैं। जैनाचार की मूलभित्ति अहिंसा है । अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन परम्परा में मिलता है उतना शायद ही किसी अन्य परम्परा में हो । प्रत्येक आत्मा, चाहे वह पृथ्वी-सम्बन्धी हो, चाहे वह जलगत हो, चाहे उसका आश्रय कीट अथवा पतंग हो, चाहे वह पशु और पक्षी में रहती हो, चाहे उसका निवासस्थान मानव हो, तात्त्विक दृष्टि से उसमें कोई भेद नहीं है। जैनदृष्टि का यह साम्यवाद भारतीय संस्कृति के लिए गौरव की चीज है। इसी साम्यवाद के आधार पर जैन परम्परा यह घोषणा करती है कि सभी जीव जीना चाहते हैं । कोई वास्तव में मरने की इच्छा नहीं करता। इसलिए हमारा यह कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी का वध करना न सोचें।' शरीर से किसी की हत्या कर देना तो पाप है ही, किन्तु मन से तद्विषयक संकल्प करना, यह भी पाप है। मन, वचन और काय से किसी जीव को सन्ताप न पहुंचाना, उसका वध न करना, उसे पीड़ा न पहुँचाना-यही पहुंचाना वचन और कायाकल्प करना, यह १. आचारांग, १. १. ६. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गह का माना और यथाशक्ति जो भार तत्त्वविचार १०१ सच्ची अहिंसा है।' वनस्पति से लेकर मानव तक की अहिंसा की यह कहानी जैन परम्परा की विशिष्ट देन है। विचारों में एक आत्मा-एक ब्रह्म का आदर्श अन्यत्र भी मिल सकता है किन्तु आचार पर जितना भार जैन परम्परा ने दिया है उतना अन्यत्र नहीं मिल सकता। आचार-विषयक अहिंसा का यह उत्कर्ष जैन परम्परा की अपनी देन है, जो आज भी अधिकांश भारतीय जनता के जीवन में विद्यमान है। जैन परम्परा के अनुयायी तो इससे पूरे-पूरे प्रभावित हैं ही, इसमें कोई संशय नहीं। ____ अहिंसा को केन्द्र मानकर अमृषावाद, अस्तेय, अमैथुन और अपरिग्रह का आदर्श सामने रखा गया। यथाशक्ति जीवन को स्वावलम्बी, सादा और सरल बनाने के लिए ही श्रमण परम्परा ने इन सब बातों को अधिक महत्त्व दिया । असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण और संयम का परिपालन अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए आवश्यक हैं। साथ ही साथ अपरिग्रह का जो आदर्श है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । परिग्रह के साथ आत्मविकास की घोर शत्रुता है । जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ आत्मविकास नहीं रह सकता। परिग्रह मनुष्य के आत्म-पतन का बहुत बड़ा कारण है । दूसरे शब्दों में, परिग्रह पाप:का बहुत बड़ा संग्रह है। जितना अधिक परिग्रह बढ़ता जाता है उतना ही अधिक पाप बढ़ता जाता है । मानव-समाज में वैषम्य उत्पन्न करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व परिग्रहबुद्धि पर है। परिग्रह का दूसरा नाम ग्रन्थि भी है। जितनी अधिक गाँठ बाँधी जाती है उतना ही अधिक परिग्रह बढ़ता है । किसी की गाँठ मन तक ही सीमित रहती है तो कोई बाह्य वस्तुओं की गाँठे बाँधता है। यह गाँठ जब तक नहीं खुलती । इन सब बाजार सरल बनाने महान का पालअपरिग्रह आत्म १. आचारांग, १. ४. १. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन तब तक विकास का द्वार बन्द रहता है। महावीर ने ग्रन्थिभेदन पर बहुत अधिक भार दिया है। इसलिए उनका नाम निर्ग्रन्थ पड़ गया और उनकी परम्परा भी निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। जैन परम्परा को छोड़ अन्य किसी परम्परा को यह नाम नहीं दिया गया। अपरिग्रह का मार्ग विश्वशान्ति का प्रशस्त मार्ग है। इस मार्ग का उल्लंघन करनेवाला संसार को स्थायी शान्ति नहीं दे सकता । वह स्वयं पतनोन्मुख होता है, साथ ही साथ अन्य प्राणियों को भी अपदस्थ करता है-नीचे गिराता है । स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपरिग्रह अत्यन्त आवश्यक है। ... आचार की इस भूमिका पर कर्मवाद का जन्म होता है। कर्मवाद का अर्थ है कार्य-कारणवाद । प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है और प्रत्येक कारण किसी न किसी कार्य को उत्पन्न करता है। यह कारण और कार्य का पारस्परिक सम्बन्ध ही जगत् की विविधता और विचित्रता की भूमिका है। हमारा कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता। हमें किसी भी प्रकार का फल बिना कर्म के नहीं मिलता। कर्म और फल का यह अविच्छेद्य सम्बन्ध ही आचारशास्त्र को नींव है । यह एक अलग प्रश्न है कि व्यक्ति के कर्मों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और समाज के कर्म व्यक्ति के जीवन-निर्माण में कितने अंश में उत्तरदायी हैं ? इतना निश्चित है कि विना कर्म के किसी प्रकार का फल नहीं मिल सकता। बिना कारण के कोई कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता। कर्मवाद का अर्थ यही है कि वर्तमान का निर्माण भून के आधार पर होता है और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर। व्यक्ति अपनी मर्यादा के अनुसार वर्तमान और भविष्य को परिवर्तित कर सकता है, किन्तु यह परिवर्तन भी कर्मवाद का ही अंग Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार १११ है। जैन परम्परा नियतिवाद' में विश्वास न करके इच्छास्वातन्त्र्य' को महत्व देती है किन्तु एक सीमा तक । प्राणी की रागद्वेषात्मक भावनाओं को जैन दर्शन में भावकर्म कहा गया है । उक्त भावकर्म के द्वारा आकृष्ट सूक्ष्म भौतिक परमाणु द्रव्यकर्म है। इस प्रकार जैन दर्शन का कर्मवाद चैतन्य और जड़ के सम्मिश्रण द्वारा अनादिकालीन परम्परा से विधिवत् अग्रसर होती हुई एक प्रकार की द्वन्द्वात्मक आन्तरिक क्रिया है। इस क्रिया के आधार पर ही पुनर्जन्म का विचार किया जाता है । इस क्रिया की समाप्ति ही मोक्ष है। जैनदर्शन-प्रतिपादित चौदह गुणस्थान इसी क्रिया का क्रमिक विकास है, जो अन्त में आत्मा के असली रूप में परिणत हो जाता है । आत्मा का अपने स्वरूप में वास करना, यही जैन दर्शन का परमेश्वरपद है । प्रत्येक आत्मा के भीतर यह पद प्रतिष्ठित है। आवश्यकता है उसे पहचानने की। 'जे अप्पा से परमप्पा' अर्थात् 'जो आत्मा है वही परमात्मा है'-जैन परम्परा की यह घोषणा साम्यदृष्टि का अन्तिम स्वरूप है, समभाव का अन्तिम विकास है, समानता का अन्तिम दावा है । विचार में साम्यदृष्टि की भावना पर जो जोर दिया गया है उसी में से अनेकान्तदृष्टि का जन्म हुआ है। अनेकान्तदृष्टि तत्त्व को चारों ओर से देखती है। तत्त्व का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अनेक प्रकार से जाना जा सकता है । वस्तु के अनेक धर्म होते हैं। किसी समय किसी की दृष्टि किसी एक धर्म पर भार देती है तो किसी समय दूसरे की दृष्टि किसी दूसरे धर्म पर जोर देती है। तत्त्व की दृष्टि से उस वस्तु में सभी धर्म 1. Pre-determinism. 2. Freedom of Will. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन धर्म-दर्शन हैं । इसीलिए वस्तु को अनेक धर्मात्मक कहा गया है। अपेक्षाभेद से दृष्टिभेद का प्रतिपादन करना और उस दृष्टिभेद को वस्तुधर्म का एक अंश समझना, यही अनेकान्तवाद है । अपेक्षाभेद को दृष्टि में रखते हुए अनन्त-धर्मात्मक तत्त्व का प्रतिपादन 'स्याद्' शब्द द्वारा हो सकता है, अतः अनेकान्तवाद का नाम स्याद्वाद भी है । स्याद्वाद का यह सिद्धान्त जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी मिलता है। मीमांसा, सांख्य और न्यायदर्शन में यत्र-तत्र अनेकान्तवाद बिखरा हुआ मिलता है । बुद्ध का विभज्यवाद स्याद्वाद का ही निषेधात्मक रूपान्तर है। इतना होते हुए भी किसी दर्शन ने स्याद्वाद को सिद्धान्तरूप से स्वीकृत नहीं किया। अपने पक्ष की सिद्धि के लिए उन्हें यत्र-तत्र स्याहाद का आश्रय अवश्य लेना पड़ा; परन्तु उन्होंने जानबूझ कर उसे अपनाया हो. ऐसी बात नहीं है। जैन परम्परा ने जैसे अहिंसा पर अधिक भार दिया है वैसे ही अनेकान्तवाद पर भी अत्यधिक भार दिया है । दूसरे शब्दों में अनेकान्तवाद जैन दर्शन का प्राण है। जैन परम्परा का प्रत्येक आचार और विचार अनेकान्तदृष्टि से प्रभावित है। जैन विचारधारा का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिस पर अनेकान्त-दृष्टि की छाप न हो। जैन दार्शनिकों ने इस विषय पर एक नहीं, अनेकों ग्रन्थ लिखे हैं । अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर ही नयवाद का विकास हुआ है। स्याद्वाद और नयवाद जैन परम्परा की अमूल्य सम्पत्ति है । जैन दार्शनिक साहित्य का मुख्य आधार अनेकान्तदृष्टि की भूमि में उत्पन्न होकर बढ़ने वाले स्याद्वाद और नयवाद हैं। आगमिक साहित्य से लेकर आज तक का साहित्य स्याद्वाद और नयवाद के मौलिक सिद्धान्तों से भरा हुआ है। जैन विद्वानों का यह दृष्टिकोण विश्व की दार्शनिक परम्परा में अद्वितीय है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार जैन दृष्टि से लोक : विश्व के सभी दर्शन किसी न किसी रूप में लोक का स्वरूप समझने का प्रयत्न करते हैं । दार्शनिक खोज के पीछे प्रायः एक ही हेतु होता है और वह हेतु है सम्पूर्ण लोक । कोई भी दार्शनिक धारा क्यों न हो, वह विश्व का स्वरूप समझने के लिए ही निरन्तर बढ़ती रहती है। यह ठीक है कि कोई धारा किसी एक पहलू पर अधिक भार देती है और कोई किसी दूसरे पहलू पर । पहलुओं के भेद के रहते हुए भी सबका विषय लोक ही होता है । सारे पहलू लोक के भीतर ही होते हैं। दूसरे शब्दों में, विभिन्न पहलू व समस्याएं लोक की ही समस्याएं होती हैं। जिसे हमलोग लोकोत्तर समझते हैं वह भी वास्तव में लोक ही है । लोक को समझने के दृष्टिकोण जितने विभिन्न होते हैं उतनी ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराएं संसार में उत्पन्न होती रहती हैं। जैन दर्शन में लोक का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है : गौतम-भगवन् ! लोक क्या है ? महावीर-गौतम ! लोक पंचास्तिकायरूप है। पंचास्तिकाय ये हैं : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय ।' ___ भगवतीसूत्र का उपर्युक्त संवाद यह बताता है कि पांच अस्तिकाय ही लोक है। यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि महावीर ने लोक के स्वरूप में काल की गणना क्यों नहीं की? जैन दर्शन के अन्य कई ग्रन्थों में काल का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत किया गया है, ऐसी दशा में महावीर ने लोक का स्वरूप १. भगवतीसूत्र, १३. ४. ४८१. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन धर्म-दर्शन बताते समय काल को पृथक् क्यों नहीं गिनाया ? स्वयं भगवती - सूत्र में ही अन्यत्र काल की स्वतन्त्र रूप से गणना की गई है, ' तो फिर उपर्युक्त संवाद में काल को स्वतन्त्र रूप से क्यों नहीं गिनाया ? इसका समाधान यही हो सकता है कि यहाँ पर काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य दोनों के अन्तर्गत मान लिया गया है। जीव और अजीव - चेतन और अचेतन दोनों का स्वरूप वर्णन परिवर्तन के बिना अपूर्ण है । परिवर्तन का दूसरा नाम वर्तना भी है । वर्तना प्रत्येक द्रव्य का आवश्यक एवं अनिवार्य गुण है । वर्तना के अभाव में द्रव्य एकान्तरूप से नित्य हो जायगा । एकान्त नित्य पदार्थ अर्थक्रिया नहीं कर सकता । अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में पदार्थ असत् है । ऐसी स्थिति में वर्तना - परिणाम - क्रिया - परिवर्तन द्रव्य का आवश्यक धर्म है । प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से ही परिवर्तनशील है, अतः काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं। दूसरी बात यह मालूम होती है कि भगवतीसूत्र के उपर्युक्त संवाद में अस्तिकाय की दृष्टि से लोक का विचार किया गया है । जहाँ पर काल की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई है वहाँ पर उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है । इसलिए. महावीर ने पंचास्तिकाय में काल की पृथक् गणना नहीं की । काल-विषयक प्रश्न के ये दो समाधान हो सकते हैं । जहाँ पर काल की पृथक् गणना की गई है वहाँ पर छः द्रव्य गिनाये गए हैं । इन द्रव्यों का स्वरूप समझने से पहले हम तत्त्व का अर्थ समझ लें तो अच्छा रहेगा । तत्त्व का सामान्य अर्थ समझ लेने पर तत्त्व के भेदरूप द्रव्यों का स्वरूप समझना ठीक होगा । १. वही, २५. २, २५. ४. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार ११५ जैनाचार्य सत्, तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ, तत्त्वार्थ आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में करते रहे हैं। जैन दर्शन में तत्त्वसामान्य के लिए इन सभी शब्दों का प्रयोग हुआ है। अन्य दर्शनों में इन शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ हो, ऐसा नहीं मिलता । वैशेषिकसूत्र में द्रव्यादि छः को पदार्थ कहा है, किन्तु अर्थसंज्ञा द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थों की ही रखी गई है। सत्ता के समवाय सम्बन्ध से द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों को ही सत् कहा गया है। न्यायसूत्र में आनेवाले प्रमाणादि सोलह तत्त्वों के लिए भाष्यकार ने सत् शब्द का प्रयोग किया है। सांख्य प्रकृति और पुरुष इन दो को ही तत्त्व मानता है। ____ इस पृष्ठभूमि को समझ लेने के बाद हम तत्त्व के स्वरूप की ओर बढ़ते हैं । यह हम जानते हैं कि जैन दर्शन तत्त्व और सत् को एकार्थक मानता है। द्रव्य और सत् में भी कोई भेद नहीं है, यह बात उमास्वाति के 'सत् द्रव्यलक्षणम्' इस सूत्र से सिद्ध होती है। सर्वार्थसिद्धि और श्लोकवार्तिक में यह सूत्र स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध होता है किन्तु राजवार्तिक में यह बात उत्थान में ही कही गई है । तत्त्वार्थभाष्य में उपर्युक्त सूत्र भावरूप से लिखा गया है। कुछ भी हो, उमास्वाति सत् और द्रव्य को एकार्थक मानते थे। द्रव्य का क्या लक्षण है ? इसके उत्तर में उमास्वाति ने कहा कि द्रव्य का लक्षण सत् है। जो सत् है वही द्रव्य है। जो १. वैशेषिकसूत्र, १. १. ४. २. वही, ८. २. ३. ३. वही, १. १.८. ४, तत्त्वार्थसूत्र, ५. २६. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन धर्म-दर्शन द्रव्य है वह अवश्य सत् है । सत् और द्रव्य का यह सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध है । दूसरे शब्दों में, सत् और द्रव्य एक है। तत्त्व को चाहे सत् कहिए चाहे द्रव्य कहिए । सत्ता सामान्य की दृष्टि से सब सत् है । जो कुछ है वह सत् अवश्य है, क्योंकि जो सत् नहीं है वह है कैसे ? अथवा जो असत् है वह भी असत् रूप से सत् है, अन्यथा वह असत् नहीं होगा, क्योंकि यदि असत् सत् न होकर असत् है तो वह सत् हो जाएगा। दूसरे शब्दों में, सत् ही असत् हो सकता है, क्योंकि असत् सत् का निषेध है। सर्वथा असत् की कल्पना हो ही नहीं सकती। जिसकी कल्पना नहीं हो सकती उसका असत् रूप से ज्ञान कैसे हो सकता है ? जिसका ज्ञान नहीं हो सकता वह सत् है या असत् यह निर्णय भी नहीं किया जा सकता । इसलिए जो कुछ है वह सत् है । जो सत् है वही अन्य रूप से असत् हो सकता है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हुए यह कहा गया है कि सब एक है, क्योंकि सब सत् है।' इसी बात को दीर्घतमा ऋषि ने 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'२ सत् तो एक है किन्तु विद्वान उसका कई प्रकार से वर्णन करते हैं ऐसे कहा है । स्थानांग सूत्र में इसी सिद्धान्त को दूसरी तरह से समझाया गया है। वहाँ पर ‘एक आत्मा' और 'एक लोक' की बात कही गई है। जैन दर्शन की यह मान्यता अद्वैत आदर्शवाद के अत्यन्त समीप पहुंच जाती है । अन्तर इतना ही है कि अद्वैतवाद भेद की पारमार्थिक सत्ता स्वीकार नहीं करता, जब कि जैन दर्शन भेद को भी उसी प्रकार यथार्थ और सत् मानता है जिस प्रकार कि अभेद को। हेगल एवं ब्रेडले के १. सर्वमेकं सदविशेषात्-तत्त्वार्थ भाष्य, १. ३५. २. ऋग्वेद, १. १६४. ४६. ३. स्थानांग, :१.:१..४. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार ११७ मादर्शवाद और जैन दर्शन की इस मान्यता में और अधिक समानता है क्योंकि वे भेद को मिथ्या नहीं कहते । आध्यात्मिकता और भौतिकता का भेद वहां पर भी भेद की दीवार खड़ी कर ही देता है । तथापि जैनदृष्टि और हेगल एवं ब्रेडले की दृष्टि में काफी समानता है। जनदृष्टि से जीव और अजीव दोनों समान रूप से सत् हैं। न जीव अजीव हो सकता है और न अजीव जीव बन सकता हैं। दोनों सत् हैं, किन्तु दोनों भिन्न स्वभाव वाले होकर ही सत् हैं। सत्ता उनका स्वभाव-भेद दूर नहीं कर सकती, क्योंकि स्वभाव-भेद सत् है-यर्थार्थ है-पारमार्थिक है। तत्त्व जड़ और चेतन उभयरूप से सत् है । जड़ और चेतन को छोड़कर सत्ता नहीं रह सकती। सम् का स्वरूप : सत् के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा है कि सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है।' आगे जाकर इसी बात को 'गुण और पर्यायवाला द्रव्य है। इस प्रकार कहा है। उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय आया और ध्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन के सूचक हैं। ध्रौव्य नित्यता की सूचना देता है। गुण नित्यता-वाचक है और पर्याय परिवर्तन-सूचक । किसी भी वस्तु के दो रूप होते हैंएकता और अनेकता, नित्यता और अनित्यता, स्थायित्व और अस्थायित्व, सदृशता और विसदृशता। इनमें से प्रथम पक्ष ध्रौव्यसूचक है-गुणसूचक है। द्वितीय पक्ष उत्पाद और व्ययसूचक है-पर्यायसूचक है। वस्तु के स्थायित्व में एकरूपता १. तत्त्वार्थसूत्र, ५. २६. २. वहीं, ५. ३७. ona Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन धर्म-दर्शन होती है, स्थिरता होती है । अस्थायित्व (परिवर्तन) में पूर्व रूप का विनाश होता है, उत्तर रूप की उत्पत्ति होती है । वस्तु के विनाश और उत्पाद में व्यय और उत्पत्ति के रहते हुए भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती और न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होती है । विनाश और उत्पाद के बीच एक प्रकार की स्थिरता रहती है जो न तो नष्ट होती है और न उत्पन्न। यह जो स्थिरता या एकरूपता है वही ध्रौव्य है-नित्यता है। इसी को 'तद्भावाव्यय' कहते हैं। यही नित्य का लक्षण है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की व्याख्या इस प्रकार की है-जो अपरित्यक्त स्वभाववाला है, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है, गुण और पर्याययुक्त है वही द्रव्य है । द्रव्य और सत् एक ही है, इसलिए यही लक्षण सत् का भी है। तत्त्वार्थसूत्र के 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्यायवद्रव्यम्' और 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' इन तीनों सूत्रों को एक ही गाथा में बाँध दिया। सत्ता का लक्षण बताते हुए अन्यत्र भी उन्होंने यही बात लिखी है। इस प्रकार जैन दर्शन में सत् एकान्तरूप से नित्य या अनित्य नहीं माना गया है। वह कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है। गुण अथवा अन्वय की अपेक्षा से वह नित्य है और पर्याय की दृष्टि से वह अनित्य है। कूटस्थ नित्य होने पर उसमें तनिक भी परिवर्तन नहीं हो सकता और सर्वथा अनित्य होने पर उसमें १. तत्त्वार्थसूत्र, ५.३०. २. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादब्वयधुवक्तसंजुत्तं । गुणवं च सपज्जायं, जं तं दव्वं ति बुच्चंति ॥ -प्रवचनसार, २. ३. ३. सत्ता सव्वपयत्था, सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगुप्पादधु वत्ता, सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥ -पंचास्तिकायसार, गा० ८. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ तत्त्वविचार थोड़ी-सी भी एकरूपता नहीं रह सकती। ऐसी दशा में वस्तु नित्य और अनित्य उभयात्मक होनी चाहिए। जैनदर्शन-सम्मत यह लक्षण अनुभव से अव्यभिचारी है। __ जैन दर्शन सदसत्कार्यवादी है, अतः वह उत्पाद की व्याख्या इस प्रकार करता है-स्वजाति का परित्याग किये बिना भावान्तर का ग्रहण करना उत्पाद है। मिट्टी का पिण्ड घटपर्याय में परिणत होता हुआ भी मिट्टी ही रहता है। मिट्टीरूप जाति का परित्याग किये बिना घटरूप भावान्तर का जो ग्रहण है वही उत्पाद है। इसी प्रकार व्यय का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि स्वजाति का परित्याग किये बिना पूर्वभाव का जो विगम है वह व्यय है। घट की उत्पत्ति में पिण्ड की आकृति का विगम व्यय का उदाहरण है। पिण्ड जब घट बनता है तब उसकी पूर्वाकृति का व्यय हो जाता है । इस व्यय में मिट्टी वही बनी रहती है, केवल आकृति का नाश होता है। अर्थात् मिट्टी की पर्याय परिवर्तित हो जाती है, मिट्टी वही रहती है। अनादि पारिणामिक स्वभाव के कारण वस्तु का सर्वथा नाश न होना ध्रुवत्व है। उदाहरण के लिए पिण्डादि अवस्थाओं में मिट्टी का जो अन्वय है वह ध्रौव्य है। इन तीनों दशाओं के जो उदाहरण दिये गये हैं वे केवल समझने के लिए हैं। मिट्टी हमेशा मिट्टी ही रहे, यह आवश्यक नहीं। जैन दर्शन पृथ्वी आदि परमाणुओं को नित्य नहीं मानता है। परमाणु एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था को ग्रहण कर सकता है । जड़ और चेतन का जो विभाग है, जीव का भव्य और अभव्यसम्बन्धी जो विभाग है वह नित्य कहा जा सकता है। १. सर्वार्थसिद्धि, ५. ३०. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन धर्म-दर्शन सत् और द्रव्य को एकार्थक मानने की परम्परा पर दार्शनिक दृष्टि का प्रभाव मालूम होता है। जैन आगमों में सत् शब्द का प्रयोग द्रव्य के लक्षण के रूप में नहीं हुआ है । वहाँ द्रव्य को ही तत्त्व कहा गया है और सत् के स्वरूप का सारा वर्णन द्रव्य-वर्णन के रूप में रखा गया है । अनुयोगद्वार सूत्र में तत्त्व का सामान्य लक्षण द्रव्य माना गया है और विशेष लक्षण के रूप में जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य माने गये हैं ।" वाचक उमास्वाति ने आगमिक मान्यता को दर्शन के स्तर पर लाकर द्रव्य को सत् कहा । उनकी दृष्टि में सत् और द्रव्य में कोई भेद न था । आगम की मान्यता के अनुसार भी सत् और द्रव्य में कोई भेद नहीं है । किन्तु इस सिद्धान्त का आगमकाल में सुस्पष्ट प्रतिपादन न हो सका । उमास्वाति ने दार्शनिक पुट देकर इसे स्पष्ट किया । 'सत्' शब्द का अर्थ वाचक उमास्वाति ने अन्य परम्पराओं से भिन्न रखा है । न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक परम्पराएं सत्ता को कूटस्थ नित्य मानती हैं। इन परम्पराओं के अनुसार सत्ता सर्वदा एकरूप रहती है । उसमें तनिक भी परिवर्तन की सम्भावना नहीं रहती । जो परिवर्तित होती है वह सत्ता नहीं हो सकती । दूसरे शब्दों में, नैयायिक और वैशेषिक सत्ता को सामान्य नामक एक भिन्न पदार्थ मानते हैं जो सर्वदा एकरूप रहता है, कूटस्थ नित्य है, अपरिवर्तनशील है । इसके विपरीत वाचक उमास्वाति ने सत् को केवल नित्य ही नहीं माना अपितु परिवर्तनशील भी माना है । उत्पाद, व्यय और धौव्य तीनों का अविरोधी समन्वय ही सत का लक्षण है । उत्पाद और व्यय अनित्यता के सूचक हैं तथा धौव्य नित्यता का सूचक है । नित्यता का लक्षण कूटस्थ १. अविसे सिएदव्वे, विसेसिए जीवदव्वे अजीवदव्वे य-सू० १२३. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १२१ नित्य न होकर तद्द्भावाव्यय है । तद्भावाव्यय का क्या अर्थ है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि जो अपने भाव को न तो वर्तमान में छोड़ता है और न भविष्य में छोड़ेगा वह नित्य है और वही तद्भावाव्यय है ।" उत्पाद और व्यय के बीच में जो हमेशा रहता है वह तद्भावाव्यय है । सत्ता नामक कोई भिन्न पदार्थ नहीं है जो हमेशा एक-सा रहता है । वस्तु स्वयं ही त्रयात्मक है । तत्त्व स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त है । पदार्थ स्वतः सत् है । सत्ता सामान्य के सम्बन्ध से सत् मानने में अनेक दोषों का सामना करना पड़ता है । जो सत है वही पदार्थ है क्योंकि जो सत् न हो और फिर भी पदार्थ हो, यह परस्पर विरोधी बात है । जो सर्वथा असत् है वह सत्ता के सम्बन्ध से भी सत् नहीं हो सकता, जैसे गगनारविन्द | सत् और असत् से भिन्न कोई ऐसी कोटि नहीं जिसमें पदार्थ रखा जा सके | इसलिए द्रव्य न स्वतः सत् है न स्वतः असत् है किन्तु सत्ता के सम्बन्ध से सत् है, यह कहना ठीक नहीं । द्रव्य सत् होकर ही द्रव्य हो सकता है। जो सत् न हो वह द्रव्य नहीं हो सकता । सत्ता नामक कोई ऐसा पदार्थ उपलब्ध नहीं होता जिसके सम्बन्ध से द्रव्य सत् होता हो । कदाचित् ऐसा पदार्थ मान भी लिया जाय फिर भी समस्या हल नहीं हो सकती, क्योंकि उस पदार्थ का खुद का अस्तित्व खतरे में है । वह स्वतः सत् है या नहीं ? यदि वह स्वतः सत् है तो यह सिद्धान्त कि 'पदार्थ सत्ता के सम्बन्ध से ही सत् होता है' खण्डित हो जाता है । यदि वह स्वतः सत् नहीं है और उसकी सत्ता के लिए किसी अन्य सत्ता की आवश्यकता रहती है तो अनवस्था दोष का २. यत् सतो भावान्न व्येति न व्येष्यति तन्नित्यम् । - तत्त्वार्थभाष्य, ५.३०. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन धर्म-दर्शन सामना करना पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति में यही अच्छा है कि प्रत्येक पदार्थ को स्वभाव से ही सत् माना जाय और सत् और पदार्थ में कोई भेद न माना जाय । द्रव्य और पर्याय : द्रव्य शब्द के अनेक अर्थ होते हैं उनमें से सत्, तत्त्व अथवा पदार्थ परक अर्थ पर हम विचार कर चुके हैं। जैन साहित्य में द्रव्य शब्द का प्रयोग सामान्य के लिए भी हुआ है । जाति अथवा सामान्य को प्रकट करने के लिए द्रव्य और व्यक्ति अथवा विशेष को प्रकट करने के लिए पर्याय शब्द का प्रयोग किया जाता है । द्रव्य अथवा सामान्य दो प्रकार का है - तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य । एक ही काल में स्थित अनेक देशों में रहने वाले अनेक पदार्थों में जो समानता की अनुभूति होती है वह तिर्यक सामान्य है । जब हम कहते हैं कि जीव और अजीव दोनों सत् हैं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य हैं, तब हमारा अभिप्राय तिर्यक् सामान्य से है । जब हम कहते हैं कि जीव दो प्रकार का है - संसारी और सिद्ध । संसारी जीव के पाँच भेद हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियआदि । पुद्गल चार प्रकार का हैस्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु । इसी प्रकार अन्य प्रकार के सामान्यमूलक भेदों में तिर्यक सामान्य अभीप्सित है । एक जाति का जहाँ निर्देश होता है, अनेक व्यक्तियों में एक सामान्य जहाँ विवक्षित होता है वहाँ तिर्यक् सामान्य समझना चाहिए । जब कालकृत नाना अवस्थाओं में किसी विशेष द्रव्य का एकत्व या अन्वय विवक्षित हो, एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की एक एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, तब उस Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १२३ एकत्व अथवा ध्रौव्यसूचक अंश को ऊर्ध्वता सामान्य कहा जाता है। उदाहरण के लिए जब यह कहा जाता है कि जीव द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत है' और पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत है तब जीवद्रव्य का अर्थ ऊर्ध्वता सामान्य से है। जब यह कहते हैं कि अव्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से नारक शाश्वत है। तव अव्युच्छित्ति नय का विषय जीव ऊर्ध्वता सामान्य से विवक्षित है। इस प्रकार जहाँ किसी जीव-विशेष या अन्य पदार्थ-विशेष की अनेक अवस्थाओं का वर्णन किया जोता है वहाँ एकत्व अथवा अन्वयसूचक पद ऊर्ध्वता सामान्य की दृष्टि से प्रयुक्त होता है। जिस प्रकार द्रव्य या सामान्य दो प्रकार का है उसी प्रकार पर्याय अथवा विशेष भी दो प्रकार का है। तिर्यक सामान्य के साथ रहने वाले जो विशेष विवक्षित हों वे तिर्यक विशेष हैं और ऊर्ध्वता सामान्याश्रित जो पर्यायें हों वे ऊर्ध्वता विशेष हैं। अनेक देशों में जो भिन्न-भिन्न द्रव्य या पदार्थ-विशेष हैं वे तिर्यक् सामान्य की पर्यायें हैं। वे तिर्यक् विशेष हैं। अनेक कालों में एक ही द्रव्य की अर्थात् ऊर्ध्वता सामान्य की जो विभिन्न अवस्थाएं हैं-जो अनेक विशेष अथवा पर्यायें हैं वे ऊर्ध्वता विशेष हैं। जीवपर्याय कितने हैं ? इसके उत्तर में महावीर ने कहा कि जीवपर्याय अनन्त हैं। यह कैसे ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा कि असंख्यात नारक हैं, असंख्यात असुरकुमार हैं, यावत् असंख्यात स्तनितकुमार हैं, असंख्यात पृथ्वीकाय हैं, यावत् असंख्यात वायुकाय हैं, अनन्त वनस्पति हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं, यावत् असंख्यात १. भगवतीसूत्र, ७. २. २७३. २. वही, ७. ३. २७६. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन धर्म-दर्शन मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर हैं, यावत् अनन्त सिद्ध हैं। यही कारण है कि जीवपर्याय अनन्त हैं।' इस चर्चा में जो पर्याय विवक्षित हैं वे तिर्यक् विशेष की अपेक्षा से हैं क्योंकि ये पर्याय अनेक देशों में रहने वाले विभिन्न जीवों से सम्बन्धित हैं । इनमें सभी जीवों का समावेश हो जाता है, अतः अनेक जीवाश्रित पर्याय होने से तिर्यक् विशेष हैं। ऊर्ध्वता विशेष की दृष्टि से सोचने पर विशेष का आधार दूसरा हो जाता है। यदि हम कहें कि प्रत्येक जीव के अनन्त पर्याय हैं और किसी जीव-विशेष के विषय में सोचें तो हमारा दृष्टिकोण ऊर्ध्वता विशेष को विषय करता है। उदाहरण के तौर पर एक नारक जीव को लेते हैं। उसके अनन्त पर्याय होते हैं । जीव-सामान्य के अनन्त पर्यायों का कथन तिर्यक् सामान्याश्रित पर्याय की दृष्टि से है, किन्तु विशेष नारकादि के अनन्त पर्यायों का कथन ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्याय की दृष्टि से है। एक नारक-विशेष के अनन्त पर्याय कैसे हो सकते हैं, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है : एक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है। प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है । अवगाहना की अपेक्षा से स्यात् चतुःस्थान से हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् चतुःस्थान से अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से अवगाहना के समान है किन्तु श्यामवर्णपर्याय की अपेक्षा से स्यात् षट्स्थान हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् षट्स्थान अधिक है। इसी प्रकार शेष वर्णपर्याय, दोनों गन्धपर्याय, पाँचों रसपर्याय, आठों स्पर्शपर्याय, मतिज्ञान और मत्यज्ञानपर्याय, श्रुतज्ञान और श्रुताज्ञानपर्याय, अवधिज्ञान और १. भगवतीसूत्र, २५. ५. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार १२५ विभंगज्ञानपर्याय, चक्षुर्दर्शनपर्याय, अचक्षुर्दर्शनपर्याय, अवधिदर्शनपर्याय-इन सभी पर्यायों की अपेक्षा से स्यात् षट्स्थानपतित हीन है, स्यात् तुल्य है, स्यात् षट्स्थानपतित अधिक है। इसीलिए नारक के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं।' द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक नारक समान है। आत्मा के प्रदेश भी सबके असंख्यात हैं। शरीर की दृष्टि से एक नारक का शरीर दूसरे नारक के शरीर से छोटा भी हो सकता है, समान भी हो सकता है और बड़ा भी हो सकता है, शरीर की असमानता असंख्यात प्रकार की हो सकती है। सर्वजघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर होगी। क्रमश: एक-एक भाग की वृद्धि से सर्वोत्कृष्ट ५०० धनुष-प्रमाण तक पहुंचती है। इसके बीच के प्रकार असंख्यात होंगे। अतः अवगाहना की अपेक्षा से नारक के असंख्यात प्रकार हो सकते हैं। यही बात आयु के विषय में भी कही जा सकती है । यह तो सामान्य बात हुई । एक नारक के जो अनन्त पर्याय कहे गये हैं, वे कैसे ? शरीर और आत्मा को कथंचित् अभिन्न मानकर वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श को भी नारक के पर्याय मानकर सोचा जाय तो नारक के अनन्त पर्याय हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि किसी भी गुण के अनन्त भेद माने गये हैं। यदि हम किसी एक वर्ण को लें और कोई भाग एकगुण श्याम हो, कोई द्विगुण श्याम हो, कोई त्रिगुण श्याम हो और इस प्रकार उसका अनन्तवाँ भाग अनन्तगुण श्याम हो तो वर्ण के अनन्त पर्याय सिद्ध हो सकते हैं। अन्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के विषय में भी यही बात घटाई जा सकती है । यह तो भौतिक अथवा पौद्गलिक गुणों की बात हुई। ज्ञानादि आत्मगुणों के विषय में भी यही बात कही १. प्रज्ञापना, ५. २४८. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६. जैन धर्म-दर्शन जा सकती है । आत्मा के ज्ञानादि गुण की तरतमता की मात्राओं का विचार करने से अनन्तप्रकारता की सिद्धि हो सकती है। ये सारे भेद एक नारक में कालभेद से घट सकते हैं। ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्याय कालभेद के आधार से ही होते हैं । एक जीव कालभेद से अनेक पर्यायों को धारण करता है । ये पर्याय ऊर्ध्वता सामान्याश्रित विशेष हैं। यही ऊर्ध्वता विशेष का लक्षण है। द्रव्य के ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्यायों को परिणाम भी कहा जाता है। भगवतीसूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में इस प्रकार के परिणामों का वर्णन है। विशेष और परिणाम दोनों द्रव्य के पर्याय है, क्योंकि दोनों परिवर्तनशील हैं। परिणाम में काल-भेद की प्रधानता रहती है जब कि विशेष में देश-भेद मुख्य होता है। जो काल की दृष्टि से परिणाम हैं वे ही देश की दृष्टि से विशेष हैं। इस प्रकार पर्याय, विशेष, परिणाम, उत्पाद और व्यय प्रायः एकार्थक हैं। द्रव्य-विशेष की विविध अवस्थाओं में इन सभी शब्दों का समावेश हो जाता है । द्रव्य और पर्याय का स्वरूप समझ लेने के बाद यह जानना भी आवश्यक है कि द्रव्य और पर्याय का सम्बन्ध क्या है ? द्रव्य और पर्याय भिन्न हैं या अभिन्न ? इस प्रश्न को सामने रखते हुए महावीर ने जो विचार हमारे सामने रखे उन पर एक सामान्य दृष्टि डालना ठीक होगा। भगवतीसूत्र में पार्श्वनाथ के शिष्यों और महावीर के शिष्यों में हुए एक विवाद का वर्णन है । पार्श्वनाथ के शिष्य यह कहते हैं कि उनके प्रतिपक्षी सामायिक का अर्थ नहीं जानते । महावीर के शिष्य उन्हें समझाते हैं-आत्मा ही सामायिक है । आत्मा ही सामायिक का Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ तत्त्वविचार अर्थ है।' यहाँ पर आत्मा एक द्रव्य है और सामायिक आत्मा की अवस्था-विशेष है अर्थात् पर्याय है । सामायिक आत्मा से भिन्न नहीं है अर्थात् पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं है । यह द्रव्य और पर्याय की अभेददृष्टि है। इस दृष्टि का समर्थन आपेक्षिक है। किसी अपेक्षा से आत्मा और सामायिक दोनों एक हैं, क्योंकि सामायिक आत्मा की ही एक अवस्था है-आत्मपर्याय है, अतः सामायिक आत्मा से अभिन्न है। अन्यत्र द्रव्य और पर्याय के भेद का भी समर्थन किया गया है। 'अस्थिर पर्याय का नाश होने पर भी द्रव्य स्थिर रहता है। इस वाक्य से स्पष्ट भेददृष्टि झलकती है। यदि द्रव्य और पर्याय का सर्वथा अभेद होता तो पर्याय के नष्ट होते ही द्रव्य भी नष्ट हो जाता । इसका अर्थ यह है कि पर्याय ही द्रव्य नहीं है । द्रव्य और पर्याय कथंचित् भिन्न भी हैं। द्रव्य की पर्यायें बदलती रहती हैं किन्तु द्रव्य अपने आप में नहीं बदलता। द्रव्य का गुण कभी नष्ट नहीं होता, भले ही उसकी अवस्थाएं मिटती रहें और पैदा होती रहें। पर्यायदष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन किया जा सकता है और द्रव्यदृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के अभेद की पुष्टि की जा सकती है। दृष्टि-भेद से द्रव्य और पर्याय के भेद और अभेद की कल्पना करना ही महावीर को अभीष्ट था। इस प्रकार आत्मा और ज्ञान के विषय में भी महावीर ने वही बात कही है। ज्ञान आत्मा का एक परिणाम है। वह १. आया णे अज्जो ! सामाइए आया णे अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठे । -~-भगवतीसूत्र, १६.७६. २. से नूणं भंते अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ- वही. ३.. आचारांग, १. ५. ५. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन धर्म-दर्शन सदैव बदलता रहता है । ज्ञान की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है किन्तु आत्मद्रव्य तो वही रहता है। ऐसी अवस्था में ज्ञान और आत्मा भिन्न हैं । ज्ञान की आत्मा से भिन्न स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वह आत्मा की ही एक अवस्था-विशेष है । इस दृष्टि से ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं। यदि आत्मा और ज्ञान में एकान्त अभेद होता तो ज्ञान के नाश के साथ-ही-साथ आत्मा का भी नाश हो जाता। ऐसी अवस्था में एक शाश्वत आत्मद्रव्य की उपलब्धि न होती। यदि ज्ञान और आत्मा में एकान्त भेद होता तो एक व्यक्ति के ज्ञान और दूसरे व्यक्ति के ज्ञान में कोई अन्तर न होता। एक व्यक्ति के ज्ञान की स्मृति दूसरे व्यक्ति को हो जादी अथवा उस व्यक्ति के ज्ञान का स्मरण उसे खुद को भी न हो पाता । ऐसी अवस्था में ज्ञान के क्षेत्र में अराजकता और अव्यवस्था हो जाती। इसलिए ज्ञान और आत्मा का कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानना ही उचित है। द्रव्य-दृष्टि से ज्ञान और आत्मा का अभेद मानना चाहिए और पर्याय-दृष्टि से दोनों का भेद मानना चाहिए। ___ आत्मा के आठ भेदों की बात भगवतीसूत्र में कही गई है। गौतम महावीर से पूछते हैं-हे भगवन् ! आत्मा के कितने प्रकार हैं ? महावीर उत्तर देते हैं. हे गौतम ! आत्मा आठ प्रकार का कहा गया है। वे आठ प्रकार ये हैं-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रामा और वीर्यात्मा ।' ये भेद द्रव्य और पर्याय दोनों दृष्टियों से हैं। १. कहविहा णं भंते आया पण्णत्ता? गोयमा! अट्ठविहा आया पण्णत्ता। तं जहा-दवियाया, कसायाया, जोगाया, उवओगाया, णाणाया, दंसणाया, चरित्ताया, वीरियाया। -भगवतीसूत्र, १२. १०.४६६. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १२६ द्रव्यात्मा द्रव्यदृष्टि से और शेष सात पर्यायदृष्टि से हैं । इस प्रकार की अनेक चर्चाएं जैन दार्शनिक साहित्य में मिलती हैं जिनसे द्रव्य और पर्याय के सम्बन्ध का पता लगता है । द्रव्य और पर्याय एक-दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की स्थिति असम्भव है। जिस प्रकार द्रव्यरहित पर्याय की उपलब्धि नहीं हो सकती उसी प्रकार पर्यायरहित द्रव्य की उपलब्धि भी असम्भव है। जहाँ पर्याय होगा वहाँ द्रव्य अवश्य होगा और जहाँ द्रव्य होगा वहाँ उसका कोई न कोई पर्याय अवश्य होगा। भेदाभेदवाद : दर्शन के क्षेत्र में भेद और अभेद को लेकर मुख्य रूप से चार पक्ष बन सकते हैं । एक पक्ष केवल भेद का समर्थन करता है, दूसरा पक्ष केवल अभेद को स्वीकार करता है, तीसरा पक्ष भेद और अभेद दोनों को मानता है, चौथा पक्ष भेद-विशिष्ट अभेद का समर्थन करता है। भैदवादी किसी भी पदार्थ में अन्वय नहीं मानता। वह प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न तत्त्व और भिन्न-भिन्न ज्ञान की सत्ता में विश्वास करता है। उसकी दृष्टि में भेद को छोड़कर किसी भी प्रकार का तत्त्व निर्दोष नहीं होता । जहाँ भेद होता है वहीं वास्तविकता रहती है। भारतीय दर्शन में वैभाषिक और सौत्रान्तिक इस पक्ष के प्रबल समर्थक हैं । वे क्षण-भंगवाद को ही अंतिम सत्य मानते हैं। प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है । प्रत्येक क्षण में पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। कोई भी वस्तु चिरस्थायी नहीं है । जहाँ स्थायित्व नहीं वहाँ अभेद कैसे हो सकता है ? ज्ञान और पदार्थ दोनों क्षणिक हैं । जिसे हम आत्मा कहते हैं वह पंचस्कन्ध के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। विज्ञान, वेदना, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन धर्म-दर्शन संज्ञा, संस्कार और रूप इन पांचों स्कन्धों का समुदाय ही आत्मा है।' जिसे हम बाह्यपदार्थ कहते हैं वह क्षणिक परमाणुपुज के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह समुदायवाद बौद्ध दर्शन में संघातवाद के नाम से प्रसिद्ध है। भिन्न-भिन्न निरंश तत्त्वों का समुदाय संघात कहलाता है । आत्मा नाम का कोई एक अखण्ड और स्थायी द्रव्य नहीं है। इसी को अनात्मवाद या पुद्गलनरात्म्य कहा गया है । बाह्य पदार्थ क्षणिक और निरंश परमाणुओं का एक समुदाय मात्र है। इसी का नाम धर्मनैरात्म्य है। यह देश की अपेक्षा से हुआ। इसी प्रकार काल की अपेक्षा से मन्तानवाद का समर्थन किया जाता है। चित्त और परमाणु की सन्तति को देखकर हम 'यह वही है। ऐसा कहते हैं । वास्तव में यह यह है और वह वह है। यह वही कैसे हो सकता है जब कि सब कुछ क्षणिक है। हमारा जितना व्यवहार है वह सब संघातवाद और सन्तानवाद पर आश्रित है। संघातवाद से देशीय एकता का बोध होता है और संतानवाद से कालिक एकता का ज्ञान होता है । अभेद अथवा अन्वय सन्तान-जन्य है। वास्तव में प्रत्येक ज्ञान और पदार्थ निरंश एवं भिन्न है । एकता संतान के अतिरिक्त कुछ नहीं है। संतान-परम्परा से कुछ समान पदार्थों को देखकर उनमें एकता का आरोप कर देते हैं। वास्तव में सब क्षणिक हैं एवं एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न हैं। परिवर्तन की शीघ्रता एकता या अन्वय की भ्रान्ति उत्पन्न करती है। प्रत्येक पदार्थ इतनी तीव्रगति से परिवर्तित होता रहता है कि हम उस परिवर्तन का ज्ञान नहीं कर पाते और उसे नित्य या स्थायी समझते रहते हैं । जिस प्रकार घूमता हुआ रथ का चक्र केवल एक बिन्दु पर घूमता है और रुकते समय भी केवल एक बिन्दु पर रुकता है उसी प्रकार - १. षड्दर्शनसमुच्चय, २-५. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार प्राणी का जीवन केवल विचार के एक क्षण तक ठहरता है। जैसे ही विचार का वह क्षण समाप्त हो जाता है वैसे ही वह प्राणी समाप्त हो जाता है।' पाश्चात्य परम्परा में ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिटस इसी विचारधारा का समर्थक था। उसने अभेदवाद को भ्रान्ति बताया। उसने यहाँ तक कहा कि एक ही क्षण में पदार्थ वही है भी सही और नहीं भी है । परिवर्तन ही पदार्थ का प्राण है । पदार्थ एक क्षण तक ठहरता है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पदार्थ हमेशा बदलता रहता है। एकता और अन्वय की प्रतीति इन्द्रियजन्य भ्रान्ति है । जो इन्द्रियों का विश्वास करता है वही एकता के धोखे में फंसता है। तर्क या हेतु से व्यक्ति कदापि एकता की सिद्धि नहीं कर सकता । जो व्यक्ति इन्द्रियों से ऊपर उठ जाता है और बुद्धि पर विश्वास रखता है वह एकता के भ्रम से हमेशा दूर रहता है। नित्यता की भ्रान्ति इन्द्रियों की देन है। तर्क के बल से ही हम परिवर्तन या अनित्यता तक पहुंच सकते हैं। ह्य म ने भी एकता को समानता कहकर अन्वय और अभेद का खण्डन किया। उसने कहा-मैं अपनी आत्मा को कदापि नहीं पकड़ सकता । जब कभी मैं ऐसा करने का प्रयत्न करता हूं तो अमुक अनुभव ही मेरे हाथ लगता है। विलियम जेम्स ने कहा कि चलता हुआ विचार स्वयं ही विचा १. विशुद्धि मार्ग, ८. 2. The illusion of permanence is ascribed to the senses. It is by reason that we arise to the knowledge of the . law of becoming. 3. I never can catch 'myself'. Whenever I try, I stum. ble on this or that perception, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन धर्म-दर्शन रक है ।" बर्गसाँ के शब्दों में प्रत्येक वस्तु एक विशिष्ट प्रवाह की अभिव्यक्ति मात्र है। भेदवाद के उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि एकता जैसी कोई वस्तु नहीं । सब कुछ परिवर्तन एवं प्रवाहशील है। एकता की प्रतीति भ्रान्ति मात्र है | वास्तविक सत्य तो क्षणिकता ही है । यही क्षणिकता प्रवाह, परिवर्तन, अनित्यता और भेद-सूचक है । भेदभाव का यह विवेचन भारतीय और पाश्चात्य परम्परा की एतद्विषयक मान्यता को समझने के लिए काफी है । अभेदवाद का समर्थन करनेवाले भेद को मिथ्या कहते हैं । उनकी दृष्टि में एकत्व का ही मूल्य है, अनेकरूपता की कोई कीमत नहीं । जितने भेद या अनेक रूप हैं, सब मिथ्या हैं । हमारा अज्ञान भेद की प्रतीति में कारण है । अविद्याजनित संस्कारों के कारण भेद और अनेकरूपता की प्रतीति होती है । ज्ञानियों की प्रतीति हमेशा अभेद-मूलक होती है । तत्त्व अभेद में ही है, भेद में नहीं । दूसरे शब्दों में, अभेद ही तत्त्व है । भारतीय परम्परा में उपनिषद् और वेदान्त के कुछ समर्थक अभेदवाद का समर्थन करते हैं। अभेदवादी एक ही तत्त्व मानता है क्योंकि अभेद की अन्तिम सीमा एकत्व है । वह एकत्व अपने आप में पूर्ण व अनन्त होता है । जहाँ पूर्णता होती है वहाँ एकत्व ही होता है, क्योंकि दो कदापि पूर्ण नहीं हो सकते । जहाँ दो होते हैं वहाँ दोनों अपूर्ण व सीमित होते हैं । असीम व पूर्ण एक ही हो सकता है । इसी हेतु के आधार पर भारतीय आदर्शवाद का प्रबल समर्थक अद्वैत वेदान्त 1. The passing thought itself is the thinker. 2. Everything is a manifestation of the flow of Elan Vital, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १३३ एक तत्त्व में विश्वास रखता है। विज्ञानवाद और शून्यवाद की अन्तिम भूमिका में भी इसी विचारधारा के दर्शन होते हैं। पाश्चात्य परम्परा में पार्मेनिडीस अभेदवाद का प्रवर्तक कहा जा सकता है। उसने कहा कि परिवर्तन वास्तविक नहीं है क्योंकि वह बदल जाता है । जो वस्तु वास्तविक एवं सत्य है वह कदापि नहीं बदल सकती । जो बदल जाती है वह सत्य नहीं हो सकती। इन सारे परिवर्तनों के बीच में जो नहीं बदलता है वही सत्य है । जो अपरिवर्तनशील है वह सत् है, जो परिवर्तनशील है वह असत् है । जो सत् है वही वास्तविक है । जो असत् है वह वास्तविक नहीं है । जो सत् है वह हमेशा मौजूद है क्योंकि वह पैदा नहीं हो सकता । यदि सत् पैदा होता है तो वह असत् से पैदा होगा, किन्तु असत् से सत् पैदा नहीं हो सकता।' यदि सत् सत् से पैदा होता है तो वह पैदा नहीं होता क्योंकि वह स्वयं सत् है। पैदा तो वह होता है जो सत् न हो । जो सत् न हो वह पैदा हो ही नहीं सकता, इसलिए जो वास्तविक है वह सब सत् है। सत् होने से सब एक है। जो सत् है वह सत् ही है, अत: वहाँ भेद का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जहाँ कोई भेद नहीं है वहाँ अभेद ही है । इस प्रकार अभेदवाद की सिद्धि करनेवाला पार्मेनिडीस भेद को इन्द्रियजन्य भ्रान्ति बताता है। जितने भेद दृष्टिगोचर होते हैं, सब इन्द्रियों के कारण हैं। हेराक्लिटस ने अभेद की प्रतीति में जो कारण बताया, पार्मेनिडीस ने वही कारण भेद की प्रतीति में दिया। अभेद की प्रतीति ही सच्ची प्रतीति है और वह हेतुवाद के आधार पर सिद्ध की जा सकती है । यह बात पार्मेनिडीस ने कही। जेनो ने अनेकता का तर्कसंगत 1. Ex nihilo nihil fit. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन धर्म-दर्शन खण्डन किया और एकता के आधार पर अभेद की स्थापना की। ___ तीसरा पक्ष भेद और अभेद दोनों का समर्थन करता है, भेद और अभेद दोनों को स्वतन्त्र रूप से सत् मानकर दोनों में सम्बन्ध स्थापित करता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष नाम के दो भिन्न-भिन्न पदार्थ मानता है। वे दोनों पदार्थ स्वतन्त्र एवं एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। किसी सम्बन्धविशेष के आधार पर सामान्य और विशेष मिल जाते हैं । सामान्य एकता का सूचक है। विशेष भोद का सूचक है। वस्तु में भेद और अभेद विशेष और सामान्य के कारण होते हैं । एकता की प्रतीति अभेद के कारण है-सामान्य के कारण है। सब गायों में गोत्व सामान्य रहता है इसलिए सब में 'गो'-ऐसी एकाकार प्रतीति होती है। यही प्रतीति एकता की प्रतीति है। उसी प्रकार सब गाएं व्यक्तिगत रूप से अलग भी मालूम होती हैं। उनका अपना भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व है। जाति और व्यक्ति का सम्बन्ध ही भेद और अभेद की प्रतीति है। वैसे दोनों एक-दूसरे से अत्यन्त भिन्न हैं किन्तु समवाय सम्बंध के कारण दोनों मिले हुए मालूम होते हैं। इस प्रकार भेद और अभेद को भिन्न माननेवाला पक्ष दोनों को सम्बन्ध-विशेष से मिला देता है किन्तु वास्तव में दोनों को भिन्न मानता है । यद्यपि जाति और व्यक्ति कभी भिन्न-भिन्न उपलब्ध नहीं होते क्योंकि वे अयुतसिद्ध हैं।' तथापि दोनों स्वतन्त्र एवं एक-दूसरे से अत्यन्त भिन्न हैं। चौथा पक्ष भेदविशिष्ट अभेद का है । इसके दो भेद हो जाते हैं । एक के मत से अभद प्रधान रहता है और भेद गौण १. अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां इहप्रत्ययहेतुः सम्बन्धः स समवायः । -स्याद्वादमंजरी, का० ७. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १३५ हो जाता है । उदाहरण के लिए रामानुज का विशिष्टाद्वैत लीजिए । रामानुज के मत से तीन तत्व अन्तिम और वास्तविक हैं- अचित्, चित् और ईश्वर । ये तीन तत्त्व 'तत्त्वत्रय' के नाम से प्रसिद्ध हैं । यद्यपि तीनों तत्त्व समानरूप से सत् एवं वास्तविक हैं तथापि अचित् और चित् ईश्वराश्रित हैं । यद्यपि वे अपने आप में द्रव्य हैं किन्तु ईश्वर के सम्बन्ध की दृष्टि से वे उसके गुण हो जाते हैं । वे ईश्वर शरीर कहे जाते हैं और ईश्वर उनकी आत्मा है । इस प्रकार ईश्वर चिदचिद्विशिष्ट है । चित् और अचित् ईश्वर के शरीर का निर्माण करते हैं और तदाश्रित हैं।" इस मत के अनुसार भ ेद की सत्ता तो अवश्य रहती है किन्तु अभदाश्रित होकर । अभ ेद् प्रधानरूप से रहता है और भेद तदाश्रित होकर गौणरूप से । भ ेद का स्थान स्वतन्त्र न होकर अभ ेद पर अवलम्बित है । भेद परतंत्र होता है और अभद स्वतंत्र । भद अभ ेद की दया पर जीता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं होता । भ ेद और अभ ेद को भिन्न माननेवाला पक्ष दोनों को स्वतंत्र रूप से सत् मानता हैं जबकि उपर्युक्त पक्ष अभ ेद को प्रधान मानकर भ ेद को गौण एवं पराश्रित बना देता है । उसकी दृष्टि में अभेद का विशेष महत्त्व रहता है । भ ेद की मान्यता तो है किन्तु इसलिए कि वह अभ ेद के आधार पर टिका हुआ है । जैन दृष्टि इससे भिन्न है । भ ेद और अभ ेद का सच्चा समन्वय जैन दर्शन की विशिष्ट देन है । जब हम भेदाभेदवाद की व्याख्या करते हैं तो उसका अर्थ होता है-भेदविशिष्ट अभेद और अभेदविशिष्ट भेद । भेद और अभेद दोनों समानरूप से सत् हैं। जिस प्रकार अभेद वास्तविक है ठीक उसी प्रकार भेद वास्तविक १. सर्वं परमपुरुषेण सर्वात्मना - श्रीभाष्य २.१.६. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन धर्म-दर्शन है । तत्त्व की दृष्टि से जो स्थान अभेद का है ठीक वही स्थान भेद का है । भेद और अभेद दोनों इस ढंग से मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की उपलब्धि नहीं हो सकती। वस्तु में दोनों का अविच्छेद्य समन्वय है । जहाँ भेद है वहाँ अभेद है और जहाँ अभेद है वहाँ भोद है। भेद और अभेद किसी सम्बन्धविशेष से जुड़े हों, ऐसी बात नहीं है । वे तो स्वभाव से ही एक-दूसरे से मिले हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से ही सामान्य-विशेषात्मक है-भेदाभेदात्मक है-नित्यानित्यात्मक है । जो सत् है वह भेदाभेदात्मक है । प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है । वस्तु या तत्त्व को केवल भेदात्मक कहना ठीक नहीं क्योंकि कोई भी भेद अभेद के बिना उपलब्ध नहीं होता । अभेद को मिथ्या या कल्पना मात्र कहना काफी नहीं जब तक कि वह किसी प्रमाण से मिथ्या सिद्ध न हो । प्रमाण का आधार अनुभव है और अनुभव अभेद को मिथ्या सिद्ध नहीं करता। इसी प्रकार एकान्त अभेद को मानना भी ठीक नहीं क्योंकि जो दोष एकान्त भेद में है वही दोष एकान्त अभेद में भी है। भेद और अभेद को दो स्वतन्त्र पदार्थ मानना भी ठीक नहीं क्योंकि वे. भिन्न-भिन्न उपलब्ध नहीं होते और उनको जोड़नेवाला कोई अन्य पदार्थ भी उपलब्ध नहीं होता। उनको जोड़नेवाला पदार्थ होता है, ऐसा मान लिया जाय, फिर भी दोष से मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि उसको जोड़ने के लिए एक अन्य पदार्थ की आवश्यकता होगी और इस तरह अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होगा । ऐसी दशा में वस्तु स्वयं ही भेदाभेदात्मक है, ऐसा मानना ही ठीक होगा। तत्त्व कथंचित् सदृश है, कथंचित् विसदृश है, कथंचित् वाच्य है, कथंचित् अवाच्य है, कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १३७ है।' ये जितने भी धर्म हैं, वस्तु के अपने धर्म हैं। इन धर्मों का कहीं बाहर से सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है। वस्तु स्वयं सामान्य और विशेष है, भिन्न और अभिन्न है, एक और अनेक है, नित्य और क्षणिक है। ठीक इसी प्रकार की मान्यता एरिस्टोटल की भी है। वह वस्तु को सामान्य और विशेष उभयात्मक मानता है । वह कहता है कि कोई भी सामान्य विशेष के बिना उपलब्ध नहीं होता और कोई भी विशेष सामान्य के बिना उपलब्ध नहीं होता। द्रव्य सामान्य और विशेष दोनों का समन्वय है । कोई भी वस्तु इन दोनों रूपों के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती। जैन-दर्शन-सम्मत भेदाभेदवाद वस्तु के वास्तविक रूप को ग्रहण करता है। यह भेदाभेददृष्टि अनेकान्तदृष्टि का एक प्रकार से कारण है । दो परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले गुणों को एक ही वस्तु में एक साथ मानना भेदाभेदवाद का अर्थ है । भेद और अभेद की एकत्र स्थिति वस्तु के रूप को नष्ट नहीं करती अपितु उसको वास्तविक रूप में प्रकट करती है। भेद और अभेद के सम्बन्ध के विषय में भी स्याद्वाद का ही प्रयोग करना चाहिए। भेद और अभेद कथंचित् भिन्न हैं और कयंचित् अभिन्न हैं । द्रव्य और पर्याय के लिए जिस हेतु का प्रयोग किया गया है उसी हेतु का प्रयोग भेद और अभेद के लिए भी किया जा सकता है । द्रव्य अभेदमूलक है और पर्याय भेदमूलक है । इसलिए द्रव्य और अभेद एक हैं और पर्याय और भेद एक हैं। भेद और अभेदविषयक इतना विवेचन काफी है। १. स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूप, वाच्यं न वाच्यं सदसतदेव । -अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, का० २५. २. देखिए-ACritical History of Greek Philosophy. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन १३८ द्रव्य का वर्गीकरण : द्रव्य के कितने भेद हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक तरह से दिया जा सकता है। जहाँ तक द्रव्य-सामान्य . का प्रश्न है, सब एक है। वहाँ किसी प्रकार की भेद-कल्पना . उत्पन्न ही नहीं होती। जो द्रव्य है वह सत् है और वही तत्त्व है। सत्तासामान्य की दृष्टि से जड़ और चेतन, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, गुण और पर्याय सब एक हैं । यह दृष्टिकोण संग्रह-नय की दृष्टि से सत्य है । संग्रह-नय सर्वत्र अभेद देखता है। भोद की उपेक्षा करके अभेद का जो ग्रहण है वह संग्रह-नय का कार्य है। अभेदग्राही संग्रह-नय भेद का निषेध. नहीं करता अपितु भेद को अपने क्षेत्र से बाहर समझता है । इस नय का अन्तिम विषय सत्तासामान्य है, जिसे हम परसामान्य या महासामान्य कह सकते हैं । प्रत्येक द्रव्य सत् है । सत्तासामान्य का ग्रहण एकता का अन्तिम सोपान है, जहाँ सारे भेद भेदरूप से सत् होते हुए भी अभेदरूप से प्रतिभासित होते हैं। सत्ता भेदों को नष्ट नहीं करती अपितु उनमें एकत्व और सद्भाव स्थापित करती है । भेद रहते हुए भी जहाँ अभेद का दर्शन होता है, अनेकता में भी जहाँ एकता दिखाई देती है। इस दृष्टि से द्रव्य अथवा तत्त्व एक है । जो लोग अद्वैत में विश्वास रखते हैं उनसे हमारी मान्यता में यह भेद है कि वे केवल सामान्य को यथार्थ मानते हैं और भेद अर्थात् विशेष का अपलाप करते हैं जबकि जैन दृष्टि से भेद का निषेध नहीं किया जा सकता। वहाँ प्रयोजन के अभाव में भेद की उपेक्षा अवश्य की जा सकती है। उपेक्षा का अर्थ यह नहीं कि भेद असत् है-मिथ्या है। अभेद की दृष्टि को प्रधानता देते समय हमारा भेद से कोई प्रयोजन नहीं होता है इसीलिए उसकी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १३६ उपेक्षा की जाती है। उपेक्षा और अपलाप में जितना अन्तर है, अद्वैतवाद और जैन दर्शन की मान्यता में उतना ही अन्तर है। इस प्रकार संग्रह-नय अर्थात् संग्रहदृष्टि की प्रधानता स्वीकार की जाय तो द्रव्य एक ही सिद्ध होगा और वह होगा सत्तासामान्य के रूप में। यदि हम द्वैतदृष्टि से देखें तो द्रव्य को दो रूपों में देख सकते हैं । ये दो रूप हैं जीव और अजीव ।' चैतन्य धर्मवाला जीव है और उससे विपरीत अजीव है। इस प्रकार सारा लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है । चैतन्य लक्षणवाले जितने भी द्रव्यविशेष हैं वे सब जीव-विभाग के अन्तर्गत आ जाते हैं। जिनमें चैतन्य नहीं है इस प्रकार के जितने भी द्रव्यविशेष हैं उन सब का समावेश अजीवविभाग के अन्तर्गत हो जाता है । __ जीव और अजीज के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छः भेद भी होते हैं ।२ जीव द्रव्य अरूपी है। अजीव द्रव्य के दो भेद किये गये हैं-रूपी और अरूपी। रूपी द्रव्य को पुद्गल कहा गया। अरूपी के पुनः चार भेद हुए-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अद्धासमय-काल । इस प्रकार द्रव्य के कुल ६ भेद हो जाते हैंजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और अद्धासमय । इन छः द्रव्यों में से प्रथम पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं और छठा अस्तिकाय नहीं है। भेद-प्रभेद का स्पष्ट : विवरण इस प्रकार है : १. विसे सिए जीवदब्वे अजीबदवे य--अनुयोगद्वार, सू. १२३. २. भगवतीसूत्र, १५. २-४. ३. वही, २. १०. ११७; स्थामांग, ५. ४४१. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० १. जीव रूपी २. पुद्गल अस्तिकाय T १. जीव २. पुद् गल ३. धर्म ४. अधर्म ५. आकाश रूपी १. पुद्गल जैन धर्म-दर्शन (१) द्रव्य (२) द्रव्य द्रव्य २. अजीव अरूपी ३. धर्म ४. अधर्म ५. आकाश ६. अद्धासमय अनस्तिकाय ६. अद्धासमय अरूपी २. जीव ३. धर्म ४. अधर्म ५. आकाश ६. अद्धासमय Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार यहाँ कुछ पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण कर देना ठीक होगा। अजीवद्रव्य रूपी और अरूपी दो भेदों में विभक्त किया गया है । रूपी का सामान्य अर्थ होता है रूपयुक्त । इस अर्थ में चक्षुरिन्द्रिय की प्रधानता दिखाई देती है। जैनदर्शन में रूपी का अर्थ केवल चक्षुरिन्द्रिय तक ही सीमित नहीं है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण इन चारों से जो युक्त है वह रूपी है।' स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों एक साथ रहते हैं। जहाँ स्पर्श है वहाँ रसादि भी हैं, जहाँ वर्ण है वहाँ स्पर्शादि भी हैं । जहाँ इन चारों में से एक भी हो वहाँ शेष तीन अवश्य हैं । अतः जहाँ रूपी शब्द का प्रयोग हो वहाँ स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण चारों की स्थिति समझनी चाहिए । पुद्गल के किसी भी अंश में ये चारों गुण रहते हैं, अतः वह रूपी है। जो रूपी न हो उसे अरूपी समझना चाहिए। पुद्गल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण नहीं हैं, अतः वे अरूपी हैं। अस्तिकाय का अर्थ होता है प्रदेश-बहुत्व । 'अस्ति' और 'काय' इन दोनों शब्दों से अस्तिकाय बनता है । अस्ति का अर्थ है विद्यमान होना और काय का अर्थ है अनेक प्रदेशों का समूह । जहाँ अनेक प्रदेशों का समूह होता है वह अस्तिकाय कहा जाता है । इसी चीज को और स्पष्ट करने के लिए हमें प्रदेश का अर्थ भी समझना चाहिए। पुद्गल का एक अणु १. रूपिणः पुद्गला: -तत्त्वार्थसूत्र, ५. ४. स्पर्श रसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला : -वही, ५. २३. २. संति जदो तेणेदे, अस्थिति भणंति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अस्थिकाया य ।। -द्रव्यसंग्रह, २४. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन धर्म-दर्शन जितना स्थान (आकाश) घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं। यह एक प्रदेश का परिमाण है। इस प्रकार के अनेक प्रदेश जिस द्रव्य में पाये जाते हैं वह द्रव्य अस्तिकाय कहा जाता है । प्रदेश का उक्त परिमाण एक प्रकार का नाप है । इस नाप से पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पाँचों द्रव्य भी नापे जा सकते हैं । यद्यपि जीवादि द्रव्य अरूपी हैं किन्तु उनकी स्थिति आकाश में है और आकाश स्वप्रतिष्ठित है। अतः उनका परिमाण समझने के लिए नापा जा सकता है। यह ठीक है कि पुद्गल द्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्यों का इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धि से उनका परिमाण नापा एवं समझा जा सकता है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के अनेक प्रदेश होते हैं। अतः ये पाँचों द्रव्य अस्तिकाय कहे जाते हैं। इन प्रदेशों को अवयव भी कह सकते हैं। अनेक अवयववाले द्रव्य अस्तिकाय हैं। अद्धासमय अर्थात् काल के स्वतन्त्र निरन्वय प्रदेश होते हैं। वह अनेक प्रदेश वाला एक अखण्ड द्रव्य नहीं है, अपितु उसके स्वतन्त्र अनेक प्रदेश हैं। प्रत्येक प्रदेश स्वतन्त्ररूप से अपना कार्य करता है। उनमें एक अवयवी की कल्पना नहीं की गई, अपितु स्वतन्त्र रूप से सारे कालप्रदेशों को भिन्न-भिन्न द्रव्य माना गया । इस प्रकार ये काल द्रव्य एक द्रव्य न होकर अनेक द्रव्य हैं। लक्षण की समानता से सबको 'काल' ऐसा एक नाम दे दिया गया। धर्म आदि द्रव्यों के समान काल एक द्रव्य नहीं है। इसलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया । अस्तिकाय और अनस्तिकाय का यही स्वरूप है। १. जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु वद्धं । त ख पदेसं जाणे, सव्वाणुट्टाणदाणरिहं ।। -वहीं, २७, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १४३ रूपी और अरूपी: जैन दर्शन में जीव, पुद्गल, धर्म (गति का माध्यम), अधर्म, (स्थिति का माध्यम), आकाश और काल-ये छः तत्त्व अर्थात् षड्द्रव्य माने गये हैं। सारा विश्व इन्हीं छः तत्त्वों से निर्मित है। इनमें से पुद्गल द्रव्य रूपी कहा जाता है अर्थात् वह इन्द्रियों से देखा-जाना जा सकता है। शेष पांचों द्रव्य अरूपी हैं अर्थात् उन्हें इन्द्रियों से देखा-जाना नहीं जा सकता। जीव अर्थात् आत्मा भी अरूपी है और धर्म आदि भी अरूपी हैं । तब फिर जीव और धर्म आदि में क्या अन्तर है ? जीव चेतन है जबकि धर्म आदि जड़ हैं। पुद्गल अर्थात् भूत भी जड़ है तथा धर्म आदि भी जड़ हैं । तो फिर पुद्गल से धर्म आदि में क्या विशेषता है ? पुद्गल मूर्त अर्थात् रूपी जड़ है जबकि धर्म आदि अमूर्त अर्थात् अरूपी जड़ हैं। तात्पर्य यह है कि जीव चेतन अरूपी है, पुद्गल जड़ रूपी है तथा धर्मादि जड़ अरूपी हैं । कोई ऐसा तत्त्व नहीं है जो चेतन रूपी हो क्योंकि रूप चेतन का नहीं, जड़ का ही गुण है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि सब जड़ तत्त्व रूपी ही हों क्योंकि धर्मादि तत्त्व जड़ होते हुए भी अरूपी हैं। यहां रूपी और अरूपी का अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि जो साधारणतया ज्ञानेन्द्रियों से अनुभ त हो सके वह रूपी है तथा जिसका अनुभव ज्ञानेन्द्रियों से न हो सके वह अरूपी है। अरूपी पदार्थों के साक्षात् ज्ञान के लिए विशेष योग्यता अपेक्षित है। अरूपी पदार्थ इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी इन्द्रियां उनका ग्रहण नहीं कर सकतीं। उनका साक्षात् ज्ञान हमारी इन्द्रियों की शक्ति के बाहर होता है। किसी असाधारण शक्ति या सामर्थ्य की उपस्थिति में ही अरूपी पदार्थ साक्षात् अनुभूति के विषय बन सकते हैं। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन धर्म-दर्शन जो अरूपी अथवा अमूर्त तत्त्वों का साक्षात् ज्ञान करता है वह उन तत्त्वों को किस रूप से जानता है ? क्या वह उनका कोई निश्चित आकार-प्रकार अनुभव करता है ? यदि यह कहा जाय कि वह उन्हें किसी निश्चित आकार-प्रकार के रूप में जानता है तो वे आकारवाले होने के कारण मूर्त अर्थात् रूपी हो जाएंगे क्योंकि आकार रूप के बिना संभव नहीं। ऐसी स्थिति में उनका अरूपी होना अयथार्थ हो जायगा। यदि यह माना जाय कि अरूपी तत्त्वों का ज्ञाता किसी निश्चित आकार-प्रकार के बिना ही उन पदार्थों को जानता है तो प्रश्न उठता है कि उसके ज्ञान में जो पदार्थ प्रतिभासित हो रहे हैं उनका कोई निश्चित स्थान है या नहीं? यदि उनका अस्तित्व किसी निश्चित स्थान में है, चाहे फिर वह स्थान सारा लोक ही क्यों न हो, तो वह क्या वस्तु है जो उस स्थान में है और अन्यत्र नहीं ? बिना किसी निश्चित आकार-प्रकार को माने उनकी स्थिति किसी स्थान-विशेष में सिद्ध नहीं हो सकती । जो किसी स्थान में रहता है उसका कोई-न-कोई आकार-प्रकार होना ही चाहिए अन्यथा वह क्या है जो उस स्थान को व्याप्त करता है ? किसी निश्चित स्थान को व्याप्त करने के लिए कोई निश्चित आकार अनिवार्य है। यदि यह कहा जाय कि उन पदार्थों का कोई निश्चित स्थान नहीं है तो भी ठीक नहीं क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की सत्ता किसी-न-किसी स्थानविशेष से ही सम्बद्ध होती है। जैन दर्शन की भी यही मान्यता है कि जीव, धर्म, अधर्म आदि समस्त द्रव्य आकाश में स्थित हैं एवं आकाश में रहकर ही अपना कार्य करते हैं। धर्मादि जड़ द्रव्यों की तो बात ही क्या, जीव भी निश्चित आकार-प्रकार एवं निश्चित स्थान में रहता है। संसारी आत्माएँ तो शरीर-मम्बद्ध होने के कारण निश्चित आकार-प्रकारवाली अर्थात् स्वदेह-परिमाण होती ही हैं, मुक्त Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १४५ आत्माएं भी निश्चित आकार धारण करती हुई निश्चित स्थान में अर्थात् लोक के अन्त में रहती हैं । तो फिर अरूपी का क्या अर्थ है ? सामान्य इन्द्रियों द्वारा अर्थात् इन्द्रियों की सामान्य शक्ति द्वारा जिस पदार्थ का साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता वह पदार्थ अरूपी कहा जाता है। इस दृष्टि से रूपी पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश अणु भी अरूपी है। ____जो पदार्थ आकारयुक्त है वह रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्शयुक्त है या नहीं? यदि उसे रूपादियुक्त माना जाय तो रूपी और अरूपी का अन्तर ही समाप्त हो जाता है । यदि उसमें रूपादि का अभाव माना जाय तो आकार का कोई अर्थ नहीं रहता क्योंकि रूपादि के अभाव में आकार कैसे संभव हो सकता है ? आकार क्या है ? स्थानविशेष में होनेवाली स्थितिविशेष का नाम ही आकार अथवा आकृति है । आकार में कम-से-कम रूप तो होना ही चाहिए। यदि रूप मान लिया जाय तो रूपसहभावी अन्य गुण स्वतः सिद्ध हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में पुद्गल और जीवादि के गुणों में क्या भिन्नता रह जाएगी? प्रतीत होता है कि विविध तत्त्वों में दो प्रकार के अन्तर हैं : १. प्रत्येक तत्त्व का अपना-अपना विशेष कार्य है जो कि उन्हें एक-दूसरे से भिन्न करता है। २. जीवादि तत्त्व पुद्गलादि तत्त्वों से सूक्ष्मसूक्ष्मतर हैं जिससे पुद्गल का तो इन्द्रियों से ग्रहण अर्थात् ज्ञान हो जाता है किन्तु अन्य द्रव्यों का इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं हो पाता अर्थात् उन्हें इन्द्रियां ग्रहण करने में असमर्थ रहती हैं । हम केवल उनके कार्यों द्वारा उनके अस्तित्व का अनुमान कर सकते हैं । वे इन्द्रियों के प्रत्यक्ष विषय नहीं बन सकते। जो विशिष्ट शक्तिसम्पन्न अथवा साधनसम्पन्न व्यक्ति उनका प्रत्यक्ष ज्ञान करते हैं वे उन्हें किस यथास्थित रूप में देखते हैं, हम नहीं कह सकते। १० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व : जीव का स्वरूप जानने के पहले हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जीव की स्वतन्त्र सत्ता है या नहीं । चार्वाक आदि दार्शनिक जीव की स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास नहीं करते । वे भौतिक तत्त्वों के विशिष्ट संयोग से आत्मा की उत्पत्ति मानते हैं । जीव या आत्मा नाम का कोई पृथक् स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है । जिस प्रकार नाना द्रव्यों के संयोग से मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार भूतों के विशिष्ट मेल से चैतन्य पैदा हो जाता है। भारत में चार्वाक और पश्चिम में थेलिस, एनाक्सिमांडर, एनाक्सिमीनेस आदि एकजड़वादी तथा डेमोक्रेटस आदि अनेकजड़वादी इसी मान्यता के पक्षपाती हैं । जैन धर्म-दर्शन विशेषावश्यकभाष्य में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व के लिए कई प्रमाण दिये गये हैं । सर्वप्रथम हम पूर्वपक्ष का विचार करेंगे । आत्मा का अस्तित्व स्वीकृत न करनेवाला पहला हेतु यह देता है कि आत्मा नहीं है क्योंकि उसका इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं होता । घट सत् है क्योंकि वह इन्द्रियप्रत्यक्ष से ग्राह्य है । आत्मा सत् नही है क्योंकि वह घट के समान इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है । जो इन्द्रियग्राह्य नहीं होता वह असत् होता है जैसे आकाशकुसुम । आत्मा इन्द्रियग्राह्य नहीं है इसलिए आकाश- - कुसुम के समान असत् है । कोई यह कह सकता है कि अणु यद्यपि इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है फिर भी वह सत् है, ऐसा क्यों ? P १. Monistic Materialists. 2. Pluralistic Materialists. ३. जीवे तुह संदेहो पच्चक्खं जं न विप्पइ घडो व्व । अच्चतापच्चक्खं च णत्थि लोए खपुष्कं व ॥ - विशेषावश्यक भाग्य, १५४९. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १४७ इसका उत्तर यह है कि निःसन्देह अणु अणु के रूप में प्रत्यक्षग्राह्य नहीं हैं, किन्तु जब वे किसी स्थूल पदार्थ के रूप में परिणत हो जाते हैं तब इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय बनते हैं । घटरूप से परिणत परमाणु चक्षुरिन्द्रियग्राह्य होते हैं । जब तक वे परमाणु किसी कार्यरूप में परिणत नहीं होते तब तक उनका प्रत्यक्ष नहीं होता । घटादि कार्यरूप में परिणत होने पर उनका प्रत्यक्ष होता है । इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि अणु प्रत्यक्ष का विषय न बनता हुआ भी सत् है । अणु का कार्य जब प्रत्यक्षग्राह्य है तब अणु भी सत् है, ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं । आत्मा के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि आत्मा किसी भी दशा में इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं बन सकती । अतः आत्मा असत् है । आत्मा अनुमान का विषय भी नहीं बन सकती क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक होता है। जब किसी वस्तु के अविनाभाव - सम्बन्ध का ग्रहण होता है, उस सम्बन्ध का कहीं प्रत्यक्ष होता है और पूर्व सम्बन्ध ग्रहण की स्मृति होती है तब अनुमान-जन्य ज्ञान पैदा होता है । आत्मा और उसके किसी अविनाभावी लिंग का कभी प्रत्यक्ष ही नहीं होता, ऐसी दशा में आत्मा अनुमान का विषय कैसे बन सकती है ? हमें आत्मा के किसी भी ऐसे लिंग का ज्ञान नहीं जिसे का अनुमान कर सकें ।" देखकर आत्मा आगम-प्रमाण से भी आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि नहीं की जा सकती क्योंकि जिसका प्रत्यक्ष ही नहीं वह आगम का विषय कैसे बन सकता है ? आगम प्रमाण का मुख्य आधार प्रत्यक्ष है । कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जिसे आत्मा का प्रत्यक्ष हो १. बही, १५५०-५१ . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ - जैन धर्म-दर्शन और जिसके वचनों को प्रमाण मानकर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सके ।' यदि किसी को आत्मा का प्रत्यक्ष होता तो उसके वचनों को प्रमाण मानकर आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की जाती। ऐसे व्यक्ति के अभाव में आगम-प्रमाण भी व्यर्थ है। थोड़ी देर के लिए यदि आगम-प्रामाण्य मान भी लिया जाय तथापि आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि आगम परस्पर विरोधी बातें बताते हैं। किसी के आगम में किसी बात की सिद्धि मिलती है तो किसी का आगम उसी बात का खण्डन करता है । कोई आगम एक बात को सत्य एवं वास्तविक मानता है तो दूसरा उसी बात का खण्डन करता है। कोई आगम एक वात को सत्य एवं वास्तविक मानता है तो दूसरा उसी बात को मिथ्या एवं काल्पनिक समझता है । ऐसी स्थिति में आगम को आधार मानकर आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि करना खतरे से खाली नहीं। उपमान से भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जगत् में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जिसकी समानता के आधार पर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सके । जब आत्मा का ही प्रत्यक्ष नहीं तो अमुक पदार्थ आत्मा के सदृश है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? मूल के अभाव में सादृश्यज्ञान केवल कल्पना है। 'यह उसके समान है' ऐसा कथन तभी संभव है जब उस पदार्थ का, जिसके समान अमुक पदार्थ है, कभी प्रत्यक्ष हुआ हो । जब मूल पदार्थ का ही प्रत्यक्ष न हो तब समानता के आधार पर उस पदार्थ का ज्ञान होना असम्भव है। अर्थापत्ति से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता । ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसके सद्भाव को देखकर यह १. वही, १५५२. ernational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वविचार १४६ कहा जा सके कि आत्मा के अभाव में इस पदार्थ का सद्भाव नहीं हो सकता । जब इस पदार्थ का सद्भाव है तो आत्मा का सद्भाव अवश्य होना चाहिए। अतः अर्थापत्ति भी आत्मा को सिद्ध करने में असमर्थ है। इस प्रकार जब पांचों सद्भावसाधक प्रमाणों से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि नहीं हो सकती तब स्वाभाविकतौर से अभावप्रमाण की प्रवृत्ति होती है । अभावप्रमाण असद्भाव साधक है । अतः यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा असत् है । यह अभाव, अमुक स्थान पर आत्मा नहीं है, ऐसा नहीं कहता, अपितु सर्वत्र आत्मा नहीं है, इस प्रकार रो आत्मा के आत्यन्तिक अभाव की सूचना देता है । किसी वस्तु का एक जगह प्रत्यक्ष होता है और अन्यत्र प्रत्यक्ष नहीं होता तब यह कहा जा सकता है कि अभाव ने अमुक क्षेत्र में अमुक वस्तु के असद्भाव की स्थापना या सिद्धि की। आत्मा का कहीं प्रत्यक्ष नही होता अतः आत्मा के अभाव का जो ज्ञान है वह आत्यन्तिक अभाव का सूचक है । इस प्रकार पूर्वपक्ष के रूप में आत्मा के अस्तित्व के विरोध में उपर्युक्त हेतु उपस्थित किये गये । इन हेतुओं का मुख्य आधार प्रत्यक्ष हैइन्द्रियप्रत्यक्ष है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के अभाव में आत्मा का सद्भाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। 'इन हेतुओं का इस प्रकार खण्डन हो सकता है प्रथम हेतु में प्रत्यक्ष का अभाव बताया गया, वह ठीक नहीं। केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही किसी तत्त्व की सिद्धि में प्रमाण मानना युक्तियुक्त नहीं। ऐसा मानने पर सुख-दुःखादि का भी अभाव सिद्ध होगा क्योंकि वे इन्द्रियप्रत्यक्ष के विषय न होकर मानसिक अनुभव के विषय हैं । आत्मा प्रत्यक्ष से सिद्ध है क्योंकि संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं सब आत्मा के कारण ही हैं। जहाँ संशय होता है Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन धर्म-दर्शन वहाँ आत्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकार करना पड़ता है । जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । आत्मा स्वयं सिद्ध है क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते हैं । सुखदुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं । ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं । अहं प्रत्यय का आधार कोई न कोई अवश्य होना चाहिए क्योंकि उसके बिना त्रैकालिक अहं प्रत्यय नहीं हो सकता। जड़ भूतों में वह शक्ति नहीं कि वे अहं प्रत्यय को उत्पन्न कर सकें क्योंकि अहं प्रत्यय के अभाव में जड़ का ज्ञान ही नहीं हो सकता । पहले अहं प्रत्यय होता है तब 'यह जड़ है' ऐसा ज्ञान होता है। ऐसी दशा में जड़ से अहं प्रत्यय उत्पन्न होता है, यह नहीं कहा जा सकता । अहं प्रत्यय के अभाव में जड़ तत्त्व की सिद्धि ही नहीं हो सकती, फिर यह कैसे बन सकता है कि जड़ से अहं प्रत्यय उत्पन्न हो । अहं प्रत्यय- पूर्वक ही जड़ प्रतीति होती है, जड़प्रतीति पूर्वक अहं प्रत्यय नहीं । यदि आत्मा नहीं है तो अहं प्रत्यय कैसे होता है ? आत्मा के अभाव में यह सन्देह कैसे हो सकता है कि आत्मा है या नहीं ?" यह हेतु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, संशय, निर्णय आदि जितनी भी मनोवैज्ञानिक क्रियाएं हैं, किसी एक स्थायी चेतन तत्त्व के अभाव में नहीं हो सकतीं । ये सारी क्रियाएं किसी एक चेतन तत्त्व को आधार या केन्द्र बनाकर ही घट सकती हैं । ज्ञान, संवेदना और इच्छा किसी एक आत्मिक तत्त्व के बिना सम्भव नहीं । ये तीनों क्रियाएं १. वही, १५५६. 2. Cognition, Affection and Conation. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १५१ बिखरी हुई अवस्था में उपलब्ध न होकर व्यवस्थित ढंग से एकदूसरे से सम्बद्ध और सापेक्ष रूप में मिलती हैं। किसी एक सामान्य तत्त्व के अभाव में उनका पारस्परिक सम्बन्ध नहीं हो सकता। इनकी एकरूपता और अन्वय बिना किसी सामान्य आधार के सम्भव नहीं। शुद्ध भौतिक मस्तिष्क इस प्रकार की एकरूपता, व्यवस्था और अन्वय के प्रति कारण नहीं हो सकता। संशय और संशयी का प्रश्न भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। संशय के लिए किसी ऐसे तत्त्व की अनिवार्यता है जो उसका आधार हो। बिना अधिष्ठान के किसी ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। संशय का अधिष्ठान कोई-न-कोई अवश्य होना चाहिए। सांख्यकारिका में पुरुष की सिद्धि के लिए एक हेतु 'अधिष्ठानात्' भी दिया गया है। इसी प्रकार से भोक्तृत्वादि हेतु भी उपस्थित किये गये हैं। ये सारे हेतु यहाँ प्रयुक्त हो सकते हैं। विशेषावश्यकभाष्य में भ० महावीर गौतम से कहते हैं कि हे गौतम ! यदि संशयी ही नहीं है तो “मैं हूं या नहीं हूं" यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है ? यदि तुम स्वयं ही अपने खुद के विषय में सन्देह कर सकते हो तो फिर किसमें संशय न होगा? आत्मा की सिद्धि के लिए गुण और गुणी का हेतु भी दिया जाता है। घट के रूपादि गुणों को देखकर घट का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा के ज्ञानादि गुणों का १. संघातपरार्थत्वात , त्रिगुणादिविपर्य यादधिष्ठानात् । पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात्, कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च ॥ -सांख्यकारिका, १७. २. विशेषावश्यकभाष्य, १५५७. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन धर्म-दर्शन अनुभव करके आत्मा को सिद्ध किया जा सकता है । गुण और गुणी का सम्बन्ध अविच्छेद्य है। जहाँ गुण होते हैं वहाँ गुणी अवश्य होता है और जहाँ गुणी रहता है वहाँ गुण अवश्य होते हैं । न तो गुण गुणी के अभाव में रह सकते हैं और न गुणी गुण के बिना रह सकता है। जब गुण का अनुभव होता है तब गुणी का अस्तित्व भी होना ही चाहिए।' ___वादी इस हेतु को मान लेता है, किन्तु वह कहता है कि ज्ञानादि गुणों का आधार शरीर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । ज्ञानादि जितने भी गुण पाये जाते हैं, सब शरीराश्रित हैं। ऐसी दशा में शरीर से भिन्न एक स्वतन्त्र आत्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं । ज्ञानादि शरीर की ही क्रियाएँ हैं अतः उनका आधार शरीर से भिन्न कोई द्रव्य नहीं है। वादी का हेतु यों है-ज्ञानादि शरीर के गुण हैं क्योंकि वे केवल शरीर में ही पाये जाते हैं, जो शरीर में ही पाये जाते हैं वे शरीर के गुण होते हैं, जैसे मोटाई और दुबलापन आदि। वादी का यह हेतु व्यभिचारी है। यह कैसे ? इसका उत्तर यों है-ज्ञानादि गुण भौतिक शरीर के गुण नहीं हो सकते क्योंकि हे अरूपी हैं, जब कि शरीर रूपी है, जैसे घट । रूपी द्रव्य के गुण अरूपी नहीं हो सकते, जैसे घट के गुण अरूपी नहीं हैं क्योंकि वे इन्द्रिय-ग्राह्य हैं। ज्ञानादि गुण अरूपी हैं क्योंकि वे इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं हैं। इसलिए ज्ञानादि गुण शरीर के गुण नहीं हो सकते क्योंकि शरीर रूपी है और उसके गुण भी रूपी हैं और चक्षुरादि इन्द्रियों से उन गुणों का ग्रहण होता है। इसलिए ज्ञानादि गुणों का अन्य आश्रय होना चाहिए। यह आश्रय आत्मा है जो अरूपी है। १. विशेषावश्यकभाप्य, १५५८. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १५३ दूसरी बात यह है कि कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि शरीर की उपस्थिति में भी ज्ञानादि गुणों का अभाव रहता है।' सुषुप्ति, मूर्छादि अवस्थाओं में शरीर के विद्यमान रहते हुए भी ज्ञानादि गुण नहीं मिलते। इससे मालूम होता है कि ज्ञानादि गुण शरीर के नहीं, अपितु किसी अन्य तत्त्व के हैं । यदि शरीर के गुण होते तो रूपादि की भाँति वे भी किसी-न-किसी रूप में उपलब्ध होते। शरीर ज्ञानादि गुणों का कारण नहीं हो सकता क्योंकि शरीर भौतिक तत्त्वों का कार्य है और भौतिक तत्त्व चेतनाशून्य हैं । जब भूतों में ही चैतन्य नहीं है तो उनके कार्य में चैतन्य कहाँ से आ जायगा। प्रत्येक कार्य कारण में अनुद्भत रूप से रहता है । जब वह कारण कार्यरूप में परिणत होता है तब वह शक्तिरूप से रहा हुआ कार्य अभिव्यक्तरूप में हमारे सामने आ जाता है । इसके अतिरिक्त कारण और कार्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है। जब भौतिक तत्त्वों में ही चेतना नहीं है तब यह कैसे सम्भव है कि शरीर चैतन्यगुणवाला हो जाय ? यदि चेतना प्रत्येक भौतिक तत्त्व में नहीं है तो उन तत्त्वों के संयोग से भी वह उत्पन्न नहीं हो सकती। रेणु के प्रत्येक कण में न रहनेवाला तैल रेणुकणों के संयोग से उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः यह कहना युक्तिसंगत नहीं कि चैतन्य चतुर्भूत के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होता है यद्यपि इन चारों १. ज्ञानं न शरीरगुणं, सति शरीरे नि वर्तमानत्वात् । -प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ११४. २. प्रत्येकमसती तेषु न स्याद् रेणुतैलवत् । -शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४४. ३. षड्दर्शनसमुच्चय, ६. ८३. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४. जैन धर्म-दर्शन भूतों में पृथक-पृथक चैतन्य नहीं है । किण्वादि द्रव्यों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होनेवाली मादकता सर्वथा नवीन हो, ऐसी बात नहीं है । मादकता का कुछ-न-कुछ अंश प्रत्येक द्रव्य में अवश्य रहता है । अन्यथा उनके अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य से वही मादकता क्यों नहीं उत्पन्न हो जाती ? शक्तिरूप से रहनेवाली मादकता ही अभिव्यक्तरूप से प्रकट होती है । जो शक्तिरूप से सत् न हो वह अभिव्यक्त रूप से भी असत् ही रहता है । जो वस्तु सर्वथा असत् है वह कभी भी सत् नहीं हो सकती - जैसे खपुष्प । जो वस्तु सत् होती है वह कभी भी सर्वथा असत् नहीं हो सकती - जैसे चतुर्भूत । यदि चैतन्य सर्वथा असत् है तो वह कभी भी सत् नहीं हो सकता और यदि सत् है तो सर्वथा असत् नहीं हो सकता । चतुर्भूर्त में चैतन्य की उपलब्धि नहीं होती, अतः उसका आश्रय आत्मा है । आत्मा की पृथक् सिद्धि में एक हेतु यह भी है कि आत्मा या जीव शब्द सार्थक है क्योंकि वह व्युत्पत्तिमूलक है और शुद्धपद है। जो पद व्युत्पत्तियुक्त एवं शुद्ध होता है उसका कोई न कोई विषय या वाच्य अवश्य होता है, जैसे घट शब्द का वाच्य एक विशिष्ट आकारवाला पदार्थ है । जो पद सार्थक नहीं होता उसकी व्युत्पत्ति नहीं होती और वह शुद्धपद नहीं होता । 'डित्थ' पद शुद्ध होता हुआ भी व्युत्पत्तिमूलक नहीं है, अतः वह निरर्थक है । 'आकाशकुसुम' पद व्युत्पत्तिमूलक होता हुआ भी निरर्थक है क्योंकि वह शुद्धपद नहीं है । 'जीव' पद के लिए यह बात नहीं है, अतः उसका वाच्य कोई न कोई अर्थ अवश्य १. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । - भगवदगीता, २. १६. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार होना चाहिए ।" यह अर्थ आत्मा है । आत्मा का स्वरूप : तत्त्वार्थ सूत्र में जीव का लक्षण बताते समय उपयोग शब्द का प्रयोग किया गया है । उपयोग बोधरूप व्यापार - विशेष है । यह व्यापार चैतन्य के कारण होता है। जड़ आदि पदार्थों में उपयोग नहीं है क्योंकि उनमें चेतना शक्ति का अभाव है । यह चेतना शक्ति आत्मा को छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं पायी जाती । अतः इसे जीव का लक्षण कहा गया है । उपयोग के अतिरिक्त उत्पाद, व्यय, धौव्य, सत्त्व, प्रमेयत्वादि अनेक साधारण धर्म भी उसमें पाये जाते हैं । जीव का विशेष धर्मं चेतना ही तत्त्वार्थंकार के शब्दों में उपयोग है, अतः वही उसका लक्षण है । लक्षण में उन्हीं गुणों का समावेश होता है जो असाधारण होते हैं | उपयोग को जो आत्मा का लक्षण कहा गया है वह मोटे तौर से है । वैसे चैतन्य ही आत्मा का धर्म है । यह चैतन्य केवल उपयोगरूप ही नहीं है, अपितु सुख और वीर्यात्मक भी है । उपयोग का अर्थ होता है ज्ञान और दर्शन । 3 आत्मा में अनन्त चतुष्टय होता है-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यं । उपयोग केवल ज्ञान और दर्शन ही है । सुख और वीर्य का इसी के अन्दर अन्तर्भाव करने से यह लक्षण पूर्ण हो सकता है। अनन्त चतुष्टय संसारी आत्मा में अपने पूर्णरूप में नहीं होता । मुक्त आत्मा अथवा 1 १. जीवो त्ति सत्यमिणं सुद्धत्तणओ घडाभिहाणं व । २. उपयोगो लक्षणम् । - तत्त्वार्थ सूत्र, २.८. ३. स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः । - वही, २. ९. - विशेषावश्यकभाष्य, १५७५. १५५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन केवली की दृष्टि से इसका ग्रहण किया गया है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म के क्षय से क्रमशः अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रादुर्भूत होता है ।' इन चार घातिकर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत होनेवाली चेतना की विशेष शक्तियों को ही अनन्त चतुष्टय का नाम दिया गया है । वैसे जीव या आत्मा का लक्षण चेतना ही है। ज्ञानोपयोग : ___ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में यह अन्तर है कि ज्ञान साकार है, जब कि दर्शन निराकार है। ज्ञान सविकल्पक है और दर्शन निर्विकल्पक है। उपयोग की सर्वप्रथम भूमिका दर्शन है जिसमें केवल सत्ता का भान होता है । इसके बाद क्रमशः उपयोग विशेषग्राही होता जाता है। यह ज्ञानोपयोग है। पहले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है। इसीलिए दर्शन निराकार और निर्विकल्पक है और ज्ञान साकार और सविकल्पक है। दर्शन के पहले ज्ञान को ग्रहण इसलिए किया जाता है कि ज्ञान निर्णयात्मक होने के कारण अधिक महत्त्व रखता है। वैसे उत्पत्ति की दृष्टि से ज्ञान का स्थान बाद में है और दर्शन का स्थान पहले है। ज्ञानोपयोग के दो भेद हैं-स्वभावज्ञान और विभावज्ञान । स्वभावज्ञान पूर्ण होता है। उसे किसी भी इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रहती। सीधा आत्मा से होनेवाला पूर्ण ज्ञान स्वभावज्ञान - है । यह ज्ञान प्रत्यक्ष एवं साक्षात् है । इसी ज्ञान को जैन दर्शन १. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । -वही,१०. १.. २. प्रमाणनयतत्त्वालोक, २. ७. ३. णाणुवओगो दुविहो, सहावणाणं विभावणाणंति ।-नियमसार,१०. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ तत्त्वविचार में केवलज्ञान की संज्ञा दी गई है। यह ज्ञान अकेला ही होता है अत: केवलज्ञान कहलाता है । केवल का अर्थ है असहायअकेला । यह ज्ञान कभी मिथ्या नहीं होता। विभावज्ञान के पुनः दो भेद होते हैं-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । सम्यग्ज्ञान चार प्रकार का होता है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान, और मनःपर्ययज्ञान । ___मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन से पैदा होनेवाला जीव और अजीवविषयक ज्ञान मतिज्ञान है। __श्रुतज्ञान-किसी आप्त के वचन सुनने से अथवा आप्तवाक्यों को पढ़ने से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान आप्तवाक्य के संकेतस्मरण से पैदा होता है। इसे आगमज्ञान या शब्दज्ञान भी कह सकते हैं। अवधिज्ञान-रूपी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान अवधिज्ञान है । इस ज्ञान से रूपी द्रव्य ही जाने जाते हैं, अरूपी द्रव्य नहीं जाने जा सकते। - मनःपर्ययज्ञान-मन का विविध पर्यायों का प्रत्यक्ष ज्ञान मनःपर्य यज्ञान है। मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का होता है-मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान ।' मत्यज्ञान-मतिविषयक मिथ्याज्ञान मत्यज्ञान है। · श्रुताज्ञान-श्रुतविषयक मिथ्याज्ञान का नाम श्रुताज्ञान है। विभंगज्ञान-अवधिविषयक मिथ्याज्ञान को विभंगज्ञान कहा गया है। मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान का आधार विषय न होकर ज्ञाता है । जो ज्ञाता मिथ्या-श्रद्धावाला होता है उसका सारा १. मतिश्रतावषयो विपर्ययश्च । -तस्वार्थसूत्र, १. ३२. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन धर्म-दर्शन ज्ञान मिथ्या होता है । जिस ज्ञाता की श्रद्धा ( दर्शन ) सम्यक् होती है उसका ज्ञान भी सम्यक् होता है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का आधार श्रद्धा है, बाह्य पदार्थ नहीं । ज्ञान आत्मा का स्वभाव है । जो जीव अपनी स्वाभाविक अवस्था में होता है उसका ज्ञान पूर्ण होता है । यही ज्ञान केवलज्ञान है । इस ज्ञान के लिए आत्मा को किसी अन्य कारण की आवश्यकता नहीं होती । इन्द्रियादि कारण उसके लिए किसी प्रकार भी उपकारक नहीं होते । ज्ञानावरण कर्म का प्रभाव होने से संसारी - बद्ध आत्मा का ज्ञान पूर्ण नहीं होता। यह अपूर्ण ज्ञान चार प्रकार का होता है । जिस ज्ञान का आधार इन्द्रिय और मन होता है वह ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। जिस ज्ञान का आधार अन्य पुरुष का ज्ञान होता है वह ज्ञान श्रुतज्ञान है । जो ज्ञान प्रत्यक्ष तो होता है अर्थात् इन्द्रियादि बाह्य करणों की अपेक्षा नहीं रखता किन्तु सीमित होता है - अपूर्ण होता है वह अवधिज्ञान है । जो ज्ञान मन सरीखे सूक्ष्म रूपी द्रव्य को अपना विषयं बनाता है वह मन:पर्ययज्ञान है । यह ज्ञान भी मन तक ही सीमित है । यह कभी मिथ्या नहीं होता । उपर्युक्त अपूर्ण ज्ञान के चार प्रकारों में से प्रथम तीन प्रकार हैं । ये तीन प्रकार के ज्ञान मिथ्यात्वमोहनीय कारण होते हैं । जब श्रद्धा सम्यक् हो जाती है तब तीनों ज्ञान सम्यक् हो जाते हैं । इस प्रकार ज्ञानोपयोग के कुल आठ 1 भेद हुए - १. केवलज्ञान (स्वभावज्ञान), २. मतिज्ञान, ३. श्रुतज्ञान, ४. अवधिज्ञान, ५ मन:पर्ययज्ञान, ६. मत्यज्ञान, ७ श्रुताज्ञान, ८. विभंगज्ञान । मिथ्या भी होते कर्म के उदय के Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ इन्हीं आठ भेदों को तत्त्वार्थसूत्रकार ने इस प्रकार बताया : पहले ज्ञान के पाँच भेद किये - मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल । इनमें से प्रथम दो अर्थात् मति और श्रुत को परोक्ष कहा । शेष तीन अर्थात् अवधि, मन:पर्यय और केवल को प्रत्यक्ष कहा । इन पाँच ज्ञानों में से प्रथम तीन ज्ञानों को विपर्यय कहा । इस प्रकार दो परोक्ष, तीन प्रत्यक्ष और तीन विपरीत यों कुल मिलाकर ज्ञान के आठ भेद हुए । ज्ञानोपयोग की चर्चा इन आठ भेदों के साथ समाप्त होती है । दर्शनोपयोग : तत्त्वविचार ज्ञानोपयोग की तरह दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का हैस्वभावदर्शन और विभावदर्शन । स्वभावदर्शन आत्मा का स्वाभाविक उपयोग है । स्वभावज्ञान की तरह यह भी प्रत्यक्ष एवं पूर्ण होता है । इसे केवलदर्शन कहते हैं । विभावदर्शन तीन प्रकार का होता है - चक्षुर्दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन । चक्षुर्दर्शन- चक्षुरिन्द्रिय से होनेवाला निराकार और निर्विकल्पक बोध चक्षुर्दर्शन है । चक्षुरिन्द्रिय की प्रधानता के कारण चक्षुर्दर्शन नामक स्वतन्त्र भेद किया गया है । अचक्षुर्दर्शन- चक्षुरिन्द्रियातिरिक्त इन्द्रियों तथा मन से होने वाला जो दर्शन है वह अचक्षुर्दर्शन है । अवधिदर्शन - सीधा आत्मा से होनेवाला रूपी पदार्थों का दर्शन अवधिदर्शन है । १. तत्त्वार्थ सूत्र, १६ - १२; १.३२. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन इस प्रकार दर्शनोपयोग के चार भेद हुए १. केवलदर्शन ( स्वभावदर्शन ), २. चक्षुर्दर्शन, ३. अचक्षुदर्शन, ४ अवधिदर्शन | १६० ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेदों में यह अन्तर है कि दर्शनोपयोग कभी मिथ्या नहीं होता । सत्तामात्र का उपयोग मिथ्या नहीं हो सकता । जब उपयोग सविकल्पक रूप धारण करता है --विशेषग्राही होता है तब मिथ्या होने का अवसर आता है । सामान्य सत्तामात्र का ग्रहण मिथ्यात्व से परे है क्योंकि वहाँ केवल सत्ता का प्रतिभास है । सत्ता के प्रतिभास में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का भेद नहीं होता । वह तो एकरूप होता है और वह रूप यथार्थ होता है । दूसरा अन्तर यह है कि मन:पर्ययदर्शन नहीं होता क्योंकि अवधिदर्शन के विषय के अनन्तवें भाग का ज्ञान ही मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्यय उपयोग अवधिज्ञान का ही विशेष विकास है । ऐसी दशा में मन:पर्यय नामक भिन्न दर्शन की कोई आवश्यकता नहीं । सूक्ष्म विवेचन किया जाय तो मन:पर्ययज्ञान भी अवधिज्ञान से भिन्न नहीं है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एक ही उपयोग की दो भूमिकाएं हैं। तीसरा अन्तर यह है कि श्रुतज्ञान की तरह श्रुतदर्शन नहीं होता क्योंकि श्रुतोपयोग हमेशा सविकल्पक होता है। चक्षुदर्शन और अचक्षुर्दर्शन मतिज्ञान की ही भूमिकाएँ हैं । इन दोनों का नाम मतिदर्शन इसलिए नहीं रखा कि दर्शन में चक्षुरिन्द्रिय को अधिक महत्त्व दिया गया है । चक्षु के महत्त्व के कारण एक भेद चक्षु के नाम से रखा गया और दूसरा चक्षु से इतर इन्द्रियों और मन के नाम से । सामान्यरूप से आत्मा का यही स्वरूप है । ऐसे जीवों के दो भेद किये गये हैं- संसारी और मुक्त ।' मुक्त जीव का लक्षण १. संसारिणी मुक्ताश्चं । - वही, २.१०. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १६१ स्वभावोपयोग है । केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप आत्मा का शुद्ध और स्वभावोपयोग ही मुक्तात्मा की पहचान है । संसारी जीवों के समनस्क और अमनस्क, त्रस और स्थावर, पर्याप्त और अपर्याप्त आदि कई भेद हैं । इन सब भेदों का विशेष विचार न करके संसारी जीव के स्वरूप का जरा विस्तृत विवेचन करेंगे | साथ-ही-साथ अन्य दर्शनों से इस विषय में क्या मतभेद है, इसका भी उल्लेख करने का प्रयत्न करेंगे । संसारी आत्मा : वादिदेवसूरि ने संसारी आत्मा का जो स्वरूप बताया है उसमें जैन दर्शन-सम्मत आत्मा का पूर्ण रूप आ जाता है । यहाँ उसी स्वरूप को आधार बनाकर विवेचन किया जायगा । वह स्वरूप यह है आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । वह चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्ता है, साक्षात् भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौद्गलिक कर्मों से युक्त है ।" 'आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है' इस कथन का तात्पर्य यह है कि चार्वाकादि जो लोग आत्मा का पृथक् अस्तित्व नहीं मानते उन्हें उसकी स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास करना चाहिए। इसके लिए हम बहुत कुछ लिख चुके हैं अतः यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं । 'वह चैतन्यस्वरूप है' यह लक्षण वैशेषिक और नैयायिकादि उन दार्शनिकों को उत्तर देने के लिए है जो चैतन्य को १. प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा । चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्त्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेह परिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्न पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम् । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ७.५५-५६. ११ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन धर्म-दर्शन आत्मा का आगन्तुक और औपाधिक गुण मानते हैं। आत्मा स्वरूप से चेतन नहीं है। बुद्धयादि गुणों के सम्बन्ध से उसमें ज्ञान या चेतना उत्पन्न होती है । जिस प्रकार अग्नि के सम्बन्ध से घट में रक्तता उत्पन्न होती है उसी प्रकार आत्मा में चेतना गुण उत्पन्न होता है।' जब तक आत्मा में चैतन्य उत्पन्न नहीं होता तब तक वह जड़ है। जो लोग इस प्रकार चैतन्य की उत्पत्ति मानते हैं उनक मत से आत्मा स्वभाव से चेतन नहीं है । वे चैतन्य को आत्मा का आवश्यक गुण नहीं मानते । चैतन्य अथवा ज्ञान एक भिन्न तत्त्व है और आत्मा एक भिन्न पदार्थ है। दोनों के सम्बन्ध से आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है। इसी सम्बन्ध के कारण हम कहते हैं कि यह आत्मा ज्ञानवान् है । जिस प्रकार दण्ड के सम्बन्ध से पुरुष दण्डी कहा जाता है उसी प्रकार ज्ञान के सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानवान् कहा जाता है। वास्तव में ज्ञान और आत्मा अत्यन्त भिन्न हैं। उपर्युक्त मान्यता का खण्डन करते हुए यह कहा गया कि आत्मा चैतन्यस्वरूप है। चैतन्य आत्मा का मूल गुण है, आगन्तुक या औपाधिक नहीं। आत्मा और चैतन्य में एकान्त भेद नहीं है। यदि आत्मा और ज्ञान को एकान्त भिन्न माना जाय ता चैत्र का ज्ञान चैत्र की आत्मा से उतना ही भिन्न है जितना कि मैत्र की आत्मा से । इसी प्रकार मंत्र का ज्ञान भी मैत्र की आत्मा से उतना ही भिन्न है जितना कि चैत्र की आत्मा से । चैत्र और मैत्र दोनों का ज्ञान दोनों की आत्माओं के लिए एक सरीखा १. अग्निघटसंयोगजरोहितादिगुणवत् । --शांकरभाष्य, २. ३. १८८. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १६३ है। ऐसी स्थिति में इसका क्या कारण है कि चैत्र का ज्ञान चैत्र की ही आत्मा में है और मैत्र का ज्ञान मैत्र की ही आत्मा में ? दोनों ज्ञान दोनों में समान रूप से रहने चाहिए । वास्तव में 'उसका ज्ञान', 'इसका ज्ञान' या 'मेरा ज्ञान' जैसी कोई वस्तु नहीं है । सभी ज्ञान सवसे समान रूप से भिन्न हैं क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है । वह बाद में आत्मा से जुड़ता है। ___ इस कठिनाई को दूर करने के लिए यह हेतु दिया जाता है कि यद्यपि ज्ञान और आत्मा बिल्कुल भिन्न हैं तथापि ज्ञान आत्मा से समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है । जो ज्ञान जिस आत्मा के साथ सम्बद्ध होता है वह ज्ञान उसी आत्मा का कहा जाता है, अन्य का नहीं। इस प्रकार समवाय सम्बन्ध हमारी सारी कठिनाई दूर कर देता है। चैत्र का ज्ञान चैत्र की आत्मा से सम्बद्ध है, न कि मैत्र की आत्मा से । इसी तरह मैत्र का ज्ञान मैत्र की आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है, न कि चैत्र की आत्मा के साथ । जो ज्ञान जिस आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से जुड़ा हुआ होता है वह ज्ञान उसी आत्मा का ज्ञान कहा जाता है। नैयायिकों और वैशेषिकों का यह हेतु ठीक नहीं। समवाय एक है, नित्य है और व्यापक है । अमुक ज्ञान का सम्बन्ध चैत्र से ही होना चाहिए, मैत्र से नहीं, इसका कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं है। जब समवाय एक, नित्य और व्यापक है तब ऐसा क्यों कि अमुक ज्ञान का सम्बन्ध अमुक आत्मा के साथ ही हो और अन्य आत्माओं के साथ नहीं। दूसरी बात यह है कि न्यायवैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा भी सर्वव्यापक है इसलिए एक आत्मा का ज्ञान सब आत्माओं में रहना चाहिए । इस तरह चैत्र का ज्ञान मैत्र में भी रहेगा। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन धर्म-दर्शन किसी तरह यह मान भी लिया जाय कि ज्ञान संमवाय सम्बन्ध से आत्मा के साथ सम्बद्ध हो जाता है, तब भी एक प्रश्न बाकी रह जाता है और वह यह कि समवाय किस सम्बन्ध से ज्ञान और आत्मा के साथ सम्बद्ध होता है ? यदि इसके लिए किसी अन्य समवाय की आवश्यकता होती है तो अनवस्था दोष का सामना करना पड़ता है। यदि यह कहा जाय कि वह अपनेआप जुड़ जाता है तो फिर ज्ञान और आत्मा अपने-आप क्यों नहीं सम्बद्ध हो जाते ? उनके लिए एक तीसरी चीज की आवश्यकता क्यों रहती है ? ___ नैयायिक और वैशेषिक एक दूसरा हेतु उपस्थित करते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा और ज्ञान में कर्तृ-करणभाव है अतः दोनों भिन्न होने चाहिए। आत्मा कर्ता है और ज्ञान करण हैं अतः आत्मा और ज्ञान एक नहीं हो सकते। जैन दार्शनिक कहते हैं कि यह हेतु ठीक नहीं है । ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध सामान्य करण और कर्ता का सम्बन्ध नहीं है । 'देवदत्त दात्र से काटता है। यहाँ दात्र एक बाह्य करण है। ज्ञान इस प्रकार का करण नहीं है जो आत्मा से भिन्न हो।' यदि दात्र की तरह ज्ञान भी आत्मा से भिन्न सिद्ध हो जाय तब यह कहा जा सकता है कि ज्ञान और आत्मा में करण और कर्ता का सम्बन्ध है, फलतः ज्ञान आत्मा से भिन्न है। हम कह सकते हैं कि देवदत्त नेत्र और दीपक से देखता है। यहाँ पर देवदत्त से दीपक जिस प्रकार भिन्न है उस प्रकार आँखें भिन्न नहीं हैं। यद्यपि दीपक और नेत्र दोनों करण हैं किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। १. करण द्विविध ज्ञेयं, बाह्यमाभ्यन्तरं बुधैः । यथा लुनाति दात्रेण, मेरुं गच्छति चेतसा ।। -स्याहादमंजरी, पृ० ४२. . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १६५ उसी प्रकार ज्ञान आत्मा का करण होता हुआ भी आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है । वह आत्मा का स्वभाव है इसलिए आत्मा से अभिन्न है। यहाँ पर एक शंका होती है कि यदि आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं तो उन दोनों में कर्तृ-करणभाव कैसे बन सकता है ? जिस प्रकार सर्प अपने ही शरीर से अपने को लपेटता है' उसी प्रकार आत्मा अपने से ही अपने आपको जानता है। वही आत्मा जाननेवाला है-कर्ता है और उसी आत्मा से जानता है-करण है । कर्ता और करण का यह सम्बन्ध पर्यायभेद से है। आत्मा की ही पर्याय करण होती हैं। उन पर्यायों को छोड़कर दूसरा कोई करण नहीं होता। अतः आत्मा चैतन्यस्वरूप है। आत्मा 'परिणामी है' यह विशेषण उन लोगों के मत के खण्डन के लिए है जो आत्मा को चैतन्यस्वरूप मानते हुए भी एकान्त रूप से नित्य एवं शाश्वत मानते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा अपरिणामी है-अपरिवर्तनशील है। उदाहरण के लिए सांख्य दर्शन को लीजिए। वह पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है । जो कुछ भी परिवर्तन होता है वह प्रकृति में होता है। पुरुष न कभी बद्ध होता है और न कभी मुक्त । बन्धन और मुक्तिरूप जितने भी परिणाम हैं वे प्रकृत्याश्रित हैं, पुरुषाश्रित नहीं। पुरुष नित्य है अतः जन्म, मरण आदि जितने भी परि१. सर्प आत्मानमात्मना वेष्टयति । -स्याद्वादमंजरी, पृ० ४३. २. तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाऽऽश्रया प्रकृतिः ॥ -सांख्यकारिका, ६२. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन धर्म-दर्शन णाम हैं उनसे वह भिन्न है-अस्पृश्य है । इसीलिए पुरुष अपरिणामी है । परिणामवाद का समर्थन करनेवाला जैन दर्शन कहता है कि यदि प्रकृति ही बद्ध होती है, प्रकृति ही मुक्त होती है तो वह क्या हैं जिससे प्रकृति बद्ध होती हैं और जिसके अभाव में उसे मुक्ति मिलती है ? प्रकृति के अतिरिक्त कोई ऐसा तत्त्व नहीं जिसे सांख्य दर्शन मानता हो । इस लए प्रकृति किसी अन्य तत्त्व से तो बद्ध नहीं हो सकती । यदि प्रकृति स्वयं ही बद्ध होती है और स्वयं ही मुक्त होती है तो बन्धन और मुक्ति में कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि प्रकृति हमेशा प्रकृति है । वह जैसी हैं वैसी ही रहेगी क्योंकि उसमें भेद डालनेवाला कोई अन्य कारण नहीं है । अखण्ड तत्त्व में अपने-आप अवस्थाभेद नहीं हो सकता । यदि यह माना जाय कि पुरुष प्रकृति के परिवर्तन में कारण है तब भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । पुरुष हमेशा प्रकृति के सम्मुख रहता है । यदि वह हमेशा एकरूप है तो प्रकृति भी एकरूप रहेगी। यदि उसमें परिवर्तन होता है तो प्रकृति में भी परिवर्तन होगा । ऐसा नहीं हो सकता कि पुरुष तो सदैव एकरूप रहे और प्रकृति में परिवर्तन होता रहे । यदि पुरुष प्रकृति के परिवर्तन में कारण है तो उसमें भी परिवर्तन होना चाहिए। बिना उसमें परिवर्तन हुए प्रकृति में परिवर्तन होता रहे, यह समझ में नहीं आता । यदि प्रकृति के परिवर्तन के लिए पुरुष में परिवर्तन माना जाय तो जिस बला से बचने के लिए प्रकृति की शरण लेनी पड़ी वही बला पुनः गले में आ पड़ी । सांख्य दर्शन की धारणा के अनुसार सुख-दुःखादि जितनी भी मानसिक क्रियाएं हैं सब प्रकृति की देन हैं। पुरुष का बुद्धि में प्रतिबिम्ब पड़ता है । इस प्रतिबिम्ब के कारण पुरुष यह Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १६७ समझता है कि सुख-दुःखादि मेरे भाव हैं। यह धारणा भी परिणामवाद की ओर जाती है । पुरुष अपने मूल स्वरूप को भूलकर सुख-दुःखादि को अपना समझने लगता है, इसका अर्थ यह हुआ कि उसके मूल रूप में एक प्रकार का परिवर्तन हो गया। बिना अपने असली रूप को छोड़े यह कभी नहीं हो सकता कि वह सुख-दुःखादि को, जो वास्तव में उसके नहीं है, अपना समझने लगे। ज्योंही वह अपने मूलरूप को भूलकर अन्य रूप में आ जाता है त्योंही उसके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन अपरिणामी पुरुष में कदापि सम्भव नहीं। अतः पुरुष परिणामी है। दूसरी बात यह है कि सुखदुःखादि परिणाम चैतन्यपूर्वक हैं। जड़ प्रकृति को इन परिणामों का अनुभव नहीं हो सकता । ऐसी दशा में यही मानना चाहिए कि पुरुष परिणामी है। ___सांख्य पुरुष को कर्ता नहीं मानता । पुरुष साक्षी मात्र है, ऐसा उसका विश्वास है। परिणामवाद की सिद्धि के साथ ही कर्तृत्व भी सिद्ध हो जाता है। सुख-दु.खादि का अनुभव बिना क्रिया के नहीं हो सकता । अथवा कहना चाहिए कि सुखदुःखादि क्रियारूप ही हैं। ऐसी अवस्था में पुरुष को अकर्ता और निष्क्रिय कहना ठीक नहीं। आत्मा 'कर्ता है' यह लक्षण इसी बात की पुष्टि के लिए है। 'आत्मा साक्षात् भोक्ता है' यह विशेषण भी सांख्यों की मान्यता के खण्डन के लिए है। सांख्यलोग पुरुष में साक्षात् भोक्तृत्व नहीं मानते । वे कहते हैं कि बुद्धि का जो भोग है १. तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । ___ कैवल्यं माध्यस्थ्यं दृष्टत्वमकतुंभावश्च ॥ -सांख्यकारिका, १६. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन धर्म-दर्शन उसी को पुरुष अपना मान लेता है। वैसे पुरुष में स्वतः भोगक्रिया नहीं है। जैनों का कथन है कि भोगरूप क्रिया जड़ बुद्धि में नहीं घट सकती। उसका सम्बन्ध सीधा पुरुष से है-आत्मा से है। जिस.प्रकार परिणाम और क्रिया का आश्रय आत्मा ही होना चाहिए उसी प्रकार भोगरूप क्रिया का आश्रय भी आत्मा ही होना चाहिए । इसके अतिरिक्त, पुरुष का बुद्धि में प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता क्योंकि पुरुष आध्यात्मिक और चेतन तत्त्व है जबकि बुद्धि जड़ और भौतिक है क्योंकि वह प्रकृति का विकास है। चैतन्य का जड़ तत्त्व में प्रतिबिम्ब कैसे पड़ सकता है ? प्रतिबिम्ब तो जड़ का जड़ में ही पड़ सकता है । जैन दर्शन-सम्मत आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में ये सब दोष लागू नहीं होते क्योंकि वह संसारी आत्मा को परिणामी और कथंचित् मूर्त मानता है । सांख्य दर्शन एकान्तवादी है । वह पुरुष को एकान्त रूप से नित्य मानता है । परिणाम का भी आत्यन्तिक अभाव मानता है। ऐसी स्थिति में प्रकृति और पुरुष का किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं घट सकता। सम्बन्ध के लिए परिवर्तन-परिणाम अत्यन्त आवश्यक है। जहाँ परिणाम का अभाव है वहाँ कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि सभी क्रियाओं का अभाव है। आत्मा 'स्वदेहपरिमाण है' यह लक्षण उन सभी दार्शनिकों की मान्यता का खण्डन करने के लिए है जो आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि आत्मा का अनेकत्व तो स्वीकृत करते हैं किन्तु साथ-ही-साथ आत्मा को सर्वव्यापक भी मानते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार आकाश सर्वव्यापक है उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा सर्वव्यापक है । भारतीय दर्शनशास्त्र में आत्मा का स्वतन्त्र Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार १६६ अस्तित्व मानकर भी उसे स्वदेह-परिमाण मानना जैन दर्शन की ही विशेषता है। जैन दर्शन के अतिरिक्त कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो आत्मा को शरीर-परिमाण मानता हो। जैनों का कथन है कि किसी भी आत्मा को शरीर से बाहर मानना अनुभव एवं प्रतीति से विपरीत है। हमारी प्रतीति हमें यही बताती है कि जितने परिमाण में हमारा शरीर है उतने ही परिमाण में हमारी आत्मा है। शरीर से बाहर आत्मा का अस्तिः। किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता। जहाँ पर जिस वस्तु के गुण उपलब्ध होते हैं वह वस्तु वही पर होती है। कुम्भ वहीं है जहाँ कुम्भ के गुण रूपादि उपलब्ध है। इसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व भी वहीं मानना चाहिए जहाँ आत्मा के गुण ज्ञान, स्मृति आदि उपलब्ध हों। ये सारे गुण यद्यपि भौतिक शरीर के नहीं हैं तथापि उपलब्ध वहीं होते हैं जहाँ शरीर होता है, अतः यह मानना ठीक नहीं कि आत्मा सर्वव्यापक है । ___कोई यह पूछ सकता है कि गन्ध दूर रहती है फिर भी हम कैसे सूंघ लेते हैं ? इसका उत्तर यही है कि गन्ध के परमाणु घ्राणेन्द्रिय तक पहुंचते हैं इसीलिए हमें गन्ध आती है। यदि घ्राणेन्द्रिय के पास पहुंचे विना ही गन्ध का अनुभव होने लगे तो सभी वस्तुओं की गन्ध आ जानी चाहिए। ऐसा नहीं होता, किन्तु जिस वस्तु के गन्धाणु हमारी घ्राणेन्द्रिय तक पहुँचते हैं उसी वस्तु की गन्ध की प्रतीति होती है । आत्मा के सर्वगतत्व का खण्डन करने के लिए निम्नोक्त हेतु है___ आत्मा सर्वगत नहीं है क्योंकि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते। जिसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते वह सर्वगत नहीं होता, जैसे घट । आत्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते १. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, का० ६. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन धर्म-दर्शन अतः आत्मा सर्वगत नहीं है । जो सर्वगत होता है उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध होते हैं, जैसे आकाश । • नैयायिक. इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहते हैं कि हमारा अदृष्ट सर्वत्र कार्य करता रहता है । उसके रहने के लिए आत्मा की आवश्यकता होती है। वह केवल आकाश में नहीं रहता क्योंकि प्रत्येक आत्मा का अदृष्ट भिन्न-भिन्न है । जब अदृष्ट सर्वव्यापक है तब आत्मा भी सर्वव्यापक ही होगी क्योंकि जहाँ आत्मा होती है वहीं अदृष्ट रहता है। जैन दार्शनिक इस चीज को नहीं मानते । वे कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना स्वभाव होता है जिसके अनुसार वह कार्य करती है । अग्नि का स्वभाव जलना है इसलिए वह जलती है । यदि प्रत्येक वस्तु के लिए अदृष्ट की कल्पना की जायगी तो वायु का तिर्यग्गमन, अग्नि का 'प्रज्वलन आदि जगत् के जितने भी कार्य हैं सबके लिए अदृष्ट की सत्ता माननी पड़ेगी। ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं क्योंकि प्रत्येक वस्तु का एक विशिष्ट स्वभाव होता है जिसके अनुसार वह कार्य करती है । वह स्वभाव उसका स्वरूप है, अदृष्ट-प्रदत्त गुण नहीं । दूसरी बात यह है कि यदि सभी वस्तुओं के स्वभाव का निर्माण अदृष्ट द्वारा माना जाय तो ईश्वर के लिए जगत् में कोई स्थान नहीं रहेगा । एक प्रश्न यह हो सकता है कि यदि आत्मा विभु नहीं है तो शरीर-निर्माण के लिए परमाणुओं को कैसे खींचेगी ? इसका उत्तर यह है कि शरीर निर्माण के लिए विभत्व की आवश्यकता नहीं है । यदि आत्मा को विभु माना जाय तो उसका शरीर जगत्परिमाण हो जायगा क्योंकि जगत्व्यापी होने से वह १. स्याद्वादमंजरी, पृ० ४६. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १७१ सारे जगत् के परमाणुओं को खींच लेगी । ऐसी अवस्था में न जाने उसका शरीर कितना भयंकर होगा जगत् में एक ही शरीर होगा । और शायद सारे नैयायिक एक और शंका उठाता है। वह कहता है कि आत्मा को शरीर - परिमाण मानने से आत्मा सावयव हो जायगी और सावयव होने से कार्य हो जायगी, जैसे शरीर स्वयं कार्य है । कार्य होने से आत्मा अनित्य हो जायगी। जैन दार्शनिक इस परिणाम को बड़े गर्व से स्वीकृत करते हैं। वे आत्मा को कूटस्य नित्य मानते ही नहीं। इसलिए आत्मा को अनित्य मानना उन्हें इष्ट है । जैनों की मान्यता है कि आत्मा के प्रदेश होते हैं, यद्यपि साधारण अर्थ में अवयव नहीं होते । आत्मा पारिणामिक है, सावयव है, सप्रदेश है । ऐसी स्थिति में अनित्यता का दोष जैनों पर नहीं आता । आत्मा संकोच और विकासशाली हैं अतः एक शरीर से दूसरे शरीर में पहुंचने पर उसके परिमाण में परिवर्तन हो जाता है । रामानुज जिस प्रकार ज्ञान को संकोच विकासशाली मानता है उसी प्रकार जैन दर्शन आत्मा को संकोच विकासशाली मानता है । आत्मा 'प्रत्येक शरीर में भिन्न है' यह बात उन दार्शनिकों की मान्यता के खण्डन के रूप में कही गई है जो आत्मा को केवल एक आध्यात्मिक तत्त्व मानते हैं । उनकी मान्यता के अनुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार एक ही शरीर में अनेक आत्माएं रह सकती हैं किन्तु एक आत्मा अनेक शरीरों में नहीं रह सकती । नयायिक आदि दार्शनिक भी अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास करते हैं। इस अनेकता की दृष्टि से जैन दर्शन में और उनमें १. ज्ञानं धर्म संकोचविकाशयोग्यम् । - तत्वत्रय, पृ० ३५. : . