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________________ सापेक्षवाद ३८३ 1 करना चाहते हैं । स्याद्वाद के वास्तविक अर्थ से अपरिचित बड़े-बड़े दार्शनिक भी उस पर मिथ्या आरोप लगाने से नहीं चूके । उन्होंने अज्ञानवश ऐसा किया या जानकर, यह कहना कठिन है । कैसे भी किया हो, किन्तु किया अवश्य । धर्मकीर्ति नेस्याद्वाद को पागलों का प्रलाप कहा और जैनों को निर्लज्ज ' बताया । शान्तरक्षित ने भी यही बात कही । स्याद्वाद जो कि सत् और असत्, एक और अनेक, भेद और अभेद, सामान्य और विशेष जैसे परस्पर विरोधी तत्त्वों को मिलाता है, पागल व्यक्ति की बौखलाहट है । इसी प्रकार शंकर ने भी स्याद्वाद पर पागलपन का आरोप लगाया । एक ही श्वास उष्णऔर शीत नहीं हो सकता । भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, यथार्थता और अयथार्थता, सत् और असत् अन्धकार और प्रकाश की तरह एक ही काल में एक ही वस्तु में नहीं रह सकते । इसी प्रकार के अनेक आरोप स्याद्वाद पर लगाये गये हैं । जितने आरोप लगाये गये हैं अथवा लगाये जा सकते हैं उन सब का हम एक-एक करके निराकरण करने का प्रयत्न करेंगे । १. विधि और निषेध परस्पर विरोधी धर्म हैं । जिस प्रकार एक ही वस्तु नील और अनील दोनों नहीं हो सकती, क्योंकि नीलत्व और : अनीलत्व विरोधी वर्ण हैं, उसी प्रकार विधि और निषेध परस्पर विरोधी होने से एक ही वस्तु में नहीं रह सकते । इसलिए यह कहना विरोधी है कि एक ही वस्तु भिन्न १. प्रमाणवार्तिक, १.१८२-१८५. २. तत्त्वसंग्रह, ३११-३२७. ३. शारीरकभाष्य २.३.३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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