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जैन परम्परा का इतिहास
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में सम्प्रति ने एक बहुत बड़ा धर्मोत्सव किया । उस समय राजा ने जो श्रद्धा-भक्ति दिखाई उससे प्रभावित होकर उसकी प्रजा भी जैनधर्म की ओर आकर्षित हुई । राजा सम्प्रति ने बहुत से धर्मदूतों अर्थात् धर्मोपदेशकों को दक्षिण भारत में भेजा । उन्होंने लोगों को उन खाद्य पदार्थों तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं का ज्ञान कराया जिन्हें जैन साधु ग्रहण कर सकते हैं । इस प्रकार की तैयारी करके सम्प्रति ने अनेक जैनाचार्यों को प्रेरित किया कि वे जैन साधुओं को उन देशों में भेजें। इस प्रकार दक्षिण भारत के अन्ध्र और द्रमिल देशों में धर्मोपदेशक भेजे गये ।
खारवेल :
सम्प्रति के समय के आसपास ही कलिंग देश में खारवेल नामक राजा हुआ । उसके खण्डगिरि के शिलालेख से, जिसका समय करीब-करीब ई० पूर्व दूसरी शती का मध्य है, यह पता लगता है कि किस प्रकार उसने जैन साधकों को खूब दान दिया और उनके लिए पाषाणगृहों का निर्माण किया । आज भी उड़ीसा की खण्डगिरि, उदयगिरि और नीलगिरि पहाड़ियों में जैन गुफाएँ मिलती हैं। हाथीगुफा एक विशाल प्राकृतिक गुफा थी जिसका राजा खारवेल ने सुधार किया । उसमें खारवेल का एक भग्न शिलालेख मिला है जिसका प्रारम्भ जैन मंगलविधि से हुआ है ।
कालकाचार्य और गर्दभिल्ल :
ई० पूर्व प्रथम शताब्दी में, जबकि उज्जैन पर गर्दभिल्ल का शासन था, कालकाचार्य नामक एक प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए । उनकी बहन सरस्वती का, जो एक जैन साध्वी थी, गर्द - भिल्ल ने अपहरण कर लिया । कालकाचार्य ने बार-बार राजा
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