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन धर्म-दर्शन 1 मतैक्य है ( स्वदेहपरिमाण की दृष्टि से जो मतभेद है उसका विचार कर चुके हैं ) | अद्वैत वेदान्त मानता है कि आध्यात्मिक तत्त्व एक ही है । वह सर्वव्यापक है और सर्वत्र समान रूप से रहता है । अविद्या के प्रभाव के कारण हम यह समझते हैं कि भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं और उनका भिन्न-भिन्न अस्तित्व है । जिस प्रकार एक ही आकाश घटाकाश, पटाकाश आदि रूपों में प्रतिभासित होता है उसी प्रकार अविद्या के कारण एक ही आत्मा अनेक आत्माओं के रूप में प्रतिभासित होती है । एक ही परमेश्वर कूटस्थ नित्य विज्ञान धातु अविद्या के कारण अनेक प्रकार का मालूम होता है ।' इस मान्यता का खण्डन करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि जहाँ तक आकाश का प्रश्न है, यह कहना उचित है कि वह एक है क्योंकि अनेक वस्तुओं को अपने अन्दर अवगाहना देते हुए भी वह एकरूप रहता है । उसके अन्दर कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता । अथवा आकाश भी सर्वथा एकरूप नहीं है क्योंकि वह भी घटाकाश, पटाकाश, मठाकाश आदि अनेक रूपों में परिणत होता रहता है। दीपक की तरह वह भी कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य । फिर भी मान लीजिए कि आकाश एकरूपं है । किन्तु जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, ऐसी कोई भी एकता मालूम नहीं होती जिसके कारण सारे भेद समाप्त हो जाते हों । यह ठीक है कि उनका स्वरूप एक सरीखा है । ऐसा होते हुए भी उनमें ऐकान्तिक अभेद नहीं है । माया को बीच में डालकर भेद को मिथ्या सिद्ध करना युक्तिसंगत नहीं क्योंकि १. तेषां सर्वेषामात्मैकत्वसम्यग्दर्शनप्रतिपक्षभूतानां प्रतिबोधायेदं शरीरकमारब्धम् । एक एव परमेश्वरस्य कूटस्थ नित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते, नान्यो विज्ञानधातुरस्ति । - शारीरकभाप्य, १. ३. १६. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १७३ माया स्वयं ही असिद्ध है। आत्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न है, प्रत्येक पिण्ड में अलग है। संसार के सभी जीवित प्राणी भिन्नभिन्न हैं क्योंकि उनके गुणों में भेद है, जैसे घट । जहाँ किसी वस्तु के गुणों में अन्य वस्तु के गुणों से भेद नहीं होता वहाँ वह उससे भिन्न नहीं होती, जैसे आकाश । दूसरी बात यह है कि यदि सारे संसार का अन्तिम तत्त्व एक ही आत्मा है तो सुख, दुःख, बन्धन, मुक्ति आदि किसी की भी आवश्यकता नहीं रहती। जहाँ एक है वहाँ कोई भेद हो ही नहीं सकता । भेद हमेशा अनेकपूर्वक होता है । भेद का अर्थ ही अनेकता है। माया या अविद्या भी इस समस्या का समाधान नहीं कर सकती क्योंकि जहाँ केवल एक तत्व है वहाँ माया या अविद्या नाम की कोई चीज नहीं हो सकती । उसके लिए कोई गंजाइश नहीं रहती। तात्पर्य यह है कि एकतत्त्ववादी भेद का संतोषजनक समाधान नहीं कर सकता। यह हमारे अनुभव की बात है कि भेद होता है इसलिए भेद का अपलाप भी नहीं किया जा सकता । ऐसी दशा में सुख, दुःख,जनन, मरण, बन्धन, मुक्ति आदि अनेक दशाओं के सन्तोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना अत्यावश्यक है।' ___ आत्मा के गुणों में भेद कैसे है, इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि आत्मा का सामान्य लक्षण उपयोग है। किन्तु यह उपयोग अनन्त प्रकार का होता है क्योंकि प्रत्येक आत्मा में भिन्नभिन्न उपयोग है। किसी आत्मा में उपयोग का उत्कर्ष है तो किसी में अपकर्ष है । उत्कर्ष और अपकर्ष की अन्तिम अवस्थाओं १. विशेषावश्यक भाष्य, १५८२. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन धर्म-दर्शन के बीच में अनेक प्रकार हैं। आत्माएँ अनन्त हैं इसलिए आत्मा के भेद से उपयोग के भेद भी अनन्त हैं । ' यहाँ पर सांख्य दर्शन के उन तीन हेतुओं का भी निर्देश कर देना चाहिए जिनसे पुरुषबहुत्व की सिद्धि की गई है। ये तीनों हेतु आत्मा के बहुत्व की सिद्धि के लिए बहुत उपयोगी हैं । पहला हेतु है 'जननमरणकरणानां प्रतिनियमात्' अर्थात् उत्पत्ति, मृत्यु और इन्द्रियादिकरणों की विभिन्नता से पुरुषबहुत्व का अनुमान हो सकता है। दूसरा हेतु है 'अयुगपत्प्रवृते:' अर्थात् अलग-अलग प्रवृत्ति को देखकर पुरुषबहुत्व की कल्पना हो सकती है । तीसरा हेतु है 'त्रैगुण्यविपर्ययात्' अर्थात् सत्त्व, रजस् और तमम् की असमानता से पुरुषबहुत्व की सिद्धि हो सकती है । सत्त्व, रजस् और तमस् की असमानता के स्थान पर जैन कर्म की असमानता का प्रयोग कर सकते हैं । आत्मा के बहुत्व की सिद्धि के लिए इतनी चर्चा काफी है । आत्मा 'पौद्गलिक कर्मों से युक्त है' यह लक्षण दो बातों को प्रकट करता है । पहली बात तो यह है कि जो लोग कर्म आदि की सत्ता में विश्वास नहीं रखते उनके सिद्धान्त का खण्डन करता है । दूसरी बात यह है कि जो लोग कर्मों को मानते हैं किन्तु उन्हें पौगलिक अर्थात् भौतिक नहीं मानते उनके मत को दूषित ठहराता है । 'कर्म' पत्र से प्रथम बात निकलती है और 'पौद्गलिक' पद से दूसरी बात प्रकट होती हैं। १. वही, १५८३. २. जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत् वृतेश्व | पुरुषबहुत्वं गुण्यविपर्यया ॥ सिद्ध - सांख्यकारिका, १८. -- Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १७५ चार्वाक जो कि कर्म की सत्ता में विश्वास नहीं करते उनकी मान्यता का खण्डन करते हुए कहा जा सकता है कि सुखदुःखादि की विषमता का कोई-न-कोई कारण अवश्य है क्योंकि यह एक प्रकार का कार्य है, जैसे अंकुरादि । केवल आत्मा में सुखदुःखादि की विषमता नहीं होती। वह तो अनन्तसुखात्मक है और फिर चार्वाक आत्मा को मानते भी नहीं । भूतों का विशिष्ट संयोग भी इस विषमता का कारण नहीं हो सकता क्योंकि उस संयोग की विषमता के पीछे कोई-न-कोई अन्य कारण अवश्य होना चाहिए जिसके कारण संयोग में वैषम्य होता है। वह कारण क्या है ? उस कारण की खोज में वर्तमान को छोड़कर भृत तक पहुँचना पड़ता है। वही कारण कर्म है । यदि कोई यह कहे कि हमें कर्मो का प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिए कर्म मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसी अवस्था में उसे यह उत्तर दिया जा सकता है कि जो वस्तु इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय न हो वह है ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता, अन्यथा भूत और भविष्य के जितने भी पदार्थ हैं सब असत हो जायेंगे क्योंकि उनका हमें इस समय प्रत्यक्ष नहीं हो रहा है । ऐसी दशा में सारा व्यवहार लुप्त हो जायगा। पिता की मृत्यु के बाद 'मैं अपने पिता का पुत्र हूँ' ऐसा नहीं कहा जा सकेगा क्योंकि पिता का प्रत्यक्ष ही नहीं है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए अनुमान का सहारा लेना पड़ता है । 'पुत्र' कार्य है इसलिए उसका कारण 'पिता' अवश्य होना चाहिए। इसी प्रकार कर्मों के कार्यो को देखकर कारण रूप कर्मों का अनुमान लगाना. ही पड़ता है । इसी चीज को दूसरी तरह से देखें । परमाणु इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय नहीं है किन्तु घटादि कार्य देखकर तत्कारणरूप परमाणुओं का अनुमान किया Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैन धर्म-दर्शन जाता है । इसी प्रकार सुख-दुःखादि के वैषम्य को देखकर तत्कारणरूप कर्मों का अनुमान करना युक्तिसंगत है । यहाँ उठ सकता है । चन्दन, अंगनादि के संयोग व्यक्ति सुख की प्राप्ति होती है और विष, कण्टक, सर्पा से दुःख मिलता है । ये प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले कारण ही सुख और दुःख के कारण हैं । ऐसी दशा में हम अदृश्य कारणों की कल्पना क्यों करें ? जो कारण दिखाई देते हैं उन्हें छोड़कर ऐसे कारणों की कल्पना करना जो अप्रत्यक्ष हैं, ठीक नहीं। प्रश्न बहुत अच्छा है किन्तु उसमें थोड़ा-सा दोष है । दोष यह है कि वह व्यभिचारी है । यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है कि एक ही प्रकार के साधनों के रहते हुए एक व्यक्ति अधिक सुखी होता हैं, दूसरा कम सुखी होता हैं, तीसरा दुःखी होता है । समान साधनों से सबको समान सुख नहीं मिलता। यही बात दुःख के साधनों के विषय में भी कही जा सकती हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसके लिए किसी-न-किसी अदृष्ट की कल्पना करनी पड़ती हैं । जिस प्रकार हम युवकदेह को देखकर बाल देह का अनुमान करते हैं उसी प्रकार बालदेह को देखकर भी किसी अन्य देह का अनुमान करना चाहिए । यह देह 'कार्मण शरीर' है ।" यह परम्परा अनादिकाल से चली आती है । हम शरीररूप कार्य से कर्मरूप कारण का अनुमान करते हैं । शरीर भौतिक है - पौद्गलिक है ऐसी दशा में कर्म भी पौद्गलिक ही होने चाहिएं क्योंकि पौद्गलिक कार्य का कारण भी पौद्गलिक ही हो सकता है। जैन दर्शन तर्क की इस मांग का समर्थन करता है तथा कर्म को पौद्गलिक सिद्ध करने के लिए निम्न हेतु उपस्थित करता है १. विशेषावश्यकभाष्य, १६१४. M Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार १. कर्म पौद्गलिक हैं क्योंकि उनसे सुख-दुःखादि का अनुभव होता है । जिसके सम्बन्ध से सुख-दुःखादि का अनुभव होता है वह पौद्गलिक होता है, जैसे भोजनादि । जो पौद्गलिक नहीं होता उसके सम्बन्ध से सुख-दुःखादि भी नहीं होते, जैसे आकाश । २. जिसके सम्बन्ध से तीव्र वेदनादि का अनुभव होता है वह पौद्गलिक होता है, जैसे अग्नि । कर्म के सम्बन्ध से तीव्र वेदनादि की प्रतीति होती है, अतः कर्म पौद्गलिक हैं। ३ पोद्गलिक पदार्थ के संयोग से पौद्गलिक पदार्थ की ही वृद्धि हो सकती है, जैसे घट तैलादि के संयोग से वृद्धय न्मुख होता है । यही स्थिति हमारी हैं। हम बाह्य पदार्थों के संयोग से वृद्धि की प्राप्ति करते हैं। यह वृद्धि कामिक है और पौद्गलिक पदार्थों के संयोग से होती है, अतः कर्म पौद्गलिक हैं। ४. कर्म पौद्गलिक हैं क्योंकि उनका परिवर्तन आत्मा के परिवर्तन से भिन्न है। कर्मों का परिणामित्व (परिवर्तन) उनके कार्य शरीरादि के परिणामित्व से जाना जाता है। शरीरादि का परिणामित्व आत्मा के परिणामित्व से भिन्न है क्योंकि आत्मा का परिणामित्व अरूपी है जब कि शरीर का परिणामित्व रूपी है । अतः कर्म पौद्गलिक हैं। संसारी आत्मा का कर्मों से संयोग इसलिए हो सकता है कि कर्म मूर्त हैं और संसारी आत्मा भी कर्मयुक्त होने से कथंचित् मूर्त है । आत्मा और कर्म का यह संयोग अनादि है, अतः यह प्रश्न ही नहीं उठता कि पहले पहल आत्मा और कर्म का संयोग कैसे हुआ? एक बार इस संयोग के सर्वथा समाप्त हो जाने पर पुनः संयोग नहीं होता क्योंकि उस समय आत्मा अपने शुद्ध अमूर्त रूप में पहुंच जाता है। यही मोक्ष है। यही संसार-निवृत्ति है। यही सिद्धावस्था है। यही ईश्वरावस्था है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन धर्म-दर्शन यही अन्तिम साध्य है । यही दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है । यही सुख का अन्तिम रूप है । यही ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य की पराकाष्ठा है । पुद्गल : भौतिक तत्त्व आध्यात्मिक तत्त्व से स्वतन्त्र है | जिसे सामान्यतया जड़ या भौतिक कहा जाता है वही जैन दर्शन में पुद्गल शब्द से व्यवहृत होता है । बौद्ध दर्शन में पुद्गल शब्द का आत्मा के अर्थ में प्रयोग हुआ है। पुद्गल शब्द में दो पद हैं- 'पुद्' और 'गल' । 'पुद्' का अर्थ होता है पूरण अर्थात् वृद्धि और 'गल' का अर्थ होता है गलन अर्थात हास । जो द्रव्य पूरण और गलन द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है वह पुद्गल है ।" पूरण और गलनरूप क्रिया केवल पुद्गल में ही होती है, अन्य में नहीं । पुद्गल का एक रूप दूसरे रूप में पूरण और गलन द्वारा ही परिवर्तित होता है । पुद्गल के मुख्य चार धर्म होते हैं- स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णं । पुद्गल के प्रत्येक परमाणु में ये चारों धर्मं होते हैं। इनके जैन दर्शन में बीस भेद किये जाते हैं । स्पर्श के आठ भेद होते हैं - मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष | रस के पाँच भेद होते हैं- तिक्त, कटुक, आम्ल, मधुर और कषाय । १. पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद् गलाः । २. बही, ५. २३.७-१०. -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५.१.२४. - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार गन्ध दो प्रकार की है— सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध । वर्ण के पाँच प्रकार हैं- नील, पीत, शुक्ल, कृष्ण और लोहित । ये बीस मुख्य भेद हैं । इनका संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेदों में विभाजन हो सकता है ।" एक पुद्गल परमाणु में कम-से-कम कितने स्पर्शादि होते हैं, इसका निर्देश परमाणु के स्वरूप वर्णन के समय किया जायगा । वर्णादि पुद्गल के अपने धर्म हैं या हम लोग इन धर्मों का पुद्गल में आरोप करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि ये धर्म पुद्गल के ही धर्म हैं । जो धर्म जिसका न हो उसका हमेशा अरोप नहीं हो सकता अन्यथा कोई भी धर्म वास्तविक न होगा । यह ठीक है कि वर्णादि के प्रतिभास में थोड़ा-बहुत अन्तर पड़ सकता है । एक वस्तु एक व्यक्ति को अधिक काली दीख सकती है और दूसरे को थोड़ी कम काली । इसका अर्थ यह नहीं होता कि वस्तु का काला वर्ण ही यथार्थ है । यदि ऐसा होता तो कोई भी वस्तु काली दिखाई देती क्योंकि कालापन वस्तु में तो है नहीं । जिसकी जब इच्छा होती काली वस्तु दिखाई देती । इसलिए वर्णादि धर्मों को वस्तुगत ही मानना चाहिए। उनकी प्रतीति के लिए कुछ कारणों का होना कुछ प्राणियों के लिए आवश्यक है, यह ठीक है; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे गुण अपने आप में कुछ नहीं हैं । गुण स्वतन्त्र रूप से यथार्थ हैं और उनकी प्रतीति के कारण अलग हैं। दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं। न तो गुणों की सत्ता से आवश्यक कारण असत् हो सकते हैं और न कारणों के रहने से गुण ही मिथ्या हो सकते हैं । दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है । १. सर्वार्थसिद्धि, ५. २३. १७६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन धर्म-दर्शन __ समीक्षा-जो तत्त्व सामान्यतः जड़ अथवा भूत कहा जाता है वही जैन दर्शन में 'पुद्गल' कहा गया है । 'पुद्गल' पद में दो शब्द हैं-'पुद्' और 'गल' । 'पुद्' का अर्थ है पूरण यानी वृद्धि और 'गल' का अर्थ है गलन यानी ह्रास । इस प्रकार पुद्गल का अर्थ होता है वृद्धि तथा ह्रास द्वारा विविध रूपों में परिवर्तित होनेवाला तत्त्व अथवा द्रव्य । जैन दर्शन-प्रतिपादित षड्द्रव्यों में केवल पुद्गल ही ऐसा द्रव्य है जो वृद्धि एवं ह्रास द्वारा परिवर्तन को प्राप्त होता है। अन्य द्रव्यों में परिवर्तन अवश्य होता है किन्तु वृद्धि व ह्रास द्वारा नही अपितु अन्य प्रकार की प्रक्रियाओं द्वारा। दूसरे शब्दों में, वृद्धि एवं ह्रासरूप क्रियाएं केवल पुद्गल में ही होती हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। पुद्गल द्रव्य का ही एक रूप ( पर्याय ) दूसरे रूप में वृद्धि तथा ह्रास द्वारा परिवर्तित होता है। पुद्गल के विशेष धर्म या गुण चार हैं : स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण । शब्द भी पौद्गलिक होता है । स्पर्शादि चार गुणों तथा शब्दों को इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है । स्पर्श का स्पर्शनेन्द्रिय, रस का रसनेन्द्रिय, गन्ध का घ्राणेन्द्रिय, वर्ण का चक्षुरिन्द्रिय तथा शब्द का श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण होता है । इस प्रकार पुद्गल विविध ज्ञानेन्द्रियों का विषय बनता है । वर्ण अर्थात् रूप की प्रधानता के कारण पुद्गल को रूपी ( मूर्त) कहा जाता है। हमारी इन्द्रियां रूपी पदार्थों अर्थात् पौद्गलिक वस्तुओं का ज्ञान करने में ही समर्थ हैं । अरूपी अर्थात् अपोद्गलिक पदार्थ इन्द्रियज्ञान के विषय नहीं बनते । जीव (आत्मा), धर्म, अधर्म, आकाश और काल अरूपी हैं । इनका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता। ये या तो मन की चिन्तनशक्ति (अन्तनिरीक्षण, अनुमान, मागम Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १८१ आदि ) द्वारा जाने जाते हैं या इनका आत्मा द्वारा साक्षात्कार होता है। ___क्या वर्णादि धर्म वस्तुतः पुद्गल में हैं या हमारी इन्द्रियों का पदार्थों के साथ अमुक प्रकार का सम्बन्ध होने पर हमें वैसी प्रतीति होने लगती है? दूसरे शब्दों में, वर्णादि पुद्गल के अपने धर्म हैं या हमलोग इन धर्मों का पुद्गल में आरोप करते हैं ? यह तो नहीं कहा जा सकता कि पुद्गल में वर्णादि गुणों का सर्वथा अभाव होता है तथा हमारी इन्द्रियाँ इन गुणों को अमुक अवस्थाओं में स्वतः उत्पन्न कर लेती हैं । वर्णादि के अभाव में तो पुद्गल का ही अभाव हो जायगा । जब पुद्गल ही अभावरूप हो जायगा तो वर्णादि की उत्प त का प्रश्न ही नहीं उठेगा। हां, यह अवश्य माना जा सकता है कि इन्द्रियादि का पदार्थ के साथ अमुक प्रकार का सम्बन्ध होने पर वर्णादि की प्रतीति होती है । इसका अर्थ यह नहीं कि इन्द्रियां वर्णादि गुणों को उत्पन्न करती हैं । इन्द्रियों और वर्णादि गुणों में ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है, कारण और कार्य का नहीं । इन्द्रियों की उत्पत्ति उनके अपने कारणों से होती है तथा वर्णादि की उत्पत्ति उनके अपने कारगों से । इन्द्रियादि वर्णादि को प्रभावित कर सकते हैं एवं वर्गादि इन्द्रियादि को । जहां तक इनकी सत्ता का प्रश्न है, दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है । वर्णादि का ज्ञान इन्द्रियसापेक्ष है, अस्तित्व नहीं । अन्यथा ज्ञानभेद का कोई आधार ही नहीं रहेगा। यदि वर्णादि धर्म वस्तुतः पदार्थ में हैं अर्थात् वस्तुगत हैं तो उनके प्रतिभास में अन्तर क्यों होता है ? सबको वर्णादि की सदा समान प्रतीति होनी चाहिए किन्तु ऐसा दिखाई नहीं देता। वर्णादि के प्रतिभास में देशगत, कालगत एवं व्यक्तिगत अन्तर Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन धर्म-दर्शन दृष्टिगोचर होता है। ऐसा क्यों ? इस अन्तर का कारण दो प्रकार का है : आन्तरिक एवं बाह्य । आन्तरिक कारण में इन्द्रियभेद, इन्द्रियदोष आदि का समावेश होता है तथा बाह्य कारण में अन्य परिस्थितियों का। इन दो प्रकार के कारणों से वर्णादि के प्रतिभास में अन्तर अथवा दोष आ जाता है । जो कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि पुद्गल में किसी-न-किसी रूप में वर्ण, रस, गन्ध एवं स्पर्श होता ही है। . एक दार्शनिक मान्यता यह है कि हमारा जितना भी ज्ञान या अनुभव है वह दृश्यजगत् तक ही सीमित है। हमें वास्तविक जगत् का ज्ञान नहीं हो सकता । यह कैसे ? हमारे ज्ञान की उत्पत्ति में बहुत से ऐसे कारण हैं जिनसे पदार्थ के वास्तविक रूप का अनुभव नहीं हो सकता । उदाहरण के लिए मेरे घटज्ञान को लीजिए। इस घटज्ञान में समय का अंश अवश्य रहेगा क्योंकि मैं किसी-न-किसी समय में ही घट का अनुभव करूंगा। इसमें स्थान का भाग भी रहेगा ही क्योंकि मेरा यह घटज्ञान किसी-नकिसी स्थान पर रखे हुए घट के विषय में ही होगा। मैं उस घट को अस्ति या नास्ति अर्थात् है या नहीं है अथवा कार्य या कारण या अन्य किसी रूप में ही जानूंगा। इस प्रकार मेरा घटज्ञान देश, काल और विचार की किसी-न-किसी कोटि से सम्बद्ध-सीमित होगा। तात्पर्य यह है कि हमारे ज्ञान में देश, काल और विचार की मर्यादाएं हैं। हमें इन सब मर्यादाओं के बीच पदार्थ जैसा दिखाई देता है वैसा ही हम उसे जानते हैं। वास्तव में पदार्थ कैसा है अर्थात् देश, काल और विचार की सीमाओं से परे वस्तु का क्या स्वरूप है, इसका ज्ञान हमें नहीं हो सकता । हम दृश्य जगत् का ज्ञान कर सकते हैं, वास्तविक जगत् का नहीं । पदार्थ जिस रूप में हमारे सामने प्रतिभासित होते हैं उस रूप में हम उन्हें जान सकते हैं, अपने असली रूप में नहीं। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार १८३ जैन दर्शन पदार्थ-जगत् को इस प्रकार की दृश्य और अदृश्य रेखाओं से विभाजित नहीं करता। यह सही है कि किसी भी वस्तु का ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सीमाओं से आबद्ध होता है किन्तु इससे वस्तु का वास्तविक रूप ज्ञात नहीं होता है, ऐसी बात नहीं है। देश, काल आदि की मर्यादाओं में रहकर भी पदार्थ का वास्तविक रूप जाना जा सकता है । प्रत्येक पदार्थ स्वभावत: एवं सर्वदा देश-कालसापेक्ष होता है अर्थात् क्षेत्र एवं समय से सम्बद्ध होता है। देश-कालनिरपेक्ष वस्तु की कल्पना निराधार है । ऐसी वस्तु कोई हो ही नहीं सकती । देश-कालसम्बद्ध पदार्थज्ञान वास्तविक ही है एवं तदाधारित अस्ति-नास्ति आदि के रूप में विचाराभिव्यक्ति भी यथार्थ ही है। देश, काल एवं विचारकोटियों से वस्तु का वास्तविक स्वरूप आवृत नहीं होता। अणु : पुद्गल के मुख्यतया दो भेद होते हैं-अणु और स्कन्ध । पुद्गल का वह अन्तिम भाग जिसका फिर विभाग न हो सके, अगु कहलाता है। अणु इतना सूक्ष्म होता है कि वही अपना आदि, मध्य और अन्त है।' अणु के अन्दर इन सबका कोई भेद नहीं होता। पुद्गल का सबसे छोटा हिस्सा अणु है । उससे कोई छोटा नहीं हो सकता । ग्रीक दार्शनिक जेनो ने एक शंका उठाई थी कि पुद्गल का अन्तिम विभाग हो ही नहीं सकता। आप उसका कितना भी छोटे से छोटा विभाग करें, वह रूपादि युक्त होगा, अतः उसका फिर विभाग हो सकता है । वह विभाग १. अन्तादि अन्तमज्झ, अन्तन्तं व इन्दिए गेज्झ । जं दव्वं अविभागी, तं परमाणु विजाणीहि ॥ --तत्त्वार्थ राजवातिक, ५. २५. १. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन भी उसी प्रकार रूपादि गुणों से युक्त होगा, इसलिए उसका फिर विभाग हो सकेगा। इस प्रकार अनवस्था का सामना करना पड़ेगा। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि पुद्गल का सबसे छोटा विभाग हो सकता है । जेनो की इस धारणा का खण्डन करते हुए एरिस्टोटल ने उत्तर दिया कि ज़ेनो की यह धारणा कि किसी चीज का अन्तिम विभाग नहीं हो सकता, भ्रान्त है । यह ठीक है कि कल्पना से किसी वस्तु का विभाग किया जाय तो उसका अन्त नहीं आ सकता किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता। जब हम किसी वस्तु का वास्तविक विभाग करते हैं तब वह विभाग कहीं-न-कहीं जाकर अवश्य रुक जाता है। उससे आगे उसका विभाग नहीं हो सकता। काल्पनिक विभाग के विषय में यह कहा जा सकता है कि उसका कोई अन्त नहीं आ सकता। यही समाधान जैन दर्शनादिसम्मत परमाणु के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। . स्पर्शादि गुणों का एक अणु में किस मात्रा में अस्तित्व रहता है ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि अणु में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं। अणु स्वयं शब्द नहीं है किन्तु शब्द का कारण अवश्य है। जो स्कन्ध से भिन्न है किन्तु स्कन्ध को बनानेवाला है।' इस कथन का तात्पर्य यह है कि एक अणु में उपर्युक्त स्पर्शादि गुणों के बीसों प्रकार नहीं रहते किन्तु स्पर्श के दो प्रकार जो परस्पर विरोधी न हों, रस का एक प्रकार, गन्ध का एक प्रकार, वर्ण का एक प्रकार-इस तरह पाँच प्रकार रहते हैं। एक निरंश परमाणु में इनसे अधिक प्रकार नहीं रह सकते । मृदु और कठिन, गुरु और लघु ये चारों स्पर्श अणु में नहीं होते क्योंकि ये चारों १. पंचास्तिकायसार, ८८. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार १८५ गुण सापेक्ष हैं अतः स्कन्ध में ही हो सकते हैं । अणु शब्द नहीं है क्योंकि शब्द के लिए अनेक अणुओं की आवश्यकता रहती है । स्कन्ध भी एक से अधिक अणु का होता है अतः अणु और स्कन्ध में भेद है । अणु हमारी इन्द्रियों के विषय नहीं बन सकते । वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी इन्द्रियाँ उनका ज्ञान नहीं कर सकतीं । यदि ऐसी बात है तो उन्हें अरूपी क्यों न मान लिया जाय ? अणु अरूपी नहीं हैं क्योंकि उनका स्कन्धादि कार्य रूपी है । जो तत्त्व अरूपी होता है उसका कार्य भी अरूपी ही होता है । स्कन्धादि रूपी कार्यों से परमाणु के रूप का अनुमान किया जाता है । इसलिए इन्द्रियजन्य ज्ञान के विषय न होते हुए भी अणु रूपी हैं। जैन दर्शन मानता है कि स्कन्ध से जो अणु पैदा होते हैं वे भेदपूर्वक हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जो पुद्गल वर्तमान में अणुरूप से सत् नहीं हैं वह अणु हो सकता है या नहीं ? यदि हो सकता है तो कैसे ? पुद्गल के दो रूप बताये जा चुके हैं । उनमें से जो पुद्गल अणुरूप में रहा हुआ है उसकी उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता । जो पुद्गल अणुरूप में नहीं है अपितु स्कन्धरूप में है वह क्या अणुरूप में आ सकता है ? इसका उत्तर है- हाँ, वह अणुरूप में आ सकता है । यह कैसे ? इसके उत्तर में कहा गया है कि भेदपूर्वक । जब स्कन्ध में भेद होता है-स्कन्ध टूटता है तभी अणु पैदा हो सकता है । स्कन्ध का एक अविभागी अंश ही अणु है । इस प्रकार स्कन्ध का भेद ही अणु की उत्पत्ति में कारण है। संयोग से अणु उत्पन्न १. भेदादणु तत्वार्थ सूत्र, ५.२७. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ण, रस और गायुक्त ही मानतब्य में आ जाते जन गुणों १०६ जैन धर्म-दर्शन नहीं हो सकता क्योंकि जहाँ संयोग होगा वहाँ कम-से-कम दो अणु अवश्य होंगे और दो अणुवाला स्कन्ध होता है, न कि अणु । वैशेषिक नौ द्रव्य मानते हैं-पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ।' इन नौ द्रव्यों में से प्रथम चार अर्थात् । पृथ्वी, अप्, तेज और वायु-इनमें जिन गुणों को मानते हैं वे सब गुण पुद्गल द्रव्य में आ जाते हैं। वैशेषिक वायु को स्पर्श गुणयुक्त ही मानते हैं। वे कहते हैं कि वायु में वर्ण, रस और गन्ध नहीं हैं । जैन दार्शनिक इस बात को नहीं मानते । वे कहते हैं कि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सहचारी हैं । जहाँ इन चारों में से एक भी गुण की प्रतीति होती हो वहाँ शेष तीन गुण भी अवश्य रहते हैं। उनकी सूक्ष्मता के कारण चाहे स्पष्ट प्रतीति न होती हो किन्तु उनका सद्भाव वहाँ अवश्य होता है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चारों गुण प्रत्येक भौतिक द्रव्य में रहते हैं। वायु में रूप होता है क्योंकि वह स्पर्शाविनाभावी है, जैसे घट में रूप है क्योंकि वहाँ स्पर्श है। रूप होते हुए भी रूप का ग्रहण क्यों नही होता? क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रियाँ स्थूल विषय का ग्रहण करती हैं। जैसे सूक्ष्म गन्ध के रहते हुए भी घ्राणेन्द्रिय से उसका ग्रहण नहीं होता उसी प्रकार वायु में सूक्ष्म रूप रहता है तथापि चक्षुरिन्द्रिय उसका ग्रहण नहीं कर सकती। जैनों की यह मान्यता आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी सच्ची उतरती है । विज्ञान मानता है कि 'निरंतर ठंडा करते रहने से वायु एक प्रकार के नीले रस में परिवर्तित हो जाता है जिस प्रकार कि वाष्प पानी के रूप में परि१. वैशेषिकदर्शन, १.१.५. २. वही, २.१.४. . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार . १८७ वर्तित किया जा सकता है।' जब वायु में रूप सिद्ध हो जाता हैं तो रस और गंध तो सिद्ध हो ही जाते है । वैशेषिक तेज में रस और गन्ध नहीं मानते । वे कहते हैं कि तेज में स्पर्श और रूप ही होता है । यह धारणा भी मिथ्या है। तेज-अग्नि भी एक प्रकार का पुद्गल द्रव्य है इसलिए उसमें चारों गुण होते हैं। विज्ञान भी इस बात को मानता है कि अग्नि एक भौतिक द्रव्य है और उसमें उष्णता का अंश अधिक रहता है। __गन्ध केवल पृथ्वी में ही है, ऐसा वैशेषिकों का विश्वास है। यह भी ठीक नहीं। हमें साधारण तौर से वायु, अग्नि आदि में गंध की प्रतीति नहीं होती। इसके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि इनमें गंध है ही नहीं। चींटी जितनी आसानी से शक्कर की गंध का पता लगा लेती है उतनी आसानी से हम नहीं लगा सकते । बिल्ली जितनी सरलता से दही और दूध की गंध के आधार पर वहाँ तक पहुँच जाती है उतनी सरलता से हमलोग नहीं पहुंच सकते। इसका अर्थ यही है कि किसी की इंद्रियशक्ति इतनी तीव्र होती है कि वह बहुत दूर से साधारण सी वस्तु की गंध का पता लगा लेता है। किसी की इन्द्रियशक्ति इतनी मन्द होती है कि उसे तीव्र गंध का भी पता नहीं लग सकता। इसी प्रकार वायु, पानी, अग्नि आदि में गंध की साधारणतया प्रतीति नहीं होती तथापि उनमें रूप, रस आदि की तरह गंध भी होती है। वैशेषिक दर्शन जिस प्रकार पृथ्वी आदि द्रव्यों में भिन्न गुण मानता है उसी प्रकार भिन्न द्रव्यों के भिन्न परमाणु भी मानता 1. Air can be converted bluish liquid by continuous cooling, just as steam can be converted into water. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन धर्म-दर्शन है । पृथ्वी के परमाणु अलग हैं, पानी के परमाणु अलग हैं, तेज . के परमाणु अलग हैं और वायु के परमाणु अलग हैं। ये सारे परमाणु एक-दूसरे से भिन्न हैं । पृथ्वी के परमाणु पानी के परमाणु नहीं बन सकते, पानी के परमाणु पृथ्वी के परमाणुओं में परिवर्तित नहीं हो सकते आदि। यह वैशेषिक दर्शन का परमाणुनित्यवाद है । सब द्रव्यों के परमाणु नित्य होते हैं। उनका कार्य बदलता रहता है किन्तु वे कभी नहीं बदलते । जैन दर्शन ऐसा नहीं मानता । पृथ्वी आदि किसी भी.. पुद्गल द्रव्य के परमाणु अप् आदि रूपों में परिणत हो सकते हैं । परमाणुओं के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। नये-नये स्कन्धों के भेद से नये नये परमाण बनते रहते हैं। किसी अन्य स्कन्ध में मिल जाने पर वे उस स्कन्ध के समान हो जाते हैं और पुन: भेद होने पर उस नये रूप में रहने लग जाते हैं। परमाणुओं की ऐसी जातियाँ नहीं बनी हुई हैं जिनमें वे. नित्य रहते हों। एक परमाणु का दूसरे रूप में बदल जाना साधारण बात है । वैशेषिकों के परमाणु-नित्यवाद में जैन दर्शन विश्वास नहीं रखता। ग्रीक दार्शनिक ल्युसिपस और डेमोक्रिटस भी इसी तरह परमाणुओं में भेद नहीं मानते। वे सब परमाणुओं को एक जाति का मानते हैं। वह जाति है भूतसामान्य या जड़सामान्य । समीक्षा--पुद्गल का अविभाज्य अंश अणु अथवा परमाणु कहलाता है । अणु इतना सूक्ष्म होता है कि उसका कोई विभाग नहीं हो सकता। वह पुद्गल का सूक्ष्मतम एवं अन्तिम भाग होता है। उसकी सूक्ष्मता का अनुमान इसी से हो सकता है कि वही अपना आदि है, वही अपना मध्य है और वही अपना अन्त है। दूसरे शब्दों में, परमाणु इतना सूक्ष्म होता है कि उसके आदि, मध्य और अन्त जैसे विभाग नहीं हो सकते। उसकी Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ तस्वविचार आदि ही उसका मध्य होता है एवं मध्य ही अन्त। उसके आदि, मध्य और अन्त–तीनों एक ही होते हैं। जब वह इतना सूक्ष्म है तो स्वाभाविक है कि उसका इन्द्रियों से ज्ञान नहीं हो सकता अर्थात् वह इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य है । ___ क्या पुद्गल का अन्तिम अर्थात् सूक्ष्मतम विभाग हो सकता है ? किसी पदार्थ का छोटा-से-छोटा विभाग कीजिये। वह विभाग रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श से युक्त होगा अतः उसका पुनः विभाग हो सकेगा। वह विभाग भी उसी प्रकार रूपादि गुणों से युक्त होगा अतः उपका भी पुनः विभाग हो सकेगा। इस प्रकार यह प्रक्रिया चलती ही जाएगी। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत जो भी विभाग होगा वह रूपादियुक्त होगा। अतएव उसका पुनः विभाग हो सकेगा। ऐसी स्थिति में अन्तिम अर्थात् अविभाज्य अंश जैसी कोई वस्तु होगी ही नहीं। इस शंका का समाधान यों किया जा सकता है : कल्पना से किसी वस्तु का विभाग किया जाय तो उसका अन्त नहीं आ सकता, किन्तु वास्तविक विभाग करने पर ऐसा नहीं हो सकता । जब किसी वस्तु का वास्तविक विभाग किया जाता है तब वह विभाग कहीं-न-कहीं जाकर अवश्य रुक जाता है अर्थात् उस विभाग का किसी-न-किसी रूप में अन्त अवश्य आता है। उससे आगे उसका विभाग नहीं हो सकता। यह अन्तिम विभाग ही अगु अथवा परमाणु कहलाता है। पुद्गल मूर्त अर्थात् रूपी है अतः परमाणु भी रूपी ही माना गया है क्योंकि रूपी का विभाग रूपी ही होगा, अरूपी नहीं। जब परमाणु रूपी है तब वह इन्द्रियों का विषय क्यों नहीं बनता ? परमाणु रूपी होते हुए भी इन्द्रियों से इसलिए नहीं जामा जाता कि वह अति सूक्ष्म है । उसका इन्द्रियों से सम्पर्क Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैन धर्म-दर्शन होते हुए भी इन्द्रियाँ उसका ज्ञान करने में असमर्थ होती हैं। उदाहरणार्थ चीनी का एक छोटा-सा दाना मुंह में रहने पर भी जिह्वा को उसके स्वाद का संवेदन नहीं होता । ऐसा होते हुए भी चीनी के उस दाने को स्वादयुक्त मानना ही होगा क्योंकि वैसे दानों की अधिकता होने पर रसनेन्द्रिय को स्वाद की स्पष्ट अनुभुति होनी है। इसी प्रकार परमाणुओं के समुदाय का इन्द्रिय-संवेदन होने के कारण एक परमाणु को भी मृत ही मानना चाहिए । जो अमूर्त होता है वह कदापि मूर्त नहीं हो सकता, जैसे आत्मतत्त्व । पौद्गलिक अर्थात् भौतिक पदार्थ सामान्यतया चार प्रकार के माने गये हैं : पृथ्वी, अप, तेज और वायु । कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि इन चारों तरह के पदार्थों के परमाणु भित्रभिन्न जाति के होते हैं । वे कदापि एक-दूसरे में परिवर्तित नहीं हो सकते । पृथ्वी के परमाणु हमेशा पृथ्वी के रूप में ही रहेंगे। वे कदापि जल आदि के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकते । इसी प्रकार जल आदि के परमाणु पृथ्वी आदि के रूप में नहीं बदल सकते । जैन दर्शन इस प्रकार के ऐकान्तिक परमाणु नित्यवाद में विश्वास नहीं करता। वह मानता है कि पृथ्वी आदि पुद्गल द्रव्य के ही विभिन्न रूप है । उनके परमाणु इतने विलक्षण नहीं हैं कि एक-दूसरे के रूप में परिवर्तित न हो सकें। पृथ्वी आदि किसी भी पौद्गलिक रूप के परमाणु अप् आदि किसी भी पौद्गलिक रूप में यथासमय परिणत हो सकते हैं । परमाणुओं के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। परमाणुओं की नित्य जातियाँ अथवा प्रकार नहीं हैं । एक प्रकार के परमाणु जब दूसरे प्रकार के पदार्थ ( स्कन्ध ) में मिलकर तद्रूप होकर पुनः परमाणुओं के रूप में आते हैं तब उनका रूप उस पदार्थ के अनुरूप होता है। इस प्रकार पदार्थों के रूपों के अनुसार परमाणुओं Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार १९१ के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। नये-नये पदार्थों के विभाजन से नये-नये परमाणु बनते रहते हैं। वस्तुतः समस्त परमाणुओं की एक ही जाति है और वह है पुद्गल अथवा भूत । जैन दर्शन की एक मान्यता यह है कि एक आकाश-प्रदेश में अर्थात् एक परमाणु-प्रमाण स्थान में अनन्त परमाण रह सकते हैं । यह कैसे? परमाणुओं में सूक्ष्मभाव की परिणति होने के कारण ऐसा होता है । सूक्ष्मभाव से परिणत अनन्त परमाणु एक आकाश-प्रदेश में रहते हैं : परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेणेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते । इस मान्यता में विरोध की प्रतीति होती है। परमाणु पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश है। यदि सूक्ष्मतम की भी सूक्ष्मभाव से परिणति होने लगे तो उसे सूक्ष्मतम कहने का कोई अर्थ ही नहीं रहता। जो परमाणु अविभाज्य है, जिसके आदि, मध्य और अन्त एक ही हैं वह सूक्ष्मभाव से कैसे परिणत होगा? किसी वस्तु के सूक्ष्मभाव से परिणत होने के दो ही रूप होते हैं : १. उसके किसी अंश का विच्छेद होना, २. उसका संकुचित होना । परमाणु में इनमें से किसी भी रूप के सद्भाव की संभावना नहीं है। परमाणु निरंश एवं अविभाज्य है अतः उसके किसी अंश के विच्छेद का प्रश्न नहीं उठता। वह संकुचित भी नहीं हो सकता क्योंकि संकुचन लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊंचाई सापेक्ष है। जिसकी न कोई लम्बाई है, न कोई चौड़ाई है और न कोई ऊंचाई है वह संकुचित कैसे हो सकता है ? संकुचन अथवा प्रसरण न तो आकाश के एक प्रदेश में संभव है और न पुद्गल के एक परमाणु में ही । आकाश के अनेक प्रदेश एवं पुद्गल के अनेक परमाणु विद्यमान होने पर ही संकुचन-प्रसरण की शक्यता होती है। ऐसी स्थिति में एक आकाश-प्रदेश में अनन्त परमाणु माणु में इनम निरंश एवं आता । वह सचाई सापेक्ष है। चन लम्बा। कोई चौडा संकुचन पुदगल . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन धर्म-दर्शन तो क्या, दो परमाणु भी नहीं रह सकते । आकाश के जिस एक प्रदेश में कोई एक परमाणु स्थित हो उस प्रदेश में अन्य परमाणु आ ही कैसे सकता है क्योंकि वहाँ उसके लिए न तो स्थान ही रिक्त है और न पूर्वस्थित परमाणु किसी प्रकार की गुंजाइश ही कर सकता है । वह प्रदेश नवागन्तुक परमाणु को तभी प्राप्त हो सकता है जब पूर्वस्थित परमाणु वहाँ से हट जाय । जब एक परमाणु ने किसी प्रदेश को ( सर्वतः ) व्याप्त कर रखा है तब दूसरा परमाणु वहाँ रह ही कैसे सकता है ? उस प्रदेश में या तो पहले वाला परमाणु ही रहेगा या बाद वाला ही । दोनों एक साथ वहाँ नहीं रह सकते क्योंकि वह पूरा स्थान एक के लिए ही है तथा रहने वाले में यह सामर्थ्य भी नहीं है कि वह अन्य को अपने साथ रख सके । एक प्रदेश का अर्थ ही है एक परमाणु जितना स्थान | स्कन्ध : यह पहले कहा जा चुका है कि स्कन्ध अणुओं का समुदाय है । स्कन्ध तीन तरह से बनते हैं-भेदपूर्वक, संघात - पूर्वक और भेद और संघात उभयपूर्वक । " ૨ भेद दो कारणों से होता है -- आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर कारण से जो एक स्कन्ध का भेद होकर दूसरा स्कन्ध बनता है उसके लिए किसी बाह्य कारण की अपेक्षा नहीं रहती । स्कन्ध में स्वयं विदारण होता है । बाह्य कारण से होनेवाले भेद के लिए स्कन्ध के अतिरिक्त अन्य कारण की १. भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते । - तत्त्वार्थ सूत्र, ५.२६. २. सर्वार्थसिद्धि ५. २६. 1 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १९३ आवश्यकता रहती है । उस कारण के होने पर उत्पन्न वाले होने भेद को बाह्य कारणपूर्वक कहा गया है। विविक्त अर्थात् पृथक् भूतों का एकीभाव संघात है। यह बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का हो सकता है। दो पृथक-पृथक् अणुओं का संयोग संघात का उदाहरण है। जब भेद और संघात दोनों एक साथ होते हैं तब जो स्कन्ध बनता है वह भेद और संघात उभयपूर्वक होनेवाला स्कन्ध कहा जाता है। जैसे ही एक स्कन्ध का एक हिस्सा अलग हुआ और उस स्कन्ध में उसी समय दूसरा स्कन्ध आकर मिल गया जिससे एक नया स्कन्ध बन गया । यह नया स्कन्ध भेद और संघात उभयपूर्वक है। इस प्रकार स्कन्ध के निर्माण के तीन मार्ग हैं। इन तीन मार्गों में से किसी भी मार्ग से स्कन्ध बन सकता है । कभी केवल भेद से ही स्कन्ध बनता है तो कभी केवल संघातपूर्वक ही स्कन्ध का निर्माण होता है तो कभी भेद और संघात उभयपूर्वक स्कन्ध निर्मित होता है। } संघात अथवा बन्ध कैसे होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में जैन दार्शनिक कहते हैं कि 'पुद्गल में स्निग्धत्व और रूक्षत्व के कारण बन्ध होता है ।'' स्निग्ध और रूक्ष दो स्पर्श हैं। इन्हीं के कारण पुद्गल में बंध होता है । बन्ध के लिए निम्नलिखित बातें जरूरी हैं :२ १. स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः।-तत्त्वार्थ सूत्र, ५.३२. २. न जघन्य गुणानाम् । गुणसाम्ये सदशानाम् । । द्वयधिकादिगुणानां तु । -वहीं, ५.३३-३५. १३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन १. जघन्य गुणवाले अवयवों का बन्ध नहीं होता। २. समानगुण होने पर सदृश अर्थात् स्निग्ध से स्निग्ध . अवयवों का तथा रूक्ष से रूक्ष अवयवों का बन्ध नहीं होता। ३. द्वयधिकादि गुणवाले अवयवों का बन्ध होता है । बन्ध के लिए सर्वप्रथम बात यह है कि जिन परमाणुओं में स्निग्धत्व या रूक्षत्व का अंश अर्थात् गुण जघन्य हो उनका पारस्परिक बंध नहीं हो सकता । इसका अर्थ यह हुआ कि मध्यम और उत्कृष्ट गुणवाले स्निग्ध और रूक्ष अवयवों का पारस्परिक बंध हो सकता है । इस सिद्धांत को पुनः सीमित करते हुए दूसरी बात कही गई। उसके अनुसार समान गुणवाले सदृश अवयवों का पारस्परिक बन्ध नहीं हो सकता । इसका अर्थ यह हुआ कि असमान गुणवाले सदेश अवयवों का बन्ध हो सकता है। इसका निषेध करते हुए तीसरा सिद्धान्त स्थापित किया गया। इसके अनुसार असमान गुणवाले सदृश अवयवों में भी यदि एक अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व दो गुण, तीन गुण आदि अधिक हो तो उन दो सदृश अवयवों का बन्ध हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक अवयव के स्निग्धत्व या रूक्षत्व की अपेक्षा दूसरे अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व केवल एक गुण अधिक हो तो उनका बन्ध नहीं हो सकता, अन्यथा उनका बन्ध हो सकता है। बन्ध की इस चर्चा का जब और स्पष्ट विवेचन किया जाता है तब हमारे सामने दो परम्पराएं उपस्थित होती हैं । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दो परमाणु जब जघन्य गुणवाले हों तभी उनका बन्ध निषिद्ध है। यदि एक परमाणु जघन्य गुण वाला हो और दूसरा जघन्यगुण न हो तो उनका बन्ध हो सकता है । दिगम्बर मान्यता के अनुसार जघन्य गुणवाले एक भी परमाणु के रहते हुए बन्ध नहीं होता । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १९५ एक अव पव से दूसरे अवयव में स्निग्धत्व या रूक्षत्व के दो, तीन, चार, यावत् अनन्त गुण अधिक होने पर भी बन्ध हो जाता है, केवल एक अंश अधिक होने पर बन्ध नहीं होता। दिगम्बर मान्यता के अनुसार केवल दो गुण अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है । एक अवयव से दूसरे अवयव में स्निग्धत्व या रूक्षत्व तीन, चार यावत् अनन्त गुण अधिक होने पर बन्ध नहीं माना जाता । श्वेताम्बर परम्परा की धारणा के अनुसार दो, तीन आदि गुणों के अधिक होने पर जो बन्ध का विधान है वह सदृश अवयवों के लिए ही है, असदृश अवयवों के लिए नहीं। दिगम्बर धारणा के अनुसार यह विधान सदृश और असदृश दोनों प्रकार के अवयवों के लिए है। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के बन्ध-विषयक मतभेद का सार' निम्नलिखित है : श्वेताम्बर-परम्परा विसदृश नहीं the ho गुण सदश १-जघन्य+जधन्य२-जघन्य+एकाधिक ३-जघन्य+द्वयधिक ४-जघन्य + अधिकादि ५--जघन्येतर+ समजघन्येतर नहीं ६-जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर नहीं । ७-जघन्येतर + द्वयधिक जघन्येतर है ८-जघन्येतर + व्यधिकादि जघन्येतर है। to the to to to sto do १. तत्त्वार्थसूत्र (पं० सुखलाल संघवी), पृ० २०२-२०३. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन गुण नहीं नहीं नहीं नहीं दिगम्बर-परम्परा सदृश विसदृश १-जघन्य+जघन्य २-जघन्य+ एकाधिक ३-जघन्य+द्वधिक ४-जघन्य+यधिकादि ५-अघन्येतर+समजघन्येतर नहीं ६-जघन्ये तर+एकाधिक जघन्येतर नहीं ७--जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर है ८-जघन्येतर +त्र्यधिकादि जघन्येतर नहीं बन्ध हो जाने पर कौन से परमाणु किन परमाणुओं में परिणत होते हैं ? सदृश और विसदृश परमाणुओं में से कौन किसको अपने में परिणत करता है ? समान गुणवाले सदृश अवयवों का तो बन्ध होता ही नहीं। विसदृश बन्ध के समय कभी एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत कर लेता है, कभी दूसरा सम पहले को अपने रूप में बदल लेता है । द्रव्य, क्षेत्रादि का जैसा संयोग होता है वैसा हो जाता है । इस प्रकार का बन्ध एक प्रकार का मध्यम बन्ध है। अधिक गुण और हीनगुण के बन्ध के समय अधिक गुणवाला हीन गुणवाले को अपने रूप में परिणत कर लेता है। जिस परम्परा में समान गुण का पारस्परिक बन्ध कतई नहीं होता वहाँ अधिकगुण हीनगुण को अपने रूप में परिणत कर लेता है, यही मानना काफी है।। पुद्गल द्रव्य के अणु और स्कन्ध ये दो मुख्य भेद हैं । इन १. बन्धे समाधिको पारिणामिको।-तत्त्वार्थसूत्र, ५.३६. २. बन्धेऽधिको पारिणामिको ।-वही, ५.३७. . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १६७ भेदों के आधार से बनने वाले छ: भेदों का भी वर्णन मिलता है।' ये छः भेद निम्नलिखित हैं - १. स्थूलस्थूल-मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि ठोस पदार्थ इस श्रेणी में आते हैं। २. स्थूल-दूध, दही, मक्खन, पानी, तैल आदि द्रव पदार्थ स्थूल विभाग के अन्तर्गत हैं । ३. स्थूलसूक्ष्म-प्रकाश, विद्युत्, उष्णता आदि अभिव्यक्तियाँ स्थूलसूक्ष्म कोटि में आती हैं। ४. सूक्ष्मस्थूल-वायु, वाष्प आदि सूक्ष्मस्थूल भेद के अन्तर्गत हैं। . ५. सूक्ष्म-मनोवर्गणा आदि अचाक्षुष (जो चक्षुरादि इन्द्रियों के विषय नहीं हैं ) स्कन्ध सूक्ष्म हैं। ६. सूक्ष्मसूक्ष्म-अन्तिम निरंश पुद्गल-परमाणु सुक्ष्मसूक्ष्म कोटि में आते हैं। जो पुद्गल-स्कन्ध अचाक्षुष है वह भेद और संघात से चाक्षुष होता है । जब किसी स्कन्ध में सूक्ष्मत्व की निवृत्ति होकर स्थूलत्व की उत्पत्ति होती है तब कुछ नये परमाणु उस स्कन्ध में अवश्य मिलते हैं। इतना ही नहीं अपितु कुछ परमाणु उस स्कन्ध में से अलग भी हो जाते हैं। मिलना और अलग होना, यही संघात और भेद है। इसीलिए यह कहा गया है कि अचाक्षुष से चाक्षुष होने के लिए भेद और संघात दोनों अनिवार्य हैं। पुद्गल का कार्य : स्थूल-स्थूल, स्थूल, स्थूल-सूक्ष्मादि भेदों का सामान्य परिचय दिया जा चुका है। यहाँ पुद्गल के कुछ विशिष्ट कार्यों का परिचय १. नियमसार, २१. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन धर्म-दर्शन देने का प्रयत्न करेंगे। वे कार्य हैं- शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत ।" शब्द : वैशेषिक आदि भारतीय दर्शन शब्द को आकाश का गुण मानते हैं । सांख्य शब्द तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानता है । जैन दर्शन इन दोनों मान्यताओं को मिथ्या सिद्ध करता है । आकाश पौद्गलिक नहीं है अतः शब्द, जोकि पौद्गलिक है, इन्द्रियों का विषय बनता है, आकाश से कैसे उत्पन्न हो सकता है ? शब्दतन्मात्रा से भी आकाश की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि शब्द पौद्गलिक है अतः शब्द - तन्मात्रा भी पौद्गलिक ही होनी चाहिए और यदि शब्द - तन्मात्रा पौद्गलिक है तो उससे उत्पन्न होने वादा आकाश भी पौद्गलिक होना चाहिए, किन्तु आकाश पौद्गलिक नहीं है अतः शब्द - तन्मात्रा से आकाश उत्पन्न नहीं हो सकता । जब एक पौद्गलिक अवयव का दूसरे पौद्गलिक अवयव से संघर्ष होता है तब शब्द उत्पन्न होता है । अकेला स्कन्ध शब्द उत्पन्न नहीं कर सकता तब अकेला परमाणु शब्द कैसे पैदा कर सकता है ? 'परमाणु का रूप अत्यन्त सूक्ष्म होता है । वह पृथ्वी, अप्, तेज और वायु का कारण है और अशब्दात्मक है । शब्द का कारण स्कन्धों का परस्पर में टकराना है ।" अतः शब्द पुद्गल का कार्य है । शब्द दो प्रकार का है -- भाषालक्षण और तद्विपरीत अभाषालक्षण । भाषा-लक्षण दो प्रकार का है - अक्षरीकृत और अनक्षरी१. शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभे दतमश्छायातपोद्द्योतवन्तश्च । - तत्त्वार्थ सूत्र, ५.२४. २. पंचास्तिकायसार, ८५-८६. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार १६९ कृत । अक्षरीकृत मनुष्य आदि की स्पष्ट भाषा है और अनक्षरीकृत द्वीन्द्रियादि प्राणियों की अस्पष्ट भाषा है। भाषा-लक्षण प्रायोगिक ही है। अभाषालक्षण के दो भेद हैं--प्रायोगिक और वैनसिक । वस्त्रसिक शब्द बिना किसी आत्म-प्रयत्न के उत्पन्न होता है। बादलों की गर्जना आदि वैनसिक है । प्रायोगिक शब्द के चार प्रकार हैं -तत, वितत, धन और सौषिर । चर्म से बने वाद्य मृदंग, पटह आदि से उत्पन्न होनेवाला शब्द तत कहलाता है। तारवाले वाद्य वीणा, सारंगी आदि से पैदा होनेवाला शब्द वितत है। . घंटा, ताल आदि से उत्पन्न शब्द घन कहलाता है । फूंक कर बजाये जानेवाले शंख, बंसी आदि से पैदा होनेवाला शब्द सौषिर कहलाता है।' बन्ध: __ वैनसिक और प्रायोगिक भेद से बंध भी दो प्रकार का है। वनसिक बंध के पुनः दो भेद होते हैं-आदिमान और अनादि । स्निग्ध और रूक्ष गुण-निर्मित विद्युत्, उल्का, जलधार, अग्नि, इन्द्रधनुरादिविषयक बन्ध आदिमान है। धर्म, अधर्म और आकाश का जो बन्ध है वह अनादि है । प्रायोगिक बन्ध दो प्रकार का है : अजीवविषयक और जीवाजीवविषयक । जतुकाष्ठादि का बन्ध अजीवविषयक है । जीवाजीवविषयक बन्ध कर्म और नोकर्म के भेद से दो प्रकार. का है। ज्ञानावरणादि आठ प्रकार का बन्ध कर्म-बन्ध है । औदारिकादि-विषयक बन्ध नोकर्म बन्ध है। १. तत्त्वार्थ राजवातिक, ५. २४. २-६. २. वही, ५. २४. १०-१३. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन धर्म-दर्शन सौम्य : सौक्षम्य दो प्रकार का है-अन्त्य और आपेक्षिक ।' परमाण की सूक्ष्मता अन्त्य है क्योंकि उससे अधिक सूक्ष्मता नहीं हो सकती। अन्य पदार्थों की सूक्ष्मता आपेक्षिक है, जैसे केले से आंवला छोटा है, आँवले से वेर छोटा है आदि । स्थौल्य : स्थौल्य भी अन्त्य और आपेक्षिक के भेद से दो प्रकार का है। जगद्व्यापी महास्कन्ध अन्त्य स्थौल्य है । बेर, आँवला, केला आदि स्थौल्य आपेक्षिक हैं। संस्थान : इत्थंलक्षण और अनित्थं लक्षण के भेद से संस्थान दो प्रकार का है । व्यवस्थित आकृति इत्थं लक्षण है। मेघादि की तरह अव्यवस्थित आकृति अनित्थंलक्षण है। भेद: भेद के छः प्रकार हैं-उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन । करपत्रादि से काष्ठादि का चीरना उत्कर है। गेहूँ, जौ आदि का आटा चूर्ण है। घटादि के टुकड़ों को खण्ड कहते हैं। चावल, दाल आदि के छिलके निकलना चूणिका है । अभ्रपटलादि का अलग होना प्रतर है । तप्तलोहे के पिण्ड को घनादि से पीटने पर स्फुलिंग का निकलना अणुचटन है । १. वही, ५. २४. १४. २. वही, ५. २४, १५. .. ३. वही, ५. २४. १६. ४. वही, ५. २४. १८: Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २०१ तम: तम दृष्टि के प्रतिबन्ध का एक कारण है । यह प्रकाश का विरोधी है । नैयायिकादि तम को स्वतन्त्र भावात्मक द्रव्य न मान कर प्रकाश का अभाव मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार तम . अभाव मात्र नहीं है, अपितु प्रकाश की ही भांति भावात्मक द्रव्य है । जैसे प्रकाश में रूप है उसी प्रकार तम में भी रूप है, अतः तम प्रकाश को ही तरह भावरूप है। जिस प्रकार प्रकाश का भासुर रूप और उष्ण स्पर्श लोक में प्रसिद्ध है उसी प्रकार अन्धकार का कृष्ण रूप और शीत स्पर्श लोक की प्रतीति का विषय है । तम द्रव्य है क्योंकि उसमें गुण हैं । जो जो गुणवान् होता है वह वह द्रव्य होता है, जैसे आलोकादि । । छाया: प्रकाश पर आवरण आ जाने से छाया होती है । इसके दो प्रकार हैं-तद्वर्णादि विकार और प्रतिबिम्ब ।' दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में जो मुख का बिम्ब पड़ता है और उसमें आकार आदि ज्यों का त्यों देखा जाता है वह तद्वर्णादि विकाररूप छाया है। अन्य अस्वच्छ द्रव्यों पर प्रतिबिम्ब मात्र का पड़ना प्रतिबिम्वरूप छाया है। आतप: सूर्य, अग्नि आदि का उष्ण प्रकाश आतप है। उद्योतः चन्द्र, मणि, खद्योत आदि का शीत प्रकाश उद्योत है। १. वही, ५. २४. २०-२१. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन धर्म-दर्शन . पुद्गल के कार्यों का यह एक दिग्दर्शन मात्र है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी कार्य हैं, सब पुद्गल के ही समझने चाहिए । शरीर, वाणी, मन, निःश्वास, उच्छ्वास, सुख, दु.ख, जीवन, मरण आदि सभी पुद्गल के ही कार्य हैं ।' कुछ कार्य शुद्ध पौद्गलिक होते हैं और कुछ कार्य आत्मा और पुद्गल दोनों के सम्बन्ध से होते हैं । शरीर, वाणी आदि कार्य आत्मा और पुद्गल के सम्बन्ध से होते हैं। . पुद्गल और आत्मा : . आत्मा पुद्गल से प्रभावित होती है या नहीं? जैन दर्शन यह मानता है कि संसारी आत्मा पुद्गल के बिना नहीं रह सकती। जब तक जीव संसार में भ्रमण करता है तब तक पुद्गल और जीव का सम्बन्ध अविच्छेद्य है। पुद्गल आत्मा को किस प्रकार प्रभावित करता है ? इसका उत्तर, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, यही है कि पुद्गल से ही शरीर का निर्माण होता है, वाणी, मन और श्वासोच्छवास भी पुद्गल के ही कार्य हैं । यही बात जीवकाण्ड में इस प्रकार कही गई है___"पुद्गल शरीर-निर्माण का कारण है। आहारकवर्गणा से औदारिक, वैक्रिय और आहारक ये तीन प्रकार के शरीर बनते हैं तथा श्वासोच्छवास का निर्माण होता है । तेजोवर्गणा से तेजस शरीर बनता है। भाषावर्गणा वाणी का निर्माण करती है। मनोवर्गणा रो मन का निर्माण होता है। कर्मवर्गणा से कार्मण शरीर बनता है ।''३ १. शरीरवाङ मनःप्राणापाना: पुद्गलानाम् । सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ।-तत्त्वार्थ सूत्र, ५. १६-२०. २. गाथा ६०६-६०८.. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २०३ श्वासोच्छ्वास, वाणी और मन का विशेष परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। श्वास को अन्दर खींचना और बाहर निकालना श्वासोच्छवास है। भाषा आदि का व्यवहार वाणी है । मन एक सूक्ष्म आभ्यन्तरिक इन्द्रिय है। वह चक्षुरादि सभी इन्द्रियों के अर्थ का ग्रहण करता है। वैशेषिक दर्शन मन को अणुमात्र मानता है। जैन दर्शन का कहना है कि मन को अणमात्र मानने से सम्पूर्ण इन्द्रिय से अर्थ का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि मन एक अणप्रमाण स्थान पर ही रहता है। मन आशुसंचारी भी नहीं हो सकता क्योंकि वह अचेतन है। अतः मन स्कन्धात्मक है, अणुप्रमाण नहीं। अब हम औदारिकादि पाँच प्रकार के शरीर का स्वरूप देखेंगे। ओवारिक शरीर : तिर्यंच और मनुष्य का स्थूल शरीर औदारिक शरीर है। उदर युक्त होने के कारण इसका नाम औदारिक है। रक्त, मांस आदि इस शरीर के लक्षण हैं। वैक्रिय शरीर : देवगति और नरकगति में उत्पन्न होनेवाले जीवों के वैक्रिय शरीर होता है। लब्धिप्राप्त मनुष्य और तिर्यंच भी इस शरीर को प्राप्त कर सकते हैं । यह शरीर साधारण इन्द्रियों का विषय नहीं होता । विभिन्न आकारों में परिवर्तित होना इस शरीर की विशेषता है। इसमें रक्त, मांस आदि का सर्वथा अभाव होता है। आहारक शरीर : सूक्ष्म पदार्थ के ज्ञान के लिए अथवा किसी शंका के समा . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन धर्म-दर्शन धान के लिए प्रमत्तसंयत ( मुनि ) एक विशिष्ट शरीर का निर्माण करता है । यह शरीर बहुत दूर तक जाता है और शंका-समाधान के साथ पुनः अपने स्थान पर आ जाता है । इसे आहारक शरीर कहते हैं । तेजस शरीर : यह एक प्रकार के विशिष्ट पुद्गल परमाणुओं (तेजोवर्गणा) से बनता है । जठराग्नि की शक्ति इसी शरीर की शक्ति है । यह औदारिक शरीर और कार्मण शरीर के बीच की एक आवश्यक कड़ी है । कार्मण शरीर : आन्तरिक सूक्ष्म शरीर, जो कि मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार की प्रवृत्तियों का मूल है, कार्मण शरीर है । यह आठ प्रकार के कर्मों से बनता है । इन्द्रियों से केवल शेष शरीर इतने नहीं कर सकतीं । उपर्युक्त पांच प्रकारों में से हम अपनी औदारिक शरीर का ज्ञान कर सकते हैं। सूक्ष्म हैं कि हमारी इन्द्रियाँ उनका ग्रहण कोई वीतराग केवली ही उनका प्रत्यक्ष कर सकता है । ये शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं ।" तेजस और कार्मण शरीर का किसी से भी प्रतिघात नहीं होता । वे लोकाकाश में अपनी शक्ति के अनुसार कहीं भी जा सकते हैं । उनके लिए किसी भी प्रकार का बाह्य बन्धन नहीं है । ये दोनों शरीर संसारी आत्मा से अनादिकाल से सम्बन्धित हैं । प्रत्येक जीव के साथ कम से कम ये दो शरीर तो रहते ही हैं । जन्मान्तर के समय ये दो शरीर ही होते हैं । अधिक-से-अधिक एक साथ चार शरीर हो १. तत्त्वार्थसूत्र, २. ३८. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २.५ सकते हैं ।' जब जीव के तीन शरीर होते हैं तो तेजस, कार्मण और औदारिक या तेजस, कार्मण और वैक्रिय, जब चार होते हैं तो तेजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रिय या तेजस, कार्मण, औदारिक और आहारक समझने चाहिए। पाँच शरीर एक साथ नहीं होते क्योंकि वैक्रिय लब्धि और आहारक लब्धि का उपयोग एक साथ नहीं हो सकता । वैक्रिय लब्धि के प्रयोग के समय एवं शरीर बना लेने पर भी नियमतः प्रमत्त दशा होती है.२ किन्तु आहारक शरीर के विषय में यह बात नहीं है। आहारक लब्धि का प्रयोग तो प्रमत्त दशा में होता है, किन्तु आहारक शरीर बना लेने के बाद शुद्ध अध्यवसाय होने के कारण अप्रमत्तावस्था रहती है । अतः एक साथ इन दो शरीरों का रहना सम्भव नहीं। शक्तिरूप से एक साथ पाँचों शरीर रह सकते हैं क्योंकि आहारक एवं वैक्रिय लब्धि का साथ रहना सम्भव है किन्तु उनका प्रयोग एक साथ नहीं हो सकता, अतः पाँचों शरीर अभिव्यक्ति रूप से एक साथ नहीं रह सकते। इस चर्चा के साथ शरीरचर्चा और साथ-ही-साथ पुद्गल-चर्चा भी समाप्त होती है। धर्म : ____ जीव और पुद्गल गति करते हैं । इस गति के लिए किसीन-किसी माध्यम की आवश्यकता है। यह माध्यम धर्म द्रव्य है। चूंकि यह अस्तिकाय है इसलिए इसे धर्मास्तिकाय भी कहते हैं। कोई यह शंका कर सकता है कि गति करने के लिए किसी माध्यम की क्या आवश्यकता है ? क्या जीव और पुद्गल स्वयं गति नहीं कर सकते ? इसका समाधान यह है कि गति तो जीव १. वही, २.४१-४४. २. तत्त्वार्थ भाष्यवृत्ति, २. ४४. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन धर्म-दर्शन और पुद्गल ही करते हैं, किन्तु उनकी गति में जो सहायक कारण है-माध्यम है वह धर्म है। यदि बिना धर्म के भी गति हो सकती तो मुक्तजीव अलोकाकाश में भी पहुंच जाता । अलोकाकाश में आकाश के सिवाय कोई द्रव्य नहीं है । मुक्तजीव स्वभाव से ही ऊर्ध्व गतिवाला होता है। ऐसा होते हुए भी वह लोक के अन्त तक जाकर रुक जाता है, क्योंकि अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय नहीं है। धर्मास्तिकाय के अभाव में गति नहीं हो सकती इसीलिए ऐसा होता है। धर्म का लक्षण बताते हुए राजवातिककार कहते हैं कि स्वयं क्रिया करनेवाले जीव और पुद्गल की जो सहायता करता है वह धर्म है । यह नित्य है, अवस्थित है और अरूपी है । नित्य का अर्थ है तद्भावाव्यय । गति (क्रिया) में सहायता देने रूप भाव से कभी च्युत नहीं होना ही धर्म का तद्भावाव्यय है। अवस्थित का अर्थ है जितने प्रदेश हैं उतने ही प्रदेशों का हमेशा रहना । धर्म के असंख्यातं प्रदेश हैं। ये प्रदेश हमेशा असंख्यात ही रहते हैं । अरूपी का अर्थ पहले बताया जा चुका है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण रहित द्रव्य अरूपी है। धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है । जीवादि की तरह धर्म भिन्न-भिन्न रूप से नहीं रहता अपितु एक अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है। यह सारे लोक में व्याप्त है। लोक का ऐसा कोई भी भाग नहीं है जहाँ धर्म द्रव्य न हो । जब यह सर्वलोकव्यापी है तब यह स्वतः सिद्ध है कि उसे एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। १. तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् ।-तत्त्वार्थसूत्र, १०.५. २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५.१. १६. ३. तत्त्वार्थ सूत्र, ५.४. . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार २०७ गति का अर्थ है एक देश से दूसरे देश में जाने की क्रिया । इसलिए क्रिया को गति भी कह सकते हैं। धर्म इस प्रकार की क्रिया अथवा गति में सहायक है। जिस प्रकार मछली स्वयं तैरती है किन्तु उसकी यह क्रिया बिना पानी के नहीं हो सकती, पानी के रहते हुए ही वह तालाब, कूप या समुद्र में तैर सकती है । पानी सूख जाने पर उसमें तैरने की शक्ति रहते हुए भी वह नहीं तैर सकती । इसका अर्थ यही है कि पानी तैरने में सहायक है । जिस समय मछली तैरना चाहती है उस समय उसे पानी की सहायता लेनी ही पड़ती है । न तैरना चाहे तो पानी उसके साथ बलप्रयोग नहीं करता । बहते हुए पानी का प्रश्न दूसरा है । उसी प्रकार जब जीव या पुद्गल गति करता है तब उसे धर्म द्रव्य की सहायता लेनी पड़ती है । । अधर्म : जिस प्रकार गति में धर्म कारण है उसी प्रकार स्थिति में अधर्म कारण है ।" जीव और पुद्गल जब स्थितिशील होने वाले होते हैं तब अधर्म द्रव्य उनकी सहायता करता है । जिस प्रकार धर्म के अभाव में गति नहीं हो सकती उसी प्रकार अधर्म के अभाव में स्थिति नहीं हो सकती । अधर्म एक अखण्ड द्रव्य है । इसके असंख्यात प्रदेश हैं । धर्म की तरह यह भी सर्वलोकव्यापी है । जिस प्रकार सम्पूर्ण तिल में तेल होता है उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकाकाश में अधर्मास्तिकाय है। एक चलते हुए पथिक के विश्राम में जिस प्रकार एक वृक्ष सहायक होता है उसी प्रकार गति करते हुए जीव और पुद्गल की स्थिति में अधर्म द्रव्य १. नियमसार, ३०. २. लोकाकाशे समस्तेऽपि धर्माधर्मास्तिकाययोः । तिलेषु तैलंवत् प्राहुरवगाहं महर्षयः ॥ - तत्स्वार्थसार, ३.२३. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन सहायक होता है । धर्म और अधर्मं द्रव्य की यह धारणा जन दर्शन की अप्रतिम देन है । २०८ कोई यह शंका कर सकता है कि धर्म और अधर्म मूलतः एक ही द्रव्य के अन्तर्गत हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि ये दोनों लोकाकाश व्यापी हैं अतः दोनों का देश-स्थान एक है। दोनों का परिमाण भी एक है क्योंकि दोनों सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं। दोनों का काल भी एक है क्योंकि दोनों ही का लिक हैं। दोनों ही अमूर्त हैं, अजीव हैं, अनुमेय हैं। इसका समाधान यह है कि इन सारी एकताओं के होने पर भी उन्हें एक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन दोनों के कार्य भिन्न-भिन्न हैं। एक का कार्य गति में सहायता देना है तो दूसरे का स्थिति में सहायक होना है । इस प्रकार दो विभिन्न और विरोधी कार्यों के करते हुए दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? द्रव्यत्व की दृष्टि से भले ही एक हों किन्तु अपने-अपने कार्य या स्वभाव की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं । धर्म और अधर्म अमूर्त द्रव्य हैं, ऐसी स्थिति में वे गति और स्थिति में कैसे सहायक हो सकते हैं ? इसका उत्तर यह है कि सहायता देने की समर्थता के लिए मूर्तता अनिवार्य गुण नहीं माना जा सकता । कोई द्रव्य अमूर्त होकर भी अपना कार्य कर सकता है । उदाहरण के लिए आकाश यद्यपि अमूर्त है फिर भी पदार्थ को आकाश -स्थान देता है । यदि आकाश के लिए अवकाशप्रदानरूप कार्य असम्भव नहीं तो धर्म और अधर्म के लिए गति और स्थिति में सहायतारूप कार्यं क्योंकर कठिन है ? समीक्षा - जीवादि छः तत्त्वों में से जीव और पुद्गल ये दो तत्त्व ऐसे हैं जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं अर्थात् Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २०९ गति करते हैं। गति करनेवाले ये दोनों तत्त्व सदैव गतिशील नहीं होते अर्थात् हमेशा गति नहीं किया करते अपितु कहीं पर रुकते भी हैं अर्थात् स्थितिशील भी होते हैं । इस प्रकार जीव और पुद्गल स्थितिशील तथा गतिशील दोनों ही होते हैं। शेष तत्त्व नित्य अवस्थित हैं । जैन दर्शन गति और स्थिति को जीव तथा पुद्गल की स्वकृत क्रियाएं मानता हुआ भी इनके लिए दो विशेष माध्यम स्वीकार करता है। ये माध्यम हैं धर्म और अधर्म । धर्म गति का माध्यम है' तथा अधर्म स्थिति का। — गति और स्थिति दोनों के लिए दो माध्यम स्वीकार न करते हुए यदि इन दोनों में से किसी एक को जीव और पुदगल का सहज स्वभाव मान लिया जाय तथा शेष एक के लिए केवल एक माध्यम स्वीकार किया जाय तो क्या हानि है ? ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि गति और स्थिति दोनों ही क्रियाएं सहजरूप से जीव एवं पुद्गल में पाई जाती हैं। न केवल स्थिति ही इनका स्वभाव है और न केवल गति ही। किसी समय किसी में स्थिति होती है तो किसी समय किसी में गति । किसी समय कोई स्थिति से गति में आता है तो किसी समय कोई गति से स्थिति में। ऐसा कोई नियम नहीं है कि सब पदार्थ स्वभाव से स्थितिशील ही हों अथवा गतिशील ही। लोक में चारों प्रकार के पदार्थ पाये जाते हैं : १. स्थिति से गति को प्राप्त होनेवाले, २. गति से स्थिति को प्राप्त होनेवाले, ३. सदैव स्थितिशील रहनेवाले, ४. सदैव गतिशील रहनेवाले। स्थिति से गति को तथा गति से स्थिति को प्राप्त होनेवाले पदार्थों के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है। 1. Medium of Motion. 2. Medium of Rest. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन धर्म-दर्शन मुक्त आत्माएं सदैव स्थितिशील रहती हैं। चन्द्र आदि हमेशा गतिशील रहते हैं । अतः गति एवं स्थिति दोनों ही स्वाभाविक हैं, दोनों ही यथार्थ हैं तथा दोनों के लिए दो भिन्न-भिन्न माध्यम मानना युक्तिसंगत है । ___स्वयं गति करनेवाले जीव एवं पुद्गल की जो सहायता करता है वह धर्म है। गति का अर्थ है एक देश से दूसरे देश में अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की क्रिया । धर्म वह तत्त्व है जो इस प्रकार की क्रिया में सहायक होता है । जिस प्रकार मछली स्वयं तैरने की क्रिया करती है किन्तु इसके लिए पानी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीव और पुद्गल स्वयं गति करते हैं किन्तु उसके लिए धर्म का माध्यम आवश्यक होता है। मछली में तैरने का सामर्थ्य होते हुए भी पानी के बिना तैरने की क्रिया नहीं हो सकती। ठीक इसी प्रकार जीव और पुद्गल में गति करने की क्षमता होते हुए भी धर्म द्रव्य के अभाव में गति संभव नहीं होती। धर्म सारे लोक में व्याप्त है। गति के माध्यम के रूप में धर्म द्रव्य का अस्तित्व केवल जैन दर्शन में ही स्वीकार किया गया है अथवा अन्यत्र भी इसका सद्भाव दृष्टिगोचर होता है ? अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों में गति को यथार्थ मानते हुए भी गति के माध्यम के रूप में धर्म जैसे किसी विशेष तत्त्व की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया गया। हां, आधुनिक भौतिक विज्ञान 'ईथर'' के रूप में गति-सहायक एक ऐसा तत्त्व अवश्य मानता है जिसका कार्य धर्म द्रव्य से मिलता-जुलता है। यह तत्त्व 1. Ether. २. न्याय-वैशेषिक दर्शन में आकाश को 'ईथर' कहा जाता है। इसका गुण अथवा कार्य शब्द है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २११ अत्यन्त सूक्ष्म एवं पतले तरल पदार्थ के रूप में है जो सारे जगत में व्याप्त है । अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायता पहुँचाता है । जिस प्रकार धर्म गति में सहायक है उसी प्रकार अधर्म स्थिति में सहायक है। धर्म की तरह अधर्म भी सर्वलोकव्यापी है । जैसे वृक्ष की छाया पथिकों के विश्राम में सहायक होती है वैसे ही अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होता है । धर्म गति का माध्यम अथवा सहायक है, यह बात उदाहरण आदि से स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है किन्तु अधर्म किस प्रकार स्थिति का माध्यम अथवा सहायक है, स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आता । कोई पदार्थ जब गति करता हुआ रुक जाता है तो उसे हम स्थित कहते हैं। जैसे मछली पानी की सहायता से चल रही हो और चलते-चलते पानी में ही रुक जाय तो वह गतिशील न रहकर स्थितिशील हो जायगी । इस स्थिति में उसे पानी के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ की सहायता कैसे मिली ? हां, यदि वह भूमि पर स्थित होती है तो भूमि उसकी स्थिति में सहायक कारण अवश्य मानी जायगी । पथिक और वृक्ष का उदाहरण ही लें। जैसे पानी के बिना मछली का तैरना संभव नहीं क्या वैसे ही वृक्ष की अथवा किसी अन्य प्रकार की छाया के बिना पथिक विश्राम नहीं कर सकता ? इस कठिनाई को दूर करने के लिए एक अन्य उदाहरण भी दिया जाता है । जिस प्रकार पृथ्वी अश्व आदि प्राणियों की स्थिति में सहायक होती है उसी प्रकार अधर्म जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होता है । मूल प्रश्न यह है कि अधर्म स्थिति में किस ढंग से अथवा क्या सहायता करता है ? जैसे यह कहा जा सकता है कि धर्म के Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन धर्म-दर्शन अभाव में गति नहीं हो सकती अर्थात् केवल स्थिति ही रह जायगी, क्या वैसे ही यह भी कहा जा सकता है कि अधर्म के अभाव में स्थिति नहीं हो सकती अर्थात् केवल गति ही रह जायगी ? जैन दर्शन के अनुसार ऐसा ही है । अधर्म द्रव्य के बिना किसी प्रकार की सन्तुलित स्थिति अथवा सन्तुलन' संभव नहीं है । जो तत्त्व पदार्थों के सन्तुलन का माध्यम है अर्थात् जीव और पुद्गल की सन्तुलित स्थिति में सहायक होता है वह अधर्म हूं। कुछ आधुनिक विद्वान् अधर्म की तुलना अथवा समानता गुरुत्वाकर्षण एवं 'फील्ड' के साथ करते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अधर्म इन दोनों से भिन्न एक स्वतन्त्र तत्त्व है जिसकी आवश्यकता केवल जैन दार्शनिकों ने ही महसूस की है। ___ यदि धर्म की तरह अधर्म को भी सर्वव्यापक माना जायगा तो दोनों एक-दूसरे से मिल जायंगे । फिर उनमें क्या भेद रह जायगा? एक से अधिक पदार्थों अथवा तत्त्वों के सर्वव्यापक होने पर भी उनमें अपने-अपने कार्य की दृष्टि से उसी प्रकार भिन्नता रहती है जिस प्रकार कि अनेक दीपकों अथवा बत्तियों के प्रकाशों के एक-दूसरे से मिल जाने पर भी उनमें भिन्नता रहती है तथा वे यथावसर अपना-अपना कार्य करते हैं। परस्पर मिश्रित होते हुए भी उनमें से किसी का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। चूंकि धर्म और अधर्म सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं अतः उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । वे नित्य अवस्थित हैं। आकाश : जो द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता 1.. Equilibrium. 2. Gravity. 3. Field. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार २१३ है-अवगाह देता है वह आकाश है ।' यह सर्वव्यापी है, एक है, अमूर्त है और अनन्त प्रदेशवाला है। इसमें सभी द्रव्य रहते हैं । यह अरूपी है । आकाश के दो विभाग हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । जहाँ पुण्य और पाप का फल देखा जाता है वह लोक है । लोक का जो आकाश है वह लोकाकाश है । जैसे जल के आश्रयस्थांन को जलाशय कहते हैं उसी प्रकार लोक के आकाश को लोकाकाश कहते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आकाश जब एक है-अखण्ड है तब उसके दो विभाग कैसे हो सकते हैं ? लोकाकाश और अलोकाकाश का जो विभाजन है वह अन्य द्रव्यों की दृष्टि से है, आकाश की दृष्टि से नहीं। जहाँ पर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल रहते हैं वहीं पुण्य और पाप का फल देखा जाता है, इसलिए वही लोकाकाश . है। जिस आकाश में यह नहीं होता वह अलोकाकाश है। वैसे सारा आकाश एक है, अखण्ड है, सर्वव्यापी है। उसमें कोई भेद नहीं हो सकता । भेद का आधार अन्य है । आकाश की दृष्टि से लोकाकाश और अलोकाकाश में कोई भेद नहीं है। आकाश सर्वत्र एकरूप है। __ आकाश का लक्षण बताते हुए यह कहा गया कि अवकाश देना आकाश का धर्म है। लोकाकाश पाँच द्रव्यों को अवकाश देता है, अतः उसे हम आकाश कह सकते हैं। अलोकाकाश किसी को आश्रय नहीं देता, ऐसी दशा में उसे आकाश क्यों कहा जाय ? इस शंका का समाधान इस प्रकार किया जा सकता है कि आकाश का धर्म अवकाशदान है, किन्तु आकाश अवकाश उसे ही दे सकता है जो उसके अन्दर रहता है । अलोकाकाश में कोई भी द्रव्य नहीं रहता तो फिर आकाश अवकाश किसे दे ? हाँ, यदि वहाँ कोई द्रव्य होता और फिर भी आकाश १. आकाशस्यावगाहः ।-तत्त्वार्थसूत्र, ५.१८. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन धर्म-दर्शन उसे अवकाश न देता तो हम कह सकते कि अलोक को आकाश नहीं कहना चाहिए किन्तु जब वहाँ कोई भी द्रव्य नहीं पहुंचता तो अलोकाकाश का क्या अपराध है । वह तो अवकाश देने के लिए सर्वदा प्रस्तुत है । कोई भी द्रव्य वहाँ पहुँचे तो सही । इसीलिए अलोक को आकाश मानने में कोई बाधा नहीं है । आकाश-स्वभाव वहाँ भी है । उससे लाभ उठानेवाला कोई भी द्रव्य वहाँ नहीं है । इसीलिए उसे अलोकाकाश कहते हैं । लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश हैं । सारे आकाश के अनन्त प्रदेश हैं, यह कहा जा चुका है । अनन्त प्रदेशों में से असंख्यात प्रदेश निकाल देने से जो प्रदेश बचते हैं वे भी अनन्त हो सकते हैं क्योंकि अनन्त बहुत बड़ा है । इतना ही नहीं, अनन्त में से अनन्त निकाल देने पर भी अनन्त रह सकता है क्योंकि अनन्त परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त के भेद से तीन प्रकार का है ।' धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों सर्वलोकव्यापी हैं तो इनमें परस्पर व्याघात क्यों नहीं होता ? व्याघात हमेशा मूर्त पदार्थों में होता है, अमूर्त पदार्थों में नहीं । धर्म, अधर्म और आकाश अमूर्त हैं, अतः एक साथ निर्विरोध रह सकते हैं । आकाश अन्य द्रव्यों को अवकाश देता है, यह ठीक है, किन्तु आकाश को कौन अवकाश देता है ? आकाश स्वप्रतिष्ठित है । उसके लिए किसी अन्य द्रव्य की आवश्यकता नहीं है । यदि ऐसा है तो सभी द्रव्यों को स्वप्रतिष्ठित क्यों न मान लिया जाय ? इसका उत्तर यह है कि निश्चय दृष्टि से तो सभी द्रव्य आत्म-प्रतिष्ठित हैं किन्तु व्यवहार दृष्टि से अन्य द्रव्य आकाशाश्रित हैं । इन द्रव्यों का सम्बन्ध अनादि है । अनादि सम्बन्ध होते १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५.१०.२. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार २१५ हुए भी इनमें शरीर - हस्तादि की तरह आधाराधेय भाव घट सकता है | आकाश अन्य द्रव्यों से अधिक व्यापक है, अतः वह सबका आधार है । आकाश को कुछ दार्शनिकों ने स्वतन्त्र द्रव्य माना है और कुछ ने नहीं माना । जिन्होंने उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है उनमें से किसी ने भी जैन दर्शन की तरह लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में नहीं माना । पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के इतिहास में रिक्त आकाश (Empty Space ) है या नहीं' इस विषय पर काफी विवाद है, किन्तु इस ढंग के दो अलग-अलग विभाग वहाँ भी नहीं हैं । समीक्षा - आकाश क्या है ? इस विषय में दो मत हैं । कुछ दार्शनिक आकाश को रिक्त स्थान के रूप में अर्थात् अभावात्मक मानते हैं, जबकि कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि आकाश भी उसी प्रकार एक भावात्मक तत्त्व है जिस प्रकार कि अन्य तत्त्व | जैन दर्शन आकाश को एक अरूपी अर्थात् अमूर्त भावात्मक तत्त्व मानता है । जो द्रव्य ( तत्त्व) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता है वह आकाश है। दूसरे शब्दों में, आकाश रूपी और अरूपी अर्थात् मूर्त और अमूर्त सबको स्थान देता है किन्तु वह स्वयं अरूपी है। चूँकि आकाश सबका आधार है अतः वह सर्वव्यापी है । आकाश के दो विभाग हैं: लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश में जीव, पुद्गल आदि सब द्रव्य रहते हैं । अलोकाकाश में जीव आदि किसी की भी सत्ता नहीं है । लोकाकाश अथवा लोक सान्त है, जबकि अलोकाकाश अथवा अलोक अनन्त है । आकाश स्वप्रतिष्ठित है अतः उसके लिए किसी अन्य आधार Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जम धर्म-दर्शन की आवश्यकता नहीं है। अन्य द्रव्यों से अधिक व्यापक होने के कारण आकाश सबका आधार है। ___ आकाश किसी पदार्थ को किस प्रकार स्थान देता है ? क्या जिसे स्थान प्राप्त नहीं है उसे स्थान देता है अथवा जिसे पहले से ही स्थान प्राप्त है उसे नया स्थान देता है ? चूँकि प्रत्येक पदार्थ कहीं-न-कहीं स्थित तो होता ही है अतः जिसे स्थान प्राप्त नहीं है उसे स्थान देने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जिसे पहले से ही स्थान प्राप्त है उसे ही नया स्थान दिया जा सकता है। आकाश भी अनादि है अर्थात् हमेशा से है और अन्य द्रव्य भी अनादि हैं अर्थात् उनकी सत्ता भी हमेशा से है। इनका युगपत् अस्तित्व होने पर भी एक को आधार मानकर अन्य को आधेय मानना कहाँ तक युक्तियुक्त है ? युगपत् अस्तित्व होने पर भी इनमें शरीर और हस्तादि की तरह आधाराधेय-भाव माना जा सकता है। चूंकि आकाश अन्य द्रव्यों से अधिक विस्तृत है अतः वह आधार एवं उसमें रहनेवाले अन्य द्रव्य आधेय माने गये हैं। जिस तरह शरीर और हस्तादि में आधाराधेय-भाव देखा जाता है उस तरह आकाश और अन्य द्रव्यों में आधाराधेय-भाव दृष्टिगोचर नहीं होता। समस्त पदार्थ एक-दूसरे के आधार से ही टिके हुए देखे जाते हैं । पृथ्वी इन सबका दृष्ट आधार है। जैन मान्यता के अनुसार पृथ्वी का आधार जल, जल का आधार वायु तथा वायु का आधार आकाश है। आकाश का कोई अन्य आधार नहीं है। वह स्वाधृत है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में आकाश को सूक्ष्म भौतिक तत्त्व माना गया है जिसका कार्य शब्द है। शब्द गुण से आकाश द्रव्य के अस्तित्व का अनुमान किया जाता है। आकाश सर्वव्यापक ... Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तत्त्वविचार २१७ द्रव्य होते हुए भी पृथ्वी, जल, तेज एवं वायु के समान एक भौतिक तत्त्व ही है। इसका कार्य अवकाशदान (स्थान देना) नहीं अपितु शब्द है। चूंकि जैन दर्शन में शब्द को पुद्गल द्रव्य का कार्य अर्थात् पौद्गलिक माना गया है अतः आकाश को शब्द उत्पन्न करनेवाला द्रव्य न मानते हुए अवकाश देनेवाले द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है । बौद्ध दर्शन में आकाश को शून्य अर्थात् अवस्तु माना गया है । वह आवरणाभाव' अर्थात् वस्तु की आवृति के अभाव के रूप में है। जहाँ कोई पदार्थ नहीं होता अर्थात् जो स्थान पदार्थ के आवरण से रहित होता है उसे हमलोग आकाश का नाम दे देते हैं। वस्तुतः वह कोई भावात्मक तत्त्व, वस्तु या पदार्थ नहीं है । उसे तो अभाव, अवस्तु अथवा शून्य के रूप में ही समझना चाहिए। जैन दर्शन में गति के लिए धर्म तथा स्थिति के लिए अधर्म द्रव्य माना गया है । । जीव आदि सभी द्रव्यों की सत्ता अनादि काल से है एवं अनन्त काल तक रहेगी। कोई भी पदार्थ या तो गतिशील होगा या स्थितिशील। इन दोनों अवस्थाओं के माध्यमों के रूप में धर्म और अधर्म हैं ही। तो फिर आकाश की क्या आवश्यकता? जिस प्रकार आकाश स्वप्रतिष्ठित है, क्या उसी प्रकार जीवादि स्वप्रतिष्ठित नहीं हो सकते ? किसी शाश्वत द्रव्य के अस्तित्व के लिए किसी अन्य द्रव्य की कल्पना क्यों की जाय? हाँ, किसी पदार्थ के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए अर्थात् स्थानान्तरण के लिए रिक्त स्थान के रूप में अभावात्मक आकाश अवश्य माना जा सकता है । इसे गणितीय आकाश' कहते हैं। इसमें सूक्ष्म 1. Negation of Occupation. 2. Mathematical Space. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन धर्म-दर्शन तत्त्वों अथवा पदार्थों की विद्यमानता होते हुए भी स्थूल पदार्थों का यथावसर प्रवेश तथा निष्क्रमण हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि आकाश के आधार के बिना किसी पदार्थ की सत्ता ही संभव नहीं है तो प्रश्न होगा कि आकाश को सामान्य आधार न मानने पर क्या समस्त तत्त्वों का अभाव हो जायगा ? क्या कोई भी द्रव्य लोक में न रहेगा? ऐसा नहीं हो सकता। जो सत् है वह असत् नहीं हो सकता। समस्त द्रव्य अपने स्वभाव से ही लोक में विद्यमान हैं। उनको स्थान अथवा आधार प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, यदि उन्हें पहले से ही स्थान मिला हुआ न होता तो स्थान देने की आवश्यकता होती तथा स्थान देनेवाले किसी अन्य द्रव्य की सत्ता स्वीकार करनी पड़ती। समस्त जड़ एवं चेतन पदार्थ एक-दूसरे के आधार अथवा आकर्षण से लोक में स्थित हैं। इसके लिए आकाश के रूप में किसी स्थानदाता की कल्पना करना निरर्थक है। हाँ, आवरणाभाव के रूप में आकाश को शून्य अथवा अवस्तु मानना अनुपयुक्त नहीं है। अनुभव के आधार पर सहज ही ऐसा माना जा सकता है। जब आकाश कोई भावात्मक तत्त्व नहीं है तब आकाश के आधार पर लोकाकाश और अलोकाकाश की कल्पना न करते हुए केवल लोक और अलोकरूप विभाजन को ही स्वीकार करना चाहिए। जीवादि तत्त्वों का समूह ( जिसमें तदन्तर्गत सापेक्ष रिक्त स्थान भी समाविष्ट है) लोक है तथा उनका अभाव अलोक है। अलोक कोई भावात्मक तत्त्व नहीं है अपितु केवल अभावात्मक शून्य है। लोक सान्त अर्थात् सीमित है। अलोक अवस्तु है अतः उसके विषय में विशेष विचार करना अनावश्यक है । लोक अति विशाल है। जीव अथवा पुद्गल की गति या स्थिति लोक में . Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २१६ ही संभव है। स्थूल पदार्थ एक-दूसरे की गति और स्थिति में वाधक होते हैं। सूक्ष्म पदार्थ वैसा नहीं करते। पुद्गल के स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों रूप होते हैं। अन्य तत्त्व केवल सूक्ष्म रूप में ही होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक जीव अथवा प्रत्येक पुद्गल प्रत्येक अवस्था में लोक के किसी भी भाग में गति अथवा स्थिति कर सके । जीव एवं पुद्गल विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न प्रकार के सामर्थ्य से युक्त होते हैं। तदनुसार ही वे गति या स्थिति कर सकते हैं। अद्धासमय : परिवर्तन का जो कारण है उसे अद्धासमय या काल कहते हैं। काल की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है। द्रव्य का स्वजाति के परित्याग के बिना वैस्रसिक और प्रायोगिक विकाररूप परिणाम' व्यवहार दृष्टि से काल को सिद्ध करता है। प्रत्येक द्रव्य परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए भी उसकी जाति का कभी विनाश नहीं होता। इस प्रकार के परिवर्तन परिणाम कहे जाते हैं। इन परिणामों का जो कारण है वह काल है। यह व्यवहार दृष्टि से काल की ख्या हुई। प्रत्येक द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षणभावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है । इस वर्तना का कारण काल है। यह काल की पारमार्थिक व्याख्या है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक वृत्तिवाला है। यह वृत्ति प्रतिक्षण रहती है। कोई भी क्षण इस वृत्ति के बिना नहीं रह सकता। यही पारमार्थिक काल का कार्य है। काल का अर्थ है परिवर्तन । परिवर्तन को समझने के लिए अन्वय का ज्ञान होना आवश्यक है। अनेक १. तत्त्वार्थराजवातिक, ५. २२. १०. २. वही, ५.२२.४. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन धर्म-दर्शन परिवर्तनों में एक प्रकार का अन्वय रहता है। इसी अन्वय के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु में परिवर्तन हुआ। यदि अन्वय न हो तो क्या परिवर्तन हुआ, किसमें परिवर्तन हुआ-इसका जरा भी ज्ञान नहीं हो सकता। यही बात ऊपर कही गई है। स्वजाति का त्याग किये बिना विविध प्रकार के परिवर्तन होना काल का कार्य है। इसी काल के आधार पर हम घंटा, मिनट, सेकण्ड आदि विभाग करते हैं। यह व्यावहारिक काल है। पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक है । क्षण-क्षण में पदार्थ में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन बौद्ध परिवर्तन की तरह ऐकान्तिक न होकर ध्रौव्ययुक्त है। इस प्रकार दोनों दृष्टियों से काल का लक्षण परिवर्तन है। ____काल असंख्यात प्रदेश-प्रमाण होता है। ये प्रदेश एक अवयवी के प्रदेश नहीं हैं अपितु स्वतन्त्र रूप से सत् हैं। इसीलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक काल-प्रदेश बैठा हुआ है । रत्नों की राशि की तरह लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जो एक-एक द्रव्य स्थित है वह काल है । यह असंख्यात द्रव्य-प्रमाण है।' इससे यह फलित होता है कि काल एक द्रव्य नहीं है, अपितु असंख्यात द्रव्यप्रमाण है। परिवर्तन की दृष्टि से यद्यपि काल के सभी प्रदेशों का एक स्वभाव है तथापि वे परस्पर भिन्न हैं। वे सब मिलकर एक अवयवी का निर्माण नहीं करते। जिस प्रकार उपयोग सभी आत्माओं का १. लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का । रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ -द्रव्यसंग्रह, २.२. . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २२१ स्वभाव है. किन्तु सभी आत्माएं भिन्न-भिन्न हैं, उसी प्रकार वर्तनालक्षण का साम्य होते हए भी प्रत्येक काल भिन्न-भिन्न है । जीवत्व सामान्य को लेकर सभी आत्माओं को जीव कहा जाता है, उसी प्रकार कालत्व ( वर्तना ) सामान्य की दृष्टि से ORIGINE सभी कालों को काल कहा गया है। अतः काल वर्तना-सामान्य की दृष्टि से असंख्यात हैं। काल को अस्तिकाय न मानकर अनस्तिकाय क्यों माना गया ? इसका सन्तोषप्रद उत्तर देना कठिन है । यह कहा जा सकता है कि द्रव्य के प्रत्येक अवयवअंश का परिवर्तन स्वतंत्र है। इसलिए प्रत्येक काल स्वतन्त्र है। यहाँ एक कठिनाई है। परिवर्तन प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक अंश में होता है। पुद्गल द्रव्य के अनन्त प्रदेश हैं । इसी प्रकार सब जीवों के अनन्त प्रदेश हैं। ऐसी स्थिति में असंख्यात प्रदेशप्रमाणवाला काल अनन्त प्रदेशों में परिवर्तन कैसे कर सकता है ? जहाँ तक असंख्यात प्रदेशवाले आकाश में अनन्त प्रदेश के रहने का प्रश्न है, यह बात किसी तरह मान भी लें कि परस्पर व्याघात के बिना दीपकों के प्रकाश की तरह उनका रहना सम्भव है परन्तु परिवर्तन ऐसी चीज नहीं कि एक काल एक से अधिक अंश में परिवर्तन कर सके । आकाश की तरह परिवर्तन की बात भी किसी तरह घट सकती, यदि काल आकाश की भाँति एक अखण्ड द्रव्य होता । इस कठिनाई को दूर करने के लिए यह माना गया कि काल लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित है, न कि जीव या पुदगल के प्रत्येक प्रदेश पर । जब लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर काल की सत्ता मानी गई तो क्या कारण है कि आकाश की तरह काल को अखण्ड द्रव्य नहीं माना गया ? आकाश का धर्म अवकाशदान है और अवकाश में विशेष विभिन्नता नहीं होती। काल का Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन धर्म-दर्शन धर्म वर्तना है-परिणाम है। इसमें अत्यधिक विभिन्नता होती है। प्रत्येक परिवर्तन विलक्षण होता है। यदि काल एक अखण्ड द्रव्य होता तो परिवर्तन में विलक्षणता नहीं आती। सम्भवतः इसीलिए प्रत्येक काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया। यह समाधान भी सन्तोषजनक नहीं है। परिवर्तन की विलक्षणता में स्वयं द्रव्य की विलक्षणता कारण है। काल का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त और कोई हेतु दिखाई नहीं देता जिसके आधार पर प्रत्येक काल को स्वतंत्र द्रव्य माना जाय। शायद इन्हीं कठिनाइयों के कारण काल सर्वसम्मत रूप से स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना गया।' समीक्षा-काल परिवर्तन का माध्यम अथवा सहायक कारण है। प्रत्येक पदार्थ स्वभावतः परिवर्तनशील है। उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । नवीन पर्यायों की उत्पत्ति व प्राचीन पर्यायों का नाश अर्थात् रूपान्तरण ही परिवर्तन है। परिवर्तन में पदार्थ का मूल स्वरूप नष्ट नहीं होता। जीवादि द्रव्य परिवर्तित होते हुए भी अपना मूल स्वभाव बनाये रखते हैं अर्थात् जीव हमेशा जीव ही रहता है, कदापि अजीव नहीं होता तथा अजीव हमेशा अजीव ही रहता हैं, कदापि जीव नहीं होता। इस नित्यता को ध्रौव्य कहते हैं। नवीन पर्याय अर्थात् नये रूप की उत्पत्ति को उत्पाद तथा प्राचीन पर्याय अर्थात् पुराने रूप के नाश को व्यय कहते हैं। उत्पाद और व्यय अर्थात् परिवर्तन के मध्य ध्रौव्य अर्थात् स्थायित्व का अस्तित्व १. कालश्चेत्येके। -तत्त्वार्थसूत्र, ५.३८. 2. Medium of Change. 3. Auxiliary Cause of Change. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २२३ वर्तना कहलाता है । काल ऐसे परिवर्तन का कारण है जिसमें स्थायित्व विद्यमान होता है। काल से निरन्वय विनाश नहीं होना अपितु वर्तना होती है- सान्वय परिवर्तन होता है। इस प्रकार काल प्रत्येक वस्तु के स्वाभाविक परिवर्तन का माध्यम अथवा सहायक कारण है । काल अथवा परिवर्तन को व्यावहारिक दृष्टि से नापने - समझने के लिए विविध संकेतों अथवा प्रतीकों का आधार लिया जाता है । परिवर्तन और स्थायित्व पदार्थ के स्वाभाविक धर्म हैं । क्या इसके लिए किसी अन्य कारण अथवा माध्यम की आवश्यकता है ? क्या काल के माध्यम के बिना पदार्थों में परिवर्तन नहीं हो सकता ? माना कि परिवर्तन के लिए काल नामक तत्त्व आवश्यक है । अब प्रश्न यह है कि काल पर-परिवर्तन का कारण है अथवा स्व-परिवर्तन का अथवा दोनों का ? स्पष्ट है कि काल को केवल पर-परिवर्तन अथवा केवल स्व-परिवर्तन का कारण नहीं माना जा सकता । उसे स्व-परप्रकाशक दीपक की भाँति दोनों प्रकार के परिवर्तन का कारण मानना पड़ेगा अर्थात् जीवादि पदार्थों के परिवर्तन अथवा वर्तना के लिए तो काल नामक एक स्वतन्त्र तत्त्व की सहायता की आवश्यकता है किन्तु काल के स्वयं के परिवर्तन के लिए किसी अन्य तत्त्व की सहायता की आवश्यकता नहीं है । काल अपने स्वभाव के अनुसार स्वतः परिवर्तित होता रहता है। जैसे काल स्वत: परिवर्तनशील है वैसे क्या जीवादि पदार्थ स्वतः परिवर्तनशील नहीं हो सकते ? उनके परिवर्तन के लिए किसी अन्य सहायक की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है कि जैसे दीपक स्वतः प्रकाशित होता हुआ अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता है वैसे ही काल स्वतः परिवर्तित होता हुआ जीवादि को परि Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन धर्म-दर्शन वर्तित करता है। दीपक को प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि दीपक स्वयं प्रकाशमान है किन्तु अन्य पदार्थों को प्रकाशित करने के लिए दीपक की उपयोगिता है क्योंकि वे अप्रकाशमान हैं। दीपक अप्रकाशमान को प्रकाशित करता है, प्रकाशमान को नहीं। प्रकाशमान को प्रकाशित करने से अनवस्था उत्पन्न होती है। जिस प्रकार दीपक अप्रकाशमान वस्तु को प्रकाशित करता है उसी प्रकार क्या काल भी अपरिवर्तनशील पदार्थों को परिवर्तित करता है ? नहीं, ऐसा नहीं माना जा सकता। प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से ही परिवर्तनशील है अतः उसे अपरिवर्तनशील कैसे कहा जा सकता है ? जब वस्तु स्वयं परिवर्तनशील है तब परिवर्तन के लिए काल की क्या आवश्यकता है ? काल परिवर्तन का सहायक कारण है अर्थात् परिवर्तनशील पदार्थों के परिवर्तन में सहायता पहुंचाता है। जैसे धर्म गति में तथा अधर्म स्थिति में सहायक होता है वैसे ही काल परिवर्तन में सहायक बनता है। ऐसा मानने में भी एक कठिनाई है। गति अथवा स्थिति वस्तु का अनिवार्य धर्म नहीं है । वस्तु कभी गतिशील होती है तो कभी स्थितिशील। जीव अथवा पद्गल जब गति करना चाहता है तब धर्म द्रव्य उसकी सहायता करता है। इसी प्रकार जीव या पुद्गल जब स्थित होना चाहता है तब अधर्म द्रव्य उसकी मदद करता है। जीव और पुद्गल की गति एवं स्थिति ऐच्छिक हैं, अनिवार्य नहीं। ऐच्छिक क्रिया कभी होती है, कभी नहीं होती। अतः उसका कोई माध्यम अथवा सहायक कारण माना जा सकता है। परिवर्तन अथवा स्थायित्व इस प्रकार का धर्म या गुण या क्रिया नहीं है जो ऐच्छिक हो-किसी की इच्छा पर निर्भर हो-कभी हो और कभी न Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २२५ हो। यह तो पदार्थ का स्वाभाविक एवं अनिवार्य धर्म है । इसका वस्तु की सत्ता के साथ अविच्छेद्य सम्बन्ध है। जैसे सत्ता के लिए कोई सहायक कारण अपेक्षित नहीं है वैसे ही परिवर्तन एवं स्थायित्व के लिए भी किसी सहायक कारण की आवश्यकता नहीं है। पदार्य स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्ययुक्त है। इसके लिए काल नामक किसी तत्त्वविशेष की कल्पना अनावश्यक है। पदार्थों में जैसे स्वाभाविक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है वैसे ही एक-दूसरे के प्रभाव से उत्पन्न परिवर्तन भी दिखाई देता है। कैसा ही परिवर्तन क्यों न हो, वस्तु को परिवर्तनशीलस्वभाव मानना ही होगा। यदि वस्तु स्वभावतः परिवर्तनशील नहीं है तो किसी भी प्रकार से अथवा किसी भी अन्य पदार्थ की उपस्थिति में भी उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकेगा। वैसे पदार्थ परस्पर प्रभावित होते रहते हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। सामान्यतया परिवर्तन अथवा वर्तना अनिवार्य है, ऐच्छिक नहीं। यह सर्वत्र एवं स्वतः प्रवर्तित है। ___ तब फिर काल क्या है ? वस्तु के किसी भी परिवर्तन, परिणाम अथवा पर्याय को काल की संज्ञा दी जाती है। काल परिवर्तन को समझने का एक संकेत है। यह विविध रूपों में विविध अवस्थाओं का बोध कराता है। वस्तु की विभिन्न अवस्थाओं (पर्यायों ) के आधार पर काल के विभिन्न रूपोंवर्तमान, भूत, भविष्यत्, योगपद्य, क्रमिकत्व, पूर्व, पश्चात् आदि का बोध होता है। समय की गणना में भी पदार्थों का ही आधार लिया जाता है। पदार्थों के अतिरिक्त काल द्रव्य के अणुओं-कालाणुओं की स्वतन्त्र सत्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। समस्त पदार्थ नित्य स्वभावतः परिवर्तन अवस्थाओं (पर्याया का बोध कराता है। यह विविध Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैन धर्म-दर्शन शील हैं । यह परिवर्तन स्वतः होता है । काल न तो इसका उपादानकारण है, न निमित्तकारण ही । विपरीत इसके यह परिवर्तन ही काल का आधार है। कुछ जैन दार्शनिकों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानते हुए अन्य द्रव्यों के पर्याय के रूप में माना भी है । विश्व का स्वरूप : विश्व, जगत् अथवा संसार के लिए जैन परम्परा में सामान्यरूप से लोक शब्द का व्यवहार हुआ है । यह लोक क्या है ? इसका उत्तर दो रूपों में मिलता है । कहीं पर पंचास्तिकाय को लोक कहा गया है तो कहीं पर षद्रव्य को लोक माना गया है । व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ) में एक स्थान पर बताया गया है कि लोक पंचास्तिकायरूप है। पंचास्तिकाय ये हैं : १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४ जीवास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय । प्रवचनसार में लोक का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जो आकाश पुद्गल और जीव से संयुक्त है तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल से भरा हुआ है वह लोक है ।" सामान्यतया लोक में छः तत्त्व हैं : १. जीव, २. पुद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ५. आकाश, ६. काल । 3 लोक इन छः तत्त्वों का समुच्चय है । इन छः तत्त्वों में सारा लोक समाविष्ट हो जाता है। इनके अतिरिक्त लोक कुछ नहीं है। ये छः तत्त्व अनादि - अनन्त हैं । ये स्वतः 1 १. व्याख्याप्रज्ञप्ति, १३.४. २. प्रवचनसार, २.३६. ३. जीव अर्थात् चेतन तत्त्व, पुद् गल अर्थात् रूपी जड़ तत्त्व, धर्म अर्थात् गतिसहायक तत्त्व, अधर्म अर्थात् स्थितिसहायक तत्त्व, आकाश अर्थात् अवकाशदाता ( स्थान देनेवाला ) तत्त्व, काल अर्थात् परिवर्तन सहायक तत्त्व । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २२७ सत् हैं । इनको न किसी ने बनाया है और न कोई मिटा सकता है । ये हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे। इनमें सदैव परिवर्तन होते रहते हैं किन्तु ये सर्वथा नष्ट नहीं होते । इनकी न एकदम नई उत्पत्ति ही होती है और न सर्वथा विनाश ही । ये उत्पत्ति और विनाश में भी स्थिर रहते हैं। इनकी उत्पत्ति. विनाश और स्थिरता के लिए ये स्वयं जिम्मेदार हैं, अन्य कोई शक्ति नहीं। विश्व का आकार नियत एवं अपरिवर्तनीय है । इसके नाप के लिए रज्जु' का आधार लिया जाता है। विश्व की ऊंचाई १४ रज्जुप्रमाण है । चौड़ाई उत्तर-दक्षिण में ७ रज्जु है । पूर्वपश्चिम में सबसे नीचे ७ रज्जु है, फिर क्रमश: घटते-घटते ठीक मध्यभाग में अर्थात् सात-रज्जु की ऊ चाई पर १ रज्जु रह जाती है, फिर धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते शेष अर्धभाग के मध्य में ५ रज्जु हो जाती है, फिर क्रमश: घटते-घटते सबसे ऊपर १ रज्जु रह जाती है । विश्व का घनाकार नाप ३४३ रज्जुप्रमाण है। यह दिगम्बर-मत है। ___ श्वेताम्बर-मतानुसार उत्तर-दक्षिण व पूर्व-पश्चिम दोनों ओर की चौड़ाई क्रमशः घटती-बढ़ती है किन्तु विश्व का घनाकार नाप ३४३ रज्जुप्रमाण ही रहता है । विश्व तीन भागों में विभक्त है : अधः, मध्य और ऊर्ध्व । अधोभाग मेरुपर्वत के समतल से ६०० योजन" नीचे से १. रज्जु की परिभाषा के लिए देखें-त्रिलोकप्रज्ञप्ति, १. ६३-१३२. २. देखें-त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ. ३. देखें-व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ. ४. मेपर्वत के वर्णन के लिए देखें-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का चौथा वक्षस्कार. ५. योजन के स्वरूप के लिए देखें-अनुयोगद्वार का क्षेत्रप्रमाण प्रकरण. ruw Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन धर्म-दर्शन प्रारंभ होता है। समतल से ६०० योजन ऊचे से ऊर्ध्वभाग शुरू होता है। ऊर्ध्वलोक से नीचे और अधोलोक से ऊपर १८०० योजन का मध्यभाग अर्थात् मध्यलोक है। अधोलोक का आकार औंधे किये हुए शराव के समान है अर्थात् नीचे-नीचे विस्तीर्ण है। मध्यलोक थाली के समान गोलाकार है अर्थात् समान लम्बाई-चौड़ाई वाला है । ऊर्ध्वलोक आकार में पखावज के समान है। अधोलोक : ____ अधोलोक में सात भूमियां हैं जिनमें नारकियों के निवास स्थान अर्थात् नरक हैं । ये भूमियां समश्रेणी में नहीं हैं अपितु एक-दूसरे के नीचे हैं । इनकी लम्बाई-चौड़ाई एक-सी नहीं है। नीचे-नीचे की भूमियां ऊपर-ऊपर की भूमियों से अधिक लम्बीचौड़ी हैं । ये भूमियां एक-दूसरे के नीचे है किन्तु एक-दूसरे से सटी हुई नहीं हैं । बीच-बीच में काफी अन्तर है । इस अन्तराल में घनोदधि, वात और आकाश हैं।' प्रत्येक पृथ्वी के नीचे क्रमशः धन जल, धन वात, तनु वात और आकाश है। इसी बात को व्याख्याप्रज्ञप्ति में इस प्रकार कहा गया है : त्रसस्थावरादि प्राणियों का आधार पृथ्वी है, पृथ्वी का आधार उदधि है, उदधि का आधार वायु है और वायु का आधार आकाश है । वायु के आधार पर उदधि और उदधि के आधार पर पृथ्वी कैसे टिक सकती है ? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है : एक मशक में हवा भर कर ऊपर से उसे बांध दिया जाय। बाद में उसे बीच से बांध कर ऊपर का मुंह खोल दिया जाय। इससे ऊपर के भाग की हवा निकल जायगी। फिर उस खाली भाग में पानी भर कर ऊपर से मुंह बांध दिया १. तत्त्वार्थसूत्र, ३.१-२. २. सर्वार्थसिद्धि, ३. १. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यविचार २२६ जाय व बीच की गांठ खोल दी जाय। इससे ऊपर के भाग में भरा हुआ पानी नीचे के भाग में भरी हुई हवा के आधार पर टिका रहेगा । इसी प्रकार पृथ्वी आदि भी वायु के आधार पर प्रतिष्ठित हैं । अथवा जैसे कोई मनुष्य अपनी कमर पर हवा से भरी हुई मशक बांधकर पानी के ऊपर तैरता है वैसे ही वायु के आधार पर पृथ्वी आदि टिके हुए हैं ।" अधोलोक की सात भूमियों के नाम ये हैं : १ . रत्नप्रभा, २. शर्कराप्रभा, ३. वालुकाप्रभा, ४. पंकप्रभा, ५. धूमप्रभा, ६. तमः प्रभा, ७. महातमः प्रभा । इनका वर्ण क्रमशः रत्न, शर्करा, वालुका, पंक, धूम, तम और महातम ( घनान्धकार ) के सदृश होने के कारण इनके ये नाम हैं । रत्नप्रभा भूमि के तीन काण्ड हैं । सबसे ऊपर का प्रथम खरकाण्ड रत्नबहुल है । उसकी मोटाई अर्थात् ऊपर से नीचे तक का विस्तार १६,००० योजन है । उसके नीचे का दूसरा काण्ड पंकबहुल है जिसकी मोटाई ८४,००० योजन है । उसके नीचे का तृतीय काण्ड जलबहुल है जो मोटाई में ८०,००० योजन है। तीनों काण्डों की मोटाई मिलाने से रत्नप्रभा की मोटाई १,८०,००० योजन होती है । दूसरी से लेकर सातवीं भूमि तक ऐसे काण्ड नहीं हैं । उनमें जो भी पदार्थ हैं, सर्वत्र एक समान हैं । दूसरी भूमि की मोटाई १,३२,००० योजन, तीसरी की १,२८,०००, चौथी की १,२०,०००, पांचवी की १,१८,०००, छठी की १,१६,००० और सातवीं की १,०८,००० योजन है । सातों भूमियों के नीचे जो घनोदधि आदि हैं उनकी मोटाई भी विभिन्न प्रमाणों में है । १. व्याख्याप्रज्ञप्ति, १. ६. २. सर्वार्थसिद्धि ( ३.१) आदि. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जन धर्म-दर्शन रत्नप्रभा आदि की जितनी-जितनी मोटाई है उसके ऊपर तथा नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष भाग में नरकावास हैं। जैसे रत्नप्रभा की १,८०,००० योजन की मोटाई में से ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन अर्थात् कुल दो हजार योजन छोड़कर शेष (१,८०,०००-२०००) १,७८,००० योजनप्रमाण मध्यभाग में नरकावास हैं। द्वितीयादि भूमियों की मोटाई में से भी इसी प्रकार दो-दो हजार योजन की कमी कर लेनी चाहिए । शेष भागों में नरकावास हैं।' मध्यलोक: ___ मध्यलोक में असंख्येय द्वीप और समुद्र हैं । सर्वप्रथम एवं सब द्वीप-समुद्रों के मध्य में जम्बूद्वीप है। उसके बाद लवणसमुद्र है। तदनन्तर धातकीखण्ड (द्वीप) है । इस प्रकार क्रमशः द्वीप के बाद समुद्र और समुद्र के बाद द्वीप अवस्थित हैं। जम्बूद्वीप का विस्तार पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक एक-एक लाख योजन है । लवणसमुद्र का विस्तार जम्बूद्वीप से दुगुना है। धातकीखण्ड का विस्तार लवणसमुद्र से दुगुना है। इस प्रकार क्रमशः दुगुना होते-होते अन्तिम द्वीप-स्वयम्भूरमणद्वीप से दुगुना अन्तिम समुद्र-स्वयम्भूरमणसमुद्र का विस्तार हो जाता है। जम्बूद्वीप लवणसमुद्र से वेष्टित है, लवण समुद्र घातकीखण्ड से, धातकीखण्ड कालोदधि से, कालोदधि पुष्करवरद्वीप से तथा पुष्करवरद्वीप पुष्करवरसमुद्र से वेष्टित है। यह क्रम अन्त तक अर्थात् स्वयम्भू रमणसमुद्र पर्यन्त चलता है। जम्बूद्वीप थाली के समान गोल है तथा अन्य सब द्वीप-समुद्र चूड़ी १. तत्त्वार्थसूत्र (पं० मुखलालजीकृत विवेचनसहित), पृ० १२१. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार के समान आकृतिवाले अर्थात् वलयाकार हैं । ' जम्बूद्वीप के मध्य में मेरु पर्वत है । मेरु की ऊँचाई १,००,००० योजन है । इसमें से १००० योजनप्रमाण भाग भूमि के नीचे तथा ६६,००० योजनप्रमाण भाग भूमि के ऊपर है । भूमि के भीतर के भाग की लम्बाई-चौड़ाई सर्वत्र १०,००० योजन प्रमाण है । बाहर के भाग के ऊपर का अंश, जहाँ से चोटी निकलती है, १००० योजन लम्बा-चौड़ा है । वैसे मेरु के तीन काण्ड हैं : प्रथम काण्ड १००० योजनप्रमाण है ( जो जमीन में है ), द्वितीय काण्ड ६३,००० योजनप्रमाण तथा तृतीय काण्ड ३६,००० योजनप्रमाण है । प्रथम काण्ड में मिट्टी, कंकड़ आदि की, द्वितीय में चाँदी, स्फटिक आदि की एवं तृतीय में स्वर्ण की प्रचुरता है । लाख योजन की ऊँचाई के बाद मेरु पर्वत पर एक चोटी है जो ४० योजन ऊंची हैं । यह चोटी मूल में १२ योजन, मध्य में ८ योजन तथा ऊपर ४ योजन लम्बीचौड़ी है । जम्बूद्वीप सात खण्डों में विभक्त है । ये खण्ड वर्ष अथवा क्षेत्र कहलाते हैं । इनके नाम हैं: भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। इन क्षेत्रों को पृथक् करनेवाले पूर्व-पश्चिम में लम्बे छ: पर्वत हैं जो वर्षधर कहलाते हैं : हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी | 3 भरत और हैमवत के बीच हिमवान् है, हैमवत और हरि के बीच महाहिमवान् हरि और विदेह के बीच निषध, विदेह और रम्यक के बीच नील, रम्यक और हैरण्यवत के बीच १. तत्त्वार्थ सूत्र, ३.७-८ व स्वोपज्ञ भाष्य आदि. २. तत्त्वार्थ सूत्र, ३.६ एवं सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाएं. ३. तत्त्वार्थसूत्र, ३.१०-११. २३१ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैन धर्म-दर्शन रुक्मी तथा हरण्यवत और ऐरावत के बीच शिखरी पर्वत है। चूंकि विदेह क्षेत्र इन सबके मध्य में है अतः मेरु पर्वत विदेह के बीचोंबीच स्थित है। भरत क्षेत्र की उत्तरी सीमा पर स्थित हिमवान् पर्वत के दोनों छोर पूर्व-पश्चिम में लवणसमुद्र में गये हुए हैं। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र की दक्षिणी सीमा पर स्थित शिखरी पर्वत के दोनों छोर भी लवणसमुद्र में पहुंचे हुए हैं। प्रत्येक छोर दो भागों में विभक्त होने के कारण दोनों पर्वतों के आठ किनारे लवणसमुद्र में गये हुए हैं। प्रत्येक किनारे पर मनुष्यों की वस्तीवाले सात-सात स्थान है। इस प्रकार कुल छप्पन ऐसे स्थान हैं जो अन्तरद्वीप कहलाते हैं।' जम्बूद्वीप में चौदह मुख्य नदियाँ हैं : १. गंगा, २. सिन्धु, ३. रोहित्, ४. राहितास्या, ५. हरित्, ६. हरिकांता, ७. सीता, ८. सीतोदा, ६. नारी, १०. नरकान्ता, ११. सुवर्णकूला, १२. रूप्यकूला, १३. रक्ता, १४. रक्तोदा । इनमें से गंगा और सिन्धु भरत क्षेत्र में बहती हैं। इसी प्रकार दो-दो का जोड़ा शेष छः क्षेत्रों के लिए भी समझ लेना चाहिए । इन सात जोड़ों में से पहली सात नदियाँ पूर्व में तथा बाद की सात नदियां पश्चिम में बहती हैं। धातकीखण्ड में मेरु, वर्ष अथवा क्षेत्र और वर्षधर पर्वतों की संख्या जम्बूद्वीप की अपेक्षा दुगुनी है । उसमें दो मेरु, चौदह वर्ष अथवा क्षेत्र और बारह वर्षधर पर्वत हैं। मेरु आदि की जो संख्या धातकीखण्ड में है वही पुष्कराध द्वीप में है। इस प्रकार जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्करार्ध ( आधा पुष्करवर द्वीप)-इन ढाई द्वीपों में कुल पांच मेरु, पैंतीस वर्ष अथवा १. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ३. २. सर्वार्थसिद्धि, ३. २०-२२. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २३३ क्षेत्र एवं तीस वर्षधर पर्वत हैं । यही मनुष्यक्षेत्र अथवा मनुष्यलोक है । पुष्करवर द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर नामक एक पर्वत है । उस पर्वत के बाद मनुष्यलोक का अभाव है ।' मानुषोत्तर पर्वत तक के भाग का नाम मनुष्यलोक एवं उस पर्वत का नाम मानुषोत्तर इसलिए पड़ा कि वहां तक मनुष्यों का अस्तित्व है । उसके बाद के क्षेत्र में न तो कोई मनुष्य जन्म ग्रहण करता है, न रहता है और न मरता है । अवलोक: ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देव रहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं : कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न देव कल्प विमानों में रहते हैं। कल्पातीत देवों के विमान कल्प विमानों के ऊपर होते हैं । कल्प के सौधर्म आदि बारह अथवा सोलह भेद हैं। सौधर्म कल्प ज्योतिश्चक्र ( जिसका क्षेत्र मेरु के समतल भूभाग से ७६० योजन की ऊंचाई से आरंभ होकर ६०० योजन की ऊंचाई तक रहता है ) के ऊपर असंख्येय योजन जाने के बाद मेरु के दक्षिण भाग से उपलक्षित प्रदेश में स्थित है । उसके बहुत ऊपर उत्तर की ओर ऐशान कल्प है। सौधर्म के ऊपर समश्रेणि में सानत्कुमार कल्प है और ऐशान के ऊपर समश्रेणि में माहेन्द्र कल्प है। इन दोनों के ऊपर मध्य में ब्रह्मलोक कल्प है। ब्रह्मलोक के ऊपर समश्रेणि में क्रमशः लान्तव, महाशुक्र और सहस्रार कल्प एक-दूसरे के ऊपर हैं। इनके ऊपर दक्षिण में आनत एवं उत्तर में प्राणत कल्प हैं। इनके ऊपर समश्रेणि में आरण और १. तत्त्वार्थसूत्र, ३. १२-१४. २. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बारह कल्प माने गये हैं. जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय में सोलह कल्पों की मान्यता है । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैन धर्म-दर्शन अच्युत कल्प हैं । इन सब कल्पों के ऊपर अनुक्रम से नौ कल्पातीत विमान एक-दूसरे के ऊपर स्थित हैं । ये विमान पुरुषाकार लोक के ग्रीवास्थानीय भाग में होने के कारण ग्रैवेयक कहलाते हैं । इनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध - ये पांच कल्पातीन विमान एक-दूसरे के ऊपर हैं जो सबसे उत्तर अर्थात् प्रधान अथवा श्रेष्ठ होने के कारण अनुत्तर' कहलाते हैं । सौधर्म से अच्युत तक के विमानों में रहनेवाले देव कल्पोपपन्न तथा इनके ऊपर के सभी विमानों में बसनेवाले देव कल्पातीत कहे जाते हैं । सर्वार्थसिद्ध विमान के ऊपर बारह योजन की दूरी पर ईषत्प्राग्भार पृथ्वी ( सिद्धशिला ) है । यह खुले छाते के आकार की, पैंतालीस लाख योजन लम्बी-चौड़ी ( गोल ) तथा बीच में आठ योजन मोटी है । अलोक से इसकी दूरी एक योजन है । इस योजन के सबसे ऊपर के भाग में सिद्ध अर्थात् मुक्त आत्माएं अनन्तकाल तक रहती हैं। इस स्थान के बाद लोक का अन्त हो जाता है तथा केवल आकाश अर्थात् अलोक रह जाता है । नारकी : हमलोग मध्यलोक में रहते हैं । ऊर्ध्वलोक में देव रहते हैं तथा अधोलोक में नारकी । अधोलोक में एक के बाद दूसरी १. दिगम्बर परम्परा में ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और शतार नामक चार कल्प अधिक माने गये हैं जो क्रमशः छठे, आठवें, नवें और ग्यारहवें क्रम पर हैं । २. अनुत्तर अर्थात् जिससे कोई अन्य श्रेष्ठ न हो यानी सर्वश्रेष्ठ । ३. तस्वार्थसूत्र, ४. १७-२०. ४. उत्तराध्ययन, ३६. ५८-६४. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार २३५ ऐसी इस पृथ्वीसहित सात पृथ्वियां हैं। प्रत्येक पृथ्वी घन जल से घिरी हुई है । घन जल का घेरा घनी हवा के घेरे से घिरा हुआ है। घनी हवा का घेरा तन्वी हवा से घिरा हुआ है । तन्वी हवा का घेरा आकाश पर आधारित है और आकाश अपने आप पर । जैसे-जैसे नीचे की ओर बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे नारकी जीवों में कुरूपता, भयानकता आदि विकृतियां बढ़ती जाती हैं । वे अति ताप तथा अति शीत से कष्ट पाते हैं । वे वैसे कर्म करना चाहते हैं जिनसे सुख की प्राप्ति हो पर उनसे वही कार्यं होते हैं जिनसे उन्हें पीड़ा पहुँचती हैं। जब वे एक-दूसरे के निकट आते हैं तो उनका क्रोध बढ़ जाता है और वे अपने पूर्व - जीवन को याद कर कुत्तों और शृगालों की तरह झगड़ते हैं । वे अपने ही बनाये हुए शस्त्रों तथा हाथ, पैर, दाँत आदि से एक-दूसरे को आहत कर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं । चूँकि उनका शरीर वैक्रिय होता है अतः वह पारे की तरह पूर्ववत् जुड़ जाता है । नारकियों को दुष्ट देवों से भी कष्ट प्राप्त होता है जो उन्हें पिघले लोहे का पान, वक्ष से गर्म लोह-स्तम्भ का स्पर्श तथा कांटेदार वृक्षों पर चढ़ने और उतरने को बाध्य करते हैं । इस प्रकार के देव परमाधार्मिक कहलाते हैं जो पहली तीन भूमियों तक जाते हैं । ये एक प्रकार के असुर-देव हैं जो बहुत क्रूर स्वभाववाले तथा पापरत होते हैं । इनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि इन्हें दूसरों को सताने में हो आनन्द आता है । इनकी निम्नोक्त पन्द्रह जातियाँ हैं : १. अम्ब, २. अम्बरीष, ३. श्याम, ४. शबल, ५. रुद्र, ६. उपरुद्र, ७. काल, ८. महाकाल, ६. असिपत्र, १०. धनुष, ११. कुम्भ, १२. वालुक, १३. वैतरणी, १४. खरस्वर, १५. महाघोष । नारकी जीवों के जीवन-काल Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैन धर्म-दर्शन को कम नहीं किया जा सकता अर्थात् वे अकाल मृत्यु से नहीं मर सकते। देव : देव एक विशेष प्रकार की शय्या पर जन्म लेते हैं। वे गर्भज नहीं होते, अकाल मृत्यु से नहीं मरते, परिवर्तनशील शरीर धारण करते हैं तथा पहाड़ों एवं सागरों से घिरे हुए धरातल के विभिन्न भागों में स्वतन्त्र विचरते और आनन्द लेते हैं। इनमें अद्भुत पराक्रम होता है। देवों के चार प्रकार होते हैं : भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनके क्रमशः १०, ८,५ और १२ उपभेद हैं। वे स्वर्ग जिनमें इन्द्र, सामानिक आदि पद होते हैं, कल्प कहे जाते हैं। कल्पों में उत्पन्न देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं। कल्पों से ऊपर कोई पदविभाजन नहीं होता। अतः ऐसे स्वर्गों में उत्पन्न होनेवाले देव कल्पातीत कहे जाते हैं। ये सब देव समान होते हैं। ये सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। किसी निमित्त से मनुष्यलोक में जाने का प्रसंग उपस्थित होने पर कल्पोपपन्न देव ही.जाते हैं, कल्पातीत नहीं। भवनवासी तथा ऐशान कल्प तक के अन्य देव वासनात्मक सुख-भोग मनुष्यों की भांति ही करते हैं। सानत्कुमार तथा माहेन्द्र कल्प के देवगण देवियों के शरीर का मात्र स्पर्श करके कामसुख प्राप्त करते हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ कल्पों के देव देवियों की सुन्दरता को देखकर ही अपनी वासना की पूर्ति करते हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पों में देवलोग सिर्फ देवियों का मधुर गान आदि सुनकर ही अपनी वासना को तृप्त करते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों के देवगण मात्र १. तत्त्वार्थसूत्र, २. ५२; ३. ३-५; समवायांग, १५. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ तत्वविचार देवियों को याद करके ही अपनी कामेच्छा को शान्त करते हैं। शेष देव काम-वासना से रहित होते हैं। भवनपतियों अथवा भवनवासियों में निम्नोक्त देवों की गणना होती है : १ असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. विद्युत्कुमार, ४. सुपर्णकुमार, ५. अग्निकुमार, ६. वातकुमार, ७. स्तनितकुमार, ८. उदधिकुमार, ६. द्वीपकुमार और १०. दिक्कुमार । चूंकि ये देवगण अपने वस्त्राभूषणों, शस्त्रास्त्रों, वाहनों आदि से युवा दीखते हैं अतः कुमार कहे जाते हैं। ___ असुरकुमारों के भवन प्रथम नरक के पंकबहुल भाग में होते हैं। अन्य कुमारों के निवासस्थान प्रथम पृथ्वी रत्नप्रभा के ठोस भाग की ऊपरी और नीची तहों में एक-एक हजार योजन छोड़ कर होते हैं ।3। किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच व्यन्तर देव हैं। राक्षस पंकबहुल भाग में रहते हैं। अन्य व्यन्तर देवों के निवासस्थान असंख्य द्वीपों और सागरों से परे ऊपरी ठोस भाग में होते हैं । ज्योतिष्क देवों में सूर्यो, चन्द्रमाओं, ग्रहों, नक्षत्रों और तारों का समावेश होता है। इनमें सबसे नीचे तारे होते हैं जो ७६० योजन की ऊंचाई पर घूमते हैं। सूर्य उनसे १० योजन अधिक ऊंचे घूमते हैं। इनसे ८० योजन अधिक ऊंचे चन्द्र घूमते हैं। उनसे चार योजन अधिक ऊचे नक्षत्र हैं। इनसे चार योजन अधिक ऊचे बुध ग्रह है। इनसे तीन योजन अधिक ऊंचे शुक्र हैं। इनसे भी तीन योजन अधिक ऊचे बृहस्पति, १. तत्त्वार्थसूत्र, २. ३५, ४७, ५२; ४. १-१०, १७-१८. २. वही, ४. ११. ३. सर्वार्थसिद्धि, ४. १०. ४. वही, ४. ११. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२३८ जैन धर्म-दर्शन उनसे भी तीन योजन अधिक ऊंचे अंगारक तथा उनसे भी तीन योजन अधिक ऊँचे शनैश्चर हैं । ये ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत के चारों ओर मनुष्यक्षेत्र के अन्तर्गत, जो कि ढाई द्वीपों और दो सागरों तक है, सदा गतिमान रहते हैं। मनुष्यक्षेत्र से बाहर ये स्थिर रहते हैं। जम्बूद्वीप में २, लवणसमुद्र ४, धातकीखण्ड में १२, कालोदधि में ४२ और पुष्करार्ध में ७२ इस प्रकार कुल मिलाकर मनुष्यक्षेत्र में १३२ सूर्य और १३२ ही चन्द्र हैं । समय- विभाजन इन ज्योतिर्मय देवों की गति से ही निर्धारित होता है ।" वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं: कल्पों में जन्म लेने वाले अर्थात् कल्पोपपन्न और कल्पों से परे जन्म लेनेवाले अर्थात् कल्पातीत । कल्पों में रहनेवाले देवों के १२ इन्द्र हैं । जो कल्पों से परे जन्म लेते हैं उनके इन्द्र आदि नहीं होते । ऊपर-ऊपर के वैमानिक देव नीचे-नीचे के वैमानिक देवों से आयु, बल, सुख, तेज आदि की दृष्टि से श्रेष्ठतर होते हैं । कल्पोपपत्र देवों में निम्नोक्त १० पद होते हैं : १ इन्द्र-जो सामानिक आदि सब प्रकार के देवों के स्वामी हों, २. सामानिक जो समृद्धि में इन्द्र के समान हों किन्तु जिनमें इन्द्रत्व न हो. ३. त्रास्त्रिरा- जो मंत्री का काम करते हों, ४. पारिषद्य-जो मित्र का काम करते हों, ५. आत्मरक्ष-जो शस्त्र उठाये पीछे खड़े रहते हों, ६. लोकपाल- जो सीमा की रक्षा करते हों, ७. अनीक - जो सैनिकरूप हों, ८. प्रकीर्णक- जो नागरिक के समान हों, E. अभियोग्य - जो सेवक के तुल्य हों, १०. किल्विषिक- जो अन्त्यज के समान हों । भवनपतियों में भी ये दस पद होते हैं । १. वही, ४. १२-१५; धवला, पुस्तक ४, पृ० १५०-१५१. २. तत्त्वार्थ सूत्र, ४.१८, २१. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २३६ व्यन्तरों एवं ज्योतिष्कों में प्रायस्त्रिंग और लोकपाल को छोड़ शेष आठ पद ही होते हैं।' ___ ब्रह्म अथवा ब्रह्मलोक नामक पांचवें स्वर्ग (कल्प) के चारों ओर दिशाओं-विदिशाओं में लोकान्तिक' देव रहते हैं। ये विषयरति से रहित होने के कारण देवर्षि कहलाते हैं। इनमें पारस्परिक उच्च-नीच भाव का अभाव होता है। ये तीर्थङ्करों के अभिनिष्क्रमण अर्थात् गृहत्याग के समय उनके सामने उपस्थित होकर प्रतिबोध देने का अपना आचार पालते हैं। ____ ग्यारहवीं-बारहवीं शती के आसपास में हिन्दुओं के प्रभाव से जैनधर्म में अनेक नवीन देव-देवियों का प्रवेश हुआ। इनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गई। इनमें कुछ प्रमुख देवियों के नाम इस प्रकार हैं : अम्बिका, चक्रेश्वरी, ज्वालिनी अथवा ज्वालामालिनी, पद्मावती, चामुण्डा, महादेवी, भारती अथवा सरस्वती। इनमें से कुछ के नाम तीर्थङ्करों की शासनदेवियों के रूप में आते हैं। ___ ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थङ्करों के यक्षों, शासनदेवियों एवं लांछनों के नाम इस प्रकार हैं तीर्थङ्कर यक्ष शासनदेवी लांछन १. ऋषभदेव गोमुख चक्रेश्वरी बैल (आदिनाथ) २. अजितनाथ महायक्ष अजिता । ३. संभवनाथ त्रिमुख दुरितारि घोड़ा ४. अभिनन्दन ईश्वर काली बंदर ५. सुमतिनाथ तुंबुरु महाकाली क्रौंच १. वही, ४. ४-५. २. सर्वार्थ सिद्धि, ४. २४-२५. ३. प्रवचनसारोद्धार, गा० ३७३-७६, ३७६-८०. हाथी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैन धर्म-दर्शन ६. पद्मप्रभ कुसुम अच्युता कमल ७. सुपार्श्वनाथ मातंग शान्ता स्वस्तिक ८. चन्द्रप्रभ विजय ज्वाला चन्द्र ६. सुविधिनाथ अजित सुतारा मगर १०. शीतलनाथ ब्रह्म अशोका श्रीवत्स ११. श्रेयांसनाथ मनुज श्रीवत्सा गैंडा १२. वासुपूज्य सुरकुमार प्रवरा भैसा १३. विमलनाथ षण्मुख विजया सूअर १४. अनन्तनाथ पाताल अंकुशा बाज १५. धर्मनाथ किन्नर पन्नगा वज़ १६. शान्तिनाथ गरुड निर्वाणी हिरन १७. कुंथुनाथ गन्धर्व अच्युता बकरा १८. अरनाथ यक्षेन्द्र धरणी नन्दावर्त १६. मल्लिनाथ कूबर वैरोट्या कलश २०. मुनिसुव्रत वरुण अच्छुप्ता कछआ २१. नेमिनाथ भृकुटी गान्धारी नीलकमल २२. अरिष्टनेमि गोमेध अम्बा शंख (नेमिनाथ) २३. पार्श्वनाथ वामन पद्मावती सर्प २४. महावीर मातंग सिद्धायिका (वर्षमान) मनुष्य : * मनुष्य तथा तिर्यञ्च (पशु-पक्षी एवं पेड़-पौधे आदि) मध्य लोक में रहते हैं । मनुष्य दो प्रकार के होते हैं : आर्य तथा म्लेच्छ । जो सद्गुणों को धारण करते हैं वे आर्य कहलाते हैं। इनके भी दो भेद हैं : एक जो अलौकिक शक्ति धारण करते हैं और दूसरे जिन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं होती । असाधारण सिंह Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वविचार २४१ ज्ञान, रूप-परिवर्तन, तप, बल, औषधशक्ति, साधारण भोजन को स्वादिष्ट वना देने का असाधारण सामर्थ्य एवं व्यक्तियों की संख्या बढ़ जाने पर भी सामग्री को समाप्त न होने देने की शक्ति के आधार पर प्रथम के सात उपभेद होते हैं । क्षेत्र, जाति, कर्म, चारित्र और श्रद्धा के आधार पर दूसरे पांच प्रकार के होते हैं । म्लेच्छ भी दो प्रकार के होते हैं- एक जो अन्तद्वीपों में जन्म लेते हैं और दूसरे जो कर्मभूमियों में जन्म लेते हैं । अन्तद्वीपों की संख्या छप्पन है तथा कर्मभूमियों की संख्या पन्द्रह है ( पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेह ) | देवकुरु, उत्तरकुरु, हेमवत, हरि, रम्यक, हैरण्यवत और अन्तद्वीप भोगभूमि के नाम से सम्बोधित होते हैं । कर्मभूमि में पुरुषार्थ की प्रधानता होती है । भोगभूमि में आवश्यकता की सभी वस्तुएं कल्पवृक्षों से प्राप्त होती हैं । आर्यलोग कर्मभूमि के सभ्य क्षेत्रों में ही जन्म लेते हैं । म्लेच्छ कर्मभूमि के असभ्य क्षेत्रों तथा भोगभूमि के समस्त क्षेत्रों एवं अन्तद्वीपों में रहते हैं । केवल आर्यक्षेत्र में ही तीर्थंकर का प्रादुर्भाव होता है और आर्यलोग ही उनके उपदेशों से लाभान्वित होते हैं। मात्र कर्मभूमि में ही मुक्ति संभव होती है । भोगभूमि सिर्फ सांसारिक वस्तुओं को भोगने का स्थान है । वह संन्यास या संयम के अनुकूल नहीं होती, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है । भोगभूमि में कोई भी सांसारिक सुख त्यागकर आत्मसंयम की बात नहीं सोचता । भोगभूमि के लोग सदा सांसारिक सुखों के पीछे पड़े रहते हैं । अतः वे मुक्ति पाने में असमर्थ होते हैं। यहां तक कि देवताओं को भी मोक्ष पाने के लिए कर्मभूमि में जन्म लेना पड़ता है । ' 1. Sacred Books of the East, Vol. XXII, p. 195fn. etc. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन धर्म-दर्शन तीर्थंकर : ___ 'तीर्थ' स्थापित करनेवाले को तीर्थकर कहते हैं । तीर्थ के अन्तर्गत साध, माध्वी, श्रावक और धाविका इन चार प्रकार के बतियों का समावेश होता है। मानव जीवन की ये चार अवस्थाएं मुक्तिप्राप्ति में सहायक होती हैं अर्थात् इनसे जो तीर्थ बनता है वह मुक्ति की ओर ले जाता है। तीर्थंकर सर्वज्ञ एवं मर्वदर्शी तथा सब प्रकार के दोषों से रहित होते हैं। वे तीर्थ अर्थात् धर्मसंघ की स्थापना करते हैं तथा धर्मोपदेश देते हैं । तीर्थकर अपनी माता के गर्भ में जिस दिन प्रवेश करते हैं उस रात में उनकी माता को १४ प्रकार के स्वप्न दिखाई पड़ते हैं-~१. सफेद हाथी, २. सुलक्षण उजला सांड़, ३. सुन्दर सिंह, ४. शुभ अभिषेक, ५. मनमोहिनी माला, ६. चन्द्र, ७. सूर्य, ८ सुन्दर पताका, ६. शुद्ध जल से पूर्ण तथा कमल के गुच्छों से शोभायमान कलश, १०. कमल से सुशोभित सरोवर, ११. क्षीरसागर, १२. देवविमान, १३. रत्नराशि और १४. अग्निशिखा।' ___ तीर्थङ्कर ३४ प्रकार के अतिशय अर्थात् वैशिष्ट्य से युक्त होते हैं- १. मस्तक के केश, दाढ़ी, मूछ, रोम और नखों का मर्यादा से अधिक न बढ़ना, २. शरीर का स्वस्थ एवं निर्मल रहना, ३. रक्त और मांस का गाय के दूध के समान श्वेत रहना, ४. पद्मगंध के समान श्वासोच्छवास का सुगन्धित होना, ५. आहार और शौच क्रिया का प्रच्छन्न होना, ६. तीर्थङ्कर देव के आगे आकाश में धर्मचक्र रहना, ७. उनके ऊपर तीन छत्र रहना, ८. दोनों ओर श्रेष्ठ चंवर रहना, ६. आकाश के समान स्वच्छ १. कल्पसूत्र, म्० ५. २. समवायांग, सम० ३४. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २४३ स्फटिक मणि का बना हुआ पादपीठ वाला सिंहासन होना, १०. तीर्थङ्कर देव के आगे आकाश में इन्द्रध्वज का चलना, ११. जहाँ-जहाँ अरहंत भगवंत ठहरते हैं या बैठते हैं वहाँ उसी क्षण पत्र, पुष्प, और पल्लव से सुशोभित छत्र, ध्वज, घंट एवं पताका सहित अशोक वृक्ष का उत्पन्न होना, १२. कुछ पीछे मुकुट के स्थान पर तेजोमंडल का होना तथा अन्धकार होने पर दस दिशाओं में प्रकाश होना, १३. जहाँ-जहाँ पधारें वहाँ-वहाँ के भूभाग का समतल होना, १४, कंटको का अधोमुख होना, १५. ऋतुओं का अनुकूल होना, १६. संवर्तक वायु द्वारा एक योजन पर्यन्त क्षेत्र का शुद्ध हो जाना, १७. मेघ द्वारा रज का उपशान्त होना, १८. जानुप्रमाण देवकृत पुष्पों की वृष्टि होना एवं पुष्पों के डंठलों का अधोमुख होना, १६. अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श का न रहना, २०. मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श का प्रकट होना, २१. योजन पर्यन्त सुनाई देनेवाला हृदयस्पर्शी स्वर होना, २२. अर्धमागधी भाषा में उपदेश करना, २३. अर्धमागधी भाषा का उपस्थित आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरिसृपों की भाषा में परिणत होना तथा उन्हें हितकारी, सुखकारी एवं कल्याणकारी प्रतीत होना, २४. पूर्वभव के वैरानुबन्ध से बद्ध देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किंनर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व और महोरग का अरहंत के समीप प्रसन्नचित्त होकर धर्म सुनना, २५. अन्यतीथिकों का नतमस्तक होकर वन्दना करना, २६ अरहंत के समीप आकर अन्यतीर्थिकों का निरुत्तर होना, २७. जहाँ-जहाँ अरहंत भगवंत पधारें वहाँवहाँ पच्चीस योजन पर्यन्त चूहे आदि का उपद्रव न होना, २८. प्लेग आदि महामारी का उपद्रव न होना, २६. स्वसेना का Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैन धर्म-दर्शन विप्लव न करना, ३०. अन्य राज्य की सेना का उपद्रव न होना, ३१. अधिक वर्षा न होना, ३२. वर्षा का अभाव न होना, ३३. दुभिक्ष न होना, ३४. पूर्वोत्पत्र उत्पात तथा व्याधियों का उपशान्त होना। तिर्यञ्च : तिर्यञ्च प्राणियों के दो भेद होते हैं-त्रस ( चल ) तथा स्थावर ( अचल ) । स्थावर के पाँच प्रकार होते है-पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायु काय तथा वनस्पतिकाय । ये पुनः अनेक उपभेदों में विभक्त होते है। ये सूक्ष्म अथवा स्थूल होते हैं। पृथ्वीकाय में इनका ममावेश होता है-मिट्टी, कंकड़, बाल, पत्थर, पथरीला नमक, लोहा, ताँबा, चाँदी, सोना, हीरा आदि । जल, ओसकण, कुहरा आदि अप्काय हैं । अग्नि, बिजली आदि की गिनती तेजस्काय में होती है। धीमी हवा, धनी हवा, तेज हवा आदि वायुकाय की श्रेणी में आते हैं। वनस्पतिकाय में बहुतों का एक ही सामान्य शरीर ( साधारण शरीर ) होता है या सबके अलग-अलग शरीर ( प्रत्येक शरीर ) होते हैं। त्रस जीवों के चार प्रकार होते हैं-दो इन्द्रियोंवाले, तीन इन्द्रियोंवाले, चार इन्द्रियोंवाले तथा पांच इन्द्रियोंवाले । कीट, सीप,घोंघा आदि को दो इन्द्रियां(स्पर्शन और रसन)होती हैं। खटमल आदि को तीन इन्द्रियां (स्पर्शन, रसन और घ्राण) होती हैं। मक्खी. मच्छर, आदि को चार इन्द्रियां (स्पर्शन, रसन, घ्राण तथा चक्षु) होती हैं। पंचेन्द्रिय (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्र ) जीवों के दो भेद होते हैं-सम्मूच्छिम अर्थात् वे जो बिना गर्भ के सहज उत्पन्न होते हैं और गर्भज अर्थात् वे जो गर्भ द्वारा जन्म लेते हैं। इनमें से भी प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार होते हैं—पानी में रहनेवाले (जलचर), भूमि पर रहनेवाले (स्थलचर) तथा वायु यानी आकाश में रहनेवाले ( नभचर)। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविचार २४५ मछलियां, कछए, घड़ियाल आदि जलचर होते हैं। स्थलचर जन्तुओं के दो प्रकार होते हैं-चौपाये तथा रेंगनेवाले । चौपायों के चार प्रकार होते हैं-ठोस खुरवाले जैसे घोड़े आदि, दो खुरवाले जैसे गायें आदि, कई खुरवाले जैसे हाथी आदि, वैसे जानवर जिनके नखवाले पंजे होते हैं जैसे सिंह आदि । रेंगनेवाले जन्तुओं के दो भेद होते है-वे जो अपनी बाहों पर चलते हैं और वे जो छाती के बल रेंगते हैं। छिपकली आदि प्रथम प्रकार के हैं तथा सांप आदि द्वितीय प्रकार के । नभचरों के चार प्रकार होते हैं-वे जिनके पर झिल्लीदार होते हैं, वे जिनके पर पंख वाले होते हैं, वे जिनके पर पेटी की तरह होते हैं और वे जो परों को बाहर करके बैठते हैं।' १. उत्तराध्ययन, ३६. ६६.१८५ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४ : ज्ञानमीमांसा ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध दण्ड और दण्डी के सम्बन्ध से भिन्न है। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना करना सम्भव नहीं। न्याय-वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आगन्तुक मानता है, मौलिक नहीं। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक धर्म मानता है। कहीं-कहीं तो ज्ञान को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है कि आत्मा के अन्य गुणों की उपेक्षा करके ज्ञान और आत्मा को एक मान लिया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय और निश्चयनय का सहारा लेकर कहा कि व्यवहारनय से आत्मा और ज्ञान में भेद है, किन्तु निश्चयनय से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं।' यहाँ पर आत्मा के अन्य गुणों को ज्ञानान्तर्गत कर लिया गया है, अन्यथा यह कभी नहीं हो सकता कि ज्ञान ही आत्मा हो जाय, क्योंकि आत्मा में और भी कई गुण हैं। इस बात का प्रमाण आगे मिलता है। प्रवचनसार में उन्होंने स्पष्ट लिख दिया है कि अनन्तसुख अनन्तज्ञान है। सुख और ज्ञान अभिन्न हैं। जैन आगमों में भी यही बात मिलती है। आत्मा और ज्ञान के अभेद की चर्चा बहुत पुरानी है। कुन्दकुन्द ने सर्वज्ञ की चर्चा करते समय भी यही कहा कि व्यवहारदृष्टि से केवली सभी द्रव्यों को जानता है । परमार्थतः वह आत्मा को १. समयसार, ६-७. २.१.५६-६०. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २४७ ही जानता है ।" आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं, अतः केवल आत्मा को जानता है, इसका अर्थ यह हुआ कि केवली अपने ज्ञान को जानता है । अपने ज्ञान को कैसे जाना जा सकता है ? उसके लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता रहने पर अनवस्था होती है। ज्ञान स्वयं को स्वयं से जानता है, यह बात जल्दी समझ में नहीं आती। कोई भी चतुर नट अपने खुद के कन्धों पर नहीं चढ़ सकता । अग्नि अपने आप को नहीं जला सकती । जैन दर्शन मानता है कि ज्ञान अपने आप को जानता हुआ ही दूसरे पदार्थों को जानता है । वह दीपक की तरह स्वयं प्रकाशक है । तात्पर्य यह है कि आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है । इसीलिए ज्ञान का इतना महत्त्व है । आगमों में ज्ञानवाद : आगमों में ज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ मिलती हैं वे बहुत प्राचीन हैं । सम्भवतः ये मान्यताएँ भगवान् महावीर के पहले की हों। पंचज्ञान की चर्चा आगम साहित्य में मिलती है । उसके विषय में राजप्रश्नीय सूत्र में एक वृत्तान्त मिलता है। श्रमण केशिकुमार अपने मुख से कहते हैं - हम श्रमण निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के ज्ञान मानते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान । केशिकुमार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु थे । उन्होंने अपने मुख से पाँच ज्ञानों का १. जाणदि पस्सदि सळां, ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाण दि, पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥ - नियमसार, १५८. २. एवं खु पएसी अम्हं समणाणं निम्गंथागं पंचविहे नाणे पण्णत्ते । तंजा -- अभिणि वोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे केवलणाणे | १६५. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन धर्म-दर्शन नाम लिया है। ठीक वे ही पाँच ज्ञान महावीर की परम्परा में भी प्रचलित हुए । महावीर ने ज्ञानविषयक कोई नवीन प्ररूपणा नहीं की । यदि पार्श्वनाथ की परम्परा से महावीर का एतद्विषयक कुछ भी मतभेद होता तो वह आगमों में अवश्य मिलता । पंचज्ञान की मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्राय: एक सी है । इस विषय पर केवल - ज्ञान और केवलदर्शन आदि की एक-दो बातों के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है । जैन आगमों में पंचज्ञान की मान्यता के कितने रूप मिलते हैं व उनके भेद-प्रभेदों में क्या अन्तर है, इस पर थोड़ा विचार करें । आगमों में ज्ञानचर्चा की तीन भूमिकाएं मिलती हैं ।" १. प्रथम भूमिका में है और प्रथम भेद के पुनः भगवतीसूत्र में इस प्रकार है आभिनिबोधिक श्रुत ज्ञान का सीधा पाँच भेदों में विभाग चार भेद किए गए हैं। यह विभाग २ ज्ञान अवधि मन:पर्यय अवग्रह ईहा अवाय धारणा २. द्वितीय भूमिका में ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त किया गया है । तदनन्तर प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद-प्रभेद करके ज्ञान का विस्तार किया गया है । यह योजना स्थानांग सूत्र में है : केवल १. न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, प्रस्तावना, पृ० ५८ ( पं० दलसुख मालवणिया ). २. भगवतीसूत्र, ८.२. ३१७. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमासा २४६ ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष केवल नोकेवल आभिनिबोधिक श्रुत अवधि मनःपर्यय भवप्रत्यय क्षायोपशमिक ऋजुमति विपुलमति श्रुतनिःसृत अश्रुतनिःसृत अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह अंगप्रविष्ट अंगबाह्य आवश्यक आवश्यकव्यतिरिक्त कालिक उत्कालिक ३. द्वितीय भूमिका में इन्द्रियजन्य मतिज्ञान का परोक्ष के अन्दर समावेश किया गया। तृतीय भूमिका में इस विषय में थोड़ा-सा परिवर्तन हो गया। इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष और Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन धर्म-दर्शन परोक्ष दोनों में स्थान दिया गया। इसका कारण लौकिक प्रभाव मालूम होता है। नन्दीसूत्र के अनुसार इस भूमिका का सार यह है : ज्ञान आभिनिवोधिक श्रत अवधि मनःपर्यय केवल प्रत्यक्ष परोक्ष परोक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष नोइन्द्रियप्रत्यक्ष आभिनिबोधिक श्रुत १. श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष १. अवधि २. चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष २. मनःपर्यय ३. घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष ३. केवल ४. रसनेन्द्रियप्रत्यक्ष ५. स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष श्रुतनिःसृत अश्रुतनिःमृत अवग्रह ईहा अवाय धारणा व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह औल्पत्तिकी वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी उपर्युक्त तीनों भूमिकाओं को देखने से पता लगता है कि Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । २५१ प्रथम भूमिका में दार्शनिक पुट का अभाव है । यह भूमिका प्राचीन परम्परा का सीधा-सा दिग्दर्शन है । ज्ञान को प्रारम्भ से ही पाँच भागों में विभक्त करके मतिज्ञान के अवग्रहादि प्रभेद करना बहुत प्राचीन परिपाटी है। इसी परिपाटी का दिग्दर्शन भगवतीसूत्र में है । द्वितीय भूमिका पर दार्शनिक चिन्तन का प्रभाव है और साथ ही साथ शुद्ध जैन दृष्टि की छाप भी है । सर्वप्रथम ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त किया गया । यह विभाग बाद के जैन तार्किकों द्वारा भी मान्य हुआ । इस विभाग के पीछे वैशद्य और अवैशद्य की भूमिका है । वैशद्य का आधार आत्मप्रत्यक्ष है और अवैशद्य का आधार इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान है। जैन दर्शन की प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्धी व्याख्या इसी आधार पर है । अन्य दर्शनों की प्रत्यक्ष-विषयक मान्यता से जैन दर्शन की प्रत्यक्ष विषयक मान्यता में यही अन्तर है कि जैन दर्शन आत्मप्रत्यक्ष को ही वास्तविक प्रत्यक्ष मानता है, जब कि अन्य दर्शन इन्द्रियजन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानते हैं । अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष के भेद हैं । क्षेत्र, विशुद्धि आदि की दृष्टि से इनमें तारतम्य है । केवलज्ञान शुद्धि, क्षेत्र आदि की अन्तिम सीमा है । इससे बढ़कर कोई ज्ञान विशुद्ध या पूर्ण नहीं है । आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष के भेद हैं । आभिनिबोधिकज्ञान को मतिज्ञान भी कहते हैं । श्रुतज्ञान का आधार मन है । मतिज्ञान का आधार इन्द्रियाँ और मन दोनों हैं । मति, श्रुतादि के अनेक अवान्तर भेद हैं । तृतीय भूमिका में जैन दृष्टि और इतर दृष्टि दोनों का पुट है। प्रत्यक्ष को इन्द्रिय- प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय- प्रत्यक्ष इन दो भागों में बाँटा गया । इन्द्रिय- प्रत्यक्ष में इन्द्रियजन्य ज्ञान को स्थान मिला, जो वास्तव में इन्द्रियाश्रित होने से परोक्ष है। नोइन्द्रिय Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन धर्म-दर्शन प्रत्यक्ष में वास्तविक प्रत्यक्ष रखा गया, जो इन्द्रियाश्रित न होकर सीधा आत्मा से उत्पन्न होता है । इन्द्रियप्रत्यक्ष जैनेतर दृष्टि का, जिसे हम लौकिक दृष्टि कह सकते हैं, प्रतिनिधित्व करता है । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष जैन दर्शन की वास्तविक परम्परा का द्योतक है ही । आभिनिबोधिकज्ञान के अवग्रहादि भेदों का बाद के तार्किकों ने भी अच्छा विश्लेषण किया है । स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि की इन तार्किकों ने दार्शनिक भूमिका पर जिस ढंग से व्याख्या की है वैसी व्याख्या आगमकाल में नहीं मिलती । इसका कारण दार्शनिक संघर्ष है । आगमकाल के बाद जैन दार्शनिकों को अन्य दार्शनिक विचारों के साथ काफी संघर्ष करना पड़ा और उस संघर्ष के परिणामस्वरूप एक नए ढंग के ढांचे का निर्माण हुआ । इस ढाँचे की शैली और सामग्री दोनों का आधार दार्शनिक चिंतन रहा । सर्वप्रथम हम पाँचों ज्ञानों का स्वरूप देखेंगे । इसके लिए आवश्यकतानुसार आगमग्रंथ और दार्शनिक ग्रंथ दोनों का उपयोग किया जाएगा । तर्कशास्त्र और प्रमाणशास्त्र से सम्बन्धित स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि का विवेचन प्रमाणचर्चा के समय किया जाएगा। इस विवेचन का मुख्य आधार प्रमाणशास्त्र से सम्बन्धित दार्शनिक ग्रंथ होंगे । मतिज्ञान : हम देख चुके हैं कि आगमों में मतिज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान कहा गया है । उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को एकार्थक बताया है ।' भद्रबाहु ने मति१. मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽसि निबोध इत्यनर्थान्तरम् । --तस्वार्थसूत्र १.१३. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा २५३ ज्ञान के लिए निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग किया है-ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा ।' नंदीसूत्र में भी ये ही शब्द हैं। मतिज्ञान का लक्षण बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है । स्वोपज्ञभाष्य में मतिज्ञान के दो प्रकार बताए गए हैं-इन्द्रियजन्यज्ञान और मनोजन्यज्ञान । ये दो भेद उपर्युक्त लक्षण से ही फलित होते हैं। सिद्धसेनगणि की टीका में तीन भेदों का वर्णन है-इन्द्रियजन्य, अनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य । इन्द्रियजन्य ज्ञान केवल इन्द्रियों से उत्पन्न होता है । अनिन्द्रियजन्य ज्ञान केवल मन से पैदा होता है । इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन दोनों का संयुक्त प्रयत्न आवश्यक है। ये तीन भेद भी उपर्युक्त सूत्र से ही फलित होते हैं। की टीका मयुक्त लक्षण से हान्यज्ञान और में __ अकलंक ने सम्यग्ज्ञान ( प्रमाण ) के दो भेद किए हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-मुख्य और सांव्यवहारिक । मुख्य को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष का नाम भी दिया है ।" इन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद किए गए हैं--अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध में विभक्त किया है। श्रुत, अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान १. विशेषावश्यकभाष्य, ३६६. २. तदिन्द्रियानिन्द्रियमिमित्तम् , १.१४. ३. तत्त्वार्थभाष्य, १.१४. ४. तत्त्वार्थसूत्र पर टीका, १.१४. ५. लघीयस्त्रय, ३-४. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन धर्म-दर्शन आदि परोक्षान्तर्गत हैं।' इन्द्रियप्रत्यक्ष के चार भेद बताए गए हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनके अवान्तर भेद भी है, जिनका निर्देश आगे किया जाएगा। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्मृति, संज्ञा आदि भेद हैं। यहाँ पर हम अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के स्वरूप का विचार करेंगे। ये चारों मतिज्ञान के मुख्य भेद हैं। इसके पहले इन्द्रिय और मन का क्या अर्थ है, यह देख लें। इन्द्रिय : आत्मा की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का. आवरण होने से सीधा आत्मा से ज्ञान नहीं हो सकता। इसके लिए किसी माध्यम की आवश्यकता रहती है। यह माध्यम इन्द्रिय है। जिसकी सहायता से ज्ञान का लाभ हो सके वह इन्द्रिय है। ऐसी इन्द्रियाँ पाँच है--स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । सांख्य आदि दर्शन वाक, पाणि आदि कर्मेन्द्रियों को भी इंद्रिय-संख्या में गिनते हैं। ज्ञानेन्द्रियां पाँच ही हैं। प्रत्येक इन्द्रिय दो प्रकार की होती हैद्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । पुद्गल का ढाँचा द्रव्येन्द्रिय है और आत्मा का परिणाम भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय के पुनः दो भेद हैंनिर्वृत्ति और उपकरण । इन्द्रियों की आभ्यन्तर आकृतियाँ निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय है एवं बाह्य आकृतियाँ उपकरण द्रव्येन्द्रिय है । भावेन्द्रिय भी लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार की है। ज्ञानावरण कर्म आदि के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली आत्मिक शक्ति-विशेष लब्धि है । लब्धि प्राप्त होने पर आत्मा एक विशेष प्रकार का . १. वही, ६१. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ ज्ञानमीमांसा व्यापार करती है। यही व्यापार उपयोग है। स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है । रसनेन्द्रिय का विषय रस है। घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है । चक्षुरिन्द्रिय का विषय वर्ण है। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है ।' मन : प्रत्येक इन्द्रिय का भिन्न-भिन्न विषय है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय का ग्रहण नहीं कर सकती। मन एक ऐसी सूक्ष्म इन्द्रिय है जो सभी इन्द्रियों के सभी विषयों का ग्रहण कर सकता है । इसलिए इसे सर्वार्थग्राही इन्द्रिय कहते हैं। इसको अनिन्द्रिय इसलिए कहा जाता है कि यह अत्यन्त सूक्ष्म है । अनिन्द्रिय का अर्थ इन्द्रिय का अभाव नहीं अपितु ईषत् इन्द्रिय है । जैसे अनुदरा कन्या का अर्थ बिना उदरवाली लड़की नही होता अपितु ऐसी लड़की होता है जिसका उदर गर्भभार सहन करने में असमर्थ है। उसी प्रकार चक्षुरादि के समान प्रतिनियत देश, विषय, अवस्थान का अभाव होने से मन को अनिन्द्रिय कहते हैं। इसका नाम अन्तःकरण भी है क्योंकि इसका अन्य इन्द्रियों की तरह कोई बाह्य आकार नहीं है। इसे सूक्ष्म इन्द्रिय इसलिए कहते हैं कि यह अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म है। इन्द्रियों की तरह मन भी दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन पौद्गलिक है । भावमन लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार का है। मतिज्ञान के विषय में एक शंका का समाधान करके फिर अक्ग्रहादि के विषय में लिखेंगे। शंका यह है कि मतिज्ञान की १. प्रमाणमीमांसा, १. २. २१-२३. २. सर्वार्थग्रहणं मनः । -वही, १. २. २४. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन धर्म-दर्शन उत्पत्ति के लिए कवल इन्द्रिय और मन काफी नहीं हैं । उदाहरण के लिए चक्षुरिन्द्रिय को लीजिए । उसके द्वारा ज्ञान तभी उत्पन्न होता है जब प्रकाश और पदार्थ दोनों उपस्थित हों। इसलिए मतिज्ञान की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक है कि इन्द्रिय और मन के अतिरिक्त पदार्थ तथा अन्य आवश्यक सामग्री उपस्थित हो । जैन दर्शन इस शर्त को नहीं मानता।अर्थ, आलोक आदि ज्ञान की उत्पत्ति में अनिवार्य निमित्त नहीं हैं क्योंकि ज्ञानोत्पत्ति और अर्थालोक में कोई व्याप्ति नहीं है । दूसरे शब्दों में, बाह्य पदार्थ और प्रकाश ज्ञानोत्पत्ति के आवश्यक और अव्यवहित कारण नहीं हैं। यह ठीक है कि वे आकाश, काल आदि की तरह व्यवहित कारण हो सकते हैं। यह भी ठीक है कि वे मतिज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम के प्रति उपकारक हैं। इतना होते हुए भी उन्हें ज्ञानोत्पत्ति के प्रति कारण इसलिए नहीं माना जा सकता कि उनका और ज्ञान का अविनामाव सम्बन्ध नहीं है । यह कैसे ? आलोक और अर्थ ज्ञानोत्पत्ति में अव्यवहित कारण तभी माने जाते जब आलोक और अर्थ के अभाव में ज्ञान की उत्पत्ति होती ही नहीं। किन्तु ऐसी बात नहीं है। नक्तंचर, मार्जार आदि रात्रि में भी देखते हैं। यदि आलोक के अभाव में रूपज्ञान नहीं होता तो उन्हें कैसे दिखाई देता? यह कहने से काम नहीं चल सकता कि उनके नेत्रों में तेज होता है अतः वे रात्रि में भी देख सकते हैं, क्योंकि ऐसा कहने का अर्थ होगा अपनी प्रतिज्ञा का त्याग। दूसरी ओर उलूकादि दिन के प्रकाश में नहीं देख सकते । वे रात्रि में ही देख सकते हैं। यदि प्रकाश ज्ञानोत्पत्ति का आवश्यक कारण होता तो उन्हें दिन में दिखाई देता। हमारे सामने दोनों तरह के उदाहरण विद्यमान हैं। पहला उदाहरण Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा २५७ रात्रि और दिन-अन्धकार और आलोक दोनों में रूपज्ञान की उत्पत्ति का है। दूसरा उदाहरण बिल्कुल विपरीत है। केवल अंधकार में ही होने वाला रूपज्ञान 'आलोक के अभाव में रूपज्ञान नहीं हो सकता' इस सिद्धान्त का सर्वनाश करता है। इनके अतिरिक्त हमारे सामने ऐसे उदाहरण भी हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि आलोक के होने पर ही रूपज्ञान की उत्पत्ति होती है। साधारण मनुष्यों का रूपज्ञान इसी श्रेणी का है। तात्पर्य यह है कि ऐसा एकांत नियम नहीं है कि आलोक के होने पर ही रूपज्ञान उत्पन्न हो। कहीं पर आलोक के होने पर ही रूपज्ञान होता है, कहीं पर अन्धकार के होने पर ही रूपज्ञान होता है और कहीं पर आलोक और अंधकार दोनों प्रकार की अवस्थाओं में रूपज्ञान होता है। इसलिए यह कथन उचित नहीं कि आलोक ज्ञानोत्पत्ति का अनिवार्य कारण है । अर्थ के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। मरीचिकाज्ञान बिना ही अर्थ के उत्पन्न होता है। स्वप्नज्ञान के समय हमारे सामने कोई पदार्थ नहीं रहता। इन ज्ञानों को मिथ्या कह कर नहीं टाला जा सकता क्योंकि ये मिथ्या होते हुए भी ज्ञान तो हैं ही। यहाँ प्रश्न सत्य और मिथ्या का नहीं है। प्रश्न है अर्थ के अभाव में ज्ञानोत्पत्ति का। ज्ञान कैसा भी हो किंतु यदि अर्थ के अभाव में उत्पन्न हो जाता है तो यह प्रतिज्ञा समाप्त हो जाती है कि अर्थ के होने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है । स्वप्नादिज्ञानों को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें, तो भी यह सिद्धांत ठीक नहीं उतरता, क्योंकि भूत और भविष्य के प्रत्यक्ष की सिद्धि इस आधार पर नहीं की जा सकती। योगियों के ज्ञान का विषय भी यदि वर्तमान पदार्थ ही माना जाय तो त्रिकाल-विषयक ज्ञान की बात व्यर्थ हो जाती है। अतः अर्थ भी ज्ञानोत्पत्ति के प्रति अनिवार्य कारण नहीं है। १७ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैन धर्म-दर्शन अवग्रह: अवग्रह को बताने वाले कई शब्द हैं। नंदीसूत्र में अवग्रह के लिए अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा का प्रयोग हुआ है।' तत्त्वार्थभाष्य में निम्न शब्द आते हैं-अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन और अवधारण ।२ इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह है। इस ज्ञान में यह निश्चित प्रतीति नहीं होती कि किस पदार्थ का ज्ञान हुआ है। केवल इतना मालूम होता है कि यह कुछ है । इन्द्रिय और अर्थ का जो सामान्य सम्बन्ध है वह दर्शन है । दर्शन के बाद पैदा होने वाला सामान्य ज्ञान अवग्रह है। इसमें केवल सत्ता का ही ज्ञान नहीं होता अपितु पदार्थ का प्रारंभिक ज्ञान हो जाता है। अवग्रह दो प्रकार का होता हैव्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । अर्थ व इन्द्रिय का संयोग ज्ञान व्यंजनावग्रह है। ऊपर जो अवग्रह की व्याख्या की गई है वह वास्तव में अर्थावग्रह है। इस व्याख्या के अनुसार व्यंजनावग्रह दर्शन की कोटि में आता है और अवग्रह का अर्थ अर्थावग्रह ही होता है। व्यंजनावग्रह को ज्ञान मानने वालों के लिए दर्शन इन्द्रिय और अर्थ के स्पष्ट संयोग या सम्बन्ध से भी पहले होता है। यह एक प्रतिभास मात्र है जो सत्ता मात्र का ग्रहण १. ३०. २. १. १५. ३. अक्षार्थ योगे दर्शनानन्तरमर्थ ग्रहणमवग्रहः । -प्रमाणमीमांसा, १. १. २६. ४. अर्थस्य । व्यं जनस्यावग्रह: । -- तत्त्वार्थ सूत्र, १. १७-१८. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा २५६ करता है। उसके बाद अर्थ और इन्द्रिय का संयोग होता है जिसे व्यंजनावग्रह कहते हैं । इन्द्रिय और अर्थ के संयोग के सम्बन्ध से पहले दर्शन कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यही हो सकता है कि उनका सम्बन्ध अवश्य होता है किन्तु वह सम्बन्ध व्यंजनावग्रह से भी पहले होता है। व्यंजनावग्रहरूप जो सम्बन्ध है वह ज्ञानकोटि में आता है और उससे भी पूर्व जो एक सत्ता सामान्य का सम्बन्ध है-सत्ता सामान्य का भान है वह दर्शन है। इसके अतिरिक्त और क्या समाधान हो सकता है, यह हम नहीं जानते ।। अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञानव्यापार, जो इन्द्रिय का विषय के साथ संयोग होने पर उत्पन्न होता है और क्रमशः पुष्ट होता जाता है, व्यंजनावग्रह कहलाता है। यह ज्ञान अव्यक्तज्ञान है। यह ज्ञान क्रमश: किस प्रकार पुष्ट होता है और अर्थावग्रह की कोटि में आता है, यह समझने के लिए एक उदाहरण देना ठीक होगा। कुम्भकार ने अपने आवाप ( अवाड़ा) में से एक ताजा शराव (सकोरा) निकाला, निकालकर उसमें एक-एक बूंद पानी डालता गया। प्रथम बिन्दु डालते ही सूख गया। दूसरा विन्दु भी सूख गया। तीसरा, चौथा और इस तरह अनेक बिन्दु सूखते गए। अंततोगत्वा एक समय ऐसा आता है जब वह शराव पानी को सुखाने में असमर्थता दिखाने लगता है। धीरे-धीरे वह पानी से भर जाता है। प्रथम विन्दु से लगाकर अंतिम बिन्दु तक का सारा पानी शराव में होता है, किन्तु पहले कुछ बिन्दुओं की इतनी कम शक्ति होती है कि वे स्पष्ट रूप से दिग्वाई नहीं देते । ज्यों-ज्यों पानी की शक्ति बढ़ती जाती है त्यों-त्यों उसकी अभिव्यक्ति भी स्पष्ट होती जाती है। इसी तरह जब कि पी सोये हुए व्यक्ति को पुकारा जाता है तब पहले के कुछ शब्द कान में जाकर चुपचाप बैठ जाते हैं। उनकी अभिव्यक्ति नहीं Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैन धर्म-दर्शन हो पाती। दो-चार बार पुकारने पर उसके कान में काफी शब्द एकत्र हो जाते हैं । तभी उसे यह ज्ञान होता है कि मुझे कोई बुला रहा है। यह ज्ञान पहले शब्द के समय इतना अस्पष्ट और अव्यक्त होता है कि उसे इस बात का पता नहीं लगता कि कोई बुला रहा है । जब शब्दों का जलबिन्दुओं की तरह काफी मात्रा में संग्रह हो जाता है तब उसे यह ज्ञान होता है कि मुझे कोई पुकार रहा है। प्रथम कोटि का व्यक ज्ञान अर्थावग्रह है। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह में अव्यक्तता और व्यक्तता का भेद है। सामान्यात्मक ज्ञान अवग्रह है। इसी ज्ञान के विकास-क्रम के दो रूप हैं। प्रथम रूप अव्यक्त ज्ञानात्मक है । यही व्यंजनावग्रह है। द्वितीय रूप व्यक्त ज्ञानात्मक है। यही अर्थावयह है। ____ क्या व्यंजनावग्रह सभी इन्द्रियों से होता है ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता।' चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता? क्योंकि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। व्यंजनावग्रह के लिए अर्थ और इन्द्रियों का संयोग अपेक्षित है। संयोग के लिए प्राप्यकारित्व अनिवार्य है। चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अतः इनके साथ अर्थ का संयोग नहीं होता। संयोग न होने से व्यंजनावग्रह नहीं होता। मन को अप्राप्यकारी माना जा सकता है, किंतु चक्षु अप्राप्यकारी कैसे है ? चक्षु अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं करता । यदि प्राप्यकारी होता तो त्वगिन्द्रिय के समान स्पृष्ट अंजन का ग्रहण करता। चूकि वह ग्रहण नहीं करता अतः अप्राप्यकारी है । कोई यह कह सकता है कि चक्षु प्राप्यकारी १. न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ।-तत्त्वार्थसूत्र, १. १६. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २६१ है क्योंकि वह आवृत वस्तु का ग्रहण नहीं करता - जैसे त्वगिन्द्रिय | यह ठीक नहीं, क्योंकि चक्षु काच, अभ्र, स्फटिक आदि से आवृत अर्थ का ग्रहण करता है । यदि चक्षु अप्राप्यकारी है तो वह व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट अर्थ का भी ग्रहण कर लेगा । यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि चुम्बक अप्राप्यकारी होते हुए भी अमुक सीमा के अन्दर रहने वाले लोहे को ही पकड़ता है, व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट को नहीं । चक्षु स्वयं प्राप्यकारी नहीं है अपितु उसकी तैजस रश्मियाँ प्राप्यकारी हैं । यह भी ठीक नहीं, क्योंकि हमें यह भी अनुभव नहीं होता कि चक्षु तेजस है । यदि चक्षु तैजस होता तो चक्षुरिन्द्रिय का स्थान उष्ण होता । नक्तंचर प्राणियों के नेत्रों में रात को रश्मियाँ दिखाई देती हैं अतः चक्षु रश्मियुक्त है, यह धारणा ठीक नहीं । अतैजस द्रव्य में भी भासुररूप देखा जाता है - जैसे मणि आदि । अतः चक्षु प्राप्यकारी नहीं है । अप्राप्यकारी होते हुए भी तदावरण के क्षयोपशम से वस्तु का ग्रहण होता है । इसलिए मन और चक्षु से व्यंजनावग्रह नहीं होता । श्रोत्र, घ्राण, रसन और स्पर्श इन चार इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है । अर्थावग्रह संयोगरूप नहीं है अपितु सामान्यज्ञानरूप है । चक्षू और मन से अर्थावग्रह होता है क्योंकि इन दोनों का का विषय-ग्रहण सीधा सामान्यज्ञानरूप होता है । इस प्रकार अर्थावग्रह पांच इन्द्रियाँ और छठा मन - इन छः से होता है । ईहा अवाय और धारणा भी पाँचों इन्द्रियों और मन पूर्वक होते हैं । ईहा : : अवग्रह के बाद ज्ञान ईहा में परिणत होता है । अवगृहीतार्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा ईहा है ।" नन्दीसूत्र १. अवगृ हीतार्थ विशेषकांक्षण मीहा । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.८. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन धर्म-दर्शन में ईहा के लिए निम्न शब्द आते हैं-आयोगणता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता, विमर्ष ।' उमास्वाति ने ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा का प्रयोग किया है। अवग्रह से गुजरते हुए ईहा तक कैसे पहुंचते हैं, इसे समझने के लिए पुनः शब्द का उदाहरण लेते हैं। अवग्रह में इतना ज्ञान हो जाता है कि कहीं से शब्द सुनाई दे रहा है । शब्द सुनने पर व्यक्ति सोचता है कि किसका शब्द है ? कौन बोल रहा है ? स्त्री है.या पुरुष ? इसके बाद स्वर की तुलना होती है। स्वर मीठा और आकर्षक है, इसलिए किसी स्त्री का होना चाहिए। पुरुष का स्वर कठोर एवं रूखा होता है। यह स्वर पुरुष का नहीं हो सकता । ईहा में ज्ञान यहाँ तक पहुंच जाता है। ईहा संशय नहीं है क्योंकि संशय में दो पलड़े बराबर रहते हैं। ज्ञान का किसी एक ओर झुकाव नहीं होता। 'पुरुष है या स्त्री' ? इसका जरा भी निर्णय नहीं होता। न तो पुरुष की ओर ज्ञान झुकता है, न स्त्री की ओर। ज्ञान की दशा त्रिशंकु-सी रहती है। ईहा में ज्ञान एक ओर झुक जाता है। अवाय में जिसका निश्चय होने वाला है उसी ओर ज्ञान का झुकाव हो जाता है। यह स्त्री का शब्द होना चाहिए क्योंकि इसकी यह विशेषता है'-इस प्रकार का ज्ञान ईहा है । यद्यपि ईहा मे पूर्ण निर्णय नहीं हो पाता तथापि ज्ञान निर्णय की ओर झुक अवश्य जाता है। संशय में ज्ञान किसी ओर नहीं झुकता। संशय ईहा के पहले होता है। ईहा हो जाने पर संशय समाप्त हो जाता है। १. ३१. २. तत्त्वाभाष्य, १. १५. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २६३ अवाय: ईहितार्थ का विशेष निर्णय अवाय है।' ईहा में हमारा ज्ञान यहाँ तक पहुँच जाता है कि यह शब्द किसी स्त्री का होना चाहिए । जब यह निश्चित हो जाता है कि यह शब्द स्त्री का ही है तब हमारा ज्ञान अवाय की कोटि तक पहुँच जाता है। इसमें सम्यक्-असम्यक् की विचारणा पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाती है और असम्यक् का निवारण होकर सम्यक् का निर्णय हो जाता है। जो गुण वास्तविक हैं उनका निश्चित ज्ञान हो जाता है, और जो गुण अवास्तविक हैं उनका पृथक्करण हो जाता है। विशेषावश्यकभाप्य में एक मत यह भी मिलता है कि जो गुण पदार्थ के अन्दर नहीं हैं उनका निवारण अवाय है और जो गुण पदार्थ में हैं उनका स्थिरीकरण धारणा है । भाष्यकार के मत से यह सिद्धान्त ठीक नहीं है। चाहे असद्गुणों का निवारण हो, चाहे सद्गुणों का स्थिरीकरण हो, चाहे दोनों एक साथ हों--सब अवायान्तर्गत हैं। नन्दीसूत्र में अवाय के निम्न पर्याय हैं--आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता, अवाय, बुद्धि, विज्ञान । तत्त्वार्थभाष्य में अवाय के लिए निम्न शब्दों का प्रयोग हुआ है--अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, अपनुत ।" ये शब्द निषेधात्मक हैं। विशेषावश्यकभाष्य में जिस मत का उल्लेख है , सम्भवतः वह यही परम्परा हो । अवाय और अपाय दोनों शब्दों को देखने से मालूम होता है कि अपाय निषेधात्मक है और अवाय विध्या१. ईहितविशेषनिर्ण योऽवायः। ---प्रमाण मीमांसा, १.१.२८, २. १८५. ३. १८६. ४. ३२. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन धर्म-दर्शन त्मक है । जो परम्परा इस ज्ञान को निषेधात्मक मानती है उसमें अधिकतर अपाय शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस परम्परा में इसका विध्यात्मक विधान भी है उसमें अधिकतर अवाय शब्द का प्रयोग हुआ है। यह ज्ञान धारणा की कोटि में पहुंच कर ही पक्का होता है, इसलिए यह मतभेद है। अवाय में कुछ कमी अवश्य रहती है । विध्यात्मक मानकर भी उसकी दृढ़ावस्था धारणा में ही मानी गई है। इसलिए इन दोनों परम्पराओं में विशेष भेद नहीं रह जाता। .. धारणा : अवाय के बाद धारणा होती है। धारणा में ज्ञान इतना दृढ़ हो जाता है कि वह स्मृति का कारण बनता है । इसीलिए धारणा को स्मृति का हेतु कहा गया है। यह संख्येय अथवा असंख्येय समय तक रहती है।४ नंदीसूत्र में धारणा के लिए इन शब्दों का प्रयोग हुआ है--धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा, कोष्ठा। उमास्वाति ने निम्नलिखित पर्याय दिए हैं-प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम, अवबोध ।५ जिनभद्र ने धारणा की व्याख्या करते हुए कहा है कि ज्ञान की अविच्युति को धारणा कहते हैं । जो ज्ञान शीघ्र ही नष्ट न हो जाय अपितु स्मृति के लिए हेतु का कार्य कर सके, वही ज्ञान धारणा है। यह धारणा तीन प्रकार की है : १. अविच्युति-पदार्थ के ज्ञान का विनाश न होना; २. वासना-संस्कार का निर्माण होना; १. सर्वार्थ सिद्धि, राजघातिक आदि. २. तत्त्वार्थ-भाग्य, हारिभद्रीय टीका, सिद्धसेनीय टीका. ३. स्मृतिहेनुर्धारणः ।-प्रमाण मीमांसा, १.१.२६, ४. ३५. ६. अविच्चुइ धारणा रस ।-विशेषावश्यक-भाष्य, १८०. ____ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २६५ ३. अनुस्मरण-भविष्य में उन संस्कारों का जाग्रत होना।' इस प्रकार अविच्युति, वासना और स्मृति तीनों धारणा के अंग हैं । वादिदेवसूरि के अनुसार यह मत ठीक नहीं है। धारणा अवाय-प्रदत्त ज्ञान की दृढ़तमावस्था है। कुछ काल के लिए अवाय का दृढ़ रहना---यही धारणा है। धारणा स्मृति का कारण नहीं बन सकती क्योंकि किसी ज्ञान का इतने लम्बे काल तक वरावर चलते रहना सम्भव नहीं। यदि धारणा इतने लम्बे काल तक चलती रहे तो धारणा और स्मृति के बीच के काल में दूसरा ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते ।२ संस्कार एक भिन्न गुण है जो आत्मा के साथ रहता है। धारणा उसका व्यवहित कारण हो सकती है। किन्तु धारणा को सीधा स्मृति का कारण मानना युक्तिसंगत नहीं। धारणा अपनी अमुक समय की मर्यादा के बाद समाप्त हो जाती है। उसके बाद नया ज्ञान पैदा होता है । इस तरह एक ज्ञान के बाद दूसरे ज्ञान की परम्परा चलती रहती है। वादिदेवसूरि का यह कथन युक्तिसंगत है। - मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार भेद किए गए। अवग्रह के व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह-ये दो भेद हुए। इनमें से अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार प्रकार के ज्ञान श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन और मनइन छ: से होते हैं । व्यंजनावग्रह केवल श्रोत्र, घ्राण, रसन और स्पर्शन-इन चार इन्द्रियों से होता है । चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अतः इन दोनों से व्यंजनावग्रह नहीं होता । अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार पाँच इन्द्रियाँ और मन-इन छ: १. वही, २६१. २. स्याद्वादरत्नाकर, २.१०. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन धर्म-दर्शन से होते हैं, अतः इनके ४४ ६= २४ भेद हुए । व्यंजनावग्रह मन और चक्षु को छोड़कर चार इन्द्रियों से होता है, अतः उसके ४ भेद हए। इन २४+४-२८ प्रकार के ज्ञानों में से प्रत्येक ज्ञान पून: वह, अल्प, बहुविध, अल्पविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिश्रित, निश्रित, असंदिग्ध, संदिग्ध, ध्रुव और अध्रुव-इस प्रकार बारह प्रकार का होता है ।' ये नाम श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार हैं। दिगम्बर परम्परा में इन नामों में थोडा-सा अन्तर है। उसमें अनिश्रित और निश्रित के स्थान पर अनिःसृत और नि:सृत तथा असंदिग्ध और संदिग्ध के स्थान पर अनुक्त और उक्त का प्रयोग है। बहु का अर्थ अनेक और अल्प का अर्थ एक है । अनेक वस्तुओं का ज्ञान बहुग्राही है । एक वस्तु का ज्ञान अल्पग्राही है । अनेक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान बहुविधग्राही है। एक ही प्रकार की वस्तु का ज्ञान अल्पविधग्राही है । बहु और अल्प संख्या से सम्बन्धित हैं और बहुविध तथा अल्पविध प्रकार या जाति से सम्बन्धित हैं । शीघ्रतापूर्वक होने वाले अवग्रहादि ज्ञान क्षिप्र कहलाते हैं । विलम्ब से होने वाले ज्ञान अक्षिप्र हैं। अनिश्रित का अर्थ हेतु के बिना होने वाला वस्तुज्ञान है। निश्रित का अर्थ पूर्वानुभूत किसी हेतु से होने वाला ज्ञान है। जो अनिश्रित के स्थान पर अनिःसृत और निश्रित के स्थान पर निःसृत का प्रयोग करते हैं उनके मतानुसार अनिःमृत का अर्थ है असकलरूप से आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण और निःसृत का अर्थ है सकलतया आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण । असंदिग्ध का अर्थ है निश्चितज्ञान और संदिग्ध का अर्थ है अनिश्चितज्ञान । अवग्रह १. बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितासन्दिग्धध्र वाणां सेतराणाम् । -तत्त्वार्थसूत्र, १.१६. २. सवार्थसिद्धि, राजवातिक आदि, १.१६. . Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ शानमीमांसा और ईहा के अनिश्चय से इसमें भेद है। इसमें अमुक पदार्थ है-ऐसा निश्चय होते हुए भी उसके विशेष गुणों के प्रति सन्देह रहता है। असंदिग्ध और संदिग्ध के स्थान पर अनुक्त और उक्त-ऐसा पाठ मानने वाले अनुक्त का अर्थ करते हैं अभिप्राय मात्र से जान लेना और उक्त का अर्थ करते हैं कहने पर ही जानना । ध्रुव का अर्थ है-अवश्यम्भावी ज्ञान और अध्रुव का अर्थ है-कदाचित्भावी ज्ञान । इन बारह भेदों में चार भेद प्रमेय की विविधता पर अवलम्बित हैं और शेष आठ भेद प्रमाता के क्षयोपशम की विविधता पर आश्रित हैं। उपर्युक्त २८ भेदों में से प्रत्येक के १२ भेद होने पर कुल २८ x १२%3 ३३६ भेद हो जाते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के ३३६ भेद हैं । इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है : मतिज्ञान - अवग्रह ईहा अवाय धारणा व्यंजना- अर्था- ११. स्पर्शन १७. स्पर्शन २३. स्पर्शन वग्रह वग्रह १२. रसन १८. रसन २४. रसन । १३. घ्राण १६. घ्राण २५. घ्राण १. स्पर्शन ५. स्पर्शन १४. श्रोत्र २०. श्रोत्र २६. श्रोत्र २. रसन ६. रसन १५. चक्षु २१. चक्षु २७. चक्षु ३. घ्राण ७. घ्राण १६. मन २२. मन २८. मन ४. श्रोत्र ८. श्रोत्र ६. चक्षु १०. मन Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ (२) बहुग्राही अल्प बहुविध अल्पविध क्षिप्र अक्षिप्र अनिश्रित निथित असंदिग्ध संदिग्ध ध्र व अध्र व ग्राही ग्राही प्राही ग्राही नाही ग्राही ग्राही ग्राही ग्राही ग्राही नाही १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ स्पशन व्यजनावग्रह " , " " " " " " " रसन व्यंजनावग्रह " , " " " " " " " " घ्राण व्यंजनावग्रह " " " " " " " " " " " श्रोत्र व्यंजनावग्रह स्पर्शन अर्थावग्रह रसन अर्थावग्रह घ्राण अर्थावग्रह श्रोत्र अर्थावग्रह चक्षु अर्थावग्रह मन अर्थावग्रह स्पर्शन ईहा रसन ईहा घ्राण ईहा जैन धर्म-दर्शन Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal Use Only श्रोत्र चक्षु हा मन ईहा स्पर्शन अवाय रसन अवाय घ्राण अवाय श्रोत्र अवाय चक्षु अवाय לי ईहा मन अवाय स्पर्शन धारणा रसन धारण घ्राण धारणा श्रोत्र धारणा चक्षु धारणा मन धारणा २८ " " " " 32 "" " "3 1=1 11 " " " 16 1:1 11 २८ ३ "" "} "3 " 14 19 " 11 17 17 " " 34 34 " 19 11 २८ x 33 11 " " 11 6 133 " }} "1 " 15 "7 2: "" 21 37 २८ ५ " 11 "1 19 "" "1 13 " " 33 " 11 11 "1 २८ W 12 " " 1) 31 " " "1 11 "" こ 11 11 " 1= "" 19 २८ "1 "" 11 " " " "3 "" 11 73 11 34 " 3 "} 12 २८ 51 34 " = "" "? = 13 124 " " 13 17 19 17 34 " " "" 13 २८ 11 m 32 " " " "1 31 " 11 "" "5" " 1: " "} = 11 २८ F 8 14 " ", 7? 31 1:4 "9 = "" 34 17 17 11 t " 35 " " "" २८ ११ 1=3 " 31 " "" "" "} 11 34 " 11 11 " 91 34 19 15 २८ १२ " " 11 17 19 33 " 19 17 " 17 "" "3 " " २८ = ३३६ ज्ञानमीमांसा W m Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैन धर्म-दर्शन श्रुतज्ञान : श्रुतज्ञान का अर्थ है वह ज्ञान जो श्रुत अर्थात् शास्त्रनिबद्ध है। आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं-अंगवाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगवाह्य अनेक प्रकार का है । अंगप्रविष्ट के वारह भेद हैं।' श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। इसका क्या अर्थ है ? श्रुतज्ञान होने के लिए शब्द-श्रवण आवश्यक है क्योंकि शास्त्र वचनात्मक है। शब्दश्रवण मति के अन्तर्गत है क्योंकि यह श्रोत्र का विषय है। जब शब्द सुनाई देता है तब उसके अर्थ का स्मरण होता है। शब्द-श्रवणरूप जो व्यापार है वह मतिज्ञान है। तदनन्तर उत्पन्न होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । इसीलिए मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है । मतिज्ञान के अभाव में शुतज्ञान नहीं हो सकता । श्रुतज्ञान का वास्तविक कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है। मतिज्ञान तो उसका बहिरंग कारण है। मतिजान होने पर भी यदि श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम न हो तो श्रुततान नहीं होता । अन्यथा जो कोई शास्त्र-वचन सुनता, सबको श्रुतज्ञान हो जाता। ____ अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट रूप से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है। अंगप्रविष्ट उसे कहते हैं जो साक्षात् तीर्थंकर द्वारा प्रकाशित होता है और गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध किया हआ होता है। आयु, बल, बुद्धि आदि की क्षीण अवस्था देख कर बाद में होने वाले आचार्य सर्वसाधारण के हित के लिए अंगप्रविष्ट ग्रन्थों को आधार बनाकर भिन्न-भिन्न विषयों पर १. श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ।-तत्त्वार्थसुत्र, १.२०. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २७१ ग्रन्थ लिखते हैं। ये ग्रन्थ अंगबाह्य ज्ञान के अन्तर्गत हैं। तात्पर्य यह है कि जिन ग्रन्थों के रचयिता स्वयं गणधर हैं वे अंगप्रविष्ट और जिनके रचयिता उसी परम्परा के अन्य आचार्य हैं वे अंगबाह्य ग्रन्थ हैं। अंगबाह्य ग्रन्थ कालिक, उत्कालिक आदि अनेक प्रकार के हैं। अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं। ये बारह अंग कहलाते हैं। इनके नाम पहले गिनाये जा चुके हैं। श्रुत वास्तव में ज्ञानात्मक है, किन्तु उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहते हैं क्योंकि वे ज्ञानोत्पत्ति के साधन हैं । श्रुतज्ञान के भेद मोटे तौर पर समझने के लिये हैं। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं। इसलिए उसके सारे भेद गिनाना सम्भव नहीं। श्रुतमान के चौदह मुख्य प्रकार हैं-अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट ये सात और अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंगबाह्य ये सात इनसे विपरीत।' नन्दीसूत्र में इन भेदों का स्वरूप बताया गया है । अक्षर श्रुत के तीन भेद किये गये हैं-संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर । वर्ण का आकार संज्ञाक्षर है। वर्ण की ध्वनि व्यंजनाक्षर है। जो वर्ण सीखने में समर्थ है वह लब्ध्यक्षरधारी है। संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत है। लब्ध्यक्षर भावश्रुत है। खांसना, ऊँचा श्वास लेना आदि अनक्षरश्रुत है। संज्ञी श्रुत के भी तीन भेद हैं-दीर्घकालिकी, हेतूपदेशिकी और दृष्टिवादो देशिकी। वर्तमान, भूत और भविष्य त्रिकालविषयक विचार दीर्घकालिकी संज्ञा है। केवल १. आवश्यकनियुक्ति, १७-१६. २. नन्दीसूत्र, ३८. " - - Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन धर्म-दर्शन वर्तमान की दृष्टि से हिताहित का विचार करना हेतुपदेशिकी संज्ञा है। सम्यक् श्रुत के ज्ञान के कारण हिनाहित का बोध होना दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा है। जो इन संज्ञाओं को धारण करते हैं वे संजी कहलाते हैं। जो इन संजाओं को धारण नहीं करते वे अमंजी हैं । अमंजी तीन तरह के होते हैं। जो समनस्क होते हुए भी सोच नहीं सकते वे प्रथम कोटि के असंज्ञी हैं। जो अमनस्क हैं वे दूसरी कोटि के असंजी हैं । अमनस्क का अर्थ मनरहित नहीं है अपितु अत्यन्त सूक्ष्म मन वाला है । जो मिथ्याश्रत में विश्वास रखते हैं वे तीसरी कोटि के असंज्ञी हैं।' सादिक धुन वह है जिसकी आदि है। जिसकी कोई आदि नहीं है वह अनादिक श्रुत है । द्रव्यरूप से श्रुत अनादिक है और पर्यायरूप से सादिक है। सपर्यवसित श्रुत वह है जिसका अन्त होता है । जिसका कभी अन्त नहीं होता वह अपर्यवसित श्रुत है। यहाँ भी द्रव्य और पर्याय दृष्टि का उपयोग करना चाहिए । गमिक उसे कहते हैं जिसके सदश पाठ उपलब्ध हैं। अगमिक असदशाक्षरालापक होता है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के विषय में लिख ही चुके हैं। श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है। हस्तसंकेत आदि अन्य साधनों से भी यह ज्ञान होता है। वहाँ पर ये साधन शब्द का ही कार्य करते हैं । अन्य शब्दों की तरह उनका स्पष्ट उच्चारण कानों में नहीं पड़ता। मौन उच्चारण से ही वे अपना कार्य करते हैं। श्रुतज्ञान जब इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसके लिए संकेतस्मरण की आवश्यकता नहीं रह जाती तब वह मतिज्ञान के अन्तर्गत आजाता है। श्रुतज्ञान के लिए चिन्तन और १. वही, ३६-४०. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ ज्ञानमीमांसा संकेतस्मरण अत्यन्त आवश्यक है। अभ्यास दशा में ऐसा न होने पर वह ज्ञान श्रुत की कोटि से बाहर निकल कर मति की कोटि में आ जाता है। मति और श्रुत : ... जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव में कम-सेकम दो ज्ञान-मति और श्रुत अवश्य होते हैं। केवलज्ञान के समय इन दोनों की स्थिति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग उस समय भी मति और श्रुत की सत्ता मानते हैं और कहते हैं कि केवलज्ञान के महाप्रकाश के सामने उनका अल्प प्रकाश दब जाता है। सूर्य के प्रचण्ड प्रकाश के रहते हुए चन्द्र आदि का प्रकाश नहींवत् मालूम होता है। कुछ लोग यह बात नहीं मानते । उनके मत से केवलज्ञान अकेला ही रहता है। मति, श्रुतादि क्षायोपशामिक हैं । जब सम्पूर्ण ज्ञानावरण का क्षय हो जाता है तब क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता । यह मत जैन दर्शन की परम्परा के अनुकूल है। केवलज्ञान का अर्थ ही अकेला ज्ञान है। वह असहाय ही होता है । उसे किसी की सहायता अपेक्षित नहीं है। मति और श्रुत के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में उमास्वाति का मत है कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है, जब कि मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह श्रुतपूर्वक ही हो।' नन्दीसूत्र का मत है कि जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान (मति) है वहाँ श्रुतज्ञान भी है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान भी - १. श्रुतज्ञानस्य मतिज्ञानेन नियन: सहभावः तत्पूर्वकत्वात् । यस्य श्रुतज्ञानं तस्य नियतं मतिज्ञानं, यस्य तु मतिज्ञानं तस्य ऋतज्ञानं स्थाद्वा न वेति ।-तत्त्वार्थ भाष्य, १.३१. १८ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैन धर्म-दर्शन है।' सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवातिक में भी इसी मत का समर्थन है। यहाँ प्रश्न यह है कि क्या ये दोनों मत परस्पर विरोधी हैं ? एक मत के अनुसार श्रुतज्ञान के लिए मतिज्ञान अनिवार्य है, जबकि मतिज्ञान के लिए श्रुतज्ञान आवश्यक नहीं। दूसरा मत कहता है कि मते और श्रुत दोनों सहचारी हैं । एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता । जहाँ मति होगी वहाँ श्रुत अवश्य होगा और जहाँ श्रुत होगा वहाँ मति अवश्य होगी। हम समझते हैं कि ये दोनों मत परस्पर विरोधी नहीं हैं। उमास्वाति जब यह कहते हैं कि श्रुत के पूर्व मति आवश्यक है तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि जब कोई विशेष श्रुतज्ञान उतान होता है तब वह तद्विषयक मतिपूर्वक ही होता है । पहले शब्द सुनाई देता है और फिर उसका श्रुतज्ञान होता है। मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि पहले श्रुतज्ञा और • फिर मतिनान हो, क्योंकि मतिज्ञान पहले होता है और श्रुतज्ञान वाद में । यह भी आवश्यक नहीं कि जिस विषय का मतिज्ञान हो उसका श्रुतज्ञान भी हो । ऐसी दशा में दोनों सहचारी कैसे हो सकते हैं ? नन्दीमूत्र में जो सहचारित्व है वह किसी विशेष ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है। वह तो एक सामान्य सिद्धान्त है । सामान्यतया मति और श्रुत सहचारी हैं क्योंकि प्रत्येक जीव में ये दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते हैं। मति और श्रुत के बिना कोई जीव नहीं है। एकेन्द्रिय से लगाकर संजी पंचेन्द्रिय तक हरेक जीव में कम-से-कम ये दो ज्ञान रहते हैं । इसी दृष्टि से यह कहा गया है कि जहाँ मतिज्ञान है वहाँ श्रुतनान भी है और जहाँ श्रुनजान है वहाँ मतिज्ञान भी है। ये १. २४. २. सर्वार्थ सिदि. १.३०; तत्वार्थ राजवार्तिक, १.६.३०. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २७५ दोनों ज्ञान जीव में किसी-न-किमी मात्रा में हर समय रहते हैं । शक्तिरूप मे इनकी सत्ता सदैव रहती है। जीव की दृष्टि से यह सहचारित्व है, न कि किसी विशेष ज्ञान की दृष्टि से। जिनभद्र कहते हैं कि जो ज्ञान श्रुतानुसारी है, इन्द्रिय और मन से पैदा होता है तथा नियन अर्थ को समझाने में समर्थ है वह भावथत है। शेष मति है। केवल शब्दज्ञान श्रुत नहीं है। जिस शब्दतान के पीछे श्रुनानमारी मंकेतस्मरण है और जो नियत अर्थ को समझाने में समर्थ है वही शब्दज्ञान श्रुत है। इसके अतिरिक्त जितना भी शब्दजान है, मब मति है। सामान्य शब्दज्ञान, जो कि केवल मतिजान है. बढ़ते-बढ़ते उपयुक्त स्तर तक पहुंचता है तभी वह श्रुतज्ञान बनता है। शब्दज्ञान होने से कोई भी शब्दज्ञान श्रुत नहीं हो जाता । श्रुन के लिए जो शर्ते हैं उन्हें पूरी करने पर ही शब्दज्ञान श्रुत बनता है। श्रुतज्ञान के प्रति कारण होने से शब्द को द्रव्यश्रुत कहा जाता है। वास्तव में भावश्रुत ही श्रुत है। वह आत्मसापेक्ष है. अतः श्रुतानुमारित्व, इन्द्रिय और मनोजन्य व्यापार और नियत अर्थ को समझाने का सामर्थ्य-ये सब बातें होना आवश्यक है । आगे इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वना या श्रोता का वही ज्ञान श्रुत है जो श्रुतानुसारी है। जो ज्ञान श्रुतानुमारी नहीं है वह मति है। केवल शब्द-संसर्ग से ही ज्ञान १. इंदियमणोनिमिन, जं विण्णाणं सुगणुसारेण । निययत्युत्तिस मत्यं तं भावमुयं मई इयरा ॥ -विशेषावश्यकभप्य, १००. २. भणो मुणओ व सुयं तं जामह सुयाणुमारि विष्णाम् । दोण्ह पि सुयाईय, जं विण्णाणं तयं बुद्धी॥ -वही, १२१. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैन धर्म-दर्शन श्रुत नहीं हो जाता । अन्यथा ईहा, अवाय आदि भी श्रुत ही होते क्योंकि ये बिना शब्द-संसर्ग के उत्पन्न नहीं होते । मन में 'यह स्त्री का शब्द है या पुरुष का' यह विकल्प बिना अन्तर्जल्प के नहीं हो सकता। यह अन्तर्जल्प शब्द-संसर्ग है । शब्द-संसर्ग होते हुए जहाँ श्रुतानुसारित्व हो वह ज्ञान श्रुत है । श्रतानुसारी का अर्थ है-शब्द व शास्त्र के अर्थ की कार का अनुसरण करने वाला। अवधिज्ञान :... - आत्मा का स्वाभाविक गुण केवलज्ञान है । कर्म के आवरण की तरतमता के कारण यह ज्ञान विविध रूपों में प्रकट होता है। मति और श्रुत इन्द्रिय तथा मन की गहायता से उत्पन्न होते हैं, अतः वे आत्मा की दृष्टि से परोक्ष हैं। अवधि, मनःपर्यय और केवल सीधे आत्मा से होते हैं, अतः उन्हें प्रत्यक्ष कहा गया है। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है और अवधि और मनःपर्यय विकलप्रत्यक्ष हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान आत्मा से पैदा होते हैं इसलिए प्रत्यक्ष हैं किन्तु अपूर्ण हैं अतः विकल हैं । अवधि का अर्थ है 'सीमा' अथवा 'वह जो सीमित है' । अवधिज्ञान की क्या सीमा है ? अवधि का विषय केवल रूपी पदार्थ है।' जो रूप, रस, गन्ध और स्पर्शयुक्त है वही अवधि का विषय है। इससे आगे अरूपी पदार्थों में अवधि की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो छः द्रव्यों में से केवल एक द्रव्य अवधि का विषय हो सकता है। वह द्रव्य है पुद्गल, क्योंकि केवल पुद्गल ही रूपी है। अन्य पाँच द्रव्य उसके विषय नहीं हो सकते। .. .. .. अवधिज्ञान के अधिकारी दो प्रकार के होते हैं-भवप्रत्ययी १. रूपिष्ववधैः । -तत्त्वार्थसूत्र, १. २८. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २७७ और गुणप्रत्ययी । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है ।" गुणप्रत्यय का अधिकारी मनुष्य या तिर्यश्व होता है । भवप्रत्यय का अर्थ है जन्म से प्राप्त होने वाला । जो अवधिज्ञान जन्म के साथ-ही-साथ प्रकट होता है वह भवप्रत्यय है । देव और नारक को पैदा होते ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है । इसके लिए उन्हें व्रत, नियमादि का पालन नहीं करना पड़ता । उनका भव ही ऐसा है कि वहाँ पैदा होते ही अवधिज्ञान हो जाता है । मनुष्य और अन्य प्राणियों के लिए ऐसा नियम नहीं है । मति और श्रुतज्ञान तो जन्म के साथ ही होते हैं, किन्तु अवधिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है । व्यक्ति के प्रयत्न से कर्मों का क्षयोपशम होने पर ही यह ज्ञान पैदा होता है । देव और नारक की तरह मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्मसिद्ध नहीं है, अपितु व्रत, नियम आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जा सकता है । इसीलिए इसे गुणप्रत्यय अथवा क्षायोपशमिक कहते हैं । यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि जब यह नियम है कि अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही अवधिज्ञान प्रकट होता है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि देव और नारक जन्म से ही अवविज्ञानी होते हैं ? उनके लिए भी क्षयोपशम आवश्यक है । उनमें और दूसरों में अन्तर इतना ही है कि उनका क्षयोपशम भवजन्य होता है अर्थात् उस जाति में जन्म लेने पर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो ही जाता है । वह जाति ही ऐसी है कि जिसके कारण यह कार्य बिना विशेष प्रयत्न के पूरा हो जाता है। मनुष्यादि अन्य जातियों के लिये यह नियम नहीं। वहाँ तो व्रत, नियमादि का विशेषरूप से पालन करना पड़ता है। तभी अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम १. स्थानांगसूत्र, ७१; नंदीसूत्र, ७-६ तत्त्वार्थ सूत्र, १.२२-२३. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैन धर्म-दर्शन होता है । क्षयोपशम तो सभी के लिए आवश्यक है । अन्तर साधन में है । जो जीव केवल जन्म मात्र से क्षयोपशम कर सकते हैं उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है । जिन्हें इसके लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है उनका अवधिज्ञान गुणप्रत्यय है । गुणप्रत्यय अवधि के छः भेद होते हैं - अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित । ' जो अवधिज्ञान एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी नष्ट न हो, अपितु साथ-साथ जावे वह अनुगामी है । उत्पत्तिस्थान का त्याग कर देने पर जो नष्ट हो जाय वह अननुगामी है । जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय से क्रमशः बढ़ता जाय वह् वर्धमान है । यह वृद्धि क्षेत्र, शुद्धि आदि किसी भी दृष्टि से हो सकती है । जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय से परिणामों की विशुद्धि कम हो जाने के कारण क्रमशः अल्प-विषयक होता जाता है वह हीयमान है । जो न तो बढ़ता है और न कम होता है, अपितु जैसा उत्पन्न होता है वैसा का वैसा बना रहता है, जन्मान्तर के समय अथवा केवलज्ञान होने पर नष्ट होता है वह अवस्थित है। जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी प्रकट होता है, कभी तिरोहित हो जाता है उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं । १. अनुगाम्यननुगामिवर्धमान हीयमानावस्थितानवस्थितभेदात् षड्विधः । -तत्वार्थ राजवार्तिक, १.२२.४. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ૨૭૯ अवधिज्ञान के उपर्युक्त छ: भेद स्वामी के गुण की दृष्टि से हैं। इनके अतिरिक्त क्षेत्र आदि की दृष्टि से तीन भेद और होते हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ।' देशावधि एवं परमावधि के पुनः तीन भेद होते हैं-जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट । सर्वावधि एक ही प्रकार का होता है। __ जघन्य देशावधि का क्षेत्र उत्सेधांगुल' का असंख्यातवाँ भाग है। उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। अजधन्योत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र इन दोनों के बीच का है, जो असंख्यात प्रकार का है। जघन्य परमावधि का क्षेत्र एक प्रदेशाधिक लोक है । उत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्योत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र इन दोनों के बीच का है। सर्वावधि का क्षेत्र उत्कृष्ट परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात क्षेत्र-प्रमाण है। लोक से अधिक क्षेत्र नहीं हो सकता, क्योंकि लोक के बाहर कोई पदार्थ नहीं जिसे अवधिज्ञानी जान सके। इसलिए जहाँ लोक से अधिक क्षेत्र का निर्देश है वहाँ उत्तरोत्तर उतने ही प्रमाण में ज्ञान की सूक्ष्मता समझना चाहिए। जिस तरह क्षेत्र की दृष्टि से विभिन्न प्रकार हैं उसी प्रकार काल की दृष्टि से भी अनेक भेद हो सकते हैं। उन सब का वर्णन करना यहाँ अभीष्ट नहीं। १. पुनरपरेऽवधस्त्रयो भेदाः देशावधिः परमावधिः सर्वावधिश्चेति । -वही, १.२२.५. २. अंगुल एक प्रकार का क्षेत्र का नाप है । यह तीन प्रकार का है उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । भिन्न-भिन्न पदार्थों के जाप के लिए भिन्न-भिन्न अंगुल निश्चित हैं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन आवश्यक नियुक्ति में क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, तीव्र, मन्द आदि चौदह दृष्टियों से अवधिज्ञान का लम्बा वर्णन है ।" विशेषावश्यकभाष्य में सात प्रकार के निक्षेप से अवधिज्ञान को समझने की सूचना है । ये सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । 1 २५० मन:पर्ययज्ञान : मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान मन:पर्ययज्ञान है । यह मनुष्य क्षेत्र तक सीमित है, गुण के कारण उत्पन्न होता है और चारित्रवान् व्यक्ति ही इसका अधिकारी है । यह मन:पर्ययज्ञान की व्याख्या आवश्यकनिर्युक्तिकार ने की है । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है । जब व्यक्ति किसी विषय का विचार करता है तब उसके मन का विविध पर्यायों में परिवर्तन होता है । उसका मन तद्तद् पर्यायों में परिणत होता है । मन:पर्ययज्ञानी उन पर्यायों का साक्षात्कार करता है । उस साक्षात्कार के आधार पर वह यह जान सकता है कि यह व्यक्ति इस समय यह बात सोच रहा है। अनुमानकल्पना से किसी के विषय में यह सोचना कि 'अमुक व्यक्ति अमुक विचार कर रहा है' मन:पर्ययज्ञान नहीं है। मन के परिणमन का आत्मा से साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना मन:पर्ययज्ञान है । यह ज्ञान आत्मपूर्वक होता है, न कि मनःपूर्वक । मन तो विषय मात्र होता है । ज्ञाता साक्षात् आत्मा है । १. २६-२८. २. मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचितियत्थपागडणं । माणुसखेत्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरितवओ || - आवश्यक निर्युक्ति, ७६. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २८१ मनःपर्ययज्ञान के दो प्रकार हैं-ऋजुमति और विपुलमति।' ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर होता है क्योंकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा मन के सूक्ष्मतर परिणामों को भी जान सकता है। दूसरा अन्तर यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् उत्पन्न होने के बाद चला भी जाता है किन्तु विपुलमति नष्ट नहीं हो सकता। वह केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त अवश्य रहता है । मनःपर्ययज्ञान के विषय में दो परम्पराएं चली आ रही हैं। एक परम्परा तो यह मानती है कि मनःपर्ययज्ञानी चिन्तित अर्थ का प्रत्यक्ष कर लेता है। दूसरी परम्परा इसके विपरीत यह मानती है कि मनःपर्ययज्ञानी मन की विविध अवस्थाओं का तो प्रत्यक्ष करता है, किन्तु उन अवस्थाओं में जो अर्थ रहा हुआ है उसका अनुमान करता है। दूसरे शब्दों में, एक परम्परा अर्थ का ही प्रत्यक्ष मानती है और दूसरी परम्परा मन का तो प्रत्यक्ष मानती है किन्तु अर्थ का ज्ञान अनुमान से मानती है। मन की विविध परिणतियों को मनःपर्ययज्ञानी प्रत्यक्षरूप से जान लेता है और उन परिणतियों के आधार से उस अर्थ का अनुमान लगाता है जिसके कारण मन का उस रूप से परिणमन हुआ हो। इसी बात को और स्पष्ट करें। पहली परम्परा मन के द्वारा चिन्तित अर्थ के ज्ञान के लिए मन को माध्यम न मान कर सीधा उस अर्थ का प्रत्यक्ष मान लेती है। मन के पर्याय और अर्थ के पर्याय में लिंग और लिंगी का सम्बन्ध नहीं मानती। १. ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः । -तत्त्वार्थसूत्र, १.२४. १. वही, १.२५. ३. सर्वार्थ सिद्धि, १.६; तत्त्वार्थराजवार्तिक, १.२६.६-७. ४. विशेषावश्यकभाष्य, ८१४. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन धर्म-दर्शन मन केवल एक सहारा है । जैसे कोई यह कहे कि 'देखो, बादलों में चन्द्रमा है' तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि चन्द्रमा सचमुच बादलों में है । यह तो दृष्टि के लिए एक आधारमात्र है। इसी प्रकार मन भी अर्थ जानने का एक आधारमात्र है। वास्तव में प्रत्यक्ष तो अर्थ का ही होता है । इसके लिए मन के आधार की आवश्यकता अवश्य रहती है। दूसरी परम्परा यह मानने के लिए तैयार नहीं। वहाँ मन का ज्ञान मुख्य है और अर्थ का ज्ञान उस ज्ञान के बाद की चीज है। मन के ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है, न कि सीधा अर्थज्ञान । मनःपर्यय का अर्थ ही यह है कि मन की पर्यायों का ज्ञान, न कि अर्थ की पर्यायों का ज्ञान। उपर्युक्त दो परम्पराओं में से दूसरी परम्परा युक्तिसंगत मालूम होती है । मनःपर्ययज्ञान से साक्षात् अर्थज्ञान होना सम्भव नहीं, क्योंकि उसका विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवाँ भाग है।' यदि वह मन के सम्पूर्ण विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो अरूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं, क्योंकि मन से अरूपी द्रव्य का भी विचार हो सकता है। ऐसा होना इष्ट नहीं। मनःपर्ययज्ञान भूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार करता है और वह भी अवधिज्ञान जितना नहीं। अवधिज्ञान सब प्रकार के पुद्गल द्रव्यों का ग्रहण करता है किन्तु मनःपर्ययज्ञान उनके अनन्तवें भाग अर्थात् मनरूप बने हुए पुद्गलों का मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण करता है। मन का साक्षात्कार हो जाने पर तच्चिन्तित अर्थ का ज्ञान अनुमान से हो सकता है। ऐसा होने पर मन के द्वारा चिन्तित मूर्त, अमूर्त सभी द्रव्यों का ज्ञान हो सकता है। १. तदनन्तभागे मन:पर्यायस्य । -तत्त्वार्थ सूत्र, १. २६. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २८३ अवधि और मनःपर्यय : ___ अवधि और मनःपर्यय दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित हैं तथा अपूर्ण अर्थात् विकलप्रत्यक्ष हैं। इतना होते हुए भी दोनों में अन्तर है। यह अन्तर चार दृष्टियों से है-विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय ।' मनःपर्ययज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशदरूप से जानता है । अत: उससे विशुद्धतर है। यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं किन्तु विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है । अधिक मात्रा में विषय का ज्ञान होना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना विषय की सूक्ष्मताओं का ज्ञान हाना । मनःपर्ययज्ञान से रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जाना जाता है । अवधिज्ञान उतनी सूक्ष्मता तक नहीं पहुंच सकता। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है। मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र मनुष्यलोक ( मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त ) है। अवधिज्ञान का स्वामी देव, नरक, मनुष्य और तिर्यञ्च किसी भी गति का जीव हो सकता है। मनःपर्ययज्ञान का स्वामी केवल चारित्रवान् मनुष्य हा हो सकता है । अवधिज्ञान का विषय सभी रूपी द्रव्य हैं (सब पयाय नहीं), किन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय केवल मन है जो कि रूपी द्रव्य का अनन्तवाँ भाग है। __उपर्युक्त विवेचन को देखने से मालूम पड़ता है कि अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में कोई ऐसा अन्तर नहीं जिसके आधार पर दोनों ज्ञान स्वतन्त्र सिद्ध हो सकें। दोनों में एक ही ज्ञान की दो भूमिकाओं से अधिक अन्तर नहीं है । एक ज्ञान कम विशुद्ध है, दूसरा ज्ञान अधिक विशुद्ध है। दोनों के विषयों में १. विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्याययोः। -तत्त्वार्थसूत्र, १. २६. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन धर्म-दर्शन भी समानता ही है। क्षेत्र और स्वामी की दृष्टि से भी सीमा की न्यूनाधिकता है । कोई ऐसा मौलिक अन्तर नहीं दीखता जिसके कारण दोनों को स्वतन्त्र ज्ञान कहा जा सके । दोनों ज्ञान आंशिक आत्म-प्रत्यक्ष की कोटि में हैं। मति और श्रुतज्ञान के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। केवलज्ञान : __ यह ज्ञान विशुद्धतम है । मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय से कैवल्य प्रकट होता है ।' मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय क्षायोपशमिक ज्ञान हैं । केवलज्ञान क्षायिक है। केवलज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म हैं-मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय । यद्यपि इन चारों कर्मों के क्षय से चार भिन्न-भिन्न शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, किन्तु केवलज्ञान उन सबमें मुख्य है, इसलिए उपर्युक्त वाक्य का प्रयोग किया गया है। सर्वप्रथम मोह का क्षय होता है। तदनन्तर अन्तमुहूर्त बाद ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-इन तीनों कर्मों का क्षय होता है। तदनन्तर केवलज्ञान पैदा होता है और उसके साथ-ही-साथ केवलदर्शन आदि तीन अन्य शक्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं । केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय हैं। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे केवलज्ञानी न जानता हो। कोई भी पर्याय ऐसा नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। जितने भी द्रव्य हैं और उनके वर्तमान, भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय हैं, सब केवलज्ञान के विषय हैं। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास या आविर्भाव केवलज्ञान है। इस ज्ञान के होते ही जितने छोटे-मोटे क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, सब १. तत्त्वार्थसूत्र, १०. १. २. सर्व द्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । -तत्त्वार्थसूत्र, १.३०. . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा २८५ समाप्त हो जाते हैं। मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञान आत्मा के अपूर्ण विकास के द्योतक हैं। जब आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है तब इनकी स्वतः समाप्ति हो जाती है। पूर्णता के साथ अपूर्णता नहीं टिक सकती। दूसरे शब्दों में, पूर्णता के अभाव का नाम ही अपूर्णता है। पूर्णता का सद्भाव अपूर्णता के असद्भाव का द्योतक है। केवलज्ञान सकल-प्रत्यक्ष हैसम्पूर्ण है, अतः उसके साथ मति आदि अपूर्ण ज्ञान नहीं रह सकते। जैन दर्शन की केवलज्ञान-विषयक मान्यता व्यक्ति के ज्ञान के विकास का अन्तिम सोपान है। केवलज्ञानी को सर्वज्ञ भी कहते हैं। सर्वज्ञ का शाब्दिक अर्थ है सब-कुछ जाननेवाला । जिसका ज्ञान अमुक पदार्थों तक ही सीमित नहीं होता अपितु जिसे समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है उसे सर्वज्ञ कहते हैं । समस्त पदार्थों का ज्ञान भी केवल वर्तमान काल तक ही सीमित नहीं रहता अपितु सम्पूर्ण भूत एवं भविष्यत्काल तक भी जाता है। इसी बात को जैन पारिभाषिक पदावली में यों कहा गया है कि सर्वज्ञ समस्त द्रव्यों एवं पर्यायों को जानता है। ___असर्वज्ञ अर्थात् सामान्य प्राणी का ज्ञान इन्द्रियों एवं मन पर आधृत होता है। सर्वज्ञ के ज्ञान का सम्बन्ध सीधा आत्मा से होता है अर्थात् वह इन्द्रियों एवं मन से निरपेक्ष आत्मा से ही ज्ञान प्राप्त करता है। जब तक वह सशरीर रहता है तब तक इन्द्रियाँ उसके साथ रहती अवश्य हैं किन्तु ज्ञान की प्राप्ति के लिए वे निरर्थक ही होती हैं। ऐसा होते हुए भी उसे रूपी और अरूपी दोनों प्रकार के पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होता है। सर्वज्ञता का विचार करते समय हमारे सन्मुख दो महत्त्वपूर्ण Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैन धर्म-दर्शन प्रश्न उपस्थित होते हैं : १. क्या समस्त पदार्थों अर्थात् सब द्रव्यों और उनके सब पर्यायों का ज्ञान सम्भव है ? २. क्या रूपी पदार्थों का ज्ञान सीधा आमा से हो सकता है ? जहां तक सब द्रव्यों के ज्ञान का प्रश्न है, यह माना जा सकता है कि लोक में स्थित समस्त तत्त्व अर्थात् द्रग सर्वज्ञ के ज्ञान के विषय हो सकते हैं क्योंकि लोक सीमित है अत: उसमें स्थित तत्त्व भी क्षेत्र की दष्टि से सीमित ही हैं। यदि सर्वज्ञ के ज्ञान में सामान्यरूप से सम्पूर्ण लोक प्रतिभासित होता है तो यह स्वतः सिद्ध है कि लोकस्थित समस्त तत्त्व उसके ज्ञान में प्रतिभासित होंगे ही क्योंकि उन तत्त्वों के संगठन अथवा समुच्चय का नाम ही लोक है। लोक के बाहर अर्थात् अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व नहीं है ( ऐसी जैन दर्शन की मान्यता है )। यह अलोकाकाश असीमित है अर्थात् अनन्त है। असीमित वस्तु किसी के ज्ञान में किस प्रकार एवं कितनी प्रतिभासित होगी, यह समझना कठिन है। यदि वह अपूर्ण प्रतिभासित होगी तो ज्ञान में भी अपूर्णता आ जायगी। यदि वह सम्पूर्ण प्रतिभासित होगी तो उसकी अनन्तता लुप्त हो जायगी अर्थात् वह सीमित हो जायगी क्योंकि ज्ञान में उसका एक सामान्य रूप निश्चित हो जायगा जिससे अधिक वह नहीं हो सकती अर्थात् वह सारी-की-सारी जान ली जायगी जिससे आगे उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में वह सीमित ही हो जायगी, असीमित कैसे रहेगी? जो वस्तु अनन्त होती है उसका अन्तिम छोर तो जाना ही नहीं जा सकता अन्यथा उसकी अनन्तता का कोई अर्थ ही नहीं होगा। यह नहीं हो सकता कि कोई वस्तु ( अस्तित्व की दृष्टि से ) अनन्त भी हो और उसका अन्तिम छोर भी जाना जा सके अर्थात् वह सम्पूर्ण किसी के ज्ञान में प्रतिभासित हो सके । ऐसी Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा २८७ स्थिति में सर्वज्ञ के ज्ञान में सम्पूर्ण अलोकाकाश का प्रतिभासित होना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। अथवा अलोकाकाश की अनन्तता की समाप्ति का प्रसंग उपस्थित होता है। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि सर्वज्ञ सब द्रव्यों का साक्षात ज्ञान करता है ? अलोक में स्थित अनन्त आकाश के ज्ञान के अभाव में उसका ज्ञान पूर्ण कैसे हो सकता है ? हाँ, सब द्रव्यों के स्वरूपज्ञान की दृष्टि से उसका ज्ञान साक्षात् एवं पूर्ण हो सकता है। पर्याय अर्थात् द्रव्य की विशेष अथवा विविध अवस्थाएं। पर्यायों का कोई अन्त नहीं है अर्थात् पर्याय अनन्त हैं। किसी भी द्रव्य के पर्यायों को काल की दृष्टि से तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं : वर्तमानकालीन, भूतकालीन और भविष्यत्कालीन । जहाँ तक वर्तमानकालीन पर्यायों का प्रश्न है, वें काल की दृष्टि से सीमित हैं अत: उनका सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रतिभास संभव हो सकता है । भूतकाल और भविष्यकाल असीमित हैं अर्थात् भतकाल अनादि है तथा भविष्यत्काल अनन्त है। ऐसी स्थिति में आदिरहित भतकालीन एवं अन्तरहित भविष्यत्कालीन समस्त पर्यायों का ज्ञान कैसे सम्भव हो सकता है ? यदि इस प्रकार का ज्ञान सम्भव माना जायगा तो अनादि की आदि और अनन्त का अन्त मानना पड़ेगा क्योंकि आदि और अन्त तक पहुंचे बिना समस्त पूर्ण नहीं हो सकेगा। अतः सर्वज्ञ द्रव्यों के सब पर्यायों का ज्ञान करने में कैसे समर्थ हो सकेगा, यह समझना कठिन है । इतना ही नहीं, भूतकालीन पर्याय, जोकि नष्ट हो चुके हैं तथा भविष्यत्कालीन पर्याय, जोकि उत्पन्न ही नहीं हुए हैं, उन सबका प्रतिभास सर्वज्ञ के ज्ञान में कैसे हो सकेगा? हम असर्वज्ञों की तरह सर्वज्ञ में स्मृति, कल्पना, अनुमान आदि को विद्यमानता नहीं होती है Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन धर्म-दर्शन अर्थात् उसका सम्पूर्ण ज्ञान इन्द्रियों व मन पर आधृत न होकर सीधा आत्मा से सम्बद्ध होता है तथा प्रत्यक्ष एवं साक्षात् होता है । ऐसी स्थिति में अविद्यमान पर्याय सर्वज्ञज्ञान में कैसे प्रत्यक्ष हो सकेंगे, सर्वज्ञ उनका साक्षात्कार कैसे कर सकेगा ? जिन पर्यायों अथवा पदार्थों का सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष अर्थात् साक्षात्कार होता है उनकी लम्बाई, चौडाई, वजन आदि का भी क्या वह सीधा आत्मा से ज्ञान कर सकता है ? दूसरे शब्दों में, क्या सर्वज्ञ बिना किन्हीं साधनों की सहायता के केवल आत्मज्ञान से विश्व के समस्त पदार्थों का, जिनमें पर्वत, समुद्र, सूर्य, चन्द्र आदि भी समाविष्ट हैं, नाप-तौल जान सकता हैबता सकता है ? पदार्थों की लम्बाई-चौड़ाई आदि का बिना नाप-तौल के हीनाधिक रूप से अर्थात् अनुमानतः तो कई बार ज्ञान होता दिखाई देता है किन्तु ठीक-ठीक ज्ञान के लिए तो बाह्य साधनों की सहायता अपेक्षित रहती ही है। भौतिक वस्तुओं का नाप-तौल केवल आध्यात्मिक एकाग्रता से सही-सही रूप में कैसे हो सकता है, इसे समझना-समझाना असर्वज्ञ के लिए अशक्य है । हाँ, सामान्यतौर से किसी वस्तु का नाप-तौल अनुमानतः जाना जा सकता है और वह कभी - कभी पूरा सही भी हो सकता है किन्तु इस प्रकार का ज्ञान असंदिग्ध रूप से यथार्थ ही होगा, यह निश्चित नहीं है । यह हो सकता है कि कोई पदार्थ या क्षेत्र साधारण व्यक्ति को उतना स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष नहीं होता जितना कि सर्वज्ञ को हो सकता है किन्तु उसका ठीक-ठीक नाप-तौल बिना तत्सम्बद्ध साधनों की सहायता के असंदिग्धरूप से होना शक्य प्रतीत नहीं होता । सर्वज्ञ के कहे जानेवाले भूगोल- खगोलसम्बन्धी वचनों की अप्रामाणिकता से भी यही निष्कर्ष निकलता है। इतना ही नहीं, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा २८६ arraf सर्वज्ञों को सुदूर पर्वतों, समुद्रों, चन्द्र, सूर्य आदि की स्थिति का विशेष प्रत्यक्ष था या नहीं, यह भी संदिग्ध है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द का ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है अर्थात् अमुक इन्द्रिय से रूप का ज्ञान होता है, अमुक से रस ET, अमुक से गन्ध का इत्यादि । संसार में ऐसा कोई भी प्राणी दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे चक्षु आदि इन्द्रियों के अभाव में रूप आदि विषयों का ज्ञान होता हो । मन की प्रवृत्ति भी इन्द्रियगृहीत पदार्थों में ही देखी जाती है । जन्मान्ध व्यक्ति का मन कितना ही बलवान् क्यों न हो, उसका ज्ञान कितना ही महान् एवं विशाल क्यों न हो, वह रूप-रंग की कल्पना कथमपि नहीं कर सकता । क्या सर्वज्ञ इन्द्रियों की उपस्थिति में भी इन्द्रियसापेक्ष रूप, रस आदि का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा न करते हुए सीधा आत्मा से करता है ? यदि हाँ तो कैसे ? वह संसार के सभी रूपी पदार्थों के रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श का युगपत् साक्षात् ज्ञान करता है अथवा क्रमश: ? क्रमशः होने वाला ज्ञान तो असर्वज्ञता एवं अपूर्णता का द्योतक है अतः वैसा ज्ञान सर्वज्ञ को नहीं हो सकता । युगपत् रूप-रस- गन्ध-स्पर्श का ज्ञान होने पर इनमें पारस्परिक भेद-रेखा खींचना कैसे संभव होगा ? किस आधार से रूप को रम से, रस को गन्ध से, गन्ध को स्पर्श से एवं अन्य प्रकार से इन्हें एक-दूसरे से पृथक किया जा सकेगा ? केवल आत्मा में रूप-रस- गन्ध-स्पर्श का अलग-अलग ज्ञान करने की क्षमता नहीं है क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों के अभाव में रूप आदि की कल्पना ही नहीं की जा सकती । आत्मा में ऐसे कोई विभाग नहीं हैं जो इन्द्रियों के विषयों का उसी प्रकार भिन्न-भिन्न गुणों के रूप में ज्ञान कर सकें । रूपी पदार्थों का हमारे ज्ञान ( इन्द्रियज्ञान ) से सर्वथा १६ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैन धर्म-दर्शन भिन्न प्रकार का कोई विशिष्ट ज्ञान सर्वज्ञ को होता हो जिसमें रूपादि की भिन्न-भिन्न गुणों के रूप में प्रतीति न होकर उनका एक समन्वित प्रतिभास होता हो तो भी समस्या हल नहीं होती है क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान में रूपादि की स्पष्टता नहीं होगी । रूप-रस- गन्ध-स्पर्श की स्पष्टता के अभाव में सर्वज्ञ यह कैसे कह सकेगा कि प्रत्येक रूपी पदार्थ में रूपादि चारों गुण रहते हैं अर्थात् पुद्गल ( रूपी तत्त्व ) स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णयुक्त है ? सर्वज्ञ में समस्त रूपी पदार्थों एवं उनके समस्त गुणों का साक्षात् ज्ञान मानने पर एक भयंकर दोष आता है । संसार में जितने भी रम- गन्ध-स्पर्श - शब्द- वर्ण होंगे उन सबका सर्वज्ञ को साक्षात् अनुभव होगा । उस समय उसकी क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है । हम यह नहीं कह सकते कि वह जिसका चाहेगा उसका ज्ञान अथवा अनुभव करेगा और अन्य को यों ही छोड़ देगा । इस प्रकार की इच्छा का कोई युक्तिसंगत कारण नहीं है। जब समस्त पदार्थ यथार्थ हैं, उनके समस्त गुण यथार्थ हैं, सर्वज्ञ की आत्मा समस्त आवरक कर्मों से मुक्त है तो कोई कारण नहीं कि वह अमुक समय में अमुक पदार्थ अथवा गुण का ज्ञान ( अनुभव ) तो करे और अमुक का न करे । वास्तव में उसे समस्त वस्तुओं का सदैव साक्षात् अनुभव होना चाहिए क्योंकि उसके लिए समीप दूर, प्राप्त अप्राप्त, सामर्थ्य असामर्थ्य, इच्छा - अनिच्छा आदि का कोई व्यवधान नहीं है। यदि ऐसा है तो सर्वज्ञ की प्राप्यकारी इन्द्रियां और अप्राप्यकारी इन्द्रियां समान हो जाएंगी । तब उसके शरीर से अग्नि का स्पर्श हो या न हो, कोई अन्तर नहीं पड़ेगा; उसकी जीभ पर विष रखा जाय अथवा नहीं, कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होगी; भयंकर दुर्गन्ध उसकी नाक के पास हो अथवा कोसों दूर, कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होगा; Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २६१ नगाड़े उसके कान के पास बजाये जायं अथवा दूर, उसे उतना ही सुनाई देगा । दूसरे शब्दों में, उसकी समस्त इन्द्रियां एक प्रकार से संज्ञा-विहीन हो जाएंगी। ऐसी स्थिति में उसे सुखदुःख का अनुभव (जैन कर्मसिद्धान्त सर्वज्ञ में वेदनीय कर्म का अस्तित्व मानता है ) कैसे होगा, यह समझ में नहीं आता । सर्वज का अर्थ यदि तत्त्वज्ञ माना जाय तो अनेक असंगतियां दूर हो सकती हैं । तत्त्वज्ञ अर्थात् विश्व के मूलभूत तत्त्वों को साक्षात् जाननेवाला - प्रत्यक्ष अनुभव करनेवाला | जो तत्त्व को साक्षात् जान लेता है वह सब कुछ जान लेता है । तत्त्वज्ञान हो जाने के बाद और जानने योग्य रहता ही क्या है ? जिसे सम्यक् तत्त्वज्ञान हो जाता है और वह भी प्रत्यक्षतः उसका आचार स्वतः सम्यक् हो जाता है । नैश्चयिक सम्यक् ज्ञानाचारसम्पन्न व्यक्ति ही तत्त्वज्ञ है और वही एक प्रकार से सर्वज्ञ कहा जा सकता है । इस प्रकार का महामानव कीटउसकी पतंगों एवं कंकड़-पत्थरों की संख्या जाने या न जाने, महत्ता में कोई अन्तर नहीं आता । दर्शन और ज्ञान : WEING आत्मा का स्वरूप बताते समय हम कह चुके हैं कि उपयोग जीव का लक्षण है । यह उपयोग दो प्रकार का होता हैअनाकार और साकार । अनाकार उपयोग को दर्शन कहते हैं और साकार उपयोग को ज्ञान ।' अनाकार का अर्थ है - निर्वि कल्पक और साकार का अर्थ है - सविकल्पक । जो उपयोग का ग्रहण करता है वह निर्विकल्पक है और जो विशेष का ग्रहण करता है वह सविकल्पक है । सत्ता सामान्य सामान्य १. तत्त्वार्थ भाष्य २.६. 1 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जन धर्म-दर्शन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। सत्ता में भेद होते ही विशेष प्रारम्भ हो जाता है । जैन दर्शन में दर्शन और ज्ञान की मान्यता बहुत प्राचीन है। कर्मों के आठ भेदों में पहले के दो भेद ज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित हैं । कर्मविषयक मान्यता जितनी प्राचीन है, ज्ञान और दर्शन की मान्यता भी उतनी ही प्राचीन है। ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण कर्म है। दर्शन की शक्ति को आवृत्त करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते हैं। इन दोनों प्रकार के आवरणों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव होता है । आगमों में ज्ञान के लिए 'जाणइ ' ( जानाति ) अर्थात् जानता है और दर्शन के लिए 'पास' ( पश्यति) अर्थात् देखता है का प्रयोग हुआ है । 1 साकार और अनाकार के स्थान पर एक मान्यता यह भी देखने में आती है कि बहिर्मुख उपयोग ज्ञान है और अन्तर्मुख उपयोग दर्शन है | आचार्य वीरसेन लिखते हैं कि सामान्यविशेषात्मक बाह्यार्थ का ग्रहण ज्ञान है और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है । ' तत्त्व सामान्य विशेषात्मक है। चाहे आत्मा हो, चाहे आत्मा से इतर पदार्थ हों - सब इसी लक्षण से युक्त हैं । दर्शन और ज्ञान का भेद यही है कि दर्शन सामान्यविशेषात्मक आत्मा का उपयोग है - स्वरूपदर्शन है, जब कि ज्ञान आत्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है । इसके अतिरिक्त दर्शन और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है । जो लोग यह मानते हैं कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है वे इस मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान का स्वरूप नहीं १. सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानम्, तदात्मक स्वरूपग्रहणं दर्शन मिति सिद्धम् । - षट्खण्डागम पर धवला टीका, १. १.४. - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २६३ जानते । सामान्य और विशेष दोनों पदार्थ के धर्म हैं । एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता। दर्शन और ज्ञान इन दोनों धर्मों का ग्रहण करते हैं । केवल सामान्य या केवल विशेष का ग्रहण नहीं हो सकता। सामान्य-व्यतिरिक्त विशेष का ग्रहण करनेवाला ज्ञान अप्रमाण है। इसी प्रकार विशेष-व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण करनेवाला दर्शन मिथ्या है।' इसी मत का समर्थन करते हुए ब्रह्मदेव कहते हैं कि ज्ञान और दर्शन का दो दृष्टियों से विचार करना चाहिए । एक तर्कदृष्टि है और दूसरी सिद्धान्तदृष्टि है। दर्शन को सामान्य ग्राही (सत्ताग्राही) मानना तर्कदृष्टि से ठीक है। सिद्धान्तदृष्टि अर्थात् आगमदृष्टि से आत्मा का सच्चा उपयोग दर्शन है और बाह्य अर्थ का ग्रहण ज्ञान है। . व्यवहारदृष्टि से ज्ञान और दर्शन का भेद है। निश्चयदृष्टि से ज्ञान और दर्शन अभिन्न हैं। आत्मा ज्ञान और दर्शन दोनों का आश्रय है। आत्मा की दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं। ज्ञान और दर्शन का विशेष और सामान्य के आधार पर जो भेद है उसका स्पष्टीकरण दूसरी तरह से भी किया गया है। अन्य दर्शनवालों को समझाने के लिए सामान्य और विशेष का प्रयोग है। जो जैन तत्त्वज्ञान से १. षट्खण्डागम पर धवला टोका, १.१.४. २. एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनंव्याख्यातम् । अत ऊर्ग सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयलं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद्दर्शनं भण्यते। तदनन्तरं यद बहिविषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमितिवात्तिकम् । -द्रव्यसंग्रह-वृत्ति, गा० ४४. ३. वही, ४४. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन धर्म-दर्शन परिचित हैं उनके लिए तो शास्त्रीय व्याख्यान ही ग्राह्य है । शास्त्रीय परम्परा के अनुसार आत्मा और इतर का भेद ही वास्तविक है ।" आत्मा और तदितर के भेद से दर्शन और ज्ञान में भेद माननेवाले आचार्यों की संख्या अधिक नहीं है । दर्शन के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले आचार्यों में से अधिकांश ने साकार और अनाकार के भेद को ही माना । वीरसेन की यह युक्ति ठीक है कि तत्त्व सामान्य विशेषात्मक है । कोई भी जैन दर्शन का आचार्य इस सिद्धान्त को अस्वीकृत नहीं करता । दर्शन को सामान्यग्राही मानने का अर्थ केवल इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म झलकता है जब कि ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म की ओर प्रवृत्ति रहती है। इसका यह अर्थ नहीं कि सामान्य का तिरस्कार करके विशेष का ग्रहण किया जाता है अथवा विशेष को एक ओर फेंककर सामान्य का सम्मान किया जाता है । वस्तु में दोनों धर्मों के रहते हुए भी उपयोग किसी एक धर्म का मुख्य रूप से ग्रहण कर सकता है । यदि ऐसा न होता तो हम सामान्य और विशेष का भेद ही नहीं कर पाते । उपयोग में धर्मों का भेद हो सकता है, वस्तु में नहीं | उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद किसी भी तरह व्यभिचारी नहीं है । ज्ञान और दर्शन में क्या भेद है, इसका विवेचन हो चुका । अब यह देखेंगे कि काल की दृष्टि से दोनों का क्या सम्बन्ध है ? जहाँ तक छद्मस्थ अर्थात् सामान्य व्यक्ति का प्रश्न है, सभी आचार्य एकमत हैं कि दर्शन और ज्ञान युगपद् न होकर क्रमश: होते हैं। हाँ, केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद है । १. वही. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा . २६५ केवली में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, इस प्रश्न के विषय में तीन मत हैं। एक मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं। दूसरी मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं। तीसरा मत यह है कि ज्ञान और दर्शन में अभेद है-दोनों एक हैं। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि केवली के दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते।' आगम इस विषय में एकमत हैं। वे दर्शन और ज्ञान को युगपद् नहीं मानते।। दिगम्बर आचार्य दूसरी मान्यता का समर्थन करते हैं। इस विषय में वे सभी एकमत हैं कि केवलदर्शन और केवलज्ञान युगपद् होते हैं। उमास्वाति का कथन है कि मति, श्रुत आदि में उपयोग क्रम से होता है, युगपद् नहीं। कवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपद् होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्टरूप से इसका समर्थन किया है। वे कहते हैं- जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं।'४ सर्वार्थसिद्धिकार भी इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं-'ज्ञान साकार है, दर्शन अनाकार है। छद्मस्थ में वे १. सव्वस्स केलिस्स वि जुगनं दो नत्थि उवओगा। -६७३. २. भगवतीसूत्र, १८.८. ३. मतिज्ञानादिषु चतुर्वा पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपद् । सम्भिन्नज्ञानदशनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपद् .. ..... भवति । --तत्त्वार्थभाष्य, १.३१. ४. जुगवं वट्ट इ नाणं, केवलणाणिस्स दसण च तहा । दिणयरपयासताप जह वटइ तह मुणेयन्नं ॥-नियमसार, १५६. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैन धर्म-दर्शन क्रमशः होते हैं, केवली में युगपद् होते हैं ।'' इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के सभी आचार्यों ने केवलदर्शन और केवलज्ञान की उत्पत्ति युगपद् मानी। जहाँ तक छद्मस्थ के दर्शन और ज्ञान का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर परम्परा दोनों एकमत हैं। तीसरी परम्परा सिद्धसेन दिवाकर की है। वे कहते हैं कि मनःपर्यय तक तो ज्ञान और दर्शन का भेद सिद्ध कर सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन का भेद सिद्ध करना सम्भव नहीं। दर्शनावरण और ज्ञानावरण का युगपद् क्षय होता है। उस क्षय से होने वाले उपयोग में 'यह पहले होता है और यह बाद में होता है। इस प्रकार का भेद कैसे किया जा सकता है। जिस समय कैवल्य की प्राप्ति होती है उस समय सर्वप्रथम मोहनीय का क्षय होता है, तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का युगपद् क्षय होता है । जब दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों के क्षय में काल का भेद नहीं है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि पहले केवलदर्शन होता है, फिर केवलज्ञान होता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए कोई यह माने कि दोनों का युगपद् सद्भाव है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। इस कठिनाई को दूर करने का सबसे सरल एवं युक्तिसंगत मार्ग यही है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता । दर्शन और ज्ञान १. सर्वार्थ सिद्धि, २.९. २. मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणंति णाणं ति य समाणं ।। -सन्मतितर्कप्रकरण, २.३. ३. वही, २.९. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा २८७ को भिन्न मानने में एक कठिनाई और है । यदि केवली एक ही क्षण में सब कुछ जान लेता है तो उसे हमेशा के लिये सब कुछ जानते रहना चाहिए। यदि उसका ज्ञान हमेशा पूर्ण नहीं है तो वह सर्वज्ञ किस बात का ?" यदि उसका ज्ञान सदैव पूर्ण है तो क्रम और अक्रम का प्रश्न ही नहीं उठता। वह हमेशा एकरूप है । वहाँ दर्शन और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं । 'ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प है' इस प्रकार का भेद आवरणरूप कर्मे के क्षय के बाद नहीं रहता । सविकल्पक और निर्विकल्पक का भेद वहीं होता है जहाँ उपयोग में अपूर्णता होती है। पूर्ण उपयोग में किसी तरह का भेद-भाव नहीं रहता। एक कठिनाई और है । ज्ञान हमेशा दर्शनपूर्वक होता है, किन्तु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । केवली को जब एक बार सम्पूर्णज्ञान हो जाता है तब पुनः दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । इसलिए ज्ञान और दर्शन का क्रमभाव नहीं घट सकता । ज्ञान और दर्शन की इस चर्चा के साथ आगम- प्रतिपादित पंचज्ञान की स्वरूप चर्चा समाप्त होती है। ज्ञान से सम्बन्धित एक और विषय है और वह है प्रमाण | कौन-सा ज्ञान प्रमाण है ओर कौन-सा अप्रमाण ? प्रामाण्य का आधार क्या है ? १. जइ सव्धं सायारं, जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू । जुज्जइ सया वि एवं अहवा सव्व ण याणाइ ॥ -सन्मतितर्क प्रकरण, २.१०. २. परिसुद्धं सायारं, अवियत्तं दंसणं अणायारं । णय खीणावर णिज्जे, जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥ ३. दंसणपुव्वळ गाणं गाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि । लेण सुविणिच्छियामो, दंसणणाणा अण्णत्तं ॥ वही, २.२२. - वही, २.११. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन प्रमाण का क्या फल है ? आदि प्रश्नों का प्रमाण-चर्चा के समय विचार किया जायगा। आगमों में प्रमाणचर्चा : प्रमाणचर्चा केवल तर्क युग की देन नहीं है । आगमयुग में भी प्रमाणविषयक चर्चा होती थी। आगमों में कई स्थलों पर स्वतन्त्ररूप से प्रमाण-चर्चा मिलती है। ज्ञान और प्रमाण दोनों पर स्वतन्त्ररूप से चिन्तन होता था, ऐसा कहने के लिए हमारे पास पर्याप्त प्रमाण हैं। ___ भगवतीसूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम महावीर से पूछते हैं--'भगवन् ! जैसे केवली अन्तिम शरीरी ( जो इसी भव से मुक्त होनेवाला हो) को जानते हैं, वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते हैं ?' महावीर उत्तर देते हैं'गौतम ! वे अपने-आप नहीं जान सकते। या तो सुनकर जानते हैं या प्रमाण से। किससे सुनकर? केवली से.........। किस प्रमाण से ? प्रमाण चार प्रकार के कहे गए हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। इनके विषय में जैसा अनुयोगद्वार में वर्णन है वैसा यहाँ भी समझना चाहिए।" स्थानांगसूत्र में प्रमाण और हेतु दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है। निक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के निम्न भेद किये गये हैंद्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण । हेतु १. गोयमा ! णो तिणछे समठे । सोच्चा जाणति पासति, पमाणता वा............."से कि तपमाणे ? पमाणे चउब्बिहे पण्णत्ते तं जहा पच्चवक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे, जहा अणुओगद्दारे..! -भगवतीसूत्र, ५.४.१६१-१६२. २. चउविहे पमाणे पण्णत्ते, त जहा-दवप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे, भावप्पमाणे।-३२१. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा शब्द का जहाँ प्रयोग है वहाँ भी चार भेद मिलते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ।' कहीं-कहीं पर प्रमाण के तीन भेद भी मिलते हैं । स्थानांगसूत्र में व्यवसाय को तीन प्रकार का कहा है-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक और आनुगामिक ।' व्यवसाय का अर्थ होता है निश्चय । निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण है। ___ प्रमाण के कितने भेद होते हैं, इस विषय में अनेक परम्पराएं प्रचलित रही हैं । आगमों में जो विवरण मिलता है वह तीन और चार भेदों का निर्देश करता है। सांख्य प्रमाण के तीन भेद मानते आए हैं। नैयायिकों ने चार भेद माने हैं। ये दोनों परम्पराएं स्थानांगसूत्र में मिलती हैं। अनुयोगद्वार में प्रमाण के भेदों का किस प्रकार वर्णन है ? संक्षेप में देखने का प्रयत्न किया जाएगा। प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं-इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष। इन्द्रियप्रत्यक्ष के पाँच भेद हैं-श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, चक्षुरि१. अहवा हेऊ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे ।-३३८. २. तिविहे ववसाए पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे, पच्चइए, अणुगामिए । -१८५. व्यवसायो निश्चयः स च प्रत्यक्ष अवधिमनःपर्ययकेवलाख्यः, प्रत्ययात इन्द्रियलक्षणात निमिताज्जातः प्रात्ययिकः साध्यमग्न्यादिकमनुगच्छतिसाध्याभावे न भवति योधूपादिहेतुः सोऽनुगामी ततो जातम् आनुगामिकम्-अनुमानम्, तद्योव्यवसाय-आनुगामिक एवेति । अथवा प्रत्यक्षः स्वयंदर्शनलक्षणः प्रात्ययिक प्राप्तवचनप्रभवः, तृतीयस्तय. बेति। -अभयदेवकृत व्याख्या. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन न्द्रियप्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष, जिह्वन्द्रियप्रत्यक्ष और स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं-अवधिप्रत्यक्ष, मनःपर्ययप्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष । मानसप्रत्यक्ष को अलग नहीं गिनाया गया है। सम्भवतः उसका पाँचों इन्द्रियों में समावेश कर लिया गया है। आगे के दार्शनिकों ने इसे स्वतन्त्र स्थान दिया है। ___ अनुमान-अनुमान प्रमाण के तीन भेद किये गये हैं-पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् । न्याय, बौद्ध और सांख्य दर्शन में भी अनुमान के ये ही तीन भेद बताये गये हैं। उनके यहाँ अन्तिम भेद का नाम दृष्टसाधर्म्यवत् न होकर सामान्यतोदृष्ट है। पूर्ववत्-पूर्वपरिचित लिंग ( हेतु ) द्वारा पूर्वपरिचित पदार्थ का ज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है। एक माता अपने पुत्र को बाल्यावस्था के समय देखती है। पुत्र कहीं बाहर चला जाता है। कुछ वर्षों के बाद वह युवावस्था में प्रविष्ट हो जाता है। जब वह वापिस घर आता है तो पहले माता उसे नहीं पहचान पाती है। थोड़ी देर बाद उसके शरीर पर कोई ऐसा चिह्न देखती है जो बाल्यावस्था में भी था। यह देखते ही वह तुरन्त जान जाती है कि यह मेरा ही पुत्र है । यह पूर्ववत् अनुमान का उदाहरण है। १. न्यायसूत्र, १.१.५; उपायहृदय,पृ० १३; सांख्यकारिका, ५-६. २. माया पुत्तं जहा नळं जुवाणं पुणरागयं । काई पच्चभिजाणेउजा, पुलिंगेण केणई । तं जहा-खत्तेण वा दण्णेण वा लंबणेण वा मसेण वा तिलएण वा । -अनुयोगद्वारसूत्र, प्रमाण प्रकरण. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३०१ शेषवत-शेषवत् अनुमान पांच प्रकार का है-कार्य से कारण का अनुमान, कारण से कार्य का अनुमान, गुण से गुणी का अनुमान, अवयव से अवयवी का अनुमान और आश्रित से आश्रय का अनुमान। . शब्द से शंख का, ताड़न से भेरी का, ढक्कित से वृषभ का, केकायित से मयूर का, हेषित से अश्व का, गुलगुलायित से गज का, घणघणायित से रथ का अनुमान कार्य से कारण का अनुमान है। तन्तु से ही पट होता है, पट से तन्तु नहीं, मृत्पिण्ड से ही घट बनता है, घट से मृत्पिण्ड नहीं इत्यादि कारणों से कार्यव्यवस्था करना कारण से कार्य का अनुमान है । निकष से सुवर्ण का, गन्ध से पुष्प का, रस से लवण का, आस्वाद से मदिरा का, स्पर्श से वस्त्र का अनुमान गुण से गुणी का अनुमान है। सींग से भैंसे का, शिखा से कुक्कुट का, दाँत से हाथी का, दाढ़ से वराह का, पिच्छ से मयूर का, खुर से घोड़े का, नख से व्याघ्र का, केश से चमरी गाय का, पूछ से बन्दर का, दो पैर से मनुष्य का, चार पैर से पशु का, बहुत पैर से गोजर आदि का, केसर से सिंह का, ककुभ से वृषभ का, वलयवाली भुजा से महिला का, परिकरबन्ध से योद्धा का, अधोवस्त्र-लहँगे से नारी का अनुमान अवयव से अवयवी का अनुमान है। धूम से वह्नि का, बलाका से पानी का, अभ्रविकास से वृष्टि का, शीलसमाचार से कुलपुत्र का अनुमान आश्रित से आश्रय का अनुमान है। __ ये पांच भेद अपूर्ण मालूम होते हैं। कारण और कार्य को लेकर दो भेद कर दिए किन्तु गुण और गुणी, अवयव और Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन अवयवी तथा आश्रित और आश्रय के दो भेद नहीं किए । जब कारण से कार्य का अनुमान कर सकते हैं तो गुणी से गुण, अवयवी से अवयव और आश्रय से आश्रित का अनुमान भी हो सकता है। सूत्रकार ने किस सिद्धान्त के आधार पर पाँच भेद किये, नहीं कहा जा सकता। दृष्टसाधर्म्यवत-इसके दो भेद हैं-सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट । किसी एक वस्तु के दर्शन से सजातीय सभी वस्तुओं का ज्ञान करना अथवा जाति के ज्ञान से किसी विशेष पदार्थ का ज्ञान करना सामान्यदृष्ट अनुमान है। एक पुरुष को देखकर पुरुषजातीय सभी व्यक्तियों का ज्ञान करना अथवा पुरुषजाति के ज्ञान से पुरुषविशेष का ज्ञान करना सामान्यदृष्ट अनुमान का दृष्टान्त है। ___ अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को पृथक् करके उसका ज्ञान करना विशेषदष्ट अनुमान है। अनेक पुरुषों में खड़े हुए विशेष पुरुष को पहचानना कि 'यह वही पुरुष है जिसे मैंने अमुक स्थान पर देखा था' विशेषदृष्ट दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान का उदाहरण है। सामान्यदृष्ट उपमान के समान लगता है और विशेषदृष्ट प्रत्यभिज्ञान से भिन्न प्रतीत नहीं होता। काल की दृष्टि से भी अनुमान तीन प्रकार का होता है । अनुयोगद्वार में इन तीनों प्रकारों का वर्णन है : १. अतीतकालग्रहण-तृणयुक्तवन, निष्पन्नशस्यवाली:पृथ्वी, जल से भरे हुए कुण्ड-सर-नदी-तालाब आदि देखकर यह अनुमान करना कि अच्छी वर्षा हुई है, अतीतकालग्रहण है। २. प्रत्युत्पन्नकालग्रहण भिक्षाचर्या के समय प्रचुर मात्रा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा में भिक्षा प्राप्त होती देखकर यह अनुमान करना कि सुभिक्ष है, प्रत्युत्पन्न कालग्रहण है। ३. अनागतकालग्रहण-मेघों की निर्मलता, काले-काले पहाड़, विद्युत्युक्त बादल, मेघगर्जन, वातोद्भम, रक्त और स्निग्ध सन्ध्या आदि देखकर यह सिद्ध करना कि खूब वर्षा होगी, अनागतकालग्रहण है। ___ इन तीनों लक्षणों की विपरीत प्रतीति से विपरीत अनुमान किया जा सकता है। सूखे वनों को देखकर कुवृष्टि का, भिक्षा की प्राप्ति न होने पर दुर्भिक्ष का और खाली बादल देखकर वर्षा के अभाव का अनुमान करना विपरीत प्रतीति के उदाहरण हैं। ____ अनुमान के अवयव-मूल आगमों में अवयव की चर्चा नहीं है। अवयव का अर्थ होता है दूसरों को समझाने के लिए जो अनुमान का प्रयोग किया जाता है उसके हिस्से। किस ढंग से अनुमान का प्रयोग करना चाहिए ? उसके लिए किस ढंग से वाक्यों की संगति बैठानी चाहिए ? अधिक से अधिक कितने वाक्य होने चाहिए ? कम से कम कितने वाक्यों का प्रयोग होना चाहिए? इत्यादि बातों का विचार अवयव-चर्चा में किया जाता है । आचार्य भद्रबाहु ने दशवकालिकनियुक्ति में अवयवों की चर्चा की है। उन्होंने दो से लगाकर दस अवयवों तक के प्रयोग का समर्थन किया है।' दस अवयवों को भी उन्होंने दो प्रकार से गिनाये हैं। दो अवयवों की गणना में उदाहरण का १. कत्थइ पंचावयवयं दसहा वा सव्वहा ण पडिकुत्थंति । --दशवकालिकनियुक्ति, ५०. २. दशवकालिकनियुक्ति, ६२. