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जैन धर्म-दर्शन
बताने वाला दूसरा प्रकार है। ये दोनों प्रकार एक ही भाव को बताने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। जिस अर्थ का प्रतिपादन पहला प्रकार करता है उसी अर्थ का प्रतिपादन दूसरा प्रकार भी करता है। अन्तर है केवल वाक्यरचना का। दोनों प्रकार के वचनों का प्रयोग कैसे होता है, इसे उदाहरण द्वारा देख लें। पर्वत में अग्नि है, क्योंकि अग्नि के होने पर ही धूम हो सकता है। अग्नि-रूप साध्य की सत्ता होने पर ही धूमरूप साधन की उत्पत्ति हो सकती है। यह पहला प्रकार है। इसी अर्थ का प्रतिपादन दूसरी तरह से हो सकता है। पर्वत में अग्नि है, क्योंकि अग्नि के अभाव में धूम नहीं हो सकता। अग्निरूप साध्य के अभाव में धूमरूप साधन के अभाव का प्रतिपादन करने वाला दूसरा प्रकार है।।
परार्थानुमान के अवयव-अवयव के विषय में दार्शनिकों में मतभेद है । सांख्य परार्थानुमान के तीन अवयव मानते हैं-पक्ष, हेतु और उदाहरण । मीमांसक चार अवयवों का प्रयोग उचित समझते हैं—पक्ष, हेतु, उदाहरण और उपनय । नैयायिक पाँच अवयवों का प्रयोग आवश्यक मानते हैं-पक्ष, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । जैन दार्शनिक कितने अवयव अनिवार्य मानते हैं, इसका विश्लेषण आगमकालीन अवयव-चर्चा में किया जा चुका है। ज्ञानवान् को समझाने के लिए पक्ष और हेतु ही काफी हैं। मन्द बुद्धि वाले व्यक्ति को समझाने के लिए दस अवयवों तक का प्रयोग किया जा सकता है। साधारणतया पाँच अवयवों का प्रयोग होता है, अतः इनका स्वरूप समझ लेना ठीक होगा।
प्रतिज्ञा-साध्य का निर्देश करना प्रतिज्ञा है। जिस बात
१. साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा। -प्रमाणमीमांसा, २.१.११.
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