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________________ ज्ञानमीमांसा ३२१ विषय नहीं है । अनेक बार के दर्शन के बाद निश्चित होने वाला लिंग और लिंगी का सम्बन्ध स्मृति के अभाव में कैसे स्थापित हो सकता है ? लिंग को देखकर साध्य का ज्ञान भी बिना स्मृति के नहीं हो सकता । सम्बन्ध स्मरण के बिना अनुमान सर्वथा असम्भव है । । प्रत्यभिज्ञान - दर्शन और स्मरण से उत्पन्न होने वाला 'यह वही है', 'यह उसके समान है,' 'यह उससे विलक्षण है,' 'यह उसका प्रतियोगी है' इत्यादि रूप में रहा हुआ संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है ।" प्रत्यभिज्ञान में दो प्रकार के अनुभव कार्य करते हैं - एक प्रत्यक्ष दर्शन, जो वर्तमान काल में रहता हैं और दूसरा स्मरण, जो भूतकाल का अनुभव है । जिस ज्ञान में प्रत्यक्ष और स्मृति इन दोनों का संकलन रहता है वह ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है । 'यह वही घट है' इस प्रकार का ज्ञान अभेद का ग्रहण करता है । 'यह' प्रत्यक्ष दर्शन का विषय है और 'वही' स्मृति का विषय है । घट दोनों में एक ही है । अतः यह अभेदविषयक प्रत्यभिज्ञान है । 'यह घट उस घट के समान है' यह ज्ञान सादृश्यविषयक है । इसी ज्ञान को अन्य दर्शनों में उपमान कहा गया है । ' गवय गौ के समान है' यह शास्त्रीय उदाहरण है । 'भैंस गाय से विलक्षण है' इस प्रकार का ज्ञान विसदृशता का ग्रहण करता है । यह ज्ञान सादृश्यविषयक ज्ञान से विवरीत है । यह उससे छोटा है, यह उससे दूर है - इत्यादि ज्ञान भेद का ग्रहण करते हैं । यह ज्ञान अभेदग्राहक ज्ञान से विपरीत है । तुलनात्मक ज्ञान, चाहे वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो, प्रत्यभिज्ञान के अन्दर समाविष्ट हो जाता १. दर्शनस्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्त्रतियोगीत्यादिसंकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । - प्रमाणमीमांसा, १.२.४. २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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