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________________ ४३० जैन धर्म-दर्शन • चिन्तन देव और यज्ञ की परिधि में सम्पन्न हुआ। पहले अनेक देवों की और बाद में एक देव की महत्ता स्थापित की गई । अपने सुख के लिए तथा शत्रुओं के नाश के लिए देवस्तुति का सहारा लिया गया एवं सजीव और निर्जीव वस्तुओं की यज्ञ में आहुति दी गई। यह मान्यता संहिता काल से लेकर ब्राह्मण-काल तक विकसित हुई । देवों को प्रसन्न कर अपनी मनोकामना पूरी करने के साधनभूत यज्ञकर्म का क्रमशः विकास हुआ तथा यज्ञ करने की प्रक्रिया धीरे-धीरे जटिल होती गई । " आरण्यक और विशेषतः उपनिषद्-काल में देवों और यज्ञकर्मों की महत्ता का अन्त निकट आने लगा । इस युग में ऐसे विचार उत्पन्न होने लगे जिनका संहिता व ब्राह्मण-ग्रन्थों में अभाव था। इन विचारों में कर्म अर्थात् अदृष्टविषयक नूतन चिन्तन भी दृष्टिगोचर होता है । उपनिषदों के पूर्वकालीन वैदिक ग्रन्थों में कर्मविषयक इस चिन्तन का अभाव है । उनमें अदृष्टरूप कर्म का स्पष्ट दर्शन नहीं होता। इतना ही नहीं, कर्म को विश्ववैचित्र्य का कारण मानने में उपनिषद् भी एकमत नहीं हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रारम्भ में विश्ववैचित्र्य के जिन अनेक कारणों का उल्लेख है उनमें कर्म का समावेश नहीं है । वहाँ काल, स्वभाव, नियति यदृच्छा, भूल और पुरुष ही निर्दिष्ट हैं । जिनकी यह मान्यता है कि वेदों अर्थात् संहिता ग्रन्थों में कर्मवाद का उल्लेख हैं वे वहते हैं कि कर्मवाद, कर्मगति आदि शब्द भले ही वेदों में न हों किंतु संहिताओं में कर्मवाद १. आत्ममीमांसा, पृ० ७६ ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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