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कर्मसिद्धान्त
का उल्लेख ही नहीं है, यह धारणा सर्वथा निर्मूल है। कर्मवाद के सम्बन्ध में ऋग्वेद-संहिता में जो मन्त्र हैं वे इस प्रकार हैं: __ शुभस्पतिः ( शुभ कर्मों के रक्षक), धियतिः ( सत्कर्मों के रक्षक), विचर्षणिः तथा विश्वचर्षणिः ( शुभ और अशुभ कर्मों के द्रष्टा ), विश्वस्य कर्मणो धर्ता (सभी कर्मों के आधार) आदि पदों का देवों के विशेषणों के रूप में प्रयोग हुआ है। कई मन्त्रों में यह स्पष्ट कहा गया है कि शुभ कर्म करने से अमरत्व की प्राप्ति होती है । जीव अनेक बार इस संसार में अपने कर्मों के अनुसार उत्पन्न होता है तथा मृत्यु को प्राप्त करता है। वामदेव ने पूर्व के अपने अनेक जन्मों का वर्णन किया है। पूर्व जन्म के दुष्ट कर्मों के कारण लोग पापकर्म करने में प्रवृत्त होते हैं इत्यादि उल्लेख वेदों के मन्त्रों में सष्ट हैं। पूर्व जन्म के पापकर्मों से छटकारा पाने के लिए मनुष्य देवों से प्रार्थना करता है। संचित तथा प्रारब्ध कर्मों का वर्णन भी मन्त्रों में है। इसी प्रकार देवयान एवं पितृ. यान का वर्णन तया किस प्रकार अच्छे कर्म करने वाले लोग देवयान के द्वारा ब्रह्मलोक को और साधारण कर्म करने वाले पितृयान के द्वारा चन्द्रलोक को जाते हैं, इन बातों का वर्णन भी मन्त्रों में है। जीव पूर्व जन्म के नीच कर्मों के भोग के लिए किस प्रकार वृक्ष, लता आदि स्थावर-शरीरों में प्रविष्ट होता है, इसका भी वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। "मा वो गुजेमान्यजातमेनो", "मा वा एनो अन्यकृतं भजेम" आदि मन्त्रों से यह भी मालूम होता है कि एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किये गये कर्मों का भी भोग कर सकता है जिससे बचने के लिए साधक ने इन मन्त्रों में प्रार्थना की है। यद्यपि साधारणतः
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