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________________ ३२० जैन धर्म-दर्शन बाहर हो जायगा क्योंकि वह वैकालिक वस्तु का ग्रहण करता है। केवल वर्तमान के आधार पर अनुमान की भित्ति नहीं बन सकती। स्मृति यदि अतीत के अर्थ का ग्रहण करती हुई यथार्थ है तो प्रमाण है। जो लोग यह आग्रह रखते हैं कि वर्तमान पदार्थ का ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है, उनके विरोध में कोई यह भी कह सकता है कि अतीत के पदार्थ का ज्ञान ही प्रमाण है। कथनमात्र से यदि कोई बात सिद्ध हो जाती हो तो प्रमाण और अप्रमाण की परीक्षा ही व्यर्थ है । ज्ञान को प्रमाण इसलिए नहीं माना जाता है कि वह वर्तमान वस्तु का ग्रहण करता है या अतीत अर्थ को अपना विषय बनाता है या अनागत पदार्थ का चिन्तन करता है। ज्ञान वस्तु की यथार्थता का ग्राहक होने से प्रमाण माना जाता है। वह यथार्थता तीनों कालों में रहने वाली हो सकती है। विरोधी एक दोष और देता है। वह कहता है कि जो वस्तु नष्ट हो चुकी है वह ज्ञानोत्पत्ति का कारण कैसे बन सकती है ? जैन दर्शन पदार्थ को ज्ञानोत्पत्ति का अनिवार्य कारण नहीं मानता, यह वात अर्थ और आलोक की चर्चा के समय सिद्ध की जा चुकी है। ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न होता है। पदार्थ अपने कारणों से उत्पन्न होता है। ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि वह पदार्थ को अपना विषय बना सकता है। पदार्थ का ऐसा स्वभाव है कि वह ज्ञान का विषय बन सकता है। पदार्थ और ज्ञान में कारण और कार्य का सम्बन्ध नहीं है। उनमें ज्ञेय और ज्ञाता, प्रकाश्य और प्रकाशक, व्यवस्थाप्य और व्यवस्थापक का सम्बन्ध है। इन सब तथ्यों को देखते हुए स्मृति को प्रमाण मानना युक्तिसंगत है। स्मृति को प्रमाण न मानने पर अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि लिंग और लिंगी का सम्बन्ध-ग्रहण प्रत्यक्ष का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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