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैन धर्म-दर्शन नाम है, हेतु का नहीं। भद्रबाह ने कितने अवयव माने हैं और वे कौन-कौन से हैं, इसकी गणना इस प्रकार है : दो-प्रतिज्ञा, उदाहरण तीन-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण पाँच-प्रतिज्ञा, हेतु. दृष्टान्त, उपसंहार, निगमन १. दस-प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि, हेतु, हेतुविशुद्धि , दृष्टान्त, दृष्टान्तविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निग मन, निगमनविशुद्धि २. दस--प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविभक्ति, हेतु, हेतुविभक्ति, विपक्ष, प्रतिषेध, दृष्टान्त, आशंका, तत्प्रतिषेध, निगमन दो, तीन और पाँच अवयवों के नाम वही हैं जिनका अन्य दार्शनिकों ने उल्लेख किया है। दस अवयवों के नामों का भद्रबाहु ने स्वतन्त्र निर्माण किया है । उपमान-उपमान दो प्रकार का है-साधोपनीत और वैधोपनीत । ___ साधोपनीत के तीन भेद हैं-किचित्साधोपनीत, प्रायःसाधोपनीत और सर्वसाधोपनीत । किंचित्साधोपनीत-जैसा मन्दर है वैसा सर्षप है, जैसा सर्षप है वैसा मन्दर है। जैसा समुद्र है वैसा गोष्पद है, जैसा गोष्पद है वैसा समुद्र है । जैसा आदित्य है वैसा खद्योत है, जैसा खद्योत है वैसा आदित्य है। जैसा चन्द्र है वैसा कुमुद है, जैसा कुमुद है वैसा चन्द्र है। ये उदाहरण किचित्साधोपनीत उपमान के हैं। मन्दर और सर्षप का थोड़ा-सा साधर्म्य है। इसी प्रकार आदित्य और खद्योत आदि का समझ लेना चाहिए। १. प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः । -न्यायसूत्र, १.१.३२. mational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमीमांसा ३०५ प्रायःसाधोपनीत-जैसा गौ है वैसा गवय है, जैसा गवय है वैसा गो है। यहाँ गौ और गवय का बहुत-कुछ साधर्म्य है । यह प्रायःसाधोपनीत का उदाहरण है। __सर्वसाधोपनीत-जब किसी व्यक्ति की उपमा उसी व्यक्ति से दी जाती है तब सर्वसाधोपनीत उपमान होता है । अरिहंत अरिहंत ही है, चक्रवर्ती चक्रवर्ती ही है-इत्यादि प्रयोग सर्वसाधोपनीत के उदाहरण हैं । वास्तव में यह कोई उपमान नहीं है। इसे तो उपमान का निषेध कह सकते हैं । उपमा अन्य वस्तु की अन्य वस्तु से दी जाती है। वैधोपनीत भी तीन प्रकार का है-किंचिद्वैधोपनीत, प्रायोवैधोपनीत और सर्ववैधोपनीत । किंचिद्वैधोपनीत-इसका उदाहरण दिया गया है कि जैसा शाबलेय है वैसा बाहुलेय नहीं है, जैसा बाहुलेय है वैसा शाबलेय नहीं है। प्रायोवैधोपनीत-जैसा वायस है वैसा पायस नहीं है, जैसा पायस है वैसा वायस नहीं है। यह प्रायोवैधोपनीत का उदाहरण है। सर्ववैधोपनीत-इसका उदाहरण दिया गया है कि नीच ने नीच जैसा ही किया, दास ने दास जैसा ही किया। यह उदाहरण ठीक नहीं। इसमें तो सर्वसाधोपनीत का ही आभास मिलता है। कोई ऐसा उदाहरण देना चाहिए जिसमें दो विरोधी वस्तुएँ हों। नीच और सज्जन, दास और स्वामी आदि उदाहरण दिये जा सकते हैं। आगम-आगम के दो भेद किये गये हैं-लौकिक और लोकोत्तर। २० Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन ___ लौकिक आगम में जैनेतर शास्त्रों का समावेश है, जैसे रामायण, महाभारत, वेद आदि । लोकोत्तर आगम में जैनशास्त्र आते हैं। • मागम के दूसरी तरह के भेद भी मिलते हैं । इनकी संख्या तीन है-आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । तीर्थकर अर्थ का उपदेश देते हैं और गणधर उसके आधार से सूत्र बनाते हैं । अर्थरूप आगम तीर्थङ्कर के लिए आत्मागम है और सूत्ररूप आगम गणधरों के लिए आत्मागम है। अर्थरूप आगम गणधरों के लिए अनन्तरागम है क्योंकि तीर्थकर गणधरों को साक्षात् लक्ष्य करके अर्थ का उपदेश देते हैं । गणधरों के शिष्यों के लिए अर्थरूप आगम परम्परागम है क्योंकि उन्हें अर्थ का साक्षात् उपदेश नहीं दिया जाता अपितु परम्परा से प्राप्त होता है । अर्थागम तीर्थंकर से गणधरों के पास जाता है और गणधरों से उनके शिष्यों के पास आता है । सूत्ररूप आगम गणधर-शिष्यों के लिए अनन्तरागम है क्योंकि सूत्रों का उपदेश उन्हें साक्षात गणधरों से मिलता है । गणधर-शिष्यों के बाद में होने वाले आचार्यों के लिए अर्थागम और सूत्रागम दोनों परम्परागम हैं। ___इस विवेचन के आधार पर सहज ही इस निर्णय पर पहुंचा जा सकता है कि जैन आगमों में प्रमाणशास्त्र पर प्रचुर मात्रा में सामग्री बिखरी पड़ी है। जिस प्रकार ज्ञान का विवेचन करने में आगम पीछे नहीं रहे हैं उसी प्रकार प्रमाण की चर्चा में भी पीछे नहीं हैं। ज्ञान के प्रामाण्य-अप्रामाण्य के विषय में आगमों में अच्छी सामग्री है । यह ठीक है कि बाद में होने वाले दर्शन के आचार्यों ने इसका जिस ढंग से तर्क के आधार पर विचार किया है-पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में जिन युक्तियों का आधार लिया है और जैन प्रमाणशास्त्र की नींव Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३०७ को सुदृढ़ बनाने का सफल प्रयत्न किया है वैसा प्रयत्न आगमों में नहीं मिलता किन्तु मूलरूप में यह विषय उनमें अवश्य है । तर्कयुग में ज्ञान और प्रमाण : उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण में किसी प्रकार का भेद नहीं रखा। उन्होंने पहले पाँच ज्ञानों के नाम गिनाए और फिर कह दिया कि ये पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं। प्रमाण का अलग लक्षण बताकर, फिर ज्ञान में उस लक्षण को घटाकर, ज्ञान और प्रमाण का अभेद सिद्ध करने के बजाय ज्ञान को ही प्रमाण कह दिया | प्रामाण्य- अप्रामाण्य का अलग विचार न करके ज्ञान के स्वरूप के साथ ही उनका स्वरूप समझ लेने का संकेत कर दिया । बाद में होने वाले तार्किकों ने इस पद्धति में परिवर्तन कर दिया । उन्होंने प्रमाण की स्वतन्त्र रूप से व्याख्या करना प्रारम्भ किया । उनका लक्ष्य प्रामाण्य- अप्रामाण्य की ओर अधिक रहा । मात्र ज्ञानों के नाम गिनाकर और उनको प्रमाण का नाम देकर ही वे सन्तुष्ट न हुए अपितु प्रमाण का अन्य दार्शनिकों की तरह स्वतन्त्र विवेचन किया। उसकी उत्पत्ति और ज्ञप्ति पर भी विशेष भार दिया । ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी कौन-सा ज्ञान प्रमाण हो सकता है, इसकी विशद चर्चा की । इस चर्चा के बाद में इस निर्णय पर पहुँचे कि ज्ञान और प्रमाण कथंचिद् अभिन्न हैं । प्रमाण क्या है ? इस प्रश्न को हस्तगत करने के लिए एकदो आचार्यों का आधार लें । माणिक्यनन्दी प्रमाण का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वही ज्ञान प्रमाण है जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता है ।" ज्ञान अपने को भी जानता १. परीक्षामुख, १.२. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.०५ - जैन धर्म-दर्शन है और बाह्य अर्थ को भी जानता है । ज्ञानरूप प्रमाण के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को भी जाने और अर्थ को भी जाने । अर्थज्ञान में भी पिष्टपेषण न हो अपितु कुछ नवीनता हो। इसलिए अर्थ के पहले 'अपूर्व' विशेषण है। ज्ञान ही प्रमाण क्यों है ? इसका उत्तर देते हुए.कहा गया है कि ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग ज्ञान के कारण ही हो सकता है।' ग्रहण और त्यागरूप क्रियाएँ ज्ञान के अभाव में नहीं घट सकतीं। अतः ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है। वादिदेवसूरि ने प्रमाण का लक्षण यों बताया-स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। इन्होंने अपूर्व विशेषण हटा दिया। अपूर्व अर्थ का हो या पूर्व अर्थ का होकैसा भी ज्ञान हो, यदि वह निश्चयात्मक है तो प्रमाण है। ज्ञान ही यह बता सकता है कि क्या अभीप्सित है और क्या अनभीप्सित है, अतः वही प्राण है । आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में लिखा-अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है। यहाँ पर 'स्व और पर' ऐसा प्रयोग नहीं है। अर्थ का निर्णय स्वनिर्णय के अभाव में नहीं हो . सकता, अतः अर्थनिर्णय का अविनाभावी स्वनिर्णय स्वतः सिद्ध है । जब स्वनिर्णय होता है तभी अर्थनिर्णय होता है । हेमचन्द्र ने इसी सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुए 'स्वनिर्णय' विशेषण का प्रयोग नहीं किया। १ वही, १.२. २. स्वपरव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.२. ३. वही, १. ३. ४. सम्यगर्थ निर्णयः प्रमाणम् ।-प्रमाणमीमांसा, १.१.२. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३०६ प्रमाण के उपयुक्त लक्षणों को देखने से यह मालूम होता है कि ज्ञान और प्रमाण में अभेद है। ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान है, न कि मिथ्याज्ञान । ज्ञान जब किसी पदार्थ का ग्रहण करता है तो स्वप्रकाशक होकर ही। जैन दर्शन में ज्ञान को स्वपरप्रकाशक माना गया है । ज्ञान का ऐसा स्वभाव है कि वह स्वयं प्रकाशित होकर ही अर्थ का प्रकाश करता है। जो स्वयं अप्रकाशित होता है वह दूसरे को प्रकाशित नहीं कर सकता। दीपक जब उत्पन्न होता है तो घटादि पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ-ही-साथ अपने को भी प्रकाशित करता है। उसको प्रकाशित करने के लिए किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं रहती। वह प्रकाश रूप उत्पन्न होकर ही दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार ज्ञान भी प्रकाशरूप है जो स्वप्रकाश के साथ अर्थ को प्रकाशित करता है। इसलिए ज्ञान को स्वपरप्रकाशक कहा गया है । जैन दर्शन में निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। निश्चयात्मक का अर्थ है सविकल्पक । वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है जो निश्चयात्मक हो-व्यवसायात्मक हो-निर्णयात्मक हो-सविकल्पक हो। न्यायबिन्दु में निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है। वहाँ कल्पनापोढ़' शब्द है जिसका अर्थ है कल्पना अर्थात् विकल्प से रहित । जैन दर्शन इस सिद्धान्त का खण्डन करता है। वह कहता है कि जो निर्विकल्पक होता है वह प्रमाण-अप्रमाण कुछ नहीं होता। दूसरे शब्दों में, ज्ञान निर्विकल्पक हो ही नहीं सकता। जहाँ विकल्प अर्थात् निश्चय या निर्णय होता है वहीं ज्ञान होता है। ज्ञान भी हो और विकल्प भी न हो, यह कैसे हो सकता है ? निर्विकल्पक उपयोग तो १. न्याय बिन्दु का प्रथम प्रकरण. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैन धर्म-दर्शन दर्शनमात्र है। ज्ञान उसके बाद का उपयोग है । ऐसी स्थिति में ज्ञान निर्विकल्पक कैसे हो सकता है ? प्रमाण और अप्रमाण का निर्णय करने के लिए निश्चयात्मक उपयोग होना आवश्यक है । ज्ञान का प्रामाण्य : देखा | , सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण होता है, यह हमने कौन-सा ज्ञान सम्यक है और कौन-सा मिथ्या ? इसका निर्णय करना बाकी है। दूसरे शब्दों में, ज्ञान को जिसके कारण प्रमाण कहा जाता है वह प्रामाण्य क्या है ? प्रामाण्य की कसौटी क्या है जिसके आधार पर हम यह निर्णय कर सकें कि अमुक ज्ञान तो प्रमाण है और अमुक ज्ञान अप्रमाण । प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निर्णय कैसे हो ? जैन तार्किक कहते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय या तो स्वतः होता है या परतः । " किसी परिस्थिति में ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः निश्चित हो जाता है । किसी परिस्थिति में प्रामाण्य - निश्चय के लिए दूसरे साधनों का सहारा लेना पड़ता है । मीमांसक स्वतःप्रामाण्यवादी हैं । नैयायिक परतः प्रामाण्यवादी हैं । मीमांसक कहते हैं कि ज्ञान प्रमाणरूप ही उत्पन्न होता है । उसमें जो अप्रामाण्य आता है वह बाह्य दोष के कारण है। ज्ञान के प्रामाण्यनिश्चय के लिए किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं | प्रामाण्य स्वतः उत्पन्न होता है और ज्ञात होता है । प्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति स्वत: है । इसे स्वतः प्रामाण्यवाद कहते हैं । नैयायिक स्वतः प्रामाण्यवाद को नहीं मानते । वे कहते हैं कि ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण, इसका १. प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा । प्रमाणमीमांसा, १.१.५. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३११ निर्णय किसी बाह्य पदार्थ के आधार पर ही किया जा सकता है । जो ज्ञान यथार्थ अर्थात् अर्थ से अव्यभिचारी होता है वह प्रमाण है । जो ज्ञान अर्थाव्यभिचारी नहीं होता वह अप्रमाण है । प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की कसौटी बाह्य वस्तु है | ज्ञान स्वतः न तो प्रमाण है और न अप्रमाण । प्रमाण और अप्रमाण का निर्णय तभी होता है जब वह वस्तु से मिलाया जाता है। जैसी वस्तु है वैसा ही ज्ञान होता है तो उसे हम प्रमाण कहते हैं । विपरीत ज्ञान होता है तो उसे हम अप्रमाण कहते हैं । नैयायिकों का यह सिद्धान्त परत:प्रामाण्यवाद है । इसमें प्रामाण्य का निश्चय स्वतः न होकर परत: होता है । सांख्य दर्शन की मान्यता का भी उल्लेख कर देना चाहिए । सांख्यों की मान्यता है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः हैं । अमुक ज्ञान प्रमाण है या अमुक ज्ञान अप्रमाण है, ये दोनों निर्णय स्वतः होते हैं । यह मान्यता नैयायिकों से बिल्कुल विपरीत है । अस्तु, नैयायिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों परतः मानते हैं जब कि सांख्य प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः मानते हैं । जैन दर्शन इन तीनों से भिन्न सिद्धान्त की स्थापना करता है । प्रामाण्यनिश्चय के लिए स्वतः प्रामाण्यवाद और परतः प्रामाण्यवाद दोनों की आवश्यकता है । स्वतः प्रामाण्यवाद के उदाहरण देखिएएक व्यक्ति अपनी हथेली हमेशा देखता है । वह उससे खूब परिचित है । उस व्यक्ति के हथेली-विषयक ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करने के लिए किसी बाह्य वस्तु की आवश्यकता नहीं होती । हथेली को देखते ही वह व्यक्ति निश्चय कर लेता है कि यह मेरी ही हथेली है । दूसरा उदाहरण पानी का है । एक व्यक्ति को प्यास लगी है। वह पानी पीता है और तुरन्त प्यास बुझ जाती है। प्यास बुझते ही वह समझ लेता है कि Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैन धर्म-दर्शन मैंने पानी ही पिया । वह पानी था या नहीं, इसका निश्चय करने के लिए उसे दूसरी वस्तु का सहारा नहीं लेना पड़ता । कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब व्यक्ति अपने आप अपने ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय नहीं कर पाता । उसे किसी बाह्य वस्तु का सहारा लेना पड़ता है । उदाहरण के लिए एक कमरे में छोटा-सा छेद है । उससे थोड़ा-सा प्रकाश बाहर निकल रहा है । वह प्रकाश दीपक का है या मणि का, इसका निर्णय नहीं हो रहा है । इसके निर्णय के लिए कमरा खोला जाता है । दीपक की बत्ती दिखाई देती है । तेल का प्रत्यक्ष होता है । इन सब चीजों को देखकर यह निश्चय हो जाता है कि मेरा दीपक-विषयक ज्ञान तो सच्चा है और मणि-विषयक ज्ञान झूठा । दीनक-विषयक ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय होता है और मणि-विषयक ज्ञान के अप्रामाण्य का । इस निश्चय के लिए बत्ती, तेल आदि का आधार लेना पड़ा | दूसरा उदाहरण लीजिए। एक जगह सफेद ढेर लगा हुआ है । हमें ऐसी प्रतीति हो रही है कि यह शक्कर है, किन्तु इसका निश्चय कैसे हो कि यह शक्कर ही है । उसमें से थोड़ी-सी मात्रा उठाकर मुँह में डाल ली । मुह मीठा हो गया । तुरन्त निश्चय हो गया कि यह शक्कर है । इस निर्णय के लिए पदार्थ के कार्य या परिणाम की प्रतीक्षा करनी पड़ी। स्वतः निर्णय न हो सका । यदि वही ढेर पहले देखा हुआ होता तो तुरन्त निर्णय हो जाता कि यह शक्कर का ढेर है । उस अवस्था में होनेवाला ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः होता । आगे के परिणाम की प्रतीक्षा करने पर होने वाला प्रामाण्य - निश्चय परतः प्रामाण्यवाद के अन्तर्गत है । जैन दर्शन स्वतः प्रामाण्यवाद और परतः प्रामाण्यवाद दोनों का भिन्न-भिन्न दृष्टि से समर्थन करता है । अभ्यासावस्था आदि में होने वाला निश्चय स्वतः प्रामाण्य ت Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३१३ वाद का साक्षी है । किसी अन्य आधार पर होने वाला प्रामाण्यनिश्चय परतः प्रामाण्यवाद का समर्थक है । प्रमाण का फल : २ प्रमाण के भेद-प्रभेद की चर्चा करने के आवश्यक है कि प्रमाण का फल क्या है ? क्यों की जाय ? प्रमाण चर्चा से क्या लाभ है ? प्रमाण का प्रयोजन क्या है ? प्रमाण का मुख्य प्रयोजन अर्थप्रकाश है । " अर्थ का ठीक-ठीक स्वरूप समझने के लिए प्रमाण का ज्ञान आवश्यक है । प्रमाण- अप्रमाण के विवेक के बिना अर्थ के यथार्थ - अयथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता। इसी बात को दूसरी तरह से यो कह सकते हैं- प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान का नाश है । केवलज्ञान के लिए उसका फल सुख और उपेक्षा है । शेष ज्ञानों के लिए ग्रहण और त्यागबुद्धि है । " सामान्य दृष्टि से प्रमाण का फल यही है कि अज्ञान नहीं रहने पाता । जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार का सर्वनाश हो जाता है उसी प्रकार प्रमाण से अज्ञान का विनाश होता है । यह साधारण फल है । इस अज्ञाननाश का किसके लिए क्या फल है, इसे बताने के लिए कहा गया है कि जिसे केवलज्ञान होता है उसके लिए अज्ञाननाश का यही फल है कि उसे आत्म-सुख प्राप्त होता है और जगत् के पदार्थों के प्रति उसका उपेक्षाभाव रहता है । दूसरे लोगों के लिए अज्ञाननाश का फल ग्रहण और व्यागरूप बुद्धि का उत्पन्न होना है । अमुक वस्तु निर्दोष १. फलमर्थ प्रकाश: । वही, १.१.३४. - २. प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञान विनिवर्तनम् । केवलस्य सुखोपेक्षे, शेषस्यादानहानधीः ॥ पहले यह जानना प्रमाण की चर्चा -न्यायावतार, २८. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैन धर्म-दर्शन है अतः उसका ग्रहण करना चाहिए। अमुक वस्तु सदोष है अतः उसका त्याग करना चाहिए। इस प्रकार का विवेक अज्ञान के विनाश से जाग्रत् होता है । यही विवेक सत्कार्य में प्रवृत्ति करने की प्रेरणा देता है, असत्कार्य से दूर हटने का बोध कराता है । प्रमाण का यह फल ज्ञान से भिन्न नहीं है । पूर्वकालभावी ज्ञान उत्तरकालभावी ज्ञान के लिए प्रमाण है और उत्तरकालभावी ज्ञान पूर्वकालभावी ज्ञान का फल है । यह परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । प्रमाण के भेद : ज्ञान का विवेचन करते समय हमने यह देखा है कि जैन दर्शन मुख्यरूप से ज्ञान के दो भेद मानता है- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष सीधा आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान है और परोक्ष इन्द्रियादि करणों की सहायता से पैदा होता है। जैन तार्किकों ने इसी आधार पर प्रमाण के भी दो भेद किये हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष ।' बौद्धों ने प्रमाण के जो दो भेद किये हैं उनसे ये भिन्न हैं । प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद न करके बौद्ध तार्किकों ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो भेद किये हैं । 2 जैन दर्शन के अनुसार अनुमान परोक्ष का एक भेद है । इसलिए बौद्ध दर्शन का प्रमाण-विभाजन अपूर्ण है । चार्वाक दर्शन केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहा गया है कि केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष के आधार पर हमारा ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता । 'यह प्रमाण है, यह प्रमाण नहीं है' यह व्यवस्था अनुमान के अभाव में नहीं हो सकती । 'अमुक व्यक्ति अमुक प्रकार की भाषा का १. प्रमाणं द्विधा । प्रत्यक्षं परोक्षं च । - - प्रमाणमीमांसा, १.१.६-१०. २. प्रत्यक्षमनुमानं च । न्यायबिन्दु, १.३. 1 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३१५ प्रयोग कर रहा है, अमुक प्रकार की उसकी चेष्टाएं हैं अतः उसके मन में इस समय यह भावना काम कर रही है इस प्रकार दूसरे की चेष्टा का ज्ञान करना प्रत्यक्ष से सम्भव नहीं । 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अनुमानादि परोक्ष नहीं इस प्रकार का निषेध भी प्रत्यक्ष के आधार पर नहीं किया जा सकता । इस प्रकार बिना अनुमान के न तो कोई व्यवस्था हो सकती है, न दूसरे का अभिप्राय जाना जा सकता है, न स्वपक्ष की सिद्धि अथवा परपक्ष का निषेध ही हो सकता है ।" इन्हीं सब कठिनाइयों को सामने रखते हुए जैन दार्शनिक अनुमानादिरूप परोक्ष प्रमाण को भी मान्यता देते हैं तथा जो लोग केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं उनकी मान्यता का विरोध करते हैं । जो ज्ञान यथार्थ होता है अर्थात् अर्थ के अनुकूल होता है वही ज्ञान प्रमाण माना जाता है । प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सब के लिए यह सिद्धान्त समानरूप से ग्राह्य है । द्विचन्द्रज्ञान प्रत्यक्ष होते हुए भी प्रमाण नहीं है क्योंकि वह ज्ञान यथार्थ नहीं है । उसका विषय चन्द्र तो एक है किन्तु ज्ञान में दो चन्द्रो का प्रतिभास होता है। ज्ञान और अर्थ में अनुकूलता नहीं है । अतः वह ज्ञान मिथ्या है । इसी प्रकार अनुमानादिजन्य ज्ञान भी मिथ्या हो सकता है । जिस प्रकार एक प्रत्यक्ष ज्ञान के मिथ्या होने से सारे प्रत्यक्ष ज्ञान मिथ्या नहीं हो जाते उसी प्रकार अनुमानादि में एक जगह व्यभिचार होने से सारे ज्ञान व्यभिचारी नहीं हो जाते । प्रत्यक्ष की तरह अर्थानुकूल उत्पन्न होने से अनुमानादि अव्यभिचारी हैं । यदि कहीं-कहीं प्रत्यक्ष में १. व्यवस्थान्यधीनिषेधानां सिद्धेः प्रत्यक्षेतरप्रमाणसिद्धि: । --प्रमाणमीमांसा, १.१.११. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैन धर्म-दर्शन • दोष या व्यभिचार आ सकता है तो अनुमानादि में भी वैसी संभावना हो सकती है। ऐसी स्थिति में एक को प्रमाण मानना और दूसरे को अप्रमाण मानना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। जिस यथार्थता के कारण प्रत्यक्ष में प्रमाणता की स्थापना की जा सकती है उसी यथार्थता को दृष्टि में रखते हुए अनुमानादि को भी प्रमाण कहा जा सकता है। वैशेषिक और सांख्य तीन प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक चार प्रमाण स्वीकार करते हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान । प्राभाकर पाँच प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति। भाट्ट इससे भी आगे बढ़ते हैं। वे प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव-ये छः प्रमाण मानते हैं। जैन दर्शन-सम्मत दोनों प्रमाणों में ये सब प्रमाण समा जाते हैं। प्रत्यक्ष को अन्य दर्शनों की तरह जैन दर्शन भी प्रमाण मानता है। अनुमान जैन दर्शन-सम्मत परोक्ष का एक भेद है । आगम भी परोक्ष का ही एक प्रकार है। उपमान भी परोक्ष प्रमागान्तर्गत है । अर्थापत्ति अनुमान से भिन्न नहीं। अभाव प्रत्यक्ष का ही एक अंश है। वस्तु भाव और अभाव उभयात्मक हैं। दोनों का ग्रहण प्रत्यक्ष से ही होता है। जहाँ हम किसी के भावांश का ग्रहण करते हैं वहाँ उसके अभावांश का भी अभाव रूप से ग्रहण हो ही जाता है अन्यथा अभावांश का भी भावरूप से ग्रहण होता । वस्तु भाव और अभाव-इन दो रूपों को छोड़कर तीसरे रूप में नहीं मिलती। एक वस्तु जिस दृष्टि से भावरूप है, तदितर दृष्टि से अभावरूप है। जब भावरूप का ग्रहण होता है तब अभावरूप का भी ग्रहण होता है। दोनों प्रत्यक्षग्राह्य हैं। ऐसी स्थिति में अभावग्राहक भिन्न प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती। अभाव की दूसरी तरह से परीक्षा करें। इस ___ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३१७ भूमि पर घट नहीं है' यह अभाव का उदाहरण है । यहाँ अभाव प्रमाण घटाभाव का ग्रहण करता है । यह घटाभाव क्या है ? यदि हम इसका विचार करें तो मालूम होगा कि यह घटाभाव शुद्ध भूतल के अतिरिक्त कुछ नहीं है । जिस भूतल पर पहले हमने घट देखा था उसी भूतल को अब हम शुद्ध भूतल के रूप में देख रहे हैं । यह शुद्ध भूतल ही घटाभाव है और इसका दर्शन प्रत्यक्षपूर्वक है । इस विश्लेषण से यही फलित होता है कि अभाव प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं है । एक का अभाव दूसरे का भाव है । प्रत्यक्ष : प्रत्यक्ष का लक्षण वैशद्य या स्पष्टता है ।" सन्निकर्ष या कल्पनापोढत्व प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं माना गया है । वैशद्य किसे कहते हैं ? जिसके प्रतिभास के लिए किसी प्रमाणान्तर की आवश्यकता न हो अथवा जो 'यह' इदन्तया प्रतिभासित होता हो उसे वैशद्य कहते हैं। प्रमाणान्तर का निषेध इसलिए किया गया है कि प्रत्यक्ष अपने विषय के प्रतिभास के लिए स्वयं समर्थ है । उसे किसी दूसरे प्रमाण से सहायता की अपेक्षा नहीं । अनुमान, आगमादि प्रमाण अपने आप में पूर्ण नहीं हैं । उनका आधार प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष अपने में पूर्ण है । उसे किसी अन्य I १. विशद: प्रत्यक्षम् । प्रमाणमीमांसा, १.१.१३. स्पष्टं प्रत्यक्षम् |--प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.२. विशदं प्रत्यक्षमिति । -- परीक्षामुख, २.३. २. प्रमाणान्तरानपेक्षे दन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् । - प्रमाणमीमांसा, १.१.१४. प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् । - परीक्षामुख, २.४. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैन धर्म-दर्शन आधार के सहयोग की आवश्यकता नहीं । 'यह' इस रूप से प्रतिभासित होना भी प्रत्यक्षपूर्वक ही है । 'यह' का अर्थ स्पष्ट प्रतिभास है । जिस प्रतिभास में स्पष्टता न हो, बीच में व्यवधान हो, एक प्रतीति के आधार से दूसरी प्रतीति तक पहुंचना पड़ता हो वह प्रतिभास 'यह' एतद्रूप प्रतिभास नहीं है । ऐसे व्यवहित प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं । प्रत्यक्ष में इस प्रकार का कोई व्यवधान नहीं रहता । हम यह देख चुके हैं कि जैन तार्किकों ने प्रत्यक्ष का दो दृष्टियों से प्रतिपादन किया । एक लोकोत्तर या पारमार्थिक दृष्टि है और दूसरी लौकिक या व्यावहारिक दृष्टि है । पारमार्थिक दष्टि से पारमार्थिक प्रत्यक्ष का विश्लेषण किया और व्यावहारिक दृष्टि से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का अनुमोदन किया । पारमार्थिक प्रत्यक्ष सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है । सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान है और विकलप्रत्यक्ष अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये चार भेद होते हैं । पारमार्थिक और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद-प्रभेदों का वर्णन पहले किया जा चुका है । यहाँ हम परोक्ष पर थोड़ा-सा प्रकाश डालेंगे | परोक्ष : जो ज्ञान अविशद अथवा अस्पष्ट है वह परोक्ष है । परोक्ष प्रत्यक्ष से ठीक विपरीत है । जिसमें वैशद्य अथवा १. तद् द्विप्रकारं सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च । ---प्रमाणनयतत्वालोक, २.४. २. अविशदः परोक्षम् । - प्रमाणमीमांसा, १.२.१. अस्पष्टं परोक्षम् । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्टता का तर्क, अनुमान होने पर स्मृति शानमीमांसा स्पष्टता का अभाव है वह परोक्ष है। परोक्ष के पांच भेद हैंस्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ।' स्मृति-वासना का उद्बोध होने पर उत्पन्न होने वाला 'वह' इस आकार वाला ज्ञान स्मृति है। स्मृति अतीत के अनुभव का स्मरण है। किसी ज्ञान या अनुभव की वासना की जागृति से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति कहलाता है। वासना की जागृति कैसे होती है ? समानता, विरोध आदि अनेक कारणों से वासना का उद्बोध हो सकता है। चूंकि स्मृति अतीत के अनुभव का स्मरण है इसलिए 'वह' इस प्रकार का ज्ञान स्मृति की विशेषता है। __ भारतीय दर्शनशास्त्र के 'इतिहास में जैन दर्शन हो ऐसा है जो स्मृति को प्रमाण मानता है । स्मृति को प्रमाण न मानने वाले दार्शनिक खास दोष यह देते हैं कि स्मृति का विषय अतीत का अर्थ है । वह तो नष्ट हो चुका। उसके ज्ञान को इस समय प्रमाण कसे कहा जा सकता है ? जिस ज्ञान का कोई विषय नहीं, जिस अनुभव का कोई वर्तमान आधार नहीं, वह उत्पन्न ही कैसे हो सकता है ? बिना विषय के ज्ञानोत्पत्ति कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर यह है कि ज्ञान के प्रामाण्य का आधार वस्तु की यथार्थता है, न कि उसकी वर्तमानता। पदार्थ किसी भी समय उपस्थित क्यों न हो, यदि ज्ञान उसकी वास्तविकता का ग्रहण करता है तो वह प्रमाण है। वर्तमान, भूत और भविष्य किसी भी काल में रहने वाला पदार्थ ज्ञान का विषय बन सकता है। यदि वर्तमानकालीन पदार्थ को ही ज्ञान का विषय माना जाय तो अनुमान भी प्रमाण की कोटि से १. स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्वानुमानागमभेदतस्तत् पंचप्रकारम् ।-बही,३.२. २. वासनोबोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः ।-प्रमाणमीमांसा, १.२.३. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैन धर्म-दर्शन बाहर हो जायगा क्योंकि वह वैकालिक वस्तु का ग्रहण करता है। केवल वर्तमान के आधार पर अनुमान की भित्ति नहीं बन सकती। स्मृति यदि अतीत के अर्थ का ग्रहण करती हुई यथार्थ है तो प्रमाण है। जो लोग यह आग्रह रखते हैं कि वर्तमान पदार्थ का ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है, उनके विरोध में कोई यह भी कह सकता है कि अतीत के पदार्थ का ज्ञान ही प्रमाण है। कथनमात्र से यदि कोई बात सिद्ध हो जाती हो तो प्रमाण और अप्रमाण की परीक्षा ही व्यर्थ है । ज्ञान को प्रमाण इसलिए नहीं माना जाता है कि वह वर्तमान वस्तु का ग्रहण करता है या अतीत अर्थ को अपना विषय बनाता है या अनागत पदार्थ का चिन्तन करता है। ज्ञान वस्तु की यथार्थता का ग्राहक होने से प्रमाण माना जाता है। वह यथार्थता तीनों कालों में रहने वाली हो सकती है। विरोधी एक दोष और देता है। वह कहता है कि जो वस्तु नष्ट हो चुकी है वह ज्ञानोत्पत्ति का कारण कैसे बन सकती है ? जैन दर्शन पदार्थ को ज्ञानोत्पत्ति का अनिवार्य कारण नहीं मानता, यह वात अर्थ और आलोक की चर्चा के समय सिद्ध की जा चुकी है। ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न होता है। पदार्थ अपने कारणों से उत्पन्न होता है। ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि वह पदार्थ को अपना विषय बना सकता है। पदार्थ का ऐसा स्वभाव है कि वह ज्ञान का विषय बन सकता है। पदार्थ और ज्ञान में कारण और कार्य का सम्बन्ध नहीं है। उनमें ज्ञेय और ज्ञाता, प्रकाश्य और प्रकाशक, व्यवस्थाप्य और व्यवस्थापक का सम्बन्ध है। इन सब तथ्यों को देखते हुए स्मृति को प्रमाण मानना युक्तिसंगत है। स्मृति को प्रमाण न मानने पर अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि लिंग और लिंगी का सम्बन्ध-ग्रहण प्रत्यक्ष का Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३२१ विषय नहीं है । अनेक बार के दर्शन के बाद निश्चित होने वाला लिंग और लिंगी का सम्बन्ध स्मृति के अभाव में कैसे स्थापित हो सकता है ? लिंग को देखकर साध्य का ज्ञान भी बिना स्मृति के नहीं हो सकता । सम्बन्ध स्मरण के बिना अनुमान सर्वथा असम्भव है । । प्रत्यभिज्ञान - दर्शन और स्मरण से उत्पन्न होने वाला 'यह वही है', 'यह उसके समान है,' 'यह उससे विलक्षण है,' 'यह उसका प्रतियोगी है' इत्यादि रूप में रहा हुआ संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है ।" प्रत्यभिज्ञान में दो प्रकार के अनुभव कार्य करते हैं - एक प्रत्यक्ष दर्शन, जो वर्तमान काल में रहता हैं और दूसरा स्मरण, जो भूतकाल का अनुभव है । जिस ज्ञान में प्रत्यक्ष और स्मृति इन दोनों का संकलन रहता है वह ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है । 'यह वही घट है' इस प्रकार का ज्ञान अभेद का ग्रहण करता है । 'यह' प्रत्यक्ष दर्शन का विषय है और 'वही' स्मृति का विषय है । घट दोनों में एक ही है । अतः यह अभेदविषयक प्रत्यभिज्ञान है । 'यह घट उस घट के समान है' यह ज्ञान सादृश्यविषयक है । इसी ज्ञान को अन्य दर्शनों में उपमान कहा गया है । ' गवय गौ के समान है' यह शास्त्रीय उदाहरण है । 'भैंस गाय से विलक्षण है' इस प्रकार का ज्ञान विसदृशता का ग्रहण करता है । यह ज्ञान सादृश्यविषयक ज्ञान से विवरीत है । यह उससे छोटा है, यह उससे दूर है - इत्यादि ज्ञान भेद का ग्रहण करते हैं । यह ज्ञान अभेदग्राहक ज्ञान से विपरीत है । तुलनात्मक ज्ञान, चाहे वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो, प्रत्यभिज्ञान के अन्दर समाविष्ट हो जाता १. दर्शनस्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्त्रतियोगीत्यादिसंकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । - प्रमाणमीमांसा, १.२.४. २१ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैन धर्म-दर्शन है। केवल उपमान को ही प्रत्यभिज्ञान का पर्यायवाची मानना ठीक नहीं। सादृश्य, वैलक्षण्य, भेद, अभेद आदि सब का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। तर्क-उपलम्भानुपलम्भनिमित्त व्याप्तिज्ञान तर्क है। इसे ऊह भी कहते हैं।' उपलम्भ का अर्थ है लिंग के सद्भाव से साध्य के सद्भाव का ज्ञान । धूम लिंग है और अग्नि साध्य है। धम के सद्भाव के ज्ञान से अग्नि के सद्भाव का ज्ञान करना उपलम्भ है। अनुपलम्भ का अर्थ है साध्य के असद्भाव से लिंग के असद्भाव का ज्ञान । 'जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम नहीं हो सकता' इस प्रकार का निर्णय अनुपलम्भ है। उपलम्भ और अनुपलम्भरूप जो व्याप्ति है उससे उत्पन्न होने वाला शान तर्क है। 'इसके होने पर ही यह होता है, इसके अभाव में यह नहीं हो सकता' इस प्रकार का ज्ञान तर्क है। तर्क का दूसरा नाम ऊह है। प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय सीमित है। जिस विषय से प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है उसी विषय तक वह सीमित रहता है। त्रिकालविषयक व्याप्तिज्ञान उससे उत्पन्न नहीं हो सकता। साधारण प्रत्यक्ष का विषय वर्तमानकालीन सीमित पदार्थ हैं। किसी कालिक निर्णय पर पहुंचना प्रत्यक्ष के बस की बात नहीं। इसके लिए तो किसी स्वतन्त्र प्रमाण की आवश्यकता है जो त्रिकालविषयक निर्णय पर पहुंचने में समर्थ हो। यह प्रमाण तर्क है। अनुमान भी तर्क का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि अनुमान का आधार ही तर्क है। जब तक तर्क से व्याप्तिज्ञान न हो जाय १. उपलम्भानुपलम्भनिमितं व्याप्तिज्ञानमूहः । -प्रमाणमीमांसा, १. २. ५. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३२३ तब तक अनुमान की प्रवृत्ति ही असम्भव है। दूसरे शब्दों में,. यदि तर्क ज्ञान नहीं है तो अनुमान की कल्पना ही नहीं हो सकती। अनुमान स्वयं तर्क पर प्रतिष्ठित है। ऐसी अवस्था में तर्क का स्थान अनुमान कैसे ले सकता है। जो ज्ञान जिससे पूर्व उत्पन्न होता है और जिसका आधार होता है वह ज्ञान तद्रूप नहीं हो सकता; अन्यथा पूर्व और पश्चात् का सम्बन्ध ही नष्ट हो जायगा, आधार और आधेय की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी। अतः तके अनुमान से भिन्न है तथा स्वतन्त्र प्रमाण है। तर्क की व्याख्या करते हुए यह कहा गया कि व्याप्तिज्ञान तर्क है। व्याप्ति क्या है, इसका स्पष्टीकरण बाकी है। 'व्याप्य के होने पर व्यापक होता ही है अथवा व्यापक के होने पर ही व्याप्य होता है-इस प्रकार का जो नियम है वह व्याप्ति है। धूम और अग्नि के उदाहरण से इसे और स्पष्ट कर लें। धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक है। धूम ( व्याप्य ) के होने पर अग्नि ( व्यापक ) होती ही है अथवा अग्नि ( व्यापक ) के होने पर ही धूम ( व्याप्य ) होता है। धूम और अग्नि का यह सम्बन्ध व्याप्ति है। जहाँ व्यापक होता है वहाँ ज्याप्य हो भी सकता है और नहीं भी। जहाँ अग्नि होती है वहाँ धूम हो भी सकता है और नहीं भी। जहां व्याप्य होता है वहाँ व्यापक होता ही है। जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती ही है । व्याप्य व्यापक के होने पर ही हो सकता है। धूम अग्नि के होने पर ही हो सकता है । इस प्रकार का जो व्यापक और व्याप्य का १. व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सति भाव एव, व्याप्यस्य वा तत्रौव भावः । -प्रमाणमीमांसा, १.२.६. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैन धर्म-दर्शन सम्बन्ध है वही व्याप्ति है। इस सम्बन्ध का ग्रहण करने वाला ज्ञान तर्क है-ऊह है। अनुमान-साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है।' साधन का अर्थ है हेतु अथवा सिंग। साधन को देखकर तदविनाभावी साध्य का ज्ञान करना अनुमान है। उदाहरण के लिए धूम, जो कि अग्नि का साधन है, उसे देखकर अग्नि, जो कि साध्य है, उसका ज्ञान करना अनुमान है। साधन और साध्य के बीच अविनाभाव सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। अविनाभाव का अर्थ है किसी के बिना न होना। जो चीज जिसके बिना नहीं हो सकती उस चीज के होने पर उसका होना अविनाभाव के कारण है। धूम अग्नि के बिना नहीं हो सकता। धूम के होने पर अग्नि का होना अविनाभाव के कारण है। अनुमान दो प्रकार का है-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। __स्वार्थानुमान-साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से रहने वाले स्वनिश्चित साधन से साध्य का ज्ञान करना स्वार्थानुमान है।' अविनाभाव का एक और लक्षण देखिए। सहभावी और क्रमभावी कार्यों का क्रमभाव और सहभावविषयक जो नियम है वह अविनाभाव है। कुछ कार्य सहभावी होते हैं और कुछ क्रमभावी। रूप और रस सहभावी हैं। रूप को १. साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् । -वही, १.२.७. २. स्वार्थ स्वनिश्चितसाध्याविनाभावकलक्षणात् साधनात साध्य ज्ञानम् । -प्रमाणमीमांसा, १.२.६. ३. सहक्रमभाविनो: सहक मभावनियमोऽविनाभावः । -वही,१.२.१० Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३२५ देखकर रस का अनुमान करना अथवा रस- दर्शन से रूप का अनुमान करना सहभावी अविनाभाव है। एक के होने पर दूसरे का होना क्रमभाव है । कृत्तिका के उदित होने पर शकट का उदय होना क्रमभावी अविनाभाव है । कारण और कार्य का सम्बन्ध भी कमभाव के अन्तर्गत आता है । अग्नि से धूम की उत्पत्ति क्रमभावी अविनाभाव है । इस प्रकार के अविनाभाव का जब व्यक्ति स्वतः ज्ञान करता है और साध्य के साथ अविनाभावी साधन को देखकर स्वयं साध्य का अनुमान करता है तब जो ज्ञान पैदा होता है वह स्वार्थानुमान है। स्वार्थानुमान के लिए एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहता । साधन को देखकर साध्य का अनुमान व्यक्ति स्वयं कर लेता है । इसलिए इस प्रकार के अनुमान का नाम 'स्वार्थानुमान' अर्थात् 'अपने लिए अनुमान' है । I साधन -- साधन कितने प्रकार के हैं, इस पर भी जरा विचार कर लें | आचार्य हेमचन्द्र ने पाँच प्रकार के साधन माने हैं। ये पाँच प्रकार हैं- स्वभाव, कारण, कार्य, एकार्थसमवायी और विरोधी । " वस्तु का स्वभाव ही जहाँ साधन ( हेतु ) बनता है वह स्वभावसाधन है । 'अग्नि जलाती है क्योंकि वह उष्णस्वभाव है,' 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह कार्य हैं' आदि स्वभावसाधन या स्वभावहेतु के उदाहरण हैं । अमुक प्रकार के मेघ देखकर वर्षा का अनुमान करना कारण साधन है । जिस प्रकार के बादलों के नभ में आने पर वर्षा होती है वैसे बादलों को देखकर वर्षा होने का अनुमान १. स्वभाव: कारणं कार्यमेकार्थसमवायि विरोधि चेति पंचधा साधनम् । - प्रमाणमीमांसा, १.२.१२. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैन धर्म-दर्शन करना कारण से कार्य का अनुमान है । साधारण से कारण को देखकर कार्य का अनुमान नहीं किया जाता। उसी कारण से कार्य का अनुमान किया जा सकता है जिसके होने पर कार्य अवश्य होता है। बाधक कारणों का अभाव और साधक कारणों की सत्ता ये दोनों आवश्यक हैं। किसी कार्यविशेष को देखकर उसके कारण का अनुमान करना कार्य-साधन है। प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण होता है । बिना कारण के कात्पित्ति नहीं हो सकती। कारण और कार्य के सम्बन्ध का ज्ञान होने पर ही कार्य को देखकर कारण का अनुमान हो सकता है। नदी में बाढ़ आती हुई देखकर यह अनुमान करना कि कहीं पर जोरदार वर्षा हई है, कार्य से कारण का अनुमान है। धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करना भी कार्य से कारण का अनुमान है। एक अर्थ में दो या अधिक कार्यो का एक साथ रहना एकार्थ-समवाय है। एक ही फल में रूप और रस साथ-साथ रहते हैं। रूप को देखकर रस का अनुमान करना या रस को देखकर रूप का अनुमान करना एकार्थ-समवाय का उदाहरण है। रप और रस म न कार्य-कारण भाव है, न रूप और रस का एक स्वभाव है। इन दोनों की एकत्रस्थिति एकार्थसमवाय के कारण है। किसी विरोधी भाव से किसी के अभाव का अनुमानविरोधी साधन से होने वाला अनुमान है। 'यहाँ पर ठण्ड नहीं है क्योंकि अग्नि जल रही है', 'यहाँ पर अग्नि का अभाव है पयाकि ठग लग रही है' आदि विरोधी साधन के उदाहरण हं । अग्नि और गाइक का परस्पर विरोध है, इसलिए एक के होने पर दूगरी नहीं हो सकती । विरोधी की मात्रा ठीक-ठीक Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३२७ होने पर ही विरोधी साधन का प्रयोग हो सकता है। अग्नि की छोटी-सी चिनगारी से ठण्डक के अभाव का अनुमान नहीं किया जा सकता । खूब अग्नि होने पर ही ठण्डक के अभाव का अनुमान करना सम्यक है। परार्थानुमान-साधन और साध्य के अविनाभाव सम्बन्ध के कथन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान परार्थानुमान है।' स्वार्थानुमान का विवेचन करते समय हमने देखा है कि वह व्यक्ति में दूसरे की सहायता के बिना ही उत्पन्न होता है। परार्थानुमान इससे विपरीत है । एक व्यक्ति ने स्वयं साधन और साध्य के अविनाभाव का ग्रहण किया है और दूसरा व्यक्ति ऐसा है जिसे इस सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है । पहला व्यक्ति अपने ज्ञान का प्रयोग दूसरे व्यक्ति को समझाने के लिए करता है । उसके कथन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान परार्थानुमान है । यह अनुमान उसके लिए नहीं है जो साधन और साध्य के सम्बन्ध से परिचित है अपितु उसके लिए है जिसे इस सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है, अतः इसका नार परार्थानुमान है। परार्थानुमान ज्ञानात्मक है किन्तु उपचार से उसे बताने वाले वचन को भी परार्थानुमान कहा गया है । ज्ञानात्मक परार्थानुमान की उत्पत्ति वचनात्मक परार्थानुमान पर निर्भर है, इसलिए उपचार से वचन को भी परार्थानुमान कहा जाता है। परार्थानुमान के लिए हेतु का वचनात्मक प्रयोग दो तरह से हो सकता है। साध्य के होने पर ही साधन का होना बताने वाला एक प्रकार है। साध्य के अभाव में साधन का न होना १. यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्थम् । -प्रमाणमीमांसा, २.१.१. २. पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३ २३. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन बताने वाला दूसरा प्रकार है। ये दोनों प्रकार एक ही भाव को बताने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। जिस अर्थ का प्रतिपादन पहला प्रकार करता है उसी अर्थ का प्रतिपादन दूसरा प्रकार भी करता है। अन्तर है केवल वाक्यरचना का। दोनों प्रकार के वचनों का प्रयोग कैसे होता है, इसे उदाहरण द्वारा देख लें। पर्वत में अग्नि है, क्योंकि अग्नि के होने पर ही धूम हो सकता है। अग्नि-रूप साध्य की सत्ता होने पर ही धूमरूप साधन की उत्पत्ति हो सकती है। यह पहला प्रकार है। इसी अर्थ का प्रतिपादन दूसरी तरह से हो सकता है। पर्वत में अग्नि है, क्योंकि अग्नि के अभाव में धूम नहीं हो सकता। अग्निरूप साध्य के अभाव में धूमरूप साधन के अभाव का प्रतिपादन करने वाला दूसरा प्रकार है।। परार्थानुमान के अवयव-अवयव के विषय में दार्शनिकों में मतभेद है । सांख्य परार्थानुमान के तीन अवयव मानते हैं-पक्ष, हेतु और उदाहरण । मीमांसक चार अवयवों का प्रयोग उचित समझते हैं—पक्ष, हेतु, उदाहरण और उपनय । नैयायिक पाँच अवयवों का प्रयोग आवश्यक मानते हैं-पक्ष, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । जैन दार्शनिक कितने अवयव अनिवार्य मानते हैं, इसका विश्लेषण आगमकालीन अवयव-चर्चा में किया जा चुका है। ज्ञानवान् को समझाने के लिए पक्ष और हेतु ही काफी हैं। मन्द बुद्धि वाले व्यक्ति को समझाने के लिए दस अवयवों तक का प्रयोग किया जा सकता है। साधारणतया पाँच अवयवों का प्रयोग होता है, अतः इनका स्वरूप समझ लेना ठीक होगा। प्रतिज्ञा-साध्य का निर्देश करना प्रतिज्ञा है। जिस बात १. साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा। -प्रमाणमीमांसा, २.१.११. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३२६ को हम सिद्ध करना चाहते हैं उसका प्रथम निर्देश प्रतिज्ञा है। इससे यह मालूम हो जाता है कि हमारा साध्य क्या है। हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। प्रतिज्ञा को पक्ष भी कहते हैं। 'इस पर्वत में अग्नि है' यह प्रतिज्ञा या पक्ष का उदाहरण है।। हेतु-साधनत्व को अभिव्यक्त करने वाला वचन हेतु है।' संस्कृत में पंचमी या तृतीया विभक्ति के साथ समाप्त होने वाला साधनवाचक वचन हेतु कहलाता है। हिन्दी में क्योंकि, चूकि आदि शब्दों से साधन का प्रतिपादन होता है। 'इस पर्वत में अग्नि है क्योंकि इसमें धूम है' यह हेतु का उदाहरण है। इसी को अधिक स्पष्ट किया जा सकता है क्योंकि अग्नि के होने पर ही धूम हो सकता है अथवा अग्नि के अभाव में धूम नहीं हो सकता। साधन और साध्य के सम्बन्ध को दिखाते हुए इसका प्रयोग किसी भी प्रकार किया जा सकता है। उदाहरण-हेतु को अच्छी तरह समझाने के लिए दृष्टान्त का प्रयोग करना उदाहरण है। उदाहरण का प्रयोग दो तरह से हो सकता है-साधर्म्य और वैधर्म्य । सादृश्य बताने वाले उदाहरण का प्रयोग करना साधम्र्योदाहरण है। 'जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है-जैसे पाकशाला' यह साधर्म्य दृष्टान्त है। वैधर्योदाहरण में विसदृशता को प्रकट करने वाला दृष्टान्त दिया जाता है। 'जहाँ पर अग्नि नहीं होती वहाँ पर धूम नहीं होता-जैसे जलाशय' यह वैधर्म्यदृष्टान्त है । दोनों में से किसी एक का प्रयोग करना चाहिए। १. साधनत्वाभिव्यंज विभक्त्यन्तं साधनवचनं हेतु: ।। --प्रमाणमीमांसा, २.१.१२. २. दृष्टान्तवचनमुदाहरणम् । -वहा, २.१.१३. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन उपनय-हेतु का धर्मी में उपसंहार करना उपनय है।' जहाँ साध्य रहता है वह धर्मी कहलाता है। इस पर्वत में अग्नि है। यहाँ अग्नि साध्य है और पर्वत धर्मी है, क्योकि अग्निरूप साध्य पर्वत में रहता है। हेतु का धर्मी में उपसंहार करना अर्थात् “यह हेतु इस धर्मी में है। इस प्रकार के वचन का प्रयोग करना उपनय है। अग्नि की सिद्धि के लिए धूम हेतु दिया गया है। 'इस पर्वत में धूम है' यह उस हेतु का उपसंहार है । यही उपनय है। निगमन-साध्य का पुनर्कथन निगमन है । प्रतिज्ञा के समय जो साध्य का निर्देश किया जाता है उसको उपसंहार के रूप में पुनः दोहराना निगमन कहलाता है। यह अन्तिम निर्णयरूप कथन है । इसलिए यहाँ अग्नि है' यह कथन निगमन का उदाहरण है। इन पाँचों अवयवों को ध्यान में रखते हुए परार्थानुमान का पूर्ण रूप इस प्रकार होगा____ इस पर्वत में अग्नि है, क्योंकि इसमें धूम है, जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है-जैसे पाकशाला (साधर्म्य दृष्टान्त) तथा जहाँ पर अग्नि नहीं होती वहाँ पर धूम नहीं होताजैसे जलाशय ( वैधर्म्य दृष्टान्त ), इस पर्वत में धूम है, इसलिए यहाँ अग्नि है। __आगम -आप्त पुरुष के वचन से आविर्भूत होने वाला अर्थ १. हेतोः साध्यमिण्युपसंहरणमुपनयः यथा धूमश्चात्रप्रदेशे । -प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.४६-५० , २. साध्यधर्मस्य पुननि गमनम । यथा तस्मादग्निरत्र ।। -वही, ३.५१-५२ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमासा संवेदन आगम है।' आप्त पुरुष का अर्थ है तत्त्व को यथावस्थित जानने वाला व तत्त्व का यथावस्थित निरूपण करने वाला । रागद्वेषादि दोषों से रहित पुरुष ही आप्त हो सकता है, क्योंकि वह मिथ्यावादी नहीं हो सकता। ऐसे पुरुष के वचनों से होने वाला ज्ञान आगम कहलाता है। उपचार से आप्त के वचनों का संग्रह भी आगम है। परार्थानुमान और आगम में यही अन्तर है कि परार्थानुमान के लिए आप्तत्व आवश्यक नहीं है, जब कि आगम के लिए आप्तत्व अनिवार्य है। अमुक पुरुष आप्त है इसीलिए उसके वचन प्रमाण हैं। उनके प्रामाण्य के लिए अन्य कोई हेतु नहीं। परार्थानुमान के लिए हेतु का आधार आवश्यक है। हेतु की सचाई पर ज्ञान की सचाई निर्भर है। लौकिक और लोकोत्तर के भेद से आप्त दो प्रकार के होते हैं। साधारण व्यक्ति लौकिक आप्त हो सकते हैं। लोकोत्तर आप्त तीर्थंकरादि विशिष्ट पुरुष ही होते हैं। ____ आगमों, शास्त्रों अथवा ग्रन्थों की प्रामाणिकता का आधार क्या है ? क्या किसी ग्रन्थ को आगम या शास्त्र कह देने मात्र से वह स्वतः प्रामाणिक हो जाता है ? अथवा किसी ग्रन्थ की गणना शास्त्रों में नहीं की जाने से क्या उसकी प्रामाणिकता स्वतः समाप्त हो जाती है ? किसी ग्रन्थ को शास्त्र क्यों कहा जाता है ? इसलिए कि वह प्रामाणिक है ? यदि प्रामाणिकता के कारण किसी ग्रन्थ को शास्त्र की संज्ञा दी जाती है तो गायों की सख्या असीमित हो जायेगी क्योंकि विश्व में ऐसे जनक ग्रन्थ लिखे गये हैं, लिख जा रहे हैं और लिखे जायेंगे जो पूर्णतः प्रामाणिक हैं अर्थात् जिनकी प्रामाणिकता सर्वसम्मत है। उदाहरण के तौर पर भाषा, गणित, विज्ञान, भूगोल, १. आप्तवचनादाविभूतमर्थ संवेदनमागमः । -वही, ४.१. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैन धर्म-दर्शन इतिहास, संविधान आदि अनेक विषयों के अनगिनत ऐसे छोटेबड़े ग्रन्थ मिल सकेंगे जो सर्वानुमत हों अर्थात् जिनकी प्रामाणिकता सब मानते हों। क्या उन सब ग्रन्थों को शास्त्र नहीं कह सकेंगे ? विपरीत इसके ऐसे अनेक शास्त्रसंज्ञक ग्रन्थ मिलेंगे जिनकी प्रामाणिकता अंशतः अथवा पूर्णतः खंडित हो चुकी है। ऐसी अवस्था में किसी ग्रन्थ को शास्त्र नाम मिल जाने मात्र से वह प्रामाणिक नहीं हो जाता । इसी प्रकार कोई ग्रन्थ केवल इसलिए अप्रामाणिक नहीं हो जाता कि उसकी शास्त्र संज्ञा नहीं है । किसी ग्रन्थ की शास्त्र संज्ञा होना या न होना उसकी प्राचीनता, प्रसिद्धि ग्रन्थकार का व्यक्तित्व, अनुयायियों की श्रद्धा, परम्परा का प्रभाव आदि अनेक बातों पर निर्भर है। यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक शास्त्र नामधारी ग्रन्थ प्रामाणिक ही हो तथा प्रत्येक इतर ग्रन्थ अप्रामाणिक ही हो । शास्त्र भी अंशत: अथवा पूर्णत प्रामाणिक एवं अप्रामाणिक हो सकते हैं तथा अन्य ग्रन्थ भी । समस्त ग्रन्थों की प्रामाणिकता - अप्रामाणिकता तद्-तद्गत गुण-दोषों पर निर्भर है । प्रामाणिकता अप्रामाणिकता का आधार व्यक्ति के प्रत्यक्षादि ज्ञानसाधन हैं जिनकी सहायता से अनेक बातें निर्विवाद रूप से सिद्ध होती हैं । पूर्वाग्रहहित मध्यस्थ भाव से किसी तथ्य को स्वीकार करनेवाला जनसमुदाय प्रत्यक्षादिसिद्ध बातों को सहज तौर से स्वीकार कर लेता है। यदि ऐसे लोगों द्वारा मान्य प्रत्यक्षादिसिद्ध सिद्धान्तों एवं तथ्यों को भी सत्य न माना जाय तो सत्य की सार्वजनीन कसौटी ही समाप्त हो जाय । जो तथ्य स्पष्ट नहीं हैं अथवा संदिग्ध हैं उनके विषय में विवाद अथवा मान्यता- भेद के लिए पूर्ण अवकाश है किन्तु जो बातें सुस्पष्ट हैं, सुसिद्ध हैं, सुप्रत्यक्ष हैं, सुविदित हैं, सुमान्य हैं उनके Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ३३३ का बारे में केवल कल्पनाजन्य तर्कों अथवा शास्त्रों एवं ग्रन्थों की सहायता से अन्यथा मत निर्धारण करना निरर्थक है । ___ अधिकांश प्राचीन शास्त्रों अथवा ग्रन्थों में जो सामग्री रहती है वह प्रायः तीन आधारों पर आवृत होती है : १. परम्परा, २. स्वानुभव, ३. विचार अथवा कल्पना । आधुनिक ग्रन्थों में भी इस प्रकार की सामग्री उपलब्ध होती है। जो सामग्री परम्परा से प्राप्त होती है वह उस समय तक चली आनेवाली मान्यताओं एवं सिद्धान्तों को प्रस्तुत करती है। संभव है कि वे सब या कुछ मान्यताएं अथवा सिद्धान्त पूर्णतः अथवा अंशतः मिथ्या सिद्ध हो जाएं क्योंकि उनका निर्माण निर्दोष अनुभव, प्रयोग अथवा विचार पर न हुआ हो। ऐसा स्थिति में नयी खोजों अथवा नये अनुभवों के कारण किसी शास्त्र अथवा ग्रन्थ की प्रामाणिकता अंशतः अथवा पूर्णतः दूषित हो जाए तो इसे अस्वाभाविक नहीं समझना चाहिए। हाँ, नये अनुभवों एवं नयी खोजों का साधार एवं सुनिश्चित होना आवश्यक है। स्वानुभव के आधार पर प्राप्त सामग्री का विशेष महत्त्व होता है। यदि शास्त्रकार अथवा ग्रन्थकार का अनुभव निर्दोष एवं निर्विकार होता है तो उस अनुभव, ज्ञान अथवा प्रतीति का प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से खण्डन नहीं हो सकता। उस ज्ञान के आधार पर निर्मित ग्रन्थ अथवा ग्रन्थांश को किसी भी चुनौती का सामना करने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होती। अधिकतर तो यही होता है कि इस प्रकार के ज्ञान को सब तटस्थ विचारक निर्विवाद स्वीकार करते हैं। यदि कोई वस्तुतः निर्दोष है अर्थात् उसमें किसी प्रकार का राग-द्वेषअज्ञान-प्रमाद-अहंकार-भय नहीं है तो उसका कथन मिथ्या हो Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन ही नहीं सकता। वह जो कुछ कहेगा, यथार्थ ही कहेगा क्योंकि अयथार्थ वचन अथवा ज्ञान के कारणों का उसमें सर्वथा अभाव है। ऐसी स्थिति में उसके वचन जिसमें समाविष्ट हैं वह ग्रन्थ मिथ्या कैसे हो सकता है ? उस ग्रन्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणों से खण्डन कैसे हो सकता है ? यदि किसी शास्त्र अथवा ग्रन्थ में वर्णित एवं प्रतिपादित बातों का प्रत्यक्षादि ज्ञानसाधनों से निरसन होता है तो समझना चाहिए कि वह कथन किसी सदोष व्यक्ति का है, निर्दोष व्यक्ति का नहीं। निर्दोष व्यक्ति का कथन किसी भी प्रमाण से खण्डित नहीं हो सकता। विचार अथवा कल्पना के आधार पर भी ग्रन्थ अथवा ग्रन्थांश का निर्माण होता है। यदि इस प्रकार का कथन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविरुद्ध है तो उसे सहज ही स्वीकार किया जा सकता है। विचारों की गति निर्दोष होने पर उनके आधार पर निकलने वाला निष्कर्ष भी निर्दोष होता है। विचारों में दोष होने पर तज्जन्य निष्कर्ष भी सदोष होता है। यही सिद्धान्त कल्पना पर भी लागू होता है। किसी शास्त्र अथवा ग्रन्थ की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की कसौटी तद्गत सामग्री ही है। वह सामग्री जितने अंशों में प्रमाणपुरःसर होगी उतने ही अंशों में वह शास्त्र अथवा ग्रन्थ भी प्रामाणिक होगा। सामग्री की परीक्षा किये बिना शास्त्र अथवा ग्रन्थ की प्रामाणिकता का निर्णय नहीं किया जा सकता। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के पूर्व कुछ स्वप्न आये थे, ऐसा भगवतीसूत्र में उल्लेख है। उन स्वप्नों में से एक स्वप्न इस प्रकार है-चित्र-विचित्र पंखों वाले एक बड़े पुस्कोकिल को स्वप्न में देखकर वे प्रतिबुद्ध हुए।' इस स्वप्न का क्या फल है, इसका विवेचन करते हुए कहा गया है कि श्रमण भगवान् महावीर ने जो चित्र-विचित्र पुस्कोकिल स्वप्न में देखा है उसका फल यह है कि वे स्वपरसिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले विचित्र द्वादशांग गणिपिटक का उपदेश देंगे। इस वर्णन को पढ़ने से यह मालूम होता है कि शास्त्रकार ने कितने सुन्दर ढंग से एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। चित्रविचित्र पंखवाला पुस्कोकिल कौन है ? यह स्याद्वाद का प्रतीक है। जैन दर्शन के प्राणभूत सिद्धान्त स्याद्वाद का कैसा सुन्दर चित्रण है ! वह एक वर्ण के पंख वाला कोकिल नहीं है अपितु चित्रविचित्र पंख वाला कोकिल है। जहाँ एक ही तरह के पंख होते हैं वहाँ एकान्तवाद होता है, स्याद्वाद या अनेकान्तवाद नहीं। जहाँ विविध वर्ण के पंख होते हैं वहाँ १. एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । -भगवतीसूत्र, १६.६. २. जपणं समणं भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्तं जाव पडिबद्ध तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरसमइयं दुवालसंग गणिपिडगं आघवेति पन्नवेति परूवेति । --वही. mational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैन धर्म-दर्शन अनेकान्तवाद या स्याद्वाद होता है, एकान्तवाद नहीं। एक वर्ण के पंख वाले और चित्रविचित्र पंख वाले कोकिल में यही अन्तर है। तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है, यह बात पहले लिखी जा चुकी है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वस्तु के चिन्न विचित्र पंख हैं। महावीर ने इसी प्रकार के तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया। उन्होंने वस्तु के स्वरूप का सभी दृष्टियों से प्रतिपादन किया। जो वस्तु नित्य मालूम होती है वह अनित्य भी है । जो वस्तु क्षणिक प्रतीत होती है वह नित्य भी है। नित्यता और अनित्यता दोनों एक-दूसरे का स्वरूप समझने के लिए आवश्यक हैं। जहाँ नित्यता की प्रतीति होती है वहाँ अनित्यता अवश्य रहती है। अनित्यता के अभाव में नित्यता की पहचान ही नहीं हो सकती। इसी प्रकार अनित्यता का स्वरूप समझने के लिए नित्यता की प्रतीति अनिवार्य है । यदि पदार्थ में ध्रौव्य या नित्यता नहीं है तो अनित्यता की प्रतीति ही नहीं हो सकती। नित्यता और अनित्यता सापेक्ष हैं। एक की प्रतीति द्वितीय की प्रतीतिपूर्वक ही होती है। अनेकानेक अनित्य प्रतीतियों के बीच जहाँ एक स्थिर प्रतीति होती है वही नित्यत्व या ध्रौव्य की प्रतीति है। ध्रौव्य या नित्यत्व का महत्त्व तभी मालूम होता है जब उसके साथ में अनेक अनित्य प्रतीतियाँ होती हैं । अनित्य प्रतीति के न होने पर 'यह नित्य है। ऐसा ज्ञान ही नहीं हो सकता। जहाँ नित्यता की प्रतीति नहीं है वहाँ 'यह अनित्य है' ऐसा भान ही नहीं हो सकता। नित्यता और अनित्यता दोनों की प्रतीतियाँ स्वभाव से ही परस्पर सम्बद्ध हैं। जहाँ एक प्रतीति होगी वहाँ दूसरी अवश्य होगी। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद __३३७ विभज्यवाद एवं अनेकान्तवाद : ___ मज्झिमनिकाय' में माणवक के प्रश्न के उत्तर में बुद्ध कहते हैं : 'हे माणवक ! मैं विभज्यवादी , एकांशवादी नहीं।' माणवक का प्रश्न था : 'भगवन् ! मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रवजित नहीं । इस विषय में आप क्या कहते हैं ?' बुद्ध ने उत्तर दिया : 'गृहस्थ भी यदि मिथ्यावादी है तो निर्वाणमार्ग का आराधक नहीं हो सकता और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाणमार्ग की आराधना नहीं कर सकता। दोनों यदि सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं तो दोनों आराधक हो सकते हैं।' यह उत्तर विभज्यवाद का उदाहरण है। किसी प्रश्न का उत्तर एकान्तरूप से दे देना कि यह ऐसा ही है अथवा यह ऐसा है ही नहीं, एकांशवाद है। बुद्ध ने गृहस्थ और त्यागी की आराधना के प्रश्न को लेकर विभाजनपूर्वक उत्तर दिया, एकान्तरूप से नहीं, इसीलिए बुद्ध ने अपने आपको विभज्यवादी कहा है, एकांशवादी नहीं। सूत्रकृतांग में भी ठीक इसी शब्द का प्रयोग है। भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, इसके उत्तर में कहा गया है कि भिक्षु 'विभज्यवाद' का प्रयोग करे ।२ जैन दर्शन में इस शब्द का अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद किया जाता है । जिस दृष्टि से जिस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता हो उस दृष्टि से उसका उत्तर देना स्याद्वाद है। किसी एक अपेक्षा से इस प्रश्न का यह उत्तर हो सकता है। किसी दूसरी अपेक्षा से इसी प्रश्न का यह उत्तर भी हो सकता है। इस प्रकार एक प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं। इसी दृष्टि को स्याद्वाद, सापेक्षवाद, १. सुत्त ६६. २. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा-१.१४.२२. २२ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैन धर्म-दर्शन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद कहते हैं। बुद्ध का विभज्यवाद उतना आगे नहीं बढ़ सका जितना कि महावीर का विभज्यवाद अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के रूप में आगे बढ़ गया। महावीर ने इस दृष्टि पर बहुत भार दिया, जबकि बुद्ध ने यथावसर उसका प्रयोग तो कर लिया परन्तु उसे विशेष महत्त्व न दिया। बुद्ध के विभज्यवाद और महावीर के अनेकान्तवाद में कितनी अधिक समानता है, इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण दिये जाते हैं : जयन्ती-भगवन् ! सोना अच्छा है या जागना ? महावीर-जयन्ति ! कुछ जीवों का सोना अच्छा है और कुछ जीवों का जागना अच्छा है । जयन्ती-यह कैसे? महावीर-जो जीव अधर्मी हैं, अधर्मानुग हैं, अधर्मिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररञ्जन हैं, अधर्मसमाचार हैं, अधार्मिक वृत्तियुक्त हैं वे सोते रहें, यही अच्छा है, क्योंकि यदि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा नहीं होगी। इस प्रकार वे स्व, पर और उभय को अधार्मिक क्रिया में नहीं लगाएंगे, अतएव उनका सोना अच्छा है । जो जीव धार्मिक हैं, धर्मानुग हैं, यावत् धार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका जागना अच्छा है, क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। स्व, पर और उभय को धार्मिक कार्य में लगाते हैं । अतएव उनका जागना अच्छा है। ___जयन्ती-भगवन् ! बलवान् होना अच्छा है या निर्बल होना ? महावीर-जयन्ति ! कुछ जीवों का बलवान् होना अच्छा है और कुछ जीवों का निर्बल होना अच्छा है । . Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद जयन्ती-यह कैसे ? महावीर-जो जीव अधार्मिक हैं यावत् अधार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका निर्बल होना अच्छा है, क्योंकि यदि वे बलवान् होंगे तो अनेक जीवों को कष्ट देंगे। जो जीव धार्मिक हैं यावत् धार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका बलवान् होना अच्छा है, क्योंकि वे बलवान होने से अधिक जीवों को सुख देंगे।' गौतम-भगवन् ! जीव सकम्प हैं या निष्कम्प ? महावीर-गौतम ! जीव सकम्प भी हैं और निष्कम्प भी। गौतम--यह कैसे ? महावीर-जीव दो प्रकार के हैं : संसारी और मुक्त । मुक्त जीव दो प्रकार के हैं : अनन्तर सिद्ध और परम्पर सिद्ध । परम्पर सिद्ध निष्कम्प हैं और अनन्तर सिद्ध सकम्प । संसारी जीवों के भी दो भेद हैं : शैलेशी और अशैलेशी। शैलेशी जीव निष्कम्प होते हैं और अशैलेशी सकम्प । गौतम-जीव सवीर्य हैं या अवीर्य । महावीर-जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी। गौतम-यह कैसे ? महावीर-जीव दो प्रकार के हैं : संसारी और मुक्त । मुक्त तो अवीर्य हैं। संसारी जीव दो प्रकार के हैं : शैलेशीप्रतिपत्र और अशैलेशीप्रतिपन्न । शैलेशीप्रतिपन्न जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा से सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा से अवीर्य हैं। १. भगवतीसूत्र, १२.२.४४३. २. वही, २५. ४. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैन धर्म-दर्शन अशैलेशीप्रतिपन्न जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा से सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा से सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी। जो जीव पराक्रम करते हैं वे करणवीर्य की अपेक्षा से सवीर्य हैं। जो जीव पराक्रम नहीं करते वे करणवीर्य की अपेक्षा से अवीर्य हैं।' गौतम-यदि कोई यह कहे कि मैं सर्वप्राण, सर्वभूत, सर्वजीव, सर्वसत्त्व की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूं तो उसका यह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान ? महावीर-कथंचित् सुप्रत्याख्यान है और कथंचित् दुष्प्रत्याख्यान है। गौतम-यह कैसे? महावीर--जो यह नहीं जानता कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये स हैं और ये स्थावर, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है । वह मृषावादी है। जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस हैं और ये स्थावर, उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। वह सत्यवादी है। महावीर की दृष्टि का पता लगाने के लिए ये संवाद काफी हैं । बुद्ध ने आराधना को लेकर जिस प्रकार विभाजनपूर्वक उत्तर दिया, महावीर ने भी ठीक उसी शैली से अपने शिष्यों की शंका का समाधान किया। जो प्रश्न पूछा गया उसका विश्लेषण किया गया कि इस प्रश्न का क्या अर्थ है। किस दृष्टि से इसका क्या उत्तर दिया जा सकता है। जितनी दृष्टियाँ सामने आई उतनी दृष्टियों से प्रश्न का समाधान किया गया। एक १. वही, १. ८. ७२. २. वही, ७. २. १७०. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३४१ दृष्टि से ऐसा हो भी सकता है, दूसरी दृष्टि से सोचने पर ऐसा नहीं भी हो सकता। हो सकता है वह कैसे, और नहीं हो सकता है वह कैसे ? प्रश्नोत्तर की यह शैली विचारों को सुलझानेवाली शैली है । इस शैली से किसी वस्तु के अनेक पहलुओं का ठीकठीक पता लग जाता है। उसका विश्लेषण एकांगी, एकांशी या एकान्त नहीं होने पाता । बुद्ध ने इस दृष्टि को विभज्यवाद का नाम दिया । इससे विपरीत दृष्टि को एकांशवाद कहा। महावीर ने इसी दृष्टि को अनेकान्तवाद और स्याद्वाद कहा। इससे विपरीत दृष्टि को एकान्तवाद का नाम दिया। बुद्ध और बुद्ध के अनुयायियों ने इस दृष्टि का पूरा पीछा नहीं किया। महावीर और उनके अनुयायियों ने इस दृष्टि को अपनी विचार-सम्पत्ति समझकर उसकी पूरी रक्षा की तथा दिन-प्रतिदिन उसे खूब बढ़ाया।) . एकान्तवाद और अनेकान्तवाद : (9) एकान्तबाद किसी एक दृष्टि का ही समर्थन करता है। यह कभी सामान्य या विशेष के रूप में मिलता है तो कभी सत् या असत् के रूप में । कभी निर्वचनीय या अनिर्वचनीय के रूप में दिखाई देता है तो कभी हेतु या अहेतु के रूप में । जो लोग सामान्य का ही समर्थन करते हैं वे अभेदवाद को ही जगत् का मौलिक तत्व मानते हैं और भेद को मिथ्या कहते हैं । उसके विरोधी रूप भेदवाद का समर्थन करने वाले इससे विपरीत सत्य का प्रतिपादन करते हैं। वे अभेद को सर्वथा मिथ्या समझते हैं और भेद को ही एकमात्र प्रमाण मानते हैं । सद्वाद का एकान्तरूप से समर्थन करने वाले किसी भी कार्य की उत्पत्ति या विनाश को वास्तविक नहीं मानते । वे कारण और कार्य में भद का दर्शन नहीं करते। दूसरी ओर असद्वाद के समर्थक Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षणात आप विश्व ३४२ जैन धर्म-दर्शन हैं। वे प्रत्येक कार्य को नया मानते हैं। कारण में कार्य नहीं रहता, अपितु कारण से सर्वथा भिन्न एक नया ही तत्त्व उत्पन्न होता है । कुछ एकान्तवादी जगत् को अनिर्वचनीय समझते हैं । उनके मत से जगत् न सत् है, न असत् है। दूसरे लोग जगत् का निर्वचन करते हैं। उनकी दृष्टि से वस्तु का निर्वचन करना अर्थात् लक्षणादि बताना असम्भव नहीं। इसी तरह हेतुवाद और अहेतुवाद भी आपस में टकराते हैं । हेतुवाद का समर्थन करने वाले तर्क के बल पर विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं कि तर्क से सब कुछ जाना जा सकता है। जगत् का कोई भी पदार्थ तर्क से अगम्य नहीं। इस वाद का विरोध करते हुए अहेतुवादी कहते हैं कि तर्क से तत्त्व का निर्णय नहीं हो सकता। तत्त्व तर्क से अगम्य है। एकान्तवाद की छत्रछाया में पलने वाले ये वाद हमेशा जोड़े के रूप में मिलते हैं । जहाँ एक प्रकार का एकान्तवाद खड़ा होता है वहाँ उसका विरोधी एकान्तवाद तुरन्त मुकाबले में खड़ा हो जाता है। दोनों की टक्कर प्रारम्भ होते देर नहीं लगती। यह एकान्तवाद का स्वभाव है। इसके बिना एकान्तवाद पनप ही नहीं सकता। एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार को देखकर कुछ लोगों के मन में विचार आया कि इस क्लेश का मूल कारण क्या है ? सत्यता का दावा करने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष आपस में इतने लड़ते क्यों हैं ? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो दोनों में विरोध क्यों ? इससे मालूम होता है कि दोनों पूर्णरूप से सत्य तो नहीं हैं । तब क्या दोनों पूर्ण मिथ्या हैं ? ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि ये जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं उसकी प्रतीति अवश्य होती है। बिना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद में इनका क्या स्थान है ? ये दोनों अंशतः सत्य हैं और अंशतः मिथ्या । एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश में झूठा है। इसीलिए उनमें परस्पर कलह होता है। एक पक्ष समझता है कि मैं पूरा सच्चा हूँ और मेरा प्रतिपक्षी बिल्कुल झूटा है। दूसरा पक्ष भी ठीक यही समझता है। यही कलह का मूल कारण है। - जैन दर्शन इस सत्य से परिचित है। वह मानता है कि 'वस्तु में अनेक धर्म हैं। इन धर्मों में से किसी भी धर्म का अपलाप नहीं किया जा सकता। जो लोग एक धर्म का अपलाप करके दूसरे धर्म का समर्थन करते हैं वे एकान्तवाद की चक्की में पिस जाते हैं। वस्तु कथंचित् भेदात्मक है, कथंचित् अभेदात्मक है; कथंचित् सत्कार्यवाद के अन्तर्गत है, कथंचित् असत्कार्यवाद के अन्तर्गत है; कथंचित् निर्वचनीय है, कथंचित् अनिर्वचनीय है; कथंचित् . तर्कगम्य है, कथंचित् तांगम्य है। प्रत्येक दृष्टि की एवं प्रत्येक धर्म की एक मर्यादा है। उसका उल्लंघन न करना ही सत्य के साथ न्याय करना है। जो व्यक्ति इस बात को न समझकर अपने आग्रह को जगत् का तत्त्व मानता है वह भ्रम में है। उसे तत्त्व के पूर्ण रूप को देखने का प्रयत्न करना चाहिए। जब तक वह अपने एकान्तवादी आग्रह का त्याग नहीं करता तब तक तत्त्व का पूर्ण स्वरूप नहीं समझ सकता । किसी वस्तु के एक धर्म को तो सर्वथा सत्य मान लेना और दूसरे धर्म को सर्वथा मिथ्या कहना वस्तु की पूर्णता को खंडित करना है। परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्म अवश्य ही एक-दूसरे के विरोधी हैं, किन्तु सम्पूर्ण वस्तु के विरोधी नहीं हैं वस्तु तो दोनों को समानरूप से आश्रय देती है। यही दृष्टि स्याद्वाद है, अनेकान्तवाद है, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैन धर्म-दर्शन सापेक्षवाद है । परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है ? पदार्थ में वे किस ढंग से रहते हैं ? हमारी प्रतीति से उनका क्या साम्य है ? इत्यादि प्रश्नों का आगमों के आधार पर विचार करें । नित्यता और अनित्यता : बुद्ध के विभज्यवाद का स्वरूप हम देख चुके हैं । कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें बुद्ध ने अव्याकृत कहा है । वे प्रश्न विभज्यवाद के अन्तर्गत नहीं आते। ऐसे प्रश्नों के विषय में बुद्ध ने न 'हाँ' कहा, न 'ना' कहा । लोक की नित्यता और अनित्यता के विषय में भी बुद्ध का यही दृष्टिकोण है ।" महावीर ने ऐसे प्रश्नों के विषय में मौन धारण करना उचित न समझा । उन्होंने उन प्रश्नों का विविधरूप से उत्तर दिया । लोक नित्य है या अनित्य ? इस प्रश्न का उत्तर महावीर ने यों दिया जमालि ! लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं मिल सकता जब लोक न हो, अतएव लोक शाश्वत है । लोक सदा एकरूप नहीं रहता । वह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में बदलता रहता है। अतएव लोक अशाश्वत भी है । महावीर ने प्रस्तुत प्रश्न का दो दृष्टियों से उत्तर दिया है। १. मज्झिमनिकाय, चूलमालंक्यसुत्त. २. असासए चोए जमाली ! जओ ओसप्पिणी भविता उस्सप्पिणी सब उस्राणि भविता ओसपिणी भवइ । - भगवतीसूत्र, ६.६.३८७. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३४५ लोक हमेशा किसी-न-किसी रूप में रहता है, इसलिए वह नित्य है-ध्रुव है-शाश्वत है-अपरिवर्तनशील है। लोक हमेशा एकरूप नहीं रहता। कभी उसमें सुख की मात्रा बढ़ जाती है तो कभी दुःख की मात्रा अधिक हो जाती है । कालभेद से लोक में विविधरूपता आती रहती है। अतः लोक अनित्य है, अशाश्वत है, अस्थिर है, परिवर्तनशील है, अध्रुव है, क्षणिक है। सान्तता और अनन्तता : लोक की सान्तता और अनन्तता के प्रश्न को लेकर भी महावीर ने इसी प्रकार का समाधान किया। . लोक चार प्रकार से जाना जाता है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक असंख्यात योजन कोटाकोटि विस्तार और असंख्यात योजन कोटाकोटि परिक्षेप प्रमाण कहा गया है । इसलिए क्षेत्र की अपेक्षा से लोक सान्त है। काल की अपेक्षा से कोई काल ऐसा नहीं जब लोक न हो, अतःलोक ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है। उसका अन्त नहीं है। भाव की अपेक्षा से लोक के अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, रसपर्याय, स्पर्शपर्याय हैं। अनन्त संस्थानपर्याय हैं, अनन्त गुरुलघुपर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघुपर्याय हैं। उसका कोई अन्त नहीं। इसलिए लोक द्रव्यदृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, कालदृष्टि से अनन्त है, भावदृष्टि से अनन्त हैं।' लोक की सान्तता और अनन्तता का चार दृष्टियों से १. एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पन्नते, तंजहा-दव्या खेत्तो कालो भावओ। दवओ णं एगे लोए सअंते । खेत्तओ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन विचार किया गया है । द्रव्य की दृष्टि से लोक सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है। क्षेत्र की दृष्टि से भी लोक सान्त है, क्योंकि सकल आकाश में के कुछ क्षेत्र में ही लोक है। वह क्षेत्र असंख्यात कोटाकोटि योजन की परिधि में है। काल की दृष्टि से लोक अनन्त है, क्योंकि वर्तमान, भूत और भविष्यत् का कोई क्षण ऐसा नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। भाव की दृष्टि से भी लोक अनन्त है, क्योंकि एक लोक के अनन्त पर्याय हैं । महावीर ने सान्तता और अनन्तता का अपनी दृष्टि से उपयुक्त समाधान किया। बुद्ध ने सान्तता और अनन्तता दोनों को अव्याकृत कोटि में रखा।। . बुद्ध ने जीव की नित्यता और अनित्यता के प्रश्न को भी अव्याकृत कोटि में रखा। महावीर ने इस प्रश्न का स्याद्वाद दृष्टि से समाधान किया। उन्होने मोक्ष-प्राप्ति के लिए इस प्रकार के प्रश्नों का ज्ञान भी आवश्यक माना। आचारांग के प्रारम्भिक कुछ वाक्यों से इस बात का पता लगता है-जब तक यह मालूम न हो जाय कि मैं अर्थात् मेरा जीव एक गति से णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ। आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ। परिक्खेवेणं पन्नत्ता। अत्थि पुण सअंते । कालओ णं लोए ण कयावि न आसी, न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सति, भविसु य भवति य भविस्सइ य, धुवे णितिए सासते अक्खए अन्वा अवट्ठिए णिच्चे, णस्थि पुण से अंते। भावओ णं लोए अणता वण्णपज्जवा · गध० रस० फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणता गुरु य लहु य पउजवा, अणता अगुरु य लहु य पाजवा, नस्थि पुण से अंते। से तं ख दगा ! दवओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सते, कालतो लोए अणते, भावओ लोए अणते । -भगवतीसूत्र, २.१.६०.. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद दूसरी गति में जाता है, जीव कहाँ से आया, कौन था और कहाँ जाएगा, तब तक कोई जीव आत्मवादी नहीं हो सकता, लोकवादी नहीं हो सकता, कर्मवादी नहीं हो सकता और क्रियावादी नहीं हो सकता। ये सब बातें मालूम होने पर ही जीव आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी बन सकता है।' जीव की शाश्वतता और अशाश्वतता के लिए निम्न संवाद देखिए गौतम-भगवन् ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? महावीर-गौतम ! जीव किसी दृष्टि से शाश्वत है, किसी दृष्टि से अशाश्वत है । गौतम ! द्रव्याथिक दृष्टि से शाश्वत है, भावार्थिक दृष्टि से अशाश्वत है। द्रव्यदृष्टि अभेदवादी है और पर्याय दृष्टि भेदवादी है। द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है और पर्यायदृष्टि अर्थात् भावदृष्टि १. इहमेगेसि नो सन्ना भवई तंजहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा........... आगओ अहमसि । एवमेगेसि नो नायं भवइ-अस्थि मे आया उववाइए। नरिथ मे आया उववाइए । के अहं आसी, के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? से जं पुण जाणेज्जा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अनेसि वा अन्तिए सोच्चा तंजहा-पुरथिमाओ....... ....अस्थि मे आया ........से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई । ~आचारांग, १.१.१.२.३. २. जीवाणं भंते ! कि सासया असासया? गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया। गोयना ! दवट्ठयाए सासया भावळ्याए असासया । -भगवतीसूत्र, ७. २. २७३. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैन धर्म-दर्शन से जीव अनित्य है । जीव में जीवत्व सामान्य का कभी अभाव नहीं होता । वह किसी भी अवस्था में हो-जीव ही रहता है, अजीव नहीं होता । यह द्रव्यदृष्टि है । इस दृष्टि से जीव नित्य है । जीव किसी-न-किसी पर्याय में रहता है । एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय ग्रहण करता रहता है । इस दृष्टि से वह अशाश्वत है- अनित्य है । जीव सामान्य की नित्यता- अनित्यता के अतिरिक्त नारकादि जीवों की नित्यता-अनित्यता का भी प्रतिपादन किया गया है : भगवन् ! नारक शाश्वत हैं या अशाश्वत ? गौतम ! कथंचित् शाश्वत हैं: कथंचित् अशाश्वत हैं । भगवन् ! यह कैसे ? गौतम ! अव्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से शाश्वत हैं, व्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से अशाश्वत हैं । इसी प्रकार वैमानिक देवों के विषय में भी समझना चाहिए ।' अव्युच्छित्तिनय का अर्थ है द्रव्यार्थिक नय और व्युच्छित्तिनय का अर्थ है पर्यायार्थिक नय । जैसे जीव सामान्य को द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा गया है वैसे ही नारकादि जीवों को भी जीव द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा गया है। जैसे जीव सामान्य को नरकादि गतिरूप पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य कहा १. नेरइया णं भंते ! किं सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया सिय असासया । से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अव्वोच्छित्तिणय याए सासया, वोच्छित्तिणयट्ट्याए असासया । एवं जाव वेमाणिया । वही, ७. ३. २७६, 0.. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३४६ गया है वैसे ही नारक जीव को भी नारकादि पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य कहा गया है।। जीव की नित्यता विषयक स्थिति को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझने के लिए एक और संवाद का उल्लेख करते हैं। महावीर जमालि को यह बात समझा रहे हैं : तीनों कालों में ऐसा कोई क्षण नहीं, जब कि जीव न हो। इसीलिए जीव ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है"। जीव नारकावस्था का त्याग कर तिथंच अवस्था को प्राप्त करता है, तियंच मिट कर मनुष्य होता है, मनुष्य से देव होता है। इन विभिन्न भवस्थाओं की दृष्टि से जीव अनित्य है। एक अवस्था का त्याग और दूसरी अवस्था का ग्रहण अनित्यता के बिना नहीं हो सकता।' लोक की नित्यता-अनित्यता के लिए जो हेतु दिया गया है, ठीक वही हेतु यहाँ पर भी उपस्थित किया गया है। तीनों कालों में जीव जीवरूप में रहता है, अतः वह नित्य है। उसकी विविध अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, इसलिए वह अनित्य है। बुद्ध का जीव की सान्तता और अनन्तता के विषय में वही दृष्टिकोण है जो नित्यता और अनित्यता के विषय में था। महावीर ने इस विषय का अपनी दृष्टि से प्रतिपादन किया। १. सासए जीवे जमाली ! जं न कयाइ णासी, णो कयावि न भवति, ण कयावि ण भविस्सई, भुवि च भवई य भविस्साह य, धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वर अवट्ठिए णिच्चे । असासए जीवे जमाली! जन्नं नेरइए भवित्ता तिरिक्खनोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भविता देवे भवइ। -भगवतीसूत्र, ६. ६. ३५७; १. ४. ४२. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैन धर्म-दर्शन जीव सान्त भी है और अनन्त भी है। द्रव्य की दृष्टि से जीव सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से जीव असंख्यात प्रदेश वाला है, अत. वह सान्त है। काल की दृष्टि से जीव हमेशा है, इसलिए वह अनन्त है । भाव की अपेक्षा से जीव के अनन्त ज्ञानपर्याय हैं, अनन्त दर्शनपर्याय हैं, अनन्त चारित्रपर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघुपर्याय हैं । इसलिए वह अनन्त है।' द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दष्टियों से जीव की सान्तता-अनन्तता का विचार किया गया है। द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से जीव सीमित है, अतः सान्त है। काल और भाव की दृष्टि से जीव असीमित है, अतः अनन्त है। तात्पर्य यह है कि जीव कथंचित् सान्त है, कथंचित् अनन्त है । - द्रव्य का सबसे छोटा अंश, जिसका पुन: विभाग न हो सके, परमाणु है। परमाणु के चार प्रकार बताये गये हैं-द्रव्यपरमाणु, क्षेत्रपरमाणु, कालपरमाणु और भावपरमाणु । वर्णादिपर्याय की विवक्षा के बिना जो सूक्ष्मतम द्रव्य है वह द्रव्यपरमाणु है। इसे पुद्गलपरमाणु भी कहते हैं। आकाश १. जे वि य खंदया ! जीवे सस्ते जीवे अणंते जीवे, तस्स वि य गं एयमझे-एवं खलु जाव दव्यो णं एगे जीवे सअंते, खेत्तओ णं जीवे असंखेज्जपए सिए असंखेज्जपएसोगादे अस्थि पुण से अंते, कालओ णं जीवे न कयावि न आसि जाव निच्चे नत्थि पुण से अंते, भावओ णं जीवे अणंता णाणपज्जवा, अशंता दंसणपज्जवा, अणंता चरित्तपउजवा, अणंता अगुरुलहुयपज्ज वा नत्थि पुण से अंते। --भगवतीसूत्र, २.१.६०. २. गोयमा ! चदुन्विहे परमाणु पन्नत्ते तंजहा-दवपरमाणु, खेनपर माण, कालपरमाणु, भावपरमाण । --वही, २०. ५. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३५१ दव्य का सूक्ष्मतम प्रदेश क्षेत्रपरमाणु है। समय का सूक्ष्मतम प्रदेश कालपरमाणु है। द्रव्य-परमाणु में वर्णादिपर्याय की विवक्षा होने पर जिस परमाणु का ग्रहण होता है वह भावपरमाण है। ___ जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य भारतीय दर्शन ( वैशेषिक आदि ) द्रव्य-परमाणु को एकान्त नित्य मानते हैं। वे उसमें तनिक भी परिवर्तन नहीं मानते। परमाणु का कार्य अनित्य हो सकता है, परमाणु स्वयं नहीं। __ महावीर ने इस सिद्धान्त को नहीं माना। उन्होंने अपने अमोघ अस्त्र स्याद्वाद का यहाँ भी प्रयोग किया और परमाणु को नित्य और अनित्य दोनों प्रकार का माना : भगवन् ! परमाणु-पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? गौतम ! स्याद् शाश्वत है. स्याद् अशाश्वत है। यह कैसे ? गौतम ! द्रव्याथिक दृष्टि से शाश्वत है। वर्णपर्याय यावत् । स्पर्शपर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है।' ___ अन्यत्र भी पुद्गल की नित्यता का प्रतिपादन करते हुए यही बात कही कि द्रव्यदृष्टि से पुद्गल नित्य है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि तीनों कालों में ऐसा कोई क्षण नहीं जिस समय पुद्गल पुद्गलरूप में न हो। इसी प्रकार पुद्गल की १. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सासए असासए ? गोयमा ! सिय सासए सिय असासए । से केणठेणं.....? गोयमा ! दन्वट्ठयाए सासए, वनपज्ज वेहिं जाव फासपज्जवेहि असासए। --वही, १४.४.५१२. २. वही, १.४.४२. स्पर्शपर्याय का पुद्गल कीट से पुद्गल क्षण नहीं Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन धर्म-दर्शन अनित्यता का भी पर्यायदृष्टि से प्रतिपादन किया। गौतम और महावीर के संवाद के इन शब्दों को देखिए places भगवन् ! क्या यह सम्भव है कि अतीत काल में किसी एक समय में जो पुद्गल रूक्ष हो वही अन्य समय में अरूक्ष हो ? क्या वह एक ही समय में एक देश से रूक्ष और दूसरे देश से अरूक्ष हो सकता है ? क्या यह भी सम्भव है कि स्वभाव से या अन्य प्रयोग के द्वारा किसी पुद्गल में अनेक वर्णपरिणाम हो जायें और वैसा परिणाम नष्ट होकर बाद में एक वर्णपरिणाम भी हो जाय ? हाँ, गौतम ! यह सम्भव है ।' इस प्रकार महावीर ने परमाणु नित्यवाद का खण्डन किया। उन्होंने ऐसे परमाणु की सत्ता मानने से इनकार कर दिया जो एकान्त नित्य हो । जैसे परमाणु के कार्य घटादि में परिवर्तन होता है और वह अनित्य है, उसी प्रकार परमाणु भी अनित्य है । दोनों का समानरूप से नित्यानित्य स्वभाव है । एकता और अनेकता : महावीरं प्रत्येक द्रव्य में एकता और अनेकता दोनों धर्म मानते हैं । जीव द्रव्य की एकता और अनेकता का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने कहा - 'सोमिल ! द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ । ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से मैं दो हूँ । न बदलने वाले प्रदेशों १. एस णं भंते ! पोग्गले तीतमनंतं सासयं समयं लुक्खी समयं अलुक्खी समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा ? पुव्वि च णं करणेणं अगवन्न अणेगरूवं परिणामं परिणमति, अह से परिणामे निज्जिने भवति तओ पच्छा एगवन्ने एगरूवे सिया ? दंता गौयमा ! ...... एगरू वे सिया। वही, १४.४.५१०. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३५३ की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूं, अवस्थित हूँ। बदलते रहने वाले उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक हूं।" ___इसी प्रकार अजीव द्रव्य की एकता और अनेकता का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा-'गौतम ! धर्मास्तिकाय द्रव्य दृष्टि से एक है, इसलिए वह सर्वस्तोक है। वही धर्मास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुण भी है।'२ इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, आकाश आदि द्रव्यदृष्टि से एक और प्रदेशदृष्टि से अनेक हैं। परस्पर विरोधी माने जाने वाले धर्मों का एक ही द्रव्य में अविरोधी समन्वय करना अनेकान्तवाद की देन है। अस्ति और नास्ति : बुद्ध ने 'अस्ति' और 'नास्ति' दोनों को मानने से इनकार किया। सब है, ऐसा कहना एक अन्त है । सब नहीं है, ऐसा कहना दूसरा अन्त है। इन दोनों अन्तों को छोड़कर तथागत मध्यम मार्ग का उपदेश देते हैं। महावीर ने 'सर्वमस्ति' और १. सोमिला ! दम्वट्ठयाए एगे अहं, नाणदंसणठ्ठयाए दुविहे अहं, पएसठ्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेग यभाव भविए वि अहं । -वही,१.८.१.. २. गोयमा ! सम्वत्थोवे एगे धम्मस्थिकाए दवट्ठयाए, से चेव पएस याए असंखेज्जगुणे..। सम्वत्थोवे पोग्गलत्यिकाए दवट्ठयाए, से चेव पएसट्ठयाए असंखेज्जगुणे। -प्रज्ञापना, ३.५६. ३. सव्वं अत्थीति खो ब्राह्मण अय एको अन्ते ।... सव्वं नत्थीति खो ब्राह्मण अयं दुतियो अन्तो। एते ते ब्राह्मण उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो धम्म देसे तिअवजापंचया सखारा......! --संयुत्तनिकाय, १२.४७, Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ जैन धर्म-दर्शन 'सर्वं नास्ति' इन दोनों सिद्धान्तों की परीक्षा की। परीक्षा करके कहा कि जो अस्ति है वही अस्ति है और जो नास्ति है वही नास्ति है । उन्हीं के शब्दों में- 'हम अस्ति को नास्ति नहीं कहते, नास्ति को अस्ति नहीं कहते। हम जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं । " अस्ति और नास्ति दोनों परिणमनशील हैं। यह बात भी महावीर ने स्वीकार की। आत्मा में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों के परिणमन का सिद्धान्त स्थापित किया । इस प्रकार अस्ति और नास्ति के सम्बन्ध में भी अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की । २ 'अस्ति' और 'नास्ति' को मानने वाले दो एकान्तवादी पक्ष हैं। एक पक्ष कहता है कि सब सत् है- 'सर्वमस्ति' | दूसरा १. नो खलु वयं देवाणु पिया ! अस्थिभावं नत्यित्ति वदामो, नत्थिभावं अस्थिति वदामो । अम्हे गं देवाणुपिया ! सव्व अस्थिभाव अथित्ति वदामी, सव्वं नत्थिभावं नत्थित्ति वदामी | - भगवतीसूत्र, ७.१०.३०४. परिणमइ, नत्थितं नत्थित्ते "परिणमइ । जपणं भंते ! अत्थित्तं अत्थितं परिणमइ नत्थित्तं नत्थिते परिणमइ, तं कि पओगसा वीससा ? २. से नूणं भंते! अत्थित्त अत्थित परिणमइ ? हंता गोयमा गोमा ! पओगसा वि तं वीसा वितं । जहा ते भंते! अत्थितं अस्थित्तं परिणम, तहा ते नस्थित्तं नत्थित्ते परिणमद् ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्त परिणमइ तहा ते अत्थितं अत्थिते परिणमइ ? हंता गोयमा ! जहा में अस्थित्तं • परिणमइ । - वही, १.३.३३. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ सापेक्षवाद कहता है कि सब असत् है-'सर्वे नास्ति' । बुद्ध ने इन दोनों पक्षों को एकान्तवादी कहा, यह ठीक है, किन्तु उन्होंने उनका सर्वथा त्याग कर दिया। उस त्याग को उन्होंने मध्यम मार्ग का नाम दिया । बुद्ध का यह मार्ग निषेधप्रधान है। महावीर ने दोनों पक्षों का निषेध न करके विधिरूप से अनेकान्तवाद द्वारा समर्थन किया। उन्होंने कहा कि 'सब सत् है', यह एकान्त दृष्टिकोण ठीक नहीं। इसी प्रकार 'सब असत् है, यह एकान्त दृष्टि भी उचित नहीं। जो सत् है, उसी को सत् मानना चाहिए। जो असत् है, उसी को असत् मानना चाहिए। सत् और असत्अस्ति और नास्ति के भेद को सर्वथा लुप्त नहीं करना चाहिए। सब अपने द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से सत् है, पर द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से असत् है। सत् और असत् का विवेकपूर्वक समर्थन करना चाहिए। जो जिस रूप से सत् हो, उसे उसी रूप से सत् मानना चाहिए। जो जिस रूप से असत् हो, उसे उसी रूप से असत् मानना चाहिए। सत् और असत् के इस भेद को समझे बिना एकान्तरूप से सबको सत् या असत् कहना दोषपूर्ण है। ___ उपर्युक्त विवेचन से यह बात मालूम हो जाती है कि एक और अनेक, नित्य और अनित्य, सान्त और अनन्त, सद् और असद् धर्मों का अनेकान्तवाद के आधार पर किस प्रकार समन्वय हो सकता है। यह समझना भूल है कि अनेकान्तवाद स्वतन्त्र दृष्टि न होकर दो एकान्तवादों को मिलाने वाली एक मिश्रित दृष्टि मात्र है। वस्तु का ठीक-ठीक स्वरूप समझने के लिए अनेकान्त दृष्टि ही उपयुक्त है। यह एक विलक्षण व स्वतन्त्र दृष्टि है, जिसमें वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रतिभासित होता है। केवल दो एकान्तवादों को मिला देने से अनेकान्तवाद नहीं Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ नैन धर्म-दर्शन बन सकता, क्योंकि दो एकान्तवाद कभी एकरूप नहीं हो सकते । वे हमेशा एक-दूसरे के विरोधी होते हैं। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद एक अखण्ड दृष्टि है, जिसमें वस्तु के सभी धर्म निर्विरोध रूप से प्रतिभासित होते हैं। आगमों में स्याद्वाद: यह विवेचन पढ़ लेने के बाद इसमें तो तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि स्याद्वाद का बीज जैनागमों में मौजूद है। जगहजगह 'सिय सासया', 'सिय असासया'-स्यात् शाश्वत, स्यात् अशाश्वत आदि का प्रयोग देखने को मिलता है। इससे यह सिद्ध है कि आगमों में 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त हुआ है। यहाँ पर एक प्रश्न है कि क्या आगमों में 'स्याद्वाद' इस पूरे पद का प्रयोग हुआ है ? सूत्रकृतांग की एक गाथा में से 'स्याद्वाद' ऐसा पद निकालने का प्रयत्न किया गया है।' गाथा इस प्रकार है : नो छायए नो वि य लूसएज्जा माणं न सेवेज्ज पगासणं च । न यावि पन्ने परिहास कुज्जा न यासियावाय वियागरेज्जा ॥ १.१४. १६. इसका जो 'न यासियावाय' अंश है उसके लिए टीकाकार ने 'न चाशादि' ऐसा संस्कृत रूप दिया है। जो इस गाथा में से 'स्याद्वाद' पद निकालना चाहते हैं उनके मतानुसार 'न चास्याद्वाद' ऐसा रूप होना चाहिए। आचार्य हेमचन्द्र के नियमों के अनुसार 'आशिष्' शब्द का प्राकृत रूप 'आसी' होता है। हेमचन्द्र ने 'आसीया' ऐसा एक दूसरा रूप भी दिया है ।। १. ओरिएण्टल कोन्फरेंस-नवम अधिवेशन की कार्यवाही ( डा० ए. एन० उपाध्ये का मत ), पृ० ६७१. २. प्राकृत-व्याकरण, ८. २. १७४. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद 'स्याद्वाद' के लिए प्राकृत रूप 'सियावाओ' है।' इसके लिए एक और हेतु दिया गया है कि यदि इस 'सियावाओ' शब्द पर ध्यान दिया जाय तो उपर्युक्त गाथा में अस्यावाद वचन के प्रयोग का ही निषेध मानना ठीक होगा, क्योंकि यदि टीकाकार के मतानुसार आशीर्वाद वचन के प्रयोग का निषेध माना जाय तो कथानकों में जो 'धर्मलाभ' रूप आशीर्वाद का प्रयोग मिलता है वह असंगत सिद्ध होगा। यह हेतु विशेष महत्त्व नहीं रखता। 'धर्मलाभ' को आशीर्वाद कहना ठीक वैसा ही है जैसा मुक्ति की अभिलाषा को राग कहना। जो लोग मोक्षावस्था को सुखरूप नहीं मानते हैं वे सुखरूप मानने वाले दार्शनिकों के सामने यह दोष रखते हैं कि सुख की अभिलाषा तो राग है और राग बन्धन का कारण है, न कि मोक्ष का, अतः मोक्ष सुखरूप नहीं हो सकता। सुख की अभिलाषा को जो राग कहा गया है वह सांसारिक सुख की दृष्टि से है, न कि मोक्षरूप शाश्वत सुख की दृष्टि से । इस सिद्धान्त से अपरिचित लोग ही मोक्ष की अभिलाषा को राग कहते हैं। आशीर्वाद भी सांसारिक ऐश्वर्य और सुख की प्राप्ति के लिए ही होता है। धर्म के लिए कोई आशीर्वाद नहीं होता। 'धर्मलाभ' या 'धर्म की जय' आशीर्वाद नहीं है । यह तो सत्य की अभिव्यक्ति है-सत्यपथ का निदर्शन है। तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त हेतु में कोई खास बल नहीं है। व्याकरण के प्रयोगों के अध्ययन के आधार पर सम्भवतः 'न चास्याद्वाद' पद का औचित्य सिद्ध हो सकता है। जो कुछ भी हो, यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि 'स्यात्' पूर्वक वचन १. वही, ८. २. १०७. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जैन धर्म-दर्शन प्रयोग आगमों में देखे जाते हैं । 'स्याद्वाद' ऐसा अखण्ड प्रयोग न भी मिले, तो भी स्याद्वाद सिद्धान्त आगमों में मौजूद है, इसे कोई इनकार नहीं कर सकता। अनेकान्तवाद और स्यावाद : __जैन दर्शन एक वस्तु में अनन्त धर्म मानता है। इन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है, वे सब धर्म वस्तु के अन्दर रहते हैं। ऐसा नहीं कि व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का पदार्थ पर आरोप करता है। अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक या अनेकान्तात्मक कही जाती है। ___अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना पड़ता है। 'स्यात्' का अर्थ है कथंचित् । किसी एक दृष्टि से वस्तु इस प्रकार की कही जा सकती है। दूसरी दृष्टि से वस्तु का कथन इस प्रकार हो सकता है। यद्यपि वस्तु में ये सब धर्म हैं, किन्तु इस समय हमारा दृष्टिकोण इस धर्म की ओर है, इसलिए वस्तु एतद्रूप प्रतिभासित हो रही है। वस्तु केवल एतद्रूप ही नहीं है, अपितु उसके अन्य रूप भी हैं, इस सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस 'स्यात्' शब्द के प्रयोग के कारण ही हमारा वचन 'स्याद्वाद' कहलाता है। 'स्यात्' पूर्वक जो 'वाद' अर्थात् वचन है-कथन है वह 'स्याद्वाद' है । इसीलिए यह कहा गया है कि अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन स्याद्वाद' है।' 'स्याद्वाद' को 'अनेकान्तवाद' भी कहते हैं। इसका कारण १. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । -लघीयस्त्रयटीका, ६२. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३५६ यह है कि 'स्याद्वाद' से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है । अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन ही 'अनेकान्तवाद' है । 'स्यात्' यह अव्यय 'अनेकान्त' का द्योतक है, इसीलिए 'स्याद्वाद' को 'अनेकान्तवाद' कहते हैं ।' 'स्याद्वाद' और 'अनेकान्तवाद' दोनों एक ही हैं। 'स्याद्वाद' में 'स्यात्' शब्द की प्रधानता रहती है । 'अनेकान्तवाद' में 'अनेकान्त ' धर्म की मुख्यता रहती है । 'स्थात्' शब्द 'अनेकान्त' का द्योतक है, 'अनेकान्त' को अभिव्यक्त करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह स्पष्टीकरण इसलिए है कि जैन ग्रन्थों में कहीं स्याद्वाद शब्द आया है तो कहीं अनेकान्तवाद शब्द का प्रयोग हुआ है । जैन दार्शनिकों ने इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है । इन दोनों शब्दों के पीछे एक ही हेतु रहा हुआ है और वह है वस्तु की अनेकान्तात्मकता । यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती हैं और स्याद्वाद शब्द से भी। वैसे देखा जाय तो स्याद्वाद शब्द अधिक प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि आगमों में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग देखने में आता है । जहाँ वस्तु की अनेकरूपता का प्रतिपादन करना होता है वहाँ 'सिय' शब्द का प्रयोग साधारण-सी बात है । अनेकान्तवाद शब्द पर दार्शनिक पुट की प्रतीति होती है, क्योंकि यह शब्द एकान्तवाद के विरोधी पक्ष को सूचित करता है । स्याद्वाद और सप्तभंगी : (७) यह हम देख चुके हैं कि स्याद्वाद के मूल में दो विरोधी धर्म १. स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः । - स्याद्वादमञ्जरी, ५ . Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जन धर्म-दर्शन रहते हैं। इन दो विरोधी धर्मों का अपेक्षा-भेद से कथन स्याद्वाद है। उदाहरण के लिए हम सत् को लेते हैं। पहला पक्ष है सत् का । जब सत् का पक्ष हमारे सामने आता है तो उसका विरोधी पक्ष असत् भी सामने आता है । मूल रूप में ये दो पक्ष हैं । इसके बाद तीसरा पक्ष दो रूपों में आ सकता है या तो दोनों पक्षों का समर्थन करके या दोनों पक्षों का निषेध करके । जहाँ सत् और असत् दोनों पक्षों का समर्थन होता है वहाँ तीसरा पक्ष बनता है सदसत् का । जहाँ दोनों पक्षों का निषेध होता है वहाँ तीसरा पक्ष बनता है अनुभय अर्थात् न सत् न असत । सत्, असत्, और अनुभय इन तीन पक्षों का प्राचीनतम आभास ऋग्वेद के नासदीयसूक्त में मिलता है। उपनिषदों में दो विरोधी पक्षों का समर्थन मिलता है। 'तदेजति तनेजति", 'अणोरणीयान् महतो महीयान्', 'सदसद्वरेण्यम्' आदि वाक्यों में स्पष्टरूप से दो विरोधी धर्म स्वीकृत किये गये हैं। इस परम के अनुसार तीसरा पक्ष उभय अर्थात् सदसत् का बनता है । जहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध किया गया वहाँ अनुभय का चौथा पक्ष बन गया। इस प्रकार उपनिषदों में सत्, असत्, सदसत् और अनुभय ये चार पक्ष मिलते हैं । अनुभय पक्ष अवक्तव्य के नाम से भी प्रसिद्ध है । अवक्तव्य के तीन अर्थ हो सकते हैं-१. सत् और असत् दोनों का निषेध करना, २. सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना, ३. सत् और असत् दोनों को अक्रम से अर्थात् युगपद् स्वीकृत करना। १. ईशोपनिषद्, ५. २. कठोपनिषद्, १.२.२०. ३. मुण्डकोपनिषद, २.२.१. ४. 'न सन्नचासत्'-श्वेताश्वतरोपनिषद्, ४.१५. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६१ • जहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है वहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध समझना चाहिए। जहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है वहाँ सत् असत् और सदसत् तीनों का निषेध समझना चाहिए | सत् और असत् दोनों का युगपद् प्रतिपादन करने की सूझ तर्कयुग के जैनाचार्यों की मालूम होती है । यह बात आगे स्पष्ट हो जाएगी । अवक्तव्यता दो तरह की है- एक सापेक्ष और दूसरी निरपेक्ष । सापेक्ष अवक्तव्यता में इस बात की झलक होती है कि तत्त्व सत्, असत् और सदसत् रूप से अवाच्य है । इतना ही नहीं अपितु नागाजुन जसे माध्यमिक बौद्धदर्शन के आचार्य ने तो सत्, असत्, पदसत् और अनुभय इन चारों दृष्टियों से तत्त्व को अवाच्य माना। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वस्तु चतुष्कोटिविनिर्मुक्त है। इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता एक, दो, तीन या चारो पक्षों के निषेध पर खड़ी होती है । जहाँ तत्त्व न सत् हो सकता है, न असत् हो सकता है, न सत् और असत् दोनों हो सकता है, न अनुभय हो सकता है ( ये चारों पक्ष एक साथ हों या भिन्न-भिन्न ) वहाँ सापेक्ष अवक्तव्यता है । निरपेक्ष अवक्तव्यता के लिए यह बात नहीं है । वहाँ तो तत्त्व को सीधा 'वचन से अगम्य' कह दिया जाता है ।" पक्ष के रूप में जो अवक्तव्यता है वह सापेक्ष अवक्तव्यता है, ऐसा समझना चाहिए । उपनिषदों में सत्, असत्, सदसत् और अवक्तव्य ये चारों पक्ष मिलते हैं, यह हम लिख चुके हैं। बौद्ध त्रिपिटक में भी ये चार पक्ष मिलते हैं । सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है । उसी १. यतो वाचो निवर्तन्ते । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन धर्म-दर्शन प्रकार इन चारों पक्षों को भी अव्याकृत कहा गया है । उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न अव्याकृत हैं : १. होति तथागतो परंमरणाति ? न होति तथागतो परंमरणाति ? होति च न होति च तथागतो परंमरणाति ? नेव होति न न होति तथागतो परंमरणाति ? १ २. सयंकतं दुक्खवंति ? परंकतं दुक्खवंति ? सयंकतं परंकतं च दुक्खवंति ? असयंकार अपरंकारं दुक्खति ? बुद्ध की तरह संजयवेलट्ठिपुत्त भी इस प्रकार के प्रश्नों का न 'हाँ' में उत्तर देता था, न 'ना' में । उसका किसी भी विषय में कुछ भी निश्चय न था । बुद्ध तो कम-से-कम इतना कह देते थे कि ये प्रश्न अव्याकृत हैं । संजय उनसे भी एक कदम आगे बढा हुआ था । वहन 'हाँ' कहता, न 'ना' कहता, न अव्याकृत. कहता, न व्याकृत कहता। किसी भी प्रकार का विशेषण देने में वह भय खाता था। दूसरे शब्दों में, वह संशयवादी था । किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट न करता था । पाश्चात्य दर्शनशास्त्र में ह्यम का जो स्थान है, प्रायः वही स्थान भारतीय दर्शनशास्त्र में संजयवेलदिपुत्त का है। ह्यूम भी यही मानता था कि हमारा ज्ञान निश्चित नहीं है, इसलिए हम अपने ज्ञान से किसी अन्तिम तत्त्व का निर्णय नहीं कर सकते । सीमित अवस्था में रहते हुए सीमा से बाहर के तत्त्व का निर्णय १. संयुत्तनिकाय, ४४.१. २. वही, १२.१७. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापवाद ३६३ करना हमारे सामर्थ्य से परे है। संजय ने जिन प्रश्नों के विषय में विक्षेपवादी वृत्ति का परिचय दिया, उनमें से कुछ ये हैं '--- १. परलोक है ? परलोक नहीं है ? परलोक है और नहीं है ? न परलोक है और न नहीं है ? २. औपयातिक हैं ? औपयातिक नहीं हैं ? औपयातिक है और नहीं है ? न औपयातिक हैं न नहीं हैं ? ३. सुकृत-दुष्कृत कर्म का फल है ? सुकृत-दुष्कृत कर्म का फल नहीं है ? सुकृत-दुष्कृत कर्म का फल है और नहीं है ? सुकृत-दुष्कृत कर्म का फल न है न नहीं है ? ४, मरणानन्तर तथागत है ? मरणानन्तर तथागत नहीं है ? मरणानन्तर तथागत है और नहीं है ? मरणानन्तर न तथागत है न नहीं है ? स्याद्वाद और संजय के संशयवाद में यही अन्तर है कि स्याद्वाद निश्चयात्मक है, जब कि संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है। महावीर प्रत्येक पक्ष का अपेक्षाभेद से निश्चित उत्तर देते थे। वे न तो बुद्ध की तरह अव्याकृत कहकर टाल दिया करते और न संजय की तरह अनिश्चय का बहाना बनाते। जो लोग स्याद्वाद को संजयवेलट्टिपुत्त का संशयवाद १. दीघनिकाय-सामञफलसुत्त. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन समझते हैं वे स्याद्वाद का स्वरूप ही नहीं जानते। जैन दर्शन के आचार्य बार-बार यह कहते हैं कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, स्याद्वाद अज्ञानवाद नहीं है, स्थाद्वाद अस्थिरवाद या विक्षेपवाद नहीं है । वह निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है। उपनिषदों में व बौद्ध त्रिपिटक में तत्त्व के विषय में चार पक्ष किस रूप में मिलते हैं, यह लिख चुके । अब हम जैन आगमों में मिलने वाले चारों पक्षों को देखें। इससे हमें मालूम हो जाएगा कि भारतीय दर्शनशास्त्र की परम्परा में ये चारों पक्ष अति प्राचीन हैं। भगवतीसूत्र में मिलने वाले कुछ उदाहरण देखिए : [अ] १. आत्मारम्भ २. परारम्भ ३. तदुभयारम्भ ४. अनारम्भ [आ] १. गुरु २. लघु ३. गुरुलघु ४. अगुरुलघु १. सत्य ३. सत्यमृषा २. मृषा ४. असत्यमृषा इस विवेचन से स्पष्ट झलकता है कि अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति और अवक्तव्य ये चार भंग प्राचीन एवं मौलिक १. १.१.१७. २. १.६.७४. ३. १३.७.४६३. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६५ हैं। महावीर ने इन चार भंगों को अधिक महत्त्व दिया । यद्यपि आगमों में इनसे अधिक भंग भी मिलते हैं, तथापि ये चार भंग मौलिक हैं, अतः इनका अधिक महत्त्व है । इन भंगों में अवक्तव्य का स्थान कहीं तीसरा है' तो कहीं चौथा है । ऐसा क्यों ? इसका उत्तर हम पहले ही दे चुके हैं कि जहाँ अस्ति और आस्ति इन दो भंगों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है और जहाँ अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति (उभय ) तीनों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है । इन चार भंगों के अतिरिक्त अन्य भंग भी मिलते हैं किन्तु वे इन भंगों के किसी-न-किसी संयोग से ही बनते हैं। ये भंग किस रूप में आगमों में मिलते हैं, यह देखें । भंगों का आगमकालीन रूप : भगवतीसूत्र के आधार पर हम स्याद्वाद के भंगों का स्वरूप समझने का प्रयत्न करेंगे । गौतम महावीर से पूछते हैं : भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य ? इसका उत्तर देते हुए महावीर कहते हैं : १. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है । २. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा नहीं है । ३. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अवक्तव्य है । यह कैसे ? १. आत्मा के आदेश से आत्मा है । २. पर के आदेश से आत्मा नहीं है । ३. उभय के आदेश से अवक्तव्य है । १. भगवतीसूत्र, १२.१०.४६६. २. आप्तमीमांसा, १६. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन ___ अन्य पृथ्वियों, देवलोकों और सिद्ध शिला के विषय में भी यही बात कही गई है। परमाणु के विषय में पूछने पर भी यही उत्तर मिला। द्विप्रदेशी स्कन्ध के विषय में महावीर ने इस प्रकार उत्तर दिया१. द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है।। २. द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है । ३. द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात अवक्तव्य है। ४. द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात आत्मा है और आत्मा नहीं है। ५. द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और अवक्तव्य है। ६. द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । यह कैसे ? १. द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा के आदेश से आत्मा है। २. पर के आदेश से आत्मा नहीं है। ३. उभय के आदेश से अवक्तव्य है। ४. एक अंश (देश) सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा अंश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, अतः द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है। ५. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और एक देश उभयपर्यायों से आदिष्ट है, अतएव द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है। ६. एक देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, अतः द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। त्रिप्रदेशी स्कन्ध के विषय में पूछने पर निम्न उत्तर मिला१. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६७ २. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है । ३. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् अवक्तव्य है। ४. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और आत्मा नहीं है। ५. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और ( दो) आत्माएं नहीं हैं। ६. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् ( दो) आत्माएं हैं और आत्मा नहीं है। ७. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्थात् आत्मा है और अवक्तव्य है। ८. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और ( दो ) आत्माएं __ अवक्तव्य हैं। ६. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् (दो) आत्माएं हैं और अवक्तव्य है। १०. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। ११. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है और (दो) अवक्त व्य हैं। १२. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् (दो) आत्माएँ नहीं हैं और अवक्तव्य है। १३. त्रिप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। ऐसा क्यों? १. त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा के आदेश से आत्मा है। २. त्रिप्रदेशी स्कन्ध पर के आदेश से आत्मा नहीं है। ३ त्रिप्रदेशी स्कन्ध तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है। ४. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और एक देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन ५. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और दो देश असद् भावपर्यायों से आदिष्ट है, अतः त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और (दो) आत्माएं नहीं हैं। ६. दो देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं और एक देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, अतएव त्रिप्रदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएं हैं और आत्मा नहीं हैं। ७. एक देश सदभावपर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, अतः त्रिदेशी स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है। ८. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और दो देश तदु- भयपर्यायों से आदिष्ट हैं, अतएव त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और (दो) अवक्तव्य हैं। ६. दो देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं और एक देश तदु भयपर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए त्रिप्रदेशी स्कन्ध (दो) आत्माए हैं और अवक्तव्य है । १०. एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और दूसरा देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतएव त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । ११. एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और दो देश __ आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतः त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा नहीं है और (दो) अवक्तव्य हैं। १२. दो देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं और एक देश तदु प्यपर्यायों से आदिष्ट है, अत: त्रिप्रदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएं नहीं हैं और अवक्तव्य है । १३. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, एक देश असद्भाव Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्य है। सापेक्षवाद . ३६६ पर्यायों से आदिष्ट है और एक देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, अतएव त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में प्रश्न करने पर महावीर ने १६ भंगों में उतर दिया। इस उत्तर का स्पष्टीकरण इस प्रकार है१. चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा के आदेश से आत्मा है। २. चतुष्प्रदेशी स्कन्ध पर के आदेश से आत्मा नहीं है। ३. चतुष्प्रदेशी स्कन्ध तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है। ४. एक देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है । ५. एक देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायों से और अनेक देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और (अनेक) आत्माएं नहीं हैं। ६. अनेक देश आदिष्ट हैं सद्भावार्यायों से और एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से, अत: चतुष्प्रदेशी स्कन्ध (अनेक) आत्माएं हैं और आत्मा नहीं है। ७. दो देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से और दो देश आदिष्ट हैं अमद्भावपर्यायों से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएं हैं और (दो) आत्माएं नहीं हैं। ८. एक देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अत: चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैन धर्म-दर्शन 8. एक देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायों से और अनेक देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और ( अनेक) अवक्तव्य हैं । १०. अनेक देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएं हैं और अवक्तव्य है । ११. दो देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से और दो देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतः चतुष्पदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएँ हैं और (दो) अवक्तव्य हैं । १२. एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । १३. एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और अनेक देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेणी स्कन्ध आत्मा नहीं है और ( अनेक ) अवक्तव्य हैं । १४. अनेक देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्पदेशी स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएं नहीं हैं और अवक्तव्य है । १५. दो देश आदिष्ट हैं सद्भावयों से और दो देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्पदेशी स्कन्ध ( दो ) आत्माएं नहीं हैं और ( दो ) अवलव्य हैं । १६. एक देश सद्भावों से आदिष्ट है, एक देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और एक देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए चतुरूप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, नहीं है और अवक्तव्य है । