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________________ ५२ जैन धर्म-दर्शन की अनुमति के बिना नाव में बैठना, इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव, भूतमहोत्सव आदि के समय स्वाध्याय करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय न करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना या उससे पढ़ना, शिथिलाचारियों को पढ़ाना अथवा उनसे पढ़ना आदि । बीसवें उद्देश में आलोचना एवं प्रायश्चित्त करते समय लगनेवाले विविध दोषों के लिए विशेष प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इस उद्देश के अन्त में तीन गाथाएं हैं जिनमें निशीथसूत्र के प्रणेता आचार्य विसागणि ( विशाखगणि) की प्रशस्ति की गई है। निशीयसूत्र जैनाचार-शास्त्रान्तर्गत निर्ग्रन्थ- दण्डशास्त्र का अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । उपलब्ध महानिशीथ भाषा एवं विषय की दृष्टि से बहुत प्राचीन नहीं माना जा सकता। इसमें यत्र-तत्र आगमेतर ग्रन्थों एवं आचार्यों के नाम भी मिलते हैं । यह छ: अध्ययनों एवं दो चूलाओं में विभक्त है । प्रथम अध्ययन में पाप-रूपी शल्य की निन्दा एवं आलोचना की दृष्टि से अठारह पापस्थानकों का प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अध्ययन में कर्मविपाक का विवेचन किया गया है। तृतीय एवं चतुर्थ अध्ययनों में कुशील साधुओं की संगति न करने का उपदेश है । इनमें मन्त्र-तन्त्र, नमस्कार - मन्त्र, उपधान, जिनपूजा आदि का विवेचन है। पंचम अध्ययन में गच्छ के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है । षष्ठ अध्ययन में प्रायश्चित्त के दस एवं आलोचना के चार भेदों का विवेचन है । इसमें आचार्य भद्र के गच्छ में पाँच सौ साधु एवं बारह सौ साध्वियाँ होने का उल्लेख है । चूलाओं में सुसढ आदि की कथाएँ हैं । तृतीय अध्ययन में उल्लेख है कि महानिशीथ के दीमक के खा जाने पर हरिभद्रसूरि ने इसका उद्धार एवं संशोधन Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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