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जैन धर्म-दर्शन
जो जीव कर्म करता है वही उसके फल का भोग भी करता है। किन्तु विशेष शक्ति के प्रभाव से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है । '
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उपर्युक्त दोनों मतों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वेदों में कर्मविषयक मान्यताओं का अभाव तो नहीं है किन्तु यज्ञवाद एवं देववाद के प्रभुत्व के कारण कर्मवाद निरूपण एकदम गौण हो गया है। दूसरी बात यह है कि कर्म क्या है, कैसे उपार्जित होता है, किस प्रकार छूटता है आदि प्रश्नों का वैदिक संहिताओं में स्पष्ट समाधान नहीं है । उनमें अधिकांशतः यज्ञकर्म को ही कर्म मान लिया गया है तथा देवों की सहायता की अत्यधिक अपेक्षा रखी गई है । कर्मवाद का जो रूप जैन, बौद्ध एवं अन्य भारतीय दर्शनों में उपलब्ध होता है उसका वेदों में निःसन्देह अभाव है। जैन दर्शन में प्रतिपादित कर्मव्यवस्था का तो वेदों में क्या किसी भी भारतीय परम्परा में दर्शन नहीं होता। जैन परम्परा इस विषय में सर्वथा विलक्षण है ।
कर्मवाद का विकास- - वैदिक युग में यज्ञवाद और देववाद दोनों का प्राधान्य था । जब यज्ञ तथा देव की अपेक्षा कर्म का महत्त्व बढ़ने लगा तत्र यज्ञवाद एवं देववाद के समर्थकों ने इन दोनों वादों का कर्मवाद के साथ समन्वय करने की चेष्टा से यज्ञ को ही देव तथा कर्म बना दिया एवं यज्ञ से ही समस्त फल की प्राप्ति स्वीकार की । इस मान्यता का दार्शनिक रूप मीमांसा दर्शन है । वैदिक परम्परा में प्रदत्त यज्ञ एवं देवविषयक महत्त्व के कारण यज्ञकर्म के विकास के साथ-साथ
१. भारतीय दर्शन ( उमेश मिश्र ), पृ० ३६-४१.
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