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३७१ १७. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, एक देश असद्भाव पर्यायों से आदिष्ट है और दो देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट हैं, इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, नहीं है और (दो) अवक्तव्य हैं। १८. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, दो देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं और एक देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, (दो) नहीं हैं और अवक्तव्य है। १६. दो देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं, एक देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और एक देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएं हैं, नहीं है और अवक्तव्य है। चतुष्प्रदेशी स्कन्ध का १६ भंगों में उत्तर देकर पंचप्रदेशी स्कन्ध के विषय में २२ भंगों में उत्तर देते हैं१. पंचप्रदेशी स्कन्ध आत्मा के आदेश से आत्मा है। २. पंचप्रदेशी स्कन्ध पर के आदेश से आत्मा नहीं है। ३. पंचप्रदेशी स्कन्ध तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है। ४-६. चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान हैं । ७. दो या तीन देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से और दो या तीन देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से, अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध ( दो या तीन ) आत्माएँ हैं और ( दो या तीन ) आत्माएं नहीं हैं ( सद्भावपर्यायों में यदि दो देश लेने हों तो असद्भावपर्यायों में तीन देश लेने चाहिए और सद्भावपर्यायों में यदि तीन देश लेने हों तो असद्भावपर्यायों में दो देश लेने चाहिए)। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन ८-१०. चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान हैं। ११ दो या तीन देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से और दो या तीन देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध ( दो या तीन ) आत्माएं हैं और ( दो या तीन ) अवक्तव्य हैं। १२-१४. चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान समझना चाहिए। १५. दो या तीन देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से और दो या तीन देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध (दो या तीन) आत्माएं नहीं हैं और ( दो या तीन ) अवक्तव्य हैं। १६. चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान है। १७. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, एक देश असद्भाव पर्यायों से आदिष्ट है और अनेक देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट हैं, अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, नहीं है और ( अनेक ) अवक्तव्य हैं। १५. एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, अनेक देश अस द्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं और एक देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, अतः पंचप्रदेशी स्वन्ध आत्मा है, ( अनेक ) आत्माएं नहीं हैं और अवक्तव्य है। १६ एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है, दो देश असद्भाव पर्यायों से आदिष्ट हैं और दो देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट हैं, अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, (दो) आत्माएं नहीं हैं और (दो) अवक्तव्य हैं। २० अनेक देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से, एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभय national Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३७३ पर्यायों से, अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएं हैं, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । २१. दो देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से, एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और दो देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतः (दो) आत्माए हैं, आत्मा नहीं है और (दो) अवक्तव्य हैं । २२. दो देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से दो देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतः पंचप्रदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएं हैं, (दो) आत्माएं नहीं हैं और अवक्तव्य है । इसी प्रकार षट्पदेशी स्कन्ध के २३ भंग किये गये हैं । २२ का पूर्ववत् निर्देश किया गया है तथा २३वाँ भंग इस प्रकार है दो देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं, दो देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट हैं और दो देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट हैं, अतएव षट् प्रदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएं हैं, (दो) आत्माएँ नहीं हैं और (दो) अवक्तव्य है । ' उपर्युक्त भंगों को देखने से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि स्याद्वाद से फलित होने वाली सप्तभंगी बाद के आचार्यों की सूझ नहीं है । यह आगमों में मिलती है और वह भी अपने प्रभेदों के साथ । २३ भंगों तक का विकास भगवतीसूत्र के उपर्युक्त सूत्र में मिलता है । यह तो एक दिग्दर्शन मात्र है । नाना प्रकार के विकल्पों के आधार पर अनेक भंगों का निर्माण किया जा सकता है । यह प्रवक्ता के बुद्धिकौशल पर निर्भर है । इन सब भंगों का निचोड़ सात भंग हैं : अस्ति, नास्ति, अनुभय १. भगवतीसूत्र, १२.१०.४६९. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन धर्म-दर्शन (अवक्तव्य), उभय ( अस्तिनास्ति ), अस्ति-अवक्तव्य, नास्तिअवक्तव्य, अस्ति-नास्ति-अवक्त-य । इन सात में भी प्रथम चार मुख्य हैं-अस्ति, नास्ति, अनुभय और उभय । इन चार में भी दो मौलिक हैं-अस्ति और नास्ति । तत्त्व के मुख्य रूप से दो पहलू हैं। दोनों परस्पराश्रित हैं। 'अस्ति' नास्तिपूर्वक है और 'नास्ति' अस्तिपूर्वक । बाद के दार्शनिकों ने सात भंगों पर ही विशेष भार दिया एवं स्याद्वाद और सप्तभंगी एकार्थक हो गये । भंग सात ही क्यों होते हैं, अधिक या कम क्यों नहीं होते, इसका भी समाधान करने का प्रयत्न किया गया। जैन दर्शन की मौलिक धारणा अस्ति और नास्तिमूलक ही है। चार और सात भंग तो अस्ति और नास्ति की ही विशेष अवस्थाएं हैं । अस्ति और नास्ति एक नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों विरोधी धर्म हैं। सप्तभंगी: वस्तु के अनेक धर्मों के कथन के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। किसी एक धर्म का कथन किसी एक शब्द से होता है। हमारे लिए यह सम्भव नहीं कि अनेकान्तात्मक वस्तु के सभी धर्मों का वर्णन कर सकें, क्योंकि एक वस्तु के सम्पूर्ण वर्णन का अर्थ है-सभी वस्तुओं का सम्पूर्ण वर्णन । सभी वस्तुएं परस्पर सम्बन्धित हैं, अतः एक वस्तु के कथन के साथ अन्य वस्तुओं का कथन अनिवार्य है। ऐसी अवस्था में वस्तु का ज्ञान या कथन करने के लिए हम दो दृष्टियों का उपयोग करते हैं । इनमें से एक दृष्टि सकलादेश कहलाती है और दूसरी विकलादेश । सकलादेश का अर्थ है किसी एक धर्म के साथ अन्य धर्मो का अभेद करके वस्तु का वर्णन करना। दूसरे शब्दों में, एक गुण में अशेष वस्तु का संग्रह Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३७५ करना सकलादेश है।' उदाहरण के लिए किसी वस्तु के अस्तित्व धर्म का कथन करते समय इतर धर्मों का अस्तित्व में ही समावेश कर लेना सकलादेश है। 'स्थादस्तिरूपमेव सर्वम्' ऐसा जब कहा जाता है तो उसका अर्थ होता है सभी धर्मों का अस्तित्व से अभेद । अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य जितने भी धर्म हैं, सब किसी दृष्टि से अस्तित्व से अभिन्न हैं, अत: 'कथंचित् सब है ही' (स्यादस्त्येव सर्वम्) यह कहना अनेकान्तवाद की दृष्टि से अनुचित नहीं है । एक धर्म में सारे धर्मो का समावेश या अभेद कैसे होता है ? किस दृष्टि से एक धर्म अन्य धर्मो से अभिन्न है ? इसका समाधान करने के लिए कालादि आठ दृष्टियों का आधार लिया जाता है। इन आठ दृष्टियों में से किसी एक के आधार पर एक धर्म के साथ अन्य धमा का अभेद कर लिया जाता है और इस अभेद को दृष्टि में रखते हुए ही उस धर्म का कथन सम्पूर्ण वस्तु का कथन मान लिया जाता है। यही सकलादेश है। विकलादेश में एक धर्म की ही अपेक्षा रहती है और शेष की उपेक्षा। जिस धर्म का कथन अभीष्ट होता है वही धर्म दृष्टि के सामने रहता है। अन्य धमों का निषेधं नहीं होता, अपितु उनका उस समय कोई प्रयोजन न होने से ग्रहण नहीं होता। यही उपेक्षाभाव है। नथ का स्वरूप बताते समय इसका विशेष स्पष्टीकरण किया जाएगा । अब हम सकलादेश की कालादि आठ दृष्टियों का स्वरूप समझने का प्रयत्न करेंगे। १. एकगुण मुखे नाशेषवस्तुरूपय ग्रहाल मकलादेशः ।। ~~तत्त्वार्थ राजवातिका, ४.४२.१८. २. स्याहादरत्नाकर, ४.४४. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैन धर्म-दर्शन काल-जिस समय किसी वस्तु में अस्तित्व धर्म होता है उसी समय अन्य धर्म भी होते हैं । घट में जिस समय अस्तित्व रहता है उसी समय कृष्णत्व, स्थूलत्व, कठिनत्व आदि धम भी रहते हैं। इसलिए काल की अपेक्षा से अन्य धर्म अस्तित्व से अभिन्न हैं। आत्मरूप-जिस प्रकार अस्तित्व घट का गुण है उसी प्रकार कृष्णत्व, कठिनत्व आदि भी घट के गुण हैं । अस्तित्व के समान अन्य गुण भी घटात्मक ही हैं। अतः आत्मरूप की दृष्टि से अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेद है। ___ अर्थ-जिस घट में अस्तित्व है उसी घट में कृष्णत्व, कठिनत्व आदि धर्म भी हैं। सभी धर्मों का स्थान एक ही है । अतः अर्थ की दृष्टि से अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद नहीं। सम्बन्ध-जिस प्रकार अस्तित्व का घट से सम्बन्ध है उसी प्रकार अन्य धर्म भी घट से सम्बन्धित हैं । सम्बन्ध की दृष्टि से अस्तित्व और इतरगुण अभिन्न हैं। उपकार-अस्तित्व गुण घट का जो उपकार करता है वही उपकार कृष्णत्व, कठिनत्व आदि गुण भी करते हैं। इसलिए यदि उपकार की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेद है। गुणिदेश-जिस देश में अस्तित्व रहता है उसी देश में घट के अन्य गुण भी रहते हैं। घट रूप गुणी के देश की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद नहीं। ___ संसर्ग-जिस प्रकार अस्तित्व गुण का घट से संसर्ग है उसी प्रकार अन्य गुणों का भी घट से संसर्ग है। इसलिए संसर्ग की दृष्टि से देखने पर अस्तित्व और इतरगुणों में कोई भेद दृष्टि Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ सापेक्षवाद गोचर नहीं होता। संसर्ग में भेद की प्रधानता होती है और अभेद की अप्रधानता । सम्बन्ध में अभेद की प्रधानता होती है और भेद की अप्रधानता। शब्द-जिस प्रकार अस्तित्व का प्रतिपादन 'है' शब्द द्वारा होता है उसी प्रकार अन्य गुणों का प्रतिपादन भी 'है' शब्द से होता है। 'घट में अस्तित्व है', 'घट में कृष्णत्व है', 'घट में कठिनत्व है' इन सब वाक्यों में 'है' शब्द घट के विविध धर्मो को प्रकट करता है। जिस 'है' शब्द से अस्तित्व का प्रतिपादन होता है उसी 'है' शब्द से कृष्णत्व, कठिनत्व आदि धर्मों का भी प्रतिपादन होता है। अतः शब्द की दृष्टि से भी अस्तित्व और अन्य धर्मों में अभद है । अस्तित्व की तरह प्रत्येक धर्म को लेकर सकलादेश का संयोजन किया जा सकता है। ___ सकलादेश के आधार पर जो सप्तभंगी बनती है उसे प्रमाणसप्तभगी कहते हैं । विकलादेश की दृष्टि से जो सप्तभंगी बनती है वह नयसप्तभंगी है । सप्तभंगी क्या है ? एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध की विकल्पना सप्तभगी है।' प्रत्येक वस्तु में कोई भी धर्म विधि और निषेध उभयस्वरूप वाला होता है, यह हम देख चुके हैं। जब हम अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं तब नास्तित्व भी निषेधरूप से हमारे सामने उपस्थित हो जाता है । जब हम सत् का प्रतिपादन करते हैं तब असत् भी सामने आ जाता है। जब हम नित्यत्व का कथन करते हैं तब अनित्यत्व भी निषेधरूप से सम्मुख उपस्थित हो जाता है। किसी भी वस्तु के विधि और निषेधरूप दो पक्ष वाले धर्म का विना विरोध के प्रतिपादन करने से जो सात १. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी। -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १.६.५. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ जैन धर्म-दर्शन प्रकार के विकल्प बनते हैं वह सप्तभगी है । विधि और निषेधरूप धर्मों का वस्तु में कोई विरोध नहीं है। दोनों पक्ष एक ही वस्तु में अविरोधरूप से रहते हैं। यह दिखाने के लिए 'अविरोधपूर्वक' अंश का प्रयोग किया गया है । घट के अस्तित्व धर्म को लेकर जो सप्तभंगी बनती है वह इस प्रकार है : - १. कथंचित् घट है। २. कथंचित् घट नहीं है। — ३. कथंचित् घट है और नहीं है । ४. कथंचित् घट अवक्तव्य है। ५. कथंचित घट है और अवक्तव्य है। ६. कथंचित् घट नहीं है और अवक्तव्य है । ७. कथंचित् घट है, नहीं है और अवक्तव्य है। प्रथम भंग विधि की कल्पना के आधार पर है। इसमें घट के अस्तित्व का विधिपूर्वक प्रतिपादन है। दूसरा भंग प्रतिषेध की कल्पना को लिये हुए है। जिस अस्तित्व का प्रथम भंग में विधिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है उसी का इसमें निषेधपूर्वक प्रतिपादन है। प्रथम भंग में विधि की स्थापना की गई है। दूसरे में विधि का प्रतिषेध किया गया है। तीसरा भंग विधि और निषेध दोनों का क्रमशः प्रतिपादन करता है। पहले विधि का ग्रहण करता है और बाद में निषेध का । यह भंग प्रथम और द्वितीय दोनों भंगों का संयोग है। __चौथा भंग विधि और निषेध का युगपत् प्रतिपादन करता ___ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३७६ है। दोनों का युगपत् प्रतिपादन होना वचन के सामर्थ्य के बाहर है, अत: इस भंग को अवक्तव्य कहा गया है। पाँचवाँ भंग विधि और युगपत् विधि और निषेध दोनों का प्रतिपादन करता है। प्रथम और चतुर्थ के संयोग से यह भंग बनता है। छठे भंग में निषेध और युगपत् विधि और निषेध दोनों का कथन है । यह भंग द्वितीय और चतुर्थ का संयोग है। सातवाँ भंग क्रम से विधि और निषेध और युगपत् विधि और निषेध का प्रतिपादन करता है। यह तृतीय और चतुर्थ भंग का संयोग है। प्रत्येक भंग को निश्चयात्मक समझना चाहिए, अनिश्चयात्मक या सन्देहात्मक नहीं। इसके लिए कई बार 'ही' (एव) का प्रयोग भी होता है, जैसे कथंचित् घट है ही आदि । यह 'ही' निश्चित रूप से घट का अस्तित्व प्रकट करता है। 'ही' का प्रयोग न होने पर भी प्रत्येक कथन को निश्चयात्मक ही समझना चाहिए। स्याद्वाद सन्देह या अनिश्चय का समर्थक नहीं है, यह पहले कहा जा चुका है। चाहे 'ही' का प्रयोग हो, चाहे न हो, किन्तु यदि कोई वचन-प्रयोग स्याद्वाद-सम्बन्धी है तो यह निश्चित है कि वह 'ही' पूर्वक ही है। इसी प्रकार कथंचित् या स्यात् शब्द के विषय में भी समझना चाहिए। उनका प्रयोग न होने पर भी सन्दर्भ से वह समझ लिया जाता है।' १. अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते । विधी निषेधेऽप्यन्यत्र कुशलश्चेत् प्रयोजकः ।। -~-लघीयस्त्रय, ६३. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जैन धर्म-दर्शन __'कथंचित् घट है' इसका क्या अर्थ है ? किस अपेक्षा से घट है ? स्वरूप की अपेक्षा से घट है और पररूप की अपेक्षा से घट नहीं है। सब स्वरूप की अपेक्षा से है और पररूप की अपेक्षा से नहीं है । यदि ऐसा न हो तो सब सत् हो जाए अथवा स्वरूप की कल्पना ही असम्भव हो जाए।' कोई भी पदार्थ स्वरूप की दृष्टि से सत् है और पररूप की दृष्टि से असत् है । यदि वह एकान्त रूप से सत् हो तो सर्वत्र और सर्वदा उपलब्ध होना चाहिए, क्योंकि वह हमेशा सत् है। जो हमेशा सत् होता है वह कदाचित् नहीं होता। स्वरूप क्या है और पररूप क्या है, इसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। हम कुछ दृष्टियों से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि स्वरूप और पररूप का क्या अभिप्राय है ? स्वरूप से क्या समझना चाहिए? पररूप का क्या अर्थ लेना चाहिए? नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से जिसकी विवक्षा होती है वह स्वरूप या स्वात्मा है। वक्ता के प्रयोजन के अनुसार अर्थ का ग्रहण करना स्वात्मा का ग्रहण कहलाता है। यह प्रयोजन भाषा के विविध प्रयोगों में झलकता है। एक शब्द प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रत्येक शब्द का मोटे तौर पर चार अर्थों में विभाग किया जाता है। इसी अर्थविभाग को न्यास कहते हैं। ये विभाग हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। सामान्य तौर पर किसी का एक नाम रख देना नामनिक्षेप है। मूर्ति, चित्र आदि स्थापनानिक्षेप है। भूत या भविष्यत् काल में रहने वाली योग्यता का वर्तमान १. सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ सापेक्षवाद में आरोप करना द्रव्यनिक्षेप है। वर्तमानकालीन योग्यता का निर्देश भावनिक्षेप है। इन चारों निक्षेपों में रहने वाला जो विवक्षित अर्थ है वह स्वरूप अथवा स्वात्मा कहलाता है। स्वात्मा से भिन्न अर्थ परात्मा या पररूप है। विवक्षित अर्थ की दृष्टि से घट है और तदितर दृष्टि से घट नहीं है। यदि इतर दृष्टि से भी घट हो तो नामादि व्यवहार (निक्षेप) का उच्छेद हो जाय । स्वरूप का दूसरा अर्थ यह है कि विवक्षित घटविशेष का जो प्रतिनियत संस्थानादि है वह स्वात्मा है । दूसरे प्रकार का संस्थानादि परात्मा है । प्रतिनियत रूप से घट है । इतर रूप से नहीं। यदि इतर रूप से भी घट हो तो सब घटात्मक हो जाय । पट आदि किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व न रहे। काल की अपेक्षा से भी स्वात्मा और परात्मा का अर्थग्रहण होता है। घट की पूर्व और उत्तर कालों में रहने वाली कुशल, कपालादि अवस्थाएं परात्मा है। तदन्तरालवर्ती अवस्था स्वारमा है। घट कुशूल, कपालादि की अन्तरालवर्ती अवस्था की दृष्टि से सत् है, कुशूल, कपालादि अवस्थाओं की दृष्टि से सत् नहीं है । यदि इन अवस्थाओं की दृष्टि से भी सत् होता तो उस समय ये भी उपलब्ध होतीं। कपालादि अवस्थाओं के लिए पुरुष को प्रयत्न न करना पड़ता। __ स्वात्मा और परात्मा का एक अर्थ यह भी है कि प्रतिक्षणभावी द्रव्य की जो पर्यायोत्पत्ति है वह स्वात्मा है और अतीत एवं अनागत पर्यायविनाश तथा पर्यायोसत्ति है वह परात्मा है। प्रत्युत्पन्न पर्याय की अपेक्षा से घट है और अतीत एवं अनागत पर्यायों की अपेक्षा से घट नहीं है। यदि अतीत एवं अनागत पर्यायों की अपेक्षा से घट सत् हो तो एक ही Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैन धर्म-दर्शन क्षण में घट की सारी अवस्थाएं उपलब्ध हो जाए। ऐसी अवस्था में अतीत, वर्तमान और अनागत का कोई भेद ही न रहे। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से स्वरूप और पररूप का विवेचन करना अनुचित न होगा। यद्यपि ऊपर के विवेचन में इनका समावेश हो जाता है तथापि विशेष स्पष्टीकरण के लिए यह उपयोगी होगा। घट का द्रव्य मिट्टी है । जिस मिट्टी से घट बना है उसकी अपेक्षा से वह सत् है। अन्य द्रव्य की अपेक्षा से वह सत् नहीं है। क्षेत्र का अर्थ स्थान है। जिस स्थान पर घट है उस स्थान की अपेक्षा से वह सत् है। अन्य स्थानों की अपेक्षा से वह असत् है। काल के विषय में कहा जा चुका है। जिस समय घट है उस समय की अपेक्षा से वह सत् है और उस समय से भिन्न समय की अपेक्षा से असत् है। भाव का अर्थ है पर्याय या आकारविशेष । जिस आकार या पर्याय का घट है उसकी अपेक्षा से वह सत् है । तदितर आका-: रों या पर्यायों की अपेक्षा से वह असत् है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से घट है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से घट नहीं है। कथंचित् या स्यात् शब्द का प्रयोग यही सूचित करने के लिए है। इससे प्रत्येक पदार्थ की मर्यादा का ज्ञान होता है। उसकी सीमा का पता लगता है। इसके अभाव में एकान्तवाद का भय रहता है । अनेकान्तवाद के लिए यह मर्यादा अनिवार्य है। दोष-परिहार : स्याद्वाद का क्या अर्थ है व उसका दर्शन के क्षेत्र में कितना महत्त्व है, यह दिखाने का यथासम्भव प्रयत्न किया गया है। अब हम स्यावाद पर आने वाले कुछ आरोपों का निराकरण Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३८३ 1 करना चाहते हैं । स्याद्वाद के वास्तविक अर्थ से अपरिचित बड़े-बड़े दार्शनिक भी उस पर मिथ्या आरोप लगाने से नहीं चूके । उन्होंने अज्ञानवश ऐसा किया या जानकर, यह कहना कठिन है । कैसे भी किया हो, किन्तु किया अवश्य । धर्मकीर्ति नेस्याद्वाद को पागलों का प्रलाप कहा और जैनों को निर्लज्ज ' बताया । शान्तरक्षित ने भी यही बात कही । स्याद्वाद जो कि सत् और असत्, एक और अनेक, भेद और अभेद, सामान्य और विशेष जैसे परस्पर विरोधी तत्त्वों को मिलाता है, पागल व्यक्ति की बौखलाहट है । इसी प्रकार शंकर ने भी स्याद्वाद पर पागलपन का आरोप लगाया । एक ही श्वास उष्णऔर शीत नहीं हो सकता । भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, यथार्थता और अयथार्थता, सत् और असत् अन्धकार और प्रकाश की तरह एक ही काल में एक ही वस्तु में नहीं रह सकते । इसी प्रकार के अनेक आरोप स्याद्वाद पर लगाये गये हैं । जितने आरोप लगाये गये हैं अथवा लगाये जा सकते हैं उन सब का हम एक-एक करके निराकरण करने का प्रयत्न करेंगे । १. विधि और निषेध परस्पर विरोधी धर्म हैं । जिस प्रकार एक ही वस्तु नील और अनील दोनों नहीं हो सकती, क्योंकि नीलत्व और : अनीलत्व विरोधी वर्ण हैं, उसी प्रकार विधि और निषेध परस्पर विरोधी होने से एक ही वस्तु में नहीं रह सकते । इसलिए यह कहना विरोधी है कि एक ही वस्तु भिन्न १. प्रमाणवार्तिक, १.१८२-१८५. २. तत्त्वसंग्रह, ३११-३२७. ३. शारीरकभाष्य २.३.३३. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैन धर्म-दर्शन भी है और अभिन्न भी है, सत् भी है और असत् भी हैं, वाच्य भी है और अवाच्य भी है। जो भिन्न हैं वह अभिन्न कैसे हो सकती है। जो एक है वह एक ही है, जो अनेक हैं वह अनेक ही है। इसी प्रकार अन्य धर्म भी पारस्परिक विरोध सहन नहीं कर सकते । स्याद्वाद इस प्रकार के विरोधी धर्मों का एकत्र समर्थन करता है । इसलिए वह सदोष हैं । यह दोषारोपण मिथ्या है। प्रत्येक पदार्थं अनुभव के आधार पर इसी प्रकार का सिद्ध होता है। एक दृष्टि से वह नित्य प्रतीत होता है और दूसरी दृष्टि से अनित्य । एक दृष्टि से एक मालूम होता है और दूसरी दृष्टि से अनेक । स्याद्वाद यह नहीं कहता कि जो नित्यता है वही अनित्यता है या जो एकता है वही अनेकता है । नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता आदि धर्म परस्पर विरोधी हैं यह सत्य है, किन्तु उनका विरोध अपनी दृष्टि से है, वस्तु की दृष्टि से नहीं । वस्तु दोनों को आश्रय देती है। दोनों की सत्ता से ही वस्तु का स्वरूप पूर्ण होता है। एक के अभाव में पदार्थ अधूरा है । जब एक वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य मालूम होती है तो उसमें विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं है । विरोध वहाँ होता है जहाँ विरोध की प्रतीति हो । विरोध की प्रतीति के अभाव में भी विरोध की कल्पना करना सत्य को चुनौती देना है। जैन ही नहीं, बौद्ध भी चित्रज्ञान में विरोध नहीं मानते । जब एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास हो सकता है और उस ज्ञान में विरोध नहीं होता तो एक ही पदार्थ में दो विरोधी धर्मों की सत्ता मानने में क्या हानि है ? नैयायिक चित्रवर्ण की सत्ता मानते ही हैं । एक ही वस्त्र में संकोच और विकास हो सकता है, एक ही वस्त्र रक्त Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३८५ और अरक्त हो सकता है, एक ही वस्त्र पिहित और अपिहित हो सकता है, ऐसी दशा में एक ही पदार्थ में भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता की सत्ता क्यों विरोधी है, यह समझ में नहीं आता। इसलिए स्याद्वाद पर यह आरोप लगाना कि वह परस्पर विरोधी धर्मो को एकत्र आश्रय देता है, मिथ्या है। स्याद्वाद प्रतीति को यथार्थ मानकर ही आगे बढ़ता है। प्रतीति में जैसा प्रतिभास होता है और जिसका दूसरी प्रतीति से खण्डन नहीं होता वही निर्णय यथार्थ है-अव्यभिचारी है-अविरोधी है। २. यदि वस्तु भेद और अभेद उभयात्मक है तो भेद का आश्रय भिन्न होगा और अभेद का आश्रय उससे भिन्न । ऐसी दशा में वस्तु की एकरूपता समाप्त हो जायगी। एक ही वस्तु द्विरूप हो जायगी। यह दोष भी निराधार है। भेद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्रय मानने की कोई आवश्यकता नहीं । जो वस्तु भेदात्मक है वही वस्तु अभेदात्मक है। उसका जो परिवर्तन धर्म है वह भेद की प्रतीति का कारण है। उसका जो ध्रौव्य धर्म है वह अभेद की प्रतीति का कारण है। ये दोनों धर्म अखण्ड वस्तु के धर्म हैं । ऐसा कहना ठीक नहीं कि वस्तु का एक अंश भेद या परिवर्तन धर्मवाला है और दूसरा अंश अभेद या ध्रौव्य धर्मयुक्त है। वस्तु के टुकड़े-टुकड़े करके अनेक धर्मों की सत्ता स्वीकार करना स्याहादी को इप्ट नहीं। जब हम वस्त्र को संकोच और विकासशील कहते हैं तब हमारा तात्पर्य एक ही वस्त्र से होता है। वही वस्त्र संकोचशाली होता है और वही विकासशाली। यह नहीं कि उसका एक हिस्सा संकोच धर्मवाला है और दूसरा हिस्सा विकास धर्मवाला है । वस्तु के दो २५ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जैन धर्म-दर्शन अलग-अलग विभाग करके भेद और अभेदरूप दो भिन्न-भिन्न धर्मों के लिए दो भिन्न-भिन्न आश्रयों की कल्पना करना स्याद्वाद की मर्यादा से बाहर है। वह तो एकरूप वस्तु को ही अनेक धर्मयुक्त मानता है । ३. वह धर्म जिसमें भेद की कल्पना की जाती है और वह धर्म जिसमें अभेद को स्वीकार किया जाता है, दोनों का क्या सम्बन्ध होगा ? दोनों परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न ? भिन्न मानने पर पुनः यह प्रश्न उठता है कि वह भेद जिसमें रहता हैं उससे वह भिन्न है या अभिन्न ? इस प्रकार अनवस्था का सामना करना पड़ेगा। अभिन्न मानने पर भी यही दोष आता है । यह अभेद जिसमें रहेगा वह उससे भिन्न है या अभिन्न ? दोनों अवस्थाओं में पुनः सम्बन्ध का प्रश्न खड़ा होता है । इस प्रकार किसी भी अवस्था में अनवस्था से मुक्ति नहीं मिल सकती । अनवस्था के नाम पर यह दोष भी स्याद्वाद के सिर पर नहीं मढ़ा जा सकता । जैन दर्शन यह नहीं मानता कि भेद अलग है और वह भेद जिसमें रहता है वह धर्म अलग है । इसी प्रकार जैन दर्शन यह भी नहीं मानता कि अभेद भिन्न है और अभेद जिसमें रहता है वह धर्म उससे भिन्न हैं । वस्तु के परि वर्तनशील स्वभाव को ही भेद कहते हैं और उसके अपरिवर्तनशील स्वभाव का नाम ही अभेद है । भेद नामक कोई भिन्न पदार्थ आकर उससे सम्बन्धित होता हो और उसके सम्बन्ध से वस्तु में भेद की उत्पत्ति होती हो, यह बात नहीं है। इसी प्रकार अभेद भी कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है जो किसी सम्बन्ध से वस्तु में रहता हो। वस्तु स्वयं ही भेदाभेदात्मक है। ऐसी दशा में इस प्रकार के सम्बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठता। जब Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३८७ सम्बन्ध का प्रश्न ही व्यर्थ है तब अनवस्था दोष की व्यर्थता स्वतः सिद्ध है, यह कहने की आवश्यकता नहीं । ४. जहाँ भेद है वहीं अभेद है और जहाँ अभेद है वहीं भेद है । भेद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्रय न होने से दोनों एकरूप हो जाएंगे । भेद और अभेद की एकरूपता का अर्थ होगा संकर दोष । स्याद्वाद को संकर दोष का सामना तब करना पड़ता जब भेद अभेद हो जाता । आश्रय एक होने का अर्थ यह नहीं होता कि आश्रित भी एक हो जायँ । एक ही आश्रय में अनेक आश्रित रह सकते हैं। एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास होता है' फिर भी सब वर्ण एक नहीं हो जाते । एक ही वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों रहते हैं फिर भी सामान्य और विशेष एक नहीं हो जाते । भेद और अभेद का आश्रय एक ही पदार्थ है, किन्तु वे दोनों एक नहीं हैं । यदि एक होते तो एक ही की प्रतीति होती, दोनों की नहीं । जब दोनों की भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीति होती है तब उन्हें एकरूा कैसे कहा जा सकता है ? वे ५. जहाँ भेद है वहाँ अभेद भी है और जहाँ अभेद है वहाँ भेद भी है । दूसरे शब्दों में, जो भिन्न है वह अभिन्न भी है और जो अभिन्न है वह भिन्न भी है। भेद और अभेद दोनों परस्पर बदले जा सकते हैं । इसका परिणाम यह होगा कि स्याद्वाद को व्यतिकर दोष का सामना करना पड़ेगा । जिस प्रकार संकर दोष स्याद्वाद पर नहीं लगाया जा सकता उसी प्रकार व्यतिकर दोष भी स्याद्वाद का कुछ नहीं बिगाड़ १. बौद्ध. २. तैयायिक - वैशेषिक. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जैन धर्म-दर्शन सकता । दोनों धर्म स्वतन्त्र रूप से वस्तु में रहते हैं और उनकी प्रतीति उभयरूप से होती है। ऐसी दशा में व्यतिकर दोष की कोई सम्भावना नहीं । जब भेद की प्रतीति स्वतन्त्र है और अभेद की स्वतन्त्र तव भेद और अभेद के परिवर्तन की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसी स्थिति में व्यतिकर दोष का कोई अर्थ नहीं । भेद का भेदरूप से और अभेद का अभेदरूप से ग्रहण करना - यही स्याद्वाद का अर्थ है । अतः यहाँ व्यतिकर जैसी कोई चीज ही नहीं है । ६. तत्त्व भेदाभेदात्मक होने से किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होने पायेगा । जहाँ किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा वहाँ संशय उत्पन्न हो जायेगा, और जहाँ संशय होगा वहाँ तत्त्व का ज्ञान ही नहीं होगा । यह दोष भी व्यर्थ है । भेदाभेदात्मक तत्त्व का भेदाभेदात्मक ज्ञान होना संशय नहीं है । संशय तो वहाँ होता है जहाँ यह निर्णय न हो कि तत्त्व भेदात्मक है या अभेदात्मक है या भेद और अभेद उभयात्मक है ? जब यह निर्णय हो रहा है कि तत्त्व भेद और अभेद उभयात्मक है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा ? जहाँ निश्चित धर्म का निर्णय है वहाँ संशय पैदा नहीं हो सकता । जहाँ संशय नहीं वहाँ तत्त्वज्ञान होने में कोई बाधा नहीं । इसलिए संशयाश्रित जितने भी दोष हैं, स्याद्वाद के लिए सब निरर्थक हैं | ये दोष स्याद्वाद पर नहीं लगाए जा सकते । ७. स्याद्वाद एकान्तवाद के बिना नहीं रह सकता । स्याद्वाद कहता है कि प्रत्येक वस्तु या धर्म सापेक्ष है। सापेक्ष धर्मों के मूल में जब तक कोई ऐसा तत्त्व न हो जो सब धर्मों को एक सूत्र में बाँध सके तब तक वे धर्म टिक ही नहीं सकते। उनको Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३८६ एकता के सूत्र में बाँधने वाला कोई-न-कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए जो स्वयं निरपेक्ष हो । ऐसे निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता मानने पर स्याद्वाद का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है, खण्डित हो जाता है । स्याद्वाद जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही देखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है । सब पदार्थों या धर्मों में एकता है, इसे स्याद्वाद मानता है । भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद मानना स्याद्वाद को अभीष्ट है । स्याद्वाद यह नहीं कहता कि अनेक धर्मो में कोई एकता नहीं है । विभिन्न वस्तुओं को एक सूत्र में बांधने वाला अभेदात्मक तत्त्व अवश्य है, किन्तु ऐसे तत्त्व को मानने का यह अर्थ नहीं कि स्याद्वाद एकान्तवाद हो गया । स्याद्वाद एकान्तवाद तब होता जब वह भेद का खण्डन करता - अनेकता का तिरस्कार करता । अनेकता में एकता मानना स्याद्वाद को प्रिय है, किन्तु अनेकता का निषेध करके एकता को स्वीकार करना उसकी मर्यादा से बाहर है | 'सर्वमेकं सदविशेषात' अर्थात् सब एक है, क्योंकि सब सत् है - इस सिद्धान्त को मानने के लिए स्याद्वाद तैयार है, किन्तु अनेकता का निषेध करके नहीं अपितु उसे स्वीकार करके । एकान्तवाद अनेकता का निषेध करता है - अनेकता को अयथार्थ मानता है-भेद को मिथ्या कहता है, जब कि अनेकान्तवाद एकता के साथ-साथ अनेकता को भी यथार्थ मानता है । एकतामूलक यह तत्त्व एकान्तरूप से निरपेक्ष है, यह नहीं कहा जा सकता । एकता अनेकता के बिना नहीं रह सकती और अनेकता एकता के अभाव में नहीं रह सकती । एकता और अनेकता इस प्रकार मिली हुई हैं कि एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में एकता को सर्वथा निरपेक्ष कहना युक्तियुक्त नहीं । एकता अनेकताश्रित है और अनेकता - Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैन धर्म-दर्शन एकताश्रित है। दोनों एक-दूसरे की अपेक्षा रखती हैं। एकता के बिना अनेकता का काम नहीं चल सकता और अनेकता के बिना एकता कुछ नहीं कर सकती । तत्त्व एकता और अनेकता दोनों का मिला-जुला रूप है । उसे न तो एकान्तरूप से एक कह सकते हैं और न एकान्ततः अनेक। वह एक भी है और अनेक भी। इसलिए एकता को वास्तविक मानते हुए भी स्याद्वाद को एकान्तवाद या निरपेक्षवाद का कोई भय नहीं है । ८. यदि प्रत्येक वस्तु कथंचित् यथार्थ है और कथंचित् अयथार्थं तो स्याद्वाद स्वयं भी कथंचित् सत्य होगा और कथंचित् मिथ्या । ऐसी स्थिति में स्याद्वाद ही से तत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो सकता है, यह कैसे कहा जा सकता है ? स्याद्वाद तत्त्व का विश्लेषण करने की एक दृष्टि है | अनेकान्तात्मक तत्त्व को अनेकान्तात्मक दृष्टि से देखने का नाम ही स्याद्वाद है । जो वस्तु जिस रूप में यथार्थ है उसे उस रूप में यथार्थ मानना और तदितर रूप में अयथार्थ मानता स्याद्वाद है । स्याद्वाद स्वयं भी यदि किसी रूप में अयथार्थ या मिथ्या है तो वैसा मानने में कोई हर्ज नहीं । यदि हम एकान्तवादी दृष्टिकोण लें और स्याद्वाद की ओर देखें तो वह भी मिथ्या प्रतीत होगा । अनेकान्न दृष्टि से देखने पर स्याद्वाद सत्य प्रतीत होगा । दोनों दृष्टियों को सामने रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि स्याद्राद कथंचित् मिथ्या है अर्थात् एकान्तदृष्टि की अपेक्षा से मिथ्या है और कथंचित् सत्य है अर्थात् अनेकान्तदृष्टि hi अपेक्षा से सत्य है । जिसका जिस दृष्टि से जैसा प्रतिपादन हो सकता है उस दृष्टि से वैसा प्रतिपादन करने के लिए स्याद्वाद तैयार है। इसमें उसका कुछ नहीं बिगड़ता । जब हम यह कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६१ तो हम यह भी कह सकते हैं कि स्याद्वाद स्वरूप से अर्थात् अनेकान्तरूप से सत् है - यथार्थ है और पररूप से अर्थात् एकान्तरूप से असत् है - अयथार्थ है । हमारा यह कथन भी स्याद्वाद ही है । दूसरे शब्दों में, स्याद्वाद को कथंचित् यथार्थ और कथंचित् अयथार्थ कहना भी स्याद्वाद ही है । ६. सप्तभंगी के पीछे के तीन भंग व्यर्थ हैं, क्योंकि वे केवल दो भंगों के योग से बनते हैं । इस प्रकार के योग से ही संख्या बढ़ाना हो तो सात क्या अनन्त भंग बन सकते हैं । यह हम पहले ही कह चुके हैं कि मूलतः एक धर्म को लेकर दो पक्ष बनते हैं - विधि और निषेध । प्रत्येक धर्म का या तो विधान होगा या प्रतिषेध । ये दोनों भंग मुख्य हैं। बाकी के भङ्ग विवक्षाभेद से बनते हैं। तीसरा और चौथा ये दोनों भंग भी स्वतन्त्र नहीं हैं । विधि और निषेध की क्रम से विवक्षा होने पर तीसरा भङ्ग बनता है और युगपत् विवक्षा होने पर चौथा भङ्ग बनता है। इसी प्रकार विधि की और युगपत् विधि और निषेध को विवक्षा होने पर पाचवाँ भङ्ग बनता है । आगे के भङ्गों का भी यही क्रम है । यह ठीक है कि जैनाचार्यों ने सात भङ्गों पर ही जोर दिया, और सात भङ्ग ही क्यों होते हैं, कम या अधिक क्यों नहीं होते, इसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतु भी दिए, किन्तु जैन दर्शन की मूल समस्या सात की नहीं, दो की है। बौद्ध दर्शन और वेदान्त में जिन चार कोटियों पर भार दिया जाता है वह भी सप्तभङ्गी की तरह ही है । उसमें भी मूल रूप में दो ही कोटियाँ हैं । तीसरी और चौथी कोटि में मौलिकता नहीं है । कोई यह कह सकता है कि दो भङ्गों को भी मुख्य क्यों माना जाय, एक ही भङ्ग मुख्य है । यह ठीक नहीं, क्योंकि हम यह देख चुके हैं Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन धर्म-दर्शन कि वस्तु न तो सर्वथा सत् या विध्यात्मक हो सकती है, न सर्वथा असत्या निषेधात्मक । विधि और निषेध दोनों रूपों में वस्तु की पूर्णता रही हुई है। न तो विधि निषेध से बलवान् है और न निषेध विधि से शक्तिशाली है । दोनों समान रूप से वस्तु का यथार्थता के प्रति कारण हैं । वस्तु का पूर्ण रूप देखने के लिए दोनों पक्षों की सत्ता मानना आवश्यक है । इसलिए पहले के दो भङ्ग मुख्य हैं। हाँ, यदि कोई ऐसा कथन हो जिसमें विधि और निषेध का समान रूप से प्रतिनिधित्व हो, दोनों में से किसी का भी निषेध न हो, तो उसको मुख्य मानने में जैन दर्शन को कोई आपत्ति नहीं । वस्तु का विश्लेषण करने पर प्रथम दो भङ्ग अवश्य स्वीकार करने पड़ते हैं । विवक्षाभेद से २३ भङ्गों की रचना भगवतीसूत्र में पहले देख ही चुके हैं । १०. स्याद्वाद को मानने वाले केवलज्ञान की सत्ता में विश्वास नहीं रख सकते, क्योंकि केवलज्ञान एकान्त रूप से पूर्ण होता है । उसकी उत्पत्ति के लिए बाद में किसी की अपेक्षा नहीं रहती । स्याद्वाद और केवलज्ञान में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से कोई भेद नहीं है । केवली वस्तु को जिस रूप से जानेगा, स्याद्वादी भी उसे उसी रूप से जानेगा । अन्तर यह है कि केवली जिस तत्त्व को साक्षात् जानेगा - प्रत्यक्ष ज्ञान से जानेगा, स्याद्वादी छद्मस्थ उसे परोक्ष रूप से जानेगा - श्रुतज्ञान के आधार से जानेगा । केवलज्ञान पूर्ण होता है, इसका अर्थ यही है कि वह साक्षात् आत्मा से होता है और उस ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा की सम्भावना नहीं है । पूर्णता का यह अर्थ नहीं कि वह एकान्तवादी हो गया । तत्त्व को तो वह सापेक्ष - अनेकान्तात्मक रूप में ही देखेगा। इतना ही नहीं, उसमें उत्पाद, व्यय और धौव्य Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६३ ये तीनों धर्म रहते हैं । काल जैसे पदार्थ मे परिवर्तन करता है वैसे ही केवलज्ञान में भी परिवर्तन करता है । जैन दर्शन केवलज्ञान को कूटस्थ नित्य नहीं मानता । किसी वस्तु की भूत, वर्त - मान और अनागत- ये तीन अवस्थाएं होती है । जो अवस्था आज अनागत है वह कल वर्तमान होती है । जो आज वर्तमान है वह कल भूत में परिणत होती है । केवलज्ञान आज की तीन प्रकार की अवस्थाओं को आज की दृष्टि से जानता है । कल का जानना आज से भिन्न हो जाएगा, क्योकि आज जो वर्तमान है कल वह भूत होगा और आज जो अनागत है कल वह वर्तमान होगा। यह ठीक है कि केवली तीनों कालों को जानता है, किन्तु जिस पर्याय को उसने कल भविष्यत् रूप से जाना था उसे आज वर्तमान रूप से जानता है । इस प्रकार काल-भेद से केवली के ज्ञान में भी भेद आता रहता है । वस्तु की अवस्था के परिवर्तन के साथ-साथ ज्ञान की अवस्था भी बदलती रहती है । इसलिए केवलज्ञान भी कथंचित् अनित्य है और कथंचित् नित्य । स्याद्वाद और केवलज्ञान में विरोध की कोई सम्भावना नहीं । महावीर ने केवलज्ञान होने के पहले चित्र-विचित्र पंख - वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखा । इस स्वप्न का विश्लेषण करने पर स्याद्वाद फलित हुआ । पुंस्कोकिल के चित्र-विचित्र पंख अनेकान्तवाद के प्रतीक हैं । जिस प्रकार जैन दर्शन में वस्तु की अनेकरूपता की स्थापना स्याद्वाद के आधार पर की गई उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में विभज्यवाद के नाम पर इसी प्रकार का अंकुर प्रस्फुटित हुआ किन्तु उचित मात्रा में पानी और हवा न मिलने के कारण वह मुरझा गया और अन्त में नष्ट हो गया । स्याद्वाद को समय-समय पर उपयुक्त सामग्री मिलती रही जिससे वह आज दिन तक बराबर बढ़ता रहा । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैन धर्म-दर्शन भेदाभेदवाद, सदसद्वाद, नित्यानित्यवाद, निर्वचनीयानिर्वचनीयवाद, एकानेकवाद, सदसत्कार्यवाद आदि जितने भी दार्शनिक वाद हैं, सबका आधार स्याद्वाद है । जैन दर्शन के आचार्यों ने इस सिद्धान्त की स्थापना का युक्तिसंगत प्रयत्न किया । आगमों में इसका काफी विकास दिखाई देता है । जैन दर्शन में स्याद्वाद का इतना अधिक महत्त्व है कि आज स्याद्वाद जैन दर्शन का पर्याय बन गया है । जैन दर्शन का अर्थ स्याद्वाद के रूप में लिया जाता है । जहाँ जैन दर्शन का नाम आता है, अन्य सिद्धान्त एक ओर रह जाते हैं और स्याद्वाद या अनेकान्तवाद याद आ जाता है । वास्तव में स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है । जैन आचार्यों के सारे दार्शनिक चिन्तन का आधार स्याद्वाद है । नयवाब: श्रुत के दो उपयोग होते हैं-सकलादेश और विकलादेश सकलादेश को प्रमाण या स्याद्वाद कहते हैं । विकलादेश को नय कहते हैं । धर्मान्तर की अविवक्षा से एक धर्म का कथन विकलादेश कहलाता है । स्याद्वाद या सकलादेश द्वारा सम्पूर्ण वस्तु का कथन होता है। नय अर्थात् विकलादेश द्वारा वस्तु के एक देश का कथन होता है । सकलादेश में वस्तु के समस्त धर्मों की विवक्षा होती है । विकलादेश में एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों की विवक्षा नहीं होती । विकलादेश इसीलिए सम्यक् माना जाता है कि वह अपने विवक्षित धर्म के अतिरिक्त जितने भी धर्म हैं उनका प्रतिषेध नहीं करता अपितु उन धर्मों के प्रति उसका उपेक्षाभाव होता है । शेष धर्मों से उसका कोई प्रयोजन नहीं होता । प्रयोजन के अभाव में वह उन धर्मों का न तो विधान करता है और न निषेध | सकलादेश और विकलादेश Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६५ दोनों की दष्टि में साकल्य और वैकल्य का अन्तर है। सकलादेश की विवक्षा सकल धर्मों के प्रति है, जब कि विकलादेश की विवक्षा विकल धर्म के प्रति है। यद्यपि दोनों यह जानते हैं कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है-अनेकान्तात्मक है. किन्तु दोनों के कथन की मर्यादा भिन्न-भिन्न है। एक का कथन वस्तु के सभी धर्मो का ग्रहण करता है, जब कि दूसरे का कथन वस्तु के एक धर्म तक ही सीमित है। अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन की दो प्रकार की मर्यादा के कारण स्याद्वाद और नय का भिन्न-भिन्न निरूपण है । स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश है ।' द्रव्याथिक एवं पर्यायाथिक दृष्टि : वस्तु के निरूपण की जितनी भी दृष्टियाँ हैं, दो दृष्टियों में विभाजित की जा सकती हैं। वे दो दृष्टियाँ हैं द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । द्रव्याथिक दृष्टि में सामान्य या अभेदमूलक समस्त दृष्टियों का समावेश हो जाता है। विशेष या भेदमूलक जितनी भी दृष्टियाँ हैं, सब का समावेश पर्यायार्थिक दृष्टि में हो जाता है। आचार्य सिद्धसेन ने इन दोनों दृष्टियों का समर्थन करते हुए कहा कि भगवान् महावीर के प्रवचन में मूलतः दो ही दृष्टियाँ हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । शेष सभी दृष्टियाँ इन्हीं की शाखा-प्रशाखाएँ हैं। महावीर का इन दो दृष्टियों से क्या अभिप्राय है, यह भी आगमों को देखने से स्पष्ट हो जाता है । भगवतीसूत्र में नारक जीवों की शाश्वतता और अशाश्वतता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि अव्युच्छित्तिनय की १. स्याद्वादः सकलादेशो न यो विकलसंकथा । . ~लघीयस्त्रय, ३.६.६२. २. सन्मतितकं प्रकरण, १.३. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन धर्म-दर्शन अपेक्षा से नारक जीव शाश्वत है और व्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है । " अव्युच्छित्तिनय द्रव्यार्थिक दृष्टि का ही नाम है । द्रव्यदृष्टि से देखने पर प्रत्येक पदार्थ नित्य मालूम होता है । इसीलिए द्रव्यार्थिक दृष्टि अभेदगामी है - सामान्यमूलक है - अन्वयपूर्वक है । व्युच्छित्तिनय का दूसरा नाम है पर्यायार्थिक दृष्टि । पर्यायदृष्टि से देखने पर वस्तु अनित्य मालूम होती है- अशाश्वत प्रतीत होती है। इसीलिए पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी है- विशेषमूलक है। हम किसी भी दृष्टि को लें, वह या तो भेदमूलक होगी या अभेदमूलक, या तो विशेषमूलक होगी या सामान्यमूलक । उक्त दो प्रकारों को छोड़कर वह अन्यत्र कहीं नहीं जा सकती। इसलिए मूलतः द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ये दो ही दृष्टियाँ हैं और इन दो दृष्टियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दो नय हैं । अन्य दृष्टियाँ इन्हीं के भेदप्रभेद - शाखा प्रशाखाओं के रूप में हैं । द्रव्याथिक एवं प्रदेश।र्थिक दृष्टि : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि की भाँति द्रव्याथिक और प्रदेशायिक दृष्टि से भी पदार्थ का कथन हो सकता है । द्रव्यार्थिक दृष्टि एकता का प्रतिपादन करती है, यह हम देख चुके हैं । प्रदेशार्थिक दृष्टि अनेकता को अपना विषय बनाती है । पर्याय और प्रदेश में यह अन्तर है कि पर्याय द्रव्य की देश और कालकृत नाना अवस्थाएं हैं। एक ही द्रव्य देश और काल के भेद से विविध रूपों में परिवर्तित होता रहता है। इसके विविध रूप ही विविध पर्याय हैं । द्रव्य के अवयव प्रदेश कहे जाते हैं । एक द्रव्य के अनेक अंश हो सकते हैं। एक-एक अंश १. ७.२.२७६ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६७ एक-एक प्रदेश कहलाता है। पुद्गल का एक परमाणु जितना स्थान घेरता है वह एक प्रदेश है। जैन दर्शन के अनुसार कुछ द्रव्यों के प्रदेश नियत हैं और कुछ के अनियत । जीव के प्रदेश सर्व देश और सर्व काल में नियत हैं। उनकी संख्या न कभी बढ़ती है, न कभी घटती है। वे जिस शरीर का व्याप्त करते हैं उसका परिमाण घट-बढ़ सकता है, किन्तु प्रदेशों की संख्या उतनी ही रहती है । यह कैसे हो सकता है, इसका समाधान करने के लिए दीपक का दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे एक ही दीपक के उतने ही प्रदेश छोटे कमरे में भी आ सकते हैं और बड़े कमरे में भी, उसी प्रकार एक ही आत्मा के उतने ही प्रदेश छोटे शरीर को भी व्याप्त कर सकते हैं और बड़े शरीर को भी । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के प्रदेश भी नियत हैं । पुद्गलास्तिकाय के प्रदशों (परमाणुओं) का कोई निश्चित नियम नहीं। उनमें स्कन्ध के अनुसार न्यूनाधिकता होती रहती है । पर्याय के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। वे नियत संख्या में नहीं मिलते। जिस प्रकार पर्यायदृष्टि से भगवान् महावीर ने वस्तु का विचार किया है उसी प्रकार प्रदेशदृष्टि से भी पदार्थ का चिन्तन किया है। उन्होंने कहा है कि मैं द्रव्यदृष्टि से एक हूँ, ज्ञान और दर्शनरूप पर्यायों की दृष्टि से दो हुँ, प्रदेशों की दृष्टि से अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ । यहाँ पर महावीर ने प्रदेश दृष्टि का उपयोग एकता की सिद्धि के लिए किया है। संख्या की दृष्टि से प्रदेश नियत हैं, अतः उस दृष्टि से आत्मा अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है । प्रदेशदृष्टि का उपयोग अनेकता की सिद्धि के लिए भी किया जाता है । द्रव्यदृष्टि से वस्तु एकरूप मालूम होती है, किन्तु वही वस्तु प्रदेशदृष्टि से अनेकरूप दिखाई देती है, क्योंकि प्रदेश अनेक हैं । आत्मा द्रव्यदृष्टि से एक है किन्तु प्रदेशदृष्टि से अनेक है, Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैन धर्म-दर्शन क्योंकि उसके अनेक प्रदेश हैं । इसी प्रकार धर्मास्तिकाय द्रव्यदृष्टि से एक है किन्तु पदेदृष्टि से अनेक है । अन्य द्रव्यों के विषय में भी यही बात समझनी चाहिए। जब किसी वस्तु का द्रव्यदृष्टि से विचार किया जाता है तब द्रव्यार्थिक नय का उपयोग किया जाता है । प्रदेशदृष्टि से विचार करते समय प्रदेशार्थिक नय काम में लाया जाता है । व्यावहारिक तथा नैचयिक दृष्टि : व्यवहार और निश्चय का झगड़ा बहुत पुराना है । जो वस्तु जैसी प्रतिभासित होती है उसी रूप में वह सत्य है या किसी अन्य रूप में ? कुछ दार्शनिक वस्तु के दो रूप मानते हैं - प्रातिभासिक और पारमार्थिक । चावकि आदि दार्शनिक प्रतिभास और परमार्थ में किसी प्रकार का भेद नहीं करते। उनकी दृष्टि में इन्द्रियगम्य तत्त्व पारमार्थिक है । महावीर ने वस्तु के दोनों रूपों का समर्थन किया और अपनी-अपनी दृष्टि से दोनों को यथार्थ बताया । इन्द्रियगम्य वस्तु का स्थूल रूप व्यवहार की दृष्टि से यथार्थ है । इस स्थूल रूप के अतिरिक्त वस्तु का सूक्ष्म रूप भी होता है जो इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता | वह केवल श्रुत या आत्मत्यक्ष का विषय होता है । यही नैश्चयिक दृष्टि है । व्यावहारिक दृष्टि और नैश्चयिक दृष्टि में यही अन्तर है कि व्यावहारिक दृष्टि इन्द्रियाश्रित है, अतः स्थूल है, जब कि नैश्चयिक दृष्टि इन्द्रियातीत है, अतः सूक्ष्म है । 'एक दृष्टि से पदार्थ के स्थूल रूप का ज्ञान होता है और दूसरी से पदार्थ के सूक्ष्म रूप का दोनों दृष्टियाँ सम्यक् हैं । दोनों यथार्थता का ग्रहण करती हैं । 1 महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम 'महावीर से पूछते हैं- भगवन् ! पतले गुड ( फाणित ) में कितने Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ३६६ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं ? महावीर उत्तर देते हैंगौतम ! इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से दिया जा सकता है । व्यावहारिक नय की दृष्टि से वह मधुर है और नैश्चयिक नय की अपेक्षा से वह पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाला है । इसी प्रकार गन्ध, स्पर्श आदि से सम्बन्धित अनेक विषयों को लेकर व्यवहार और निश्चयनय से उत्तर दिया है ।' इन दो दृष्टियों से उत्तर देने का कारण यह है कि वे व्यवहार को भी सत्य मानते थे । परमार्थ के आगे व्यवहार की उपेक्षा नहीं करना चाहते थे । व्यवहार और परमार्थ दोनों दृष्टियों को समान रूप से महत्त्व देते थे ।' अर्थनय और शब्दनय : आगमों में सात नयों का उल्लेख है । अनुयोगद्वार सूत्र में शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत को शब्दनय कहा गया है । 3 बाद के दार्शनिकों ने सात नयों के स्पष्ट रूप से दो विभाग कर दिए - अर्थनय और शब्दनय । आगम में जब तीन नयों को शब्दtय कहा गया तो शेष चार नयों को अर्थनय कहना युक्तिसंगत ही है। जो नय अर्थ को अपना विषय बनाते हैं वे अर्थनय हैं । प्रारम्भ के चार नय - नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थ को विषय करते हैं, अतः वे अर्थनय हैं । अन्तिम तीन नय - शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत शब्द को विषय करते हैं, अतः वे शब्दनय हैं । इन सातों नयों के स्वरूप का विश्लेषण करते समय मालूम हो जाएगा कि नैगमादि चार का विषय १. भगवतीसूत्र, १८.६. २. अनुयोगद्वार, १५६; स्थानांग, ७.५५२. ३. 'तिहूं सद्दनयाणं' - अनुयोगद्वार, १४८. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० बन धर्म दर्शन अर्थ क्यों है और शब्दादि तीन का विषय शब्द क्यों है ? अर्थनय और शब्दनय के भेद की यह सूझ नई नहीं है। आगमों में इसका उल्लेख है। नय के भेद: नय की मुख्य दृष्टियां क्या हो सकती हैं, यह हमने देखा। अब हम उसके भेदों का विचार करेंगे। आचार्य सिद्धसेन' ने लिखा है कि वचन के जितने भी प्रकार या मार्ग हो सकते हैं, नय के उतने ही भेद हैं। जितने नय के भेद हैं उतने ही मत हैं। इस कथन को यदि ठीक माना जाय तो नय के अनन्त प्रकार हो सकते हैं। इन अनन्त प्रकारों का वर्णन हमारी शक्ति की मर्यादा के बाहर है। मोटे तौर पर नय के कितने भेद होते हैं, यह बताने का प्रयत्न जैन दर्शन के आचार्यों ने किया है। यह तो हम देख चुके हैं कि द्रव्य और पर्याय में सारे भेद समा जाते हैं। द्रव्य और पर्यायों को अधिक स्पष्ट करने के लिए उनके अवान्तर भेद किये गये हैं। इन भेदों की संख्या के विषय में कोई निश्चित परम्परा नहीं है। जैन दर्शन के इतिहास को देखने पर हमें एतद्विषयक तीन परम्पराएं मिलती हैं । एक परम्परा सीधे तौर पर नय के सात भेद करती है। ये सात भेद हैं-नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। आगम और दिगम्बर ग्रन्थ इस परम्परा का पालन करते हैं। दूसरी परम्परा नय के छः भेद मानती है। इस परम्परा के अनुसार नैगम स्वतन्त्र नय १. जावइया वयणबहा, तावइया चेव होति णयवाया। जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ।। __ -सन्मतितर्कप्रकरण, ३.४७. २. स्थानांग, ७.५५२; तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १.३३. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद . नहीं है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस परम्परा की स्थापना की है।' तीसरी परम्परा तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की है।' इस परम्परा के अनुसार मूलरूप में नय के पाँच भद हैंनैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द। इनमें से प्रथम अर्थात् नैगमनय के देश-परिक्षेपी और सर्व-परिक्षेपी इस प्रकार के दो भेद हो जाते हैं तथा अन्तिम अर्थात् शब्दनय के सांप्रत, 'समभिरूढ और एवंभूत ऐसे तीन भेद हैं। सात भेदों वाली परम्परा अधिक प्रसिद्ध हैं अत: नगमादि सात भेदों के स्वरूप का विवेचन किया जायगा। नैगम-गुण और गुणी, अवयव और अवयवी, जाति और जातिमान्, क्रिया और कारक आदि में भेद और अभेद की विवक्षा करना नैगमनय है। गुण और गुणी कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न । इसी प्रकार अवयव और अवयवी, जाति और जातिमान् आदि में भी कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद। किसी समय हमारी विवक्षा भेद की ओर होती है, किसी समय अभेद की ओर । जिस समय हमारी विवक्षा भेद की ओर होती है उस समय अभेद गौण हो जाता है और जिस समय हमारा प्रयोजन अभेद से होता है उस समय भेद गौण हो जाता है । भेद और अभेद का गौण और प्रधान भाव से ग्रहण करना नैगमनय है। दूसरे शब्दों में, भेद का ग्रहण करते समय अभेद को गौण समझना और भेद को मुख्य समझना और अभेद का ग्रहण करते समय भेद को गौण १. सन्मतितर्क में नय प्रकरण. २. १.३४-३५. २६ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जैन धर्म-दर्शन और अभेद को मुख्य समझना, नैगम है ।" उदाहरण के लिए गुण और गुणी को लें। जीव गुणी है और सुख उसका गुण है । 'जीव सुखी है' इस कथन में कभी जीव और सुख के अभेद की प्रधानता होती है और भेद की अप्रधानता, कभी भेद की प्रधानता होती है और अभेद की अप्रधानता । दोनों विवक्षाओं का ग्रहण नैगमनय है । कभी एक प्रधान होती है तो कभी दूसरी, किन्तु होना चाहिए दोनों का ग्रहण | केवल एक का ग्रहण होने पर नैगम नहीं होता। दोनों का ग्रहण होने से यह सकलादेश हो जाएगा, क्योंकि सकलादेश में सम्पूर्ण वस्तु का कथन होता है, और वस्तु भेद और अभेद उभयरूप से ही सम्पूर्ण है । जब नैगम नय भेद और अभेद दोनों का ग्रहण करता है तो वह सम्पूर्ण वस्तु का ग्रहण करता है, यह स्वतः सिद्ध है । यह शंका ठीक नहीं । सकलादेश में प्रधान और गौण भाव नहीं होता । वह समान रूप से सब धर्मों का ग्रहण करता है, जब कि नैगम नय में वस्तु के धर्मों का प्रधान और गौण भाव से ग्रहण होता है । धर्म और धर्मी का गौण और प्रधान भाव से ग्रहण करना भी नैगमनय है । किसी समय धर्म की प्रधान भाव से विवक्षा होती है और धर्मी की गोण भाव से किसी समय धर्मी की मुख्य विवक्षा होती है और धर्म की गौण । इन दोनों दशाओं में नैगम की प्रवृत्ति होती है । 'सुख जीव-गुण है' इस वाक्य में सुख प्रधान है क्योंकि वह विशेष्य है और जीव गौण है क्योंकि वह सुख का विशेषण है । यहाँ धर्म का प्रधान भाव से ग्रहण किया गया है और धर्मी का गौण भाव से । 'जीव सुखी १. अन्योन्यगुणभर्त कभेदाभेदरूपणात् । नमोऽर्थान्तरत्वोक्तो नंगमाभास इष्यते ॥ - लघीयस्त्रय, २.५.३६. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ४०३ है' इस वाक्य में जीव प्रधान है क्योंकि वह विशेष्य है और सुख गौण है क्योंकि वह विशेषण है । यहाँ धर्मी की प्रधान भाव से विवक्षा है और धर्म की गौण भाव से । १ कुछ लोग नैगम को संकल्पमात्रग्राही मानते हैं। जो कार्य किया जानेवाला है उस का संकल्पमात्र नैगमनय है । उदाहरण के लिए एक पुरुष कुल्हाड़ी लेकर जंगल में जा रहा है । मार्ग में कोई व्यक्ति मिलता है और पूछता है - 'तुम कहाँ जा रहे हो ?' वह पुरुष उत्तर देता है- 'मैं प्रस्थ लेने जा रहा हूँ ।' यहाँ पर वह पुरुष वास्तव में लकड़ी काटने जा रहा है । प्रस्थ तो बाद में बनेगा । प्रस्थ के संकल्प को दृष्टि में रखकर वह पुरुष उपर्युक्त ढंग से उत्तर देता है । उसका यह उत्तर नैगमनय की दृष्टि से ठीक है। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति किसी दुकान पर कपड़ा लेने के लिए जाता है और उससे कोई पूछता है कि तुम कहाँ जा रहे हो तो वह उत्तर देता है कि जरा कोट सिलाना है । वास्तव में वह व्यक्ति कोट के लिए कपड़ा लेने जा रहा है, न कि कोट सिलाने के लिए जा रहा है । कोट तो बाद में सिया जाएगा, किन्तु उस संकल्प को दृष्टि में रखते हुए वह कहता है कि कोट सिलाने जा रहा हूँ । संग्रह —सामान्य या अभेद का ग्रहण करने वाली दृष्टि संग्रह१. यद्वा नैकगमो नैगमः, धर्मधर्मिणोगुणप्रधानभावेन विषयीकरणात् । 'जीवगुणः सुखम्' इत्यत्र हि जीवस्याप्राधान्यम् विशेषणत्वात्, सुखस्य तु प्राधान्यम्, विशेष्यत्वात् । 'सुखी जीव:' इत्यादी तु जीवस्य प्राधान्यम्, न सुखादेः, विपर्ययात् । २. अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । - नयप्रकाशस्तव वृत्ति, पृ० १०. -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १.३.२. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जैन धर्म-दर्शन नय है । स्वजाति के विरोधी के बिना समस्त पदार्थों का एकत्व में संग्रह करना संग्रह कहलाता है । यह हम जानते हैं कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है, भेदाभेदात्मक है। इन दो धर्मों में से सामान्य धर्म का ग्रहण करना और विशेष धर्म के प्रति उपेक्षाभाव रखना संग्रह्नय है । यह नय दो प्रकार का है - पर और अपर । पर संग्रह में सकल पदार्थों का एकत्व अभिप्रेत है । जीव-अजीवादि जितने भी भेद हैं, सबका सत्ता में समावेश हो जाता है। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो सत् न हो । दूसरे शब्दों में, जीवाजीवादि सत्तासामान्य के भेद हैं। एक ही सत्ता विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होती है । जिस प्रकार नीलादि आकार वाले सभी ज्ञान ज्ञान- सामान्य के भेद हैं उसी प्रकार जीवादि जितने भी पदार्थ हैं, सब सत् हैं । पर संग्रह कहता है कि 'सब एक है, क्योंकि सब सत् हैं ।" सत्तासामान्य की दृष्टि से सबका एकत्व में अन्तर्भाव हो जाता है । अपर संग्रह द्रव्यत्वादि अपर सामान्यों का ग्रहण करता है । सत्तासामान्य, जो कि पर सामान्य अथवा महा सामान्य है, उसके सामान्यरूप अवान्तर भेदों का ग्रहण करना अपर संग्रह का कार्य है । सामान्य के दो प्रकार हैं-पर और अपर । पर सामान्य सत्तासामान्य को कहते हैं, जो प्रत्येक पदार्थ में रहता है । अपर सामान्य पर सामान्य के द्रव्य, गुण आदि भेदों में रहता है । द्रव्य में रहने वाली सत्ता पर सामान्य है और द्रव्य का जो द्रव्यत्वसामान्य है वह अपर सामान्य है । १. जीवाजीवप्रभेदा यदन्तर्लीनास्तदस्ति सत् । एकं यथा स्वनिर्भासि ज्ञानं जीवः स्वपर्ययः ॥ २. सर्वमेकं सदविशेषात् । - लघीयस्त्रय, २. ५.३१. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ४०५ इसी प्रकार गुण में सत्ता पर सामान्य है और गुणत्व अपर सामान्य है। द्रव्य के भी कई भेद-प्रभेद होते हैं। उदाहरण के लिए जीव द्रव्य का एक भेद है। जीव में जीवत्वसामान्य अपर सामान्य है। इस प्रकार जितने भी अपर सामान्य हो सकते हैं उन सवका ग्रहण करने वाला नय अपर संग्रह है। पर संग्रह और अपर संग्रह दोनों मिलकर जितने भी प्रकार के सामान्य या अभेद हो सकते हैं, सबका ग्रहण करते हैं। संग्रहनय सामान्य ग्राही दृष्टि है। व्यवहार-संग्रहनय द्वारा गृहीत अर्थ का विधिपूर्वक अवहरण करना व्यवहारनय है।' जिस अर्थ का, संग्रहनय ग्रहण करता है उस अर्थ का विशेष रूप से बोध कराना हो तब उसका पृथक्करण करना पड़ता है। संग्रह तो सामान्यमात्र का ग्रहण कर लेता है, किन्तु वह सामान्य किंरूप है, इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार का आश्रय लेना पड़ता है। दूसरे शब्दो में, संग्रहगृहीत सामान्य का भेदपूर्वक ग्रहण करना व्यवहारनय है। यह नय भी उपयुक्त दोनों नयों की भाँति द्रव्य का ही ग्रहण करता है, किन्तु इसका ग्रहण भेदपूर्वक है, अभेदपूर्वक नहीं। इसलिए इसका अन्तर्भाव द्रव्याथिक नय में है, पर्यायाथिक नय में नहीं। इसकी विधि इस प्रकार है-पर संग्रह सत्तासामान्य का ग्रहण करता है। उसका विभाजन करते हुए व्यवहार कहता है-सत् क्या है ? जो सत् है वह द्रव्य है या गुण ? यदि वह द्रव्य है तो जीव द्रव्य है या अजीव द्रव्य ? केवल जीव द्रव्य कहने से भी काम नहीं चल सकता। वह जीव नारक है, देव है, मनुष्य हैं या तिर्यञ्च है ? इस प्रकार १. अतो विधिपूर्वकमत्रहरणं व्यवहारः । -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १.३३.६. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जैन धर्म-दर्शन व्यवहारनय वहाँ तक भेद करता जाता है जहाँ पुनः भ ेद की सम्भावना न हो। इस नय का मुख्य प्रयोजन व्यवहार की सिद्धि है ।' केवल सामान्य के बोध से या कथन से हमारा - व्यवहार नहीं चल सकता। व्यवहार के लिए हमेशा भेदबुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है । यह भ ेदबुद्धि परिस्थिति की अनुकूलता को दृष्टि में रखते हुए अन्तिम भ ेद तक बढ़ सकती है, जहाँ पुनः भ ेद न हो सके। दूसरे शब्दों में, वह अन्तिम विशेष का ग्रहण कर सकती है । व्यवहारगृहीत विशेष पर्यायों के रूप में नहीं होते अपितु द्रव्य के भेद के रूप में होते हैं । इसलिए व्यवहार का विषय भ ेदात्मक और विशेषात्मक होते हुए भी द्रव्यरूप है, न कि पर्यायरूप । यही कारण है कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों में से व्यवहार का समावेश द्रव्यार्थिक नय में किया गया है। नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीनों नयों का द्रव्यार्थिक नय में अन्तर्भाव होता है । शेष चार नय पर्यायार्थिक नय के भ ेद हैं । ऋजुसूत्र - भेद अथवा पर्याय की विवक्षा से जो कथन है वह ऋजुसूत्रनय का विषय है । जिस प्रकार संग्रह का विषय सामान्य अथवा अभेद है उसी प्रकार ऋजुसूत्र का विषय पर्याय अथवा भेद है । यह नय भूत और भविष्यत् की उपेक्षा करके केवल वर्तमान का ग्रहण करता है । पर्याय की अवस्थिति वर्तमान काल में ही होती है । भूत और भविष्यत् काल में १. व्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमाणानां प्रमाणता । नान्यथा बाध्यमानानां ज्ञानानां तत्प्रसंगतः ॥ - लघीयस्त्रय, ३.६.७०. २. भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुसुत्रनयो मतः । - लघीयस्त्रय, ३. ६. ७१. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ४०७ द्रव्य रहता है । मनुष्य कई बार तात्कालिक परिणाम की ओर झुक कर केवल वर्तमान को ही अपना प्रवृत्ति क्षेत्र बनाता है । ऐसी स्थिति में उसकी बुद्धि में ऐसा प्रतिभास होता है कि जो वर्तमान है वही सत्य है । भूत और भावी वस्तु से उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता । इसका अर्थ यह नहीं कि वह भूत और भावी का निषेध करता है । प्रयोजन के अभाव में उनकी ओर उपेक्षा-दृष्टि रखता है । वह यह मानता है कि वस्तु की प्रत्येक अवस्था भिन्न है | इस क्षण की अवस्था में और दूसरे क्षण की अवस्था में भेद है । इस क्षण की अवस्था इसी क्षण तक सीमित है । दूसरे क्षण की अवस्था दूसरे क्षण तक सीमित है। इसी प्रकार एक वस्तु की अवस्था दूसरी वस्तु की अवस्था से भिन्न है । 'कौआ काला है' इस वाक्य में कौए और कालेपन की जो एकता है उसकी उपेक्षा करने के लिए ऋजुसूत्रनय कहता है कि कौआ कौआ है और कालापन कालापन है । कौआ और कालापन भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हैं । यदि कालापन और कौआ एक होते तो भ्रमर भी कोआ हो जाता क्योंकि वह काला है । ऋजुसूत्र क्षणिकवाद में विश्वास रखता है । इसलिए प्रत्येक वस्तु को अस्थायी मानता है । जिस प्रकार कालभेद से वस्तुभेद की मान्यता है उसी प्रकार देशभेद से भी वस्तुभेद की मान्यता है । भिन्न-भिन्न देश में रहने वाले पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं । इस प्रकार ऋजुसूत्र प्रत्येक वस्तु में भेद ही भेद देखता है । यह भेद द्रव्यमूलक न होकर पर्यायमूलक है । अतः यह नय पर्यायार्थिक है । यहीं से पर्यायार्थिक नय का क्षेत्र आरम्भ होता है । " शब्द -काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भेद से अर्थभेद मानना शब्दनय है । यह नय व आगे के दोनों नय शब्दशास्त्र Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ जैन धर्म-दर्शन से सम्बद्ध हैं। शब्दों के भेद से अर्थ में भेद करना इनका कार्य है। शब्दनय एक ही वस्तु में काल, कारक, लिंग आदि के भेद से भेद मानता है। लिंग तीन प्रकार का होता है-पुल्लिग, स्त्रीलिग और नपुंसकलिंग। इन तीनों लिंगों से भिन्न-भिन्न अर्थ का बोध होता है। शब्दनय स्त्रीलिंग से वाच्य अर्थ का बोध पुल्लिग से नहीं मानता। पुल्लिग से वाच्य अर्थ का बोध नपुंसकलिग से नहीं मानता। इसी प्रकार अन्य लिंगों की योजना भी कर लेनी चाहिए । स्त्रीलिंग में पुल्लिंग का अभिधान किया जाता है। जैसे तारका स्त्रीलिंग है और स्वाति पुल्लिग है। पुल्लिग से स्त्रीलिंग के अभिधान का उदाहरण है अवगम और विद्या ! स्त्रीलिंग में नपुंसकलिंग का प्रयोग होता है-जैसे वीणा के लिए आतोद्य का प्रयोग। नपुंसकलिंग में स्त्रीलिंग का अभिधान किया जाता है-जैसे आयुध के लिए शक्ति का प्रयोग। पुल्लिग में नपुंसकलिंग का प्रयोग किया जाता है-जैसे पट के लिए वस्त्र का प्रयोग । नपुंसकलिंग में पुल्लिग का अभिधान होता है-जैसे द्रव्य के लिए परशु का प्रयोग। शब्दनय इन सबमें भेद मानता है। संख्या तीन प्रकार की है-एकत्व, द्वित्व और बहुत्व । एकत्व में द्वित्व का प्रयोग होता है-जैसे नक्षत्र और पुनर्वसु । एकत्व में बहुत्व का प्रयोग किया जाता है-जैसे नक्षत्र और शतभिषक् । द्वित्व में एकत्व का प्रयोग होता है-जैसे जिनदत्त, देवदत्त और मनुष्य । द्वित्व में बहुत्व का प्रयोग होता है-जैसे पुनर्वसु और पंचतारका। बहुत्व में एकत्व का प्रयोग होता है-जैसे आम और वन । बहत्व में द्वित्व का अभिधान किया जाता है-जैसे देवमनुष्य और उभयराशि । शब्द नय इन प्रयोगों में भेद का व्यवहार करता है। काल के भेद से अर्थभ द का उदाहरण है-काशी नगरी थी और काशी नगरी है। इन दोनों वाक्यों के अर्थ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ४०६ में जो भेद है वह शब्दनय के कारण है। कारक-भद से अर्थभेद हो जाता है-जैसे मोहन को, मोहन के लिए, मोहन से आदि शब्दों के अर्थ में भेद है। इसी प्रकार उपसर्ग के कारण भी एक ही धातु के भिन्न-भिन्न अर्थ हो जाते हैं। संस्थान, प्रस्थान, उपस्थान आदि के अर्थ में जो विभिन्नता है उसका यही कारण है। 'सम्' उपसर्ग लगाने से संस्थान का अर्थ आकार हो गया, 'प्र' उपसर्ग लगाने से प्रस्थान का अर्थ गमन हो गया और 'उप' उपसर्ग लगाने से उपस्थान का अर्थ उपस्थिति हो गया। इस तरह विविध संयोगों के आधार पर विविध शब्दों के अर्थमद की जो अनेक परम्पराएं प्रचलित हैं वे सभी शब्दनय के अन्तर्गत आ जाती हैं। शब्दशास्त्र का जितना विकास हुआ है उसके मूल में यही नय रहा है । समभिरूढ-शब्दनय काल, कारक, लिंग आदि के भेद से ही अर्थ में भेद मानता है। एक लिंग वाले पर्यायवाची शब्दों में किसी प्रकार का भेद नहीं मानता। शब्दभेद के आधार पर अर्थभेद करने वाली बुद्धि जब कुछ और आगे बढ़ जाती है और व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर पर्यायवाची शब्दों में अर्थभद मानने के लिए तैयार हो जाती है तब समभिरुढ नय की प्रवृत्ति होती है। यह नय कहता है कि केवल काल आदि के भेद से अर्थभेद मानना ही काफी नहीं है अपितु व्युत्पत्तिमूलक शब्दभेद से भी अर्थभेद मानना चाहिए। प्रत्येक शब्द अपनीअपनी व्युत्पत्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ का प्रतिपादन करता हैं। उदाहरण के लिए हम इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन तीन शब्दों को लें। शब्दनय की दृष्टि से देखने पर इन तीनों शब्दों का एक ही अर्थ होता है। यद्यपि ये तीनों शब्द भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति के आधार पर बनते हैं किन्तु इनके वाच्य अर्थ में Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन ४१० कोई भेद नहीं है । इसका कारण यह है कि इन तीनों का लिंग एक ही है । समभिरूढ यह मानने के लिए तैयार नहीं । वह कहता है कि यदि लिंग-भेद, संख्या-भ ेद आदि से अर्थभ ेद मान सकते हैं तो शब्दभ ेद से अर्थभ ेद मानने में क्या हानि है ? यदि शब्दभ ेद से अर्थभ ेद नहीं माना जाय तो इन्द्र और शक्र दोनों का एक ही अर्थ हो जाय । इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति 'इन्दनादिन्द्रः' अर्थात् 'जो शोभित हो वह इन्द्र है' इस प्रकार है । 'शकनाच्छक्रः' अर्थात् 'जो शक्तिशाली है वह शक्र है' यह शक की व्युत्पत्ति है । 'पूर्दारणात् पुरन्दरः' अर्थात् 'जो नगर आदि का ध्वंस करता है वह पुरन्दर है' इस प्रकार के अर्थ को व्यक्त करने वाला पुरन्दर शब्द है । जब इन शब्दों की. व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न है तब इनका वाच्य अर्थ भी भिन्न-भिन्न ही होना चाहिए। जो इन्द्र है वह इन्द्र है, जो शक्र है वह शत्र है और जो पुरन्दर है वह पुरन्दर है। न तो इन्द्र शक हो सकता है और न शक्र पुरंदर हो सकता है । इसी प्रकार नृपति, भूपति, राजा इत्यादि जितने भी पर्यायवाची शब्द हैं, सब में अर्थभद है । एवम्भूत - समभिरूढनय व्युत्पत्तिभ ेद से अर्थभ ेद मानने तक ही सीमित है, किन्तु एवम्भूतनय कहता है कि जब व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित होता हो तभी उस शब्द का वह अर्थ मानना चाहिए। जिस शब्द का जो अर्थ होता हो उसके होने पर ही उस शब्द का प्रयोग करना एवम्भूतनय है । इस लक्षण को इन्द्र, शक्र और पुरंदर शब्दों के द्वारा ही स्पष्ट किया जाता है । 'जो शोभित होता है वह इन्द्र है' इस व्युत्पत्ति को दृष्टि में रखते हुए जिस समय वह इन्द्रासन पर शोभित हो रहा हो उसी समय उसे इन्द्र कहना चाहिए । शक्ति का प्रयोग करते समय या अन्य कार्य करते समय उसके लिए इंद्र शब्द का Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्षवाद ४११ प्रयोग करना ठीक नहीं । जिस समय वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा हो उसी समय उसे शक कहना चाहिए । आगे और पीछे शक का प्रयोग करना इस नय की दृष्टि में ठीक नहीं । ध्वंस करते समय ही उसे पुरन्दर कहना चाहिए, पहले या बाद में नहीं । इसी प्रकार नृपति, भूपति, राजा आदि शब्दों के प्रयोग में भी समझना चाहिए । नयों का पारस्परिक सम्बन्ध : उत्तर-उत्तर नय का विषय पूर्व-पूर्व नय से कम होता जाता है । नैगमनय का विषय मबसे अधिक है क्योंकि वह सामान्य और विशेष -भ ेद और अभ ेद दोनों का ग्रहण करता है । कभी सामान्य को मुख्यता देता है और विशेष का गौणरूप से ग्रहण करता है तो कभी विशेष का मुख्यरूप से ग्रहण करता है और सामान्य का गौणरूप से अवलम्बन करता है । संग्रह का विषय नैगम से कम हो जाता है । वह केवल सामान्य अथवा अभेद का ग्रहण करता है । व्यवहार का विषय संग्रह से भी कम है क्योंकि वह संग्रह द्वारा गृहीत विषय का कुछ विशेषताओं के आधार पर पृथक्करण करता है । ऋजुसूत्र का विषय व्यवहार से कम है क्योंकि व्यवहार कालिक विषय की सत्ता मानता है, जब कि ऋजुसूत्र वर्तमान पदार्थ तक ही सीमित रहता है, अतः यहीं से पर्यायार्थिक नय का प्रारम्भ माना जाता है । शब्द का विषय इससे भी कम है क्योंकि वह काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भ ेद मानता है । समभिरूढ का विषय शब्द से वह पर्याय - व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद मानता है, पर्यायवाची शब्दों में किसी तरह का भेद अङ्गीकार नहीं करता । एवम्भूत का विषय समभिरूढ से भी कम है क्योंकि भेद से अर्थ में कम है क्योंकि जब कि शब्द Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैन धर्म-दर्शन वह अर्थ को तभी उस शब्द द्वारा वाच्य मानता है जब अर्थ अपनी व्युत्पत्तिमूलक क्रिया में लगा हुआ हो। अतएव यह स्पष्ट है कि पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म और मूक्ष्मतर होता जाता है। उत्तर-उत्तर नय का विषय पूर्व-पूर्व नय के विषय पर ही अवलम्बित रहता है। प्रत्येक का विषय-क्षेत्र उत्तरोत्तर कम होने से इनका पारस्परिक पौर्वापर्य सम्बन्ध है। सामान्य और विशेष के आधार पर इनका द्रव्याथिक और पर्यायाथिक में विभाजन किसी खास दृष्टि से किया गया है। पहले के तीन नय सामान्य तत्व की ओर विशेषरूप से झुके हए हैं और बाद के चार नय विशेष तत्व पर अधिक भार देते हैं। प्रथम तीन नयों में सामान्य का विचार अधिक स्पष्ट है और शेष चार में विशेष का विचार अधिक स्पष्ट है। सामान्य और विशेष की इसी स्पष्टता के कारण सात नयों को द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक में विभक्त किया गया है। वास्त. विकता यह है कि सामान्य और विशेष दोनों एक ही तत्त्व के दो अविभाज्य पक्ष हैं । ऐसी स्थिति में एकान्तरूप सामान्य का या विशेष का ग्रहण सम्भव नहीं। ___ अर्थनय और शब्दनय के रूप में जो विभाजन किया गया है वह भी इसी प्रकार का है। वास्तव में शब्द और अर्थ एकान्तरूप से भिन्न नहीं हो सकते। अर्थ की प्रधानता को ध्यान में रखते हुए प्रथम चार नधों को अर्थनय कहा गया है। शब्द-प्राधान्य की दृष्टि से शेष तीन नय शब्दनय की कोटि में आते हैं। इस प्रकार पूर्व-पूर्व नय से उत्तर-उत्तर नय में विषय की सूक्ष्मता की दृष्टि से, सामान्य और विशेष की दृष्टि से, अर्थ और शब्द की दृष्टि से भेद अवश्य है किन्तु यह भेद ऐकान्तिक नहीं है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६ : कर्मसिद्धान्त भारतीय तत्त्वचिन्तन में कर्म सिद्धान्त का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है । चार्वाकों के अतिरिक्त भारत के सभी श्रेणियों के विचारक कर्मसिद्धान्त के प्रभाव से प्रभावित रहे हैं । भारतीय दर्शन, धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान आदि पर कर्मसिद्धान्त का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। सुख-दुःख एवं सांसारिक विध्य का कारण ढूँढ़ते हुए भारतीय विचारकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त का अन्वेषण किया है । भारत के जनसाधारण की यह सामान्य धारणा रही है कि प्राणियों को प्राप्त होने वाला सुख अथवा दुःख स्वकृत कर्मफल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । जीव अनादिकाल से कर्मवश हो विविध भवों में भ्रमण कर रहा है । जन्म एवं मृत्यु की जड़ कर्म है । जन्म और मरण ही सबसे बड़ा दुःख है । जीव अपने शुभ और अशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है । 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे' का तात्पर्यार्थ यही है । एक प्राणी दूसरे प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता । प्रत्येक प्राणी का कर्म स्वसम्बद्ध होता है, परसम्बद्ध नहीं । कर्मसिद्धान्त की स्थापना में यद्यपि भारत की सभी दार्शनिक एवं नैतिक शाखाओं ने अपना योगदान दिया है फिर भी जैन परम्परा में इसका जो सुविकसित रूप दृष्टिगोचर होता . है वह अन्यत्र अनुपलब्ध है। जैन आचार्यों ने जिस ढंग से । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जैन धर्म-दर्शन कर्मसिद्धान्त का सुव्यवस्थित, सुसम्बद्ध एवं सर्वाङ्गपूर्ण निरूपण किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं, अप्राप्य है। कर्म सिद्धान्त जैन विचारधारा एवं आचारपरम्परा का एक अविच्छेद्य अंग है । जैन दर्शन एवं जैन आचार की समस्त महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ व धारणाएँ कर्मसिद्धान्त पर अवलम्बित हैं । कर्मसिद्धान्त के आधारभूत हेतु ये हैं : १. प्रत्येक क्रिया का कोई-न-कोई फल अवश्य होता है । दूसरे शब्दों में, कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती। इसे कार्यकारणभाव अथवा कर्म - फलभाव कहते हैं । २. यदि किसी क्रिया का फल प्राणी के वर्तमान जीवन में प्राप्त नहीं होता तो उसके लिए भविष्यकालीन जीवन अनिवार्य है । ३. कर्म का कर्ता एवं भोक्ता स्वतन्त्र आत्मतत्त्व निरन्तर एक भव से दूसरे भाव में गमन करता रहता है । किसी-न-किसी भव के माध्यम से ही वह एक निश्चित कालमर्यादा में रहता हुआ अपने पूर्वकृत कर्मों का भोग तथा नवीन कर्मों का बन्ध करता है । कर्मों की इस परम्परा को तोड़ना भी उसकी शक्ति के बाहर नहीं है । 1 ४. जन्मजात व्यक्तिभेद कर्मजन्य हैं । व्यक्ति के व्यवहार तथा सुख-दुःख में जो असामञ्जस्य अथवा असमानता दृष्टिगोचर होती है वह कर्मजन्य ही है । ५. कर्मबन्ध तथा कर्मभोग का अधिष्ठाता प्राणी स्वयं है । तदतिरिक्त जितने भी हेतु दृष्टिगोचर होते हैं वे सब सहकारी अथवा निमित्तभूत हैं । कर्मवाद और इच्छा-स्वातन्त्र्य : प्राणी अनादिकाल से कर्मपरम्परा में उलझा हुआ है । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४१५ पुराने कर्मों का भोग एवं नये कर्मों का बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। प्राणी अपने कृतकों को भोगता जाता है तथा नवीन कर्मों का उपार्जन करता जाता है । इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्राणी सर्वथा कर्माधीन है अर्थात् वह कर्मबन्ध को नहीं रोक सकता। यदि प्राणी का प्रत्येक कार्य कर्माधीन ही माना जाएगा तो वह अपनी आत्मशक्ति का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग कैसे कर सकेगा? दूसरे शब्दों में, प्राणी को सर्वथा कर्माधीन मानने पर इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता। प्रत्येक क्रिया को कर्ममूलक मानने पर प्राणी का न अपने पर कोई अधिकार रह जाता है, न दूसरों पर। ऐसी दशा में उसकी समस्त क्रियाएँ स्वचालित यन्त्र की भांति स्वतः संचालित होती रहेंगी। प्राणी के पुराने कर्म स्वतः अपना फल देते रहेंगे एवं उसकी तत्कालीन निश्चित कर्माधीन परिस्थिति के अनुसार नये कर्म बंधते रहेंगे जो समयानुसार भविष्य में अपना फल प्रदान करते हए कर्मपरम्परा को स्वचालित यन्त्र की भाँति बराबर आगे बढ़ाते रहेंगे। परिणामतः कर्मवाद नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद' में परिणत हो जाएगा तथा इच्छास्वातन्त्र्य अथवा स्वतन्त्रतावाद२ का प्राणी के जीवन में कोई स्थान न रहेगा। कर्मवाद को नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद नहीं कह सकते। कर्मवाद का यह तात्पर्य नहीं कि इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं। कर्मवाद यह नहीं मानता कि प्राणी जिस 1. Determinism or Necessitarianism. 2. Freedom of Will or Libertarianism. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४१६ जैन धर्म-दर्शन प्रकार कर्म का फल भोगने में परतन्त्र है उसी प्रकार कर्म का उपार्जन करने में भी परतन्त्र है । कर्मवाद की मान्यता के अनुसार प्राणी को अपने किये हुए कर्म का फल किसी-नकिसी रूप में अवश्य भोगना पड़ता है किन्तु नवीन कर्म का उपार्जन करने में वह किसी सीमा तक स्वतन्त्र है । कृतकर्म का भोग किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती, यह सत्य है किन्तु यह अनिवार्य नहीं कि प्राणी अमुक समय में अमुक कर्म ही उपार्जित करे। आन्तरिक शक्ति एवं बाह्य परिस्थिति को दृष्टि में रखते हुए प्राणी नये कर्मों का उपार्जन रोक सकता है । इतना ही नहीं, वह अमुक सीमा तक पूर्वकृत कर्मों को शीघ्र या देर से भी भोग सकता है अथवा उनमें पारस्परिक परिवर्तन भी हो सकता है । इस प्रकार कर्मवाद में सीमित इच्छा -स्वातन्त्र्य का स्थान अवश्य है, यह मानना पड़ता है । इच्छा-स्वातन्त्र्य का अर्थ कोई यह करे कि 'जो चाहे सो करे' तो कर्मवाद में वैसे स्वातन्त्र्य का कोई स्थान नहीं है । प्राणी अपनी शक्ति एवं बाह्य परिस्थिति की अवहेलना करके कोई कार्य नहीं कर सकता । जिस प्रकार वह परिस्थितियों का दास है उसी प्रकार उसे अपने पराक्रम की सीमा का भी ध्यान रखना पड़ता है । इतना होते हुए भी वह कर्म करने में सर्वथा परतन्त्र नहीं अपितु किसी हद तक स्वतन्त्र है । कर्मवाद में यही इच्छा - स्वातन्त्र्य है । इस प्रकार कर्मवाद नियतिवाद और स्वतन्त्रतावाद के बीच का सिद्धान्त है - मध्यमवाद है । 1 कर्मवाद व अन्य वाद : विश्व वैचित्र्य के कारण की खोज करते हुए कुछ विचारकों ने कर्मवाद के स्थान पर अन्य वादों की स्थापना की इन वादों में प्रमुख ये हैं : कालवाद, स्वभाववाद, है Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४१७ नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, पुरुषवाद, देववाद और पुरुषार्थवाद । कालवाद - कालवाद के समर्थकों का कथन है कि विश्व की समस्त वस्तुएं तथा प्राणियों के सुख-दुख कालाश्रित हैं । काल ही सब भूनों की सृष्टि करता है तथा उनका संहार करता है । काल ही प्राणियों के समस्त शुभाशुभ परिणामों का जनक है । काल ही प्रजा का संकोच और विस्गर करता है । अथर्ववेद के अनुसार काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया है, काल के आधार पर सूर्य तपता है, काल के ही आधार पर समस्त भन रहते हैं । काल के ही कारण आँखें देखती हैं, काल ही ईश्वर है, काल प्रजापति का भी पिता है, काल सर्वप्रथम देव है. काल से बढ़कर कोई अन्य शक्ति नहीं है।' महाभारत में भी कहा गया है कि कर्म अथवा यज्ञयागादि सुख-दुःख के कारण नहीं हैं। मनुष्य काल द्वारा ही सब कुछ प्राप्त करता है । समस्त कार्यों का काल ही कारण है । शास्त्रवार्तासमुच्चय में कालवाद का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है : किसी प्राणी का मातृगर्भ में प्रवेश करना, बाल्यावस्था प्राप्त करना, शुभाशुभ अनुभवों से सम्पर्क होना आदि घटनाएं काल के अभाव में नहीं घट सकतीं । अतः काल हो सब घटनाओं का कारण है । काल भूतों को परिपक्व अवस्था में पहुंचाता है, काल प्रजा का संहार करता है, काल सबके सोने रहने पर भी जागता है, काल की सीमा का उल्लंघन करना किसी के लिए सम्भव नहीं है। मूंग का पकना अनुकूल काल के बिना शक्य नहीं होता, चाहे अन्य १. अथर्ववेद का कालसूक्त ( १६.५३ - ५४ ). २. महाभारत का शान्तिपर्व ( अध्याय २५, २८, ३२ आदि ). २७ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन सामग्री उपस्थित क्यों न हो। अत: मुद्गपक्ति भी काल के ही कारण है। काल के अभाव में गर्भादि समस्त घटनाएं अस्तव्यस्त हो जाएंगी। अतएव जगत् की सब घटनाओं का कारण काल ही है।' स्वभाववाद-स्वभाववादियों का कथन है कि संसार में जो कुछ होता है, स्वभाव के कारण ही होता है। स्वभाव के अतिरिक्त अन्य कोई भी कारण विश्व-वैचित्र्य के निर्माण में समर्थ नहीं है । बुद्धचरित में स्वभाववाद का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि कांटों का नुकीलापन, पशु-पक्षियों की विचित्रता आदि स्वभाव के कारण ही हैं । किसी भी प्रवृत्ति में इच्छा अथवा प्रयत्न का कोई स्थान नहीं है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में स्वभाववाद का वर्णन करते हुए बताया गया है कि किसी प्राणी का माता के गर्भ में प्रविष्ट होना, बाल्यावस्था प्राप्त करना, शुभाशुभ अनुभवों का भोग करना आदि घटनाएं स्वभाव के बिना घटित नहीं हो सकती। अतः स्वभाव ही संसार की समस्त घटनाओं का कारण है। जगत् की सब वस्तुएं स्वभाव से ही अपने-अपने स्वरूप में विद्यमान रहती हैं तथा अन्त में नष्ट हो जाती हैं। स्वभाव के बिना मूग का पकनो भी संभव नहीं होता, भले ही काल आदि उपस्थित क्यों न हों। यदि किसी स्वभावविशेष वाले कारण के अभाव में भी किसी कार्यविशेष की उत्पत्ति संभव मान ली जाय तो अव्यवस्था उतान्न हो जाएगी। यदि मिट्टी में न घड़ा बनाने का स्वभाव है, न कपड़ा बनाने का तब यह कैसे कहा जा सकता है कि wer १. शास्त्रवार्तासमुच्चय, १६५-१६८. २. बुद्धचरित, ५२. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त . . मिट्टी से घट ही उत्पन्न होना चाहिए, पट नहीं ? अतएव संसार की सब घटनाओं का कारण स्वभाव ही है।' नियतिवाद-नियतिवादियों की मान्यता है कि जो होना होता है वही होता है अथवा जो होना होता है वह होता ही है। घटनाओं का अवश्यम्भावित्व पूर्वनिर्धारित है । जगत की प्रत्येक घटना पहले से ही नियत अर्थात निश्चित होती है । किसी के इच्छा-स्वानाय का कोई मूल्य नहीं है । वस्तुत: इच्छा. स्वातन्त्र्य नाम की कोई चीज ही नहीं है। मनुष्य केवल अपने अज्ञान के कारण ऐसा सोचता है कि मैं भविष्य को बदल सकता हूं। जो कुछ होना होगा वह होगा ही। अनागत अर्थात् भविष्य भी वैसे ही सुनिश्चित एवं अपरिवर्तनीय है जैसे अतीत अर्थात् भन । अतएव आशा, भय, चिन्ता अदि निरर्थक हैं एवं किसी की प्रशंसा करना अथवा किसी पर दोष लगाना भी व्यर्थ है। बौद्ध आगम दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में नियतिवाद का वर्णन करते हए कहा गया है कि प्राणियों की पवित्रता का कोई कारण नहीं है। वे कारण के बिना ही अपवित्र होते हैं। इसी प्रकार प्रापियों की पवित्रता का भी कोई कारण नहीं है। वे कारण के बिना ही पवित्र होते हैं। अपने सामर्थ्य के बल पर कुछ भी नहीं होता। पुरुष के सामर्थ्य के कारण किसी पदार्य की सत्ता है, ऐसा नहीं है । न बल है, न वीर्य है, न शक्ति है और न पराक्रम ही है। सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी जीव अवश हैं, दुर्बल हैं, वीर्यविहीन हैं। उनमें नियति, जाति, वैशिष्ट्य एवं स्वभाव के कारण परिवर्तन होता है। वे छः जातियों में से किसी एक जाति में रहकर सब दुःखों का उपभोग करते हैं। चौरासी लाख महाकल्पों के चक्र में भ्रमण करने १. शास्त्रवार्तासमुच्चय, १६६-१७२. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जैन धर्म-दर्शन के बाद बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों के दुःख का नाश हो जाता है। यदि कोई कहे कि मैं शील, व्रत, तप अथवा ब्रह्मचर्य के द्वारा अपरिपक्व कर्मों को परिपक्व करूंगा अथवा परिपक्व कर्मों को भोगकर नामशेष कर दूंगा तो ऐसा कदापि नहीं हो सकता । सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र), उपासकदशांग आदि जैन आगमों में भी नियतिवाद का ऐसा ही वर्णन है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में नियतिवाद का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जिस वस्तु को जिस समय जिस कारण से जिस रूप में उत्पन्न होना होता है वह वस्तु उस समय उस कारण से उस रूप में निश्चित उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में नियति के सिद्धान्त का कौन खण्डन कर सकता है ? २ चूंकि संसार की समस्त वस्तुएं नियत रूपवाली होती हैं इसलिए नियति को ही उनका कारण मानना चाहिए। नियति के बिना कोई भी कार्य नहीं होता, भले ही काल आदि समस्त कारण उपस्थित क्यों न हों। .. यदृच्छावाद-यदृच्छावाद का मन्तव्य है कि किसी कारणविशेष के बिना ही किसी कार्यविशेष की उत्पत्ति हो जाती है। किसी घटना अथवा कार्यविशेष के लिए किसी निमित्त अथवा कारणविशेष की आवश्यकता नहीं होती। किसी निमित्त कारण के अभाव में ही कार्य उत्पन्न हो जाता है। कोई भी घटना सकारण अर्थात् किसी निश्चित कारण का सद्भाव होने से नहीं अपितु अकारण अर्थात् अकस्मात् ही होती है। जैसे कांटे की तीक्ष्णता अनिमित्त अर्थात किसी निमित्तविशेष के बिना ही १. सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. १, ६; भगवतीसूत्र, श. १५; उपासक दशांग, अ. ६-७. २. शास्त्रवासिमुच्चय, १७४, Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४२१ होती है वैसे ही भावों की उत्पत्ति किसी हेतुविशेष के अभाव में ही होती है । यदृच्छावाद, अकस्मात्वाद, अनिमित्तवाद, अकारणवाद, अहेतुवाद आदि एकार्थक हैं। इनमें कार्यकारणभाव अथवा हेतुहेतुमद्भाव का अभाव होता है । इस प्रकार की मान्यता का उल्लेख श्वेताश्वतर उपनिषद्,' महाभारत के शान्तिपर्व, न्यायसूत्र आदि में उपलब्ध होता है । ૨ 3 भूतवाद - भूतवादियों की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों से ही सब पदार्थों की उत्पत्ति होती है। जड़ और चेतन समस्त भावों का आधार ये चार भूत हो हैं । इन भूतों के अतिरिक्त कोई अन्य चेतन अथवा अचेतन तत्त्व जगत् में विद्यमान नहीं है। जिसे अन्य दर्शन आत्मतत्त्व या चेतनतत्त्व कहते हैं उसे भूतवादी भौतिक ही मानता है । आत्मा - जीव- चैतन्य भूतों का ही एक कार्यंविशेष है जो अवस्थाविशेष की उपस्थिति में उत्पन्न होता है तथा उसकी अनुपस्थिति में नष्ट हो जाता है । जैसे पान, सुपारी, कत्था, चूना आदि वस्तुओं का सम्मिश्रणविशेष होने पर रक्त वर्ण की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार भूतचतुष्टय के सम्मिश्रणविशेष से चैतन्य उत्पन्न होता है । इस दृष्टि से आत्मा भौतिक शरीर से भिन्न तत्त्व सिद्ध न होकर शरीररूप ही सिद्ध होता है । सूत्रकृतांग" में तज्जीवतच्छरीरवाद तथा पंचभूतवाद का जो वर्णन उपलब्ध होता है वह इसी मान्यता से सम्बन्धित है । तज्जीवतच्छरीरवाद का मन्तव्य है कि शरीर और जीव एक हैंअभिन्न हैं । इसे अनात्मवाद अथवा नास्तिकवाद भी कह सकते ३. ४. १.२२. १. १.२. ४. सर्वदर्शनसंग्रह, अ. १. ५. श्रु. २, अ. १. २. ३३.२३. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैन धर्म-दर्शन हैं | पंचभूतवाद की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच भून ही यथार्थ हैं और इन्हीं से जीव की उत्पत्ति होती है । तज्जीवतच्छरीरवाद और पंचभूतवाद में सूक्ष्म अन्तर यह है कि एक के मत से शरीर और जीव एक ही हैं अर्थात् दोनों में कोई भेद ही नहीं है जबकि दूसरे के मत से पांच भूतों के सम्मिश्रण से शरीर का निर्माण होने पर जीव की उत्पत्ति होती है एवं शरीर का नाश होने पर जीव भी नष्ट हो जाता है । भूतवादी आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व न मानकर शरीर से सम्बद्ध चैतन्य के रूप में स्वीकार करते हैं एवं शरीर के नाश के साथ ही उसका भी नाश मानते हैं । अतः वे पुनर्जन्म तथा परलोक की सत्ता में विश्वास नहीं रखते। उनकी दृष्टि में जीवन का एकमात्र ध्येय ऐहलोकिक सुख की प्राप्ति है । संसार की समस्त घटनाएँ एवं विचित्रता भूतों का ही खेल है । विकासवाद का सिद्धान्त भी भूतवाद अथवा भौतिकवाद का ही एक रूप है । डार्विन के इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि प्राणियों की शारीरिक तथा प्राणशक्ति का क्रमशः विकास होता है। जड़तत्व के विकास के साथ-साथ चैतन्य का भी विकास होता जाता है । चैतन्य जड़तत्त्व का ही एक अंग है, उससे मित्र स्वतन्त्र तत्त्व नहीं । चेतनाशक्ति का विकास जड़तत्त्व के विकास से सम्बद्ध है । पुरुषवाद - पुरुषवादियों की मान्यता है कि सृष्टि का रचयिता, पालनकर्ता एवं संहर्ता पुरुषविशेष अर्थात् ईश्वर है जिसकी ज्ञानादि शक्तियाँ प्रलयावस्था में भी विद्यमान रहती हैं । पुरुषवाद के दो रूप हैं : ब्रह्मवाद और ईश्वरवाद । ब्रह्मवादियों का मत है कि जैसे मकड़ी जाने के लिए, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमसिद्धान्त ४२३ चन्द्रकान्तमणि जल के लिए एवं वटवृक्ष जटाओं के लिए हेतुभूत है वैसे ही ब्रह्म सम्पूर्ण जगत् के प्राणियों की सृष्टि, स्थिति तथा संहार के लिए निमित्तभूत है।' इस प्रकार ब्रह्मवाद के मतानुसार ब्रह्म ही संसार के समस्त पदार्थों का उपादानकारण है। ईश्वरवादियों का मन्तव्य है कि स्वयंसिद्ध चेतन और जड़ द्रव्यों (पदार्थों ) के पारस्परिक संयोजन में ईश्वर निमित्तभूत है। जगत् का कोई भी कार्य ईश्वर की इच्छा के बिना नहीं हो सकता। इस प्रकार ईश्वरवाद के मतानुसार ईश्वर संसार की समस्त घटनाओं का निमित्तकारण है। वह स्वयंसिद्ध जड़ और चेतन पदार्थों ( उपादानकारण ) का नियन्त्रक एवं नियामक ( निमित्तकारण ) है-विश्व का संयोजक एवं व्यवस्थापक है। देववाद-देववाद और भाग्यवाद एकार्थक हैं। केवल पूर्वकृत कर्मों के आधार पर बैठे रहना एवं किसी प्रकार का पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न न करना दैववाद है। इसमें स्वतन्त्रतावाद अर्थात् इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई स्थान नहीं है। सारा घटनाचक्र अनिवार्यतावाद अर्थात् परतन्त्रता के आधार पर चलता है। प्राणी अपने भाग्य का दास है। उसे असहाय होकर अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना पड़ता है। वह इन कर्मों को न तो शीघ्र या देर से ही भोग सकता है और न उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन ही कर सकता है। जिस समय जिस कर्म का जिस रूप में फल भोगना नियत होता है उस समय उस कर्म का उसी रूप में फल भोगना पड़ता है। देववाद और १. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ६५. २. आप्तमीमांसा (का. ८८-९१) में देव और पुरुषार्थ का समन्वय किया गया है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जैन धर्म-दर्शन नियतिवाद में समानता होते हुए भी मुख्य अन्तर यह है कि दैववाद कर्म की सत्ता में विश्वास रखता है जबकि नियतिवाद कर्म का अस्तित्व नहीं मानता। दोनों की पराधीनता आत्यन्तिक एवं ऐकान्तिक होते हुए भी दैववाद की पराधीनता परतः अर्थात् प्राणी के कर्मों के कारण है जबकि नियतिवाद की पराधीनता बिना किसी कारण के अर्थात् स्वतः है । . पुरुषार्थवाद-पुरुषार्थवादियों का मत है कि इष्टानिष्ट की प्राप्ति बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने से ही होती है। भाग्य अथवा दैव नाम की कोई वस्तु नहीं है। पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न ही सब-कुछ है । प्राणी अपनी बुद्धि एवं शक्ति के अनुसार जैसा प्रयत्न करता है वैसा ही फल पाता है। इसमें भाग्य की क्या बात है ? किसी भी कार्य की सफलताअसफलता प्राणी के पुरुषार्थ पर ही निर्भर होती है । पुरुषार्थवाद का आधार स्वतंत्रतावाद यानी इच्छास्वातन्त्र्य है। जैन सिद्धान्त का मन्तव्य : जैन सिद्धान्त कर्म को प्राणियों की विचित्रता का प्रधान कारण मानता हुआ भी कालादि का सर्वथा अपलाप नहीं करता। आचार्य हरिभद्र का कथन है कि कालादि सब मिलकर ही गर्भादि कार्यों के कारण बनते हैं। चूंकि ये पृथक् पृथक् कहीं भी किसी कार्य को जन्म देते नहीं देखे जाते अतः यह मानना युक्तिसंगत है कि ये सब मिलकर ही समस्त कार्यों के कारण बनते हैं।' सिद्धसेन दिवाकर ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पांच कारणों १. शास्त्रवार्तासमुच्चय, १९१-१९२. - - Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४२५ में से किसी एक को ही कार्यनिष्पत्ति का कारण मानने और शेष की अवहेलना करने को मिथ्या धारणा कहा है । कार्य निष्पत्ति में कालादि समस्त कारणों का समन्वय करना सम्यक् धारणा है ।' आचार्य समन्तभद्र ने देव और पुरुषार्थं का समन्वय करते हुए कहा है कि बुद्धिपूर्वक कार्य न करने पर भी इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होना दैवाधीन है तथा बुद्धिपूर्वक कार्य करने पर इष्टानिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है। कहीं देव प्रधान होता है तो कहीं पुरुषार्थ । अतः देव और पुरुषार्थ के विषय में अनेकान्त दृष्टि रखनी चाहिए। इन दोनों के समन्वय से ही अर्थसिद्धि होती है । जैन सिद्धान्त में चेतन और जड़ पदार्थों के नियन्त्रक एवं नियामक से रूप में पुरुषविशेष अर्थात् ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गई है । विश्व अनादि एवं अनन्त है तथा प्राणी स्वकृत कर्मों के अनुसार इसमें जन्म-मरण का अनुभव किया करते हैं । यह चक्र बिना किसी पुरुषविशेष की सहायता के स्वभावतः स्वतः चलता रहता है । कर्म से ही प्राणी के जन्म, स्थिति, मरण आदि की सिद्धि हो जाती है। कर्म अपने नैसर्गिक स्वभाव के अनुसार स्वतः फल प्रदान करने में समर्थ होता है । कर्म का अस्तित्व : प्राणियों में कर्मजन्य अनेक विचित्रताएं पाई जाती हैं । इन विचित्रताओं में सुख-दुःख का विशेष स्थान है। कर्म के अस्तित्व की सिद्धि के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये जाते हैं उनमें १. सन्मतितर्क प्रकरण, ३.५३. २. आप्तमीमांसा, ६८- ९१. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जन धर्म-दर्शन सुख-दुख हेतु मुख्य है । वह हेतु इस प्रकार है : सुख-दुःख का कोई कारण अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह कार्य है, जैसे अंकुररूप कार्य का कारण बीज है । सुख-दुःखरूप कार्य का जो कारण है वही कर्म है ।" यहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि सुख-दुःख का कोई दृष्ट कारण सिद्ध हो तो कर्मरूप अदृष्ट कारण का अस्तित्व मानने की क्या आवश्यकता है ? चन्दन आदि पदार्थ सुख के तथा सर्पविष आदि दुःख के जनक सिद्ध हैं । इन दृष्ट कारणों को छोड़कर अदृष्ट कर्म की सत्ता स्वीकार करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि दृष्ट कारणों में दोष दृष्टिगोचर होता है । अतः अदृष्ट कारण मानना अनिवार्य है । सुख-दुःख के दृष्ट कारणों के समान रूप से विद्यमान रहने पर भी उनके कार्यों में जो तारतम्य दिखाई देता है वह अकारण नहीं हो सकता । उस तारतम्य का जो अदृष्ट कारण है वही कर्म है । कर्म-साधक दूसरा हेतु इस प्रकार है: आद्य बाल- शरीर देहान्तरपूर्वक है, क्योंकि वह इन्द्रियादि से युक्त है, जैसे युवदेह बाल देहपूर्वक है । आद्य बालशरीर जिस देहपूर्वक है वही कर्म ( कार्मण शरीर ) है | 3 कर्म का अस्तित्व सिद्ध करने वाला तीसरा हेतु इस प्रकार है : दानादिरूप क्रिया का कोई फल अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह सचेतन व्यक्तिकृत क्रिया है, जैसे कृषि । दानादि १. विशेषावश्यक भाष्य, १६१०-१६१२. २. वही, १६१२ - १६१३. ३. वही, १६१४. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४२७ । रूप क्रिया का जो फल है वही कर्म है। यहाँ कोई यह प्रश्न कर सकता है कि जैसे कृषि आदि का दृष्ट फल धान्यादि है वैसे ही दानादि का फल भी मनःप्रसाद आदि क्यों न मान लिया जाय? इस दृष्ट फल को छोड़कर कर्मरूप अदृष्ट फल की सत्ता स्वीकार करने से क्या लाभ ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि मनःप्रसाद भी एक प्रकार की क्रिया है, अतः सचे. तन की अन्य क्रियाओं के समान उसका भी फल मानना चाहिए। वही फल कर्म है। कर्म का मूर्तत्व : ___शरीर आदि के मूर्त होने के कारण तन्निमित्तभूत कर्म भी मूर्त होना चाहिए, इस तर्क को स्वीकार करते हुए जैन दर्शन में कर्म को मूर्त माना गया है। जैसे परमाणुओं का घटादि कार्य मूर्त है अतः परमाणु भी मूर्त है वैसे ही कर्म का शरीरादि कार्य मूर्त होने से कर्म भी मूर्त है। कर्म का मूर्तत्व सिद्ध करने वाले अन्य कुछ हेतु इस प्रकार हैं : ___ कर्म मूर्त है, क्योंकि उससे सम्बन्ध होने पर सुख आदि का अनुभव होता है, जैसे भोजन । जो अमूर्त होता है उससे सम्बन्ध होने पर सुख आदि का अनुभव नहीं होता, जैसे आकाश। ___ कर्म मूर्त है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से वेदना का अनुभव होता है, जैसे अग्नि । जो अमूर्त होता है उसके सम्बन्ध से वेदना का अनुभव नहीं होता, जैसे आकाश । १. वही, १६१५-१६१६. २. वही, १६२५. ३. वही, १६२६-१६२७. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ जैन धर्म-दर्शन कर्म मूर्त है, क्योंकि उसमें बाह्य पदार्थों से बलाधान होता है, जैसे घट । जिस प्रकार घटादि मूर्त वस्तुओं पर तेल आदि बाह्य पदार्थों का विलेपन करने से बलाधान होता है अर्थात् स्निग्धता आदि की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार कर्म में भी माला, चन्दन, वनिता आदि बाह्य पदार्थों के संसर्ग से बलाधान होता है अर्थात् उद्दीपनादि की उत्पत्ति होती है। अतः कर्म मूर्त है। कर्म, आत्मा और शरीर : ___कर्म मूर्त है तथा आत्मा अमूर्त । ऐसी स्थिति में कर्म आत्मा से सम्बद्ध कैसे हो सकता है ? मूर्त द्वारा अमूर्त का उपधात या उपकार कैसे हो सकता है ? जैसे विज्ञानादि अमूर्त हैं किन्तु मदिरा, विष आदि मूर्त वस्तुओं द्वारा उनका उपघात होता है तथा घी, दूध आदि पौष्टिक पदार्थो से उनका उपकार होता है वैसे ही मूर्त कर्म द्वारा अमूर्त आत्मा का उपघात या उपकार होता है ।' अथवा संसारी आत्मा एकान्ततः अमूर्त नहीं है । जीव और कर्म का अनादिकालीन सम्बन्ध होने के कारण कथंचित् जीव भी कर्मपरिणामरूप है अतः वह उस रूप में मूर्त भी है। इस प्रकार मूर्त आत्मा से मूर्त कर्म सम्बद्ध हो सकता है तथा कर्म आत्मा का उपघात एवं उपकार कर सकता है। जिस प्रकार आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है उसी प्रकार शरीर और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि है । शरीर और कर्म में परस्पर कार्य-कारणभाव है । जैसे बीज से अंकुर तथा १. वही, १६३७. २. वही, १६३८. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४२६ • अंकूर से बीज की उत्पत्ति होती है और इस तरह बीजांकुरसन्तति अनादिकालीन सिद्ध होती है वैसे ही शरीर से कर्म तथा कर्म से शरीर का उद्भव होता है एवं शरीर और कर्म की परम्परा अनादिकालीन प्रमाणित होती है।' इस प्रकार कर्म, आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनादि है। आगम-साहित्य में कर्मवाद : कर्मवाद की ऐतिहासिक समीक्षा के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम वेदकालीन कर्मविषयक मान्यता का विचार किया जाय क्योंकि उपलब्ध समस्त साहित्य में वेद प्राचीनतम हैं। वैदिक काल के ऋषियों को कर्मवाद का ज्ञान था या नहीं, इस विषय में दो मत हैं। कुछ विद्वानों की धारणा है कि वेदों अर्थात् संहिता-ग्रन्थों में कर्मवाद का उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत अन्य विद्वान् यह मानते हैं कि संहिता-ग्रन्थों के रचयिता कर्मवाद से परिचित थे। वेदों में कर्मवाद-जो यह मानते हैं कि वेदों में कर्मवाद का विचार नहीं हुआ है उनका कथन है कि वैदिक काल के ऋषियों ने प्राणियों में विद्यमान वैविध्य अथवा वैचित्र्य का अनुभव अवश्य किया किन्तु उन्होंने इसका कारण अन्तरात्मा में हूँढ़ने के बजाय बाह्य तत्त्व में मानकर ही सन्तोष कर लिया। उनमें से किसी ने यह कल्पना की कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एक भौतिक तत्त्व है। किसी ने अनेक भौतिक तत्त्वों को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना। किसी ने प्रजापति को सृष्टि की उत्पत्ति के कारण के रूप में स्वीकार किया। वैदिक युग का समस्त तत्त्व १. वही, १६३६. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैन धर्म-दर्शन • चिन्तन देव और यज्ञ की परिधि में सम्पन्न हुआ। पहले अनेक देवों की और बाद में एक देव की महत्ता स्थापित की गई । अपने सुख के लिए तथा शत्रुओं के नाश के लिए देवस्तुति का सहारा लिया गया एवं सजीव और निर्जीव वस्तुओं की यज्ञ में आहुति दी गई। यह मान्यता संहिता काल से लेकर ब्राह्मण-काल तक विकसित हुई । देवों को प्रसन्न कर अपनी मनोकामना पूरी करने के साधनभूत यज्ञकर्म का क्रमशः विकास हुआ तथा यज्ञ करने की प्रक्रिया धीरे-धीरे जटिल होती गई । " आरण्यक और विशेषतः उपनिषद्-काल में देवों और यज्ञकर्मों की महत्ता का अन्त निकट आने लगा । इस युग में ऐसे विचार उत्पन्न होने लगे जिनका संहिता व ब्राह्मण-ग्रन्थों में अभाव था। इन विचारों में कर्म अर्थात् अदृष्टविषयक नूतन चिन्तन भी दृष्टिगोचर होता है । उपनिषदों के पूर्वकालीन वैदिक ग्रन्थों में कर्मविषयक इस चिन्तन का अभाव है । उनमें अदृष्टरूप कर्म का स्पष्ट दर्शन नहीं होता। इतना ही नहीं, कर्म को विश्ववैचित्र्य का कारण मानने में उपनिषद् भी एकमत नहीं हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रारम्भ में विश्ववैचित्र्य के जिन अनेक कारणों का उल्लेख है उनमें कर्म का समावेश नहीं है । वहाँ काल, स्वभाव, नियति यदृच्छा, भूल और पुरुष ही निर्दिष्ट हैं । जिनकी यह मान्यता है कि वेदों अर्थात् संहिता ग्रन्थों में कर्मवाद का उल्लेख हैं वे वहते हैं कि कर्मवाद, कर्मगति आदि शब्द भले ही वेदों में न हों किंतु संहिताओं में कर्मवाद १. आत्ममीमांसा, पृ० ७६ ८० Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त का उल्लेख ही नहीं है, यह धारणा सर्वथा निर्मूल है। कर्मवाद के सम्बन्ध में ऋग्वेद-संहिता में जो मन्त्र हैं वे इस प्रकार हैं: __ शुभस्पतिः ( शुभ कर्मों के रक्षक), धियतिः ( सत्कर्मों के रक्षक), विचर्षणिः तथा विश्वचर्षणिः ( शुभ और अशुभ कर्मों के द्रष्टा ), विश्वस्य कर्मणो धर्ता (सभी कर्मों के आधार) आदि पदों का देवों के विशेषणों के रूप में प्रयोग हुआ है। कई मन्त्रों में यह स्पष्ट कहा गया है कि शुभ कर्म करने से अमरत्व की प्राप्ति होती है । जीव अनेक बार इस संसार में अपने कर्मों के अनुसार उत्पन्न होता है तथा मृत्यु को प्राप्त करता है। वामदेव ने पूर्व के अपने अनेक जन्मों का वर्णन किया है। पूर्व जन्म के दुष्ट कर्मों के कारण लोग पापकर्म करने में प्रवृत्त होते हैं इत्यादि उल्लेख वेदों के मन्त्रों में सष्ट हैं। पूर्व जन्म के पापकर्मों से छटकारा पाने के लिए मनुष्य देवों से प्रार्थना करता है। संचित तथा प्रारब्ध कर्मों का वर्णन भी मन्त्रों में है। इसी प्रकार देवयान एवं पितृ. यान का वर्णन तया किस प्रकार अच्छे कर्म करने वाले लोग देवयान के द्वारा ब्रह्मलोक को और साधारण कर्म करने वाले पितृयान के द्वारा चन्द्रलोक को जाते हैं, इन बातों का वर्णन भी मन्त्रों में है। जीव पूर्व जन्म के नीच कर्मों के भोग के लिए किस प्रकार वृक्ष, लता आदि स्थावर-शरीरों में प्रविष्ट होता है, इसका भी वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। "मा वो गुजेमान्यजातमेनो", "मा वा एनो अन्यकृतं भजेम" आदि मन्त्रों से यह भी मालूम होता है कि एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किये गये कर्मों का भी भोग कर सकता है जिससे बचने के लिए साधक ने इन मन्त्रों में प्रार्थना की है। यद्यपि साधारणतः Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जैन धर्म-दर्शन जो जीव कर्म करता है वही उसके फल का भोग भी करता है। किन्तु विशेष शक्ति के प्रभाव से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है । ' का उपर्युक्त दोनों मतों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वेदों में कर्मविषयक मान्यताओं का अभाव तो नहीं है किन्तु यज्ञवाद एवं देववाद के प्रभुत्व के कारण कर्मवाद निरूपण एकदम गौण हो गया है। दूसरी बात यह है कि कर्म क्या है, कैसे उपार्जित होता है, किस प्रकार छूटता है आदि प्रश्नों का वैदिक संहिताओं में स्पष्ट समाधान नहीं है । उनमें अधिकांशतः यज्ञकर्म को ही कर्म मान लिया गया है तथा देवों की सहायता की अत्यधिक अपेक्षा रखी गई है । कर्मवाद का जो रूप जैन, बौद्ध एवं अन्य भारतीय दर्शनों में उपलब्ध होता है उसका वेदों में निःसन्देह अभाव है। जैन दर्शन में प्रतिपादित कर्मव्यवस्था का तो वेदों में क्या किसी भी भारतीय परम्परा में दर्शन नहीं होता। जैन परम्परा इस विषय में सर्वथा विलक्षण है । कर्मवाद का विकास- - वैदिक युग में यज्ञवाद और देववाद दोनों का प्राधान्य था । जब यज्ञ तथा देव की अपेक्षा कर्म का महत्त्व बढ़ने लगा तत्र यज्ञवाद एवं देववाद के समर्थकों ने इन दोनों वादों का कर्मवाद के साथ समन्वय करने की चेष्टा से यज्ञ को ही देव तथा कर्म बना दिया एवं यज्ञ से ही समस्त फल की प्राप्ति स्वीकार की । इस मान्यता का दार्शनिक रूप मीमांसा दर्शन है । वैदिक परम्परा में प्रदत्त यज्ञ एवं देवविषयक महत्त्व के कारण यज्ञकर्म के विकास के साथ-साथ १. भारतीय दर्शन ( उमेश मिश्र ), पृ० ३६-४१. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमसिद्धान्त ४२३ देवविषयक विचारणा का भी विकास हआ। ब्राह्मण-काल में अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति देवाधिदेव के रूप में प्रतिष्ठित हआ। प्रजापतिवादियों ने भी कर्म के साथ प्रजापति का समन्वय करने का प्रयत्न किया एवं कहा कि प्राणी अपने कर्म के अनुसार फल अवश्य प्राप्त करता है किन्तु यह फलप्राप्ति स्वतः न होकर देवाधिदेव ईश्वर के द्वारा होती है। ईश्वर जीवों को अपने-अपने कर्म के अनुसार ही फल प्रदान करता है. मनमाने ढंग से नहीं। वह न्यायाधीश की भांति आचरण करता है स्वेच्छाचारी की भांति नहीं। इस मान्यता के समर्थक दर्शनों में न्याय-वंशेषिक, सेश्वर सांख्य तथा वेदान्त का समावेश होता है। वैदिक परम्परा में यज्ञादि अनुष्ठानों को कर्म कहा गया किन्तु उनकी उसी समय समाप्ति हो जाने से वे अस्थायी अनुष्ठान स्वयमेव फल कैसे दे सकते हैं ? अतः फल प्रदान करने के माध्यम के रूप में एक अदष्ट पदार्थ की कल्पना की गई जिमे मीमांमा दर्शन में 'अपूर्व' नाम दिया गया है। वैशे. षिक दर्शन में 'अदृष्ट' एक गुण माना गया है जिसके धर्म-अधर्मरूप दो भेद किए गए हैं। न्याय दर्शन में धर्म तथा अधर्म को 'संस्कार' कहा गया है। जैन और वौद्ध परम्पराओं में तो कर्म की अदृष्ट शक्ति का प्ररूपण प्रारंभ से ही हुआ है। इन दोनों परम्पराओं का मूल एक ही है। ये कर्मप्रधान श्रमणसंस्कृति की धाराएं हैं। जैन आगम-साहित्य में कर्मवाद-जैन कर्मवाद पर अनेक आगमेतर स्वतन्त्र ग्रन्थ तो हैं ही, उपलब्ध आगम-साहित्य में भी इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यद्यपि Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ×× जैन धर्म-दर्शन कर्मविषयक ऐसे अनेक पहलू हैं जिन पर आगम-ग्रन्थों में विशेष विचार नहीं हुआ है किन्तु कर्मसिद्धान्त की मूल भित्तियों का इनमें अभाव नहीं है । वैसे तो प्रायः प्रत्येक आगम-ग्रन्थ में किसी-न-किसी रूप में कर्मविषयक चिन्तन उपलब्ध होता है किन्तु आचारांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ), प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन में कर्मवाद पर विशेष सामग्री प्राप्त होती है । आचारांग में कर्मबन्धन के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मैंने किया, मैंने करवाया, मैंने करते हुए का अनुमोदन किया आदि क्रियाएं अर्थात् मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ कर्मबन्धन के हेतु हैं ।' जो आस्रत्र अर्थात् बन्धन के हेतु हैं वे कई बार परिस्रव अर्थात् बन्धन के नाश के हेतु बन जाते हैं और जो बन्धन के नाश के हेतु हैं वे कई बार बन्धन के हेतु बन जाते हैं । इसी प्रकार जो अनास्रत्र अर्थात् बन्धन के अहेतु हैं वे कई बार अपरिस्रव अर्थात् बन्वत के हेतु बन जाते हैं और जो बन्धन के हेतु हैं वे कई बार बन्धन के अहेतु बन जाते हैं । मन की विचित्रता के कारण जो बन्धन का कारण होता है वही मुक्ति का कारण बन जाता है तथा जो मुक्ति का कारण होता है वही बन्धन का कारण बन जाता है क्योंकि वस्तुतः मन ही बन्त्र एवं मोक्ष का कारण है । संसार में ऊपर, नीचे, तिरछे सर्वत्र कर्म के स्रोत विद्यमान हैं। जहाँ जीव को आसक्ति होती है वहाँ कर्म का बन्धन होता है । 3 दो प्रकार के ( साम्परायिक - कषायसहित और ईर्यापथिक कषायरहित ) कर्मों को जानकर तथा आस्रव के कारणों, पाप के स्रोतों एवं मन २. श्र० १, अ० ४, उ० २. १. श्र० १, अ० १, उ० १. ३. श्र० १, ०५, उ० ६. