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- जैन धर्म-दर्शन
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मृत्यु महावीर-निर्वाण से १७० वर्ष बाद हुई जबकि दिगम्बर मतानुसार भद्रबाहु का देहावसान महावीर-निर्वाण के १६२ वर्ष बाद हुआ।
श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भद्रबाहु नेपाल गये थे और बहुत दिनों तक वहीं पर तपस्या में लीन रहे थे। उसी समय दृष्टिवाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्थूलभद्र तथा अन्य साधु उनके पास गये थे।
दिगम्बर परम्परा भद्रबाहु के अन्य साधुओं के साथ दक्षिण भारत में जाने पर विश्वास करती है। वह मानती है कि चन्द्रगुप्त के शासनकाल ( ई० पू० ३२२-२६८ ) में जनसंघ के नायक भद्रबाहु थे। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। उन्होंने बारह वर्ष के भीषण अकाल की भविष्यवाणी की और बहुत से जैन साधुओं को साथ लेकर वे दक्षिण भारत में चले गये। वहां जाकर वे कर्नाटक के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर रहने लगे। भद्रबाहु की वहीं मृत्यु हुई। श्रमणधर्म का अनुयायी राजा चन्द्रगुप्त अपना राज-पाट छोड़कर श्रवणबेलगोला गया, वहाँ पर बहुत दिनों तक एक गुफा में तपस्या करता रहा और अन्त में वहीं पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। सम्प्रति :
जैनधर्म के प्रसार के लिये स्थूलभद्र के शिष्य सुहस्ती ने अशोक के पौत्र तथा उत्तराधिकारी राजा सम्प्रति को प्रभावित किया था। सम्प्रति के मन में जैनधर्म के विस्तार के लिये बड़ा उत्साह था। उसने सम्पूर्ण देश में अनेक जन-मन्दिर बनवाये। सुहस्ती के निर्देशन में उज्जैन
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