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जैन धर्म-दर्शन क्षण में घट की सारी अवस्थाएं उपलब्ध हो जाए। ऐसी अवस्था में अतीत, वर्तमान और अनागत का कोई भेद ही न रहे।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से स्वरूप और पररूप का विवेचन करना अनुचित न होगा। यद्यपि ऊपर के विवेचन में इनका समावेश हो जाता है तथापि विशेष स्पष्टीकरण के लिए यह उपयोगी होगा। घट का द्रव्य मिट्टी है । जिस मिट्टी से घट बना है उसकी अपेक्षा से वह सत् है। अन्य द्रव्य की अपेक्षा से वह सत् नहीं है। क्षेत्र का अर्थ स्थान है। जिस स्थान पर घट है उस स्थान की अपेक्षा से वह सत् है। अन्य स्थानों की अपेक्षा से वह असत् है। काल के विषय में कहा जा चुका है। जिस समय घट है उस समय की अपेक्षा से वह सत् है और उस समय से भिन्न समय की अपेक्षा से असत् है। भाव का अर्थ है पर्याय या आकारविशेष । जिस आकार या पर्याय का घट है उसकी अपेक्षा से वह सत् है । तदितर आका-: रों या पर्यायों की अपेक्षा से वह असत् है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से घट है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से घट नहीं है। कथंचित् या स्यात् शब्द का प्रयोग यही सूचित करने के लिए है। इससे प्रत्येक पदार्थ की मर्यादा का ज्ञान होता है। उसकी सीमा का पता लगता है। इसके अभाव में एकान्तवाद का भय रहता है । अनेकान्तवाद के लिए यह मर्यादा अनिवार्य है। दोष-परिहार :
स्याद्वाद का क्या अर्थ है व उसका दर्शन के क्षेत्र में कितना महत्त्व है, यह दिखाने का यथासम्भव प्रयत्न किया गया है। अब हम स्यावाद पर आने वाले कुछ आरोपों का निराकरण
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