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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
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किया तथा आचार्य सिद्धसेन, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्द्धन, रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणि आदि ने इसे मान्यता प्रदान की ।
जीतकल्प जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृति है। इसमें निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के विभिन्न अपराधविषयक प्रायश्चित्तों का जीत - व्यवहार ( परम्परा से प्राप्त एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत व्यवहार ) के आधार पर प्ररूपण किया गया है । सूत्रकार ने बताया है कि संवर और निर्जरा से मोक्ष होता है तथा तप संवर और निर्जरा का कारण है । प्रायश्चित्त तपों में प्रधान है अतः प्रायश्चित्त का मोक्षमार्ग की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है | इसके बाद सूत्रकार ने प्रायश्चित्त के निम्नलिखित दस भेदों का व्याख्यान किया है: १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. उभय, ४. विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६. तप, 9. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिक । इन दस प्रायश्चित्तों में से अन्तिम दो अर्थात् अनवस्थाप्य एवं पारांचिक अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर ( प्रथम भद्रबाहु ) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका लोप हो गया ।
पंचकल्प वर्तमान में अनुपलब्ध है । कुछ विद्वानों का मत है कि पंच कल्पसूत्र और पंचकल्पमहाभाष्य दोनों एक ही हैं ।
नन्दी और अनुयोगद्वार चूलिकासूत्र कहलाते हैं । चूलिका शब्द का प्रयोग उस अध्ययन अथवा ग्रन्थ के लिए होता है जिसमें अवशिष्ट विषयों का वर्णन अथवा वर्णित विषयों का स्पष्टीकरण किया जाता है । दशवैकालिक और महानिशीथ के अन्त में इस प्रकार की चूलिकाएं - चूलाएँ - चूडाएं उपलब्ध हैं । इनमें मूल ग्रन्थ के प्रयोजन अथवा विषय को दृष्टि में रखते हुए
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