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त वचन-काय की प्रवृत्तियों ( योग ) का सर्वतः ज्ञान प्राप्त कर मेधावी ज्ञानी ( भगवान् महावीर ) ने अनुपम संयमानुष्ठान (क्रिया) का कथन किया। पापरहित अहिंसा का स्वयं आश्रय लिया तथा पापजनक व्यापार से दूसरों को निवृत्त किया। स्त्रियों को सब कर्मों का मूल जानकर उन्होंने स्त्री-मोह का परित्याग किया।' गुणसम्पन्न मुनि के सावधानीपूर्वक विविध प्रवृत्तियाँ करते हुए कदाचित् शरीरसंस्पर्श से कोई प्राणी मृत्यु प्राप्त करे तो उस शिथिल पापकर्म का इसी भव में वेदन होकर स्वतः क्षय हो जाता है। आकुट्टिपूर्वक अर्थात् हिंसा-बुद्धि से यानी जान-बूझकर हिंसादि कार्य करने पर होनेवाला पापकर्म दृढ़ होता है जिसका इस भव में क्षय प्रायश्चि न करने पर ही हो सकता है । * तासर्य यह है कि कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मवन्धन दुर्वल एवं अल्पायु होता है तथा कपायसहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्धन बलवान् एवं दीर्घायु होता है । प्रथम प्रकार का बन्ध ईर्यापविक तथा द्वितीय प्रकार का साम्प. रायिक कहलाता है। संयम में संलग्न मेधावी सब प्रकार के पापकर्मों को नष्ट कर देता है। जो दूसरों को होने वाले दुःखों को जानता है वह वीर आत्मपयर रखकर विषयों में नहीं फंसता हुआ पारकर्मों से दूर रहता है । जो करहित हो जाता है वह समस्त सांसारिक व्यवहार से मुक्त हो जाता है क्योंकि कर्मों से ही सब आधिपा उत्पन्न होती हैं । इसलिए हे धीर पुरुषो! तुम मुलका (घाती कर्न) और अग्रकर्म ( अघाती कर्म ) को अपनी आत्मा से पृथक् करो। इस १. श्रु० १, अ० ६, उ० १. २. अ० १, अ० ५, उ० ४. ३. शु. १, १० ३, उ० २. ४. श्र. १, ४० ३, ३० १. - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ धन धर्म-दर्शन प्रकार कर्मों को तोड़कर तुम कर्मरहित अर्थात् मुक्त हो जाओगे ।' आचारांग के इन व इस तरह के अन्य उल्लेखों से स्पष्ट प्रकट होता है कि कर्मवाद के मूलभूत सिद्धान्तों का इस अंग - सूत्र में संक्षिप्त निरूपण हुआ है । कर्म के आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा के साथ ही साम्परायिक एवं ईर्ष्यापथिकरूप तथा घाती एवं आघातीरून भेदों का विचार किया गया है । कर्म को ही संसार का कारण माना गया है तथा कर्म के अभाव को मोक्ष कहा गया है। स्थानांग और समवायांग में कर्मवाद पर कुछ अधिक विचार हुआ है। कर्म के आस्रव के हेतुओं का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि आस्रवद्वार पाँच हैं : १. मिथ्यात्व ( मिथ्या श्रद्धा ), २. अविरति ( व्रताभाव ), ३. प्रमाद, ४. कषाय ( क्रोध- मान-माया - लोभ ), ५. योग ( मन-वचन-काय की प्रवृत्ति ) | पुण्य अर्थात् शुभ कर्मबन्ध के नौ कारण हैं : १. अन्नदान, २. पानदान, ३. वस्त्रदान, ४. गृहदान, ५. शयनदान, ६. मन: प्रसाद ( गुणी जनों को देखकर वित्त में प्रसन्नता होना ), ७. वचनप्रशंसा ( गुणी जनों की वाणी से सराहना करना), ८. काय सेवा ( शरीर से शुश्रूषा करना ), ६. नमस्कार । पाप अर्थात् अशुभ कर्म बन्ध के भी नौ कारण हैं : १. हिंसा, २. झूठ, ३. चोरी, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ६. लोभ 13 कर्मबन्ध चार प्रकार का है : १. प्रकृति बन्ध २. स्थितिबन्ध, ३. अनुभावबन्ध, ४. प्रदेशबन्ध । कर्म · १. श्रु० १, अ० ३, उ० २. २. स्थानांग, ४१८; समवायांग, ५. ३. स्थानांग, ६७६-६७७. ४. स्थानांग, २९६; समवायांग ४, ( प्रकृति - स्वभाव, स्थिति = काल, अनुभाव = रस, प्रदेश = पुद्गल - परमाणु ) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त भी चार प्रकार का है : १. शुभ और शुभानुबन्धी, २. शुभ और अशुभानुबन्धी, ३. अशुभ और अशुभानुबन्धी, ४. अशुभ और शुभानुबन्धी। प्रकृतिवन्ध आठ प्रकार का है : १ ज्ञानावरणीय (ज्ञान अर्थात् विशेष बोध को आवृत करनेवाला), २. दर्शनाघरणीय ( दर्शन अर्थात् सामान्य बोध को आवृत करनेवाला), ३. वेदनीय (शारीरिक सुख-दुःख प्रदान करने वाला), ४. मोहनीय (आत्मा में मोह उत्पन्न करनेवाला), ५ आयु (भवस्थिति प्रदान करनेवाला), ६ नाम ( शारीरिक वैविध्य प्रदान करनेवाला), ७ गोत्र ( शारीरिक उच्चत्व-नीचत्व प्रदान करनेवाला), ८. अन्तराय ( आदान-प्रदानादि में विघ्न उत्पन्न करनेवाला)। इनके उपभेदों की भी गणना की गई है। इसी प्रकार स्थितिबन्ध एवं अनुभावबन्ध पर भी किंचित् प्रकाश डाला गया है। प्रदेशबन्ध के विषय में दोनों सूत्रों में किसी प्रकार को विशेष चर्चा नहीं है। संवर अर्थात् आस्रव-निरोध के पाँच हेतु बताए गए हैं : १. सम्यक्त्व (सम्यक् श्रद्धा), २. विरति (व्रत), ३. अप्रमाद, ४ अकषाय, ५. अयोग। निर्जरा अर्थात् कर्मनाश के भी पाँच हेतु हैं : १. प्राणातिपात विरमण ( हिंसा-त्याग), २. मृषावाद-विरमण ( असत्य-त्याग), ३. अदत्तादान-विरमण ( चौर्य-त्याग), ४. मैथुन-विरमण ( अब्रह्म त्याग ), ५. परिग्रह-विरमण (आसक्ति-त्याग)।' १. स्थानांग, ३६२. (शुभ = पुण्य, अशुभ-पाप । शुभ के उदय के समय पुनः शुभ का बंध होना प्रथम प्रकार है। इसी तरह अन्य प्रकार भी समझने चाहिए।) २. स्थानांग, ५९६. ३. समवायांग, ५. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ जैन धर्म-दर्शन कर्मविशुद्धि की अपेक्षा से अर्थात् आत्मिक विकास की दृष्टि से जीव के चौदह स्थान ( गुणस्थान ) गिनाये गये हैं: १. मिथ्यादृष्टि, २ सास्वादन सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यङ मिथ्या दृष्टि, ४. अविरत - सम्यग्दृष्टि, ५ विरताविरत ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तमयत ८ निवृत्तित्रादर, ६ अनिवृत्तिवादर, १०. सूक्ष्मसम्पराय ( उपशमक अथवा क्षपक), ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगी-केवली, १४. अयोगी-केवली ।" " व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसुत्र ) में कर्मवाद के विविध रूपों का निरूपण हुआ है । अर्जित कर्म का भोग किये बिना मुक्ति नहीं होती, इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि कृत कर्मों का वेदन किये बिना नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव की विमुक्ति नहीं अर्थात् उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं होता । कर्म दो प्रकार के हैं : प्रदेशकर्म और अनुभागकर्म । इनमें जो प्रदेशकर्म हैं उनका वेदन होता ही है किन्तु अनुभागकर्मों का वेदन होता भी है और नहीं भी । जीव तीन कारणों से अल्प आयुष्य बाँधता है : १. प्राण-हिंसा, २. असत्यभाषण, ३. तथारूप श्रमणब्राह्मण को अनेषणीय अशन-पान - खादिम - स्वादिम का दान | निम्नोक्त तीन कारणों से दीर्घ आयुष्य बँधता है १ अहिंसापालन, २. सत्यभाषण, ३. तथारूप को एषणीय अशन-पान खादिम स्वादिम का हिंसा आदि कारणों से जीव चिरकालपर्यन्त जीने का आयुष्य बाँधता है तथा अहिंसा-पालन आदि कारणों से प्राणी दीर्घ काल तक शुभ रूप से जीने का आयुष्य बाँधता है । महाकर्तयुक्त, महाक्रियायुक्त महाआस्रवयुक्त और महा : श्रमण-ब्राह्मण दान | प्राणअशुभ रूप से १. समवायांग, १४. २. श० १, उ० ४. ३. श०५, उ० ६. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४३९ वेदनायुक्त प्राणी को सब ओर से सब प्रकार के कर्मपुद्गलों का निरन्तर बन्ध, चय और उपचय होता रहता है। परिणामतः उसकी आत्मा ( वाह्य आत्मा-शरीर ) बार-बार कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध, कुरस एवं दुःस्मर्श रूप में, अनिष्ट, अकान्त, अमनोज्ञ, अशुभ, अनभीप्सित एवं अनभिधेय स्थिति में तथा अनुनत ( निम्न ) एवं असुखरूप ( दुःखरूप ) अवस्था में परिणत होती रहती है। अल्पकर्मयुक्त, अल्पक्रियायुक्त, अल्लास्रवयुक्त और अल्पवेदनायुक्त प्राणी के कर्मपुद्गल निरन्तर छेदित और भेदित होते रहते हैं तथा विध्वंसित होकर सर्वया नष्ट भी हो जाते हैं। परिणामतः उसकी आत्मा सुरूप यावत् सुखरूप अवस्था में परिणत हो जाती है।' वस्त्रों को पुद्गलों का उपचय अर्थात् मैल लगना प्रयोग से अर्थात् दूसरों के द्वारा भी होता है और स्वाभाविक भी। जीवों को कर्मपुद्गलों का उपचय प्रयोग से ही होता है, स्वाभाविक नहीं। जीवों के प्रयोग तीन प्रकार के हैं : मन:प्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग । इन तीन प्रकार के प्रयोगों द्वारा ही जीवों को कर्मोपचय होता है। पंचेन्द्रिय जीवों के तीन -मनःप्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग, एकेन्द्रिय जीवों के एक-कायप्रयोग तथा विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ) जीवों के दो-वचनप्रयोग और कायप्रयोग होते हैं। इस प्रकार व्याख्याप्रज्ञप्ति में कर्मसम्बन्धी अनेक समस्याओं का समाधान किया गया है। प्रज्ञापना में कर्मवाद का पांच पदों अर्थात् अध्यायों में व्यवस्थित व्याख्यान है। कर्मप्रकृति-पद में ज्ञानावरणीय आदि १. श० ६,उ. ३. २. वही. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन आठ मूलप्रकृतियों एवं आभिनित्रोविकज्ञानावरणीय (मतिज्ञानावरणीय ) आदि अनेक उत्तरप्रकृतियों का वर्णन है । कर्मबन्ध-पद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी कमंत्रकृतियाँ बाँधता है उसका विचार है । कर्मवेदपद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को बाँधते हुए जीव कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है-इसका विचार किया गया है । कर्मवेदबन्ध-पद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्म प्रकृतियाँ बाँधना है - इसका विचार हुआ है । कर्मवेदवेद-पद में इस बात का विचार किया गया है कि जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है । जीव दो कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधता है : राग से और द्वेष से । राग दो प्रकार का है : माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है : क्रोध और मान । इसी प्रकार दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय कर्म के विषय में भी समझना चाहिए ।" ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम का है । अबाधा-काल अर्थात् अनुदय काल तीन हजार वर्ष का है। इसी तरह अन्य कर्मों के विषय में विविध प्रकार की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति तथा अबाधा-काल जान लेना चाहिए । जीव ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म बाँधते हुए आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है, वेदनीय कम बांधते हुए आठ, सात अथवा चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है इत्यादि । ४४. १. ५० २३, सू० ३० २. ५० २३, सू० २१-२८. ३. १० २५, सू० १. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ૪૪૨ उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक तैंतीसवें अध्ययन में कर्म की आठ मूलप्रकृतियों की अनेक उत्तरप्रकृतियों की गणना की गई है तथा कर्मों के प्रदेश, क्षेत्र, काल और भाव का स्वरूप बताया गया है । ज्ञानावरणीय कर्म पाँच प्रकार का है : १. आभिनिबोधक - ज्ञानावरण, २. श्रुत ज्ञानावरण, ३. अवधि ज्ञानावरण, ४. मन:पर्यय - ज्ञानावरण, ५. केवलज्ञानावरण। दर्शनावरणीय कर्म के नो भेद हैं : १. निद्रा, २. निद्रा-निद्रा, ३. प्रचला, ४. प्रचलाप्रचला ५. स्त्यानगृद्धि, ६. चक्षुर्दर्शनावरण, ७. अचक्षुर्दर्शनावरण, ८ अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण | वेदनीय कर्म दो प्रकार का है : ९. सातावेदनीय और असातावेदनीय | इन दोनों के पुनः अनेक भेद हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद है : दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है : सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यङमिथ्यात्व - मोहनीय | चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है : कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । कषायमोहनीय के पुनः सोलह एवं नोकषायमोहनीय के सात अथवा नौ भेद हैं। आयु कर्म के चार प्रकार हैं : १. नरकायु, २ तिर्यगायु, ३. मनुष्यायु, ४. देवायु । नाम कर्म दो प्रकार का है : शुभनाम और अशुभनाम । इन दोनों के पुनः अनेक भेद हैं । गोत्र कर्म दो प्रकार है : उच्चगोत्र और नीचगोत्र । इन दोनों के पुनः आठ-आठ भेद है । अन्तराय कर्म के पाँच प्रकार का है : १. दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, ५. वीर्यान्तराय । इस प्रकार आगम साहित्य में जैन कर्मवाद का मूल ढांचा सुरक्षित है । उत्तरवर्ती कर्म - साहित्य में इसी ढांचे का विविध रूपों में विकास हुआ है । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन धर्म दर्शन कर्म का स्वरूप : ___ कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया होता है अर्थात् जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं, जैसे-खाना, पीना, चलना, दौड़ना, रोना, हंसना, सोचना, बोलना आदि । व्यवहार में काम-धन्धे अथवा व्यवसाय को कर्म कहा जाता है। कर्मकाण्डी मीमांसक यज्ञ आदि क्रियाओं को कर्म कहते हैं। स्मार्त विद्वान् चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्तव्यों को कर्म की संज्ञा देते हैं। पौराणिक लोग व्रत-नियम आदि धार्मिक क्रियाओं को कर्मरूप मानते हैं । व्याकरणशास्त्र में कर्ता जिसे अपनी क्रिया द्वारा प्राप्त करना चाहता है अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता है उसे कर्म कहते हैं। न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमनरूप पांच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द व्यवहृत होता है। योग दशन में संस्कार को वासना, अपूर्व अथवा कम कहा जाता है। बौद्ध दर्शन जीवों की विचित्रता के कारण को कर्म कहता है जो वासनारूप है। जैन दर्शन में रागद्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय भावकर्म तथा कार्मण वर्ग का पुद्गल अर्थात् जड़ तत्त्वविशेष, जोकि कषाय के कारण आत्मा अर्थात् चेतन तत्त्व के साथ घुल-मिल जाता है, द्रव्यकर्म कहलाता है। आत्मा की संसार में स्थिति कर्म के कारण ही है। कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने पर आत्मा की मुक्ति अर्थात् पूर्ण विशुद्धि हो जाती है। इस अवस्था में कर्म परमाणु आत्मा से हमेशा के लिए अलग हो जाते हैं। विभिन्न परम्पराओं में कर्म-जिस अर्थ में जैन दर्शन में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है उस अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, अविज्ञप्ति, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, देव, भाग्य आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं । वेदान्त दर्शन में माया, अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । मीमांसा दर्शन में अपूर्व शब्द का प्रयोग हुआ है । बौद्ध दर्शन में वासना एवं अविज्ञप्ति शब्द विशेषरूप से मिलते हैं । सांख्य-योग दर्शन में आशा शब्द विशेषतः उपलब्ध होता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट, संस्कार तथा धर्माधर्म शब्द विशेषतया प्रचलित हैं। देव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका प्रयोग सामान्यतः सब दर्शनों में हुआ है। भारतीय दर्शनों में केवल चार्वाक दर्शन ही ऐसा हैं जो कर्मवाद में विश्वास नहीं करता । चूंकि वह आत्मा अर्थात् चेतन तत्त्व का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानता इसलिए कर्म एवं तपरिणामरूप पुनर्भव एवं परलोक को सत्ता की भी आवश्यकता अनुभव नहीं करता । चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त समस्त भारतीय दर्शनों न किसी-न-किसी रूप में अयदा किसी-न-किसी नाम से कर्म की सत्ता स्वीकार की है तथा तनिष्पन पुनर्भव तथा परलोक का अस्तित्व माना है। ___न्याय दर्शन के अनुसार राग, द्वेष और मोह इन तीनों दोषों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवों के मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं । इन प्रवृत्तियों से धर्म तथा अधर्म की उत्पत्ति होती है । ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं । वैशेषिक दर्शन में जो चौबीस गुण माने गये हैं उनमें अदृष्ट भी समाविष्ट है। यह गुण संस्कार से भिन्न है तथा इसके धर्म और अधर्म ये दो । भेद हैं। इस प्रकार न्याय दर्शन में जिन धर्म-अधर्म का समा१. न्यायभाष्य, १.१.२ आदि. २. प्रशस्तपादभाष्य (चौखम्बा संस्कृत सिरीज, बनारस, १९३०), पृ. ४७. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन वेश संस्कार के अन्तर्गत किया गया है वे ही वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट के अन्तर्गत समाविष्ट किये गये हैं । रागादि दोषों से संस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से रागादि दोष तथा इन दोषों से पुनः संस्कारों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार जीवों की यह संसार-परम्परा बीजांकुरवत् अनादि मानी गई है। सांख्य योग दर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों के कारण क्लिष्ट वृत्ति उत्पन्न होती है । इस क्लिष्ट वृत्ति से धर्माधर्मरूप संस्कार की उत्पत्ति होती हैं । संस्कार को आशय, वासना, कर्म एवं अपूर्व भी कहा जाता है । इस दर्शन में भी क्लेश और संस्कार की परम्परा बीजांकुरवत् अनादि मानी गई है ।" मीमांसा दर्शन में यज्ञादि कर्मजन्य अपूर्व नामक पदार्थ का अस्तित्व माना गया है । मनुष्य द्वारा किये जाने वाले यज्ञादि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करते हैं । यह अपूर्व उन अनुष्ठानों - यज्ञादि कर्मों का फल प्रदान करता है। वेदविहित कर्म से प्रादुर्भूत होने वाली योग्यता अथवा शक्ति का ही नाम अपूर्व है, अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य का नहीं । वेदान्त दर्शन में अनादि अविद्या अथवा माया को विश्व वैचित्र्य का कारण माना गया है । 3 ईश्वर, जो स्वयं मायाजन्य हैं, कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है अतः फलप्राप्ति कर्म से न होकर ईश्वर से होती है । * १. योगदर्शनभाष्य, १. ५ आदि. २. शाबरभाष्य, २. १. ५; तन्त्रवार्तिक, २. १. ५ आदि. २. शांकरभाष्य, २. १. १४. ४. वही, ३.२. ३८-४१.. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त FIL बौद्ध दर्शन में मनोजन्य संस्कार अर्थात् कर्म को वासना तथा वचन एवं कायजन्य संस्कार (कर्म) को अविज्ञप्ति कहा गया है । लोभ, द्वेष और मोह कर्मों की उत्पत्ति के हेतु हैं । लोभ, द्वेष एवं मोहयुक्त होकर प्राणी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ करता है तथा पुनः लोभ, द्वेष एवं मोह को उत्पन्न करता है । इस प्रकार संसार-चक्र गतिमान रहता है । यह चक्र अनादि है ।" 1 जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप - जैन दर्शन कर्म को पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड मानता है। जीवों की विविधता का मूल कारण यही कर्म है । जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । जो पुद्गल - परमाणु कर्मरूप से परिणत होते हैं उन्हें कर्म-वर्गणा कहते हैं तथा जो शरीररूप से परिणत होते हैं उन्हें नोकर्मवर्गणा कहते हैं । लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है । जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से इन परमाणुओं को ग्रहण करता रहता है। मन, वचन अथवा काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म सम्बद्ध हो तथा जीव के साथ कर्म तभी सम्बद्ध होता है जब मन, वचन अथवा काय की प्रवृत्ति हो । इस प्रकार कर्म से प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति से कर्म की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है । कर्म और प्रवृत्ति के इस कार्य कारणभाव को दृष्टि में रखते हुए पुद्गलपरमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म तथा रागद्वेषादिरूप प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है । द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्य कारणभाव मुर्गी और अण्डे के समान अनादि है । १. अंगुत्तरनिकाय, ३. ३३. १; संयुत्तनिकाय, १५.५.६. २. कर्म प्रकृति ( नेमिचन्द्राचार्य विरचित ), ६. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दर्शन कर्म का विचार करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि पुद्गल और आत्मा अर्थात् जड़ और चेतन तत्त्वों के सम्मिश्रण से ही कर्म का निर्माण होता है । चाहे द्रव्य-कर्म हो चाहे भावकर्म, जड़ और चेतन दोनों प्रकार के तत्त्व उसमें मिले रहते हैं । जड़ और चेतन का मिश्रण हए बिना किसी भी प्रकार के कर्म की रचना नहीं हो सकती। द्रव्यकर्म और भावकर्म का भेद पद्गल और आत्मा की प्रधानता-अप्रधानता के कारण है, न कि एक-दूसरे के सद्भाव-असद्भाव के कारण । द्रव्यकर्म में पौद्गलिक तत्त्व की प्रधानता होती है तथा आत्मिक तत्त्व की अप्रधानता, जबकि भावकर्म में आत्मिक तत्त्व की प्रधानता होती है तथा पौदगलिक तत्त्व की अप्रधानता। यदि द्रव्यकर्म को पुद्गल-परमाणुओं का शुद्ध पिण्ड ही माना जाय तो कर्म और पुद्गल में अन्तर ही क्या रहेगा? इसी प्रकार यदि भावकर्म को आत्मा की शुद्ध प्रवृत्ति ही मानी जाय तो कर्म और आत्मा में भेद ही क्या रहेगा? कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का विचार करते ममय संसारी आत्मा अर्थात् बद्ध आत्मा और सिद्ध आत्मा अर्थात् मुक्त आत्मा का अन्तर ध्यान में रखना चाहिए। कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का सम्बन्ध बद्ध आत्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं। बद्ध आत्मा कर्मों से बंधा हुआ होता है अर्थात् चैतन्य और जड़त्व का मिश्रण होता है । मुक्त आत्मा कर्मों से रहित होता है अर्थात् विशुद्ध चैतन्य होता है। बद्ध आत्मा की प्रवृत्ति के कारण जो पुद्गल-परमाणु आकृष्ट होकर उसके साथ मिल जाते हैं अर्थात् नीरक्षीरवत् एकमेक हो जाते हैं वे ही कर्म कहलाते हैं । इस प्रकार कर्म भी जड़-चेतन का मिश्रग ही है। जब संसारी आत्मा भी जड़-चेतन का मिश्रण है एवं कर्म भी तब Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों में अन्त कहलाता है तो नहीं हैं। इनका प्रयुक्त कर्मसिद्धान्त दोनों में अन्तर क्या है ? संसारी आत्मा का चेतन अंश जीव अथवा आत्मा कहलाता है तथा जड अंश कर्म कहलाता है। ये चेतन अंश और जड़ अंश ऐसे नहीं हैं जिनका संसारावस्था में पृथक-पृथक अनुभव किया जा सके। इनका पृथक्करण तो मुक्तावस्था में ही होता है। संसारी आत्मा सदैव कर्मयुक्त होता है तथा कर्म सदैव संसारी आत्मा से संबद्ध होता है। आत्मा जब कर्म से सर्वथा मुक्त हो जाता है तब वह संसारी आत्मा न रहकर मुक आत्मा अर्थात् शुद्ध चैतन्य बन जाता है। इसी प्रकार कर्म जब आत्मा से अलग हो जाता है तब वह कर्म न रह कर शुद्ध पुद्गल बन जाता है। आत्मा से सम्बद्ध पुद्गल द्रव्यकर्म कहलाता है तथा द्रव्यकर्मयुक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकर्म कहलाती है । तात्त्विक दृष्टि से आत्मा व पुद्गल के तीन रूप बनते हैं : १. शुद्ध आत्मा (मुक्त आत्मा), २. शुद्ध पुद्गल, ३. आत्मा और पुद्गल का सम्मिश्रण (संसारी आत्मा)। कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का सम्बन्ध तीसरे रूप से है। निश्चयनय और व्यवहारनय-जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त का विवेचन निश्चयष्टि व व्यवहारदृष्टि से भी किया गया है। इन दृष्टियों से विवेचन करनेवालों का मत है कि जो परनिमित्त के बिना वस्तु के असली स्वरूप का कथन करता है उसे निश्चयनय (निश्चयदृष्टि) कहते हैं और परनिमित्त की अपेक्षा से जो वस्तु का कथन करता है उसे व्यवहारनय (व्यवहारदृष्टि) कहते हैं।' निश्चय और व्यवहार की इस व्याख्या के अनुसार क्या कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का निरूपण हो सकता है ? परनिमित्त के बिना वस्तु के असली स्वरूप के कथन का अर्थ होता है शुद्ध वस्तु के स्वरूप का कथन । इस १. पचम कर्म ग्रन्थ, प्रस्तावना, पृ० ११० - Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ re जैन धर्म-दर्शन अर्थ के अनुसार निश्चयनय शुद्ध आत्मा एवं शुद्ध पुद्गल का ही कथन कर सकता है, पुद्गलमिश्रित आत्मा का अथवा आत्ममिश्रित पुद्गल का कथन नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का निरूपण निश्चयनय से कैसे हो सकता है ? क्योंकि कर्म का सम्बन्ध संसारी आत्मा से है जो जीव और पुद्गल का सम्मिश्रण है। चूंकि व्यवहारनय परनिमित्त की अपेक्षा से वस्तु का कथन करता है अतः संसारी आत्मा' अर्थात् कर्मयुक्त आत्मा का कथन व्यवहारनय से ही हो सकता है। वस्तुतः निश्चयनय और व्यवहारनय में कोई विरोध नहीं है क्योंकि इन दोनों की विषय-वस्तु भिन्नभिन्न है-इनका क्षेत्र अलग-अलग है। निश्चयनय पदार्थ के शुद्ध स्वरूप का कथन करता है अर्थात् जो वस्तु स्वभावत: अपने आप में जैसी है उसे वैमी ही प्रतिपादित करता है। व्यवहार. नय पदार्थ के अशुद्र अर्थात् मिश्रित रूप का प्रतिपादन करता है। संसारी आत्मा एवं कर्म जीव और अजीव की अशुद्ध अर्थात् मिश्रित अवस्याएं हैं अतः इसका प्रतिपादन व्यवहारनय से ही हो सकता है। ऐसी दशा में कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का निरूपण निश्चयनय से करना अयुक्तियुक्त है। केवल शुद्ध आत्माओं अर्थात् मुक्त जीवों तथा पुद्गल आदि शुद्ध अजीवों का प्रतिपादन निश्चयनय से हो सकता है। कर्म का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व-निश्चयनय और व्यवहारनय की इस मर्यादा का ध्यान न रखते हए कुछ विचारकों ने कर्म के कर्तृत्व-भोवतृत्व आदि का निरूपण निश्चयनय से करने का प्रयत्न किया है। परिणामतः कर्मसिद्धान्त में अनेक प्रकार की उलझनें उत्पन्न हुई हैं। इन उलझनों का मुख्य कारण है संसारी जीव अर्थात् कर्मयुक्त Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त जब आत्मा और सिद्ध जीव अर्थात् कर्ममुक्त आत्मा के भेद का विस्मरण । इसके साथ ही कर्म और पुद्गल का अन्तर भी कभी-कभी विस्मृत कर दिया गया है । इन विचारकों को दृष्टि में जीव ( संमारी आत्मा ) न तो कर्मों का कर्ता हो है और न उनके फल का भोक्ता ही । वे कहते हैं कि कर्मों के कर्तृत्व और भोक्तृत्व के बारे में हम निश्चयदृष्टि से विचार करते हैं तो जीव न तो द्रव्यकर्मों का कर्ता ही प्रमाणित होता है और न उनके फल का भोका ही क्योंकि द्रव्यकर्म पौद्गलिक हैं - पुद्गलद्रव्य के विकार हैं अतः पर हैं। उनका कर्ता चेतन जीव कैसे हो सकता है ? चेतन का कर्म चेतनरूप होता है और अचेतन का कर्म अचेतनरूप । यदि चेतन का कर्म भी अचेतनरूप होने लगेगा तो चेतन और अचेतन का भेद नष्ट होकर महान् संकर दोष उपस्थित होगा । अतः प्रत्येक द्रव्य स्वभाव का कर्ता है, परभाव का नहीं ।" इस कथन में जीव को अर्थात् संसारी जीव को कर्मों का अर्थात् द्रव्यकर्मों का कर्ता व भोक्ता इसलिए नहीं माना गया है कि कर्म पौद्गलिक हैं । यह कैसे हो सकता है कि चेतन जीव अचेतन कर्म को उत्पन्न करे ? इम हेतु में संसारी जीव को अर्थात् अशुद्ध आत्मा को शुद्ध चैतन्य मान लिया गया है तथा कर्म को शुद्ध पद्मलं । वस्तुतः न संसारी जीव शुद्ध चैतन्य है और न कर्म शुद्ध पुल । संसारी जीव चेतन और अचेतन द्रव्यों की मिश्रित अवस्था है-स्व और पर का मिलाजुला रूप है। इसी प्रकार कर्म पुद्गल का शुद्ध रूप नहीं है किन्तु एक विकृत अवस्था है जो संसारी जीव की प्रवृत्ति निर्मित हुई है तथा उससे सम्बद्ध है । यदि जीव और पुद्गल अपनी-अपनी स्वाभाविक से १. वही, पृ० ११-१२. २६ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म दर्शन अर्थात् शुद्ध अवस्था में हों यानी स्वभाव में हों तो कर्म की उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता-परभाव के कर्तृत्व का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। जब हम यह जानते हैं कि संसारी जीव स्वभाव में स्थित नहीं है किन्तु स्व और पर भावों की मिश्रित अवस्था में स्थित है तब उसे केवल स्वभाव का कर्ता कैसे कहा जा सकता है ? जब हम यह कहते हैं कि जीव कर्मों का कर्ता है तो हमारा तात्पर्य यह नहीं होता कि जीव पुद्गल का निर्माण करता है। पुद्गल तो पहले से ही मौजूद है। उसका निर्माण जीव क्या करेगा? जीव तो अपने आसपास में स्थित पुद्गल-परमाणुओं को अपनी प्रवृत्तियों के द्वारा अपनी ओर आकृष्ट कर अपने में मिला कर नीरक्षीरवत् एकमेक कर देता है। इसी का नाम है कर्मों का यानी द्रव्यकर्मों का कर्तृत्व । ऐसी स्थिति में यह कथन अनुपयुक्त प्रमाणित होता है कि जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है। यदि जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है तो कौन है ? पुद्गल स्वतः कर्मरूप में परिणत नहीं होता है। उसे जीव ही कर्मरूप में परिणत करता है। दूसरी बात यह है कि द्रव्यकर्मों के कर्तृत्व के अभाव में भावकर्मों का कर्तृत्व कैसे संभव होगा? द्रव्यकर्म ही तो भावकर्म की उत्पत्ति में कारण है अन्यथा द्रव्यकर्मो से मुक्त सिद्ध आत्माओं में भी भावकों की उत्पत्ति हो जाएगी। जब जीव कर्मों का कर्ता अर्थात् पुद्गल-परमाणुओं को कर्मों के रूप में परिणत करनेवाला प्रमाणित हो जाता है तो वह कर्मफल का भोक्ता भी सिद्ध हो ही जाता है क्योंकि जो कर्मो से बद्ध होता है वही उनका फल भी भोगता है। इस प्रकार संसारी जीव कर्मों का कर्ता तथा उनके फल का भोक्ता प्रमाणित होता है। मुक्त जीव न तो कर्मो का कर्ता ही प्रमाणित होता है और न उनके फल का भोक्ता ही। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४५१ जीव को कर्मो का कर्ता और भोक्ता न मानने वाले विचारक एक उदाहरण देते हैं कि जैसे कोई सुन्दर युवा पुरुष कार्यवश कहीं जा रहा हो और कोई तरुण सुन्दरी उस पर मोहित होकर उसकी अनुगामिनी बन जाय तो इसमें उस पुरुष का क्या कर्तृत्व है ? की तो वह स्त्री है। पुरुष तो उसमें केवल निमित्त कारण है।' इसी प्रकार यदि पद्गल जीव की ओर आकर्षित होकर कर्म के रूप में परिणत होता है तो इसमें जीव का क्या कर्तृत्व है ? कर्ता तो पुद्गल स्वयं है। जीव तो उसमें केवल निमित्त कारण है। यही बात कर्मो के भोक्तृत्व के विषय में भी कही जा सकती है । यदि वस्तुतः स्थिति ऐसी ही है तो आत्मा न कर्ता सिद्ध होगा, न भोक्ता; न बद्ध सिद्ध होगा, न मुक्त; न राग-द्वेषादि भावों से युक्त सिद्ध होगा, न उनसे रहित । पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। जिस प्रकार किसी सुन्दर युवा पुरुष पर कोई तरुण सुन्दरी अकस्मात् मोहित होकर अपने आप उसके पीछे लग जाती है उस प्रकार जड़ पुद्गल चेतन आत्मा के पीछे नहीं लगता। पुद्गल अपने आप आकर्षित होकर आत्मा की ओर नहीं भागता। जब जीव सक्रिय होता है तभी पुद्गल-परमाणु उसकी ओर आकृष्ट होते हैं तथा अपने को उसी में मिलाकर उसके साथ एकमेक हो जाते हैं एवं समय आने पर अपना फल देकर उससे पुनः अलग हो जाते हैं। इस सारी प्रक्रिया के लिए जीव पूर्णरूपेण उत्तरदायी है । जीव की क्रिया के कारण ही पुद्गल-परमाणु उसकी ओर आकृष्ट होते हैं, उससे सम्बद्ध होते हैं तथा उसे यथोचित फल प्रदान करते हैं। यह प्रक्रिया न तो अकेले जीव से सम्भव है और न अकेले पद्गल से। १. वही, पृ० १२. lel Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ जैन धर्म-दर्शन दोनों के सम्मिलित एवं पारसरिक प्रभाव के कारण हो यह सब होता है। कर्म के कर्तृव में जीव की ऐसी निमित्ता नहीं है कि जीव मांख्य पुरुष की तरह निष्क्रिय अवस्था में निर्लिप्त भाव से विद्यमान रहता हो और पुद्गल स्वतः कर्म के रूप में परिणत हो जाता हो । जीव और पुद्गल के मिश्रणमिलन- लिप्तभाव से ही कर्म की उत्पत्ति होती है । जीव को एकान्तरूप से चेतन एवं कर्म को एकान्तरूप से जड़ नहीं मानना चाहिए | जीव भी कर्म ( पुद्गल ) के संसर्ग के कारण कथंचित् जड़ है तथा कर्म भी जीव ( चैतन्य ) के संसर्ग के कारण कथंचित् चेतन है । जब जीव और कर्म एक-दूसरे से बिलकुल अलग-अलग हो जाते हैं अर्थात् उनमें कोई सम्पर्क नहीं रह जाता तब वे अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाते हैं यानी जीव एकान्तरूप से चेतन हो जाता है और कर्म एकान्तरूप से जड़ | संसारी जीव और द्रव्यकर्मरूप पुद्गल के मिश्रण एवं परस्पर के प्रभाव के कारण ही जीव में राग-द्वेषादि भावकर्म की उत्पत्ति संभव होती है । यदि जीव अपने शुद्ध स्वभाव का ही कर्ता हो तथा पुद्गल अपने शुद्ध स्वभाव का ही, तो रागद्वेषादि भावों का कर्ता कौन होगा ? राग द्वेषादि भाव न तो - जीव के शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं और न पुद्गल के शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत । ऐसी स्थिति में उनका कर्ता किसे माना जाय ? चेतन आत्मा और अचेतन द्रव्यकर्म के मिश्रित रूप को ही इन अशुद्ध- वैभाविक भावों का कर्ता माना जा सकता है । जैसे राग द्वेषादि चेतन और अचेतन द्रव्यों के मिश्रण से उत्पन्न होते हैं वैसे ही मन-वचन-कायादि भी इनके मिश्रण से Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ही बनते हैं। कर्मों की विभिन्नता एवं विविधता के कारण ही इन सब में वैचित्र्य होता है । आत्मा अपने स्वाभाविक भाव ज्ञान, दर्शन आदि तथा वैभाविक भाव राग, द्वेष आदि का कर्ता है किन्तु उनके निमित्त से जो पुद्गल-परमाणुओं में कर्मरूप परिणमन होता है उसका वह कर्ता नहीं है, इस बात को समझाने के लिए कुंभकार और घट का उदाहरण दिया जाता है और कहा जाता है कि घट का कर्ता मृत्तिका ही है, कुम्भकार नहीं। कुम्भकार को जो लोक में घट का कर्ता कहा जाता है उसका तात्पर्य इतना ही है कि घट-पर्याय में कुम्भकार निमित्त है। वास्तव में घट मृत्तिका का ही एक भाव है अतः उसका कर्ता भी मृतिका ही है।' यह उदाहरण आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रकट करने में उपयुक्त नहीं है। घट और कुम्भकार में वह सम्बन्ध नहीं है जो कर्म और आत्मा में है। कर्म और आत्मा नीरक्षीरवत् एकमेक हो जाते हैं, जबकि घट और कुम्भकार कभी एकमक नहीं होते । अतः कर्म और आत्मा का परिणमन घट और कुन्भकार क परिणमन से भिन्न प्रकार का है। कर्म-परमाणुओं और आत्म- देशों का परिणमन जड़ और चेतन का एक मिश्रित परिणमन होता है जिसमें दोनों एक-दूसरे से अनिवार्यतः प्रभावित होते हैं। घट और कुम्भकार के विषय में यह नहीं कहा जा सकता। उनका अपनेअपने ढंग से अलग-अलग परिणमन होता है। आत्मा कर्मों का केवल निमित्त ही नहीं है, उनका कर्ता और भोक्ता भी है। आत्मा के वैभाविक भावों के कारण पुद्गल-परमाणु उसकी १. वही, पृ० १३. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन और आकृष्ट होते हैं अतः वह उनके आकर्षण का निमित्त हुआ। वे परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होकर कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं अतः आत्मा कर्मों का कर्ता हुआ। आत्मा को ही वैभाविक भावों के रूप में उनका फल भोगना पड़ता है अतः वह कर्मो का भोक्ता भी हुआ। कर्म की मर्यादा-जैन सिद्धान्त का यह निश्चित मत है कि कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा से है। चूंकि व्यक्ति का शरीर, मन एवं आत्मा एक निश्चित सीमा में बद्ध हैं अर्थात् सीमित हैं अतः कर्म भी उसी सीमा में रहकर अपना कार्य करता है। यदि कर्म की यह सीमा न मानी जाय तो वह आकाश की तरह सर्वव्यापक हो जाएगा। वस्तुतः आत्मा का स्वदेहपरिमाणत्व कर्म के ही कारण है। जब आत्मा कर्म के कारण अपने शरीर में ही बद्ध रहती है तब कर्म उसे छोड़कर कहाँ जा सकता है ? हाँ, आत्मा जब सब प्रकार के शरीरों को त्यागकर मुक्त हो जाती है तब कर्म का उससे कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता अतः कर्म और आत्मा हमेशा के लिए अलग-अलग हो जाते हैं । अथवा यों कहिए कि कर्म का आत्मा से हमेशा के लिए अलग हो जाने का नाम ही मुक्ति अथवा मोक्ष है । संसारी आत्मा अथवा जीव सदैव किसी-न-किसी प्रकार के शरीर में बद्ध रहता है तथा उससे सम्बद्ध कर्मपिण्ड भी उसी शरीर की सीमाओं में सीमित रहता है। क्या शरीर की सीमाओं में बंधा हुआ कर्म अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर फल प्रदान कर सकता है ? क्या कर्म व्यक्ति के शरीर अर्थात् तन-मन-वचन से असम्बद्ध यानी भिन्न पदार्थों की उत्पत्ति, प्राप्ति, विनाश आदि के लिए उत्तरदायी हो Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४५५ सकता है ? जिस क्रिया अथवा घटना से किसी व्यक्ति का प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न हो उसके लिए भी क्या उस व्यक्ति के कर्म को कारण माना जा सकता है ? जैन कर्मशास्त्र में कर्म के जिन आठ प्रमुख प्रकारों का उल्लेख किया गया है उनमें कोई भी प्रकार ऐसा नहीं है जिसका सम्बन्ध आत्मा और शरीर से भिन्न किसी अन्य पदार्थ से हो । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म आत्मा के मूल गुण ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात करते हैं तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म शरीर की विविध अवस्थाओं का निर्माण करते हैं । इस प्रकार इन आठों तरह के कर्मों का साक्षात् सम्बन्ध आत्मा और शरीर से ही है, अन्य पदार्थों एवं घटनाओं से नहीं। परम्परा से स्वेतर पदार्थों और घटनाओं से भी कर्मों का सम्बन्ध हो सकता है, यदि वैसा सिद्ध हो । जब कर्मों का सीधा सम्बन्ध आत्मा और शरीर से है तब धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति को पुण्यजन्य क्यों माना जाता है ? यदि धन-सम्पत्ति आदि से सुखादि की अनुभूति हो तो शुभ कर्मोदय की निमित्तता के कारण बाह्य पदार्थों को भी उपचार से पुण्यजन्य माना जा सकता है । वास्तव में पुण्य का कार्य सुखादि की अनुभूति है, धनादि की प्राप्ति नहीं । धनादि की प्राप्ति हो या न हो, यदि सुखादि का अनुभव होता है तो उसे पुण्य या शुभ कर्मों का फल समझना चाहिए । बाह्य पदार्थों की निमित्तता के बिना भी सुखादि की अनुभूति हो सकती है । यही बात दुःखादि के विषय में भी समझनी चाहिए । सुख-दुःख या अन्य किसी भी प्रकार की शारीरिक-मानसिकआत्मिक अनुभूति का मूल कारण आन्तरिक है, बाह्य नहीं । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन कर्म का सम्बन्ध इस आन्तरिक कारण से है, बाह्य वस्तुओं से नहीं। बाह्य वस्तुओं की उत्पत्ति, प्राप्ति, विनाश आदि अपनेअपने कारणों से होता है, हमारे कर्मों के कारण नहीं। हमारे कर्म हम तक ही सीमित हैं, सर्वव्यापक नहीं । जा हमारे कर्म हम तक ही सीमित हैं अर्थात् हमारे शरीर और आत्मा तक ही मर्यादित हैं तब वे हमसे भिन्न अति दूर के पदार्थों को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं, कैसे आकषित कर सकते हैं, कैसे हम तक पहुंचा सकते हैं, कैसे बढ़ा-घटा सकते हैं, कैसे नष्ट कर सकते हैं, कैसे सुरक्षित रख सकते हैं ? ये सारे कार्य हमारे कर्मों से नहीं, अन्यान्य कारणों से होते हैं । सुख-दुःखादि की अनुभूति में निमित्त, सहायक अयवा उत्तेजक होने के कारण उपचार से या परंसरा से बाह्य वस्तुओं को पुण्य-पाप का परिणाम मान लिया जाता है। जैन सिद्धान्त जीव की विविध अवस्थाओं को कर्मजन्य मानता है, संसार के समस्त कार्यों को नहीं। शरीर, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ गस, वचन, मन आदि जीव की विविध अवस्थाएं कर्म के कारण होती हैं। अन्य कार्य अपने-अपने कारणों से होते हैं । उनका कारण कर्म नहीं होता। पत्नी या पति की प्राप्ति अथवा मृत्यु. पुत्र या पुत्री की प्राप्ति अथवा मृत्यु, व्यवसाय में हानि-लाभ, किसी प्रकार की आकस्मिक दुर्घटना, संयोगवियोग, लाभ-हानि, मृत्यु व अन्य संकट, ऋतु की तीव्रता-मन्दता, सुकाल या दुष्काल. प्रकृति-प्रकोप, राज्यकृत अथवा अन्यकृत प्रकोप, शत्रु-मित्र, सुपुत्र-कुपुत्र आदि अपने-अपने कारणों से होते हैं, हमारे कर्मो से नहीं । इनमें से कुछ कार्यों अथवा घटनाओं के प्रति हमारी यत्किञ्चित् निमित्त ता अवश्य Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४५७ हो सकती है किन्तु उनका प्रमुख अथवा मूत्र कारण तो उन्हीं के भीतर विद्यमान रहता है, हमारे अन्दर नहीं । पुत्र अथवा अन्य किसी प्रियजन की प्राप्ति को हम अपने शुभ कर्म अर्थात् पुण्य का कार्य समझते हैं तथा उसकी मृत्यु को अपने अशुभ कर्म अर्थात् पाप का फल मानते हैं । यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है । जिता के पुण्योदय से पुत्र की उत्पत्ति या पिता के पापोदय से पुत्र की मृत्यु नही होती । पुत्र की उत्पत्ति तथा मृत्यु का कारण उसका अपना कर्मोदय एव कर्मक्षय है, पिता का पुण्योदय एवं पापोदय नहीं। हां, पुत्र की उत्पत्ति होने के बाद पिता को, यदि वह जीवित है तथा मोहनीय कर्म से युक्त है तो, हर्ष हो सकता है एवं मृत्यु होने पर शोक | इस हर्ष एवं शोक का मूल कारण पिता का पुण्योदय एवं पापोदय है तथा निमित्त कारण पुत्र की उत्पत्ति एवं मृत्यु है । इस प्रकार पिता का पुण्योदय व पापोदय पुत्र की उत्पत्ति व मृत्यु का कारण नहीं है अपितु पुत्र की उत्पत्ति व मृत्यु पिता के पुण्योदय व पापोदय का निमित्त बन सकती है । यही बात इसा प्रकार की अन्य घटनाओं के विषय में भी समझ लेनी चाहिए । व्यक्ति के कर्मदय, कर्मक्षय, कर्मोंपशम आदि की एक सीमा है और वह है उसका शरीर, मन आदि । इस सीमा से बाहर अर्थात् मन-वचन-काय की परिधि का उल्लंघन कर कर्मोदय आदि नहीं होता । यही कारण है कि वस्तुतः स्वेतर समस्त पदार्थों की उत्पत्ति आदि अपने-अपने कारणो से होती है, हमारे कर्मोदय आदि से नहीं । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । जीव पुराने कर्मों का क्षय करता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है । जब तक प्राणी के पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते एवं नवीन कर्मों का आगमन बन्द नहीं हो जाता तब तक Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ जैन धर्म-दर्शन उसकी भवबन्धन से मुक्ति नहीं होती। एक बार समस्त कर्मों का विनाश हो जाने पर पुनः कर्मोपार्जन नहीं होता क्योंकि उस अवस्था में कर्मबन्धन का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता । आत्मा की इसी अवस्था को मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण अथवा सिद्धि कहते हैं। कर्मबन्ध का कारण : जैन परम्परा में कर्मोपार्जन अथवा कर्मबन्ध के सामान्यतया दो कारण माने गये हैं : योग और कषाय । शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । क्रोधादि मानसिक आवेग कषायान्तर्गत हैं। यों तो कषाय के अनेक भेद हो सकते हैं किन्तु मोटे तौर पर उसके दो भेद किये गये हैं : राग और द्वेष । राग-द्वेषजनित शारीरिक एवं मानसिक प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का कारण है । वैसे तो प्रत्येक क्रिया कर्मोपार्जन का कारण होती है किन्तु जो क्रिया कषायजनित होती है उससे होनेवाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है जबकि कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध अति निर्बल एवं अल्पायु होता है। उसे नष्ट करने में अल्प शक्ति एवं अल्प समय लगता है। दूसरे शब्दों में, योग और कषाय दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं किन्तु इन दोनों में प्रबल कारण कषाय ही है। नैयायिक तथा वैशेषिक मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण मानते हैं । योग एवं सांख्य दर्शन में प्रकृति-पुरुष के अभेदज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। वेदान्त आदि दर्शनों में अविद्या अथवा अज्ञान को कर्मबन्ध का कारण बताया गया है। बौद्धों ने वासना अथवा संस्कार को कर्मोपार्जन का कारण माना है । जैन परम्परा में संक्षेप में मिथ्यात्व कर्मबन्ध Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४५६ का कारण माना गया है। जो कुछ हो, यह निश्चित है कि कर्मोपार्जन का कोई भी कारण क्यों न माना जाए, राग-द्वेषजनित प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का प्रधान कारण है । राग-द्वेष की न्यूनता अथवा अभाव से अज्ञान, वासना अथवा मिथ्यात्व कम हो जाता अथवा नष्ट हो जाता है । राग-द्वेषरहित प्राणी कर्मोपार्जन के योग्य विकारों से सदैव दूर रहता है। उसका मन हमेशा अपने नियन्त्रण में रहता है । कर्मबन्ध की प्रक्रिया : १ जैन कर्मग्रन्थों में कर्मबन्ध की प्रक्रिया का सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ कर्मयोग्य पुद्गल - परमाणु विद्यमान न हों। जब प्राणी अपने मन-वचन अथवा तन से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब चारों ओर से कर्मयोग्य पुद्गल - परमाणुओं का आकर्षण होता है (आस्रव) । जितने क्षेत्र अर्थात् प्रदेश में उसकी आत्मा विद्यमान रहती है उतने ही प्रदेश में विद्यमान परमाणु उसके द्वारा उस समय ग्रहण किये जाते हैं, अन्य नहीं । प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार परमाणुओं की संख्या में भी तारतम्य होता है । प्रवृत्ति की मात्रा में अधिकता होने पर परमाणुओं की संख्या में भी अधिकता होती है एवं प्रवृत्ति की मात्रा में न्यूनता होने पर परमाणुओं की संख्या में भी न्यूनता होती है । गृहीत पुद्गल - परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध होना (बन्ध) जैन कर्मवाद की परिभाषा में प्रदेश बन्ध कहलाता है । इन्हीं परमाणुओं की ज्ञानावरण १ जैन दर्शन को मान्यता है कि आत्मा शरीरव्यापी है । देह से बाहर आत्मतत्त्व विद्यमान नहीं होता । 1 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैन धर्म-दर्शन ( जिन कर्मों से आत्मा की ज्ञान-शक्ति आवृत होती है ) आदि अनेक रूपों में परिणति होता प्रकृति-बन्ध कहलाता है। प्रदेशबन्ध में कर्म-परमाणुओं का परिमाण अभिप्रेत है जबकि प्रकृतिबन्ध में कर्म - परमाणुओं की प्रकृति अर्थात् स्वभाव का विचार किया जाता है । भित्र-भित्र स्वभाव वाले कर्मों की भिन्न भिन्न परमाणु संख्या होती है। दूसरे शब्दों में, विभिन्न कर्मप्रकृतियों के विभिन्न कर्मप्रदेश होते हैं । जैन कर्मशास्त्रों में इस प्रश्न पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है कि किस कर्म प्रकृति के कितने प्रदेश होते हैं एवं उनका तुलनात्मक अनुपात क्या है । कर्मरूप से गृहीत पुद्गल - परमाणुओं के कर्मफल के काल एवं विपाक की तीव्रता - मन्दता का निश्चय आत्मा के अध्यवसाय अर्थात् कषाय की तीव्रता मन्दता के अनुसार होता है । कर्मविपाक के काल तथा तीव्रता - मन्दता के इस निश्चय को क्रमशः स्थिति-बन्ध तथा अनुभाग-बन्ध कहते हैं। कषाय के अभाव में कर्म-परमाणु आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं रह सकते । जिस प्रकार सूखे वस्त्र पर रज अच्छी तरह न चिपकते हुए उसका स्पर्श कर अलग हो जाती है उसी प्रकार आत्मा में कषाय की आर्द्रता न होने पर कर्म-परमाणु उससे सम्बद्ध न होते हुए केवल उसका स्पर्श कर अलग हो जाते हैं । ईर्यापथ ( चलना-फिरना आदि) से होने वाला इस प्रकार का निर्बल कर्मबन्ध अपरायिक बन्ध कहलाता है । सकषाय कर्म-बन्ध को सांपरायिक बन्ध कहते हैं । असांपरायिक बन्ध भव- भ्रमण का कारण नहीं होता । साम्परायिक बन्ध से ही प्राणी को संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है । कर्म का उदय और क्षय : कर्म बँधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते । कुछ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४६१ समय तक वैसे ही पड़े रहते हैं । कर्म के इस फलहीन काल को जैन परिभाषा में अबाधाकाल कहते हैं । अबाधाकाल के व्यतीत होने पर ही बद्धकर्म अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं । कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय कहलाता है । कर्म अपने स्थिति बन्ध के अनुसार उदय में आते हैं एवं फल प्रदान कर आत्मा से अलग हो जाते हैं । इसी का नाम निर्जंग है । जिम कर्म की जितनी स्थिति का बंध होता है वह कर्म उतनी ही अवधि तक क्रमशः उदय में आता है। दूसरे शब्दों में, कर्मनिर्जरा का भी उतना ही काल होता है जितना कर्म स्थिति का । जब नवीन कर्म का उपार्जन रुक जाता है (संबर) तथा पूर्वोपार्जित सभी कर्म क्षीण हो जाते हैं (निर्जरा) तब प्राणी कर्म-मुक्त हो जाता है । आत्मा की इसी अवस्था को मुक्ति (मोक्ष) कहते हैं । कर्मप्रकृति अर्थात् कर्मफल : जैन कर्मशास्त्र में कर्म की आठ मूल प्रकृतियां मानी गई हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। इन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं : १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और = अन्तराय । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाती प्रकृतियाँ हैं क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ) का घात होता है । शेष चार अघाती प्रकृतियाँ हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं । इतना ही नहीं, ये आत्मा को ऐसा रूप प्रदान करती हैं जो उसका निजी नहीं अपितु पौलिक-भौतिक है । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण का घात करता है । दर्शनावरण से Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन है। अन्तराम प्रतिकूल संवेदका घात होता आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है। मोहनीय सुख-आत्मसुख-परमसुख-शाश्वतसुख का घातक है। अन्तराय से वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है। वेदनीय अनुकूल एवं प्रतिकल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख का कारण है। आयु से आत्मा को नारकादि विविध भवों की प्राप्ति होती है। नाम के कारण जीव को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं । गोत्र प्राणियों के उच्चत्व-नीचत्व का कारण है। ज्ञानावरणीय कर्म की पांच उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : १. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मनःपर्यय, मनःपर्यव अथवा मन:पर्याय-ज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण । मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है । श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्रों अथवा शब्दों के पठन तथा श्रवण से होनेवाले अर्थज्ञान का निरोध करता है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना होने वाले रूपी द्रव्यों के ज्ञान को आवृत करता है । मन पर्यायज्ञातावरणीय कर्म मनःपर्यायज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना संज्ञी-समनस्क -मन वाले जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म केवलज्ञान अर्थात लोक के अतीत, वर्तमान एवं अनागत समस्त पदार्थों को युगपत्-एक साथ जानने वाले ज्ञान को आवृत करता है। दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : १. चक्षुर्दर्शनावरण, २. अचक्षुर्दर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रा-निद्रा, ७. प्रचला, Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ૪૬૨ ८ प्रचलाप्रचला और है. स्त्यानद्धि - स्त्यानगृद्धि । आँख के द्वारा पदार्थों के सामान्य धर्म के ग्रहण को चक्षुर्दर्शन कहते हैं । इसमें पदार्थ का साधारण आभासमात्र होता है । चक्षुर्दर्शन को आवृत करने वाला कर्म चक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । आँख को छोड़कर अन्य इन्द्रियों तथा मन से जो पदार्थों का सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुर्दर्शन कहते हैं । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करने वाला कर्म अचक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न रखते हुए आत्मा द्वारा रूपी पदार्थों का सामान्य बोध होने का नाम अवधिदर्शन है । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करने वाला कर्म अवधिदर्शनावरण कहलाता है । संसार के अखिल त्रैकालिक पदार्थों का सामान्यावबोध केवलदर्शन कहलाता है । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करने वाला कर्म केवलदर्शनावरण के नाम से प्रसिद्ध है । निद्रा आदि पाँच अवस्थाएं भी दर्शनावरणीय कर्म का ही कार्य है । जो सोया हुआ प्राणी थोड़ी-सी आवाज से जाग जाता है अर्थात् जिसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पड़ता उसकी नींद को निद्रा कहते हैं । जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उस कर्म का नाम भी निद्रा है । जो सोया हुआ प्राणी बड़े जोर से चिल्लाने, हाथ से जोर से हिलाने आदि से बड़ी मुश्किल से जागता है उसकी नींद एवं तन्निमित्तक कर्म दोनों को निद्रा-निद्रा कहते हैं । खड़ेखड़े या बैठे-बैठे नींद लेने का नाम प्रचला है । उसका हेतुभूत कर्म भी प्रचला कहलाता है । चलते-फिरते नींद लेने का नाम प्रचलाप्रचला है | तन्निमितभत कर्म को भी प्रचलाप्रचला कहते हैं। दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करने का नाम स्त्यानद्धि - स्त्यानगृद्धि है । जिस कर्म Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जैन धर्म-दर्शन के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उसका नाम भी स्त्यानद्धि अथवा स्त्यानगृद्धि है। वेदनीय अथवा वेद्य कर्म की दो उत्तरप्रकृतियां हैं : साता और अमाता । जिस कर्म के उदय से प्राणी को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से सुख का अनुभव होता है उसे मातावेदनीय कर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से प्रतिकल विषयों की प्राप्ति होने पर दुःख का सवेदन होता है उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं। आत्मा को विषयनिरपेक्ष स्वरूप-सुख का संवेदन किसी भी कर्म के उदय की अपेक्षा न रखते हुए स्वतः होता है। इस प्रकार का विशुद्ध सुख आत्मा का निजी धर्म है। वह साधारण सुख की कोटि से ऊपर है । __ मोहनीय कर्म की मुख्य दो उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : दर्शनमोह अर्थात् दर्शन का घात और चारित्रमोह अर्थात् चारित्र का घात । जो पदार्थ जमा है उसे वैसा ही समझने का नाम दर्शन है। यह तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप आत्मगुण है। इस गुण का घात करने वाले कर्म का नाम दर्शनमोहनीय है। जिसके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं । चारित्र का घात करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। दर्शनमोहनीय कर्म के पुनः तीन भेद हैं : सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय । सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक-कर्मपरमाणु शुद्ध होते हैं । यह कर्म शुद्धस्वच्छ परमाणुओं वाला होने के कारण तत्त्वरुविरूप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुंचाता किन्तु इसके उदय से आत्मा को स्वा. भाविक सम्यक्त्व-कर्मनिरपेक्ष सम्यक्त्व-क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो पाता । परिणामतः उसे सूक्ष्म पदार्थों के चिन्तन में शंकाएं हुआ करती हैं। मिथ्यात्वमोहनीय के दलिक अशुद्ध होते Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त हैं। इस कर्म के उदय से प्राणी हित को अहित समझता है और अहित को हित । विपरीत बुद्धि के कारण उसे तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होने पाता। मिश्रमोहनीय के दलिक अर्थविशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से जीव को न तो तत्त्वरुचि होती है, न अतत्त्वरुचि । इसका दूसरा नाम सम्यक्-मिथ्यात्वमोहनीय है। यह सम्यक्त्वमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का मिश्रित रूप है जो तत्त्वार्थ-श्रद्धान और अतत्त्वार्थ-श्रद्धान इन दोनों अवस्थाओं में से शुद्ध रूप से किसी भी अवस्था को प्राप्त नहीं करने देता। मोहनीय के दूसरे मुख्य भेद चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं : कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । कषायमोहनीय मुख्यरूप से चार प्रकार का है : क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोधादि चारों कषाय तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से पुनः चार-चार प्रकार के हैं : अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । इस प्रकार कषायमोहनीय कर्म के कुल सोलह भेद हुए जिनके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोधादि के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता है। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरतिरूप श्रावकधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती । इसकी अवधि एक वर्ष है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सर्वविरतिरूप श्रमणधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। इसकी स्थिति चार महीने की है। संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यात-चारित्ररूप सर्वविरति प्राप्त नहीं कर सकता । यह एक पक्ष की स्थिति वाला है। उपर्युक्त कालमर्यादाएं साधारण दृष्टि-व्यवहार नय से हैं। इनमें यथासंभव परिवर्तन भी हो सकता है । कषायों के उदय के साथ जिनका Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ जैन धर्म-दर्शन उदय होता है अथवा जो कषायों को उत्तेजित करते हैं उन्हें नोकषाय कहते हैं ।' नोकषाय के नौ भेद हैं : १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. शोक, ५. भय, ६. जुगुप्सा, ७. स्त्रीवेद. ८. पुरुषवेद और ६. नपुंसकवेद । स्त्रीवेद के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ संभोग करने की इच्छा होती है। पुरुषवेद के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ संभोग करने की इच्छा होती है । नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ संभोग करने की कामना होती है। यह वेद संभोग की कामना के अभाव के रूप में नहीं अपितु तीव्रतम कामाभिलाषा के रूप में है जिसका लक्ष्य स्त्री और पुरुष दोनों हैं। इसकी निवृत्ति-तुष्टि चिरकाल एवं चिरप्रयत्नसाध्य है। इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल २८ उत्तर-प्रकृतियाँ-भेद हैं : ३ दर्शनमोहनीय+१६ कषायमोहनीय+६ नोकषायमोहनीय । ___ आयु कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ चार हैं : १. देवायु, २. मनुष्यायु, ३. तिर्यञ्चायु और ४. नरकायु । आयु कर्म की विविधता के कारण प्राणी देवादि जातियों में रह कर स्वकृत नानाविध कर्मों को भोगता एवं नवीन कर्म उपाजित करता है। आयु कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीता है और क्षय से मरता है । आयु दो प्रकार की होती है : अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । बाह्य निमित्तों से जो आयु कम हो जाती है अर्थात् नियत समय से पूर्व समाप्त हो जाती है उसे अपवर्तनीय आयु कहते हैं । इसी का प्रचलित नाम अकालमृत्यु है। जो आयु किसी भी कारण से कम न हो अर्थात् नियत समय पर ही समाप्त हो उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। १. कषायसहवर्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता ।। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त नाम कर्म की एक सौ तीन उत्तरप्रकृतियाँ हैं । ये प्रकृतियां चार भागों में विभक्त हैं : पिण्डप्रकृतियाँ, प्रत्येकप्रकृतियाँ, त्रसदशक और स्थावरदशक । इन प्रकृतियों के कारणरूप कर्मों के भी वे ही नाम हैं जो इन प्रकृतियों के हैं। पिण्डप्रकृतियों में पचहत्तर प्रकृतियों का समावेश है : १. चार गतियाँ-देव, नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य; २. पाँच जातियाँ-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; ३ पांच शरीरऔदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण; ४. तीन उपांग-औदारिक, वैक्रिय और आहारक (तैजस और कार्मण शरीर के उपांग नहीं होते); ५. पंदरह बन्धन-औदारिक औदारिक, औदारिक-तेजस, औदारिक-कार्मण, औदारिकतेजस-कार्मण, वैक्रिय-क्रिय, वैक्रिय-तैजस, वैक्रिय-कार्मण, वैक्रिय-तैजस-कार्मण, आहारक-आहारक, आहारक-तैजस, आहारक-कार्मण, आहारक-तैजस-कार्मण, तैजस-तैजस, तैजस-कार्मण और कार्मण-कार्मण; ६. पाँच संघातन-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; ७. छः संहननवज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिक और सेवात; ८. छः संस्थान-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुन्ज, वामन और हुण्ड; ६. शरीर के पाँच वर्ण-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और सित; १०. दो गन्ध-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध; ११. पाँच रस-तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर; १२. आठ स्पर्श-गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष; १३. चार आनुपूर्वियाँ-देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी; १४. दो गतियाँ-शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति । प्रत्येक प्रकृतियों में निम्नोक्त आठ प्रकृतियाँ समाविष्ट हैं : पराघात, Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन उच्छवास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थकर, निर्माण और उपघात । त्रसदशक में निम्न प्रकृतियाँ हैं : त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश:कीर्ति । स्थावरदशक में त्रसदशक से विपरीत दस प्रकृतियाँ समाविष्ट हैं : स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीति । इस प्रकार नाम कर्म की उपयुक्त एक सौ तीन (७५ पिण्डप्रकृतियाँ+ ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ +१० त्रसदशक+१० स्थावरद शक) उत्तरप्रकृतियाँ हैं।' इन्हीं प्रकृतियों के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता है। ___ गोत्र कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं : उच्च और नीच । जिस कर्म के उदय से प्राणी उच्च कुल में जन्म ग्रहण करता है उसे उच्चगोत्र कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म नीच कुल में होता है उसे नीचगोत्र कर्म कहते हैं । उच्च कुल का अर्थ है संस्कारी एवं सदाचारी कुल । नीच कुल का अर्थ है असंस्कारी एवं आचारहीन कुल । शारीरिक ( मानसिकसहित ) वैविध्य के कारणों में प्रधानतः दो प्रकार के कर्म समाविष्ट होते हैं : नाम और गोत्र । नाम कर्म संक्षेपतः शुभ एवं अशुभ शरीर का कारण १. माम कर्म से सम्बन्धित विशेष विवेचन के लिए देखिए-कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग अर्थात् कर्मविपाक (पं० सुखलालजीकृत हिन्दी अनु. वादसहित), पृ०५८-१०५; Outlines of Jaina Philosophy (M. L. Mehta), पृ०१४२-५; Outlines of Karma in Jainism (M. L. Mehta), पृ० १०-१३. Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४६६ है तथा गोत्र कर्म शारीरिक उच्चत्व एवं नीचत्व का शुभ शरीर सुख का कारण होता है तथा अशुभ शरीर दुःख का । इसी प्रकार उच्चत्व सुख का तथा नीचत्व दुःख का कारण है । शुभ शरीर और उच्च शरीर में तथा अशुभ शरीर और नीच शरीर में क्या अन्तर है जिसके कारण नाम और गोत्र इन दो प्रकार के कर्मों की अलग-अलग व्यवस्था करनी पड़ी ? जब नाम कर्म से सम्पूर्ण शारीरिक वैविध्य का निर्माण हो सकता है जिसमें शुभत्व, अशुभत्व, उच्चत्व, नीचत्व, सुरूपत्व, कुरूपत्व आदि समस्त कायिक सद्गुण-दुर्गुण समाविष्ट होते हैं तब गोत्र कर्म की अलग मान्यता से क्या लाभ? जैन कर्मव्यवस्था को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि नाम कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के उन शारीरिक गुणों से है जो उसके अपने हैं अर्थात् जिनका किसी कुलविशेष या वंशविशेष से सम्बन्ध नहीं है, जबकि गोत्र कर्म का सम्बन्ध उसके उन शारीरिक गुणों से है जो उसके कुल या वंश से सम्बद्ध हैं तथा अपने माता-पिता के माध्यम से ही उसमें आये हैं ! माता-पिता के माध्यम से आने वाले गुणों के लिए सन्तान का कर्म उत्तरदायी कैसे हो सकता है ? जो कोई भी अच्छाई या बुराई माता-पिता के कारण किसी में उत्पन्न होती है उसके लिए वह व्यक्ति किस प्रकार उत्तरदायी हो सकता है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि अमुक जीव का अमुक स्थान पर अमुक रूप में उत्पन्न होना उसके अमुक प्रकार के कर्म पर ही निर्भर होता है । जीव जब अपने कर्म के अनुरूप अमुक अवस्था को प्राप्त करता है तब वह तत्कालीन परिस्थिति एवं स्वशक्ति व स्थिति के अनुसार अमुक गुणों को भी ग्रहण करता है । इनमें से कुछ गुण ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध माता-पिता से अथवा है Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० जैन धर्म-दर्शन वंश-परम्परा से होता है। इस प्रकार माता-पिता के माध्यम से आनेवाले अच्छे-बुरे शारीरिक गुणों के लिए सन्तान का कर्म प्रत्यक्ष रूप से न सही, परोक्ष रूप से अवश्य उत्तरदायी होता है । वंश-परम्परा के सद्गुण-दुर्गुण सब में समान रूप से अवतरित नहीं होते। इसका मुख्य कारण व्यक्ति की अपनी कर्मसम्पत्ति है। जिसकी कर्मसम्पत्ति अपेक्षाकृत जितनी अधिक समृद्ध अर्थात् शुभ होगी उसका गोत्र कर्म उतना ही अधिक उच्च होगा तथा जिसकी कर्मसम्पत्ति अपेक्षाकृत जितनी अधिक असमृद्ध अर्थात् अशुभ होगी उसका गोत्र कर्म भी उतना ही अधिक नीच होगा। जैसे मनुष्य आदि गतियों, पंचेन्द्रिय आदि जातियों, औदारिक आदि शरीरों एवं इसी प्रकार के अन्य शारीरिक लक्षणों से नाम कर्म की पहचान होती है वैसे गोत्र कर्म की पहचान के क्या शारीरिक लक्षण हैं ? रूप, रंग, धर्म, जाति, वर्ण आदि से उच्च अथवा नीच गोत्र का पता नहीं लग सकता क्योंकि किसी भी रूप, किसी भी रंग, किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी भी वर्ण का व्यक्ति उच्च गोत्र का भी हो सकता है और नीच गोत्र का भी। किसी रंग-रूपविशेष या वर्ण-जातिविशेष को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि इस रंग-रूप वाला या इस वर्ण-जाति वाला व्यक्ति उच्च गोत्र का है एवं तदितर व्यक्ति नीच गोत्र का। रंग और रूप का सम्बन्ध नाम कर्म से है तथा वर्ण, जाति, धर्म आदि का सम्बन्ध शरीर से न होकर सामाजिक, साम्प्रदायिक एवं शास्त्रीय व्यवस्थाओं और मान्यताओं से है। अमुक समाज अथवा अमुक देश में जिस वर्ण अथवा जाति को नीच समझा जाता है, अन्यत्र उसे वैसा नहीं माना जाता। इतना ही नहीं, उस समाज अथवा देश में भी Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४७१ अमुक व्यक्ति को तब तक नीच नहीं समझा जाता जब तक कि उसके विषय में यह ज्ञात नहीं हो जाता कि वह अमुक वर्ण अथवा जाति का है। यदि वर्ण, जाति आदि से उच्च-नीच का सम्बन्ध होता तो उसकी सर्वदा एवं सर्वत्र वैसी प्रतीति होती। किन्तु बात ऐसी नहीं है। अतः यह मानना चाहिए कि उच्चनीच गोत्र का सम्बन्ध वर्ण, जाति आदि से न होकर वंश, कुल अथवा माता-पिता से है जो किसी भी वर्ण, जाति, समाज, देश, धर्म, रंग के हो सकते हैं। जैसे नाम कर्म का सम्बन्ध शरीर से है वैसे ही गोत्र कर्म भी शरीर से ही सम्बद्ध है । यदि गोत्र कर्म का सम्बन्ध शरीर से है तो ऐसे कौन से शारीरिक लक्षण हैं जिन्हें देखने से यह मालूम हो जाय कि अमुक व्यक्ति उच्च गोत्र का है और अमुक नीच गोत्र का ? वंशागत शारीरिक स्वस्थता, सुरूपता, संस्कारसम्पन्नता आदि उच्च गोत्र के लक्षण हैं तथा अस्वस्थता, कुरूपता, संस्कारहीनता आदि नीच गोत्र के। जिस व्यक्ति में वंशागत जैसे शारीरिक गुण अर्थात् लक्षण पाये जायंगे वह व्यक्ति उन्हीं लक्षणों के अनुरूप गोत्र वाला समझा जायगा, चाहे उसकी सामाजिक जाति कोई भी हो। जिस प्रकार शुभ नाम कर्म के उदय से शारीरिक शुभत्व तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से शारीरिक अशुभत्व प्राप्त होता है उसी प्रकार उच्च गोत्र कर्म के उदय से शारीरिक उत्कृष्टता ( कुलीनता ) तथा नीच गोत्र कर्म के उदय से शारीरिक निकृष्टता ( कुलहीनता ) प्राप्त होती है। जैसे किसी भी वर्ग का व्यक्ति शुभ नाम कर्म के कारण शुभ शरीर वाला एवं अशुभ नाम कर्म के कारण अशुभ शरीर वाला हो सकता है वैसे ही किसी भी वर्ग का व्यक्ति उच्च गोत्र कर्म के कारण उत्कृष्ट शरीर वाला एवं नीच गोत्र कर्म के कारण Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ चन धर्म-दर्शन निकृष्ट शरीर वाला हो सकता है। नाम और गोत्र कर्मों में इतना ही अन्तर है कि नाम कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के निजी शारीरिक गुणों से है, जबकि गोत्र कर्म का सम्बन्ध वंशागत अर्थात् परम्परागत शारीरिक गुणों से है । जैसे व्यक्ति के निजी गुणों में अमुक सीमा तक प्रयत्न द्वारा परिवर्तन हो सकता है वैसे ही उसके परम्परागत गुणों में भी अमुक सीमा तक प्रयत्नजन्य परिवर्तन सम्भव है। ___अन्तराय कर्म की पांच उत्तरप्रकृतियाँ हैं : दानान्तराय, लाभान्त राय, भोगान्तराय, उपभोगान्त राय और वीर्यान्तराय । जिस कर्म के उदय से उपयुक्त अवसर पर दान करने का उत्साह नहीं होता वह दानान्तराय कर्म है। जिस कर्म का उदय होने पर उदार दाता की उपस्थिति में भी लाभ अर्थात प्राप्ति की भावना न हो वह लाभान्तराय कर्म है। अयवा योग्य सामग्री के रहते हुए भी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति की भावना न होना लाभान्तराय कर्म का कार्य है। भोग की सामग्री मौजूद हो और भोग करने की इच्छा भी हो फिर भी जिस कर्म के उदय से प्राणी भोग्य पदार्थों का भोग करने में समर्थ न हो वह भोगान्तराय कर्म है। इसी प्रकार उपभोग्य वस्तुओं का उपभोग-असामर्थ्य उपभोगान्तराय कर्म का फल है। जो पदार्थ एक बार भोगे जाते हैं वे भोग्य हैं तथा जो पदार्थ बार-बार भोगे जाते हैं वे उपभोग्य हैं। अन्न, जल, फल आदि भोग्य पदार्थ हैं। वस्त्र, आभूषण, स्त्री आदि उपभोग्य पदार्थ हैं। जिस कर्म के उदय से प्राणी अपने वीर्य अर्थात् सामर्थ्य-शक्ति-बल का चाहते हुए भी उपयोग करने में समर्थ न हो उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं। अन्तराय कर्म के विषय में प्रायः ऐसी मान्यता प्रचलित दिखाई देती है कि किसी वस्तु की प्राप्ति आदि में बाह्य विघ्न Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४७३ उपस्थित होने पर भी यह कह दिया जाता है कि अन्तराय कर्म के उदय के कारण अमुक वस्तु प्राप्त न हो सकी आदि । क्या अन्तराय कर्म का सम्बन्ध बाह्य पदार्थों की अप्राप्नि आदि से है ? अन्तराय कर्म का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि अन्तराय शब्द का अर्थ है विघ्न । जिससे दानादि लब्धियाँ विशेषतया हनी जाती हैं अर्थात् विनष्ट की जाती हैं उसे विघ्न यानी अन्तराय कहते हैं :.."विशेषेण हन्यन्ते-दानादिलब्धयो विनाश्यन्तेऽनेनेति... .. विघ्नम्' अन्त रायम् ।' इस व्युत्पत्ति में दानादि लब्धियों को नष्ट करने वाले कर्म को अन्तराय कर्म कहा गया है । लब्धि का अर्थ होता है सामर्थ्य-विशेष अर्थात् शक्तिविशेष । जो कर्म दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्यरूप शक्तियों का हनन यानी नाश करता है वह अन्तराय कर्म है। जिस प्रकार ज्ञानावरणादि घाती कर्म आत्मा के ज्ञानादि मूल गुणों का घात अर्थात नाश करते हैं उसी प्रकार अन्तराय कर्म भी आत्मा के वीर्य रूपी मूल गुण का घातक है अर्थात् शक्ति का नाश करने वाला है। आत्मा में असीम शक्ति है किन्तु अन्तराय कर्म के उदय के कारण यह शक्ति कुण्ठित हो जाती है। जैसे आत्मा में ज्ञान, दर्शन और सुख की पराकाष्ठा स्वभावतः विद्यमान रहती है किन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्म के उदय के कारण उनका घात होता है वैसे ही आत्मा में शक्ति की पराकाष्ठा स्वभावतः विद्यमान होने पर भी अन्तराय कर्म के उदय के कारण उसका पात होता है। यह घात अथवा विघ्न विषयभेद से पांच प्रकार का माना गया है : १ दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, ५. वीर्यान्त१ सटीक प्रथम कर्म ग्रन्थ, पृ० ५. २. पाइअसद्दमहण्णव, पृ० ७२२. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जैन धर्म-दर्शन राय ।' दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य से सम्बन्धित पदार्थ अर्थात् विषय बाह्य हैं तथा तत्सम्बद्ध कर्म यानी दानान्तराय आदि कर्म आन्तरिक हैं। देय वस्तु के विद्यमान रहने एवं उपयुक्त अवसर के उपस्थित होने पर भी देने की भावना न होना दानान्तराय कर्म के उदय का फल है। इस कर्म के उदय से व्यक्ति के अन्तर में देने की भावना या इच्छा उत्पन्न नहीं हो पाती। विपरीत इसके दानान्तराय कर्म का क्षय-उपशम होने पर व्यक्ति के अन्तर में देने की भावना पैदा होती है। आन्तरिक भावना के अभाव में बाह्य पदार्थ का दान न करना एवं आन्तरिक इच्छा होने पर बाह्य वस्तु का दान करना भावना के असद्भाव एवं सद्भाव का साधारण फल है। विशेष परिस्थिति में ऐसा भी देखा जाता है कि आन्तरिक इच्छा के अभाव में भी बाह्य वस्तु प्रदान की जाती है तथा आन्तरिक भावना का सद्भाव होने पर भी बाह्य वस्तु प्रदान नहीं की जा सकती। इन अवस्थाओं में दानान्तराय कर्म के उदय-क्षय-उपशम का निर्णय बाह्य पदार्थों के प्रदान के आधार पर नहीं किया जा सकता। बाह्य पदार्थ देना या दे पाना अथवा नहीं देना या नहीं दे पाना अपने से भिन्न अन्य परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। इन परिस्थितियों का अपने दानान्तराय कर्म से सम्बन्ध नहीं होता। अपना दानान्तराय कर्म अपनी भावनाओं से सम्बद्ध होता है, बाह्य पदार्थों अथवा बाह्य परिस्थितियों से नहीं । हाँ, बाह्य वस्तुएँ एवं परिस्थितियाँ कर्मों के उदय-क्षय-उपशम का निमित्त अवश्य बन सकती हैं किन्तु उपादान तो आन्तरिक ही रहेगा। दानान्तराय आदि १. सटीक प्रथम कर्म ग्रन्थ, पृ० ५८. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त कर्मों का निर्णय व्यक्ति की आन्तरिक भावनाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं, शक्तियों, कामनाओं के आधार पर करना चाहिए, बाह्य पदार्थो एवं परिस्थितियों के आधार पर नहीं । लभ्य वस्तु के विद्यमान रहने एवं अनुकूल अवसर के उपस्थित होने पर भी जिसके उदय के कारण प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न न हो उसे लाभान्तराय कर्म कहते हैं । लाभान्तराय कर्म का कार्य लाभ यानी प्राप्ति की इच्छा पैदा न होने देना मात्र है । इच्छा पैदा होने पर भी वस्तु की प्राप्ति होना या न होना अन्य परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है । देय वस्तु भी विद्यमान हो, दाता की भावना भी अनुकूल हो, प्राप्तकर्ता भी ग्रहण करन की इच्छावाला हो फिर भी अन्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होना कोई अनहोनी बात नहीं है । लाभान्तराय कर्म का कार्य प्राप्तकर्ता की आन्तरिक इच्छा का निरोध करना है, न कि प्राप्य वस्तु की प्राप्ति में बाधक बनना । बाह्य वस्तु की प्राप्ति अप्राप्ति का कर्म से प्रत्यक्ष सम्बन्ध तो है ही नहीं, परोक्ष सम्बन्ध भी अनिवार्यतः नहीं है । कर्म का उदय-क्षयउपशम होने पर भी अनिवार्यतः बाह्य वस्तु की प्राप्ति अप्राप्ति नहीं होती । परिस्थितियों की अनुकूलता प्रतिकूलता के अनुसार प्राप्ति अप्राप्ति में परिवर्तन हो सकता है । दानान्तराय कर्म का उदय न होने पर भी दानक्रिया में विघ्न आ सकता है, दानान्तराय कर्म का उदय होने पर भी दानक्रिया हो सकती है, लाभान्तराय कर्म का उदय न होने पर भी प्राप्तिक्रिया में बाधा आ सकती है, लाभान्तराय कर्म का उदय होने पर भी प्राप्तिक्रिया हो सकती है आदि । ४७५ www.jainelibrary:org Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग और उपभोग से भोग कहते कहते हैं । आहार है। ४७६ जैन धर्म-दर्शन भोग और उपभोग में यही अन्तर है कि जिसका एक बार उपयोग किया जाता है उसे भोग कहते हैं तथा जिसका बारबार उपयोग किया जाता है उसे उपभोग कहते हैं। आहारादि भोग के अन्तर्गत हैं तथा वस्त्रादि उपभोग में समाविष्ट हैं। जिस अन्तराय कर्म का सम्बन्ध भोग से हो उसे भोगान्तराय तथा जिसका सम्बन्ध उपभोग से हो उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं। जैसे दानान्तराय एवं लाभान्तराय कर्म का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की भावना अथवा इच्छाशक्ति से है वैसे ही भोगान्तराय एवं उपभोगान्त राय कर्म भी प्रत्यक्षतः प्राणी के आन्तरिक सामर्थ्य से सम्बद्ध है, बाह्य पदार्थ से नहीं। आहारादि की अनुकूलता एवं आवश्यकता होने पर भी जिसके उदय के कारण खाने-पीने की इच्छा न हो-रुचि न हो-शक्ति न हो उसे भोगान्तराय कर्म कहते हैं। इसी प्रकार वस्त्रादि से सम्बन्धित कर्म का नाम उपभोगान्तराय है। भोज्य एवं उपभोज्य पदार्थों की उपलब्धि एवं भोग-उपभोगान्तराय कर्म का क्षय-उपशम होते हुए भी बाह्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण भोगोपभोग में बाधा आ सकती है। वीर्य अर्थात् सामान्य सामर्थ्य या शक्ति। जिस कर्म के उदय से स्वस्थ एवं सबल शरीर धारण करते हुए भी प्राणी छोटा-सा कार्य करने में भी असमर्थ हो उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं । कभी-कभी ऐसा भी देखने में आता है कि प्राणी में शक्ति अर्थात् सामर्थ्य विद्यमान होते हुए भी बाहरी बाधाओं के कारण वह अपनी उस शक्ति का उपयोग नहीं कर पाता। इस स्थिति को वीर्यान्तराय कर्म का उदय नहीं समझना चाहिए। जब प्राणी के सामर्थ्य में आन्तरिक विघ्न उत्पन्न हो अर्थात् वह अपने कर्म ( अदृष्ट ) के कारण विद्यमान शक्ति Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४७७ का समय पर उपयोग न कर पाये तभी उसके वीर्यान्तराय कर्म का उदय समझना चाहिए। इस प्रकार अन्तराय कर्म का सम्बन्ध बाह्य पदार्थों की अप्राप्ति आदि से नहीं अपितु आन्तरिक शक्तियों के हनन से है। जो कर्म दान-लाभ-भोग-उपभोगवीर्यरूप आभ्यन्तरिक शक्तियों की अभिव्यक्ति में बाधक बनता है वह अन्तराय कर्म है। आठ प्रकार के भूल कर्मों अथवा मूलप्रकृतियों के कुल एक सो अठावन भेद होते हैं जो इस प्रकार हैं : १. ज्ञानावरणीय कर्म २. दर्शनावरणीय कर्म ३. वेदनीय कर्म ४. मोहनीय कर्म ५. आयु कर्म ६. नाम कर्म ७. गोत्र कर्म ८. अन्तराय कर्म योग १५८ फर्म की स्थिति : जैन कर्मग्रन्थों में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की विभिन्न स्थितियाँ (उदय में रहने का काल) बताई गई हैं जो इस प्रकार हैं : ___ कर्म अधिकतम समय अधिकतम समय न्यूनतम समय १. ज्ञानावरणीय तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय बारह मुहूर्त Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ जैन धर्म-दर्शन ४. मोहनीय सत्तर कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त ५. आयु तैतीस सागरोपम ६. नाम बीस कोटाकोटि सागरोपम आठ मुहूर्त ७. गोत्र ८. अन्तराय तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त सांगरोपम आदि समय के विविध भेदों के स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए अनुयोगद्वार आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। इससे जैनों की कालविषयक मान्यता का भी ज्ञान हो सकेगा। कर्मफल की तीव्रता-मन्दता : ___ कर्मफल की तीव्रता और मन्दता का आधार तन्निमित्तक कषायों की तीव्रता-मन्दता है। जो प्राणी जितना अधिक कषाय की तीव्रता से युक्त होगा उसके पापकर्म अर्थात् अशुभकर्म उतने ही प्रबल एवं पुण्यकर्म अर्थात् शुभकर्म उतने ही निर्बल होंगे। जो प्राणी जितना अधिक कषायमुक्त एवं विशुद्ध होगा उसके पुण्यकर्म उतने ही अधिक प्रबल एवं पापकर्म उतने ही अधिक दुर्बल होंगे। कर्म के प्रदेश : प्राणी अपनी कायिक आदि क्रियाओं द्वारा जितने कर्मप्रदेश अर्थात् कर्मपरमाणुओं का संग्रह करता है वे विविध प्रकार के कर्मों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध होते हैं। आयु कर्म को सबसे कम हिस्सा मिलता है। नाम कर्म को उससे कुछ अधिक हिस्सा मिलता है। गोत्र कर्म का हिस्सा भी नाम कर्म जितना ही होता है। उससे कुछ अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनमें से प्रत्येक कर्म को प्राप्त Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४७९ होता है। इन तीनों का भाग समान रहता है। इससे भी अधिक भाग मोहनीय कर्म के हिस्से में जाता है। सबसे अधिक भाग वेदनीय कर्म को मिलता है। इन प्रदेशों का पुनः उत्तरप्रकृतियों-उत्तरभेदों में विभाजन होता है। प्रत्येक प्रकार के बद्ध कर्म के प्रदेशों की न्यूनता-अधिकता का यही आधार है। पुण्य और पाप : जैन कर्मवाद के अनुसार संसार का प्रत्येक कार्य कर्मजन्य नहीं होता । इसी प्रकार जगत् की प्रत्येक घटना कर्म के कारण नहीं होती। विश्व में होने वाले कार्यों एवं घटनाओं के विविध कारण होते हैं । कुछ घटनाएं पौद्गलिक होती हैं, कुछ कालजन्य, कुछ स्वाभाविक, कुछ आकस्मिक या संयोगवश एवं कुछ वैयक्तिक अथवा सामाजिक प्रयत्नजन्य होती हैं । जैन कर्मवाद विशुद्ध व्यक्तिवादी है। जिस प्रकार जैन तत्त्ववाद आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है उसी प्रकार जैन कर्मवाद कर्म को स्वशरीर-प्रमाण मानकर उसे व्यक्ति तक ही सीमित रखता है। जैसे जीव अपने शरीर में बद्ध रहकर ही अपना कार्य करता है वैसे ही कर्म भी अपने शरीर की सीमा में रहकर ही अपना काम करता है। जैसे आत्मा सर्वव्यापक नहीं है वैसे ही कर्म भी सर्वव्यापक नहीं है । चूकि आत्मा एवं कर्म के कार्य अथवा गुण देह तक ही सीमित हैं अतः तदाधारभूत आत्मा एवं कर्म भी स्वदेह तक ही परिमित है। वस्तुतः आत्मा और कर्म (नोकर्मसहित) के मिश्रित रूप का नाम ही देह है । जैन कर्मवादी नैयायिकों की भांति कार्यमात्र के प्रति कर्म को कारण मानने के पक्ष में नहीं हैं। जैन कर्मवाद से विपरीत नैयायिक ईश्वर और कर्म को कार्यमात्र के प्रति साधारण कारण मानते हैं। ___ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० जैन धर्म-दर्शन कर्म दो प्रकार के होते हैं : शुभ और अशुभ। शुभ कर्म का दूसरा नाम पुण्य है और अशुभ कर्म का दूसरा नाम पाप । इस प्रकार पुण्य एवं पाप शुभ एवं अशुभ कर्मों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । चूकि शुभ और अशुभ इन दोनों प्रकार के कर्मों का सम्बन्ध प्राणी के शरीर (सचेतन) से है अतः पुण्य और पाप इन दोनों का सम्बन्ध भी उसी शरीर से ही है। जब यह कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति पुण्यवान् है तो जैन कर्मवाद की दृष्टि से इस कथन का तात्पर्य यह होता है कि उस व्यक्ति का शरीर शुभ कर्मोदययुक्त है अर्थात् उस व्यक्ति के शरीर से सम्बद्ध इन्द्रियाँ, वाणी, मन आदि एवं उनकी प्रवृत्तियां यानी मन-वचन-काय की क्रियाएं शुभ अर्थात् सुखद हैं । दूसरे शब्दों में, वह व्यक्ति सब प्रकार से अथवा सामान्य तौर से अथवा अधिकांशतः सुखी है । इसी तरह जो व्यक्ति पापी होता है वह सब प्रकार से यावत् अधिकांशतः दुःखी होता है। इस प्रकार पुण्य और पाप का फल सुख और दुःख है। सुख एवं दुःख व्यक्ति के व्यक्तित्व अर्थात् शारीरिक एवं मानसिक गठन पर अवलम्बित है जिसका निर्माण पुण्य और पाप अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों के आधार से होता है। यदि पाप-पुण्य से ही दुःख-सुख होता है तो बाह्य पदार्थों की क्या आवश्यकता है ? यदि पाप-पुण्य दुःख-सुख की उत्पत्ति का ही कारण है तो बाह्य पदार्थों की प्राप्ति किन कारणों से होती है ? दूसरे शब्दों में, सुख-दुःख की उत्पत्ति में बाह्य पदार्थों का क्या योगदान है तथा इनकी प्राप्ति के क्या कारण हैं ? ये दो प्रश्न इस प्रसंग में स्वाभाविकतया पैदा होते हैं। बाह्य वस्तुएं एवं परिस्थितियाँ सुख-दुःख की उत्पत्ति में अवश्य सहायक बनती हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु इन्हीं Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त જર્ को सुख-दुःख का मूल कारण मानना अयुक्तिसंगत है। जिस व्यक्ति में सुख-दुःख की उत्पत्ति की शक्ति या योग्यता विद्यमान रहती है अर्थात् जिसमें पुण्य एवं पाप की सत्ता होती है उसी में बाह्य पदार्थ सुख एवं दुःख उत्पन्न कर सकते हैं । जो व्यक्ति अमुक प्रकार के सुख अथवा दुःख से परे है अर्थात् जिसमें अमुक प्रकार का सुख-दुःख उत्पन्न नहीं हो सकता उसे उस सीमा तक बाह्य पदार्थ प्रभावित नहीं करते । तात्पर्य यह है कि बाह्य पदार्थ किसी व्यक्ति को उसी सीमा तक प्रभावित करते हैं जिस सीमा तक उसका व्यक्तित्व उनसे प्रभावित हो सकता है । कोई भी पदार्थ अथवा वातावरण सबको समान रूप से प्रभावित नहीं कर सकता । इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न प्रकार का है अर्थात हरेक के पुण्य पाप की संचिति यानी सुख-दुःख का अनुभव करने की योग्यता अलगअलग तरह की है। वाह्य वस्तुएं एवं परिस्थितियाँ व्यक्ति में विद्यमान योग्यता के अनुसार ही सुख-दुःख उत्पन्न करने में सहायक कारण के रूप में कार्य करती हैं । सुख-दुःख का मूल कारण तो व्यक्ति में ही मौजूद होता है जो पुण्य-पाप के संग्रह के रूप में रहता है । इस प्रकार सुख-दुःख का उपादान - कारण अर्थात् मूल कारण स्वयं व्यक्ति है, जबकि बाह्य पदार्थ निमित्तकारण अर्थात् सहायक कारण के रूप में हैं। इस दृष्टि से बाह्य वस्तुओं एवं परिस्थितियों का महत्त्व स्वीकार करना होगा क्योंकि किसी भी कार्य की उत्पत्ति में उपादान कारण की प्रधानता होते हुए भी निमित्त कारण का भी योगदान होता है । उपादान - कारण की समानता होते हुए भी निमित्त कारण की भिन्नता के कारण कार्य में कुछ भिन्नता आ ही जाती है । इसी प्रकार सुख-दुःख का अनुभव करने की शक्ति अर्थात् पुण्य-पाप ३१ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन धर्म-दर्शन के संचय की समानता होते हुए भी बाह्य पदार्थों तथा परिस्थितियों की असमानता के कारण सुख-दुःख की अनुभूति में कुछ अन्तर आना अस्वाभाविक नहीं है। जैसे बाह्य वस्तुओं की अभिन्नता अथवा समानता होने पर भी व्यक्तित्व की असमानता के कारण सुख-दुःख की अनुभूति में अन्तर आ जाता है वैसे ही व्यक्तित्व की अभिवता अथवा समानता होने पर भी बाह्य परिस्थितियों की असमानता के कारण सुख-दुःख के अनुभव में भिन्नता आना स्वाभाविक है। बाह्य पदार्थों अथवा साधनों की प्राप्ति के कई कारण हैं। उन सब कारणों को हम दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं : अपने पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न द्वारा पदार्थ की प्राप्ति और स्वतः अर्थात् बिना किसी प्रयत्न के वस्तु की उपलब्धि । प्रयत्न द्वारा वस्तु की प्राप्ति में अनेक बाह्य कारणों के साथ-ही-साथ पुण्यपापरूप आन्तरिक कारण भी अपना यथोचित योगदान करता है। व्यक्ति का किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रयत्न करना उसकी बुद्धि, शक्ति, विचारधारा, विश्वास आदि पर निर्भर होता है। ये सब गुण व्यक्ति के पुण्य पापपुंज के अनुसार होते हैं अर्थात् जिस समय व्यक्ति के व्यक्तित्व का जैसा रूप होता है उस समय वह उसी के अनुरूप बुद्धि आदि के द्वारा बाह्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रयत्न करता है। उसके पुण्य-पार से सर्वया असम्बद्ध बाह्य परिस्थितियों की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता की स्थिति में फलप्राप्ति में अन्तर आना अर्थात् कभी इच्छित फल की प्राप्ति होना, कभी इच्छित फल की प्राप्ति न होना, कभी अधिक फल की प्राप्ति होना, कभी कम फल की प्राप्ति होना इत्यादि उसके पुण्य-पाप पर निर्भर नहीं है। इसके लिए न उसके पुण्य की Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमसिद्धान्त ४८३ प्रशंसा करनी चाहिए, न उसके पाप की निन्दा। जहां तक उसको बुद्धि, शक्ति, श्रमशीलता आदि का उस फलप्राप्ति से सम्बन्ध हो वहीं तक उसके पुण्य-पाप को सराहना-कोसना चाहिए। संयोगवशात् अल्प प्रयत्न करने पर भी अधिक लाभ हो सकता है तथा प्रचुर पुरुषार्थ करने पर भी पर्याप्त लाभ नहीं हो सकता इतना ही नहीं, कभी-कभी पुरुषार्थ के अभाव में ही अकस्मात् भारी लाभ हो जाता है तथा इसके विपरीत कभी-कभी अथक प्रयत्न करने पर भी कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इन सब दशाओं का पुण्य-पाप से कोई सम्बन्ध नहीं है। किमी व्यक्ति का पुण्य-पाप उसके व्यक्तित्व को संचालित एवं प्रभावित करता है, उसके नियन्त्रण के अन्दर की परिस्थितियों को नियन्त्रित एवं निर्मित करता है। जो परिस्थितियां एवं घटनाएं उसके नियन्त्रण के बाहर हैं उनके लिए वह उत्तरदायी नहीं है, उनसे उसके पुण्य-पाप का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। ऐसी परिस्थितियाँ एवं घटनाएं अपने-अपने विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होती हैं जिनका उस व्यक्ति से साक्षात् या असाक्षात् कोई सम्बन्ध नहीं होता। संयोगवशात् या अकस्मात् वे परिस्थितियाँ तथा घटनाएं उस व्यक्ति के मुख-दुःख का कारण बन जाती हैं । हाँ, उन परिस्थितियों एवं घटनाओं से प्रभावित होने की योग्यता उसकी अपनी होती हैउसके पुण्य-पाप की देन होती है। बाा साधनों अर्थात् धनादि की उपलब्धि पुण्य से ही होती है, ऐसा कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है। पुण्यशालियों अर्थात् सदाचारियों की भाँति पापी अर्थात् दुराचारी एवं भ्रष्टाचारी भी समृद्धि प्राप्त करने वाले देखे जाते हैं। इतना - ही नहीं, बहुधा पापी लोग पुण्यात्माओं से समृद्धि में आगे बढ़े Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन हुए दिखाई देते हैं । इसका जो भी कारण हो, इतना निश्चित है कि पापपूर्ण आचरण से भी धनादि की प्राप्ति हो सकती है अर्थात् पापी भी समृद्धिशाली हो सकते हैं । पमृद्धि हो या न हो, सुख-दुःख का अनुभव प्रधानतया आन्तरिक कारणों अर्थात् पुण्य-पाप के आधार पर होता है। समृद्धिशाली भी दुःखी देखे जाते हैं, जबकि निर्धन व्यक्ति भी सुख का अनुभव करने वाले होते हैं। विपुल संग्रह करने वाले भी दुःखी पाये जाते हैं, जबकि अकिंचन भी सुखी दिखाई देते हैं। जैसे ऐसा नियम नहीं है कि धनादि की उपलब्धि पुण्य से ही होती है वैसे ही ऐसा भी नियम नहीं है कि पुण्य से धनादि की प्राप्ति होती ही है । पुण्यपूर्ण कृत्य हो अथवा पापपूर्ण कृत्य, परिस्थितियों की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता के अनुसार धनादि की प्राप्ति हो भी सकती है और नहीं भी। जिस प्रकार धनादि की प्राप्ति पुण्ययुक्त एवं पापयुक्त अर्थात् अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्यों से हो सकती है उसी प्रकार धनादि का उपयोग भी पुण्यमय और पापमय दोनों प्रकार के कार्यों में किया जा सकता है। पुण्यमय अर्थात् सत्कार्य में किया जाने वाला धनोपयोग शुभ कर्मों का उपार्जन करने वाला होने के कारण सुखद होता है, जबकि पापमय अर्थात् असत्कार्य में किया जाने वाला धनोपयोग अशुभ कर्मो का उपार्जन करने वाला होने के कारण दुःखद होता है । यही बात पुण्ययुक्त एवं पापयुक्त धनोपार्जन के विषय में भी समझनी चाहिए। पुरुषार्थ द्वारा होने वाली अर्थात् प्रयत्नजन्य किसी वस्तु की प्राप्ति पुण्य-पाप से सम्बद्ध हो सकती है किन्तु बिना किसी प्रकार के पुरुषार्थ के अर्थात स्वतः होने वाली धनादि की प्राप्ति का गुपय-पाप से कोई सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता। जो Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त साधन-सामग्री किसी के जन्म के पूर्व ही कहीं मौजूद हो और उसे संयोगवश बिना किसी प्रकार का पुरुषार्थ किये ही प्राप्त हो जाय तो इसमें उसके पुण्य का हाथ कैसे हो सकता है ? उसके जन्म के पूर्व तो उसका पुण्य वहाँ है ही नहीं अतः उस साधन-सामग्री के उपार्जन से उसका सम्बन्ध होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । अनुभव तो यही बताता है कि उस सामग्री का उपार्जन किसी अन्य के पुरुषार्थ द्वारा ही हुआ है। वह तो संयोगवशात् उसका स्वामी बन गया है। उसने उस सामग्री के उपार्जन में किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं किया है। ऐसी स्थिति में वह साधन-सामग्री उसके पुण्य से कैसे सम्बद्ध हो सकती है? हाँ, उस सामग्री के निमित्त से होने वाला सुख-दुःख अवश्य उस व्यक्ति के पुण्य-पाप से सम्बद्ध होता है । यही बात संयोगजन्य साधन-सामग्री की अप्राप्ति के विषय में भी समझनी चाहिए अर्थात् स्वतः प्राप्त निर्धनता पार का परिणाम नहीं है अपितु उस निर्धनता से होने वाला सुख-दुःख पुण्य-पाप का परिणाम है। इस प्रकार पुण्य-पाप का फल अमीरी-गरीबी नहीं अपितु सुखदुःख है । चूकि शुभाशुभ कर्मों का सम्बन्ध शरीर से है अतः पुण्य-पाप और तत्परिणामरूप सुख-दुःख-भी शरीर से ही सम्बद्ध है । बाह्य पदार्थ सुख-दुःख की उत्पत्ति में निमित्त-कारण हा सकत है । सुख-दुःख का उपादान-कारण तो शुभाशुभ कर्मरूप पुण्य-पाप ही है। कर्म को विविध अवस्थाएँ : जैन कर्मशास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है । ये अवस्थाएं कर्म के बन्धन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय आदि से सम्बन्धित हैं। इनका हम मोटे तौर पर ग्यारह भेदों में वर्गीकरण कर सकते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं : Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जैन धर्म-दर्शन १. बन्धन, २. सत्ता, ३. उदय, ४. उदीरणा, ५. उद्वर्तना, ६. अपवर्तना, ७. संक्रमण, ८. उपशमन, ६. निधति, १०. निकाचन, ११. अबाध ।' १. बन्धन-आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं का बंधना अर्थात् क्षीरनीरवत् एकरूप हो जाना बन्धन कहलाता है। बन्धन के बाद ही अन्य अवस्थाएं प्रारम्भ होती हैं । बन्धन चार प्रकार का होता है : प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध अथवा रसबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनका वर्णन पहले किया जा चुका है। २. सत्ता-बद्ध कर्म-परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षय होने तक आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं। इसी अवस्था का नाम सत्ता है । इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए विद्यमान रहते हैं। ३. उदय-कर्म की स्वफल प्रदान करने की अवस्था का नाम उदय है । उदय में आने वाले कर्म-पुद्गल अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं । कर्म-पुद्गल का नाश क्षय अथवा निर्जरा कहलाता है। ४. उवोरणा-नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है। जैन कर्मवाद कर्म की एकान्त नियति में विश्वास नहीं करता। जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत काल से पहले फल पकाये जा सकते हैं उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत समय से पूर्व बद्ध कर्मों को भोगा जा सकता है। सामान्यतः जिस कर्म १. देखिए-आत्ममीमांसा, पृ० १२८-१३१; Jaina Psychology, पृ० २५-२६. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त का उदय जारी होता है उसके सजातीय कर्म को ही उदीरणा संभव होती है । बन्धन, सत्ता, उदय और उदीरणा में कितनी कर्म- प्रकृतियाँ ( उत्तरप्रकृतियाँ ) होती हैं, इसका भी जैन कर्मशास्त्र में विचार किया गया है । बन्धन में कर्म प्रकृतियों की संख्या एक सोबीस, उदय में एक सौ बाईस, उदीरणा में भी एक सौ बाईस तथा सत्ता में एक सौ अठावन मानी गई है। नीचे की तालिका ' में इन चारों अवस्थाओं में रहनेवाली उत्तरप्रकृतियों की संख्या दी जाती है : १. ज्ञानावरणीय कर्म २. दर्शनावरणीय कर्म ३. वेदनीय कर्म ४. मोहनीय कर्म ५. आयु कर्म ६. नाम कर्म ७. गोत्र कर्म ८. अन्तराय कर्म बन्धन २ २६ ६७ २ उदय उदीरणा ५ ५ ६७ ५ १२२ २८ ૪૦ ६७ सत्ता ५ ε २ २८ AW K ५ ५. योग १२० १२२ १५८ सत्ता में समस्त उत्तरप्रकृतियों का अस्तित्व रहता है जिनकी संख्या एक सौ अठावन है । उदय में केवल एक सौ बाईस प्रकृतियाँ रहती हैं क्योंकि इस अवस्था में पंदरह बन्धन तथा पाँच संवातन -- नाम कर्म की ये बीस प्रकृतियाँ अलग से नहीं गिनी गई हैं अपितु पाँच शरीरों में ही उनका समावेश कर १. कर्मविपाक (पं० सुखनालजीकृत हिन्दी अनुवाद), पृ० १११. १०३ २ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन दिया गया है। साथ ही वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श इन चार पिण्डप्रकृतियों की बीस उत्तरप्रकृतियों के स्थान पर केवल चार ही प्रकृतियाँ गिनी गई हैं। इस प्रकार कुल एक सौ अठावन प्रकृतियों में से नाम कर्म की छत्तीस (बीस और सोलह ) प्रकृतियाँ कम कर देने पर एक सौ बाईस प्रकृतियाँ शेष रह जाती हैं जो उदय में आती हैं । उदीरणा में भी ये ही प्रकृतियाँ रहती हैं क्योंकि जिस प्रकृति में उदय की योग्यता रहती है उसी की उदीरणा होती है। बन्धनावस्था में केवल एक सौ बीस प्रकृतियों का ही अस्तित्व माना गया है। सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय कर्मों का बन्धन अलग से न होकर मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के रूप में ही होता है क्योंकि (कर्मजन्य) सम्यक्त्व और सम्यक्-मिथ्यात्व मिथ्यात्व की ही विशोधित अवस्थाएं हैं। इन दो प्रकृतियों को उपर्युक्त एक सौ बाईस प्रकृतियों में से कम कर देने पर एक सौ बीस प्रकृतियाँ बाकी बचती हैं जो बन्धनावस्था में विद्यमान रहती हैं । ५. उद्वर्तना-बद्धकर्मों की स्थिति और अनुभाग-रस का निश्चय बन्धन के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार होता है। उसके बाद की स्थितिविशेष अथवा भावविशेष-अध्यवसायविशेष के कारण उस स्थिति तथा अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तना कहलाता है। इस अवस्था को उत्कर्षण भी कहते हैं। ६. अपवर्तना-बद्धकर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसायविशेष से कमी कर देने का नाम अपवर्तना है। यह अवस्था उद्वर्तना से बिल्कुल विपरीत है। इसका दूसरा नाम अपकर्षण भी है । इन अवस्थाओं की मान्यता से यही सिद्ध Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४८६ होता है कि किसी कर्म की स्थिति एवं फल की तीव्रता-मन्दता में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता, ऐसी बात नहीं है। अपने प्रयत्नविशेष अथवा अध्यवसायविशेष की शुद्धताअशुद्धता से उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। एक समय हमने कोई अशुभ कार्य किया अर्थात् पापकम किया और दूसरे समय शुभ कार्य किया तो पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति आदि में यथासम्भव परिवर्तन हो सकता है। इसी प्रकार शुभ कार्य द्वारा बाँधे गये कर्म की स्थिति आदि में भी अशुभ कार्य करने से समयानुसार परिवर्तन हो सकता है। तात्पय यह है कि व्यक्ति के अध्यवसायों के अनुसार कर्मों की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है । इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए जैन कर्मवाद को इच्छास्वातन्त्र्य का विरोधी नहीं माना गया है। ७. संक्रमण-एक प्रकारके कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन होना संक्रमण कहलाता है। संक्रमण किसी एक मूलप्रकृति की उत्तरप्रकृतियों में ही होता है, विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं। दूसरे शब्दों में, सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण माना गया है, विजातीय प्रकृतियों में नहीं। इस नियम के अपवाद के रूप में आचार्यों ने यह भी बताया है कि आयु कर्म की प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में तथा दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियों में ही (कुछ अपवादों को छोड़कर) परस्पर संक्रमण होता है । इस प्रकार आयु कर्म की चार उत्तरप्रकृतियाँ, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय व दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियाँ उपर्युक्त नियम के अपवाद हैं । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैन धर्म-दर्शन ८. उपशमन - कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होती उसे उपशमन कहते हैं । इस अवस्था में उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण की संभावना का अभाव नहीं होता । जिस प्रकार राख से आवृत अग्नि उस अवस्था में रहती हुई अपना कार्यविशेष नही करती किन्तु आवरण हटते ही पुनः प्रज्वलित होकर अपना कार्य करने को तैयार हो जाती है उसी प्रकार उपशमन अवस्था में रहा हुआ कम उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदय मे आकर फल प्रदान करना शुरू कर देता है । ૪૨૦ ६. नित्ति - कर्म की वह अवस्था निघत्ति कहलाता है जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है । इस अवस्था में उद्वर्तना और अपवर्तना की असंभावना नही होती । १०. निकाचन-कर्म की उस अवस्था का नाम निकाचन है जिसमें उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्थाएँ असम्भव होती हैं । इस अवस्था का अर्थ है कर्म का जिस रूप में बँध हुआ उसी रूप में उसे अनिवार्यतः भोगना । इसी अवस्था का नाम नियति है । इसमें इच्छा स्वातन्त्र्य का सर्वथा अभाव रहता है । किसी-किसी कर्म की यही अवस्था होती है । ११. अबाधा -कर्म का बंधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देना उसकी अबाधा - अवस्था है । इस अवस्था के काल को अबाधाकाल कहते हैं । इस पर पहले प्रकाश डाला जा चुका है । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमगिद्धान्त उदय के लिए अन्य परंपराओं में प्रारब्ध शब्द का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार सत्ता के लिए संचित, बन्धन के लिए आगामी अथवा क्रियमाण, निकाचन के लिए नियतविपाकी, संक्रमण के लिए आवागमन, उपशमन के लिए तनु आदि शब्दों के प्रयोग उपलब्ध होते हैं।' कर्म और पुनर्जन्म : कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य सम्बन्ध है। कर्म की सत्ता स्वीकार करने पर उसके फलरूप परलोक अथवा पुनर्जन्म की सत्ता भी स्वीकार करनी ही पड़ती है। जिन कर्मों का फल इस जन्म में प्राप्त नहीं होता उन कर्मों के भोग के लिए पुनर्जन्म मानना अनिवार्य है । पुनर्जन्म एवं पूर्वभव न मानने पर कृत कर्म का निर्हेतुक विनाश-कृतप्रणाश एवं अकृत कर्म का भोग-अकृतकर्मभोग मानना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में कर्म-व्यवस्था दूषित हो जाएगी। इन्हीं दोषों से बचने के लिए कर्मवादियों को पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार करनी पड़ती है। इसीलिए वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों प्रकार की भारतीय परम्पराओं में कर्ममूलक पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार की गयी है। जैन कर्मसाहित्य में समस्त संसारी जीवों का समावेश चार गतियों में किया गया है : मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक और देव । १. देखिए-योगदर्शन तथा योगविशिका (प० सुखलालजी द्वारा सम्पा दित), प्रस्तावना, पृ० ५४; Outlines of Indian Philoso- phy (P. T. Srinivasa Iyengar),पृ. ६२. २. इन परम्पराओं को पुनर्जन्म एवं परलोक-विषयक मान्यताओं के लिए देखिए-आत्ममीमांसा, पृ० १३४-१५२. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन मृत्यु के पश्चात् प्राणी अपने कर्म के अनुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में जाकर जन्म ग्रहण करता है जब जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करने के लिए जाता है तब आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचा देता है । आनुपूर्वी नाम कर्म के लिए नासा-रज्जु अर्थात् 'नाथ' का दुष्टान्त दिया जाता है। जैसे बैल को इधरउधर ले जाने के लिए नाथ की सहायता अपेक्षित होती है उसी प्रकार जीव को एक गति से दूसरी गति में पहुंचने के लिए आनुपूर्वी नाम कर्म की मदद की जरूरत पड़ती है। समश्रेणी-- ऋजुगति के लिए आनुपूर्वी को यावश्यकता नहीं रहती अपितु विश्रेणी-वक्रगति के लिए रहती है। गत्यन्तर के समय जीव के साथ केवल दो प्रकार का शरीर रहता है : तैजस और कार्मण । अन्य प्रकार के शरीर (औदारिक अथवा वैक्रिय) का निर्माण वहाँ पहुचने के बाद प्रारम्भ होता है। गुणस्थान : आध्यात्मिक विकास को व्यावहारिक परिभाषा में चारित्रविकास कह सकते हैं.। मनुष्य के आत्मिक गुणों का प्रतिबिम्ब उसके चारित्र में पड़े बिना नहीं रहता। चारित्र की विविध दशाओं के आधार पर आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं अथवा अवस्थाओं का सहज ही अनुमान हो सकता है। आत्मा की विविध अवस्थाओं को तीन मुख्य रूपों में विभक्त किया जा सकता है : निकृष्टतम, उत्कृष्टतम और तदन्तर्वर्ती । अज्ञान अथवा मोह का प्रगाढ़तम आवरण आत्मा की निकृष्टतम अवस्था है। विशुद्धतम ज्ञान अथवा आत्यन्तिक व्यपगतमोहता आत्मा की उत्कृष्टतम अवस्था है। इन दोनों चरम अवस्थाओं . Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४६३ के मध्य में अवस्थित दशाएं तृतीय कोटि की अवस्थाएं हैं। प्रथम प्रकार की अवस्था में चारित्र - शक्ति का सम्पूर्ण हास तथा द्वितीय प्रकार की अवस्था में चारित्र शक्ति का सम्पूर्ण विकास होता है । इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के अतिरिक्त चारित्र विकास की जितनी भी अवस्थाएं हैं, उन सबका समावेश - उभय चरमान्तर्वर्ती तीसरी कोटि में होता है । आत्म-विकास अथवा चारित्र विकास की समस्त अवस्थाओं को जैन कर्मशास्त्र में चौदह भागों में विभाजित किया है जो 'चौदह गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये जैनाचार के चतुर्दश सोपान अर्थात् जैन चारित्र की चौदह सीढ़ियां हैं । साधक को इन्हीं सीढ़ियों से चढ़ना-उतरना पड़ता है । I आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध ज्ञानमय व परिपूर्ण सुखमय है । इसे जैन पदावली में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य कहा जाता है । इस स्वरूप को विकृत अथवा आवृत करने का कार्य कर्मों का है। कर्मावरण की घटा ज्यों-ज्यों घनी होती जाती है त्यों-त्यों आत्मिक शक्ति का प्रकाश मन्द होता जाता है । इसके विपरीत जैसे-जैसे कर्मों का आवरण हटता जाता है अथवा शिथिल होता जाता है वैसे-वैसे आत्मा की शक्ति प्रकट होती जाती है । आत्मिक शक्ति के अल्पतम आविर्भाव वाली अवस्था प्रथम गुणस्थान है । इस गुणस्थान में आत्मशक्ति का प्रकाश अत्यन्त मन्द होता है । आगे के गुणस्थानों में यह प्रकाश क्रमशः बढ़ता जाता है । अन्तिम अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में आत्मा अपने असली रूप में पहुंच जाती हैं । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ जैन धर्म-दर्शन आत्मशक्ति के चार प्रकार के आवरणों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-में मोहनीयरूप आवरण प्रधान है। मोह की तीव्रता-मन्दता पर अन्य आवरणों की तीव्रता-मन्दता निर्भर रहती है। यही कारण है कि गुणस्थानों की व्यवस्था में शास्त्रकारों ने मोहशक्ति की तीव्रता-मन्दता का विशेष अवलम्बन लिया है। मोह मुख्यतया दो रूपों में उपलब्ध होता है : दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय आत्मा को यथार्थता-सम्यक्त्व-विवेकशीलता से दूर रखता है। चारित्रमोहनीय आत्मा को विवेकयुक्त आचरण अर्थात् प्रवृत्ति नहीं करने देता । दर्शनमोहनीय के कारण व्यक्ति की भावना, विचार, दृष्टि, चिन्तन अथवा श्रद्धा सम्यक नहीं हो पाती-सही नहीं बन पाती। सम्यक दृष्टि की उपस्थिति में भी चारित्रमोहनीय के कारण व्यक्ति का क्रियाकलाप सम्यक् अर्थात् निर्दोष नहीं हो पाता। इस प्रकार मोह का आवरण ऐसा है जो व्यक्ति को न तो सम्यक विचार प्राप्त करने देता है और न उसे सम्यक् आचार की ओर ही प्रवृत्त होने देता है। मिच्या दृष्टि-प्रथम गुणस्थान का नाम दर्शनमोहनीय के . ही आधार पर मिथ्यादृष्टि रखा गया है। यह आत्मा की अधस्तम अवस्था है। इसमें मोह की प्रबलतम स्थिति होने के कारण व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति बिलकुल गिरी हुई होती है। वह मिथ्या दृष्टि अर्थात् विपरीत श्रद्धा के कारण रागद्वेष के वशीभूत हो आध्यात्मिक किंवा तात्त्विक सुख से वंचित रहता है। इस प्रकार इस गुणस्थान का मुख्य लक्षण मिथ्या दर्शन अथवा मिथ्या श्रद्धान है। mational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त ४९५ · अल्पकालीन सम्यक् दृष्टि- द्वितीय गुणस्थान का नाम सास्वादन सम्यग्दृष्टि अथवा सासादन- सम्यग्दृष्टि है । इसका काल अति अल्प है । मिथ्यादृष्टि व्यक्ति को मोह का प्रभाव कुछ कम होने पर जब कुछ क्षणों के लिए सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थता की अनुभूति होती है- तत्वदृष्टि प्राप्त होती है- सच्ची श्रद्धा होती है तब उसकी जो अवस्था होती है उसे सास्वादन सम्यगदृष्टि गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान में स्थित आत्मा तरन्त मोहोदय के कारण सम्यक्त्व से गिरकर पुनः मिथ्यात्व में प्रविष्ट हो जाती है | इस अवस्था में सम्यक्त्व का अति अल्पकालीन आस्वादन होने के कारण इसे स्वास्वादन - सम्यग्दृष्टि नाम दिया गया है । इसमें आत्मा को सम्यक्त्व का केवल स्वाद चखने को मिलता है, पूरा रस प्राप्त नहीं होता । मिश्र दृष्टि - तृतीय गुणस्थान आत्मा की वह मिश्रित अवस्था है जिसमें न केवल सम्यगदष्टि होती है, न केवल मिथ्यादृष्टि । इसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मिश्रित अवस्था में होते हैं जिसके कारण आत्मा में तत्त्वातत्त्व का यथार्थ विवेक करने की क्षमता नहीं रह जाती । वह तत्त्व को तत्त्व समझने के साथ ही तत्त्व को भी तत्त्व समझने लगती है । इस प्रकार तृतीय गुणस्थान में व्यक्ति की विवेकशक्ति पूर्ण विकसित नहीं होती । यह अवस्था अधिक लम्बे काल तक नहीं चलती । इसमें स्थित आत्मा शीघ्र ही अपनी तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार या तो मिथ्यात्व - अवस्था को प्राप्त हो जाती है या सम्यक्त्व - अवस्था को । इस गुणस्थान का नाम मिश्र अर्थात् सम्यक् - मिथ्यादृष्टि है । ग्रंथिभेद एवं सम्यक् श्रद्धा -- मिथ्यादव अवस्था में रही हुईं Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ बैन धर्म-दर्शन आत्मा अनुकूल संयोगों अर्थात् कारणों को विद्यमानता के कारण मोह का प्रभाव कुछ कम होने पर जब विकास की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करती है तब उसमें तीव्रतम राग-द्वेष को किंचित् मंद करने वाला बलविशेष उत्पन्न होता है। इसे जैन कर्मशास्त्र में ग्रन्थिभेद कहा जाता हैं। ग्रंथिभेद का अर्थ है तीव्रतम राग-द्वेष अर्थात् मोहरूप गाँठ का छेदन अर्थात् शिथिलीकरण । ग्रंथिभेद का कार्य बड़ा कठिन होता है। इसके लिए आत्मा को बहुत लम्बा संघर्ष करना पड़ता है। चतुर्थ गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमें मोह की शिथिलता के कारण सम्यक् श्रद्धा अर्थात् सदसद्विवेक तो विद्यमान रहता है किन्तु सम्यक् चारित्र का अभाव होता है। इसमें विचार-शुद्धि की विद्यमानता होते हुए भी आचार-शुद्धि का असद्भाव होता है। इस गुणस्थान का नाम अविरत-सम्यग्दृष्टि है। देशविरति-देशविरत-सम्यग्दष्टि नामक पाँचवें गुणस्थान में व्यक्ति की आत्मिक शक्ति और विकसित होती है। वह पूर्णरूप से सम्यक् चारित्र की आराधना तो नहीं कर पाता किन्तु आंशिक रूप से उसका पालन अवश्य करता है । इसी अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैन आचारशास्त्र में उपासक अथवा श्रावक कहा गया है। श्रावक की आंशिक चारित्र-साधना अणुवत के नाम से प्रसिद्ध है । अणुव्रत का अर्थ है स्थूल, छोटा अथवा आंशिक चारित्र अथवा नियम। अणुवती उपासक पूर्णरूपेण अथवा सूक्ष्मतया सम्यक् चारित्र का पालन करने में असमर्थ होता है । वह मोटे तौर पर ही चारित्र का पालन करता है । स्थूल हिंसा, झूठ आदि का त्याग करते हुए अपना व्यवहार चलाता हुआ यत्किचित् आध्यात्मिक साधना करता है। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त ४६७ सर्वविरति-छठे गुणस्थान में साधक कुछ और आगे बढ़ता है। वह देशविरति अर्यात आंशिक विरति से सर्वविरति अर्थात् पूर्णविरति की ओर आता है। इस अवस्था में वह पूर्णतया सम्यक चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है। उसका व्रत अणुव्रत न कहला कर महावत कहलाता है। वह अणुव्रती उपासक अथवा श्रावक न कहला कर महाव्रती साधक अथवा श्रमण कहलाता है । यह सब होते हुए भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इस अवस्था में स्थित साधक का चारित्र सर्वथा विशुद्ध होता है अर्थात् उसमें किसी प्रकार का दोष आता ही नहीं । यहाँ प्रमादादि दोषों को थोड़ी-बहुत संभावना रहती है अतएव इस गुणस्थान का नाम प्रमत्त-संयत रखा गया है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस भमिका से नीचे भी गिर सकता है तथा ऊपर भी चढ़ सकता है। अप्रमत्त अवस्था-सातवें गुणस्थान में स्थित साधक प्रमादादि दोषों से रहित होकर आत्मसाधना में लग्न होता है। इसीलिए इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में रहे हुए साधक को प्रमादजन्य वासनाएं एकदम नहीं छोड़ देतीं। वे बीच-बीच में उसे परेशान करती रहती हैं। परिणामतः वह कमी प्रमादावस्था में विद्यमान रहता है तो कभी अप्रमादावस्था में । इस प्रकार साधक की नैया छठे व सातवें गुणस्थान के बीच में डोलती रहती है। ___ अपूर्वकरण-यदि साधक का चारित्र-बल विशेष बलवान् होता है और वह प्रमादाप्रमाद के इस संघर्ष में विजयी बन कर विशेष स्थायी अप्रमत्त अवस्था प्राप्त कर लेता है तो उसे तदनुगामी एक ऐसी शक्ति की मंप्राप्ति होती है जिससे रहे Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन सहे मोह-बल को भी नष्ट किया जा सके। इस गुणस्थान में साधक को अपूर्व आत्मपरिमाणरूप शद्धि अर्थात पहले कभी प्राप्त न हुई विशिष्ट आत्मगुणशुद्धि की प्राप्ति होती है। चूंकि इस अवस्था में रहा हुआ साधक अपूर्व आध्यात्मिक करण अर्थात् पूर्व में अप्राप्त आरमगुणरूप साधन प्राप्त करता है अथवा उसके करण अर्थात् चारित्ररूप क्रिया की अपूर्वता होती है अतः इसका नाम अपूर्वकरण गुणस्यान है। इसका दूसरा नाम निवृत्ति गुणस्थान भी है क्योंकि इसमें भावों की अर्थात् अध्यवसायों की विषयाभिमखता-पुनः विषयों की ओर लौटने की क्रिया विद्यमान रहती है। स्थूल कषाय-दृष्ट, श्रुत अथवा भुक्त विषयों की आकांक्षा का अभाव होने के कारण नवें गुणस्थान में अध्यवसायों की विषयाभिमुखता नहीं होती अर्थात् भाव पुनः विषयों की ओर नहीं लौटते । इस प्रकार भावों-अध्यवसायों की अनिवृत्ति के कारण इस अवस्था का नाम अनिवृत्ति गुणस्थान रखा गया है । इस गुणस्थान में आत्मा बादर अर्थात् स्थूल कषायों के उपशमन अथवा क्षण में तत्पर रहती है अत: इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान, अनिवृत्ति-बादर-सम्पराय (कषाय) गुणस्थान अथवा बादर-सम्पराय गुणस्थान भी कहा जाता है। सूक्ष्म कषाय-दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्म-सम्पराय के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें सूक्षम लोभरूप कषाय का ही उदय रहता है। अन्य कषायों का उपशम अथवा क्षय हो चुका होता है। उपशांत कषाय-जो साधक क्रोधादि कषायों को नष्ट न कर उपशांत करता हुआ ही आगे बढ़ता है-विकास करता है वह क्रमश: चारित्रशुद्धि करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है। इस गुणस्थान में साधक के समस्त कषाय उपशान्त हो जाते हैं-दब जाते हैं । इसीलिए इसका उपशान्त Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त कषाय गुणस्थान अथवा उपशान्त-मोह गुणस्थान नाम सार्थक है। इस गुणस्थान में स्थित आत्मा मोह को एक बार सर्वथा दबा तो देती है किन्तु निर्मूल नाश के अभाव में दबा हुआ मोह राख के नीचे दबी हुई अग्नि की भांति समय आने पर पुनः अपना प्रभाव दिखाने लगता है। परिणामतः आत्मा का पतन होता है। आत्मा इम अवस्था से एक बार अवश्य नीचे गिरती है - इस भूमिका से गिर कर नीचे की किसी भूमिका पर आ टिकती है । यहाँ तक कि इस गुणस्थान से गिरने वाली आत्मा कभी-कभी सबसे नीची भूमिका अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान तक पहुंच जाती है । इस प्रकार की आत्मा पुनः अपने प्रयास द्वारा कषायों को उपशान्त अथवा नष्ट करती हुई प्रगति कर सकती है। क्षीण कषाय-कषायों को नष्ट कर आगे बढ़ने वाला साधक दसवें गुणस्थान के अन्त में लोभ के अन्तिम अवशेष को विनष्ट कर मोह से सर्वथा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था का नाम क्षीण कषाय अथवा क्षीणमोह गुणस्थान है। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का कभी पतन नहीं होता । ग्यारहवें गुणस्थान से विपरीत स्वरूप वाले इस बारहवें गुणस्थान की यही विशेषता है। __सदेह मुक्ति-मोह का क्षय होने पर जानादिनिरोधक अन्य कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। परिणामतः आत्मा में विशुद्ध ज्ञानज्योति प्रकट होती है। आत्मा की इसी अवस्था का नाम सयोगिकेवली गुणस्थान है। केवली का अर्थ है केवलज्ञान अर्थात् सर्वथा विशुद्धज्ञान से युक्त । सयोगी का अर्थ है योग अर्थात् कायिक आदि प्रवृत्तियों से युक्त। जो विशुद्ध ज्ञानी Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैन धर्म-दर्शन होते हुए भी शारीरिक प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं होता वह सयोगी केवली कहलाता है । यह तेरहवाँ गुणस्थान है । विदेह मुक्ति-तेरहवें गुणस्थान में स्थित सयोगी केवली जब अपनी देह से मुक्ति पाने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है तब वह आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है । आत्मा की इसी अवस्था का नाम अयोगिकेवली गुणस्थान है । यह चारित्र-विकास अथवा आत्मविकास की चरम अवस्था है। इसमें आत्मा उत्कृष्टतम शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु पर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त कर अन्त में देहत्यागपूर्वक सिद्धावस्था को प्राप्त होती है। इसी का नाम परमात्मपद, स्वरूपसिद्धि, मुक्ति, निर्वाण अथवा मोक्ष है। यह आत्मा की सर्वांगीण पूर्णता, पूर्ण कृतकृत्यता एवं परम पुरुषार्थ-सिद्धि है। इसमें आत्मा को अनन्त एवं अव्याबाध अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है । बन्ध और मोक्ष : जैन कर्मवाद में कर्मोपार्जन के दो कारण माने गये हैं : योग और कषाय । शरीर, वाणी और मन के सामान्य व्यापार को जैन परिभाषा में योग कहते हैं । दूसरे शब्दों में, जैन परिभाषा में प्राणी की प्रवृत्तिसामान्य का नाम योग है। कषाय मन का व्यापारविशेष है। यह क्रोधादि मानसिक आवेगरूप है । यह लोक कर्म की योग्यता रखने वाले परमाणुओं से भरा हुआ है । जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब उसके आस-पास रहे हुए कर्मयोग्य परमाणुओं का आकर्षण होता है अर्थात् आत्मा अपने Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमसिद्धान्त चारों ओर रहे हुए कर्मपरमाणुओं को कर्मरूप से ग्रहण करती है। इस प्रक्रिया का नाम आस्रव है। कषाय के कारण कर्मपरमाणुओं का आत्मा से मिल जाना अर्थात् आत्मा के साथ बंध जाना बन्ध कहलाता है। वैसे तो प्रत्येक प्रकार का योग अर्थात् प्रवृत्ति कर्मबन्ध का कारण है किन्तु जो योग क्रोधादि कषाय से युक्त होता है उससे होने वाला कर्मबन्ध दृढ होता है। कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल होता है । यह नाम मात्र का बन्ध है । इससे संसार नहीं बढ़ता। योग अर्थात् प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार कर्मपरमाणुओं की मात्रा में तारतम्य होता है । बद्ध परमाणुओं की राशि को प्रदेश-बन्ध कहते हैं। इन परमाणुओं की विभिन्न स्वभावरूप परिणति को अर्थात् विभिन्न कार्यरूप क्षमता को प्रकृति-बन्ध कहते हैं । कर्मफल की भुक्ति की अवधि अर्थात् कर्म भोगने के काल को स्थितिबन्ध तथा कर्मफल की तीव्रतामन्दता को अनुभाग-बन्ध कहते हैं । कर्म बंधने के बाद जब तक वे फल देना प्रारम्भ नहीं करते तब तक के काल को अबाधा. काल कहते हैं। कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय है। ज्यों-ज्यों कर्मों का उदय होता जाता है त्यों-त्यों कर्म आत्मा से अलग होते जाते हैं। इसी प्रक्रिया का नाम निर्जरा है। जब । आत्मा से समस्त कर्म अलग हो जाते हैं तब उसकी जो अवस्था होती है उसे मोक्ष कहते हैं । जैन कर्मशास्त्र में प्रकृति-बन्ध के आठ प्रकार माने गये हैं अर्थात् कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ गिनाई गई हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं । इनके नाम इस प्रकार हैं : १ ज्ञानावरणीय, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन धर्म-दर्शन २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय-ये चार प्रकृतियाँ घाती कहलाती हैं क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है । शेष चार प्रकृतियाँ अघाती हैं क्योंकि ये किसी आत्मगुण का घात नहीं करतीं। ये शरीर से सम्बन्धित होती हैं । ज्ञानावरणीय प्रकृति आत्मा के ज्ञान अर्थात् विशेष उपयोगरूप गुण को आवृत करती है। दर्शनावरणीय प्रकृति आत्मा के दर्शन अर्थात् सामान्य उपयोगरूप गुण को आच्छादित करती है । मोहनीय प्रकृति आत्मा के स्वाभाविक सुख में बाधा पहुंचाती है । अन्तराय प्रकृति से वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति का नाश होता है। वेदनीय कर्मप्रकृति शरीर के अनुकूल एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख के अनुभव का कारण है। आयु कर्मप्रकृति के कारण नरक, तियंच, देव एवं मनुष्य भव के काल का निर्धारण होता है। नाम कर्मप्रकृति के कारण नरकादि गति, एकेन्द्रियादि जाति, औदारिकादि शरीर आदि की प्राप्ति होती है। गोत्र कर्मप्रकृति प्राणियों के आनुवंशिक उच्चत्व एवं नीचत्व का कारण है । कर्म की सत्ता मानने पर पुनर्जन्म की सत्ता भी माननी पड़ती है। पुनर्जन्म अथवा परलोक कर्म का फल है । मृत्यु के बाद प्राणी अपने गति नाम कर्म के अनुसार पुनः मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक अथवा देव गति में उत्पन्न होता है । आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचा देता है । स्थानान्तरण के समय जीव के साथ दो प्रकार के सूक्ष्म शरीर रहते हैं : तेजस और कार्मण । औदारिकादि स्थूल शरीर का निर्माण अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचने के बाद प्रारम्भ होता है । इस प्रकार जैन कर्मशास्त्र में पुन Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त जन्म की सहज व्यवस्था की गई है। ___ कर्मबन्ध का कारण कषाय अर्थात् राग-द्वेषजन्य प्रवृत्ति है। इससे विपरीत प्रवृत्ति कर्ममुक्ति का कारण बनती है । कर्म मुक्ति के लिए दो प्रकार की क्रियाएं आवश्यक हैं : नवीन कर्म के उपार्जन का निरोध एवं पूर्वोगाजित कर्म का क्षय । प्रथम प्रकार की क्रिया का नाम संवर तथा द्वितीय प्रकार की क्रिया का नाम निर्जरा है। ये दोनों क्रियाएं क्रमशः आस्रव तथा बन्ध से विपरीत हैं । इन दोनों की पूर्णता से आत्मा की जो स्थिति होती है अर्थात् आत्मा जिस अवस्था को प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं। यही कर्ममुक्ति है। नवीन कर्मों के उपार्जन का निरोध अर्थात् संवर निम्नोक्त कारणों से होता है : गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र व तपस्या। सम्यक् योगनिग्रह अर्थात् मन, वचन व तन की प्रवृत्ति का सुष्ठु नियन्त्रण गुप्ति है ! सम्यक् चलना, बोलना, खाना, लेना-देना आदि समिति कहलाता है। उत्तम प्रकार की क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शुद्धता आदि धम के अन्तर्गत हैं । अनुप्रेक्षा में अनित्यत्व, अशरणत्व, एकत्व आदि भावनाओं का समावेश होता है । क्षुधा, पिपासा, सर्दी, गर्मी आदि कष्टों को सहन करना परीषहजय है। चारित्र सामायिक आदि भंद से पाँच प्रकार का है। तप बाह्य भी होता है व आभ्यन्तर भी। अनशन आदि बाह्य तप हैं, प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। तप से संवर के साथ-साथ निर्जरा भी होती है । संवर व निर्जरा का पर्यवसान मोक्ष में-कर्ममुक्ति में होता है। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७: आचारशास्त्र आचार और विचार व्यक्तित्व के समान शक्तिवाले अन्योन्याश्रित दो पक्ष हैं । इन दोनों पक्षों का संतुलित विकास होने पर ही व्यक्तित्व का विशुद्ध विकास होता है । इस प्रकार के विकास को हम ज्ञान और क्रिया का संयुक्त विकास कह सकते हैं जो दुःखमुक्ति के लिए अनिवार्य है । आचार और विचार की अन्योन्याश्रितता को दृष्टि में रखते हुए भारतीय चिन्तकों ने धर्म व दर्शन का साथ-साथ प्रतिपादन किया | उन्होंने तत्त्वज्ञान के साथ ही आचारशास्त्र का भी निरूपण किया एवं बताया कि ज्ञानविहीन आचरण नेत्रहीन पुरुष की गति के समान है जबकि आचरणरहित ज्ञान पंगु पुरुष की स्थिति के सदृश है । जिस प्रकार अभीष्ट स्थान पर पहुंचने के लिए निर्दोष आँखें व पैर दोनों आवश्यक हैं उसी प्रकार आध्यात्मिक सिद्धि के लिए दोषरहित ज्ञान व चारित्र दोनों अनिवार्य हैं । भारतीय परम्पराओं में आचार व विचार दोनों को समान स्थान दिया गया है । उदाहरण के लिए मीमांसा परम्परा का एक पक्ष पूर्वमीमांसा आचारप्रधान है जबकि दूसरा पक्ष उत्तरमीमांसा (वेदान्त ) विचारप्रधान है । सांख्य और योग क्रमशः विचार और आचार का प्रतिपादन करने वाले एक ही Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र परम्परा के दो अंग हैं । बौद्ध-परम्परा में हीनयान और महायान के रूप में आचार और विचार की दो धाराएं हैं। हीनयान आचारप्रधान है तथा महायान विचारप्रधान । जैन परम्परा में भी आचार और विचार को समान स्थान दिया गया है। अहिंसामूलक आचार एवं अनेकांतमूलक विचार का प्रतिपादन जैन विचारधारा की विशेषता है। ___ जैनाचार का प्राण अहिंसा है । अहिंसक आचार एवं विचार से ही आध्यात्मिक उत्थान होता है जो कर्ममुक्ति का कारण है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन एव आचरण जैन परम्परा में उपलब्ध है उतना शायद ही किसी जैनेतर परम्परा में हो । अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है । प्रत्येक आत्मा-चाहे वह पृथ्वीसम्बन्धी हो, चाहे उसका आश्रय जल हो, चाहे वह कीट अथवा पतंग के रूप में हो, चाहे वह पशु अथवा पक्षी मे हो, चाहे उसका वास मानव में हो तात्त्विक दृष्टि से समान है। सुख-दुःख का अनुभव प्रत्येक प्राणी को होता है । जीवन-मरण की प्रतीति सबको होती है। सभी जीव जीना चाहते हैं । वास्तव में कोई भी मरने की इच्छा नहीं करता। जिस प्रकार हमें जीवन प्रिय है एवं मरण अप्रिय, सुख प्रिय है एवं दुःख अप्रिय, अनुकूलता प्रिय है एवं प्रतिकूलता अप्रिय, मृदुता प्रिय है एवं कठोरता अप्रिय, स्वतन्त्रता प्रिय है एवं परतन्त्रता अप्रिय, लाभ प्रिय है एवं हानि अप्रिय, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी जीवन आदि प्रिय हैं एवं मरण आदि अप्रिय । इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी के वध आदि की बात न सोचें । शरीर से किसी की हत्या करना अथवा किसी को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाना तो पाप है ही, मन अथवा Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ जैन धर्म-दर्शन वचन से इस प्रकार की प्रवृत्ति करना भी पाप है। मन, वचन एवं काय से किसी को संताप न पहुंचाना सच्ची अहिंसा हैपूर्ण अहिंसा है। वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मानव तक के प्रति अहिंसक आचरण की भावना जैन परम्परा की प्रमुख विशेषता है । इसे अहिंसक आचार का चरम उत्कर्ष कह सकते हैं । आचार का यह अहिंसक विकास जैन संस्कृति की अमूल्य निधि है। ___अहिंसा को केन्द्रबिन्दु मानकर अमृषावाद, अस्तेय, अमैथुन एवं अपरिग्रह का विकास हुआ। आत्मिक विकास में बाधक कर्मबन्ध को रोकने तथा बद्धकर्म को नष्ट करने के लिए अहिंसा तथा तदाधारित अमृषावाद आदि की अनिवार्यता स्वीकार की गई। इसमें व्यक्ति एवं समाज दोनों का हित निहित है। वैयक्तिक उत्थान एवं सामाजिक उत्कर्ष के लिए असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण तथा संयम का परिपालन आवश्यक है। इनके अभाव में अहिंसा का विकास नहीं हो पाता । परिणामतः आत्मविकास में बहुत बड़ी बाधा उपस्थित होती है। इन सबके साथ अपरिग्रह का व्रत अत्यावश्यक है। परिग्रह के साथ आत्मविकास की घोर शत्रुता है। जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ आत्मविकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । इतना ही नहीं, परिग्रह आत्मपतन का बहुत बड़ा कारण बनता है। परिग्रह का अर्थ है पाप का संग्रह । यह आसक्ति से बढ़ता है एवं आसक्ति को बढ़ाता भी है। इसी का नाम मूर्छा है। ज्यों-ज्यों परिग्रह बढ़ता है त्यों-त्यों मूर्छागृद्धि-आसक्ति बढ़ती जाती है। जितनी अधिक आसक्ति बढ़ती है उतनी ही अधिक हिंसा बढ़ती है । यही हिंसा मानव-समाज में वैषम्य उत्पन्न करती है । इसी से आत्मपतन भी होता है । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणाचारः आचारशास्त्र अपरिग्रहवृत्ति अहिंसामूलक आचार के सम्यक् परिपालन के लिए अनिवार्य है । ५०७ श्रमण, भिक्षु, मुनि, निर्ग्रन्थ, अनगार, संयत, विरत आदि शब्द एकार्थक हैं | श्रमण के व्रत महाव्रत अर्थात् बड़े व्रत कहलाते हैं क्योंकि वह हिंसादि का पूर्णतः त्यागी होता है । श्रावक, उपासक, देशविरत, सागार, श्राद्ध, देशसंयत आदि शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं । श्रावक के व्रत अणुव्रत अर्थात् छोटे व्रत कहलाते हैं क्योंकि वह हिंसादि का अंशतः त्याग करता है । सर्वविरति अर्थात् सर्वत्यागरूप महाव्रत पाँच हैं : १. सर्वप्राणातिपात विरमण, २. सर्वमृषावाद - विरमण, ३. सर्व अदत्तादान - विरमण, ४. सर्व मैथुन - विरमण, ५. सर्वपरिग्रह - विरमण । प्राणातिपात अर्थात् हिंसा का सर्वतः विरमण यानी पूर्णतः त्याग अथवा सर्व प्राणातिपात अर्थात् सम्पूर्ण हिंसा का विरमण यानी त्याग सर्वप्राणातिपात विरमण कहलाता है । इसी प्रकार मृषावाद अर्थात् झूट, अदत्तादान अर्थात् चोरी, मैथुन अर्थात् कामभोग और परिग्रह अर्थात् संग्रह अथवा आसक्ति का पूर्णतः त्याग क्रमश: सर्वमृषावाद - विरमण, सर्वअदत्तादान- विरमण, सर्वमैथुन-विरमण और सर्वपरिग्रह-विरमण कहलाता है । इस प्रकार के त्याग को नवकोटि प्रत्याख्यान कहा जाता है क्योंकि इसमें हिंसा आदि के करना, कराना और अनुमोदन करना रूप तीन करणों का मन, वचन और कायरूप तीन योगों से प्रतिषेध किया जाता है अर्थात् हिंसा आदि का मन से करना, कराना एवं अनुमोदन करना, वचन से करना, कराना एवं अनुमोदन करना तथा काय से करना, कराना एवं अनुमोदन Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ . जैन धर्म-दर्शन करना-इस प्रकार नौ भंगपूर्वक प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग किया जाता है। पांच महावत : जैन धर्म में छः जीवनिकाय माने गये हैं : पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । इन जीवनिकायों की हिंसा का नवकोटि-प्रत्याख्यान सर्वप्राणातिपात-विरमण महाव्रत कहलाता है। पृथ्वोकाय अर्थात् भूमि, अप्काय अर्थात् जल, तेजस्काय अर्थात् वह्नि, वायुकाय अर्थात् पवन, वनस्पतिकाय अर्थात् हरित और त्रसकाय अर्थात् द्वीन्द्रियादि प्राणी। महाव्रतधारी श्रमण का कर्तव्य है कि वह दिन में अथवा रात्रि में अकेले अथवा समूह में, सोते हुए अथवा जागते हुए भूमि, भित्ति, शिला, पत्थर, धूलियुक्त शरीर, वस्त्र आदि को हस्त, पाद, काष्ठ, अंगुली, शलाका आदि से न झाड़े, न पोंछे, न इधर-उधर हिलाये, न छेदन करे, न भेदन करे अपितु वस्त्रादि मृदु साधनों से सावधानीपूर्वक झाड़े-पोछे । उदक, ओस, हिम, आर्द्र शरीर अथवा आर्द्र वस्त्र को न छए, न सुखाए, न निचोड़े, न झटके, न अग्नि के पास रखे। अपने गीले शरीर आदि को सावधानीपूर्वक सुखाए अथवा सूखने दे। अग्नि, अंगार, चिनगारी, ज्वाला अथवा उल्का को न जलाये, न बुझाये, न हिलाये, न जल से शान्त करे, न बिखेरे । पंखे, पत्र, शाखा, वस्त्र, हस्त, मुख आदि से हवा न करे। बीज, अंकुर, पौधे, वृक्ष आदि पर पैर न रखे, न बैठे, न सोये । हाथ, पैर, सिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, शय्या, संस्तारक आदि में कीट, पतंग, कुंथु, चींटी आदि दिखाई देने पर उन्हें सावधानीपूर्वक एकान्त में छोड़ दे। प्रत्येक जीव जीने की इच्छा करता है। कोई भी मरना नहीं चाहता। जिस प्रकार हमें अपना Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र } जीवन प्रिय है उसी प्रकार दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है । इसलिए निर्ग्रन्थ मुनि प्राणवध का त्याग करते हैं । असावधानीपूर्वक बैठने, उटने, चलने, सोने, खाने पीने, बोलने से पापकर्म बंधता है । इसलिए भिक्षु को समस्त क्रिया सावधानीपूर्वक करनी चाहिए । जो जीव और अजीव को जानता है वही वस्तुतः संयम को जानता है। जीव और अजीव को जानने पर ही संयमी श्रमण जीवों की रक्षा कर सकता है इसीलिए कहा गया है कि पहले ज्ञान है, फिर दया । जो संयमी ज्ञानपूर्वक दया का आचरण करता है वही वस्तुतः दयाधर्म का पालन करता है । अज्ञानी न पुण्य-पाप को समझ सकता है, न धर्म-अधर्म को जान सकता है, न हिंसा-अहिंसा का विवेक कर सकता है । प्राणातिपात विरमण की सुरक्षा के लिए निम्नोक्त पाँच भावनाएं हैं : १. ईर्याविषयक समिति -- गमनागमनसम्बन्धी सावधानी, २ मन की अपापकता - मानसिक विकाररहितता, ३. वचन की आपापकता - वाणी की विशुद्धता, ४ भाण्डोपकरणविषयक समिति - पात्रादि उपकरणसम्बन्धी सावधानी, ५. भक्तपानविषयक आलोकिकता - खान-पानसम्बन्धी सचेतता । २ ये एवं इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाएँ अहिंसावत का सुदृढ़ एवं सुरक्षित करती हैं। ५०६ जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण जीवकाय की हिंसा का सर्वथा त्याग करता है उसी प्रकार वह मृषावाद से भी सर्वथा विरत होता है । असत्य हिंसादि दोषों का जनक है, यह समझ कर वह कदापि असत्य वचन का प्रयोग नहीं करता। वह हमेशा १. दशर्वकालिक, ४.१-१५. २. आचारांग, २.३. Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जैन धर्म-दर्शन निर्दोष, अकर्कश, असंदिग्ध वाणी बोलता है। क्रोध, मान, माया व लोभमूलक वचन तथा जान-बूझकर अथवा अज्ञानवश प्रयोग किये जाने वाले कठोर वचन अनार्य वचन हैं। ये दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं । श्रमण को संदिग्ध अथवा अनिश्चित दशा मैं निश्चय वाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सम्यक्तया निश्चय होने पर ही निश्चय वाणी बोलनी चाहिए। सदोष, कठोर, जीवों को कष्ट पहुंचाने वाली भाषा भिक्षु न बोले । वह सत्य, मृदु, निर्दोष, अभूतोपघातिनी भाषा काम में ले | सत्य होने पर भी अवज्ञासूचक शब्दों का प्रयोग न करे किन्तु सम्मानसूचक शब्द प्रयोग में ले ।" संक्षेप में कहा जाय तो सर्वविरत भिक्षु को क्रोधादि कषायों का परित्याग कर, समभाव धारण कर विचार व विवेकपूर्वक संयमित सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए । सत्यव्रत की पाँच भावनाएं ये हैं : १. वाणीविवेक, २. क्रोधत्याग, ३. लोभत्याग, ४. भयत्याग, ५. हास्यत्याग । २ वाणीविवेक अर्थात् सोच-समझकर भाषा का प्रयोग करना । त्याग अर्थात् गुस्सा न करना । लोभत्याग अर्थात् लालच में न फंसना । भयत्याग अर्थात् निर्भीक रहना । हास्यत्याग अर्थात् हंसी-मजाक न करना । इन व इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाओं से सत्यव्रत की रक्षा होती है । अदत्तादान से सर्वथा निवृत्ति लेने वाला श्रमण कोई भी बिना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करता । वह बिना अनुमति के एक तिनका उठाना भी स्तेय अर्थात् चोरी समझता है । किसी १. दशवेकालिक, ७.१-१२. २. आचारांग, २. ३. ३. दशवेकालिक, ६ १३. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ की गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई अथवा अज्ञात स्वामी की वस्तु को छूना भी उसके लिए निषिद्ध है। आवश्यकता होने पर वह स्वामी की अनुमति से अर्थात् उपयुक्त व्यक्ति के देने पर ही किसी वस्तु को ग्रहण करता है अथवा उसका उपयोग करता है । जिस प्रकार वह स्वयं अदत्तादान का सेवन नहीं करता उसी प्रकार किसी से करवाता भी नहीं और करनेकराने वालों का समर्थन भी नहीं करता । अस्तेयव्रत की दृढता एवं सुरक्षा के लिए पाँच भावनाएं इस प्रकार बतलाई गई हैं : १. सोच-विचार कर वस्तु की याचना करना, २ . आचार्य आदि की अनुमति से भोजन करना, ३. परिमित पदार्थ स्वीकार करना, ४ पुनः पुनः पदार्थों की मर्यादा करना, ५ . साधर्मिक (साथी श्रमण ) से परिमित वस्तुओं की याचना करना । " आचारशास्त्र श्रमण के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है । उसके मैथुनत्याग को सर्वमैथुन - विरमण कहा जाता है। उसके लिए मन, वचन एवं काय से मैथुन का सेवन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का निषेध है। इसे नवकोटि ब्रह्मचर्य अथवा नवकोटि- शील कहते हैं । मैथुन को अधर्म का मूल तथा महादोषों का स्थान कहा गया है। इससे अनेक प्रकार के पाप उत्पन्न होते हैं, हिंसादि दोषों और कलह - संघर्ष - विग्रह का जन्म होता है । यह सब समझकर निर्ग्रन्थ मुनि मैथुन का सर्वथा त्याग करते हैं। जैसे मुर्गी के बच्चे को बिल्ली से हमेशा ૨ १. आचारांग, २.३. २ दशकालिक ६.१६. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैन धर्म-दर्शन डर रहता है उसी प्रकार संयमी श्रमण को स्त्री के शरीर एवं संयत श्रमणी को पुरुष की काया से सदा भय रहता है। वे स्त्री-पुरुष के रूप, रंग, चित्र आदि देखना तथा गीत आदि सुनना भी पाप समझते हैं। यदि उस ओर दृष्टि चली भी जाय तो वे तुरन्त सावधान होकर अपनी दृष्टि को खींच लेते हैं।' वे बाल, युवा एवं वृद्ध सभी प्रकार के नर-नारियों से दूर रहते हैं। इतना ही नहीं, वे किसी भी प्रकार के कामोत्तेजक अथवा इन्द्रियाकर्षक पदार्थ से अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ते। ब्रह्मचर्यव्रत के पालन के लिए पांच भावनाएं निम्नोक्त रूप में बतलाई गई हैं : १. स्त्री-कथा न करना, २. स्त्री के अंगों का अवलोकन न करना, ३. पूर्वानुभूत काम-क्रीड़ा आदि का स्मरण न करना, ४. मात्रा का अतिक्रमण कर भोजन न करना, ५. स्त्री आदि से सम्बद्ध स्थान में न रहना।२ जिस प्रकार श्रमण के लिए स्त्री-कथा आदि का निषेध है उसी प्रकार श्रमणी के लिए पुरुष-कथा आदि का प्रतिषेध है। ये एवं इसी प्रकार की अन्य भावनाएं सर्वमैथुन-विरमण व्रत की सफलता के लिए अनिवार्य हैं। सर्वविरत श्रमण के लिए सर्वपरिग्रह-विरमण भी अनिवार्य है। किसी भी वस्तु का ममत्वमूलक संग्रह परिग्रह कहलाता है। सर्वविरत श्रमण स्वयं इस प्रकार का संग्रह नहीं करता, दूसरों से नहीं कराता और करने वालों का समर्थन १. वही, ८.५४-५५. २. आचारांग, :,३. . Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र नहीं करता। वह पूर्णतया अनासक्त एवं अकिञ्चन होता है। इतना ही नहीं, वह अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता। संयमनिर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्पतम उपकरण अपने पास रखता है उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता। उनके खो जाने अथवा नष्ट हो जाने पर उसे शोक नहीं होता तथा प्राप्त होने पर हर्ष नहीं होता। वह उन्हें केवल संयमयात्रा के साधन के रूप में काम में लेता है । जिस प्रकार वह अपने शरीर का अनासक्त भाव से पालन-पोषण करता है उसी प्रकार अपने उपकरणों का भी निर्मम भाव से रक्षण करता है। ममत्व अथवा आसक्ति आन्तरिक ग्रन्थि है । जो साधक इस अन्यि का छेदन करता है वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। सर्वविरत श्रमण इमी प्रकार का निर्ग्रन्थ होता है। अपरिग्रहवत की पांच भावनाएं ये हैं : १. श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द के प्रति राग-द्वेषरहितता अर्थात् अनासक्त भाव, २. चक्षरिन्द्रिय के विषय रूप के प्रति अनासक्त भाव, ३. घ्राणेन्द्रिय के विषय गन्ध के प्रति अनासक्त भाव, ४. रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव, ५. स्पर्शनेन्द्रिय के विषय सर्श के प्रति अनासक्त भाव ।। रात्रिभोजन-विरमणवत: मूलाचार के मूलगुण नामक प्रथम प्रकरण में सर्वविरत श्रमण के २८ मूल गुणों का वर्णन है : पांच महाव्रत, पांच समितियाँ, पाँच इन्द्रियों का निरोव, छः आवश्यक, लोंच, १. दशवकालिक, ६.२०. २. पाचारांग, २. १. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैन धर्म-दर्शन अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त । एकभक्त का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि मुनि सूर्योदय व सूर्यास्त के मध्य में केवल एकबार भोजन करता है । सूर्यास्त व सूर्योदय के बीच यानी रात्रि में उसके भोजन का सर्वथा त्याग होता है । दशवैकालिक के क्षुल्लिकाचार- कथा नामक तृतीय अध्ययन में निर्ग्रन्थों के लिए औद्देशिक भोजन, क्रीत भोजन, आमन्त्रण स्वीकार कर ग्रहण किया हुआ भोजन यावत् रात्रिभोजन का निषेध किया गया है । षड्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन में पाँच महाव्रतों के साथ रात्रिभोजन - विरमण का भी प्रतिपादन किया गया है एवं उसे छठा व्रत कहा गया है । आचारप्रणिधि नामक आठवें अध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि रात्रिभोजन हिंसादि दोषों का जनक है । अतः निर्ग्रन्थ सूर्य के अस्त होने से लेकर सूर्य के उदय होने तक किसी भी प्रकार के आहारादि की मन से भी इच्छा न करे । इस प्रकार जैन आचार-ग्रन्थों में सर्वविरत के लिए रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध किया गया है । वह आहार, पानी आदि किसी भी वस्तु का रात्रि में उपभोग नहीं करता । जैन आचार - शास्त्र अहिंसाव्रत की सम्पूर्ण साधना के लिए रात्रिभोजन का त्याग अनिवार्य मानता है । छः आवश्यक : दिगम्बर-परम्परा के भूलाचार आदि एवं श्वेताम्बर - परंपरा के आवश्यक आदि ग्रन्थों में सर्वविरत मुनि के लिए षडावश्यक अर्थात् छः आवश्यकों का विधान किया गया है। इनके नाम दोनों परम्पराओं में वही हैं । क्रम की दृष्टि से पाँचवें व छठे नामों में विपर्यय है। दिगम्बर-परम्परा में इनका क्रम इस प्रकार है : १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. - . Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारशास्त्र ५१५ प्रतिक्रमण, ५. प्रत्याख्यान, ६ कायोत्सर्ग। श्वेताम्बर-परंपराभिमत षडावश्यक-क्रम यों है : १. सामायिक, २. चतुर्विशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान । जो अवश्य करने योग्य होता है उसे आवश्यक कहते हैं। सामायिक आदि मुनि की प्रतिदिन करने योग्य क्रियाएं हैं अतः इन्हें आवश्यक कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, सामायिकादि षडावश्यक निर्ग्रन्थ के नित्यकर्म हैं। इन्हें श्रमण को प्रतिदिन दोनों समय अर्थात् दिन व रात्रि के अन्त में अवश्य करना होता है। सम की आय करना अर्थात् त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर समभाव रखना सामायिक है। जिसकी आत्मा संयम, नियम व ता में संलीन होती है अर्थात जो आत्मा को मन, वचन व काय की पापपूर्ण प्रवृत्तियों से हटाकर निरवद्य व्यापार में प्रवृत करता है उसे सामायिक की प्राप्ति होती है। सामायिक में बाह्य दृष्टि का त्यागकर अन्तर्दृष्टि अपनाई जाती है-बहिमुंखी प्रवृत्ति त्यागकर अन्तमुखी प्रवृत्ति स्वीकार की जाती है । सामायिक समस्त आध्यात्मिक साधनाओं की आधारशिला है । जब साधक सर्व सावध योग से विरत होता है, छः कायों के जीवों के प्रति संयत होता है, मन-वचन-काय को नियन्त्रित करता है, आत्मस्वरूप में उपयुक्त होता है, यतनापूर्वक आचरण करता है तब वह सामायिकयुक्त होता है।। समभावरूप सामायिक के महान् साधक एवं उपदेशक चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना चतुविंशतिस्तव कहलाता है । त्याग, वैराग्य, संयम व साधना के महान् आदर्श एवं सामायिक Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन धर्म-दर्शन धर्म के परम पुरस्कर्ता वीतराग तीर्थंकरों के उत्कीर्तन से आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है । उनकी स्तुति से साधना का मार्ग प्रशस्त होता है। उनके गुण-कीर्तन से संयम में स्थिरता आती है। उनकी भक्ति से प्रशस्त भावों की वृद्धि होती है। तीथंकरों की स्तुति करने से प्रसुप्त आन्तरिक चेतना जाग्रत होती है । केवल स्तुति से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है, ऐसा नहीं मानना चाहिए । स्तुति तो सोई हुई आत्मचेतना को जगाने का केवल एक साधन है। तीयंकरों की स्तुतिमात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती । मुक्ति के लिए भक्ति एवं स्तुति के साथ-साथ संयम एवं साधना भी आवश्यक है। जिस प्रकार मुनि के लिए तीर्थकर-स्तव आवश्यक है उसी प्रकार गुरु-स्तव भी आवश्यक है। गुरु-स्तव को वन्दना अथवा वन्दन कहा जाता है। तीर्थङ्कर के बाद यदि कोई वन्दन करने योग्य है तो वह गुरु है क्योंकि गरु अहिंसा आदि की उत्कृष्ट आराधना करने के कारण शिष्य के लिए साक्षात् आदर्श का कार्य करता है। उससे उसे प्रत्यक्ष प्रेरणा प्राप्त होती है। उसके प्रति सम्मान होने पर उसके गुणों के प्रति सम्मान होता है । तीर्थङ्कर के बाद सद्धर्म का उपदेश देनेवाला गुरु ही होता है । गुरु ज्ञान व चारित्र दोनों में बड़ा होता है अतः वन्दनयोग्य है। गुरुदेव को वन्दन करने का अर्थ होता है गुरुदेव का उत्कीर्तन व अभिवादन करना । वाणी से उत्कीर्तन अर्थात् स्तवन किया जाता है तथा शरीर से अभिवादन अर्थात् प्रणाम । गुरु को वन्दन इसलिए किया जाता है कि वह गुणों में गुम अर्थात् भारी होता है । गुणहीन व्यक्ति अवन्दनीय होता है । जो गुणहीन अर्थात् अवंद्य को वन्दन करता है उसके कर्मो की निर्जरा नहीं होती, उसके संयम का पोषण नहीं होता। इस प्रकार के . Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० वन्दन से असंयम का अनुमोदन, अनाचार का समर्थन, दोषों का पोषण और पाप कर्म का बन्धन होता है । इस प्रकार का वन्दन केवल कायक्लेश है । अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दन करने वाले एवं वन्दन कराने वाले दोनों का पतन होता है । आचारशास्त्र प्रमादवश शुभ प्रवृत्ति से च्युत होकर अशुभ प्रवृत्ति को प्राप्त होने के बाद पुनः शुभ प्रवृत्ति को प्राप्त होना प्रतिक्रमण है ।' मन, वचन अथवा काय से कृत, कारित अथवा अनुमोदित पापों की निवृत्ति के लिए आलोचना करना, पश्चात्ताप करना तथा अशुद्धि का त्याग कर पुनः शुद्धि प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन एवं परिग्रहरूप जिन पापकर्मों का निर्ग्रन्थ श्रमण के लिए प्रतिषेध किया गया है उनका प्रमादवश उपार्जन करने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए । सामायिक, स्वाध्याय आदि जिन शुभ प्रवृत्तियों का सर्वविरत संयमी के लिए विधान किया गया है उनका आचरण न करने पर भी प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि अकर्तव्य कर्म को करना जैसे पाप है वैसे ही कर्त्तव्य कर्म को न करना भी पाप ही है । प्रतिक्रमण केवल क्रिया तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उससे वस्तुतः दोष-शुद्धि होनी चाहिए। तभी प्रतिक्रमण करना सार्थक कहा जाएगा । काय के उत्सर्ग अर्थात् शरीर के त्याग को कायोत्सर्ग कहते हैं । यहाँ शरीरत्याग का अर्थ है शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग । शारीरिक ममत्व को छोड़कर आत्म-स्वरूप में लीन होने का नाम कायोत्सर्ग है। साधक जब बहिर्मुखवृत्ति का १. आवश्यक - चूर्णि ( उत्तर भाग ), पृ० ५२. Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ न धर्म-वन त्याग कर अन्तर्मुखवृत्ति को स्वीकार करता है तब वह अपने शरीर के प्रति भी अनासक्त हो जाता है अर्थात् स्व-शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग कर देता है। इस स्थिति में उस पर जो कुछ भी संकट आता है उसे वह समभावपूर्वक सहता है। ध्यान की साधना अर्थात् चित्त की एकाग्रता के अभ्यास के लिए कायोत्सर्ग अनिवार्य है। कायोत्सर्ग में हिलना-डुलना, बोलनाचलना, उठना-बैठना आदि बन्द होता है। एक स्थान पर बैठकर अयवा खड़े होकर निःश्वल एवं निःस्पन्द मुद्रा में आत्मध्यान में लगना होता है। सर्वविरत श्रमण प्रतिदिन प्रातः व सायं कायोत्सर्ग द्वारा शरीर व आत्मा के सम्बन्ध में विचार करता है कि यह शरीर अन्य है और मैं अन्य हूँ। मैं चेतन हूँ जब कि यह शरीर जड़ है । अपने से भिन्न इस शरीर पर ममत्व रखना अनुचित है। इस प्रकार की उदात्त भावना के अभ्यास के कारण वह कायोत्सर्ग के समय अथवा अन्य प्रसंग पर आने वाले सभी प्रकार के उपसर्गो-कष्टों को सम्यक् प्रकार से सहन करता है। ऐसा करने पर ही उसका कायोत्सर्ग सफल होता है। कायोत्सर्ग दो प्रकार का है। शरीर की चेष्टाओं का निरोध करके एक स्थान पर निश्चल एवं निःस्पन्द स्थिति में खड़े रहना अथवा बैठना द्रव्य-कायोत्सर्ग है। ध्यान अर्थात् आत्मचिन्तन भाव-कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग में ध्यान का ही विशेष महत्त्व है। शारीरिक स्थिरता ध्यान की निर्विघ्न साधना के लिए आवश्यक है। कायचेष्टा-निरोधरूप द्रव्य-कायोत्सर्ग आत्मचिन्तनरूप भाव-कायोत्सर्ग की भूमिका का कार्य करता है। प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। वैसे तो सर्वविरत मुनि के हिंसादि दोषों से युक्त सर्व पदार्थों का त्याग होता ही है Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाचारशास्त्र किन्तु निर्दोष पदार्थों में से भी अमुक का त्याग कर अमुक का सेवन करना अनासक्त भाव के सिंचन के लिए आवश्यक है। प्रत्याख्यान आवश्यक इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। इसके द्वारा मुनि अमुक समय तक के लिए अथवा जीवन भर के लिए अमुक प्रकार के अथवा सब प्रकार के पदार्थों के सेवन का त्याग करता है। इससे तृष्णा, लोभ, अशान्ति आदि मनोविकारों का नियन्त्रण होता है। तन, मन व वचन अशुभ प्रवृत्तियों से रुककर शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं। भगवतीसूत्र के सातवें शतक के दूसरे उद्देशक में प्रत्याख्यान के विविध भेदों का वर्णन है। इनमें अनागत आदि दस भेद प्रत्याख्यान का स्वरूप समझने के लिए विशेष उपयोगी हैं। इन दस प्रकार के प्रत्याख्यानों के नाम ये हैं : १. अनागत, २. अतिक्रान्त, ३. कोटियुक्त, ४. नियन्त्रित, ५. सागार, ६. अनागार, ७. कृतपरिमाण, ८. निरवशेष, ६. सांकेतिक, १०. कालिक । पर्व आदि विशिष्ट अवसरों पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान अर्थात् त्यागविशेषतपविशेष कारणवशात् पर्व आदि से पहले ही कर लेना अनागत प्रत्याख्यान है। पर्व आदि के व्यतीत हो जाने पर तपविशेष की आराधना करना अतिक्रान्त प्रत्याख्यान है। एक तप के समाप्त होते ही दूसरा तप प्रारम्भ कर देना कोटियुक्त प्रत्याख्यान है। रोग आदि की बाधा आने पर भी पूर्वसंकल्पित त्याग निश्चित समय पर करना एवं उसे दृढ़तापूर्वक पूर्ण करना नियन्त्रित प्रत्याख्यान है। त्याग करते समय आगार अर्थात् अपवादविशेष की छूट रख लेना सागार प्रत्याख्यान है। आगार रखे बिना त्याग करना अनागार प्रत्याख्यान है। भोज्य पदार्थ आदि की संख्या अथवा मात्रा का निर्धारण करना कृतपरिमाण प्रत्याख्यान है। अशनादि चतुर्विध अर्थात् सम्पूर्ण Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन आहार का त्याग करना निरवशेष प्रत्याख्यान है। इसमें पानी का त्याग भी शामिल है। किसी प्रकार के संकेत के साथ किया जानेवाला त्याग सांकेतिक प्रत्याख्यान कहलाता है, यथा मुट्ठी बाँधकर, गाँठ बाँधकर अथवा अन्य प्रकार से यह प्रत्याख्यान करना कि जब तक मेरी यह मुट्ठी या गाँठ बंधी हुई है अथवा अमुक वस्तु अमुक प्रकार से पड़ी हुई है तब तक मैं चतुर्विध आहार, त्रिविध आहार आदि का त्याग करता हूँ। कालविशेष की मर्यादा अर्थात् समय की निश्चित अवधि के साथ किया जाने वाला त्याग कालिक प्रत्याख्यान कहलाता है। उत्तराध्ययन-सूत्र के सम्यक्त्व-पराक्रम नामक उनतीसवें अध्ययन में षडावश्यक का संक्षिप्त फल इस प्रकार बतलाया गया है: सामायिक से सावध योग (पापकर्म) से निवृत्ति होती है। चतुर्विशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि (श्रद्धा-शुद्धि) होती है । वन्दन से नीच गोत्रकर्म का क्षय होता है, उच्च गोत्रकर्म का बंध होता है, सौभाग्य की प्राप्ति होती है, अप्रतिहत आज्ञाफल मिलता है तथा दाक्षिण्यभाव (कुशलता) की उपलब्धि होती है। प्रतिक्रमण से व्रतों के दोषरूप छिद्रों का निरोध होता है। परिणामतः आस्रव (कर्मागमन-द्वार) बन्द होता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन होता है। कायोत्सर्ग से प्रायश्चित्त-विशुद्धि होती है-अतिचारों को शुद्धि होती है जिससे आत्मा प्रशस्त धर्मध्यान में रमण करता हुआ परमसुख का अनुभव करता है। प्रत्याख्यान से आस्रव-द्वार बन्द होते हैं तथा इच्छा का निरोध होता है। इच्छा का निरोध होने के कारण साधक वितृष्ण अर्थात् निःस्पृह होता हुआ शान्तचित्त होकर विचरता है। . Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र १२१ घमणों के विभिन्न प्रकार : - मूलाचार के समयसार नामक दसवें प्रकरण में मुनि के लिए चार प्रकार का लिंगकल्प (आचारचिह्न) बताया गया है : १. अचेलकत्व, २. लोंच, ३. व्युत्सृष्टशरीरता, ४. प्रति. लेखन । अचेलकत्व का अर्थ है वस्त्रादि सर्व परिग्रह का परिहार । लोंच का अर्थ है अपने अथवा दूसरे के हाथों से मस्तकादि के केशों का अपनयन । व्युत्सृष्ट शरीरता का अर्थ है स्नान-अभ्यंगन-अंजन-परिमर्दन आदि सर्व संस्कारों का अभाव । प्रतिलेखन का अर्थ है मयूरपिच्छ का ग्रहण । अचेलकत्व नि:संगता अर्थात् अनासक्ति का चिह्न है । लोंच सद्भावना का संकेत है । व्युत्सृष्टशरीरता अपरागता का प्रतीक है। प्रतिलेखन दयाप्रतिपालन का चिह्न है। यह चार प्रकार का लिंगकल्प चारित्रोपकारक होने के कारण आचरणीय है। - आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के धूत नामक छठे अध्ययन में स्पष्ट बतलाया गया है कि कुछ अनगार ऐसे भी होते हैं जो संयम ग्रहण करने के बाद एकाग्रचित्त होकर सब प्रकार की आसक्ति का त्याग कर एकत्व-भावना का अवलम्बन लेकर मुण्ड होकर अचेल बन जाते हैं अर्थात् वस्त्र का भी त्याग कर देते हैं तथा आहार में भी क्रमशः कमी करते हुए सर्व कष्टों को सहन कर अपने कर्मों का क्षय करते हैं । ऐसे मुनियों को वस्त्र फटने की, नये लाने की, सूई-धागा जुटाने की, वस्त्र सीने की कोई चिन्ता नहीं रहती। वे अपने को लघु अर्थात् हलका (भारमुक्त) तथा सहज तप का भागी मानते हुए सब प्रकार के कष्टों को समभावपूर्वक सहन करते हैं । विमोक्ष नामक आठवें अध्ययन में अचेलक मुनि के विषय में कहा गया है कि यदि उसके मन में यह विचार आए कि मैं नग्नताजन्य शीतादि सहन कर, नये लाने की वे अपने को लहुए सब प्र Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जैन धर्म-दर्शन कष्टों को तो सहन कर सकता हूँ किन्तु लज्जानिवारण करना मेरे लिए शक्य नहीं, तो उसे कटिबन्धन धारण कर लेना चाहिए । अचेलक अर्थात् नग्न मुनि को सचेलक अर्थात् वस्त्रधारी मुनि के प्रति हीनभाव नहीं रखना चाहिए। इसी प्रकार सचेलक मुनि को अचेलक मुनि के प्रति तुच्छता की भावना नहीं रखनी चाहिए । अचेलक व सचेलक मुनियों को एक-दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए । निन्दक मुनि को निर्ग्रन्थधर्म का अनधिकारी कहा गया है । वह संयम का सम्यक्तया पालन नहीं कर सकता - आत्मसाधना की निर्दोष आराधना नहीं कर सकता । अचेलक व सचेलक मुनियों को अपनी-अपनी आचारमर्यादा में रहकर निर्ग्रन्थ-धर्म का पालन करना चाहिए । बृहत्कल्प के छठे उद्देश के अन्त में छः प्रकार की कल्पस्थिति ( आचारमर्यादा) बतलाई गई है : १. सामायिकसंयतकल्पस्थिति, २. छेदोपस्थापनीयसंयत-कल्पस्थिति, ३. निर्विशमान - कल्पस्थिति, ४. निर्विष्टकायिक- कल्पस्थिति, ५. जिनकल्पस्थिति, ६ . स्थविर - कल्पस्थिति | सर्वसावद्ययोगविरतिरूप सामायिक स्वीकार करने वाला सामायिकसंयत कहलाता है । पूर्व पर्याय अर्थात् पहले की साधु अवस्था का छेद अर्थात् नाश अथवा कमी करके संयम की पुनः स्थापना करने योग्य श्रमण छेदोपस्थापनीयसंयत कहलाता है । इस कल्पस्थिति में मुनिजीवन का अध्याय पुनः प्रारंभ होता है अथवा पुनः आगे बढ़ता है । परिहारविशुद्धि कल्प (तपविशेष) का सेवन करने वाला श्रमण निर्विशमान कहा जाता है। जिसने परिहारविशुद्धिक तप का सेवन कर लिया हो उसे निविष्टकायिक कहते हैं । गच्छ से निर्गत अर्थात् श्रमणसंघ का त्याग कर एकाकी संयम की साधना करने वाले साधुविशेष जिन अर्थात् - Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ जिनकल्पिक कहलाते हैं । गच्छप्रतिबद्ध अर्थात् श्रमणसंघ में रहकर संयम की आराधना करने वाले आचार्य आदि स्थविर अर्थात् स्थविरकल्पिक कहे जाते हैं । जिनकल्पिक प्रायः अचेलकधर्म का आचरण करते हैं जबकि स्थविरकल्पिक प्रायः सचेलकधर्म का पालन करते हैं । जिनकल्पिक प्रायः भोजनादि के लिए पात्र का उपयोग नहीं करते अपितु अपने हाथों में ही आहारादि ग्रहण करते हैं । स्थविरकल्पिक भोजनादि के लिए पात्र का उपयोग करते हैं । इस दृष्टि से जिनकल्पिक मुनि को करपात्र अथवा पाणिपात्र कह सकते हैं । वस्त्र मर्यादा : आचारशास्त्र आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में निर्वस्त्र, एकवस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी एवं त्रिवस्त्रधारी निर्ग्रन्थों तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के पाँचवें अध्ययन में चतुर्वस्त्रधारी निर्ग्रन्थियों का उल्लेख हैं । जो भिक्षु तीन वस्त्र रखने वाला है उसे चौथे वस्त्र की कामना अथवा याचना नहीं करनी चाहिए । जो वस्त्र उसे कल्प्य हैं उन्हीं की कामना एवं याचना करनी चाहिए, अकल्प्य की नहीं । कल्प्य वस्त्र जैसे भी मिलें, उन्हें बिना किसी प्रकार का संस्कार किये धारण कर लेना चाहिए । उन्हें धोना अथवा रंगना नहीं चाहिए । यही बात दो वस्त्रधारी एवं एक वस्त्रधारी भिक्षु के विषय में भी समझनी चाहिए । तरुण भिक्षु के लिए एक वस्त्र धारण करने का विधान है । भिक्षुणी के लिए चार वस्त्र - संघाटियाँ रखने का विधान किया गया है जिनका नाप इस प्रकार है: एक दो हाथ की, दो तीन-तीन हाथ की और एक चार हाथ की ( लम्बी ) । दो हाथ की संघाटी उपाश्रय में पहनने के लिए, - Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैन धर्म-दर्शन तीन-तीन हाथ की दो संघाटियों में से एक भिक्षाचर्या के समय धारण करने के लिए तथा दूसरी शौच जाने के समय पहनने के लिए व चार हाथ की संघाटी समवसरण (धर्मसभा) में सारा शरीर ढंकने के लिए है, ऐसा टीकाकारों का व्याख्यान है। यहाँ भिक्षुणियों के लिए जिन चार वस्त्रों के धारण का विधान किया गया है उनका 'संघाटी' (साड़ी अथवा चादर) शब्द से निर्देश किया गया है। टीकाकारों ने भी इनका उपयोग शरीर पर लपेटने अर्थात् ओढ़ने के रूप में ही बताया है। इससे प्रतीत होता है कि इन चारों वस्त्रों का उपयोग विभिन्न अवसरों पर ओढ़ने के रूप में करना अभीष्ट है, पहनने के रूप में नहीं । अतः इन्हें साध्वियों के उत्तरीय वस्त्र अर्थात् साड़ी अथबा चादर के रूप में समझना चाहिए, अन्तरीय वस्त्र अर्थात् लहंगा या घोती के रूप में नहीं। दूसरी बात यह है कि दो हाथ और यहाँ तक कि चार हाथ लम्बा वस्त्र ऊपर से नीचे तक पूरे शरीर पर धारण भी कैसे किया जा सकता है। अतएव भिक्षुणियों के लिए ऊपर जिन चार वस्त्रों के ग्रहण एवं धारण का विधान किया गया है उनमें अन्तरीय वस्त्र का समावेश नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए। भिक्षुओं के विषय में ऐसा कुछ नहीं है। वे एक वस्त्र का उपयोग अन्तरीय के रूप में कर सकते हैं, दो का अन्तरीय व उत्तरीय के रूप में कर सकते हैं, आदि । यहां तक कि वे अचेल अर्थात् निर्वस्त्र भी रह सकते हैं। सामाचारी : समाचारी अथवा सामाचारी का अर्थ है सम्यक्चर्या । श्रमण की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए? इस प्रश्न का जैन आचारशास्त्र में व्यवस्थित उत्तर दिया गया है। यह उत्तर दो रूपों है : सामान्य दिनचर्या व पर्युषणाकल्प । उत्तराध्ययन आदि Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र मैं मुनि की सामान्य दिनचर्या पर प्रकाश डाला गया है तथा कल्पसूत्र आदि में पर्युषणाकल्प अर्थात् वर्षावास (चातुर्मास ) से सम्बन्धित विशिष्ट चर्या का वर्णन किया गया है । ५२५ उत्तराध्ययन सूत्र के छब्बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में श्रमण की सामान्य चर्यारूप सामाचारी के दस प्रकार बतलाये गये हैं : १. आवश्यकी, २. नैषेधिकी, ३. आपृच्छना, ४. प्रतिपृच्छना, ५ छन्दना, ६. इच्छाकार, ७. मिथ्याकार, ८. तथाकार अथवा तथ्येतिकार, 8. अभ्युत्थान, १० उपसंपदा । किसी आवश्यक कार्य के निमित्त उपाश्रय से बाहर जाते समय 'मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूँ' यों कहना चाहिए। यह आवश्यकी सामाचारी है। बाहर से वापस आकर 'अब मुझे बाहर नहीं जाना है' यों कहना चाहिए। यह नैषेधिकी सामाचारी है। किसी भी कार्य को करने के पूर्व गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि से पूछना चाहिए कि क्या मैं यह कार्य कर लूं ? इसे आपृच्छना कहते हैं। गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि ने जिस कार्य के लिए पहले मना कर दिया हो उस कार्य के लिए आवश्यकता होने पर पुनः पूछना कि क्या अब मैं यह कार्य कर लूं. प्रतिपृच्छना है । लाये हुए आहारादि के लिए अपने साथी श्रमणों को आमंत्रित कर धन्य होना छंदना है । परस्पर एक-दूसरे की इच्छा जानकर अनुकूल व्यवहार करना इच्छाकार कहलाता है । प्रमाद के कारण होने वाली त्रुटियों के लिए पश्चात्ताप कर उन्हें मिथ्या अर्थात् निष्फल बनाना मिथ्याकार कहलाता है । गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि की आज्ञा स्वीकार कर उनके कथन का 'तहत्ति' ( आपका कथन यथार्थ है ) कहकर आदर करना तथाकार अथवा तथ्येतिकार कहलाता है । उठने बैठने आदि में अपने से बड़ों के Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ जैन धर्म-दर्शन प्रति भक्ति एवं विनय का व्यवहार करना अभ्युत्थान है। भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र (शतक २५) में अभ्युत्थान के स्थान पर निमन्त्रणा शब्द है। निमन्त्रणा का अर्थ है आहारादि लाने के लिए जाते समय साथी श्रमणों को भी साथ आने के लिए निमन्त्रित करना अथवा उनसे यह पूछना कि क्या आपके लिए भी कुछ लेता आऊं? ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए योग्य गुरु का आश्रय ग्रहण करना उपसंपदा है। इसके लिए श्रमण अपने गच्छ का त्याग कर अन्य गच्छ का आश्रय भी ले सकता है। __ मुनि को दिवस को चार भागों में विभक्त कर अपनी दिनचर्या सम्पन्न करनी चाहिए। उसे दिवस के प्रथम प्रहर में मुख्यतः स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या तथा चतुर्थ में फिर स्वाध्याय करना चाहिए। इसी प्रकार रात्रि के चार भागों में से प्रथम में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में निद्रा एवं चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करना चाहिए। इस प्रकार दिन-रात के आठ पहर में से चार पहर स्वाध्याय के लिए, दो पहर ध्यान के लिए, एक पहर भोजन के लिए तथा एक पहर सोने के लिए है। इससे प्रतीत होता है कि श्रमण की दिनचर्या में अध्ययन का सर्वाधिक महत्त्व है। इसके बाद ध्यान को महत्त्व दिया गया है। खाने-पीने के लिए दिन में एक बार एक पहर का समय दिया गया है । इसी प्रकार सोने के लिए भी रात के समय केवल एक पहर दिया गया है। स्वाध्याय अथवा अध्ययन में निम्नोक्त पांच क्रियाओं का समावेश किया जाता है : वाचना, पृच्छना, परिवर्तना (पुनरावर्तन), अनुप्रेक्षा (चिन्तन) और धर्मकथा। श्रमण की इस संक्षिप्त दिनचर्या का विवेचन करते हुए बतलाया गया है कि. दिवस के प्रथम प्रहर के प्रारम्भ के Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० चतुर्थ भाग में वस्त्र पात्रादि का प्रतिलेखन ( निरीक्षण) करने के बाद गुरु को नमस्कार करसर्व दुःखमुक्ति के लिए स्वाध्याय करना चाहिए । इसी प्रकार दिवस के अन्तिम प्रहर के अन्त के चतुर्थ भाग में स्वाध्याय से निवृत्त होकर गुरु को वंदन करने के बाद वस्त्र पात्रादि का प्रतिलेखन करना चाहिए । प्रतिलेखन करते समय परस्पर वार्तालाप नहीं करना चाहिए और न किसी अन्य से ही किसी प्रकार की बातचीत करनी चाहिए अपितु अपने कार्य में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। तृतीय प्रहर में क्षुधा वेदना की शान्ति आदि के लिए आहारपानी की गवेषणा करनी चाहिए। आहार- पानी लेने जाते समय भिक्षु को पात्र आदि का अच्छी तरह प्रमार्जन कर लेना चाहिए । भिक्षा के लिए अधिक-से-अधिक आधा योजन (दो कोस ) तक जाना चाहिए । चतुर्थ प्रहर के अन्त में स्वाध्याय से निवृत्त होने पर एवं वस्त्र पात्रादि की प्रतिलेखना कर लेने पर मल-मूत्र का त्याग करने की भूमि का अवलोकन करने के बाद कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग में दिवससम्बन्धी अतिचारों-- दोषों की चिन्तना एवं आलोचना करनी चाहिए । तदनन्तर रात्रिकालीन स्वाध्याय आदि में लग जाना चाहिए । रात्रि के चतुर्थ प्रहर में इस ढंग से स्वाध्याय करना चाहिए कि अपनी आवाज से गृहस्थ जग न जायें । चतुर्थ प्रहर का चतुर्थ भाग शेष रहने पर पुनः कायोत्सर्ग करना चाहिए एवं रात्रिसम्बन्धी अतिचारों की चिन्तना व आलोचना करनी चाहिए । आचारशास्त्र कल्पसूत्र के सामाचारी नामक अंतिम उल्लेख है कि श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षा रातसहित एक महीना बीतने पर अर्थात् आषाढ़ . प्रकरण में यह ऋतु का बीस मास के अन्त Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० जैन धर्म-दर्शन कर ला की उत्पत्ति कायतया चातुमाम तक में चातुर्मास लगने के बाद पचास दिन व्यतीत होने पर वर्षावास किया। इस प्रकरण में यह भी उल्लेख है कि इस समय से पूर्व भी वर्षावास कल्प्य है किन्तु इस समय का उल्लंघन करना कल्प्य नहीं । इस प्रकार जैन आचारशास्त्र के अनुसार मुनियों का वर्षावास चातुर्मास लगने से लेकर पचास दिन बीतने तक कभी भी प्रारम्भ हो सकता है अर्थात् आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी से लेकर भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक किसी भी दिन शुरू हो सकता है। सामान्यतया चातुर्मास प्रारम्भ होते ही जीवजन्तुओं की उत्पत्ति को ध्यान में रखते हुए मुनि को वर्षावास कर लेना चाहिए । परिस्थितिविशेष की दृष्टि से उसे पचास दिन का समय और दिया गया है । इस समय तक उसे वर्षावास अवश्य कर लेना चाहिए । वर्षावास में स्थित निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को भी चारों ओर सवा योजन अर्थात् पाँच कोस तक की अवग्रह-मर्यादा-गमतागमन की क्षेत्र-सीमा रखना कल्प्य है । हृष्टपुष्ट, आरोग्ययुक्त एवं बलवान् निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को दूध, दही, मक्खन, घी, तेल आदि रसविकृतियाँ बार-बार नहीं लेनी चाहिए। __ नित्यभोजी भिक्ष को गोचरकाल में आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर एक बार जाना कल्प्य है। आचार्य आदि की सेवा के निमित्त अधिक बार भी जाया जा सकता है। चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास करने वाले भिक्षु को उपवास के बाद प्रातःकाल गोचरी के लिए निकल कर हो सके तो उस समय मिलने वाले आहार-पानी से ही उस दिन काम चला लेना चाहिए। वैसा शक्य न होने पर गोचरकाल में आहार Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र २२६ पानी के लिए गहपति के घर की ओर एक बार और जाया जा सकता है । इसी प्रकार षष्ठभक्त अर्थात दो उपवास करने वाले भिक्ष को गोचरी के समय आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर को ओर दो बार और जाना कल्प्य है । अष्टमभक्त अर्थात् तीन उपवास करने वाला भिक्षु गोचरी के समय आहार-पानी के लिए गृहपति के घर की ओर तीन बार और जा सकता है। विकृष्टभक्त अर्थात् अष्टमभक्त से अधिक तप करने वाले भिक्ष के लिए एतद्विषयक कोई निर्धारित संख्या अथवा समय नहीं है। वह अपनी सुविधानुसार किसी भी समय एवं कितनी ही बार आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर जा सकता है। उसे इस विषय में पूर्ण स्वतन्त्रता है। नित्य भोजी भिक्षु को सब प्रकार का निर्दोष पानी लेना कल्प्य है। चतुर्थभक्त करने वाले भिक्ष को निम्नोक्त तीन प्रकार का पानी ग्रहण करना कल्प्य है : उत्स्वेदिम अर्थात् पिसे हुए अनाज का पानी, संस्वेदिम अर्थात् उबले हुए पत्तों का पानी और तन्दुलोदक अर्थात् चावल का पानी । षष्ठभक्त करने वाले भिक्षु के लिए निम्नोक्त तीन प्रकार का पानी विहित है : तिलोदक अर्थात् तिल का पानी, तुषोदक अर्थात् तुष का पानी और यवोदक अर्थात् जी का पानी । अष्टमभक्त करने वाले भिक्षु के लिए निम्नोक्त तीन प्रकार का पानी विहित है : आयाम अर्थात् पके हुए चावल का पानी, सौवीर अर्थात् कांजी और शुद्धविकट अर्थात् गरम पानी। विकृष्टभक्त करने वाले भिक्ष को केवल गरम पानी ग्रहण करना कल्प्य है । पाणिपात्र भिक्ष को तनिक भी पानी बरसता हो तो भोजन के लिए अथवा पानी के लिए नहीं निकलना चाहिए। पात्र Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. पेन धर्म-दर्शन धारी भिक्षु अधिक वर्षा में आहार- पानी के लिए बाहर नहीं जा सकता । अल्प वर्षा होती हो तो एक वस्त्र और ओढ़कर आहार पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर जा सकता है । भिक्षा के लिए बाहर गया हुआ मुनि वर्षा आ जाने की स्थिति में वृक्ष आदि के नीचे ठहर सकता है एवं आवश्यकता होने पर वहाँ आहार- पानी का उपभोग भी कर सकता है । उसे खापीकर पात्रादि साफ कर सूर्य रहते हुए अपने उपाश्रय में चले जाना चाहिए क्योंकि वहाँ रहकर रात्रि व्यतीत करना अकल्प्य है । मुनि को अपने शरीर से पानी टपकने की स्थिति में अथवा अपना शरीर गीला होने की अवस्था में आहार- पानी का उपभोग नहीं करना चाहिए । जब उसे यह मालूम हो कि अब मेरा शरीर सूख गया है तब आहार पानी का उपभोग करना चाहिए। पर्युषणा के बाद अर्थात् वर्षाऋतु के पचास दिन व्यतीत होने पर निर्ग्रन्य-निर्ग्रन्थी के सिर पर गोलोमप्रमाण अर्थात् गाय के बाल जितने केश भी नहीं रहने चाहिए। कैंची से अपना मुण्डन करने वाले को आधे महीने से मुंड होना चाहिए, उस्तरे से अपना मुण्डन करने वाले को एक महीने से तथा लोंच से मुंड होने वाले को अर्थात् हाथों से बाल उखाड़कर अपना मुण्डन करने वाले को छः महीने से मुण्ड होना चाहिए। स्थविर (वृद्ध) वार्षिक लोंच कर सकता है । श्रमण श्रमणियों को पर्युषणा के बाद अधिकरणयुक्त अर्थात् क्लेशकारी वाणी बोलना अकल्प्य है । पर्युषणा के दिन उन्हें परस्पर क्षमायाचना करनी चाहिए एवं उपशमभाव की वृद्धि Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५३१ करनी चाहिए क्योंकि जो उपशमभाव रखता है वही आराधक होता है। श्रमणत्व का सार उपशम ही है अतः जो उपशमभाव नहीं रखता वह विराधक कहा जाता है। पंडितमरण : मरण दो प्रकार का होता है : बालमरण और पंडितमरण । अज्ञानियों का मरण बालमरण एवं ज्ञानियों का मरण पंडितमरण कहा जाता है। जो विषयों में आसक्त होते हैं एवं मृत्यु से भयभीत रहते हैं वे अज्ञानी बाल मरण से मरते हैं। जो विषयों में अनासक्त होते हैं यथा मृत्यु से निर्भय रहते हैं वे ज्ञानी पंडितभरण से मरते हैं । चूंकि पंडितमरण में संयमी का चित्त समाधियुक्त होता है अर्थात् संयमी के चित्त में स्थिरता एवं समभाव की विद्यमानता होती है अतः पंडितमरण को समाधिमरण भी कहते हैं। जब भिक्षु या भिक्षुणी को यह.प्रतीति हो जाय कि मेरा शरीर तप आदि के कारण अत्यन्त कृश हो गया है अथवा रोग आदि कारणों से अत्यन्त दुर्वल हो गया है अथवा अन्य किसी आकस्मिक कारण से मृत्यु समीर आ गई है एवं संयम का निर्वाह असंभव हो गया है तब वह क्रमश: आहार का संकोच करता हुआ कषाय को कृश करे, शरीर को समाहित करे एवं शान्त चित्त से शरीर का परित्याग करे। इसी का नाम समाधिमरण अथवा पंडितमरण है। चूंकि इस प्रकार के मरण में शरीर एवं कषाय को कृश किया जाता है-कुरेदा जाता है अतः इसे संलेखना भी कहते हैं । संलेखना में निर्जीव एकान्त स्थान में तृणशय्या (संस्तारक) बिछा कर आहारादि का परित्याग किया जाता है अतः इसे संथारा (संस्तारक) भी कहते हैं । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्ययन में समाधिमरण स्वीकार करने वाले को बुद्ध व ब्राह्मण कहा गया है एवं इस मरण को महावीरोपदिष्ट बताया गया है । समाधिमरण ग्रहण करने वाले की माध्यस्थ्यवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह संयमी न जीवित रहने की आकांक्षा रखता है, न मृत्यु की प्रार्थना करता है । वह जीवन और मरण में आसक्तिरहित होता है - समभाव रखता है । इस अवस्था में यदि कोई हिंसक प्राणी उसके शरीर का मांस व रक्त खा जाय तो भी वह उस प्राणी का हनन नहीं करता और न उसे अपने शरीर से दूर ही करता है । वह यह समझता है कि ये प्राणी उसके नश्वर शरीर का ही नाश करते हैं, अमर आत्मा का नहीं । ५३२ श्रावकाचार : जैन आचारशास्त्र में व्रतधारी गृहस्थ श्रावक, उपासक, अणुव्रती, देशविरत, सागार आदि नामों से जाना जाता है । चूंकि वह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों अर्थात् श्रमणों से निर्ग्रन्थप्रवचन का श्रवण करता है अतः उसे श्राद्ध अथवा श्रावक कहते 'हैं। श्रमणवर्ग की उपासना करने के कारण वह श्रमणोपासक अथवा उपासक कहलाता है । अणुव्रतरूप एकदेशीय अर्थात् अपूर्ण संयम अथवा विरति धारण करने के कारण उसे अणुव्रती, देशविरत, देशसंयमी अथवा देशसंयत कहा जाता है । चूंकि वह आगार अर्थात् घर वाला है - उसने घरबार का त्याग नहीं किया है अतएव उसे सागार, आगारी, गृहस्थ, गृही आदि नामों से पुकारा जाता है | श्रावकाचार से सम्बन्धित ग्रंथों अथवा प्रकरणों में उपासक-धर्म का प्रतिपादन तीन प्रकार से किया गया है : १. बारह व्रतों के आधार पर, २. ग्यारह प्रतिमाओं के - Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारशास्त्र ५३३ आधार पर, ३. पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर। आसकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डक-श्रावकाचार आदि में संलेखनासहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रप्राभत में, स्वामी कार्तिकेय ने अनुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसुनन्दि ने वमनन्दिश्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक-धर्म का प्ररूपण किया है। पंडित आशाधर ने सागारधर्मामृत में पक्ष, निष्ठा एवं साधन के आधार पर श्रावक-धर्म का विवेचन किया है । इस पद्धति के बीज आचार्य जिनसेन के आदिपुराण (पर्व ३६)में पाये जाते हैं । इसमें सावध क्रिया अर्थात् हिंसा की शुद्धि के तीन प्रकार बताये गये हैं : पक्ष, चर्या और साधन । निर्ग्रन्थ देव, निर्ग्रन्थ गुरु तथा निर्ग्रन्थ धर्म को ही मानना पक्ष है। ऐसा पक्ष रखने वाले गृहस्थ को पाक्षिक श्रावक कहते हैं । ऐसे श्रावक की आत्मा में मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ्यवृत्ति होती है । जीवहिंसा न करते हुए न्यायपूर्वक आजीविका का उपार्जन करना तथा श्रावक के बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है । इस प्रकार की चर्या का आचरण करने वाले गृहस्थ को नैष्ठिक श्रावक कहते हैं । जीवन के अन्त में आहारादि का सर्वथा त्याग करना साधन है । इस प्रकार के साधन को अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्मशोधन करने वाले गृहस्थ को साधक श्रावक कहते हैं । श्रावक के बारह व्रतों में से प्रथम पाँच अणुव्रत, बाद के तीन गुणव्रत एवं अन्तिम चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर व दिगम्बर ग्रंथों में गुणवतों एवं शिक्षाव्रतों के नामों व गणनाक्रम में परस्पर एवं आन्तरिक दोनों प्रकार के मतभेद हैं तथापि यह कहा जा सकता है कि दिशापरिमाण, भोगो ___ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ बैन धर्म-दर्शन पभोगपरिमाण एवं अनर्थदण्डविरमणरूप गुणवत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास एवं अतिथिसंविभागरूप शिक्षाबत साधारणतया अभीष्ट एवं उपयुक्त हैं। अणुव्रत : श्रमण के अहिंसादि पाँच महाव्रतों की अपेक्षा लघु होने के कारण श्रावक के प्रथम पाँच व्रत अणुव्रत अर्थात् लघुव्रत कहलाते हैं। जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाँच महा त प्राणभत हैं उसी प्रकार श्रावक के लिए पांच अणुव्रत जीवनरूप हैं। जैसे पांच महाव्रतों के अभाव में श्रामण्य निर्जीव होता है वैसे ही पाँच अणुव्रतों के अभाव में श्रावक-धर्म निष्प्राण होता है। यही कारण है कि अगुव्रतों को श्रावक के मूलगुण कहा जाता है। श्रावक के मूलगुणरूप पाँच अणुव्रतों के नाम इस प्रकार हैं : १ स्यूल प्राणातिपात-विरमण, २. स्थूल मृषावादविरमण, ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण, ४. स्वदार-संतोष, ५. इच्छा-परिमाण । १. स्थूल प्राणातिपात-विरमण-सर्वविरत अर्थात् महावती मुनि प्राणातिपात अर्थात् हिंसा का पूर्ण त्यागी होता है (प्रमादजन्य अथवा कषायजन्य हिंसा का सर्वथा त्याग करता है) जबकि देश विरत अर्थात् अणुव्रती श्रावक केवल स्यूल हिंसा का त्याग करता है क्योंकि गृहस्थ होने के नाते उसे अनेक प्रकार से सूक्ष्म हिंसा तो करनी ही पड़ती है। इसीलिए श्रावक का प्राणातिपातविरमण अर्थात् हिंसा-विरति स्थूल है । श्रमण की सर्व हिंसा-विरति की तुलना में श्रावक की स्थूल हिंसाविरति देशविरति अर्थात् आंशिक विरति कही जाती है। इसके द्वारा व्यक्ति आंशिक अहिंसा की साधना करता है-अहिंसावत Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र १३५ का आंशिक रूप से पालन करता है। श्रमण मन, वचन अथवा काया से किसी भी प्राणी की-चाहे त्रस हो अथवा स्थावर-न तो हिंसा करता है, न किसी से करवाता है और न करने वाले का समर्थन ही करता है। इस प्रकार श्रमण हिंपा का तीन योग (मन, वचन व काया ) और तीन करण ( करना, करवाना व अनुमोदन करना) पूर्वक त्याग करता है। उसका यह त्याग सर्वविरति कहलाता है। श्रावक इस प्रकार हिंसा का त्याग नहीं करता। वह केवल त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय ) प्राणियों की हिंसा से विरत होता है। उसकी यह विरति सामान्यतया तीन योग व तीन करणपूर्वक नहीं अपितु तीन योग व दो करणपूर्वक होती है। वह निरपराध प्राणियों को मन, वचन अथवा काया से न स्वयं मारता है और न दूसरों से मरवाता है। श्रावक ऐसी कोई भी प्रवृत्ति करने के लिए स्वतन्त्र होता है जिसमें स्थूल हिमा की संभावना न हो । इस प्रकार की प्रवृत्ति वह दूसरों से भी करवा सकता है। सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी कभी कभी प्रमादवश अथवा अज्ञानवश दोष लगने की संभावना रहती है। इस प्रकार के दोषों को अतिचार कहा जाता है । स्थूल अहिंसा अथवा स्थूल प्राणातिपात-विरमण के पाँच मुख्य अतिचार हैं : १. बन्ध, २. वध, ३. छविच्छेद, ४. अतिभार, ५. अन्नपाननिरोध । ये अथवा इसी प्रकार के अन्य अतिचार श्रावक के जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं। बन्ध का अर्थ है किसी त्रस प्राणी को कठिन बंधन से बाँधना अथवा उसे अपने इष्ट स्थान पर जाने से रोकना । अपने अधीनस्थ व्यक्तियों को निश्चित समय से अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन धर्म-दर्शन समय के उपरान्त कार्य लेना, उन्हें अपने इष्ट स्थान पर जाने में अंतराय पहुंचाना आदि बंब के ही अन्तर्गत हैं। किसी भी त्रस प्राणी को मारना वध है । पीटना भी वध का ही एक रूप है । अपने आश्रित व्यक्तियों को अथवा अन्य किसी को निर्दयतापूर्वक या क्रोधवश मारना पीटना, गाय, भैंस, घोड़ा, बैल आदि को लकड़ी, चाक, पत्थर आदि से मारना, किसी पर अनावश्यक अथवा अनुचित आर्थिक भार डालना, किसी की लाचारी का अनुचित लाभ उठाना, किसी का अनैतिक ढंग से शोषण कर अपनी स्वार्थपूर्ति करना आदि क्रियाएँ वध में समाविष्ट हैं । प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी प्राणी की हत्या करना, किसी को मारना पीटना, संताप पहुंचाना, तड़पाना, चूसना आदि वध के ही विविध रूप हैं । अनीतिपूर्वक किसी की आजीविका छीनना अथवा नष्ट करना भी वध का ही एक रूप है । तीसरा अतिचार छविच्छेद है । किसी भी प्राणी के अंगोपांग काटना छविच्छेद कहलाता है । चूंकि छविच्छेद से प्राणी को पीड़ा होती है अतः वह त्याज्य है । छविच्छेद की तरह वृत्तिच्छेद भी दोषयुक्त है । किसी की वृत्ति अर्थात् आजीविका का सर्वथा छेद करना याने रोजी छीन लेना तो ववरूप होने के कारण दोषयुक्त है हो, उचित पारिश्रमिक में न्यूनता करना, कम वेतन देना, कम मजदूरी देना, अनुचित रूप से वेतन या मजदूरी काट लेना, नौकर या मजदूर को छुट्टी आदि की पूरी सुविधाएं न देना आदि क्रियाएँ भी छविच्छेद की ही भाँति दोषयुक्त हैं। चौथा अतिचार अतिभार है। बैन, ऊंट, अश्व आदि पशुओं पर अथवा मजदूर, नौकर आदि मनुष्यों पर उनकी शक्ति से अधिक बोझ लादना अतिभार कहलाता | है शक्ति एवं समय होने पर भी अपना काम खुद न कर दूसरों से Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५३० करवाना अथवा किसी से शक्ति से अधिक काम लेना भी अतिभार ही है। पांचवाँ अतिचार अन्नपान निरोध है। किसी के खान-पान में रुकावट डालने वाला इस अतिचार का भागी होता है। नौकर आदि को समय पर खाना न देना, पूरा खाना न देना, ठीक खाना न देना, अपने पास संग्रह होने पर भी आवश्यकता के समय किसी की सहायता न करना, अपने अधीनस्थ पशुओं एवं मनुष्यों को पर्याप्त खाना आदि न देना अन्नपाननिरोध है । श्रावक को इन सब अतिचारों से दूर रहना चाहिए-इस प्रकार के अनेक दोषों से बचना चाहिए। २. स्थूल मृषावाद-विरमण-जिस प्रकार श्रमणोपासक के लिए स्थूल प्राणातिपात अर्थात् हिंसा से बचना आवश्यक है उसी प्रकार उसके लिए स्थूल मृषावाद अर्थात् झूठ से बचना भी जरूरी है । जिस प्रकार हिंसा न करना प्राणातिपात-विरमण व्रत का निषेधात्मक पक्ष है तथा रक्षा, अनुकम्पा, परोपकार आदि करना अहिंसा का विधेयात्मक रूप है उसी प्रकार असत्य वचन न बोलना मृषावाद-विरमण व्रत का निषेधात्मक पक्ष है तथा सत्य वचन बोलना इस व्रत का विधेयात्मक रूप है। इससे व्यक्ति को सत्यनिष्ठ होने की शिक्षा मिलती है। उसके जीवन में सचाई व ईमानदारी का विकास होता है । अहिंसा की आराधना के लिए सत्य की आराधना अनिवार्य है। झूठा व्यक्ति सही अर्थ में अहिंसक नहीं हो सकता। सच्चा अहिंसक कभी असत्य आचरण नहीं कर सकता। सत्य और अहिंसा का इतना अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक के अभाव में दूसरे की आराधना अशक्य है । ये दोनों परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित हैं। गृहस्थ के लिए साधारणतया मृषावाद का सर्वथा त्याग Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० बैन धर्म-दर्शन अर्थात् मक्षा असत्य का परित्याग शक्य नहीं होता। हाँ, वह स्थूल मृषावाद का त्याग अवश्य कर सकता है। इसीलिए श्रावक के लिए स्थूल प्राणातिपात-विरमण के विधान की भाँति स्थूल मृषावाद-विरमण का भी विधान किया गया है। स्थल झू का त्याग भी साधारणतया स्थूल हिंसा के त्याग के ही समान दो करण व तीन योगपूर्वक होता है। स्थूल झूठ किसे समझना चाहिए? जिस झूठ से समाज में प्रतिष्ठा न रहे, साथियों में प्रामाणिकता न मानी जाय, लोगों में अप्रतीति हो, राजदण्ड का भागी होना पड़े उसे स्थूल झूठ समझना चाहिए। इस प्रकार के झूठ से मनुष्य का चतुर्मुखी पतन होता है। अनेक कारणों से मनुष्य स्थूल झूठ का प्रयोग करता है । उदाहरण के लिए अपने पुत्र-पुत्रियों के विवाह के निमित्त सामने वाले पक्ष के सम्मुख झूठी प्रशंसा करना-करवाना, पशु-पक्षियों के क्रय-विक्रय के निमित्त मिथ्या प्रशंसा का आश्रय लेना, भूमि के सम्बन्ध में झूठ बोलना-बुलवाना, अन्य वस्तुओं के विषय में झूठ का प्रयोग करना, नौकरी आदि के लिए असत्य का आश्रय लेना, किसी की धरोहर आदि दबाकर विश्वासघात करना, झूठी गवाही देना-दिलाना, रिश्वत खाना-खिलाना, झूठे को सच्चा या सच्चे को झठा सिद्ध करने का प्रयत्न करना आदि । श्रावक के इस प्रकार का झूठ बोलने-बुलवाने का मन, वचन व तन से त्याग होता है। ... सावधानीपूर्वक स्थूल मृषावाद-विरमण व्रत का पालन करते हुए भी एतद्विषयक जिन अतिचारों-दोषों की संभावना रहती है वे प्रधानतया पाँच प्रकार के हैं. : १. सहसा-अभ्याख्यान, २. रहस्य-अभ्याख्यान, ३ स्वदार अथवा स्वपति-मंत्रभेद, ४.. मृषा-उपदेश, ५. कूट-लेखकरण । बिना सोचे-समझे, बिना ___ .. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र १३९ देखे-सुने किसी के विषय में कुछ धारणा बना लेना अथवा निर्णय दे देना, किसी पर मिथ्या कलंक लगाना, किसी के प्रति लोगों में गलत धारणा पैदा करना, सज्जन को दुर्जन, गुणी को अवगुणी, ज्ञानी को अज्ञानी कहना आदि सहसा-अभ्याख्यान अतिचार के अतर्गत हैं । किसी की गुप्त बात किसी के सामने प्रकट कर उसके साथ विश्वासघात करना रहस्य-अभ्याख्यान है। पति-पत्नी का एक-दूसरे की गुप्त बातों को किसी अन्य के सामने प्रकट करना स्वदार अथवा स्वपति-मंत्रभेद है । किसी को सच-झूठ समझाकर कुमार्ग पर ले जाना मृपोपदेश है। झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना अथवा झूठा अंगूठा लगाना, झठे बही-खाते तैयार करना, झूठे सिक्के बनाना अथवा चलाना आदि कूट-लेखकरण अतिचार के अन्तर्गत हैं । श्रावक को इन सबसे तथा इस प्रकार के अन्य अतिचारों से बचना चाहिए। उसे सदा सावधान रहकर सत्य की आराधना करनी चाहिए। ..३. स्थूल अदत्तादान-विरमण-अहिंसा व सत्य के सम्यक पालन के लिए अत्रीर्य अर्थात् अदत्तादान-विरमण आवश्यक है। श्रावक के लिए जिस प्रकार का अचौर्य अथवा अस्तेय आवश्यक माना गया है उसे स्थूल अदत्तादान-विरमण कहते हैं । साधु के लिए तो विना अनुमति के दंतशोधनार्थ तृण उठाना भी वजित है अर्थात् वह बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करता। श्रावक के लिए ऐसा आवश्यक नहीं माना गया है। वह सूक्ष्म अदत्तादान का त्याग न भी करे तथापि उसे स्थूल अदत्तादान का त्याग तो करना ही पड़ता है । अदत्तादान का शब्दार्थ है बिना दी हुई वस्तु. (अदत्त) का ग्रहण (आदान) । इसे सामान्य भाषा में चोरी कहते हैं । श्रावक के लिए ऐसी चोरी का त्याग अनि Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन वार्य है जिसके करने से राजदण्ड भोगना पड़े, समाज में अविश्वास उत्पन्न हो, प्रामाणिकता नष्ट हो, प्रतिष्ठा को धक्का लगे । इस प्रकार की चोरी का त्याग ही जैन आचार-शास्त्र में स्थूल अदत्तादान- विरमण व्रत के नाम से प्रसिद्ध है । स्थूल चोरी के कुछ उदाहरण ये हैं : किसी के घर आदि में सेंध लगाना, किसी की गाँठ काटना, किसी का ताला तोड़ना, किसी को लूटना, किसी की चीज बिना पूछे उठाकर रख लेना, किसी का गड़ा हुआ धन निकाल लेना, डाका डालना, ठगना, मिली हुई वस्तु का पता लगाने की कोशिश न करना अथवा पता लगने पर भी उसे न लौटाना, चौर्यबुद्धि से किसी को वस्तु उठा लेना अथवा अपने पास रख लेना आदि । श्रावक चोरी का त्याग भी साधारणतया दो करण व तीन योगपूर्वक ही करता है । ५४ अदत्तादान - विरमण व्रत के मुख्य पाँच अतिचार हैं : १. स्तेनाहृत, २ . तस्करप्रयोग, ३. राज्यादिविरुद्ध कर्म, ४. कूटतोल कूटमान, ५. तत्प्रतिरूपक व्यवहार | अज्ञानवश यह समझ कर कि चोरी करने व कराने में पाप है किन्तु चुराई हुई वस्तु लेने में क्या हर्ज है, चोरी का माल लेना स्तेनाहृत अतिचार है । चोरी करने की प्रेरणा देना, चोर को सहायता देना, तस्कर को शरण देना, शस्त्रास्त्र आदि द्वारा डाकुओं की मदद करना, लुटेरों का पक्ष लेना आदि क्रियाएं तस्करप्रयोग के अन्तर्गत हैं । प्रजा के हित के लिए बने हुए राज्य आदि के नियमों को भंग करना राज्यादिविरुद्ध कर्म है । इस अतिचार के अन्तर्गत निम्नोक्त कार्यों का समावेश होता है : अवैधानिक व्यापार करना, कर चुराना, बिना अनुमति के परराज्य की सीमा में प्रवेश करना, निषिद्ध वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान पर अथवा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५४१ एक देश से दूसरे देश में लाना-लेजाना, राज्यहित के विरुद्ध गुप्त कार्य करना, स्वार्थवश राज्य के किसी भी कानून का भंग करना, समाज के किसी भी हितकर नियम की अवहेलना करना आदि । लेन-देन में न्यूनाधिकता का प्रयोग करना कूटतोलकूटमान कहलाता है। वस्तुओं में मिलावट करना तत्प्रतिरूपक व्यवहार है । बहुमूल्य वस्तु में अल्पमूल्य वस्तु मिलाना, शुद्ध वस्तु में अशुद्ध वस्तु मिलाना, सुपथ्य वस्तु में कुपथ्य वस्तु मिलाना और इस प्रकार अनुचित लाभ उठाना श्रावक के लिए वजित है। ४ स्वदार-सन्तोष-अपनी भार्या के सिवाय शेष समस्त स्त्रियों के साथ मैथुनसेवन का मन, वचन व कायापूर्वक त्याग करना स्वदार-सन्तोष व्रत कहलाता है। जिस प्रकार श्रावक के लिए स्वदार-सन्तोष का विधान है उसी प्रकार श्राविका के लिए स्वपति-सन्तोष का नियम समझना चाहिए। अपने भर्ता के अतिरिक्त अन्य समस्त पुरुषों के साथ मन, वचन और कायापूर्वक मथुनसेवन का त्याग करना स्वाति-सन्तोष कहलाता है। श्रावक के लिए स्वदार-सन्तोष एवं श्राविका के लिए स्वपति-सन्तोष अनिवार्य है। श्रमण-श्रमणी के लिए मैथुन का सर्वथा त्याग विहित है जबकि श्रावक-श्राविका के लिए मैथुन की मर्यादा निश्चित की गई है। स्थूल प्राणातिपात-विरमण आदि की समकक्ष भाषा में इसे स्थूल मैथुन-विरमण कह सकते हैं। जब श्रावक मैथुनसेवन की स्वदारसंतोषरूप मर्यादा निश्चित करता है तो उसमें परदारत्याग, वेश्यात्याग, कुमारिकात्याग आदि स्वतः आ जाते हैं। ऐसा होते हुए भी कई बार विषय Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जैन धर्म-दर्शन वृत्ति की अधीनता के कारण वह जाने - अजाने ऐसी गलत गलियाँ निकाल सकता है जिनसे व्रतभंग भी न हो और मैथुनेच्छा भी पूरी हो जाय । यही गलियाँ स्थूल मैथुन विरमण व्रत के अतिचार हैं । ये दोषरूप होने के कारण त्याज्य हैं । इनका अन्य व्रतों के अतिचारों की ही भाँति निम्नोक्त पाँच रूपों में प्रतिपादन किया गया है: इत्वरिक परिगृहीता- गमन, अपरिगृहीता - गमन, अनंगक्रीड़ा, परविवाहकरण और कामभोगतीव्राभिलाषा। जो स्त्रियाँ परदारकोटि में नहीं आतीं ऐसी स्त्रियों को धन आदि का लालच देकर कुछ समय तक अपनी बना लेना अर्थात् स्वदारकोटि में ले आना तथा उनके साथ कामभोग का सेवन करना इत्वरिक परिगृहीना-गमन कहलाता है । इत्वर अर्थात् अलकाल परिग्रहण अर्थात् स्वीकार, गमन अर्थात् कामभोग- सेवन । इत्वरिक परिगृहीता-गमन अर्थात् अल्पकाल के लिए स्वीकार की हुई स्त्री के साथ कामभोग का सेवन करना - कुछ समय के लिए रखी हुई किसी महिला के साथ मैथुनसेवन करना । जो स्त्री अपने लिए अपरिगृहीत अर्थात् अस्वीकृत है उसके साथ कामभोग का सेवन करना अपरिगृहीता-गमन है । इस प्रकार की स्त्रियों में निम्नोक्त नारियों का समावेश होता है : जिसके साथ सम्बन्ध निश्चित हो गया हो किन्तु विवाह न हुआ हो, जो अविवाहित कन्या के रूप में ही हो, जिसका पति मर गया हो, जो वेश्या का व्यवसाय करती हो, जो अपने पति द्वारा छोड़ दी गई हो अथवा जिसने अपने पति को छोड़ दिया हो, जिसका पति पागल हो गया हो, जो अपनी दासी अथवा नौकरानी के रूप में काम करती हो इत्यादि । इन सव प्रकार की स्त्रियों के साथ स्वदार संतोष, जिसका कि निषेधात्मक रूप परदारविवर्जन है, का पूरा अर्थ न समझने के Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५४३ कारण अथवा भूल से मैथुन सेवन का प्रसंग उपस्थित होना अपरिगृहीता-गमन अतिचार है। जिस किसी स्त्री के साथ कामोतेजक क्रीड़ा करना, जिस किसी स्त्री का कामोत्तेजक आलिंगन करना, हस्तकर्म आदि कुचेष्टाएं करना, कृत्रिम साधनों द्वारा कामाचार का सेवन करना आदि कामवर्धक प्रवृत्तियाँ अनंगक्रीड़ा के अन्तर्गत आती हैं । (कन्यादान में पुण्य समझकर अथवा रागादि के कारण दूसरों के लिए लड़के-लड़कियाँ ढूंढना, उनकी शादियां करना आदि कर्म परविवाहकरण अतिचार के अन्तर्गत हैं। कर्तव्यबुद्धि अथवा सहायताबुद्धि से वैसा करने में कोई दोष नहीं। स्वसन्तति के विवाह आदि का दायित्व तो स्वदारसंतोष से सम्बद्ध होने के कारण श्रावक पर स्वतः आ जाता है । अतएव अपने पुत्र-पुत्रियों की शादी आदि का समुचित प्रबन्ध करना श्रावक के चतुर्थ अणुव्रत स्वदार-सन्तोष की मर्यादा के ही अन्तर्गत है। पाँच इन्द्रियों में से चक्षु और श्रोत्र के विषय रूप और शब्द को काम कहते हैं क्योंकि इनसे कामना तो होती है किन्तु भोग नहीं होता। घ्राण, रसना व स्पर्शन के विषय गंध, रस व स्पर्श भोगरूप हैं क्योंकि ये तीनों इन्द्रियाँ अपने अपने विषय के भोग से ही तृप्त होती हैं। इन कामरूप एवं भोगरूप विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखना अर्थात् इनकी अत्यधिक आकांक्षा करना कामभोग-तीव्राभिलापा अतिचार कहलाता है। बाजीकरण आदि के सेवन द्वारा अथवा कामशास्त्रोक्त प्रयोगों द्वारा मैथुनेच्छा को अधिकाधिक उद्दीप्त करना भी कामभोग-तीवाभिलाषारूप अतिचार है। अपनी पत्नी के साथ अमर्यादित ढग से मैथुन का सेवन करना भी कामभोग-तीव्राभिलाषा अतिचार ही कहलाता है क्योंकि इससे सन्तोषगुण का घात होता है तथा मन में सदा कामोत्तेजना Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ बैन धर्म-दर्शन बनी रहती है जो अपने आप के लिए तथा अपनी पत्नी के लिए दुःखदायी होती है। उपर्युक्त अतिचारों से सदाचार दूषित होता है। अतः श्रावक को इनसे बचना चाहिए। श्राषिका के लिए स्वपति-सन्तोषरूप स्थल मैथुन-विरमण व्रत का तथा तद्विषयक समस्त अतिचारों का आवश्यक परिवर्तन के साथ यथोचित शब्दों में संयोजन कर लेना चाहिए। ५. इच्छा-परिमाण-मनुष्य की इच्छा आकाश के समान अनन्त है। इसका अर्थ यह है कि यदि इच्छा पर नियन्त्रण न किया जाय तो वह कदापि तृप्त नहीं हो सकती । इच्छा-तृप्ति का श्रेष्ठ उपाय है इच्छा-नियन्त्रण । गृहस्थावस्था में रहते हुए इच्छाओं का सर्वथा त्याग संभव नहीं। हाँ, इच्छाओं की मर्यादा अवश्य बाँधी जा सकती है । इसी इच्छा-मर्यादा अथवा इच्छानियन्त्रण का नाम है इच्छा-परिमाण । यह श्रावक का पांचवां अणुव्रत है। जब इच्छा परिमित हो जाती है तब तमूलक ममत्व तथा तज्जन्य संग्रह अथवा परिग्रह भी परिमित हो जाता है। परिणामतः श्रावक जो कुछ भी उपार्जन अथवा संग्रह करता है वह केवल आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही होता है। उससे वह संतोषपूर्वक अपनी तथा अपने आश्रितों की परिमित इच्छा की पूर्ति करता है। श्रावक की इस प्रकार की परिग्रहपरिमिति का ही दूसरा नाम स्थूल परिग्रह-विरमण है। अन्य व्रतों की भांति इच्छा-परिमाण अर्थात् परिग्रह-परिमाण व्रत के भी पाँच अतिचार बतलाये गये हैं जो विविध पदार्थों की मर्यादा के उल्लंघन से सम्बन्धित हैं। ये अतिचार इस प्रकार हैं : १ क्षेत्र वास्तु-परिमाण-अतिक्रमण, २. हिरण्यसुवर्ण-परिमाण-अतिक्रमण, ३. धनवान्य-परिमाण-अतिक्रमण, Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५४५ में गुमाण व्रत, अणवतों की होती है अविश ४. द्विपदचतुष्पद-परिमाण-अतिक्रमण, ५. कुप्य'-परिमाणअतिक्रमण । मर्यादा से अधिक परिग्रह की प्राप्ति होने पर उसका दानादि सत्कार्यों में उपयोग कर लेना चाहिए। इससे परिग्रह-परिमाण व्रत की आसानी से रक्षा हो सकती है तथा समाजहित के कार्यों को आवश्यक प्रोत्साहन मिल सकता है। गुणवत: अणुव्रतों की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचारशास्त्र में गुणवतों की व्यवस्था की गई है। गुणव्रत तीन हैं : १. दिशापरिमाण व्रत, २. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत, ३. अनर्थदण्डविरमण व्रत । अणुव्रतों की भावनाओं की दृढ़ता के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। इनकी उपस्थिति में अणुव्रतों की रक्षा विशेष सरलता से हो सकती है। १. दिशा-परिमाण-अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियों के निमित्त दिशाओं की मर्यादा निश्चित करना दिशा-परिमाण व्रत है। इस गुणव्रत से इच्छा-परिमाण अथवा परिग्रह-परिमाणरूप पाँचवें अणुव्रत की रक्षा होती है। दिशा-परिमाण व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. ऊर्ध्वदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, २. अधोदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ३. तिर्यदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ४. क्षेत्रवृद्धि, ५. स्मृत्यन्तर्धा । प्रमादवश अथवा अज्ञान के कारण ऊंची दिशा के निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोष का नाम ऊर्ध्वदिशा-परिमाण-अतिक्रमण है। नीची दिशा के परिमाण का १. कुप्य अर्थात् सुवर्ण और चांदी को छोड़कर अन्य धातु आदि के उपकरण । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ येन धर्म-दर्शन उल्लंघन करने पर जो दोष लगता है उसे अधोदिशा- परिमाणअतिक्रमण कहते हैं। ऊंची व नीची दिशाओं के अतिरिक्त पूर्वादि समस्त दिशाओं के परिमाण का उल्लंघन करना तिर्यग्दिशा - परिमाण अतिक्रमण है । एक दिशा के परिमाण का अमुक अंश दूसरी दिशा के परिमाण में मिला देना व इस प्रकार मनमाने ढंग से क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि अतिचार है । सीमा का स्मरण न रहने पर लगने वाले दोष अर्थात् अतिचार का नाम स्मृत्यन्तर्धा है। मैंने सौ योजन की मर्यादा का व्रत ग्रहण किया है या पचास योजन की मर्यादा का ? इस प्रकार का सन्देह होने पर अथवा स्मरण न होने पर पचास योजन से आगे न जाना ही अनुमत है, चाहे वास्तव में मर्यादा सौ योजन की ही क्यों न हो । यदि अज्ञान अथवा विस्मृति से क्षेत्र के परिमाण का उल्लंघन हुआ हो तो वापिस लौट आना चाहिए, मालूम होने पर आगे नहीं जाना चाहिए, न किसी को भेजना ही चाहिए। वैसे ही कोई गया हो तो उसके द्वारा प्राप्त वस्तु का उपयोग भी नहीं करना चाहिए। विस्मृति के कारण खुद गया हो व कोई वस्तु प्राप्त हुई हो तो उसका भी त्याग कर देना चाहिए । २. उपभोगपरिभोग- परिमाण - जो वस्तु एक बार उपयोग में आती है उसे उपभोग कहते हैं। बार-बार काम में आने वाली वस्तु को परिभोग कहा जाता है । उपभोग एवं परिभोग की मर्यादा निश्चित करना उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत है । इस व्रत से अहिंसा एवं संतोष की रक्षा होती है। इससे जीवनमें सरलता एवं सादगी आती है तथा व्यक्ति को महारम्भ, महा परिग्रह तथा महातृष्णा से मुक्ति मिलती है । शास्त्रकारों ने उपभोगपरिभोगसम्बन्धी २६ प्रकार की वस्तुओं की गिनती Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૭ की है। श्रावक को इन वस्तुओं की तथा इनके अतिरिक्त और भी जितनी वस्तुएं उसके काम में आती हों उन सबकी मर्यादानिश्चित कर लेनी चाहिए जिससे उसके जीवन में हमेशा शान्ति एवं संतोष विद्यमान रहे । मर्यादा निश्चित करने में विवेक का विशेष उपयोग करना चाहिए। जिनमें अधिक हिंसा और प्रपंच की सम्भावना हो उन पदार्थों का त्याग करना चाहिए तथा अल्पारम्भ व अल्पप्रपंचयुक्त वस्तुओं का मर्यादापूर्वक सेवन करना चाहिए । उपभोग- परिभोगसम्बन्धी वस्तुओं के २६ प्रकार ये हैं : १. शरीर आदि पोंछने का अंगोछा आदि, २. दाँत साफ करने का मंजन आदि, ३ फल, ४. मालिश के लिए तेल आदि, ५. उबटन के लिए लेप आदि, ६. स्नान के लिए जल, ७. पहनने के वस्त्र, ८. विलेपन के लिए चन्दन आदि, ६. फूल, १०. आभरण, ११. धूप-दीप, १२. पेय, १३. पक्वान्न, १४. ओदन, १५. सूप अर्थात् दाल, १६. घृत आदि विगय, १७. शाक, १८. माधुरक अर्थात् मेवा, १६. जेमन अर्थात् भोजन के पदार्थ, २०. पीने का पानी, २१ मुखवास, २२. वाहन, २३. उपानत् अर्थात् जूता, २४. शय्यासन, २५. सचित्त वस्तु, २६. खाने के अन्य पदार्थं । आचारशास्त्र उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत के भी पांच प्रधान अतिचार हैं : १. सचित्ताहार, २. सचित्त- प्रतिबद्धाहार, ३ . अपक्वाहार, ४. दुष्पक्वाहार, ५. तुच्छौषधिभक्षण। ये अतिचार भोजनसम्बन्धी हैं । जो सचित्त वस्तु मर्यादा के अन्दर नहीं है उसका भूल से आहार करने पर सचित्ताहार दोष लगता है । व्यक्त सचित्त वस्तु से संसक्त अर्थात् लगी हुई अचित्त वस्तु का आहार करने पर सचित्त- प्रतिबद्धाहार दोष लगता है - जैसे वृक्ष से लगा हुआ गोंद, गुठलीसहित आम, पिण्डखजूर आदि खाना । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ जैन धर्म-दर्शन .. सचित्त वस्तु का त्याग होने पर बिना अग्नि के पके आहार का सेवन करने पर अपक्वाहार दोष लगता है। अथवा हरे अर्थात् कच्चे शाक, फल आदि का त्याग होने पर बिना पके फल आदि का सेवन करने पर अपक्वाहार अतिचार लगता है। इसी प्रकार अर्धपक्व आहार का सेवन करने पर दुष्पक्वाहार दोष लगता है। जो वस्तु खाने में कम आए तथा फेंकने में अधिक जाए अर्थात् खाने के लिए ठीक तरह से तैयार न हुई हो ऐसी वस्तु का सेवन करने पर तुच्छौषधिभक्षण अतिचार लगता है । उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत के आराधक को इन अतिचारों से बचना चाहिए। अतिचार-सेवन का प्रसंग उपस्थित होने पर आलोचना एवं प्रतिक्रमणरूप पश्चात्ताप अर्थात् प्रायश्चित्त करना चाहिए। उपभोग एवं परिभोग की वस्तुओं की प्राप्ति के लिए किसीन-किसी प्रकार का कर्म अर्थात् व्यापार-व्यवसाय-उद्योग-धन्धा करना पड़ता है। जिस व्यवसाय में महारम्भ होता हो-स्थूल हिंसा होती हो-अधिक पाप होता हो वह व्यवसाय श्रावक के लिए निषिद्ध है। इस प्रकार के व्यवसायों को कर्मादान कहा गया है । उपासकदशांग में निम्नलिखित १५ कर्मादान - श्रावक के लिए वर्जित किये गये हैं : १. अंगारकर्म, २. वनकर्म, ३. शकटकर्म, ४. भाटककर्म, ५. स्फोटककर्म, ६. दंतवाणिज्य, ७. लाक्षावाणिज्य, ८. रसवाणिज्य, ६. केशवाणिज्य, १०. विषवाणिज्य, ११. यन्त्रपीडनकर्म, १२. निलांछनकर्म, १३. दावाग्निदानकर्म, १४. सरोह्रदतडागशोषणताकर्म, १५. असतीजनपोषणताकर्भ । अंगारकर्म अर्थात् अग्नि-सम्बन्धी व्यापार-जैसे कोयले बनाना, ईंटे पकाना आदि । वनकर्म अर्थात् वनस्पति-सम्बन्धी व्यापार-जसे वृक्ष काटना, घास काटना आदि । शकटकर्म अर्थात् Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ Q वाहनसम्बन्धी व्यापार -- जैसे गाड़ी बनाना आदि । भाटककर्म अर्थात् वाहन किराये पर देना आदि । स्फोटककर्म अर्थात् भूमि फोड़ने का व्यापार - जैसे खानें खुदवाना आदि । दंतवाणिज्य अर्थात् हाथीदांत आदि का व्यापार । लाक्षावाणिज्य अर्थात् लाख आदि का व्यापार । रसवाणिज्य अर्थात् मदिरा आदि का व्यापार । केशवाणिज्य अर्थात् बालों व बालवाले प्राणियों का व्यापार । विषवाणिज्य अर्थात् जहरीली वस्तुओं तथा हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार । यन्त्र- पीडन कर्म अर्थात् मशीन चलाने आदि का धन्धा । निलछिनकर्म अर्थात् प्राणियों के अवयवों को छेदने, काटने आदि का व्यवसाय । दावाग्नि-दानकर्म अर्थात् जंगल, खेत आदि में आग लगाने का कार्य । सरोहृदतडागशोषणताकर्म अर्थात् सरोवर, झील, तालाब आदि को सुखाने का कार्य । असतीजनपोषणताकर्म अर्थात् कुलटा स्त्रियों के पोषण, हिंसक प्राणियों के पालन, समाजविरोधी तत्त्वों के संरक्षण आदि का कार्य । श्रावक के लिए इन सब प्रकार के व्यवसायों व इनसे मिलते-जुलते अन्य प्रकार के कार्यों का निषेध इसलिए किया गया है कि इनके गर्भ में महती हिंसा रही हुई है । प्रकार के हिंसापूर्ण कृत्यों से करुणासम्पन्न श्रावक अपनी आजीविका कैसे चला सकता है ? उपर्युक्त १५ कर्मादानों में से कुछ कर्म ऐसे भी हैं जिन्हें यदि विवेकपूर्वक एवं विशिष्ट साधनों की सहायता से किया जाय तो स्थूल हिंसा का उपार्जन नहीं होता । व्यवसाय कोई भी हो, यदि उसमें दो बातें दृष्टिगोचर हों तो वह श्रावक के लिए आचरणीय है । पहली बात यह है कि उसमें स्थूल हिंसा अर्थात् स जीवों की हिंसा न होती हो अथवा कम-सेकम होती हो । दूसरी बात यह है कि उसके द्वारा किसी व्यक्ति, वर्ग अथवा समाज का शोषण न होता हो अथवा कम-से-कम इस आचारशास्त्र Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५० जैन धर्म-दर्शन होता हो । इस प्रकार का शोषण प्रत्यक्षत: हिंसा भले ही न हो किन्तु परोक्षत: हिंसा ही है। इस प्रकार की हिंसा कभी-कभी साधारण स्थूल हिंसा से भी भारी हो जाती है। कौन-सा व्यवसाय श्रावक के करने योग्य है और कौन-सा करने योग्य नहीं है, इसका निर्णय मुख्यतः इन दो दृष्टियों से ही करना चाहिए । ३. अनर्थदण्ड- विरमण - अपने अथवा अपने कुटुम्ब के जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य सावद्य अर्थात् हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्ड विरमण व्रत है । इस गुणव्रत से प्रधानतया अहिंसा एवं अपरिग्रह का पोषण होता है । अनर्थदण्ड - विरमण व्रतधारी श्रावक निरर्थक किसी की हिंसा नहीं करता और न निरर्थक वस्तु का संग्रह ही करता है क्योंकि इस प्रकार के संग्रह से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है । अनर्थदण्ड अर्थात् निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ चार प्रकार की बताई गई हैं : अपध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिंसाप्रदान और पापकर्मोपदेश । अपध्यान अर्थात् कुध्यान | ध्यान के चार प्रकार हैं : आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान व शुक्लध्यान । इनमें से प्रथम दो ध्यान अशुभ ध्यान - कुध्यान हैं तथा बाद के दो ध्यान शुभ ध्यान - सुध्यान हैं । आर्तध्यान चार प्रकार का है : इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, रोगचिन्ता और निदान । प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए शोकाकुल रहना इष्टवियोग-आर्तध्यान है । अप्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए व्याकुल रहना अनिष्टसंयोग - आर्तध्यान है । शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा दूर करने की व्याकुलता को रोगचिन्ता - आर्तध्यान कहते हैं । अप्राप्त विषयों को प्राप्त करने it कामना से तीव्र संकल्प करना निदान - आर्तध्यान है । रौद्र . Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ध्यान अर्थात् क्रूरतापूर्ण चिन्तन । जिसका मन क्रूर होता है वह रुद्र कहलाता है। रुद्र व्यक्ति का ध्यान रौद्रध्यान है। हिंसा, असत्य, चोरी आदि से सम्बन्धित चिन्तन रौद्रध्यान के अन्तर्गत है क्योंकि उसमें क्रोध, ईर्ष्या, कपट, लोभ, अहंकार आदि क्रूर वृत्तियों की विद्यमानता होती है। आर्तध्यान व रौद्रध्यान का सेवन ही अपध्यानाचरण है। प्रमादाचरण अर्थात् आलस्य का सेवन । शुभ प्रवृत्ति में आलस्य रखना अर्थात् शुभ प्रवृत्ति करना ही नहीं अथवा असावधानीपूर्वक शुभ प्रवृत्ति करना प्रमादाचरण है। इसका विधेयात्मक रूप अशुभ कार्यों में उद्यमशील रहना है । हिंसाप्रदान का अर्थ है किसी को हिंसक साधन-जैसे अस्त्र-शस्त्र, विष आदि देकर हिंसक कृत्यों में सहायक होना । जिस उपदेश से सुनने वाला पापकर्म में प्रवृत्त हो वैसा उपदेश देना पापकर्मोपदेश कहलाता है। जैसे हिंसा से विरत व्यक्ति किसी को हिंसक साधन देकर हिंसक कृत्यों में सहायक नहीं होता उसी प्रकार पापकर्म से' निवृत्त व्यक्ति किसी को पापकर्म का उपदेश देकर पापपूर्ण कृत्यों में सहायक नहीं बनता । इस प्रकार अपध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिंसाप्रदान व पापकर्मोपदेश तथा इसी प्रकार की अन्य निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्डविरमणव्रती के लिए आवश्यक है । अन्य व्रतों की भांति अनर्थदण्ड-विरमण व्रत के भी पाँच प्रधान अतिचार हैं : १. कन्दर्प, २. कौत्कुच्य, ३. मौखर्य, ४. संयुक्ताधिकरण, ५. उपभोगपरिभोगातिरिक्त । विकारवर्धक वचन बोलना या सुनना कन्दर्प है। विस्तारवर्धक चेष्टाएं करना या देखना कौत्कुच्य है। असम्बद्ध . एवं अनावश्यक वचन बोलना मौखर्य है। जिन उपकरणों के संयोग से हिंसा की संभावना बढ़ जाती हो उन्हें संयुक्त कर रखना संयुक्ताधिकरण है । उदाहरण के लिए बन्दूक के साथ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ न धर्म-दर्शन कारतूस, धनुष के साथ तीर संयुक्त कर रखना । आवश्यकता से अधिक उपभोग एवं परिभोग की सामग्री संग्रह करना उपभोगपरिभोगातिरिक्त है । ये सब अतिचार निरर्थक हिंसा का पोषण करने वाले हैं अतः श्रमणोपासक को इनसे बचना चाहिए। शिक्षावत : शिक्षा का अर्थ है अभ्यास । जिस प्रकार विद्यार्थी पुनः पुनः विद्या का अभ्यास करता है उसी प्रकार श्रावक को कुछ व्रतों का पुन:-पुनः अभ्यास करना पड़ता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है । अणुव्रत एवं गुणव्रत एक ही बार ग्रहण किये जाते हैं जबकि शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण किये जाते हैं । दूसरे शब्दों में, अणुव्रत एवं गुणवत जीवनभर के लिए होते हैं जबकि शिक्षाव्रत अमुक समय के लिए ही होते हैं । शिक्षाव्रत चार हैं : १ सामायिक व्रत, २. देशावकाशिक व्रत, ३ पौषधोपवास व्रत, ४. अतिथिसंविभाग व्रत । १. सामायिक-'सामायिक पद के मूल में 'समाय' शब्द है। समाय शब्द 'सम' और 'आय' के संयोग से बनता है। सम का अर्थ है समता अथवा समभाव और आय का अर्थ है लाभ अथवा प्राप्ति । इन दोनों अर्थों को मिलाने से समाय का अर्थ होता है समभाव का लाभ अथवा समता की प्राप्ति । समायसम्बन्धी भाव अथवा क्रिया को सामायिक कहते हैं । इस प्रकार सामायिक आत्मा का वह भाव अथवा शरीर की वह क्रियाविशेष है जिससे मनुष्य को समभाव की प्राप्ति होती है । दूसरे शब्दों में. जो त्रस और स्थावर सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है वह सामायिक का आराधक होता है। सामायिक के Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५५३ लिए मानसिक स्वस्थता और शारीरिक शुद्धि दोनों आवश्यक हैं। शरीर स्वस्थ, शुद्ध एवं स्थिर हो किन्तु मन अस्वस्थ, अशुद्ध एवं अस्थिर हो तो सामायिक की साधना नहीं की जा सकती। इसी प्रकार मन स्वस्थ, शुद्ध तथा स्थिर हो किन्तु शारीरिक स्वस्थता, शुद्धता तथा स्थिरता का अभाव हो तो भी सामायिक की निविघ्न आराधना नहीं की जा सकती। सामायिक करने वाले के मन, वचन और कर्म तीनों पवित्र होते हैं। मन, वचन और कर्म में सावधता अर्थात् दोष न रहे, यही सामायिक का प्रयोजन है । इसीलिए सामायिक में सावद्ययोग अर्थात् दोषयुक्त प्रवृत्ति का त्याग एवं निरवद्य योग अर्थात् दोषरहित प्रवृत्ति का आंचरण करना होता है। अमुक समय तक सामायिक व्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति क्रमशः अपने सम्पूर्ण जीवन में समता का विकास करता है । धीरे-धीरे समभाव का अभ्यास करते-करते वह पूरे जीवन को समतामय बना लेता है । जब तक समता जीवनव्यापी नहीं हो जाती तब तक उसका अभ्यास चलता रहता है । यही सामायिक व्रत का यथार्थ आराधना है । निम्नलिखित पाँच अतिचारों से सामायिक व्रत दूषित होता है : १. मनोदुष्प्रणिधान, २. वाग्दुष्प्रणिधान, ३. कायदुष्प्रणिधान, ४. स्मृत्यकरण, ५. अनवस्थितकरण । मन से सावध भावों का अनुचिन्तन करना मनोदुष्प्रणिधान है। वाणी से सावध वचन बोलना वाग्दुष्प्रणिधान है । शरीर से सावध क्रिया करना कायदुष्प्रणिधान है। सामायिक की स्मृति न रखना अर्थात् सामायिक करनी है या नहीं, सामायिक की है या नहीं, सामायिक पूरी हुई हैं या नहीं-इत्यादि विषयक स्मृति न होना स्मृत्यकरण है । यथावस्थित सामायिक न करना, समय पूरा हुए बिना ही सामायिक पूरी कर लेना अनवस्थितकरण है। : Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ जैन धर्म-दर्शन २. देशावकाशिक-दिशापरिमाण व्रत में जीवन भर के लिए मर्यादित दिशाओं के परिमाण में कुछ घण्टों अथवा दिनों के लिए विशेष मर्यादा निश्चित करना अर्थात् विशेष कमी करना देशावकाशिक व्रत है। देश अर्थात् क्षेत्र का एक अंश और अवकाश अर्थात स्थान । चूकि इस व्रत में जीवनपर्यन्त के लिए गृहीत दिशापरिमाण अर्थात् क्षेत्रमर्यादा के एक अंशरूप स्थान की कुछ समय के लिए विशेष सीमा निर्धारित की जाती है इसलिए इसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं । यह व्रत क्षेत्रमर्यादा को संकुचित करने के साथ ही उपलक्षण से उपभोग-परिभोगादिरूप अन्य मर्यादाओं को भी संकुचित करता है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर न जाना, बाहर से किसी को न बुलाना, न बाहर किसी को भेजना और न बाहर से कोई वस्तु मंगवाना, बाहर क्रय-विक्रय न करना आदि प्रस्तुत व्रत के लक्षण हैं। देशावकाशिक व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. आनयनप्रयोग, २. प्रेषणप्रयोग, ३. शब्दानुपात, ४. रूपानुपात, ५. पुद्गलप्रक्षेप । मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु लाना, मंगवाना आदि आनयनप्रयोग है । मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना, लेजाना आदि प्रेषणप्रयोग है। किसी को निर्धारित क्षेत्र से बाहर खड़ा देख कर खाँसी आदि शब्दसंकेतों द्वारा उसे बुलाने आदि की चेष्टा करना शब्दानुपात है । सीमित क्षेत्र से बाहर रहे हुए लोगों को बुलाने आदि की चेष्टा से हाथ, मुंह, सिर आदि का इशारा करना अर्थात् रूपसंकेतों का प्रयोग करना रूपानुपात है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर रहे हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए कंकड़, कागज आदि फेंकना पुदगलप्रक्षेप है। ३. पौषधोपवास-विशेष नियमपूर्वक उपवास करना अर्थात् Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५५५ जमाए आत्मचिन्तन के निमित्त सर्व सावधक्रिया का त्याग कर शान्तिपूर्ण स्थान में बैठकर उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना पौषधोपवास है। इस व्रत में उपवास का मुख्य प्रयोजन आत्मतत्त्व का पोषण होता है अतः इसे पौषधोपवास व्रत कहते हैं। आत्मपोषण के निमित्त पौषधोपवास को अंगीकार करने वाला श्रावक भौतिक प्रलोभनों से दूर रहता है, भौतिक आपत्तियों से व्याकुल अथवा विचलित भी नहीं होता । इस व्रत में स्थित साधक श्रमणवत् साधनारत होता है। वह आहार के परित्याग के साथ ही साथ उपलक्षण से शरीरसत्कार अर्थात् शारीरिक शृंगार, अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन एवं सावध व्यापार अर्थात् हिंसक क्रिया का भी त्याग करता है। . पौषधोपवास व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक, २. अप्रमाजितदुष्प्रमाजित शय्यासंस्तारक, ३ अप्रतिलेखित-दुष्प्रति लेखित उच्चारप्रस्रवणभूमि, ४. अप्रमाजित-दुष्प्राजितम उच्चारप्रस्रवणभूमि, ५. पौषधोपवास-सम्यगननुपालनता। शय्या अर्थात् वसति-मकान और संस्तारक अर्थात् बिछौनाकंबलादि का प्रतिलेखन अर्थात् प्रत्यवेक्षण-निरीक्षण बिलकुल न करना अथवा ठीक ढंग से न करना अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक अतिचार है। शय्या व संस्तारक को प्रमाजित किये बिना अर्थात् पोछे बिना-साफ किये बिना अथवा बिना अच्छी तरह साफ किये काम में लेना अप्रमाजित-दुष्प्रमाजित शय्यासंस्तारक अतिवार है। इसी प्रकार मलमूत्र की भूमि का बिना देखे अथवा अच्छी तरह न देखकर उपयोग करना अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चार-प्रस्रवणभूमि अतिचार है तथा साफ किये बिना अथवा बिना अच्छी तरह साफ किये Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ जैन धर्म-दर्शन उपयोग करना अप्रमार्जित-दुष्प्रमाजित उच्चारप्रस्रवणभूमि अतिचार है। पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन न करना अर्थात् आत्मपोषक तत्त्वों का भलीभाँति सेवन न करना पौषधोपवास-सम्यगननुपालनता अतिचार है । इन सब अतिचारों से दूर रहने वाला श्रावक पौषधोपवास व्रत की यथार्थ आराधना कर सकता है । प्रथम चार अतिचारों में अनिरीक्षण अथवा दुनिरीक्षण एवं अप्रमार्जन अथवा कुप्रमार्जन के कारण हिंसादोष की संभावना रहती है-जीवजन्तु का हनन होने की शक्यता रहती है। ४. अतिथिसंविभाग-यथासिद्ध अर्थात् अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना यथासंविभाग अथवा अतिथिसंविभाग कहलाता है। जैसे श्रावक अपनी आय को अपने तथा कुटुम्ब के लिए व्यय करना अपना कर्तव्य समझता है वैसे ही वह अतिथि आदि के निमित्त अपनी आय का अमुक भाग सहजतया व्यय करना भी अपना कर्तव्य मानता है। यह कार्य वह किसी स्वार्थ के कारण नहीं करता अपितु विशुद्ध परमार्थ की भावना से करता है। इसलिए उसका यह त्याग उत्कृष्ट कोटि में आता है। जिसके आने-जाने की कोई तिथि अर्थात दिन निश्चित न हो उसे अतिथि कहते हैं। जो घूमता-फिरता कभी भी कहीं पहुंच जाय वह अतिथि है । उसका कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता, जाने-आने के निश्चित स्थान नहीं होते । इतना ही नहीं, उसका भोजन आदि ग्रहण करने का भी कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता। उसे जहाँ जिस समय जैसी भी उपयुक्त सामग्री उपलब्ध हो जाती है वहाँ उस समय उसी से सन्तोष प्राप्त कर लेता है । निर्ग्रन्थ श्रमण को इसी प्रकार का अतिथि कहा गया है। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५५७ आध्यात्मिक साधना के लिए जिसने गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म स्वीकार किया है उस भ्रमणशील पदयात्री निर्ग्रन्थ श्रमण भिक्षुक को न्यायोपार्जित निर्दोष वस्तुओं का निःस्वार्थभाव से श्रद्धापूर्वक दान देना उत्कृष्ट कोटि का अतिथिसंविभाग व्रत है। जिस प्रकार निर्ग्रन्थ अतिथि को दान देना श्रमणोपासक का कर्तव्य है उसी प्रकार निःस्वार्थ भाव से अन्य अतिथियों अथवा व्यक्तियों की समुचित मदद करना, दीन-दुःखियों की यथोचित सहायता करना भी श्रावक का धर्म है। इससे करुणावृत्ति का पोषण होता है जो अहिंसाधर्म के उपयुक्त विकास एवं प्रसार के लिए आवश्यक है। ___अतिथिसंविभाग वत के निम्नलिखित पांच अतिचार बताये गये हैं जो मुख्यतया आहार से सम्बन्धित हैं : १. सचित्तनिक्षेप, २. सचित्तपिधान, ३. कालातिक्रम, ४. परव्यपदेश, ५. मात्सर्य । न देने की भावना से अर्थात् कपटपूर्वक साधु को देने योग्य आहारादि को सचित्त--सचेतन वनस्पति आदि पर रखना सचित्त. निक्षेप है क्योंकि निर्ग्रन्थ श्रमण ऐसा आहारादि ग्रहण नहीं करते। इसी प्रकार आहारादि को सचित्त वस्तु से ढकना सचित्तपिधान है। अतिथि को कुछ न देना पड़े, इस भावना से अर्थात् कपटपूर्वक भिक्षा के उचित समय से पूर्व अथवा पश्चात् भिक्षुक से आहारादि ग्रहण करने की प्रार्थना करना कालातिक्रम अतिचार है। न देने की भावना से अपनी वस्तु को परायी कहना अथवा परायी वस्तु देकर अपनी वस्तु बचा लेना अथवा अपनी वस्तु स्वयं न देकर दूसरे से दिलवाना परव्यपदेश है। सहजभाव से अर्थात् श्रद्धापूर्वक दान न देते हुए दूसरे के दानगुण की ईर्ष्या से दान देना मात्सर्य अतिचार है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ जैन धर्म-दर्शन संलेखना : जीवन के अन्तिम समय में अर्थात् मृत्यु आने के समय तपविशेष की आराधना करना संलेखना कहलाता है । इसे शास्त्रीय परिभाषा में अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना कहते हैं। अ. श्चिम का अर्थ है जिसके पीछे कोई दूसरा नहीं है अर्थात् सबसे अन्तिम । मारणान्तिक का अर्थ है मृत्युरूप अन्त में होने वाली। संलेखना का अर्थ है जिसके द्वारा कषायादि कृश हों वैसी सम्यक् आलोचनायुक्त तपस्या । इस प्रकार अपश्चिम-मारणान्तिक-संलेखना का अर्थ होता है मरणान्त के समय अपने भूतकालीन समस्त कृत्यों की सम्यक् आलोचना करके शरीर व कषायादि को कृश करने के निमित्त की जानेवाली सबसे अन्तिम तपस्या । इसका सीधे शब्दों में अर्थ होता है अन्तिम समय में आहारादि का त्याग कर (पहले अन्न व बाद में जल अथवा दोनों एक साथ छोड़कर) समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करना । इस दृष्टि से संलेखना प्राणान्त अनशन है। संलेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु को जैन आचारशास्त्र में समाधिमरण व पण्डितमरण कहा गया है। इसे संथारा भी कहा जाता है। समाधिमरण व पंडितमरण का अर्थ होता है स्वस्थ चित्तपूर्वक व विवेकयुक्त प्राप्त होने वाली मृत्यु । संयार अर्थात् संस्तारक का अर्थ होता है बिछौना। चूकि संलेखना में व्यक्ति संस्तारक ग्रहण करता है अर्थात् आहारादि का त्याग कर बिछौना बिछा कर शान्त चित्त से एक स्थान पर लेटा रहता है इसलिए इसे संथारा कहते हैं। जब व्यक्ति का शरीर इतना निर्बल हो जाता है कि वह संयम अर्थात् आचार के पालन के लिए सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध होता है तब उससे मुक्त होना ही साधक के लिए श्रेयस्कर होता है। दूसरे शब्दों में, जब शरीर किसी national Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र 8 काम का न रह कर केवल भारभूत हो जाता है तब उससे मुक्ति पाना ही श्रेष्ठ होता है । ऐसी अवस्था में बिना किसी प्रकार का क्रोध किये प्रशान्त एवं प्रसन्न चित्त से आहारादि का त्याग कर आत्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना संलेखना व्रत का महान् उद्देश्य है । अथवा अन्य प्रकार से मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर निर्विकार चित्तवृत्ति से देह का त्याग करना भी संलेखना है । श्रावक व श्रमण दोनों के लिए संलेखना व्रत का विधान है। इसे व्रत न कह कर व्रतान्त कहना ही अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि इसमें समस्त व्रतों का अन्त रहा हुआ है । इसमें जैसे शरीर का प्रशस्त अन्त अभीष्ट है वैसे ही व्रतों का भी पवित्र अन्त वांछित है । 1 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संलेखना अथवा संथारा आत्मघात नहीं है । आत्मघात के मूल में अतिशय क्रोधादि कषाय विद्यमान होते हैं जबकि संलेखना के मूल में कषायों का सर्वथा अभाव होता है । आत्मघात चित्त की अशान्ति एवं अप्रसन्नता का द्योतक है जबकि संलेखना चित्त की प्रसन्नता एवं शान्ति की सूचक है । आत्मघात में मानसिक असन्तुलन की परिसीमा होती है जबकि संलेखना में समभाव का उत्कर्ष होता है । आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है जबकि संलेखना निर्विकार चित्तवृत्ति का फल है । संलेखना जीवन के अन्तिम समय में अर्थात् शरीर की अत्यधिक निर्बलता - अनुपयुक्तता - भारभूतता की स्थिति में अथवा अन्यथा मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर की जाती है जबकि आत्मघात किसी भी समय पर किया जा सकता है । संलेखनापूर्वक होने वाली निष्कषायमरण, समाधिमरण एवं पण्डितमरण है जबकि आत्महत्या सकषायमरण, बालमरण एवं अज्ञानमरण है । संलेखना मृत्यु Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैन धर्म-दर्शन आध्यात्मिक वीरता-निर्भीकता है जबकि आत्महत्या निराशामय कायरता-भीरता है। द्वादश व्रतों की ही भाँति संलेखना के भी मुख्य पाँच अतिचार बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं : १. इहलोकाशंसाप्रयोग, २. परलोकाशंसाप्रयोग, ३. जीविताशंसाप्रयोग, ४. मरणाशंमाप्रयोग, ५. कामभोगाशंसाप्रयोग । इहलोक अर्थात् मनुष्यलोक, आशंसा अर्थात् अभिलाषा, प्रयोग अर्थात् प्रवृत्ति । इहलोकाशंसाप्रयोग अर्थात् मनुष्यलोकविषयक अभिलाषारूप प्रवृत्ति । संलेखना के समय इस प्रकार की इच्छा करना कि आगामी भव में इसी लोक में धन, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त हो-इहलोकाशंसाप्रयोग अतिचार है । इसी प्रकार परलोक में देव आदि बनने की इच्छा करना परलोकाशंसाप्रयोग अतिचार है। अपनी प्रशंसा, पूजा-सत्कार आदि होता देखकर अधिक काल तक जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसाप्रयोग अतिचार है । सत्कार आदि न होता देख कर अथवा कष्ट आदि से घबराकर शीघ्र मृत्यु प्राप्त करने की इच्छा करना मरणाशंसाप्रयोग अतिचार है। आगामी जन्म में मनुष्यसम्बन्धी अथवा देवसम्बन्धी कामभोग प्राप्त करने की इच्छा कामभोगाशंसाप्रयोग अतिचार है। मारणान्तिकी संलेखना की आराधना करनेवाले को इन व इस प्रकार के अन्य अतिचारों से बचना चाहिए। प्रतिमाएँ: प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञाविशेष, नियमविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष । श्रावक के लिए ग्यारह प्रतिमाओं का विधान किया गया हैं। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ प्रथम प्रतिमा में सम्यग्दृष्टि अर्थात् आस्तिक दृष्टि प्राप्त होती है । इसमें सर्वधर्मविषयक रुचि अर्थात् सर्वगुणविषयक प्रीति होती है । दृष्टि दोषों की ओर न जाकर गुणों की ओर जाती है। यह प्रतिमा दर्शनशुद्धि अर्थात् दृष्टि की विशुद्धताश्रद्धा की सचाई से सम्बन्ध रखती है । इसमें गुणविषयक रुचि की विद्यमानता होते हुए भी शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि की सम्यक् आराधना नहीं होती। इसका नाम दर्शनप्रतिमा है। आचारशास्त्र द्वितीय प्रतिमा का नाम व्रतप्रतिमा है। इसमें शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि तो सम्यक्तया धारण किये जाते हैं किन्तु सामायिक व्रत एवं देशावकाशिक व्रत का सम्यक् पालन नहीं होता । तृतीय प्रतिमा का नाम सामायिकप्रतिमा है। इसमें सामायिक एवं देशावकाशिक व्रतों की सम्यक् आराधना होते हुए भी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि के दिनों में पौषधोपवास व्रत का सम्यक् पालन नहीं होता । चतुर्थ प्रतिमा में स्थित श्रावक चतुर्दशी आदि के दिनों में प्रतिपूर्ण पौषध व्रत का सम्यक्तया पालन करता है । इसका नाम पौषधप्रतिमा है । पाँचवीं प्रतिमा का नाम है नियमप्रतिमा । इसमें स्थित श्रमणोपासक निम्नोक्त पाँच नियमों का विशेष रूप से पालन करता है : १. स्नान नहीं करना, २ . रात्रिभोजन नहीं करना, ३. धोती की लांग नहीं लगाना, ४ दिन में ब्रह्मचारी रहना एवं रात्रि में मैथुन की मर्यादा करना ५ एकरात्रिकी प्रतिमा ३६ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जैन धर्म-दर्शन का पालन करना अर्थात् महीने में कम से कम एक रात कायोत्सर्ग अवस्था में ध्यानपूर्वक व्यतीत करना । छठी प्रतिमा का नाम ब्रह्मचर्यप्रतिमा है क्योंकि इसमें श्रावक दिन की भाँति रात्रि में भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है । इस प्रतिमा में सर्व प्रकार के सचित्त आहार का परित्याग नहीं होता । सातवीं प्रतिमा में सभी प्रकार के सचित्त आहार का परित्याग कर दिया जाता है किन्तु आरम्भ (कृषि, व्यापार आदि में होने वाली अल्प हिंसा) का त्याग नहीं किया जाता । इस प्रतिमा का नाम है सचित्तत्यागप्रतिमा । आठवीं प्रतिमा का नाम आरम्भत्यागप्रतिमा है । इसमें उपासक स्वयं तो आरंभ करने का त्याग कर देता है किन्तु दूसरों से आरंभ करवाने का त्याग नहीं करता । नवीं प्रतिमा धारण करनेवाला श्रावक आरंभ करवाने का भी त्याग कर देता है । इस अवस्था में वह उद्दिष्ट भक्त अर्थात् अपने निमित्त से बने हुए भोजन का त्याग नहीं करता । इस प्रतिमा का नाम प्रेष्यपरित्यागप्रतिमा है क्योंकि इसमें आरंभ के निमित्त किसी को कहीं भेजने भिजवाने का त्याग होता है । आरंभवर्धक परिग्रह का त्याग होने के कारण इसे परिग्रहत्यागप्रतिमा भी कहते हैं । दसवीं प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग कर दिया जाता है । इस प्रतिमा में स्थित श्रमणोपासक उस्तरे से मुण्डित होता हुआ शिखा धारण करता है अर्थात् सिर को एकदम साफ न कराता हुआ चोटी जितने बाल सिर पर रखता है । दसवीं Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५६३ प्रतिमा धारण करने वाले गृहस्थ को जब कोई एक बार अथवा अनेक बार बुलाता है या एक अथवा अनेक प्रश्न पूछता है तब वह दो ही उत्तर देता है। जानने पर कहता है कि मैं यह जानता हूं। न जानने की स्थिति में कहता है कि मुझे यह मालूम नहीं। चूकि इस प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का त्याग अभिप्रेत होता है अतः इसका नाम उद्दिष्टभक्तत्यागप्रतिमा है। ___ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम श्रमणभूतप्रतिमा है। श्रमणभूत का अर्थ होता है श्रमण के सदृश । जो गृहस्थ होते हुए भी साधु के समान आचरण करता है अर्थात् श्रावक होते हुए भी श्रमण के समान क्रिया करता है वह श्रमणभूत कहलाता है। श्रमणभूतप्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक बालों का उस्तरे से मुण्डन करवाता है अथवा हाथ से लुंचन करता है । इस प्रतिमा में चोटी नहीं रखी जाती। वेष, भाण्डोपकरण एवं आचरण श्रमण के ही समान होता है। श्रमणभूत श्रावक मुनिवेष में अनगारवत् आचार-धर्म का पालन करता हुआ जीवन यापन करता है। सम्बन्धियों व जाति के लोगों के साथ यत्किंचित् स्नेहबन्धन होने के कारण उन्हीं के यहाँ से अर्थात् परिचिव घरों से ही भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा लेते समय वह इस बात का ध्यान रखता है कि दाता के यहाँ उसके पहुंचने के पूर्व जो वस्तु बन चुकी होती है वही ग्रहण करता है, अन्य नहीं। यदि उसके पहुंचने के पूर्व चावल पक चुके हों और दाल न पकी हो तो वह चावल ले लेगा, दाल नहीं। इसी प्रकार यदि दाल पक चुकी हो और चावल न पके हों तो वह दाल ले लेगा, चावल नहीं। पहुंचने के पूर्व दोनों चीजें बन चुकी हों तो दोनों ले सकता है और एक भी न बनी हो तो एक भी नहीं ले सकता। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जैन धर्म-पन प्रतिमाएं तपःसाधना की क्रमशः बढ़ती हुई अवस्थाएं हैं अतः उत्तर-उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वतः समाविष्ट होते जाते हैं। जब श्रावक ग्यारहवीं अर्थात् अन्तिम प्रतिमा की आराधना करता है तब उसमें प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की समस्त प्रतिमाओं के गुण रहते हैं। उसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार चाहे वह मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण कर सकता है, चाहे उसी प्रतिमा को धारण किये रह सकता है। श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा-सम्मत उपासक-प्रतिमाओं के क्रम तथा नामों में नगण्य अन्तर है। श्वेताम्बर-परम्परा में एकादश उपासक-प्रतिमाओं के नाम क्रमानुसार इस प्रकार मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. नियम, ६. ब्रह्मचर्य, ७. सचित्तत्याग, ८. आरम्भत्याग, ६. प्रेष्यपरित्याग अथवा परिग्रहत्याग, १०. उद्दिष्ट मक्तत्याग, ११. श्रमणभूत । दिगम्बर-परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम इस क्रम से मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. सचित्तत्याग, ६. रात्रिभुक्तित्याग, ७. ब्रह्मचर्य, ८. आरम्भत्याग, ६. परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग, ११. उद्दिष्टत्याग। उद्दिष्ट त्याग के . दो भेद होते हैं जिनके लिए क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक शब्दों का प्रयोग होता है। ये श्रावक की उत्कृष्ट अवस्याएं होती हैं। श्वेताम्बर व दिगम्बर-सम्मत प्रथम चार नामों में कोई अन्तर नहीं है। सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर-परम्परा में पाचवा है जबकि श्वेताम्बर-परम्परा में सातवां है। दिगम्बराभिमत रात्रिभुक्तित्याग श्वेताम्बराभिमत पांचवीं प्रतिमा नियम के अन्तर्गत समाविष्ट है। ब्रह्मचर्य का क्रम श्वेताम्बर-परम्परा में छठा है जबकि दिगम्बर-परम्परा में सातवाँ है। दिगम्बरसम्मत अनुमतित्याग श्वेताम्बरसम्मत में पाचवां नहीं है। सचितसम्मत प्रथम चावस्याएं होती : Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारशास्त्र ५६५ उद्दिष्टभक्तत्याग के ही अन्तर्गत समाविष्ट है क्योंकि इसमें श्रावक उद्दिष्टभक्त ग्रहण न करने के साथ ही किसी प्रकार के आरम्भ का समर्थन भी नहीं करता। श्वेताम्बराभिमत श्रमणभूतप्रतिमा ही दिगम्बराभिमत उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है क्योंकि इन दोनों में श्रावक का आचरण भिक्षुवत् होता है। क्षुल्लक व ऐलक श्रमण के ही समान होते हैं। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सूची अनुयोगद्वार अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका-हेमचन्द्र अष्टसहस्री-विद्यानन्द आचारांग आत्ममीमांसा-दलसुख मालवणिया आप्तमीमांसा-समन्तभद्र आवश्यकनियुक्ति-भद्रबाहु ईशोपनिषद् उत्तराध्ययन ऋग्वेद कठोपनिषद् कर्मग्रन्थ, भाग १-५-देवेन्द्रसूरि . कर्मग्रन्थ, भाग ६-चन्द्रषि महत्तर कर्मग्रन्थ सार्थ-जीवविजय कर्मविपाक-सुखलाल संघवी कल्पसूत्र गोम्मटसार-नेमिचन्द्र छान्दोग्योपनिषद् जैन आचार-मोहनलाल मेहता जैनतर्कभाषा-यशोविजय जैन दर्शन-मोहनलाल मेहता जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन-दलसुख मालमिया जैनधर्म का प्राण-मुखलाल संघको Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १-४ ज्ञानबिन्दुप्रकरण-यथोविजय शानार्णव-शुभ चन्द्र तत्त्वत्रय-लोकाचार्य तत्त्वसंग्रह-शान्तरक्षित तत्वार्थ-भाष्य-उमास्वाति तस्वार्थ-भाष्य-वत्ति-सिद्धसेनगणि तत्त्वार्थ राजवातिक-अकलंक तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक-विद्यानन्द तत्त्वार्थसार-अमृतचन्द्र तत्त्वार्थसूत्र-उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र-विवेचन-सुखलाल संघवी तर्कसंग्रह-अन्नं भट्ट त्रिशिका-वसुबन्धु दशवकालिक-नियुक्ति-भद्रबाहु दशवकालिक-वृत्ति-हरिभद्र दीघनिकाय द्रव्यसंग्रह-नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह-वृत्ति-ब्रह्मदेव धवला (षट्खण्डागम-टीका)-वीरसेन ध्यानशतक-जिनभद्र नन्दीसूत्र नन्दीसूत्र-वृत्ति-हरिभद्र नन्दीसूत्र-वृत्ति-मलयगिरि । नयकणिका-विनयविजय नयप्रकाशस्तव-वृत्ति-पद्मसागर Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार - कुन्दकुन्द न्यायकन्दली - श्रीधर न्यायबिन्दु - धर्मकीर्ति न्यायबिन्दु टीका - धर्मोत्तर न्यायभाष्य - वास्स्यायन न्यायमंजरी - जयन्त न्यायवार्तिक- उद्योतकर ( ५६९ ) न्यायसूत्र - गौतम न्यायावतार - सिद्धमेन न्यायावतार-वार्तिक-वृत्ति-शास्याचार्य परीक्षामुख - माणिक्यनन्दी पातञ्जल योगदर्शन पंचसंग्रह - चन्द्र महत्तर पंचास्तिकायसार -कुन्दकुन्द प्रज्ञापना प्रमाणनयतत्वालोक - वादिदेवसूरि प्रमाणमीमांसा - हेमचन्द्र प्रमाणवार्तिक— धर्मकीर्ति प्रमेयकमलमार्तण्ड - प्रभाचन्द्र प्रवचनसार -- कुन्दकन्द प्रवचनसारोद्धार – नेमिचन्द्रसूरि - प्रशस्तपादभाष्य - प्रशस्तपाद प्राकृत-व्याकरण - हेमचन्द्र बुद्धचरित - अश्वघोष बौद्ध दर्शन और वेदान्त - चन्द्रधर शर्मा भगवतीसूत्र Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवद्गीता भारतीय दर्शन - उमेश मिश्र मज्झिमनिकाय महाभाष्य - पतंजलि माध्यमिककारिका नागार्जुन मुक्तावली - विश्वनाथ मुण्डकोपनिषद् योगसूत्र - पतंजलि रत्नाकरावतारिका (प्रमाणनयतत्वालोक - टीका ) - रत्नप्रभ राजप्रश्नीय लघीयस्त्रय - अकलंक लीस्त्रय - टीका - अकलंक लंकावतारसूत्र विशुद्धिमार्ग ( ५७० ) विशेषावश्यकभाष्य - जिनभद्र विंशतिका - वसुबन्धु वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली - प्रकाशानन्द वैशेषिकसूत्र - कणाद शाङ्करभाष्य (शारीरकभाष्य ) - शंकराचार्य शाबरभाष्य- शबरस्वामी शान्तिपर्व (महाभारत) शास्त्र वार्तासमुच्चय - हरिभद्र श्रमण (मासिक) श्रीभाष्य - रामानुज श्लोकवार्तिक - कुमारिल श्वेताश्वतरोपनिषद् Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७१ ) षड्दर्शनसमुच्चय-हरिभद्र सन्मतितर्क --सिद्धसेन समयसार-कुन्दकुन्द समवायांग सर्वदर्शनसंग्रह-माधवाचार्य सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपाद संयुत्तनिकाय सांख्यकारिका-ईश्वरकृष्ण सांख्यतत्त्वकौमुदी-वाचस्पति मिश्र सांख्यप्रवचन-भाष्य-विज्ञानभिक्षु सांख्यप्रवचन-सूत्र-कपिल सांख्यसूत्र-वृत्ति-अनिरुद्ध सिद्धहेम-हेमचन्द्र सूत्रकृतांग स्थानांग स्याद्वादमंजरी-मल्लिषेण स्याद्वादरत्नाकर-वादिदेवसूरि Cosmology : Old and New--G. R. Jain -Critical History of Greek Philosophy-Stace Doctrine of Karman in Jain Philosophy -Glasenapp History of Philosophy--Thilly History of Western Philosophy-Russell Indian Philosophy-C. D. Sharma Jaina Philosophy-M. L. Mehta Jaina Philosophy of Non-Absolutism -S. K. Mookerjee Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७२ ) Jaina Psychology-M. L. Mehta Life and Philosophy in Contemporary British Philosophy-Bosanquet Outlines of Karma in Jainism-M. L. Mehta Principles of Philosophy-H. M. Bhattacharya Problems of Philosophy-Russell Prolegomena to an Idealistic Theory of Knowledge-N. K. Smith Sacred Books of the East, Vol. XXII Studies in Jaina Philosophy-N. M. Tatia Varieties of Religious Experience -William James Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अंकुशा अंग अंतराय अंतद्वप अंधकवृष्णि अंघ अंब २१, २३ अंगप्रविष्ट २१, २३, २७०,२७१ अंगबाह्य २१, ४१, २७०, २७१ अंगुत्तरनिकाय ३० अंतःकरण २५५ अंतकालप्रकीर्णक Y अंतकृतदशा २३, ४० अंतगडदसा २३ अंतरद्वीप २३२ ४६२, ४७२. २४१ अंबरीष अंबा अंबिका अकलंक अकस्मात्वाद अकारणवाद अकालमृत्यु अनुक्रमणिका पृष्ठ २४० ८ १७ २३५ २३५ २४० २३६ ७१, ८३ ४२१ ४२१ ४६६ शब्द अक्रियावाद अक्षर अक्षरीकृत अगमिक अग्रकमं अगस्त्य सिंह अगुरुलघु अग्निकुमार अचक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शनावरण अचेल अचेलक बच्छुप्ता अच्युत अच्युता अजातशत्रु अजित अजितनाथ अजिता अजीव अज्ञानमरण अज्ञानवाद पृष्ठ ३० २७१ १६८ २७१ ४३५ ५७ ४६८ २३७ १५६ ४६२ ५२१ ११, १६, ५२१ २४० २३४ २४० १४ २४० २३ε २३६ १३६ ५५६ ३० Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ जन धर्म-दर्शन अण ४६५ अणुव्रती ४६६ २४२ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ १८३ अनंतानुबंधी अणुचटन २०० अनक्षर २७१ अणुत्तरोववाइयदसा २३ अनक्षरीकृत १९८ अणुव्रत ५३४ अननुगामी २७८ अनपवर्तनीय अतिथिसंविभाग अनर्थदण्ड-विरमण ५५० अतिभार अनवस्थित २७८ अतिशय अनवस्थितकरण ५५३ अदृष्ट ४३३,४४३ अनस्तिकाय १४२ अद्धासमय १३६, २१९ अनात्मवाद १३०, ४२१ अतवेदान्त १३२, १७२ अनादिक २७१ अधर्म अनादेय अधर्मास्तिकाय १३६,२०७।। अनित्यता १२०, ३४४ अघोदिशा-परिमाण अनिन्द्रिय २५५ ण ५४५ अनिमित्तवाद अधोलोक २२८ अनिवार्यतावाद अधोवस्त्र अनिवृत्ति अध्ययन ५२६ अनिवृत्ति-बादर ४९८ अनंग २१ अनिवृति-बादर-सम्पराय अनंगक्रीड़ा ५४२ अनीक २३८ अनंतकोति अनुगामी २७८ अनंतता . ३४५ अनुत्तर २३४ अनंतनाथ २४० अनुत्तरोपपातिकदशा २३, ४० अनंतरागम ३०६ अनुप्रेक्षा ५०३, ५२६ अनंतवीर्य ८६ अनुभागकर्म ४३८ FEER REEEEEEEEEEEEEEEE २०७ ४६८ ४२१ W. ४६८ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अनुभाग-बन्ध अनुभाव-बन्ध अनुमतित्याग पृष्ठ शब्द ४६० ४३७ ५६४ अनुमान २६८, ३००, ३१६, ३२४ अनुयोगद्वार ५४, ३६६ अनुस्मरण अनेकता अनेकान्त व्यवस्था अन्नपान-निरोध अन्ययोगव्यवच्छेदिका अनेकान्तजयपताका अनेकान्त दृष्टि १११ अनेकान्तवाद ६७, ११२, ३३५, ३३७, ३४१, ३५८ अन्योन्यक्रिया अपक्वाहार अपगत अपगम अनुक्रमणिका अपध्यानाचरण अपनुत अपनोद अपराजित अपरिगृहीता-गमन अपरिग्रह अपरिग्रहवत २६५ ३५२ ८४ ૨૪ ५३५ ६१ २८ ५४७ २६३ २६३ ५५० २६३ २६३ २३४ ५४२ ५०६ ५१३ अपर्यवसित अपर्याप्त अपविद्ध अपवर्तना अपवर्तनीय अपव्याध अपश्चिम - मारणान्तिक संलेखना अपाय अपूर्व अपूर्वकरण अपेत अपोह अप्रति लेखित दुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रस्रवणभूमि अप्रतिलेखित दुष्प्रति लेखित शय्यासंस्तारक अप्रत्याख्यानावरण अप्रमत्तसंयत अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित उच्चार स्रवणभूमि अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित शय्यारास्तारक अबाध अबाधाकाल ५७५ पृष्ठ २७१ ४६८ २६३ ५५८ २६३ ४३६, ४४३ ૪૬ ४५५ ४६६ २६३ २६३ २५३ ५५५ ५५५ ४६५ ૪૨૭ ५५५ ५५५ ४६४ ४६१ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ शब्द अभयदेव अभयनन्दी अभाव अभाषालक्षण अभिनन्दन अभिनिबोध अभेद अभ्युत्थान अमरमुनि अमृषावाद अमैथुन अमोघवर्ष अयशःकीर्ति अयोगव्यवच्छेदिका अयोगिकेवली अरति अरनाथ अरिष्टनेमि अरूपी अथं अर्थनय अर्थापत्ति अर्थावग्रह अर्धमागधी अर्हत् जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ ५८, ८७ ७१ ३१६ आकाश १६८ अवगम २३६ अवगाह २५२ अवग्रह १२६ ५२५ ५८ ५०६ ५०६ ८६ ४६८ ६१ ५०० ४६६ २४० ८,४७, २४० १३६, १४१, १४३ ११५, २५६, ३७६ ३६६ ३१६ २५८ १४ ५ शब्द अर्हत् चैत्य अलोकाकाश अवग्रहणता अवग्रहप्रतिमा अवग्रहमर्यादा अवधारण अवधारणा अवधि अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण अवधिदर्शन अवधिदर्शनावरण अवबोध अवलम्बनता अवस्थान अवस्थित अवाय अविच्युति अविज्ञप्ति अविद्या अविनाभाव पृष्ठ ५ २१३ २१३ २६४ २१३ २५८ २५८ २८ ५२८ २५८ २६४ २८३ २७६, २८३ ४६२ १५६ ४६२ २६४ २५८ २६४ २७८ २६३ २६४ ४४३ ४४३ ३२४ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ६ आगामी आगारी २४० ५०४ ८५ अनुक्रमणिका ५७७ पृष्ठ शब्द पृष्ठ अविरत-सम्यग्दृष्टि आकाश २१२ अव्युच्छित्तिनय ३६५ आकाशास्तिकाय १३६ अशाश्वतता ३४७ आगम २१, २९८, ३०५, अशुभ अशोक आगमसिद्धान्त ५६ अशोक-वृक्ष अशोका २३, ५३२ अश्वसेन आचार अष्टक आचारचूला अष्टशती ८३ आचारचलिका अष्टसहस्री ८५, ६४ आचारदशा असंज्ञी आचारप्रकल्प असापरायिक ४६. आचारशास्त्र ५०४ असातावेदनीय ४६४ आचारांग २३, ४३४ प्रसिपत्र २३५ आचाराग्र २४ असुरकुमार २३७ आजीविक १३, १०४ अस्ति आतप २०१, ४६८ अस्तिकाय १४१ आतुरप्रत्याख्यान ५४, ५६ अस्तेय आत्मघात ५५६ अस्तेयव्रत ५११ आत्मरक्ष २३८ अस्थिर ४६८ आत्मरूप ३७६ अहमदाबाद ६३ आत्मा १२०, १४६, १५५, अहिंसा ९६, १०८, ५०५ १६१, २०२, २४६, ४२८ अहेतुवाद ४२१ आत्मागम । ३०६ आउरपच्चक्खाण ५४ आत्माद्वैतवाद ३० २७१ ३५३ ५०६ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ शब्द आत्माराम आदिनाथ आदेय आनत आनयनप्रयोग आनुपूर्वी आन्ध्रप्रदेश आपृच्छना आप्त आप्तपरीक्षा आप्तमीमांसा आभिनिबोधिकज्ञान आभियोग्य आयार आयु आयुष्य आयोगणता आरण आरम्भत्यागप्रतिमा आराधना आर्य आर्यक्षेत्र आर्यनन्दि आलोक आलोचन आवंति जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ ५८ २३६ ४६८ २३३ ५५४ ४६७, ४६२ ६० ५२५. ३३१ ८६ ७८ २५२ २३८ २३ ४६२, ४६६ ४३८ २६२ २३३ ५६२ ५६ २४० २४१ ६६ २५६ २५८ २४ शब्द आवर्तनता आवश्यक आवश्यकी आवापगमन आशय आस्रव आस्रवद्वार आस्रवनिरोध आहारक आहारकवर्गणा इंगिनीमरण इंद्र इंद्रनन्दि इंद्रभूति इंद्रिय ईर्या ईर्यापथिक ईश्वर ईश्वरवाद ईषत्प्राग्भार ईहा पृष्ठ २६३ ४३, ५१४ ५२५ ४६१ ४४३ ४३४, ४५६, ५०१ ४३६ ४३७ इच्छाकार इच्छा - परिमाण इच्छा-स्वातंत्र्य इत्वरिक- परिगृहीता-गमन इहलोकाशंसाप्रयोग २०२, २०३ २०२ २७ २३८ ६६ १०, १४ २५४ ५२५ ५४४ ४१४ ५४२ ५६० २८ ४३५ २३६ ३०, ४२२ २३४ २५३, २६१ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ४६९ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ उग्रसेन उपनय उच्चगोत्र ४६८ उपभोग उच्चार-प्रस्रवण उपभोगपरिभोग-परिमाण ५४६ उच्छवास २०२, ४६८ उपभोगपरिभोगातिरिक्त ५५१ उज्जन १६, १७ उपभोगान्तराय ४७२, ४७६ उड़ीसा १७ उपमान २९८, ३०४ उत्कर २०० उपयोग १५५ उत्तरमीमांसा उपरिवस्त्र उत्तराध्ययन ४३, ४३४ उपरुद्र २३५ उत्पाद ११० उपशमन उत्पादादिसिदि ६२ उपशान्तकषाय ४९८, ४९E उदधिकुमार २३० उपशान्तमोह उदय ४६१,४८६ . उपसंपदा उदयगिरि उपांग उदायन उपासक उदाहरण ३२६ उपासकदशांग उदीरणा ४८६ उपासकदशा २३, ४० उद्दिष्टत्यागप्रतिमा ५६५ उपासकधर्म ५३२ उहिष्टभक्तत्यागप्रतिमा ५६३ उमास्वाति उद्योत २०१, ४६८ उववाइय उद्वर्तना ४८८ उवासगदसा उपकार ३७६ उस्तरा उपघात ऊर्वताविशेष १२३ उपदेशमाला ऊर्वतासामान्य १२२ उपधानश्रुत २४ ऊर्वदिशा-परिमाणउपधारणता २५८ अतिक्रमण ५४५ ५२५ १७ - ६८ ४१ ५३० ४६८ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ शब्द ऊर्ध्वलोक २३३ कदेब १६ ऊह २६२, ३२२ कन्दर्प ५५१ ऋजुपालिका कप्पवडंसिय ऋजुमति - २८१ कप्पिया ऋजुसूत्र ४०६ कमल ऋषभ ४७ करपात्र ५२३ ऋषभदेव ८, २३६ कर्तृत्व एकता ३५२ कर्नाटक कर्म १७५, ४१३, ४२५, ४२७, एकत्वभावना ४३६,४४२,४५४ एकभक्त ५१४ कर्मनथपंचक एकवस्त्रधारी ५२३ कर्मप्रकृति ६८, ४४१, ४६१ एकांतवाद ३४१ कर्मप्रकृति-पद ... ४३६ एनाक्सिमांडर १४६ कर्मप्रदेश ४७८ एनाक्सिमीनेस १४६ कर्मप्राभत .. ५६ एरिस्टोटल १८४ कर्म फल एलाचार्य ६६ कर्मबंध ४३६, ४५८ एवंभूत ४१० कर्मबंधन ऐरावत २३१ कर्मबंध-पद ऐलक कर्मभूमि २४१ ऐशान २३३ कर्मवर्गणा २०२ ओनियुक्ति ४३, ४५ कर्मवाद ११०, ४१४, ४२६ ओधनियुक्तिमहाभाष्य ५७ कर्मवेद-पद ४४० औदारिक २०३ कर्मवेदबंध-पद ४४० औपपातिक कर्म वेदवेद-पद कंकाली-टोला १८ कर्मसिद्धान्त कछुआ २४० कर्मादान ४३४ ४४० ५६४ ४४० mr : : Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ५८१ पृष्ठ ४६१ ४ ६७ कुंभ tuletustila i शब्द पृष्ठ शब्द . कर्मोपार्जन ४५८ काशी १४, ६३ कलश २४० किन्नर २३७, २४० कलिंग किम्पुरुष २३७ कलिकालसर्वज्ञ किल्विषिक २३८ क्रियमाण कल्प क्रियावाद कल्पसूत्र कल्पस्थिति कुंथुनाथ २४० कल्पातीत कुं दकुद कल्पिका कुणिक कल्पोपपन्न -२३६, २३८ कषाय ४५८, ५०० कुण्डग्राम कषायप्राभूत ५६, ६२ कुण्डपुर कषायमोहनीय कुप्य-परिमाण-अतिक्रमण ५४५ कसायपाहुड काठियावाड कुशलानुबंधि अध्ययन कामभोग-तीवाभिलाषा ५४२ कुसलाणुबंधि अज्मयण २४० कामभोगाशंसाप्रयोग ५६० कटतोल-कूटमान ५४० कायदुष्प्रणिधान ५५३ कूट-लेखकरण कायोत्सर्ग ५१५ कामण कूबर २४० कृष्ण काल १३, १३६, २१६, २३५, ३७६, ३८२ केवलज्ञान २८४, २६५, ३६२ कालकाचार्य केवलज्ञानावरण ४६२ कालवाद ४१७ केवलदर्शन १५६, २६५ कालातिम ५५७ केवलदर्शनावरण काली २३६ केवलिभुक्ति कुमारपाल १५ CC कुसुम २०४ ४६२ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ शब्द केशी कैची कोशल कोष्ठक कोष्ठा कौत्कुच्य क्रोध क्रौंच क्षणिकवाद क्षीणकषाय क्षीण मोह क्षुल्लक क्षेत्र क्षेत्र वास्तु-परिमाण अति क्षेत्रवृद्धि क्षेत्रसमास खण्ड खण्डfift खण्ड सिद्धान्त खरस्वर खारवेल गंग गंगा गंगेश गंध बेन धर्म-दर्शन पृष्ठ ७, ε ५३० १४ १० २६४ ५५ १ ૪૬૧ २३६ ७३ ४EE ૪૨& ५६४ ३८२ क्रमण ५४४ ५४५ ६८ शब्द गन्धर्व १७६, ४६७ गच्छाचार गच्छायार गणधर गणिविज्जा गणिविद्या गति गमिक गरुड़ गर्दभिल्ल गर्भज गवेषणता गवेषणा गांधारी गार्द्धपृष्ठमरण गिरिनगर गिरिनार गुजरात गुण गुणचन्द्र गुण प्रत्यय गुणवत २०० १७ ५६ २३५ १७ १६ गुणरत्न २३२ गुणस्थान ६२ गुणिदेश गुप्ति पृष्ठ २३७, २४० ५४, ५५ ५५ ६३ ५५ ५४, ५५ २०५, ४६७ २७१ २४० १७ २४४ २६२ २५३ २४० २७ ६० ८ १५ ११७ ६२ २७७ ५४५ २ ४३८, ४६२ ३७६ ५०३ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द गृहस्थ गृही गैंडा गोचरकाल गोत्र गोमुख गोमेध गोम्मटसार गोविन्दनियुक्ति गोशाल गौतम ग्रह ग्रहण ग्रैवेयक घन घोड़ा चउसरण चंगदेव चंदना चंदपण्णत्त चंद्र चंद्रगुप्त चंद्रप्रज्ञप्ति चंदप्रभ चंद्रप्रभा चंद्रमा अनुक्रमणिका पृष्ठ ५३२ ५३२ २४० ५२८ ४६२, ४६८ २३६ २४० ६८ ५६ १२, ३० ७, १०, ३३६ २३७, २५८ २५८ २३४ १६६ २३६ ५४ ६० १४ ४१ २४० १६ ४१ ८८,२४० शब्द चंद्रषि चंद्रसेन चक्रेश्वर चक्रेश्वरी चक्षुदर्शन चक्षुदर्शनावरण चतुःशरण चतुर्याम चतुर्वस्त्रधारी चतुविशतिस्तव चर्या चातुर्याम चामुण्डा चारित्र चारित्रमोहनीय चार्वाक चालुक्य चितन चिता चिरन्तन चूर्ण चूर्णि १२ चूर्णिका २३७ चूलिकासूत्र ५८३ पृष्ठ ६८ ६६, ६२ ६८ २३६ १५६ ४६२ * ६ ५२३ ५१५ ५३३ ६, ५२५ २३६ ५०३ ४६४ १४६, १६१, १७५, ४१३ १६ ५२६ २५२, २६२ ७१ २०० ५६ २०० ४१, ५३ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ जैन धर्म-दर्शन . x चेलना २ पृष्ठ शब्द १४ जिनभद्रगणि ५३, ५७ चैतन्य जिनसेन छंदना जिनेश्वर छविच्छेद ५३५ जीतकल्प ४६, ५३ छाया २०१ जीतकल्पभाष्य छेदसूत्र ४१, ४६ जीव १३६, १४६, १५५ छेदोपस्थापनीयसंयत ५२२ जीवन २०२ जंबुद्दीवपण्णत्ति ४१ जीवसिद्धि जंबू १४ जीवाजीवाभिगम जंबूद्वीप . २३०, २३१ ।। जीवाभिगम जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति _४१ जीविताशंसाप्रयोग जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रह जुगुप्सा जगत २२६ ज भिकग्राम जमालि जेनो १३३, १८३ जयंत २३४ जैन जयंती ३३८ जैनतर्कभाषा ६४ जयधवला जैनदर्शन १६ जैनधर्म _ ३, ६, ६६ जयसेन जैनपरम्परा जलचर २४४ जन-स्तूप जाति ४६७ जनाचार जिज्ञासा २६२ ज्ञातपुत्र जिनकल्पिक ५२३ ज्ञाताधर्मकथा २३, ३१ जिनदासगणि ५३, ५७ ज्ञातृखण्ड जिनपालित ज्ञातृवंश जिनभद्र ६८ ज्ञान १२७, २४६, २६१, ३०७ १०४ जयसिंह ६७ १०८ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ५८५ . . . ५२५ ५२५ शब्द ज्ञानचंद्र ज्ञानबिंदु ज्ञानमीमांसा ज्ञानवाद ज्ञानावरण ज्ञानावरणीय ज्योतिष्क ज्वाला ज्वालामालिनी ज्वालिनी ठाण डाविन xxx ५०३ 18 २४० डेमोक्रेटस पृष्ठ शब्द ६२ तत्त्वार्थ • १४ तत्त्वार्थ राजवातिक २४६ तत्त्वार्थ सूत्र २४७ तथाकार ४६१ तथ्येतिकार ૪૬૨ तनु ४६१ तप तपस्या ५०३ तम २३६ २०१ तम:प्रभा २३६ २२६ २६२, ३२२ २३ ४२२ तस्करप्रयोग ५४० तारणपंथी तारा २३७ तिन्दुक तिर्यक विशेष १२३ तिर्यक् सामान्य १२२ ५४, ५५ तियेग दिशा-परिमाण४२१ अतिक्रमण ५४५ १९६ तिर्यञ्च २४०, २४४ ११५ तियंञ्चायु ४६६ ५४० तीर्थ कर २४१, २४२, ४६८ तीर्थ १४, २४२ २६१ तुबुरु २३६ १३५ तुच्छोषधिभक्षण ५४७ ६७ तेजोवर्गणा २०२ १४६ २० णायपुत्त णायाधम्मकहा णिग्गंथ तंदुलवेयालिय तंदुनवैचारिक तज्जीवतच्छरीरवाद तत तत्व तत्प्रतिरूपक व्यवहार तत्त्वचिंतामणि तत्त्वज्ञ तत्त्वत्रय तत्वविवेक Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ ५२४ २७१ २०२ ur wmorum mr ४६८ ११ १४६ तेरहपंथी तेरापंथी तेजस त्रस त्रसदशक त्रायस्त्रिश त्रिमुख विलक्षणकदर्थन त्रिलोकप्रज्ञप्ति त्रिवस्त्रधारी সিয়ালা थेलिस दक्षिणापथ दर्शन दर्शनप्रतिमा दर्शनमोहनीय दर्शनावरण दर्शनावरणीय दर्शनोपयोग दशवैकालिक दशाश्रु तस्कंध दानान्तराय दिक्कुमार दिगम्बर दिगम्बरत्व दिङ नाग पृष्ठ शब्द २० दिद्रिवाय दिनचर्या २०४ दिशा-परिमाण २४४, दीघनिकाय ४६७ दीर्घकालिकी दुःख दुःस्वर दुरितारि दुर्भग दुष्पक्वाहार दृष्टसाधर्म्यवत् दृष्टान्त दष्टिवाद २६१ दष्टिवादोपदेशिकी देव ४६४ देवगुप्त देवचन्द्रसूरि देवद्धिगणि १५६ देववाद ४३, ४४ देविदथय देवेन्द्र २३७ देवेन्द्रसूरि देवेन्द्रस्तव देशविरत ८२ देशसंयत ३०२ ३२९ २२, २३ २७१ २३६,४३० m ६० . २१, २३ देवायु m MAur Us م م ४७२ م .. ५४, ५६ ५३२ . Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द देशसंयमी देशावकाशिक देशावधि देव देववाद द्रमिल द्रमिलदेश द्रव्य द्रव्यकर्म द्रव्यमन द्रव्यार्थिक द्रव्यालंकार द्रव्येन्द्रिय द्राविड़ द्राविधर्म द्वारका द्विपदचतुष्पद परिमाण अतिक्रमण ५३२ ५५४ २७६ ४४३ ४२३ १७ ६० ११५, १२२, १३८, ३८०, ३८२ ४४६ २५५ ३६५ द्विवस्त्रधारी द्वीप द्वेष धनधान्य- परिमाण धन-सम्पत्ति धनुष अतिक्रमण अनुक्रमणिका पृष्ठ ६२ २५४ ५ द ५४५ ५२३ २३० ४४० शब्द धन्धुका धरणी धरसेन धरसेनाचार्य धर्म धर्मकथा धर्मकीर्ति धर्मदास धर्मनाथ धर्मपरीक्षा धर्म भूषण धर्म रत्नप्रकरण धर्म संग्रहणी धर्मसिंह धर्माधर्म धर्मास्तिकाय धर्मोपदेशमाला घवला धातकीखण्ड धारणा धूत धूम प्रभा ध्यान ૪૪ श्रीव्य ४५५ नंदावर्त २३५ नंदी ५८७ पृष्ठ ६० २४० ६१ ६० २०५, ५०३ ५२६ ३८३ ६८ २४० ६७ ६२ ६८ ६७, ८५ ५८ ४४३ १३६, २०५ ६८ ६६ २३० २६४ २४ २२६ ५२६, ५५० ११७ २४० * Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ शब्द नक्षत्र नग्नता नपुंसक वेद नभचर नमिनाथ नय नयन्त्रक नयप्रदीप नयरहस्य नयवाद नयविजय नय सप्तभंगी नयामृततरंगिणी नयोपदेश नरक नरकांता नरकायु नरकावास नागकुमार नागहस्ती नागार्जुन नागार्जुनसूरि नागोर नानात्मवाद नाम नारकी ४६६ २४४ २४० ३६४, ४००, ४११ ८० जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ २३७ ४ ९४ ૨૪ ७३, ११२, ३६४ ६३ ३७७ ६४ ६४ २२८ २३२ ४६६ २३० २३७ ६५ ७२ २२ ६० ३० ३८०, ४६७ २३४ शब्द नारी नालंदा नास्ति नास्तिकवाद निकाचन निक्षेप निगंट निगंठनाटपुत्त निगंथ निगमन निग्गंथ नित्यता नित्यभोजी निद्रा निद्रा-निद्रा निधत्ति नियमसार निरयावलिका निरयावलिया निर्ग्रन्थ निर्जरा ४६२ ४६२ ४६० नियतविपाकी ४६ १ नियतिवाद ४१५, ४१६, ४२४ नियमप्रतिमा ५६१ निर्माण नियुक्ति पृष्ठ २३२ १२ ३५२ ४२१ ४६० ३८१ ६, १०५ ६ १०५ ३३० ६, १०५ १२०, ३४४ ५२६ ६७ ४१ ४१. १०५ ४३७, ५०१ ४६८ ५६ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ ८७ KWK २०२ १३४, १६३ ९४ २८ शब्द पष्ठ शब्द निर्वस्त्र ५२३ नोकषायमोहनीय निर्वाण ५०० न्यायकुमुदचंद्र निर्वाणी २४० न्यायखण्डखाद्य निविशमान ५२२ न्यायदीपिका निविष्टकायिक ५२२ न्यायप्रवेश नि:श्वास न्यायविनिश्चय निशीथ २७, ४६, ५० न्यायविशारद निशीथभाष्य न्यायवैशेषिक निश्चय न्यायालोक निश्चयनय ४४७ न्यायावतार निषध न्यास निषीधिका पंकप्रभा निष्कषायमरण पंचकल्प निष्ठा पंचकल्पमहाभाष्य नीचगोत्र पंचज्ञान नील २३१ पंचभूतवाद नीलकमल २४० पंचयाम नीलगिरि १७ पंचवत नेपाल १६, २२ पंचसंग्रह नेमिचंद्र ५३, ६८ पंचास्तिकाय नेमिनाथ ८, २४० पंचास्तिकायसार नंगम ४०१ पंडितमरण नयायिक ७३, १६१, १६८, पक्ष ३१६, ४५८ पटना नश्चयिक पण्णवणा नषेधिकी ५२५ पण्हावागरण ३८० २२६ ४६, ५३ ५३३ ४६८ H-MAGAGGG WWE .६७ ५३१, ५५८ २२ २३ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैन धर्म दर्शन पृष्ठ ४३४ २६२ ८७ ५०३ ३१८ ४६८ ११७, १२२ ३६५ ३०६ ५२४ पत्रपरीक्षा पदार्थ पद्मनंदि पद्मप्रभ पद्मावती पन्नग परंपरागम परक्रिया परतःप्रामाण्यवाद परमागम परमाणु परमात्मपद परमाथामिक परमावधि परलोकाशंसाप्रयोग परविवाहकरण परव्यपदेश परसामान्य पराघात परार्थानुमान परिग्रह परिग्रहत्यागप्रतिमा परिणाम परिभोग परिवर्तन परिवर्तना पृष्ठ शब्द ८६ परिस्रव ११५ परीक्षा ६८ परीक्षामुख २४० परीषहजय २३६, २४० परोक्ष २४० पर्याप्त पर्याय २८ पर्यायाधिक ३११ पर्युषणा पर्युषणाकल्प पाटलिपुत्र पाणिपात्र पाताल पात्रकेशरी ५६० पात्रधारी ५४२ पात्रषणा पादपोपगमनमरण पाप ४६७ पापकर्मोपदेश पारिषद्य पार्मेनिडीस पाव १२६, २१६ पाश्चंद्रगणि ५४६ पार्श्वनाथ २१६ पावा ५२६ पावापुरी ५२३ २४०, ५२६ mmmxxxr Ora > Um Wym w २७६ ८२ ५२६ २८ ४३६, ४७६ ५५० २३८ ६, ७, ९, ४७ १४ . Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पिण्डनियुक्ति पिण्डप्रकृति पिण्डेषणा पिशाच पुण्य पुण्य-पाप पुद्गल पुद्गलप्रक्षेप पुनरावर्तन पुनर्जन्म पुप्फचूलिया पुष्किया पुरुषवाद पुरुषवेद पुरुषार्थवाद पुष्पचूलिका पुष्पदंत पुष्पिका पूज्यपाद पूर्व पूर्वमीमांसा पूर्ववत् पेज्जदोंस पाहुड पोषधप्रतिमा पौषधोपवास अनुक्रमणिका पृष्ठ ४३, २३७ ४३६, ४५५, ४७६ ४४३ १३६, १७८, १६७, २०२ ५५४ ५२६ ४६१ ४१ ४१ ४२२ ४६६ ४५ ४६७ = ४२४ ४१ ६१ ४१ ७१ २२ ६ ३०० ६२ ५६१ ५५४ ५६, ६०, शब्द पौषधोपवास- सम्यगननुपालनता प्रकीर्णक प्रकृति प्रकृतिबंध प्रचला प्रचलाप्रचला प्रजापति प्रज्ञा प्रज्ञापना प्रतर प्रतिक्रमण प्रतिज्ञा प्रतिपत्ति प्रतिपृच्छना प्रतिमा प्रतिमावाद प्रतिष्ठा प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञान प्रत्याख्यान प्रत्येक प्रत्येक प्रकृति ५६१ पृष्ठ प्रत्याख्यानावरण प्रत्यावर्तनता ४४३ ४३७, ४६०, ५०१ ४६२ ४६३ ४२६, ४३३ २५३ ४१, ४३४ २०० ५१५ ३२८ २६४ ५२५ २७, ५६० ૪ ५५५ ४१, ५४, २३८ २६४ २६८, २६६, ३१६, ३१७ ३२१ ५१४ ४६५ २६३ ४६८ ४६७ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ शब्द प्रदेश प्रदेशकर्म प्रदेशबंध प्रदेशाfथक प्रद्योत प्रभाचंद्र प्रमत्तसंयत प्रमाण प्रमाणचर्चा प्रमाणनयतत्त्वालोक प्रमाणपरीक्षा प्रमाणमीमांसा प्रमाण रहस्य प्रमाणवादार्थ येन धर्म-दर्शन पृष्ठ १४१ ४३८ ४३७, ४६०, ५०१ ३६६ १४ ८७ ४६७ २६८, ३०७, ३१३, ३१४, ३९४ २६८ ८६ ८६ ६० बंधन ६४ बकरा ६४ ८३ ३७७ ५५० ८८ ८७ τε ८६ प्रमाणसंग्रह प्रमाणसप्तभंगी प्रमादाचरण प्रमलिक्ष्म प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रमेयरत्नकोष प्रमेयरत्नमाला प्रयोग प्रवचनसार प्रवरा प्रश्नव्याकरण शब्द प्राणत प्राणातिपात विरमण प्राभाकर प्रामाण्य प्रायोगिक प्रारब्ध २४० २३, ४० प्रेयोद्वेषप्राभूत प्रेषण प्रयोग प्रेष्यपरित्यागप्रतिमा बंदर बंध बत्तीती aff बाज बादर बादर-संपराय बालमरण बिबसार * बीसपंथी ४३६ बुद्ध ६७ बुद्धि पृष्ठ २३३ ५०६ ३१६ ३१० १६६ ४६१ ६२ ५५४ ५६२ २३६ १६३, १६६, ४५६, ५००, ५०१, ५३५ ४६७, ४८६ २४० ७३ १३२ २४० ४६८ ४६८ ५३१, ५५६ १४ २० ६, ८, ३३७, ३६१ २६३ ४६, ४७, ५५ ५७ बृहत्कल्प बृहत्कल्पबृहद् भाष्य Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ५६३ पृष्ठ २३७ २३६ २७७ व ४४३ ४२३ भाट्ट م भाव २३६ ३८०,३८२ ४४६ بد ब्रह्मन् २५५ शब्द पृष्ठ शब्द बृहस्कल्पलघुभाष्य ५७ भवनपति बृहत्क्षेत्रसमासप्रकरण ६८ भवनवासी बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ८६ भवप्रत्यय बृहदातुरप्रत्याख्यान ५५ भवभावना बल २३६ भाग्य बौद्ध १०४, ३१४, ४५८ भाग्यवाद बौद्धधर्म ब्रह्म २४० भारती ब्रह्मचर्य ७, २४ ब्रह्मचर्य प्रतिमा ५६२ भावकर्म ब्रह्मचर्य व्रत ५१२ भावना १०१ भावमन ब्रह्मलोक भावेन्द्रिय ब्रह्मवाद ४२२ भाषाजात ब्राह्मण ३, १०२ भाषारहस्य ब्राह्मण परंपरा ६८ भाषालक्षण ब्राह्मण-श्रमण १०१ भाषावर्गणा ब्राह्मण संस्कृति १०० भाष्य ब्रेडले ८१, ११६ भूत भक्तपरिज्ञा २७, ५४, ५५, ५६ भूतबलि भगवती २३, ३० भूतवाद भगवतीसूत्र ३६५, ४३४ भूताद्वैतवाद भत्तपरिण्णा .५५ भकूटी भद्रबाहु १४, २२, ४६, ५६ भेद भय ..४६६ भेदाभेदवाद भरत २३१ भैसा २५४ २८ ६४ १६८ २०२ ५६, ५७ २३७ ५६, ६०, ६१ ४२१ २४० १२६, २०० १२६ . २४० Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ २४० १८, २२ शब्द पृष्ठ शब्द भोक्तृत्व ४४८ मरण विभत्ति भोगभूमि २४१ मरणविशोधि भोगान्तराय ४७२, ४७६ मरणसमाधि ५४, ५६ भौतिकवाद ४२२ मरणसमाहि मंत्रभेद मरणाशंसाप्रयोग ५६० मगर मलधारी हेमचंद्र ___५८, ६८ मज्झिमनिकाय मलयगिरि ५८, ७१ मति २५२, २७३ मल्लकी मतिज्ञान २५२, २६७, २७३ मल्लवादी मतिज्ञानावरण ४६२ मथरा मल्लिनाथ मध्यलोक मल्लिषेण मन २०२, २०३, २५५ महाकम्मपयडिपाहुड मनःपर्यय २८३, ४६२ महाकर्मप्रकृतिप्रामृत ५६, मनःपर्ययज्ञान २८०, २८३ महाकाल २३५ मन:पर्यव ४६२ महाकाली २३६ मनःपर्याय-ज्ञानावरण ४६२ महाघोष २३५ मनुज २४० महातमःप्रभा २२६ मनुष्य २४० महादेवी मनुष्यक्षेत्र २३३ - महाधवल मनुष्यलोक २३३ महानिशीथ ४६, ५२, ५५ मनुष्यायु ४६६ महापच्चक्खाण मनोदुष्प्रणिधान ५५३ महापरिज्ञा २४ मनोवर्गणा २०२ महाप्रत्याख्यान ५४, ५५, ५६ मरण २०२, ५३१ महाबंध मरणविभक्ति ५६ महाभारत ४१७ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द महायक्ष महायान महावीर महाव्रत महाशुक्र अनुक्रमणिका पृष्ठ २३ε ६ ६, ८, १२, २७, ३०, ४७, २४०, ३३८ ५०८ २३३ १३८ २३१ ६० २३७ ३३७ ८७ २४० ५५७ मेधा ૪ मेरु २३३ मेरुतुग ४४३, ४६५ मोक्ष मोहनजोदड़ो मोहनीय मौर्य म्लेच्छ महासामान्य महाहिमवान् महिमानगरी महोरग माणवक माणिक्यनंदी मातंग मात्सर्य मान मानुषोत्तर माया मार्गणता मार्गणा महेन्द्र मिथ्या मिथ्याकार मिथ्यात्वमोहनीय मिथ्यादृष्टि मिश्रमोहनीय मीमांसक २६२ २५२ २३३ २७१ ५२५ ४६४ ४६४ ४६४ ७३, १६८ शब्द मीमांसा मीमांसासूत्र मुक्त मुक्ति मुनिचंद्र मुनिसुव्रत मूर्तिपूजक मूर्तिवाद मूल कर्म मूलसूत्र मूलाचार मूलाराधना मृषा उपदेश यक्ष यक्षसेन यक्षेन्द्र यज्ञ ५६५ पृष्ठ ६६ ६६ १६०, २३४ २४१, ५०० ६८ २४० २० ४ ४३५ ४१, ४३ ६८ ६८ ५३८ २५८ २३१ ६२ ५००, ५०१ ४ ४६२, ४६४ ५५१ २४० २३७ ५३ २४० ४३० Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ ६२ १४ ७७ शब्द यज्ञवाद ४३२ रत्नाकरावतारिका-पंजिकायति टिप्पण यतिवृषभ ६५, ६८ रम्यक २३१ यदृच्छावाद ४२० रविगुप्त ५३ रस यश:कीति १७५,४६७ ४६८ रसविकृति ५२८ यशस्वतसागर रहस्य-अभ्याख्यान । ५३८ यशोवर्द्धन राक्षस २३७ यशोविजय ६७, ७१, ६२ राग याकोबी १०७ राजगह युक्त्यनुशासन राजप्रश्नीय योग ६ ६, ४५८, ५०० राजवार्तिक योगदृष्टिसमुच्चय राजशेखर योगदेव राजीमती योगबिन्दु राज्यादिविरुद्ध-कर्म ५४० योगविशिका रात्रिभुक्तित्याग योगशतक रात्रिभोजन-विरमणव्रत योगीन्द्र रामचंद्र ६२ रक्ता रक्तोदा रामानुज २३२ रायपसेणइय रति राष्ट्रकूट रलप्रभसूरि रुक्मी २३१ रत्नप्रभा २२६ रुद्र रत्नशेखर ६८ रूप २८ रत्नाकरावतारिका ६१ रूपानुपात ५५४ रत्नाकरावतारिका-पंजिका २ रूपी १३६, १४१, १४३ 94 २३२ २२७ २३५ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द रूप्यकला रेवत रोग रोहित रोहितास्या लक्ष्मीदेवी लघीयस्त्रय लघु सर्वंश सिद्धि लब्ध्यक्षर लवण समुद्र लांतव लाढ़ लाभान्तराय लासेन लेच्छको लोंच लोक लोकतत्त्वनिर्णय लोकपाल लोकविजय लोकसार लोकांतिक लोकाकाश लोभ वंदना वज्र अनुक्रमणिका पृष्ठ २३२ ८ २७ २३२ २३२ ७१ ८३ ८६ २७१ २३० २३३ १३ ४७२, ४७५ १०७ ૨૪ ५३० ११३, २२६ ८५ शब्द वज्रभूमि वट्टकेराचार्य वहिदसा वध वनस्पतिसप्तति वप्पदेव वरुण वर्णं वर्तना वस्त्रमर्यादा वस्त्रेषणा वाग्दुष्प्रणिधान वाचना वाणी वातकुमार वादविजय वर्द्धमानसूरि वर्धमान १०, १२, २४०, २७८ वर्षावास ५२५, ५२८ वलभी २२, २३ ५२३ २८ ५५३ ५२६ २३८ २४ २४ २३६ २१३ ४६५ वामन ५१५ वामा २४० वादार्थनिरूपण वादिदेवसूरि वादिराज वाराणसी ५६७ पृष्ठ १३ ६८ ४१ ५३५ ६८ ६७ २४० १७६, ४६७ २१६ ६८ २०२ २३७ ६२ ६४ ८६, १६१ ८७ २४० Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६, जैन धर्म-दर्शन Www 1 cm wo ० १८ २६२ ११३, २२६ शब्द वालुन वालुकाप्रभा वासना वासुपूज्य विकलादेश विकासवाद विक्रमादित्य विचार विचारणा विजय विजया विज्ञान विज्ञानवाद दितत विदेह विद्यानंद विद्युतकुमार विनयवाद विधाकश्रुत विपाकसूत्र दिपुलमति विबुधसेन विभज्यवाद विमर्श विमर्ष विमलदास पृष्ठ शब्द २३५ विमलनाथ २२६ विमुक्ति २६४, ४४३ विमोक्ष २४० वियाहपण्णत्ति ३७४, ३७७, ३६४ ।। विवागसुय ४२२ विशिष्टाद्वैत विशेष विशेषणवती विशेषावश्यकभाष्य २३४, २४० विश्व २४० - वीरसेन वीरसेनाचार्य ७३, १३३ वीर्यान्तराय १६६ वृद्धवादी २३१ वृष्णिदशा ७१, ८५ वेद २७ वेदनीय ३० वेदांत २३ वेदांतसूत्र ४० वेन्नातट २८१ वेबर ७१ वैक्रिय ३३७ वैखानस २५३ वैजयंत २६२ वैतरणी ६४ वैदिक संस्कृति ४७२, ४७६ ५३ ४१ ४२६ ४६२, ४६४ ६६, ४५८ m १०७ २०३ MWww... Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ५६६ पृष्ठ २३५ ३६६ २४ ३८३ शब्द पष्ठ शब्द वैधोपनीत ३०४ शमन १०५ वैभाषिक १२६ शवल वैमानिक २३३, २३६, २३८ शब्द २८, १६८, ३७७, ४०७ वरोट्या २४० शब्दनय वैशाली ११ शब्दानुपात वैशेषिक ७३, १६१, १६८, शय्यम्भव ४४ १८६, ४५८, ३१६ शय्यषणा २८ वैससिक १६९ शरीर २०२, २०३, ४२८, ४६७ व्यंजनाक्षर २७१ शराप्रभा २२६ व्यंजनावग्रह २५८ शर्मन् १०२ व्यतर २३६ शस्त्रपरिज्ञा व्यय ११७ शांतरक्षित व्यवसाय २९६ शांता २४० व्यवहार ४६, ४६, ५५, ४०५ शांतिनाथ व्यवहारनय शांतिसूरि व्यवहारभाष्य शोत्याचार्य ५८, ६१ व्याख्याप्रज्ञप्ति २३, ३०,४२०, शाकटायन शालवक्ष . व्यावहारिक ३६८ शाश्वतता ३४७ व्युच्छित्तिनय ३६६ शास्त्र ३३१ व्रतप्रतिमा ५६१ शास्त्र वार्तासमुच्चय ८५, ६४, व्रात्य ४१७ ३८३ शिक्षावत ५५२ शंख १८ शिवशर्म शम १०६ शिवार्य २४० ६८ ४३४ १३ शंकर २३१ १४, २४० शिखरी w л शक w л Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ शीतलनाथ शीतोष्णीय शीलांकसूरि २४० २७३ २७०, २७३ शुभ . शुभ्रभूमि शून्यवाद r शेषवत् ur शोक श्याम श्यामाक २४० ७१, ८६ २०२ श्रम al पृष्ठ शब्द २४० श्रीवत्स २४ श्रीवत्सा श्रुत ८६८ श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरण ७२,१३३ श्रुतसागर ३०१ श्रुतावतार श्रेणिक २३५ श्रेयांसनाथ १३ श्लोकवार्तिक १०६ श्वासोच्छ्वास ३, १२, १०५ श्वेताम्बर १८ षटखण्डसिद्धान्त ५६३ पट्खण्डागम १८, षडावश्यक ५०७ गडदर्शनसमुच्चय पण्मुख २५८ षोडशक संक्रमण ५३२ मंग्रह संग्रहणीप्रकरण रांघ ५३३ संघदासगणि ५३२ संघात संघातन ६८ संघातवाद ५६ 0 ५१४ ८ ८५, ६२ श्रमण श्रमण परंपरा श्रमणभूतप्रतिमा श्रमण संस्कृति थमणाचार श्रमणोपासक श्रवणता श्रवणबेलगोला श्राद्ध श्राद्धविधिप्रकरण श्रावक श्रावकधर्म श्रावकाचार श्रावस्ती श्रीचंद्र ur ४८६ ४०३ G WG KA MK ० ० Es ५३२ १९३ ४६७ १३० Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ६०१ पृष्ठ पृष्ठ शब्द संचित ४६१ संहनन ४६७ संजयवेलट्टिपुत्त ३६२ सकलादेश ३७४, ३७७, ३६४ संज्ञा २५२, २५३ सकषायमरण संज्ञाक्षर २७१ सचित्तत्यागप्रतिमा संजी २७१ सचित्तनिक्षेप संज्वलन ४६५ सचित्तपिधान ५५७ संतसंस्कृति १०० सचित्त-प्रतिबद्धाहार ५४७ संथारग ५५ सचित्ताहार ५४७ संथारा ५३१, ५५८ सचेलक ११, १६ संप्रति ११५, ११५ संबंध ३७६ सत्ता १२०, ४८६ संभवनाथ २३९ सत्तासामान्य १३८ संमूच्छिम २४४ सत्यव्रत ___५१० संयुक्ताधिकरण ५५१ सत्यशासनपरीक्षा संलेखना ५३१, ५५८ सन्मतिटीका सलेखनाश्रुत ५६ सन्मतितर्क ६७, ७३ संवर ४३७, ५०३ सपर्यवसित . २७१ संशय २६२ सप्तपदार्थी संसक्तनियुक्ति ५६ सप्तमंगी ३५६, ३७४, ३७७, संसर्ग ३७६ ३६१ संसार २२६ सप्तभंगीतरंगिणी ६४ संसारी समंतभद्र ७७, ४२५ संसारी आत्मा संस्कार २६५, ४३३, ४४३ समण १०५ संस्तारक ५४, ५५, ५३१, ५५८ समन १०५ संस्थान २००, ४६७ समभिरूढ़ ४ १०६ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जैन धर्म-दर्शन २३३ مر ३४५ و ७ सागार ४६४ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ समयसार ६७ सर्वावधि २७६ समवाय २३ सहसा अभ्याख्यान ५३८ समवायांग ___३०, ४३४ सहस्रार समाचारी ५२४ सांख्य ७३, ६६, १६५, १६७, समाधिमरण १६८, १७४, ३१६, ४५८ समिति सांतता समुद्र २३० सांपरायिक ४३५, ४६० समुद्रविजय सांप्रत सम्मेतशिखर ५३२ सम्यक २७१ सातावेदनीय सम्यक्त्व सादिक २७१ सम्यक्त्वमोहनीय ४६४ साधन ३२५, ५३३ सम्यक-मिथ्यात्वमोहनीय ४६५ ।। साधोपनीत ३०४ सम्यक्-मिथ्यादृष्टि ४६५ साधारण ४६८ सयोगिकेवली ४६६ साधुविजय सरस्वती १७, २३६ सानत्कुमार सर्प सापेक्षवाद सर्वअदत्तादान-विरमण सामअफलसुत्त ६, ४१६ सर्वज्ञ सामाचारी .४७, ५२४ सर्वज्ञता सामानिक सर्वपरिग्रह-विरमण ५०७ सामान्य १२२ सर्वप्राणातिपात-विरमण ५०७ सामायिक .५१५, ५५२ सर्वमृषावाद-विरमण ५०७ सामायिकप्रतिमा ५६१ सर्वमथुन-विरमण ५०७ सामायिकसंयत ५२२ सर्वार्थसिद्ध २३४ साम्य सर्वार्थसिद्धि ७१ सासादन-सम्यग्दृष्टि » om mx २४० ५०७ २८५ २८५ १०२ ___www.jainelibrary:org Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ६०३ For Pu. सिंधु सिंह ४६८ २४० १६७, ४६८ ४६८ १६७ १९७ शब्द पृष्ठ शब्द सास्वादन-सम्यग्दृष्टि ४६५ सुमतिनाथ १८, २३२ सुरकुमार २४० सुलसा सिंहगणि सुवर्णकना सिद्ध २३४ सुविधिनाथ सिद्धराज १८ सुस्वर सिषि ८७ सहस्ती सिद्धशिला २३४ सूअर सिद्धसेन ५३, ६७,७१,७२, सूक्ष्म ..३६५, ४०० सूक्ष्म-सम्पराय सिद्धसेन दिवाकर २६६, ४२४ सूक्ष्मसूक्ष्म सिद्धांतसारोद्धार सूक्ष्मस्थूल सिद्धायिका २४० सूत्रकृत सिद्धार्थ सूत्रकृतांग सिद्धार्थपुर सिद्धिविनिश्चय सूयगड सिद्धिविनिश्चय-विवरण सूरपण्णत्ति सीता २३२ सूर्य सीतोदा २३२ सूर्यप्रज्ञप्ति सुख २०२ सोमचंद्र सुखलालजी संघवी ७१ सोमतिलक सुतारा २४० सोमिल सुधर्मा १४ सोक्षम्य सुपर्णकुमार २३७ सौत्रान्तिक सुपाश्वनाथ २४० सौधर्म ४६८ सौराष्ट्र २६, २३७, ३५६, ४२० or orm २३७ Mm ६८, ९२ ३५२ - २०० १२९ : २३३ सुभग Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ जैन धर्म-दर्शन पृष्ठ عمر २०० ہ و M ५२३ ४७ शब्द पृष्ठ शब्द सौर्यपुर ८ स्थूल-मृषावाद-विरमण ५३७ सोषिर १६६ स्थूल-मैथून-विरमण स्कंदिल २२ स्थूलसूक्ष्म १६० स्कंध १६२ स्थूलस्थूल १६७ स्तनितकुमार २३७ स्थौल्य स्तेनाहत ५४० स्पर्श १७८, ४६७ स्त्यानद्धि ४६३ स्मृति २५२, २५३, २६५, ३१६ स्त्रीमुक्ति स्मृत्यकरण ५५३ स्त्रीवेद स्मृत्यन्तर्धा ५४५ स्थलचर २४४ स्याद्वाद ११२, ३३५, ३३७, स्थविरकल्पिक ३५६, ३५८, ३५६, स्थविरावली स्थान २३, २८ स्याद्वादकलिका स्थानकवासी स्याद्वादकल्पलता स्थानांग ३०, ४३४ स्याद्वादमंजरी स्थापना २६४, ३८० स्याद्वादमुक्तावली स्थावर २४४, ४६८ स्याद्वादरत्नाकर स्थावरदशक ४६७ स्वतंत्रतावाद स्थिति २०७ स्वत:प्रामाण्यवाद स्थितिबंध ४३७, ४६०, ५०१ स्वदार-सन्तोष स्थिर स्वपति-सन्तोष . ५४१ स्थूल १६७ स्वभाववाद स्थूल-अदत्तादान-विरमण ५३६ स्वयंभूरमणद्वीप २३० स्थूल-परिग्रह-विरमण ५४४ स्वयंभूरमणसमुद्र २३० स्थूल-प्राणातिपात-विरमण ५३४ स्वयंभूस्तोत्र ७७ स्थूलभद्र १४, २२ स्वरूपसिद्धि ८६ ४१५ ५४१ ४६८ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ६०५ पृष्ठ २४० हड़प्पा पृष्ठ शब्द स्वस्तिक २४० हिरण्य-सुवर्ण-परिमाणस्वाध्याय ५२६ अतिक्रमण स्वार्थानुमान ३२४ हिरन हीनयान ७३, ६६ हरि २३१ हीयमान २७८ हरिकांता २३२ हेगन हरित २३२ हेतु २९८, ३२९ हरिभद्र ५७, ६७, ६८, ७१, हेतुखण्डन ८४,४२४ हेतूपदेशिकी हरिभद्रसूरि ५२ हेमचंद्र १८, ६० हस्तिमल ५८ हेमचंद्रसूरि २३६ हेराक्लिटस हापीगुम्फा . १७ हैमवत २३१ हास्य ४६६ हरण्यवत हिंसाप्रदान ५५० होयसल हिमवान् २३१ ह्य म १३१, ३६२ . २७१ हाथी १३१ २३१ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला एवं स्थापत्य कला तथा स्थापत्य के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जैन कला एवं स्थापत्य ने विशेष प्रकार की आकृतियां एवं प्रतीक भी प्रस्तुत किये हैं। जैन समाज कला तथा स्थापत्य को संरक्षण प्रदान करने के लिए सुविख्यात है। जैन कला का प्राचीनतम रूप कलिंग देश के राजा खारवेल से तथा जैन स्थापत्य का सबसे पुराना रूप मौर्यकाल से संबंधित है। जैन प्रतिमाविज्ञान : सामान्यतः यह स्वीकार किया जाता है कि प्रारम्भ में ब्राह्मणप्रतिमाविज्ञान में मूर्ति पूजा को स्थान नहीं दिया गया था। जहाँ तक अब्राह्मणप्रतिमाविज्ञान की बात है, ऐसा लगता है कि बुद्ध की मूर्तिपूजा के पहले जिन की मूर्तिपूजा प्रारम्भ हुई। दूसरे शब्दो में बौद्ध प्रतिमाविज्ञान की अपेक्षा जैन प्रतिमाविज्ञान में मूर्तिपूजा को पहले स्थान मिला। जैन प्रतिमाविज्ञान में भी जिनमूर्ति-पूजा अथवा तीर्थंकरमूर्ति-पूजा बहुत प्राचीन नहीं है। किसी भी जैन आगमग्रन्थ में २४ तीर्थकरों में से किसी की भी मूर्तिपूजा अथवा किसी के नाम पर मन्दिर बनवाने का उल्लेख नहीं हुआ है । आगमों में बहुत से चैत्यों का उल्लेख है जिनमें यक्षों की प्रतिष्ठा हुई थी। व्याख्याप्रज्ञप्ति तथा उपासकदशांग में अर्हत् चैत्यों (जिन- चैत्यों) की सामान्य चर्चा हुई है । ज्ञाताधर्मकथा से द्रौपदी के द्वारा जिन - मूर्तिपूजा होने की सामान्य जानकारी होती है। राजप्रश्नीय, स्थानांग तथा जीवाभिगम में शाश्वत प्रतिमाओं का वर्णन है। विद्वानों का यह मत है कि ई. पूर्व चौथी शताब्दी के प्रारम्भ तक जैनों में जिन - मूर्तिपूजा विशेष प्रचलित नहीं हो पाई थी। पटना के निकटस्थ लोहानीपुर से प्राप्त एक जिनमूर्ति के अति चमकीले घड से जानकारी प्राप्त होती है कि ई. पूर्व तीसरी शती अथवा उससे कुछ पहले जिनमूर्ति-पूजा प्रारम्भ हुई। जैन आगम ग्रन्थों में जिनमूर्ति-पूजा का उल्लेख बहुत ही कम हुआ है। ऐसा लगता है कि भगवान् महावीर अथवा उनके निकट के उत्तराधिकारियों के समय तक जिनमूर्ति पूजा प्रचलित नहीं हो पाई थी । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० जैन धर्म-दर्शन प्राचीनतम जैन मूर्तियाँ : लोहानीपुर से प्राप्त जिनमूर्तियों के दो धड़, जो मौर्यकाल के हैं, अब तक की प्राप्त जैन मूर्तियों में सबसे प्राचीन हैं। उनमें से एक तो काफी चमकीला है परन्तु दूसरे पर कोई चमक नहीं है। इन धड़ों के साथ एक वर्गाकार मन्दिर की नींवों से बहुत-सी ईंटें तथा चाँदी का एक आहत सिक्का मिला है। धड़ तीर्थंकरों के मालूम पड़ते हैं तथा नींवें खुदाई से प्राप्त सबसे प्राचीन जैन मन्दिर की। मौर्य राजा सम्प्रति जैन मन्दिरों के निर्माणकर्ता के रूप में प्रसिद्ध है। इस विषय में पुरातत्त्वसम्बन्धी कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है। दो जैन गुफाएँ : उड़ीसा की उदयगिरि और खंडगिरि पहाड़ियों में खोदी गई दो गुफाएँ शुंग काल के जैन स्मारक के रूप में उल्लेखनीय हैं। हाथीगुंफा का कलिंग देश के राजा खारवेल ने उद्धार एवं सुधार किया था। उड़ीसा की सभी गुफाओं में रानीगुंफा बृहदाकार है तथा विस्तृत अलंकरण से युक्त है। इसके सुन्दर मूर्तिअलंकरण में युद्ध, पंखवाले मृग के शिकार और नारी को भगा ले जाने आदि के दृश्य बने हुए हैं। गुफा की दो मंजिलें हैं जिनमें बरामदे भी बने हुए हैं। जैन स्तूप : मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से ईंट का बना हुआ एक विशाल जैन स्तूप और दो मन्दिरों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। उसमें द्वितीय शताब्दी का एक शिलालेख भी मिला है। उस लेख से ज्ञात होता है कि स्तूप देवताओं के द्वारा निर्मित हुआ था। ऐसी धारणा बन जाने का कारण यह है कि उस समय स्तूप को स्मरणातीत प्राचीन माना जाता था। विविध तीर्थकल्प (१४ वीं शताब्दी) से जानकारी होती है कि स्तूप की मरम्मत पार्श्वनाथ (ई. पूर्व ८७७७७७) के समय में हुई और एक हजार वर्ष के बाद बप्पभट्टिसूरि द्वारा उसका नवीनीकरण किया गया। स्तूप का निर्माण सातवें तीर्थंकर भगवान् सुपार्श्व के सम्मान में हुआ था। जैनधर्म के इतिहास के दृष्टिकोण से मथुरा से प्राप्त होने वाली मूर्तियाँ तथा शिलालेख बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें एक आयागपट है जिसे एक मन्दिर Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला एवं स्थापत्य ६११ में पूजा के उद्देश्य से लगाया गया था। आयागपट का शिलालेख इंगित करता है कि वह लोणशोभिका की पुत्री वसु नामक गणिका की भेंट है। उसमें प्रधानतः उस जैन स्तूप का निरूपण है जो वेदिका से घिरी हुई एक ऊंची जगती पर स्थित है, जहाँ पर अलंकृत दरवाजे की ओर ले जाने वाली ९ सीढ़ियों के द्वारा पहुँचा जाता है। एक दूसरे आयागपट के मध्य में बैठे हुए जिन का चित्रण हुआ है जिसके चारों ओर विविध प्रतीक हैं। राजगिर का मन्दिर : राजगृह (राजगिर) के वैभारगिरि पर्वत पर एक भग्न मन्दिर है। इस मन्दिर में एक गर्भगृह है जो चारों तरफ से छोटे-छोटे कक्षों से घिरा हुआ है। प्रधान भवन से नीचे एक और मन्दिर है जिसमें २२ वें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ की बैठी हुई प्रतिमा है। साथ का शिलालेख गुप्तकालीन लिपि में है। पीठ के मध्य में स्थित धर्मचक्र के दोनों ओर लांछनस्वरूप शंख है। अकोटा की कांसे की मूर्तियाँ : बड़ौदा के निकटस्थ अकोटा से गुप्तकाल (५वीं शती) की कांसे की एक जैन मूर्ति प्राप्त हुई है। यह आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की कायोत्सर्गस्थित (खड़ी) प्रतिमा है। इसके नीचे का भाग अप्राप्य है तथा पीठ, हाथ और पैर टूटे हुए हैं। धोती धारण किये हुए यह सबसे प्राचीन जैन प्रतिमा है। अकोटा के संग्रह में छठी से ग्यारहवीं शती की बहुत सी कांसे की जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई एलोरा का जैन गुफामन्दिर : एलोरा का 'इन्द्रसभा' नामक मन्दिर मध्ययुग के जैन गुफामन्दिरों में सबसे अच्छा है। यह ठोस चट्टान को काटकर बनाया गया है। इसका आंगन दक्षिण की ओर पत्थर के बने हुए पर्दे से आरक्षित है। पूर्व में एक चैत्यालय है जिसके सामने दो स्तम्भ और पीछे भी दो स्तम्भ बने हैं। आंगन में प्रवेश करते समय दाहिनी ओर चबूतरे पर एक हाथी और बायीं ओर पत्थर का एकाश्मक स्तम्भ है जो अब गिर चुका है। इस स्तंभ के शीर्ष पर एक तीर्थंकर की चतुर्मुखी प्रतिमा स्थापित है। मध्यभाग में एक विस्तृत वर्गाकार मण्डप बना हुआ है। एक Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन प्रकार के दोहरे बरामदे से मन्दिर के नीचे वाले सभा मण्डप में जाने को मार्ग मिलता है। बरामदे के एक छोर पर १६वें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथ की दो बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ हैं । दूसरे छोर पर पत्थर की सीढ़ियाँ हैं जो ऊपरवाले सभामण्डप में जाती हैं। दोनों ही सभा मण्डप स्तम्भों से सुसज्जित हैं। ऊपर के सभामंडप की दीवारें जिन मूर्तियों से अलंकृत हैं। अंकित मूर्तियों में भगवान् पार्श्व, भगवान् महावीर तथा गोम्मट ( बाहुबलि) प्रमुख हैं। गोम्मटेश्वर की विशाल मूर्ति : ६१२ दक्षिण भारत के जैन स्थापत्य में दो प्रकार के मन्दिर समाविष्ट हैं 'बस्ति' और 'बेत्त' । तीर्थंकरों की मूर्तियों से सुशोभित मन्दिर बस्ति कहे जाते हैं। बेत्त पहाड़ी चोटियों पर खुले आंगन की तरह बने हैं और उनमें गोम्मटेश्वर की प्रतिमाएँ हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलि का ही अपरनाम गोम्मट या गोम्मटेश्वर है। मैसूर से ६२ मील की दूरी पर स्थित श्रवणबेलगोला में विन्ध्यगिरि की चोटी पर, जो जमीन से ४७० फीट की ऊँचाई पर है, गोम्मटेश्वर की विशाल मूर्ति खड़ी है। प्राचीन होते हुए भी यह बृहदाकार मूर्ति पूर्ण सुरक्षित है। इसकी ऊँचाई ५७ फीट है। कंधे की चौड़ाई २६ फीट, पैर का अंगूठा २ फीट, मध्यम अंगुलि ५ फीट, एड़ी की ऊँचाई २ फीट, कान की लम्बाई ३ 9 ४ 9 २ ५ फीट तथा कमर का घेरा १० फीट है। मूर्ति नंगी है और उत्तर दिशा की ओर मुँह करके सीधी खड़ी है। यह ठोस चट्टान को काटकर बनाई गई है। यह बृहदाकार मूर्ति श्रवणबेलगोला से १५ मील दूरतक चारों तरफ से दिखाई पड़ती है । ऊपर चढ़ने के लिए चट्टान में काटी हुई ५०० सीढ़ियों का मार्ग तय करना पड़ता है। मूर्ति पर प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह मूर्ति चामुण्डराय ने बनवाई थी। वह राजमल्ल अथवा राचमल्ल का प्रसिद्ध मंत्री था, जिसने ई. सन् ९७४ से ९८४ तक राज्य किया था। मूर्ति का निर्माण ई. सन् ९८३ में हुआ था। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला एवं स्थापत्य ६१३ खजुराहो का पार्श्वनाथ मन्दिर : उत्तर भारत में खजुराहो जैनधर्म का प्रधान केन्द्र था। वहाँ पर बने मंदिरों में से एक तिहाई जैन मन्दिर हैं। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ का मन्दिर सबसे बड़ा और सबसे सुन्दर है। वहाँ के अन्य मन्दिरों की तरह यह भी ई.सन् ९५०-१०५० के बीच का बना हुआ मालूम पड़ता है। यह ६२ फीट लम्बा व ३१ फीट चौड़ा है। इसकी बाहरी दीवारें अनेक अलंकरण पट्टियों तथा मूर्तियों की तीन पंक्तियों से सुशोभित है। देलवाड़ा के जैन मन्दिर : आबू की पहाड़ी पर स्थित देलवाड़ा क्षेत्र में चार मुख्य जैन मन्दिर हैं जिनमें से दो सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं और किसी दृष्टि से भारत के सभी मन्दिरों में अग्रगण्य हैं। दोनों में से जो अधिक पुराना है और विमलवसही के नाम से जाना जाता है वह विमलशाह नामक एक धनी जैन श्रावक के द्वारा सन १०३१ में बनवाया गया था तथा प्रथम तीर्थकर आदिनाथ (भगवान ऋषभदेव) को समर्पित किया गया था। दूसरा मन्दिर सन् १२३० में तेजपाल और वस्तुपाल नामक दो धनी जैन भाइयों के द्वारा निर्मित हुआ था तथा २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) को समर्पित किया गया था। विमलशाह, तेजपाल तथा वस्तुपाल गुजरात के मन्त्री थे। दोनों मन्दिरों का विन्यास समान है । दोनों अपेक्षाकृत बाहर से सादे हैं पर भीतर की सजावट अनोखी है । दोनों पूर्णतः सफेद संगमरमर के बने हैं। चार हजार फीट से भी अधिक ऊँची पहाड़ी पर इनकी स्थिति बड़ी ही मनोहारी है। दोनों ही मन्दिर चौकोर आंगन के बीच खडे हैं जिनके चारों चरफ तीर्थंकरों तथा अन्य देवताओं की मूर्तियों से सजी हुई देवकुलिकाएँ हैं । मूल प्रासाद पर पिरामिडीय शिखर है । उससे लगा हुआ एक गूढ़मंडप है । उसके सामने एक खुला हुआ रंगमण्डप या सभामण्डप बना हुआ है जो स्तम्भों से सुसज्जित है तया जिसका गुम्बदाकार छत आठ स्तम्भों पर आधारित है । वितानों, स्तम्भों, दरवाजों, चौखटों तथा गवाक्षों की महीन कारीगरी अत्यन्त सुन्दर है । संगमरमर की लहरदार, पतली, पारदर्शक शिल्पकारी अति उत्कृष्ट है । मन्दिर की सम्पूर्ण Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन रचना मनोहारी और विस्मित कर देने वाली है । मन्दिरवाले शहर या देवकुलपाटक : 1 गुजरात में पालीताना के निकट शत्रुंजय मन्दिरों से सुशोभित एक बहुत ही प्रसिद्ध स्थान है । वहाँ अलग-अलग टूंकों में ५०० से भी अधिक मन्दिर हैं तथा तीर्थंकरों की मूर्तियों की संख्या तो ५००० से भी अधिक है । उनमें से कुछ मन्दिर १० वीं शताब्दी के हैं । विमलवसही ट्रंक में आदिनाथ का मन्दिर सन् १५३० में दसवीं शती के एक पुराने मन्दिर के स्थान पर बनाया गया था । मन्दिर के एक छोटे से कक्ष में स्थित पुंडरीक की मूर्ति १० वीं शताब्दी की मूर्तिकला का एक अच्छा नमूना है । अहमदाबाद के नगरसेठ द्वारा सन् १८४० में बनाया हुआ एक छोटा सा मन्दिर अपने बाहरी बरामदे के साथ स्तम्भों पर आधारित सभामण्डपवाला एक अनोखा देवालय है । इसके फर्श पर बारह खम्भे हैं जो छोटे-छोटे ९ वर्गों में विभाजित हैं । इसकी गुम्बदाकार छत खम्भों पर आधारित मेहराब पर टिकी हुई है। इसमें चारों तरफ प्रवेश द्वार हैं जिनमें पश्चिम का प्रवेश द्वार प्रधान है। शत्रुंजय के कुछ मन्दिरों की अनेक बार मरम्मत हो चुकी है । ६१४ गुजरात में ही जूनागढ़ के निकट गिरनार भी मन्दिरवाला शहर है। यहाँ के जैन मन्दिरों में नेमिनाथ का मन्दिर सबसे बड़ा और सम्भवतः सबसे पुराना है । इस पर प्राप्त एक शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि सन् १२७८ में इसकी मरम्मत हुई थी । मन्दिर १९५ फीट लम्बे तथा १३० फीट चौड़े चौकोर आँगन में स्थित है तथा छोटी-छोटी ७० देवकुलिकाओं से घिरा हुआ है जिनमें तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं । मन्दिर में एक प्रासाद और एक मण्डप है । प्रासाद (गर्भगृह) में नेमिनाथ की मूर्ति है । मण्डप में प्रवेश पाने के लिए पार्श्वमण्डप भी है । वस्तुपाल मन्दिर (सन् १२३० ) में विभिन्न तीन मन्दिर मिले हुए हैं । बीच के एक मण्डप से तीन ओर निकास हैं जो विभिन्न मन्दिरों में ले जाते हैं। और चौथी ओर मुख्य प्रवेशद्वार है । बीचवाला मन्दिर १९ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ को समर्पित किया गया है । उत्तर-मन्दिर मेरुपर्वत तथा दक्षिण-मन्दिर सम्मेतशिखर से सम्बन्धित है । - Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला एवं स्थापत्य आदिनाथ का चौमुखी मन्दिर : राणपुर अथवा राणकपुर (जोधपुर - राजस्थान) आदिनाथ के चौमुखी मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है जिसका निर्माण सन् १४३९ में हुआ था । यह मन्दिर चतुर्मुख युगादीश्वर - विहार और त्रिभुवनदीपक चतुर्मुख जिनालय के नाम से भी जाना जाता है । यह ४०००० वर्ग फीट के क्षेत्र में स्थित है। इसमें २९ मण्डप और ४२० खम्भे हैं जिनमें से कोई भी दो खम्भे बनावट की दृष्टि से समान नहीं हैं । सम्पूर्ण मन्दिर एक ऊँची जगती पर खड़ा है जो चारों तरफ से ऊँची ठोस दीवारों से घिरी हुई है । वास्तव में यह मध्य कक्ष में चारों तरफ संमितीयता से बने हुए मन्दिरों का योगरूप है। इसके भीतर समानुपातिक रूप से बने हुए विविध भाग हैं । यह बीच-बीच में बने हुए खुले आँगनों से विशृंखलित तथा व्यवस्थित प्रकाश के बिम्ब प्रतिबिम्बों से चमत्कृत स्तम्भों का एक अन्तरहित दृश्य प्रस्तुत करता है । भित्ति चित्रकला : - ६१५ उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट एक जैन गुफा में चित्रकारी के कुछ अवचिह्न प्राप्त हुए हैं जो ई. पूर्व प्रथम शती के मालूम पड़ते हैं । हाथीगुंफा का राजा खारवेल (ई. पूर्व १६१ ) का शिलालेख सबसे प्राचीन जैन चित्रकारी प्रस्तुत करता है । तंजोर के निकटस्थ सीतन्नवसल से सातवीं शती की कुछ महत्त्वपूर्ण जैन चित्रकारी प्राप्त हुई है । यह चट्टान को काटकर बनाये गये एक जैन मन्दिर के छत, शीर्ष एवं स्तम्भों के ऊपरी भाग में सुरक्षित है । मन्दिर के बरामदे के सम्पूर्ण शीर्ष की चित्रकारी कला की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । उसमें कमल के फूलों से आच्छादित एक सरोवर का दृश्य प्रस्तुत किया गया है जिसमें मछलियों, हंसों, भैंसों, हाथियों तथा तीन पुरुषों के भी चित्र अंकित हैं। पुरुषों के चित्र बहुत ही आकर्षक हैं। वे सब अपने - अपने हाथों में कमल लिये हुए हैं। खम्भों पर नाचती हुई बालाओं के चित्र हैं । तिरुपरुत्तिकुनरम् या जिन-कांची ( कांजीवरम्) के एक जैन मन्दिर में सुन्दर भित्ति चित्रकारी के अवशेष मिलते हैं। श्रवणबेलगोला का जैनमठ विभिन्न भित्तिचित्रों से अलंकृत है । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ जैन धर्म-दर्शन लघु चित्रकारी : जैन कला के विकास में शास्त्रों की लघु चित्रकारीयुक्त सजावट भी महत्त्वपूर्ण है। इस तरह की चित्रकारी प्रस्तुत करनेवाली शैली की स्थापना १२ वीं शती के प्रारम्भ में गुजरात तथा राजस्थान में हुई, जो बाद में भी विकसित होती रही । अलंकरण के लिए चुने गये ग्रन्थों में कल्पसूत्र, कालकाचार्यकथा तथा उत्तराध्ययनसूत्र प्रमुख हैं । जैन लघु चित्रकारी का सबसे पुराना नमूना ताड़पत्र पर अंकित निशीथचूर्णि से प्राप्त होता है जो सन् ११०० का है । ज्ञाताधर्मकथा एवं अन्य अंगों की ताड़पत्रीय हस्तप्रति में प्राप्त सन् ११२७ के दो चित्र अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । जैन लघुचित्रों में चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शती के ताड़पत्र अथवा कागज पर बने चित्र सबसे अच्छे है। इनमें से बहुत से चित्र कल्पसूत्र तथा ज्ञाताधर्मकथा से सम्बन्धित हैं । जैन चित्रकला का क्रमिक इतिहास आधुनिक काल तक चला आता है जो ग्राम अथवा नगर के जैन समाज द्वारा वर्षावास के लिए जैन आचार्यों के पास भेजे जानेवाले बेलों से अलंकृत आमंत्रण पत्रों के रूप में है । इसका सबसे पुराना नमूना ईसा की १७ वीं शती का है । वस्त्र पर अंकित चित्रकारी पटों के रूप में मिलती है । सबसे प्राचीन पट सन् १३५४ का है । श्रमण, जनवरी १९७९ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संघ ? जैनसंघ के चार अंग हैं : श्रावक, श्राविका साधु और साध्वी । श्रावकश्राविकाओं का वैसा कोई सुव्यवस्थित एवं नियमित धार्मिक संगठन नहीं होता जैसा साधु-साध्वियों का श्रमणसंघ होता है। श्रावक-श्राविकाओं को अपने व्रत, नियम, कर्तव्य आदि के पालन में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता होती है । वे अपनी रुचि, शक्ति, परिस्थिति आदि के अनुसार यथायोग्य धार्मिक क्रिया-काण्ड करते हैं एवं समाज के सामान्य नियमानुसार व्यावहारिक प्रवृत्तियों में लगे रहते हैं । साधु-साध्वियों का सुव्यवस्थित संगठन होता है तथा उन्हें अनिवार्यतः धार्मिक विधानानुसार कार्य करना पड़ता है । जैन आचारशास्त्र में स्थविरकल्पिक मुनि के लिए व्रतपालन की भिन्न व्यवस्था की गई है एवं जिनकल्पिक मुनि के लिए भिन्न । जिनकल्पिक मुनि का आचार अति कठोर तपोमय होता है, अतः उसे विशेष प्रकार के संगठन अथवा सामूहिक मर्यादाओं में न बाँधकर एकाकी विचरने की अनुमति दी गई है । वह एकलविहारी एवं एकान्तविहारी होकर ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। स्थविरकल्पिक के विषय में यह बात नहीं है । वह एकाकी रहकर संयम का पालन समुचित रूप से नहीं कर सकता । उसकी मानसिक भूमिका अथवा आध्यात्मिक भूमिका इतनी विकसित नहीं होती कि वह अकेला रहकर सर्वविरत श्रमधर्म का पालन कर सके । इसलिए स्थविरकल्पिकों के लिए संघव्यवस्था की गई है। संघ से पृथक् होकर विचरण करने वाले स्थविरकल्पिकों के विषय में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पंचम अध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि एकचारी बहुक्रोधी, बहुमानी, बहुमायी एवं बहुलोभी होते हैं । वे 'हम तो ध र्म में उद्यत हैं, ऐसा अपलाप करते हैं । वस्तुतः उनका दुराचरण कोई देख न ले इसलिए वे एकाकी विचरते हैं । वे अपने अज्ञान एवं प्रमाद के कारण ध र्म को नहीं जानते । व्यवहारसूत्र के प्रथम उद्देश में एकलविहारी साधु के विषय में कहा गया है कि कोई साधु गण का त्याग कर अकेला ही विचरे और बाद में पुनः गण में सम्मिलित होना चाहे तो उसे आलोचना आदि (प्रायश्चित्त) Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन करवाकर प्रथम दीक्षा का छेद अर्थात् भंग कर नई दीक्षा अंगीकार करवानी चाहिए । जो नियम सामान्य एकलविहारी निर्ग्रन्थ के लिए है वही एकलविहारी गणावच्छेदक, उपाध्याय, आचार्य आदि के लिए भी है । गच्छ, कुल, गण व संघ : ६१८ श्रमण संघ के मूल दो विभाग हैं: साधुवर्ग व साध्वीवर्ग । संख्या की विशालता को दृष्टि में रखते हुए इन वर्गों को अनेक उपविभागों में विभक्त किया जाता है । जितने साधुओं व साध्वियों की सुविधापूर्वक देख-रेख व व्यवस्था की जा सके उतने साधु-साध्वियों के समूह को गच्छ कहा जाता है। इस प्रकार के गच्छ के नायक को गच्छाचार्य कहते हैं । गच्छ के साधुओं अथवा साध्वियों की संख्या बड़ी होने पर उनका विभिन्न वर्गों में विभाजन किया जा सकता है । इस प्रकार के वर्ग में कम से कम कितने साधु हों, इसका विधान करते हुए व्यवहारसूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि हेमन्त तथा ग्रीष्म ऋतु में आचार्य एवं उपाध्याय के साथ कम से कम एक अन्य साधु रहना चाहिए । अन्य वर्गनायक, जिसे जैन परिभाषा में गणावच्छेदक कहते हैं, के साथ हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु में कम से कम दो अन्य साधु रहने चाहिएं । वर्षाऋतु में आचार्य एवं उपाध्याय के साथ दो तथा गणावच्छेदक के साथ तीन अन्य साधुओं का रहना अनिवार्य है । पंचम उद्देश में साध्वियों की अल्पतम संख्या का विधान करते हुए कहा गया है कि प्रवर्तिनी (प्रधान आर्या) को हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु में कम से कम दो तथा वर्षा ऋतु में कम से कम तीन अन्य साध्वियों के साथ रहना चाहिए। गणावच्छेदिनी के साथ वर्षाकाल में कम से कम चार तथा अन्य समय में कम से कम तीन साध्वियाँ रहनी चाहिएं । गच्छ के विभिन्न वर्गों के साधु-साध्वी गच्छाचार्य की आज्ञा के अनुसार ही विचरण करते हैं । इस प्रकार के अनेक गच्छों के समूह को कुल कहते हैं । कुल के नायक को कुलाचार्य कहा जाता है । अनेक कुलों के समूह को गण तथा अनेक गणों के समुदाय को संघ कहते हैं । गणनायक गणाचार्य अथवा गणधर तथा संघनायक संघाचार्य अथवा प्रधानाचार्य कहलाता है | Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ ६१९ आचार्य : श्रमण श्रमणियों में आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उसके बाद उपाध्याय, गणी आदि का स्थान आता है। व्यवहारसूत्र के तृतीय उद्देश में आचार्य-पद की योग्यताओं का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है कि जो कम से कम पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार में कुशल है, प्रवचन में प्रवीण है यावत् दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प अर्थात् बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्रों का ज्ञाता है उसे आचार्य एवं उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है। आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण यदि आचारकुशल, प्रवचनप्रवीण एवं असंक्लिष्टमना है तथा कम से कम स्थानांग व समवायांग सूत्रों का ज्ञाता है तो उसे आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक आदि की पदवी प्रदान की जा सकती है। ये सामान्य नियम हैं। अपवाद के तौर पर तो विशेष कारणवशात् संयम से भ्रष्ट हो पुनः श्रमणाचार अंगीकार करने वाले निर्ग्रन्थ को एक दिन की दीक्षापर्याय वाला होने पर भी आचार्यादि पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इस प्रकार का निर्ग्रन्थ संस्कारों की दृष्टि से सामान्यतया प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत एवं बहुमत कुल का होना आवश्यक है। इतना ही नहीं, उसमें खुद में प्रतीति, धैर्य, समभाव आदि स्वकुलोपलब्ध गुणों का होना जरूरी है। सूत्रों का ज्ञान तो आवश्यक है ही। इस प्रकार का निर्ग्रन्थ कुलसम्पन्न एवं गुणसम्पन्न होने के कारण अपने दायित्व का सम्यक्तया निर्वाह कर सकता है। __ मैथुन सेवन करनेवाले श्रमण को आचार्य आदि की पदवी प्रदान करने का निषेध करते हुए कहा गया है कि जो गच्छ से अलग हुए बिना अर्थात् गच्छ में रहते हुए ही मैथुन में आसक्त हो उसे जीवनपर्यन्त आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी एवं गणावच्छेदक की पदवी देना निषिद्ध है। गच्छ का त्याग कर मैथुन सेवन करनेवाले को पुनः दीक्षित हो गच्छ में सम्मिलित होने के बाद तीन वर्ष तक आचार्यादि की पदवी प्रदान करना निषिद्ध है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शान्त हों, कषायादि का अभाव हो तो उसे आचार्य आदि के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। श्रमण-श्रमणियों के लिए यह आवश्यक है कि वे आचार्य आदि पूज्य Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० जैन धर्म-दर्शन पुरुषों की अनुपस्थिति में विचरण न करें और न कहीं रहें ही। व्यवहारसूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि ग्रामानुग्राम विचरते हुए यदि अपने गण के आचार्य की मृत्यु हो जाय तो अन्य गण के आचार्य को प्रधान के रूप में अंगीकार कर रागद्वेषरहित होकर विचरण करना चाहिए। यदि उस समय कोई योग्य आचार्य न मिल सके तो अपने में से किसी योग्य साधु को आचार्य की पदवी प्रदान कर उसकी आज्ञा के अनुसार आचरण करना चाहिए। इस प्रकार के योग्य साधु का भी अभाव हो तो जब तक अपने अमुक साधर्मिक साधु न मिल जायें तब तक मार्ग में एक रात्रि से अधिक न ठहरते हुए लगातार विहार करते रहना चाहिए। रोगादि विशेष कारणों से कहीं अधिक ठहरना पड़ जाय तो कोई हानि नहीं। वर्षाऋतु के दिनों में आचार्य का अवसान होने पर भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए। इस प्रकार की विशेष परिस्थिति में वर्षाकाल में भी विहार विहित निन्थियों के विषय में व्यवहारसूत्र के सप्तम उद्देश में बताया गया है कि तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले निर्ग्रन्थ को तीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाली निर्ग्रन्थी उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। इसी प्रकार पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले निर्ग्रन्थ को साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली निर्गन्धी आचार्य अथवा उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। तात्पर्य यह है कि साधु-साध्वियों को बिना आचार्यादि के नियन्त्रण के स्वच्छन्दतापूर्वक नहीं रहना चाहिए। अपने जीवन के अन्तिम समय में आचार्य विविध पदों पर नियुक्तियाँ कर सकता है। एतद्विषयक विशिष्ट विधान करते हुए व्यवहारसूत्र के चतुर्य उद्देश में कहा गया है कि यदि आचार्य अधिक बीमार हो और उसके जीने की विशेष आशा न हो तो उसे अपने पास के साधुओं को बुलाकर कहना चाहिए कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पद प्रदान करें। आचार्य की मृत्यु के बाद यदि वह साधु अयोग्य प्रतीत न हो तो उसे उस पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिए। अयोग्य प्रतीत होने पर किसी अन्य योग्य साधु को वह पद प्रदान करना चाहिए। अन्य योग्य साधु के अभाव में आचार्य के सुझाव के अनुसार किसी Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ ६२१ भी साधु को अस्थायी रूप से कोई भी पद प्रदान किया जा सकता है। अन्य योग्य साधु के तैयार हो जाने पर अस्थायी पदाधिकारी को अपने पद से अलग हो जाना चाहिए। आचार्य का सामान्य कार्य अपने अधीनस्थ साधु-साध्वीवर्ग की सब तरह की देख-रेख रखना है। वह उनका मुख्य अधिकारी होता है। उसका विशेष कार्य साधु-साध्वियों को उच्च कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है- उच्च अध्यापन करना है। आचार्य के बाद उपाध्याय का स्थान है और उसके बाद प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक, रालिक अथवा रत्नाधिक आदि का। उपाध्याय: उपाध्याय का मुख्य कार्य साधु-साध्वियों को प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है। व्यवहारसूत्र के तृतीय उद्देश में उपाध्याय-पद की योग्यताओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार में कुशल है, संयम में सुस्थित है, प्रवचन में प्रवीण है, प्रायश्चित्त प्रदान करने में समर्थ है, गच्छ के लिए क्षेत्रादि का निर्णय करने में निष्णात है, निर्दोष आहारादि की गवेषणा में निपुण है, संक्लिष्ट परिणामों - भावों से अस्पृष्ट है, चारित्रवान् है, बहुश्रुत है वह उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित करने योग्य है। प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक एवं रत्नाधिक : प्रवर्तक का मुख्य कर्तव्य साधु-साध्वियों को श्रमणाचार की प्रवृत्ति में प्रवृत्त करना एवं तद्विषयक शिक्षा देना है। प्रवर्तक श्रमण-संघ का आचाराधि कारी होता है। वह आचार व विचार दोनों में कुशल होता है। स्थविर (वृद्ध) तीन प्रकार के कहे गये हैं : जाति-स्थविर, सूत्र-स्थविर और प्रव्रज्या स्थविर। साठ वर्ष की आयु होने पर श्रमण जाति-स्थविर होता है। स्थानांगादि सूत्रों का ज्ञाता साधु सूत्र-स्थविर कहलाता है। दीक्षा ग्रहण करने के बीस वर्ष बाद अर्थात् बीस वर्ष की दीक्षापर्याय हो जाने पर निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या स्थविर कहलाने लगता है। स्थविर का मुख्य दायित्व श्रमण संघ में प्रविष्ट होने वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को श्रमण-धर्मोपयोगी प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करना है। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन गणी का मुख्य कार्य अपने गण को सूत्रार्थ देना अर्थात् शास्त्र पढ़ाना है | गणी को वाचनाचार्य अथवा गणधर भी कहा जाता है। ६२२ गणावच्छेदक अमुक गच्छ अथवा वर्ग का नायक होता है। उस वर्ग के समस्त साधुओं का नियन्त्रण उसके हाथ में होता है । श्रमण संघ के विशिष्ट ज्ञानाचारसम्पन्न निर्ग्रन्थ रानिक अथवा रत्नाधि क कहलाते हैं। ये महानुभाव विविध अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों पर आचार्यादि की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि दिगम्बर ग्रंथों में भी श्रमण संघ के विशिष्ट पुरुषों अथवा अधिकारियों के नाम लगभग इसी रूप में मिलते हैं। उनमें आचार्य, उपाध्याय, गणधर, स्थविर, प्रवर्तक, रानिक आदि नाम उपलब्ध होते हैं। निर्ग्रन्थी-संघ : निर्ग्रन्थ-संघ की ही भाँति निर्ग्रन्थी संघ भी आचार्य एवं उपाध्याय के ही अधीन होता है। ऐसा होते हुए भी उसके लिए भिन्न व्यवस्था करना अनिवार्य है, क्योंकि उसका संगठन स्वतन्त्र ही होता है। निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के साथ बैठने, उठने, आने, जाने, खाने, पीने, रहने, फिरने आदि की मनाही है। निर्ग्रन्थियों को अपने ही वर्ग में रहकर संयम की आराधना करनी होती है। यही कारण है कि निर्ग्रन्थी संघ में भी विशिष्ट पदाधिकारियों की नियुक्तियाँ की जाती हैं। इस प्रकार की नियुक्तियाँ मुख्यतः निम्नोक्त चार पदों से सम्बन्धित होती हैं : प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और प्रतिहारी। पूरे श्रमण-संघ में आचार्य का जो स्थान है वही स्थान निर्ग्रन्थी संघ में प्रवर्तिनी का है। उसकी योग्यताएँ भी आचार्य आदि के ही समकक्ष हैं अर्थात् आठ वर्ष की दीक्षापर्यायवाली साध्वी आचारकुशल, प्रवचनप्रवीण तथा असंक्लिष्ट चित्तवाली एवं स्थानांग समवायांग की ज्ञाता होने पर प्रवर्तिनी के पद पर प्रतिष्ठित की जा सकती है। प्रवर्तिनी को महत्तरा के रूप में भी पहचाना जाता है। आचार्य - उपाध्याय के अधीन होने के कारण उसे महत्तमा नहीं कहा जाता। कहीं-कहीं प्रधानतम साध्वी के लिए गणिनी शब्द का भी प्रयोग हुआ है। साध्वी संघ में गणावच्छेदिनी का वही स्थान है जो Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ श्रमण-संघ में उपाध्याय का है। इसीलिए गणावच्छेदिनी को उपाध्याया के रूप में भी पहचाना जाता है। श्रमण-संघ में जो स्थान स्थविर का है वही स्थान साध्वीसंघ में अभिषेका का है। इसीलिए उसे स्थविरा भी कहा जाता है। प्रतिहारी रालिक अथवा रत्नाधिक श्रमण के समकक्ष मानी जा सकती है। प्रतिहारी निर्ग्रन्थी को प्रतिश्रयपाली, द्वारपाली अथवा संक्षेप में पाली के रूप में भी पहचाना जाता है। निर्ग्रन्थी-संघ की पदाधिकारिणियाँ भी निर्ग्रन्थ पदाधिकारियों के ही समान ज्ञानाचार-सम्पन्न होती हैं। मूलाचार के सामाचार नामक चतुर्य अधिकार में संघ के श्रमण-श्रमणियों के पारस्परिक व्यवहार का विचार करते हुए कहा गया है कि तरुण श्रमण को तरुण श्रमणी के साथ संभाषण आदि नहीं करना चाहिए, श्रमणों को श्रमणियों के साथ नहीं ठहरना चाहिए, श्रमणियों को आचार्य से पाँच हाय दूर, उपाध्याय से छः हाथ दूर तथा अन्य साधुओं से सात हाथ दूर बैठकर वंदना करनी चाहिए। श्रमणियों को पारस्परिक संरक्षण की भावना से तीन, पाँच अथवा सात की संख्या में भिक्षा के लिए जाना चाहिए। वैयावृत्य : वैयावृत्य अर्थात् सेवा के विषय में स्थविरकल्पिकों के लिए सामान्य नियम यही है कि साधु साध्वी से एवं साध्वी साधु से किसी प्रकार का काम न ले। अपवाद के रूप में साधु-साध्वी परस्पर सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं। सर्पदंश आदि विषम परिस्थिति में आवश्यकतानुसार कोई भी स्त्री अथवा पुरुष साधु-साध्वी की औषधोपचाररूप सेवा कर सकता है । जिनकल्पिकों को त्यागी अथवा गृहस्थ किसी से किसी भी प्रकार की सेवा लेना अथवा करना अकल्प्य निर्ग्रन्थ निग्रन्थियों के लिए सामान्यतया दस प्रकार की सेवा आचरणीय बताई गई है : १. आचार्य की सेवा, २. उपाध्याय की सेवा, ३. स्थविर की सेवा, ४. तपस्वी की सेवा, ५. शैक्ष अर्थात् छात्र की सेवा, ६. ग्लान अर्थात् रोगी की सेवा, ७. साधर्मिक की सेवा, ८. कुल की सेवा, ९. गण की सेवा, १०. संघ की सेवा । इस प्रकार की सेवा से महानिर्जरा का लाभ होता है । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ जैन धर्म-दर्शन दीक्षा : प्रव्रज्या अथवा दीक्षा के विषय में सामान्य नियम यही है कि साधु स्त्री को तथा साध्वी पुरुष को दीक्षित न करे । यदि किसी ऐसे स्थान पर स्त्री को वैराग्य हुआ हो जहाँ आसपास में साध्वी न हो तो साधु उसे इस शर्त पर दीक्षा दे सकता है कि दीक्षा देने के बाद उसे यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर दे । इसी शर्त पर साध्वी भी पुरुष को दीक्षा प्रदान कर सकती है। तात्पर्य इतना ही है कि दीक्षा के नाम पर किसी प्रकार से साधु स्त्रीसंग के दोष का भागी न बने और साध्वी पुरुषसंग के दोष से दूर रहे । इसे ध्यान में रखते हुए दीक्षा देने की औपचारिक विधि किसी भी योग्य निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी द्वारा सम्पन्न की जा सकती है । दीक्षित होने के बाद साधु का निर्ग्रन्थ-वर्ग में एवं साध्वी का निर्ग्रन्थी-वर्ग में सम्मिलित होना आवश्यक है । निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को नियमानुसार किसी भी अवस्था में आठ वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं को दीक्षा नहीं देनी चाहिए। दीक्षा के लिए विचारों की परिपक्वता भी आवश्यक है। अपरिपक्व आयु, अपरिपक्व विचार एवं अपरिपक्व वैराग्य दीक्षा के पवित्र उद्देश्य की संप्राप्ति में बाधक सिद्ध होते हैं। पंडक, क्लीव आदि अयोग्य पुरुषों को भी दीक्षा नहीं देनी चाहिए । प्रायश्चित्त : प्रायश्चित्त का अर्थ है व्रत में लगनेवाले दोषों के लिए समुचित दण्ड । श्रमण संघ की व्यवस्था सुचारु रूप से चले, इसके लिए दण्डव्यवस्था आवश्यक है । किसी भी व्यवस्था के लिए चार बातों का विचार आवश्यक माना जाता है - १. उत्सर्ग, २. अपवाद, ३. दोष, ४. प्रायश्चित्त । किसी विषय का सामान्य अथवा मुख्य विधान उत्सर्ग कहलाता है । विशेष अथवा गौण विधान का नाम अपवाद है । उत्सर्ग अथवा अपवाद का भंग दोष कहलाता है । दोष से सम्बन्धित दण्ड को प्रायश्चित्त कहते हैं । प्रायश्चित्त से लगे हुए दोषों की शुद्धि होने के साथ ही साथ नये दोषों की भी कमी होती जाती है । यही प्रायश्चित्त की उपयोगिता है । यदि प्रायश्चित्त से न तो लगे हुए दोषों की शुद्धि हो और न नये दोषों की कमी तो वह निरर्थक है - निरुपयोगी है | Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ ६२५ जीतकल्प सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए दस प्रकार के प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है : १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. उभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक । इन दस प्रकारों में से अन्तिम दो प्रकार चतुर्दशपूर्वधर (प्रथम भद्रबाहु) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका विच्छेद हो गया - व्यवहार बंद हो गया । मूलाचार के पंचाचार नामक पंचम अधिकार में भी प्रायश्चित्त के दस ही प्रकार बताये गये हैं। उनमें अन्तिम दो के सिवाय सब नाम वही हैं जो जीतकल्प में है। अन्तिम दो प्रकार परिहार व श्रद्धान के रूप में हैं । सम्भवतः अन्तिम दो प्रायश्चित्तों का व्यवहार बन्द हो जाने के कारण यह अन्तर हो गया हो। आहारादिग्रहण, बहिर्निर्गम, मलोत्सर्ग आदि प्रवृत्तियों में लगनेवाले दोषों की शुद्धि के लिए आलोचना रूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । आलोचना का अर्थ है सखेद अपराध-स्वीकृति । प्रमाद, आशातना, अविनय, हास्य, विकथा, कन्दर्प आदि दोषों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । प्रतिक्रमण का अर्थ है दुष्कृत को मिथ्या करना अर्थात् किये हुए अपराधों से पीछे हटना । अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भाषण, दुश्चेष्टा आदि अनेक अपराध आलोचना व प्रतिक्रमण उभय के योग्य हैं। अशुद्ध आहार आदि का त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है। विवेक का अर्थ है अशुद्ध भक्तादि का विचारपूर्वक परिहार । गमनागमन, श्रुत, स्वप्न आदि से सम्बन्धित दोषों की शुद्धि के लिए व्युत्सर्ग अर्थात् कायोत्सर्ग किया जाता है । कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर की ममता का त्याग। ज्ञानातिचार आदि विभिन्न अपराधों की शुद्धि के लिए एकाशन, उपवास, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त आदि तपस्याओं का सेवन किया जाता है । इसी का नाम तप प्रायश्चित्त है। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन छेद का अर्थ है दीक्षापर्याय में कमी । इस प्रायश्चित्त में विभिन्न अपराधों के लिए दीक्षावस्था में विभिन्न समय की कमी कर दी जाती है । इस कमी से अपराधी श्रमण का स्थान संघ में अपेक्षाकृत नीचा हो जाता है। जो तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा तप के लिए सर्वथा अयोग्य है, जिसकी तप पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है अथवा जिसका तप से दमन करना अति कठिन है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान है। __ पंचेन्द्रियघात, मैथुनप्रतिसेवन आदि अपराधों के लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान है । मूल का अर्थ हे अपराधी की पूर्व प्रव्रज्या को मूलतः समाप्त कर उसे पुनर्दीक्षित करना अर्थात् नई दीक्षा देना। तीव्र क्रोधादि से प्ररुष्ट चित्तवाले घोर परिणामी श्रमण के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का विधान है । अनवस्थाप्य का अर्थ है अपराधी को तुरन्त नई दीक्षा न देकर अमुक प्रकार की तपस्या करने के बाद ही पुनः दीक्षित करना। पारांचिक प्रायश्चित्त देने का अर्थ है अपराधी को हमेशा के लिए संघ से बाहर निकाल देना । तीर्थकर, प्रवचन, आचार्य, गणधर आदि की अभिनिवेशवश पुनः पुनः आशातना करनेवाला पारांचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है । उसे श्रमण-संघ से स्थायी रूप से बहिष्कृत कर दिया जाता है । किसी भी अवस्था में उसे पुनः प्रव्रज्या प्रदान नहीं की जाती। बृहत्कल्प के चतुर्य उद्देश में दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है तथा साधर्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य एवं मुटिपहार के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था है ।। निशीथसूत्र में चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक,गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक । यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लघुमास अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन अर्थात् अर्ध-उपवास समझना चाहिए । इस प्रकार गुरुमासिक आदि तप प्रायश्चित के ही भेद हैं। अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रमण-संघ ६२७ अंगादान को नली में डालना, पुष्यादि झूधना, पात्र आदि दूसरों से साफ करवाना, सदोए आहार का उपयोग करना आदि क्रियाएँ गुरुमासिक प्रायश्चित्त के योग्य - दारुदण्ड का पादपोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ की संगति करना, शय्यातर अर्थात् अपने ठहरने के मकान के मालिक के यहाँ का आहार-पानी ग्रहण करना आदि क्रियाएँ लघुमासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। - स्त्री अथवा पुरुष से मैथुनसेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना; गुदा अथवा योनि में लिंग डालना, स्तन आदि हाथ में पकड़ कर हिलाना अथवा मसलना, पशु-पक्षी को स्त्रीरूप अथवा पुरुषरूप मानकर उनका आलिंगन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचल होकर सचेल के साथ रहना अथवा सचेल होकर अचेल के माथ रहना अथवा अचेल होकर अचेल के साथ रहना आदि क्रियाएँ गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य है। प्रत्याख्यान का बार-बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, पात्र, शय्या आदि का उपयोग करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतर्थ प्रहर तक रखना. अर्धयोजन अर्थात दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विरेचन लेना अथवा औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को नमस्कार करना, वाटिका आदि सार्वजनिक स्थानों में टट्टी-पेशाब डालकर गंदगी करना. गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार में प्रवेश करना, समान आचारवाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान आदि की सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना अथवा योग्य को शास्त्र न पढ़ाना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना अथवा उससे पढ़ना आदि ___ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ जैन धर्म-दर्शन क्रियाएँ लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं । निशीथसूत्र के अन्तिम उद्देश में सकपट आलोचना के लिए निष्कपट आलोचना से एकमासिक अतिरिक्त प्रायश्चित्त का विधान है तथा प्रायश्चित्त करते हुए पुनः दोष लगने पर विशेष प्रायश्चित्त की व्यवस्था है । व्यवहारसूत्र के प्रथम उद्देश में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है । कहीं-कहीं ऐसा भी देखने में आता है कि एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त नियत किये गये हैं। इसका कारण परिस्थिति की भिन्नता, अपराधी की भावना एवं अपराध की तीव्रता-मंदता है । ऊपर से समान दिखाई देने वाले दोष में परिस्थिति की विशेषता एवं अपराधी के आशय के अनुरूप तारतम्य होना स्वाभाविक है। इसी तारतम्य के अनुसार अपराध की तीव्रता - मंदता का निर्णय कर तदनुरूप दण्ड-व्यवस्था की जाती है । अतः एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त देने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है । सामान्यतया प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य को होता है । परिस्थितिविशेष को ध्यान में रखते हुए अन्य अधिकारी भी इस अधिकार का उपयोग कर सकते हैं । अपराध विशेष अथवा अपराधी विशेष को दृष्टि में रखते हुए सम्पूर्ण संघ भी एतद्विषयक आवश्यक कार्यवाही कर सकता है । इस प्रकार प्रायश्चित्त देने का अथवा तद्विषयक निर्णय का कार्य परिस्थिति, अपराध एवं अपराधी को दृष्टि में रखते हुए आचार्य, अन्य कोई पदाधिकारी अथवा सकल श्रमण-संघ सम्पन्न करता है । श्रमण, सितम्बर १९७७ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा-अहिंसा का जैन दर्शन अहिंसा हिंसा का निषेधात्मक रूप अथवा अभावात्मक पक्ष है । हिंसा का स्वरूप जानना अहिंसा के सम्यग्ज्ञान के लिए अनिवार्य है । जैन दार्शनिकों ने उस क्रिया को हिंसा कहा है जो प्रमाद अथवा कषायपूर्वक होती हो । दूसरे शब्दों में, प्रमत्तयोग अथवा सकषाय प्रवृत्ति से होने वाला प्राणवध हिंसा है । वैसे प्रमाद और कषाय में अन्तर है किन्तु यहां दोनों को हिंसा का कारण समझना चाहिए । प्रमत्त अवस्था में कषाय की विद्यमानता होती ही है किन्तु कषाय की उपस्थिति में प्रमाद का सदुभाव होता भी है और नहीं भी । प्रमाद अथवा कषाय हिंसा का कारण है और प्राणवध कार्य । प्राणवध का अर्थ प्राणिवध नहीं है, यद्यपि प्राणिवध का समावेश भी प्राणवध में होता है । प्राण का अर्थ है जीवन की शक्ति विशेष । यह शक्ति विविध इन्द्रियों, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास और आयु के रूप में उपलब्ध होती है । इनमें से किसी एक को अथवा अनेक को अथवा सबको हानि पहुंचाना हिंसा है - प्राणवध है । यह हिंसा मन से अथवा मन की, वचन से अथवा वचन की एवं काय से अथवा काय की होती है अर्थात् जिनसे हिंसा की जाती है उन्हीं की हिंसा होती भी है । संक्षेप में हिंसा का सम्बन्ध दो से है : मन से और शरीर से । मन में उन सबका समावेश होता है जिनका प्रमाद, कषाय आदि से सम्बन्ध है। इसे जैन परिभाषा में भाव हिंसा (मानसिक हिंसा) कहते हैं। शरीर में वे सब समाविष्ट हैं जो कायिक अथवा स्थूल हैं। इसे जैन विचारक द्रव्य हिंसा (शारीरिक हिंसा) कहते हैं । ___ यदि भाव और द्रव्य के इस रूप को हम ध्यान में रखें तो हिंसा-अहिंसा के निम्नोक्त चार रूप बनते हैं। १. जो हिंसा भावरूप भी है और द्रव्यरूप भी, ऐसी हिंसा को हम पूर्ण हिंसा कहेंगे । इसमें हिंसक प्रमत्त प्रवृत्ति भी करता है और प्राणवध भी । यह हिंसा का उत्कृष्ट रूप है । २. जो हिंसा केवल भावरूप है, ऐसी हिंसा किसी अंश में अपूर्ण होती है । इसमें केवल प्रमत्त प्रवृत्ति होती है । इसे हम अपूर्ण अहिंसा भी कह सकते हैं । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन ३. जो हिंसा केवल द्रव्यरूप है, ऐसी हिंसा को अपूर्ण अहिंसा अथवा अपूर्ण हिंसा कहा जा सकता है। इसमें केवल प्राणवध होता है । ४. जहां न भावरूप हिंसा है न द्रव्यरूप हिंसा, ऐसी स्थिति का नाम पूर्ण अहिंसा है । इसमें न प्रमत्त प्रवृत्ति होती है न प्राणवध । हिंसा-अहिंसा के विषय में मूलभूत प्रश्न यह है कि हिंसा को अनावरणीय एवं अहिंसा को आचरणीय क्यों कहा गया ? इस प्रश्न का एक उत्तर यह है कि चूंकि जगत् के सब प्राणी जीना चाहते हैं, कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता; सब को सुख प्रिय है, किसी को भी दुःख प्रिय नही है इत्यादि, इसलिए किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए, किसी को भी कष्ट सन्ताप पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। यह उत्तर पर की दृष्टि से है, स्व की दृष्टि से नहीं। सब कुछ भी चाहें किन्तु मैं वह क्यों करूं ? क्या मेरा भी उस क्रिया से कोई सम्बन्ध है ? हिंसा व्यक्ति के लिए अनाचरणीय इसलिए है कि इससे उसकी आत्मा अशुभ कर्मों से बद्ध होती है । प्रमत्त योग अर्थात् प्रमादयुक्त अथवा कषाययुक्त प्रवृत्ति से कषायवर्धक यानी विकारवर्धक कर्मों की परम्परा बढ़ती है। इसीलिए हिंसा आदि कुप्रवृत्तियाँ त्याज्य हैं - अनाचरणीय हैं । यह इस प्रश्न का तर्कसंगत उत्तर है। अहिंसा हिंसा से विपरीत है अतः अहिंसक अर्थात् अप्रमत्त एवं कषायमुक्त प्रवृत्ति व्यक्ति के लिए आचरणीय है । यह जैन दृष्टि से अहिंसा की उपादेयता है । हिंसा का निषेष इसलिए किया गया है कि हिंसा कषाय का कारण भी हैं और 'कार्य भी । यह कषाय से उत्पन्न भी होती है और कषाय को उत्पन्न भी करती है । अहिंसा न तो कषाय का कारण है और न कषाय का कार्य । अतः वह आचरणीय है । ६३० भाव हिंसा का सम्बन्ध कषाय से है अतः वह त्याज्य है किन्तु द्रव्य हिंसा त्याज्य क्यों ? द्रव्य हिंसा भाव हिंसा से उत्पन्न होती है और भाव हिंसा को उत्पन्न भी करती है । यह कैसे ? किसी के मन में क्रूरता होने पर प्राणिहत्या की क्रिया उत्पन्न होती है और प्राणिहत्या की क्रिया से क्रूरता की वृद्धि भी होती है । एक व्यक्ति ऐसा है जो केवल वध की भावना करता है, दूसरा भावना के बाद वध भी करता है और तीसरे से भावना के बिना ही वध हो जाता है । इन तीनों Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा-अहिंसा का जैन दर्शन ६३१ की हिंसा में असमानता है। सबसे अल्प हिंसा का भागी वह व्यक्ति होता है जिसके द्वारा निभावना के वध हो जाता है क्योंकि हिंसा-अहिंसा का मुख्य सम्बन्ध भावना से है। जो केवल वध की भावना करता है वह उससे अधिक हिंसा का भागी होता है । जो मानना और वध दोनों करता है वह सर्वाधिक हिंसा का भागी होता है क्योंकि भावना के साथ वध करने वाले की भावना में अधिक तीव्रता होती है जिसका केवल भावना करने वाले में अभाव होता है । वध हो जाना और वध करना, कष्ट पहुँचना और कष्ट देना, हानि हो जाना और हानि पहुँचाना -ई- दो प्रकार की क्रियाओं में बहुत अन्तर है। प्रथम प्रकार की क्रिया भावना से असम्बद्ध होने के कारण अत्यल्प हिंसक होने से अहिंसा के समकक्ष होती है जबकि द्वितीय प्रकार की क्रिया भावना से सम्बद्ध होने के कारण हिंसा की कोटि में आती है। . जैसे हिंसा के क्रूरता, कठोरता, शोक, वैर, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या आदि अनेक रूप होते हैं वैसे ही अहिंसा के भी अनुकम्पा, करुणा, दया, अनुग्रह, मैत्री. समता, सहायता. उपकार, प्रमोद आदि विविध रूप होते हैं । हिंसा विधि रूप होते हुए भी निषेधात्मक रूपों में उपलब्ध होती है तथा अहिंसा निषेधात्मक होते हुए भी विध्यात्मक रूपों में मिलती है। .. श्रमण, फरवरी १९८० Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकलंकदेव की दार्शनिक कृतियाँ आचार्य अकलंक जैन प्रमाणशास्त्र के प्रमुख प्रस्थापक हैं । जैन परम्परा में प्रमाणशास्त्र का स्वतन्त्र रूप से सुव्यवस्थित निरूपण अकलंक की प्रमुख देन है । दिङ्नाग के समय से लेकर अकलंक के समय तक भारतीय दर्शनों में प्रमाणशास्त्रविषयक जो संघर्ष चलता रहा उसे दृष्टि में रखते हुए जैन प्रमाणशास्त्र का तदनुरूप प्रतिपादन करने का सर्वाधिक श्रेय अकलंक को है । इनके द्वारा रचित सभी ग्रन्थ जैन दर्शन और जैन न्यायविषयक हैं । ये विक्रम की सातवींआठवीं शती में होने वाले दक्षिण भारत के जैन दार्शनिक हैं । अकलंकदेव की कृतियाँ दो वर्गों में विभक्त हैं : स्वतन्त्र ग्रन्थ और टीकाग्रन्थ । लधीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक और अष्टशती टीका-ग्रन्थ हैं । लघीयत्रय आदि चारों मूलग्रन्थों पर स्वोपज्ञवृत्ति भी है । लघीयत्रय - यह तीन छोटे-छोटे प्रकरणों का संगह-ग्रन्थ है । प्रथम प्रकरण का नाम प्रमाणप्रवेश, द्वितीय का नयप्रवेश तथा तृतीय का प्रवचनप्रवेश है । प्रमाणप्रवेश में चार परिच्छेद हैं : प्रत्यक्ष, प्रमेय, परोक्ष और आगम । लघीयस्त्रय में कुल ७८ कारिकाएँ हैं । न्यायविनिश्चय - इस ग्रन्थ में तीन प्रस्ताव हैं : प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन । तीनों प्रस्तावों में कुल ४८० कारिकाएँ हैं। प्रत्यक्ष प्रस्ताव में इन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण, चक्षुरादि बुद्धियों का व्यवसायालकत्व, ज्ञान के परोक्षवाद का खण्डन, ज्ञान के स्वसंवेदन की सिद्धि, साकारज्ञाननिरास, निराकारज्ञानसिद्धि आदि विषयों का समावेश है । अनुमान प्रस्ताव में अनुमान का लक्षण, अनुमान की बहिरर्थविषयता, साध्य एवं साध्याभास के लक्षण, शब्द का अर्थवाचकत्व, साधन एवं साधनाभास के लक्षण, प्रमेयत्व हेतु की अनेकान्तसाधकता, तर्क की प्रमाणता, वाद का लक्षण आदि विषय प्रतिपादित हैं । प्रवचन प्रस्ताव में प्रक्चन का स्वरूप, आगम के अपौरुषेयत्व का निराकरण, सर्वज्ञत्व का समर्थन, शब्द नित्यत्वनिरास, जीवादितत्वनिरूपण, मोक्ष का स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण आदि Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकलंकदेव की दार्शनिक कृतियाँ विषय समाविष्ट हैं । सिद्धिविनिश्चय - इस ग्रन्थ में बारह प्रस्ताव हैं। प्रथम प्रस्ताव का विषय प्रत्यक्षसिद्धि है । द्वितीय प्रस्ताव में सविकल्पसिद्धि, तृतीय में प्रमाणान्तरसिद्धि, चतुर्थ में जीवसिद्धि, पंचम में जल्पसिद्धि, षष्ठ में हेतुलक्षणसिद्धि, सप्तम में शास्त्रसिद्धि, अष्टम में सर्वज्ञसिद्धि, नवम में शब्दसिद्धि, दशम में अर्थनयसिद्धि, एकादश में शब्दनयसिद्धि और द्वादश में निक्षेपसिद्धि की गई है । इस प्रकार इस ग्रन्थ का सिद्धिविनिश्चय नाम सार्थक है । ६३३ प्रमाण-संग्रह - इस ग्रन्थ में नौ प्रस्ताव एवं ८७ कारिकाएं हैं । प्रथम प्रस्ताव में प्रत्यक्ष का लक्षण, श्रुत का प्रत्यक्ष-अनुमान-आगमपूर्वकत्व, प्रमाण का फल आदि विषय वर्णित हैं । द्वितीय प्रस्ताव में स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान का प्रामाण्य, तर्क का लक्षण आदि विषयों का प्रतिपादन है । तृतीय प्रस्ताव अनुमान के अवयव, साध्य एवं साधन के लक्षण, सामान्य-विशेषात्मक वस्तु की साध्यता, अनेकान्तात्मक वस्तु में दिये जाने वाले संशयादि दोषों की समीक्षा आदि से सम्बन्धित है । चतुर्थ प्रस्ताव हेतुविषयक है । पंचम प्रस्ताव में हेत्वाभास का विवेचन है । षष्ठ प्रस्ताव में वाद का स्वरूप बताते हुए जयपराजयव्यवस्था आदि से सम्बन्धित विषयों का व्याख्यान किया गया है। सप्तम प्रस्ताव में प्रवचन का लक्षण, सर्वज्ञ की सिद्धि, अपौरुषेयत्व का खण्डन आदि विषयों का प्रतिपादन है । अष्टम प्रस्ताव में सप्तभंगी का निरूपण करते हुए नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत इन सात नयों का कथन किया गया है । अन्तिम प्रस्ताव में प्रमाण, नय तथा निक्षेप का उपसंहार है । तत्त्वार्थराजनार्तिक - उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, आत्मविद्या, पदार्थविज्ञान, कर्मशास्त्र आदि समस्त महत्त्वपूर्ण विषयों का लघु कोश है । इस पर पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि नामक एक संक्षिप्त किन्तु अति महत्त्वपूर्ण टीका है। इस टीका के आधार पर अकलंक ने १६००० श्लोकप्रमाण एक विस्तृत व्याख्या का निर्माण किया जो राजवार्तिक के नाम से प्रसिद्ध है । इस तत्त्वार्थराजवार्तिक में दर्शन के प्रत्येक विषय पर किसी-न-किसी रूप में प्रकाश डाला गया है । कहीं-कहीं खण्डन - मण्डन की प्रधानता है । इस Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ जैन धर्म-दर्शन वार्तिक की एक विशेषता यह है कि इसमें जितने भी मन्तव्यों की चर्चा हुई है उन राबका समाधान अनेकान्तवाद के द्वारा किया गया है। अपने समय तक विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं के विद्वानों ने अनेकान्तवाद पर जो आक्षेप किये एवं उसकी जो त्रुटियाँ बतलाई उन सबका निराकरण करने एवं अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का वास्तविक स्वरूप बतलाने के लिए ही अकलंक ने प्रस्तुत वार्तिक की रचना की है । सर्वार्थसिद्धि में जो आगमिक विषयों का प्राधान्य है उसे राजवार्तिककार ने कम करके दार्शनिक विषयों को प्रधानता दी है। . अष्टशती - समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा जैन दर्शन की एक श्रेष्ठ कृति है। आप्त कौन हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि जिसके सिद्धान्त दोषयुक्त न हों, प्रत्यक्ष तथा अनुमान से बाधित न हों वही आप्त हो सकता है । जिसमें मोहादि दोषों का सर्वथा अभाव है तथा जो सर्वज्ञ है वही आप्त है । ऐसा व्यक्ति जिन या अर्हत् ही हो सकता है क्योंकि उसके उपदेश प्रमाण से बाधित नहीं होते । उपर्युक्त आप्तमीमांसा पर अकलंक ने एक टीका लिखी है जो ८०० श्लोकप्रमाण है | अतः यह अटशती कहलाती है। इसमें विभिन्न दर्शनों के द्वैत-अद्वैतवाद, नित्य-अनित्यवाद, वक्तव्य-अध्यक्तव्यवाद, भेद-अभेदवाद, हेतु-अहेतुवाद, विज्ञान-बहिरर्थवाद, दैव पुरुषार्थवाद, पुण्यपापवाद, बन्ध-मोक्षवाद आदि अनेक परस्पर विरुद्ध वादों की समीक्षा करते हुए अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व की सिद्धि की गई है। . जैन विद्वानों में अकलंक के ग्रन्थों का विशेष सम्मान है । इन ग्रन्थों पर कई टीकाएँ भी लिखी गई । लघीयस्त्रय पर अभयचन्द्र तथा प्रभाचन्द्र ने, न्यायविनिश्चय पर अनन्तवीर्य तथा वादिराज ने, प्रमाण-संग्रह एवं सिद्धिविनिश्चय पर अनन्तवीर्य ने तथा अंधशती पर विद्यानन्दि ने विस्तृत टीकाएँ लिखी हैं । माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुख अकलंक के ही प्रमाणशास्त्रीय विचारों का सूत्रबद्ध रूप है। .. श्रमण, जनवरी १९७७ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्राचार्य की साहित्य-साधना आचार्य हेमचन्द्र का जैन साहित्यकारों में ही नहीं, समस्त संस्कृत साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है । इन्होंने साहित्य के प्रत्येक अंग पर कुछ न कुछ लिखा है । कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण विषय नहीं जिस पर हेमचन्द्र ने अपनी लेखनी न चलाई हो । इन्होंने व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य, चरित्र, न्याय, दर्शन, योग, स्तोत्र, नीति आदि अनेक विषयों पर विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ लिखें हैं । इन सब ग्रन्थों का परिमाण लगभग दो लाख श्लोक-प्रमाण है । समग्र भारतीय साहित्य में इतने विशाल वाङ्मय का निर्माण करनेवाला अन्य आचार्य दुर्लभ है । हेमचन्द्र की इसी प्रतिभा एवं ज्ञान-साधना से प्रभावित होकर विद्वानों ने उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि से विभूषित किया । ___ हेमचन्द्रसूरि का जन्म विक्रम संवत् ११४५ की कार्तिकी पूर्णिमा को गुजरात के धुंधुका ग्राम में हुआ था । इनका बाल्यावस्था का नाम चांगदेव था । ११५४ में ये देवचन्द्रसूरि के शिष्य बने एवं इनका नाम सोमचन्द्र रखा गया । देवचन्द्रसूरि अपने शिष्य के गुणों पर बहुत प्रसन्न थे एवं सोमचन्द्र की विद्वत्ता से अति प्रभावित थे, अतः उन्होंने अपने सुयोग्य शिष्य को ११६६ की वैशाख शुक्ला तृतीया को आचार्यपद प्रदान कर दिया । सोमचन्द्र के शरीर की प्रभा एवं कान्ति स्वर्ण के समान थी, अतः उनका नाम हेमचन्द्र रखा गया । संवत् १२२९ में हेमचन्द्र का निधन हुआ । हेमचन्द्रविरचित विविधविषयक ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार शब्दानुशासन - यह व्याकरणशास्त्र है । इस पर स्वोपज्ञ लघुवृत्ति, बृहद्वृत्ति, बृहन्यास, प्राकृतवृत्ति, लिंगानुशासन सटीक, उणादिगणविवरण, धातुपारायण-विवरण आदि हैं । ग्रन्थकार ने अपने पूर्ववर्ती व्याकरणों में रही हुई त्रुटियों से रहित सरल व्याकरण की रचना की है। इसमें सात अध्याय संस्कृत के लिए है तथा एक अध्याय प्राकृत (एवं अपभ्रंश) के लिए हैं । इस व्याकरण की रचना इतनी आकर्षक है कि इस पर लगभग ६० टीकाएँ एवं स्वतन्त्र रचनाएं Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जैन धर्म-दर्शन उपलब्ध होती हैं। काव्यानुशासन - यह अलंकारशास्त्र है । इसमें काव्य के प्रयोजन, हेतु, गुण-दोष, ध्वनि इत्यादि सिद्धान्तों पर गहन एवं विस्तृत विवेचन किया गया है। इस पर स्वोपज्ञ अलंकार-चूडामणि नामक वृत्ति एवं विवेक नामक व्याख्या छन्दोनुशासन- हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन और काव्यानुशासन की रचना करने के बाद छन्दोनुशासन लिखा है । इसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के छन्दों का सर्वांगीण परिचय है । इस पर छन्दश्चूडामणि नामक स्वोपज्ञ वृत्ति भी बचाश्रयमहाकाव्य - इस काव्य की रचना आचार्य ने अपने व्याकरण ग्रन्थ शब्दानुशासन के नियमों को भाषागत प्रयोग में समझाने के लिए की है । जिस प्रकार शब्दानुशासन संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में विभक्त है उसी प्रकार यह महाकाव्य भी संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में है । इसके २८ सर्गों में से प्रारम्भ के २० सर्ग संस्कृत में हैं जो संस्कृत व्याकरण के नियमों को उदाहृत करते हैं तथा अन्तिम ८ सर्ग (कुमारपालचरित) प्राकृत में है जो प्राकृत व्याकरण के नियम उदाहृत करते हैं । इस व्याश्रय काव्य के दो प्रयोजन हैं : एक तो व्याकरण के नियमों को समझाना और दूसरा गुजरात के चौलुक्यवंश का इतिहास प्रस्तुत करना । इस ऐतिहासिक काव्य में चौलुक्यवंश का और विशेषतः उस वंश के नृप सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल का गुणवर्णन किया गया है। विषष्टिशलाकापुरुषचरित - इस चरित्र-ग्रन्थ में जैन परम्परा के ६३ शलाकापुरुषों अर्थात् महापुरुषों का काव्यात्मक जीवनवृत्त है। ये शलाकापुरुष इस प्रकार हैं - २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ बलदेव और ९ प्रतिवासुदेव । इस विशाल ग्रन्थ की रचना हेमचन्द्राचार्य ने अपने जीवन की उत्तरावस्था में की थी । इसमें जैन पुराण, इतिहास, सिद्धान्त एवं तत्त्वज्ञान के संग्रह के साथ ही साथ समकालीन सामाजिक, धार्मिक और दार्शनिक प्रणालियों का प्रतिबिम्ब भी दृष्टिगोचर होता है। इसका परिशिष्टपर्व अर्थात् स्थविरावलिचरित Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेयचन्द्राचार्य की साहित्य-साधना जैन इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है । कोश - आचार्य हेमचन्द्र ने चार कोशग्रन्थों की रचना की है - १. अभिधानचिन्तामणि, २. अनेकार्थसंग्रह, ३. निघण्टुशेष, ४. देशीनाममाला । अभिधानचिन्तामणि में अमरकोश के समान एक अर्थ अर्थात् वस्तु के लिए अनेक शब्दों का उल्लेख है । इस पर स्वोपज्ञ टीका भी है। अनेकार्थसंग्रह में एक शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं । अभिधानचिन्तामणि एकार्थककोश है जब कि अनेकार्थसंग्रह नानार्थककोश है । निघण्टुशेष में वनस्पतियों के नामों का संग्रह है । यह कोश आयुर्वेदशास्त्र के लिए विशेष उपयोगी है । इसे अभिधानचिन्तामणि का पूरक कहा जा सकता है । देशीनाममाला में ३५०० देशी शब्दों का संकलन है । ये शब्द संस्कृत अथवा प्राकृत व्याकरण से सिद्ध नहीं होते । देशी शब्दों का ऐसा अन्य कोश उपलब्ध नहीं है । इस पर स्वोपज्ञ टीका भी है। प्रमाणमीमांसा - न्यायशास्त्र के इस ग्रन्थ में पहले सूत्र हैं और फिर उन पर स्वोपज्ञ व्याख्या है । इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि यह सूत्र और व्याख्या दोनों को मिलाकर भी मध्यमकाय है । यह न तो परीक्षामुख और प्रमाणनयतत्त्वालोक जितना संक्षिप्त ही है और न प्रमेयकमलमार्तण्ड और स्याद्वादरलाकर जितना विस्तृत ही । इसमें प्रमाणशास्त्र के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का मध्यम प्रतिपादन है । दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ पूर्ण उपलब्ध नहीं है । योगशाब- इसमें जैन योग की प्रक्रिया का पद्यबद्ध प्रतिपादन है । यह श्रमण-धर्म एवं श्रावक-धर्म के सिद्धान्तों की विवेचना करता हुआ ध्यानमार्ग के द्वारा मुक्तिप्राप्ति का निरूपण करता है । इस पर स्वोपज्ञ टीका भी है। बार्जिशिकाएँ-स्तोत्र-साहित्य की दृष्टि से हेमचन्द्रकृत अयोगव्यवच्छेदिका और अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक द्वात्रिंशिकाएँ उत्तम रचनाएँ हैं । इनमें बत्तीसबत्तीस श्लोक होने के कारण इन्हें 'द्वात्रिंशिका' नाम दिया गया है । अयोगव्यवच्छेदिका में जैन सिद्धान्तों का सरल प्रतिपादन है । अन्ययोगव्यवच्छेदिका में जैनेतर सिद्धान्तों का निराकरण है तथा इस पर मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी नामक टीका लिखी है जो जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । आईनीति - यह जैन नीतिशास्त्र की एक उत्तम कृति है । इसमें राजा, Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ ... जैन धर्म-दर्शन ... मन्त्री, सेनापति तथा राज्य के विविध अधिकारियों एवं प्रशासकों के कर्तव्यों और अधिकारों का निर्देश है । इसे लघु-अर्हन्त्रीति भी कहते हैं। इन महत्त्वपूर्ण कृतियों के अतिरिक्त बीतरागस्तोत्र, महादेवस्तोत्र, द्विजवदनचपेटिका, अहनामसहस्त्रसमुच्चय आदि के रचयिता भी आचार्य हेमचन्द्र ही हैं । इनका ज्ञान बहुमुखी था, इनकी प्रतिभा विलक्षण थी । श्रमण, मई १९७७ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ब्राह्मण थे, क्षत्रिय नहीं कल्पसूत्र में भगवान् महावीर के जीवन का जो चित्रण किया गया है उसमें बताया गया है कि शक्रेन्द्र के आदेश से हारनेगमेषी देव ने नर्भस्य महावीर को देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से निकालकर विशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में स्थापित किया एवं त्रिशला के गर्भ को देवानन्दा की कुक्षि में पहुँचाया । इस गर्भ-परिवर्तन का कारण बताते हुए सूत्रकार ने लिखा है कि चूंकि आरेहंत भगवंत इस प्रकार के अन्तकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, कृपणकुल, दरिद्रकुल, भिक्षुककुल यावत् ब्राह्मणकुल में जन्म नहीं लेते अपितु उनकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, ज्ञातूकुल, क्षत्रियकुलं, इक्ष्वाकुकूल, हरिवंशकुल एवं इसी प्रकार के अन्य विशुद्ध जाति-कुल-वंश में जन्म ग्रहण करते हैं। अतः शक्रेन्द्र ने महावीर के गर्भस्थ पिण्ड को ब्राह्मणी देवानन्दा की कुक्षि से निकलवाकर क्षत्रियाणी त्रिशला की कुक्षि में पहुँचवा दिया।' आचारांग में भी इस घटना का उल्लेख हुआ है किन्तु उसमें न तो हरिनैगमेषी का नाम ही आया है और न गर्भ परिवर्तन का कोई विशेष कारण ही बताया है। भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) में समवसरण में स्वयं भगवान महावीर के मुख से यह कहलाया गया है कि यह देवानन्दा मेरी जानी है अर्थात् मैं इसका आत्मज हूँ। इसीलिए मुझे देखकर इसके स्तन दूध से भर गये हैं और इसे हर्षरोमांच हो गया है। जैन आगमों में उपलब्ध इन उल्लेखों को देखकर मन में अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं। अन्य प्रश्नों को एक और रखकर यहां पर मुख्यरूप से इस प्रश्न पर विचार किया जाएगा कि महावीर के वास्तविक पिता और माता अर्थात् जनक एवं जननी कौन हैं ? क्या भगवतीसूत्र के उल्लेखानुसार देवानन्दा ब्राह्मणी महावीर की वास्तविक जननी यानी महावीर को जन्म देनेवाली माता है अथवा आचारांग १. कल्पसूत्र, सू..२०-२७ २- आचाराग, २.१७६ : ३ - भगवतीसूत्र, सू. ३८१ :... 3. . ... Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० जैन धर्म-दर्शन एवं कल्पसूत्र के उल्लेखानुसार त्रिशला क्षत्रियाणी ने महावीर को जन्म दिया ? महावीर के वास्तविक पिता त्रिशला के पति सिद्धार्थ हैं अथवा देवानन्दा के पति ऋषभदत्त ? जहां तक महावीर के वास्तविक पिता का प्रश्न है, भगवतीसूत्र एवं आचारांग तथा कल्पसूत्र इन तीनों आगमग्रन्थों के अनुसार निश्चितरूप से ऋषभदत्त ब्राह्मण ही अरिहंत भगवंत तीर्थंकर महावीर के वास्तविक पिता हैं। ऋषभदत्त की भार्या देवानन्दा ने ही अपने पति के द्वारा महावीर को गर्भ में धारण किया था तथा उस गर्भाधान की तिथि से नौ मास साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर महावीर का जन्म हुआ था। ऐसी स्थिति में किसी भी दृष्टि से विचार करने पर भगवान् महावीर के जनक ब्राह्मण ऋषभदत्त ही सिद्ध होते हैं; क्षत्रिय सिद्धार्थ नहीं। इस प्रकार महावीर ब्राह्मणपुत्र ही थे, क्षत्रियपुत्र नहीं। देवानन्दा और त्रिशला इन दोनों में से किसने महावीर को जन्म दिया अर्थात् महावीर की जननी कौन है, इस प्रश्न का समाधान मेरे विचार में तो यही आता है कि देवानन्दा ही महावीर की जननी है। गर्भधारण के विषय में तो उपर्युक्त तीनों आगम-ग्रन्थों का ऐकमत्य है कि देवानन्दा ब्राह्मणी ने महावीर को गर्भ में ग्रहण किया था। प्रसवन के सम्बन्ध में भगवतीसूत्र और आचारांग एवं कल्पसूत्र में मतभेद है। भगवतीसूत्र के अनुसार देवानन्दा ब्राह्मणी ही महावीर 'की जननी है अर्थात् महावीर ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या देवानन्दा के ही आत्मज हैं। आचारांग एवं कल्पसूत्र के अनुसार देवानन्दा महावीर की गर्भधारिणी माता है, प्रसविनी माता नहीं । प्रसवकार्य तो सिद्धार्थ क्षत्रिय की भार्या त्रिशला ने किया था । अतः महावीर त्रिशला के ही आत्मज हैं अर्थात् त्रिशला ही महावीर की जननी है। इस विषय में भगवतीसूत्र का उल्लेख अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है तथा आचारांग एवं कल्पसूत्र का उल्लेख कम प्रामाणिक । इस प्रतीति के निम्नोक्त कारण हैं - १ - भगवतीसूत्र (पन्द्रहवें शतक को छोड़कर) आचारांग (परिशिष्टरूप) द्वितीय श्रुतस्कन्ध (जिसमें महावीरविषयक उपर्युक्त कथन आता है) तथा कल्पसूत्र ( दशाश्रुतस्कन्ध के अष्टम उद्देश पर्युषणाकल्प का परिवर्धित रूप) से Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ब्राह्मण थे, क्षत्रिय नहीं अधिक प्राचीन है, यह तथ्य इन तीनों आगम-ग्रन्थों के आन्तरिक परीक्षण से स्पष्ट प्रकट होता है। आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध कल्पसूत्र से अवश्य प्राचीन है किन्तु भगवतीसूत्र से तो वह अर्वाचीन ही है, अतः भगवतीसूत्र का कथन इन दोनों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक मानना चाहिए। २ - आचारांग में गर्भपरिवर्तन का जीत-आचार अर्थात परम्परागत व्यवहार के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं बताया गया है, और न इस क्रिया के कर्ता किसी विशेष देव का ही नाम दिया गया है, जबकि कल्पसूत्रकार ने जातिवाद के संस्कार के कारण मनगढन्त कारण देते हुए इस क्रिया के लिए हरिनैगमेषी का नाम भी साथ में जोड़ दिया । ३-कल्पसूत्र में ब्राह्मणकुल को निम्नकोटि का बताया है जो ग्रन्थकार की अपनी सूझ है । इससे पूर्व किसी भी आगम-ग्रन्थ में ब्राह्मणकुल को हीन नहीं बताया गया है । इतना ही नहीं, आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में तो भगवान् महावीर को ही अनेक बार ब्राह्मण कहा गया है। आचारांग का यह अंश आगमसाहित्य में प्राचीनतम है । हां, पीछे के चूर्णि आदि व्याख्या-साहित्य में कल्पसूत्र का अनुसरण करते हुए ब्राह्मणों को घिग्जातीय अवश्य कहा गया है । ४-कल्पसूत्र में वर्णित गर्भपरिवर्तन का कारण काल्पनिक एवं अयथार्थ है । उसका कोई प्राचीन आधार नहीं है । वैसे भी गर्भपरिवर्तन की प्रक्रिया अस्वाभाविक,अनावश्यक एवं अशक्य प्रतीत होती है। खींच-तानकर उसे शक्य सिद्ध करना दूसरी बात है। ५ - भगवतीसूत्र में सिद्धार्थ तथा त्रिशला का कहीं नाम तक नहीं है। पन्द्रहवें शतक में एक स्थान पर महावीर की प्रव्रज्या के पूर्व उनके मातापिता का निधन होने का उल्लेख हुआ है, जो नवें शतक में उल्लिखित देवानन्दा एवं ऋषभदत्त के प्रसंग से विरुद्ध है । इस विरुद्धता का कारण यह है कि भगवतीसत्र का गोशालविषयक पन्द्रहवां शतक प्राचीनता एवं प्रामाणिकता की दृष्टि से सन्देहास्पद है । इसे प्रक्षिप्त, कृत्रिम एवं अप्रामाणिक सिद्ध कर इस ४ - आचारांग, १.७.१.९९७, १.७.८.३६, १.९.१.६४, १.९.२.७४ ५ - उत्तराध्ययन-चूर्णि, पृ. ८९; आवश्यक-चूर्णि, भा. १. पृ. ४९५, भा. २. पृ. २१,२०६ ६ - देखें - जैन धर्म-दर्शन, पृ. ३१ की पादटिप्पणी Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म-दर्शन विरुद्धता को आसानी से दूर किया जा सकता है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में जितने नाम एवं विशेषण आये हैं उनमें एक भी ऐसा शब्द नहीं है जिससे यह प्रतीत हो कि महावीर सिद्धार्थ एवं त्रिशला के पुत्र थे । समवायांग आदि जिन अन्य आगम-ग्रन्थों में महावीर के माता-पिता के रूप में त्रिशला एवं सिद्धार्थ के नामों का उल्लेख आता है वे सब ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा भगवतीसूत्र के पश्चात्कालीन हैं तथा आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध आदि से प्रभावित हैं । भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर के लिए 'ज्ञातृपुत्र' नाम का प्रयोग अवश्य हुआ है, किन्तु उसमें अथवा किसी अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता कि झातृवंश (आर्यकुल) क्षत्रियकुल से सम्बद्ध है ! आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं कल्पसूत्र में ज्ञातृवंश को क्षत्रियकुल से सम्बद्ध बताया गया है जो प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता । महावीर के ज्ञातृवंश को क्षत्रिय सिद्ध करने की भावना से ही ऐसा किया गया मालूम होता है । १४२ आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं कल्पसूत्र में कल्पित महावीर चरित का प्रभाव एवं प्रचार इतना अधिक बढ़ा कि दियम्बर परम्परा ने तो अर्धकल्पित चरित को भी एक ओर रखकर पूर्णकल्पित चरित को ही अपना लिया अर्थात् ऋषभदत्त एवं देवानन्दा का तो नामनिशान ही मित्र दिया तथा सिद्धार्थ और त्रिशला को महावीर के एकमात्र जनक जननी मान लिया एवं गर्भ-परिवर्तन की कृत्रिमता से मुक्ति प्राप्त कर ली। परामर्श (हिन्दी), जून १९८५ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 अप्रैल, 1928 को कानोड़ (उदयपुर - राजस्थान) के एक निर्धन परिवार में जन्म / प्रारम्भिक शिक्षा कानोड़ एवं ब्यावर (जैन गुरुकुल) में / 1946 से 1956 तक पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी के छात्र / सन् 1955 में दर्शन में डॉक्टरेट की उपाधि / सन् 1956 से 1961 तक राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग में राजपत्रित अधिकारी / प्रो. डॉ. मोहनलाल मेहता सन् 1961 से 1964 तक ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद के उपनिदेशक / सन् 1964 से 1977 तक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के निदेशक तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में जैनविद्या एवं प्राकृत के सम्मान्य प्राध्यापक / सन् 1977 से 1988 तक पूना विश्वविद्यालय मे जैन दर्शन के प्राध्यापक / सन् 1975 में विश्वयात्रा एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों में जैनविद्या के विविध पहलुओं पर व्याख्यान / उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान की सरकारों द्वारा विभिन्न पुस्तकें पुरस्कृत / - प्रकाशित ग्रन्थ 1. Outlines of Jaina Philosophy (1954) 10. जैन दर्शन (1959). 2. Outlines of Karma in 11. गणितानुयोग (1959) Jainism (1954) 3. Jaina Psychology (1957) 12. जैन आचार (1966) 4. Jaina Culture (1969) 5. Jaina Philosophy (1971) 13. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 12. 6. Prakrit Proper Names (1966-68) (1970-72) 7. Jaina Technical Terms 14. प्राकृत और उसका साहित्य (1966) (1981-84) 8. Jaina Theory of Knowledge 15. जैन धर्म-दर्शन (1973) (1995) 16. जैन धर्म-दर्शन : एक 9. Jaina Philosophy: An Introduction (1998) समीक्षात्मक परिचय (1999)